मीमांसा दर्शन

परिचय

मीमांसा दर्शन के प्रणेता महर्षि जैमिनि हैं। यह छः आस्तिक दर्शनों में से एक है। यह विचारधारा न सिर्फ वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करती है, बल्कि वेदों पर आधारित भी है।

मीमांसा शब्द का शब्दकोशीय अर्थ है – गंभीर मनन और विचार। आँग्ल भाषा में इसका अर्थ है – investigation, consideration.

अर्थात् किसी विषय या संदर्भ पर गंभीरतापूर्वक किये गये विचार-विमर्श को मीमांसा कहते हैं – ‘मीमांसनं मीमांसा।’

कुमारिल भट्ट और प्रभाकर इसके प्रमुख दार्शनिक हुए हैं एवं इन्हीं के नाम पर इस दर्शन के दो उप-दर्शन विकसित हो गये। 

मीमांसा का प्रधान विषय धर्म है — “धर्मख्यं विषयं वक्तुं मीमांसायाः प्रयोजनम्।”

मीमांसा के अनुसार वेद ही धर्म के मूल हैं।

पूर्व-मीमांसा vs. उत्तर-मीमांसा

वेदों के दो भाग हैं —

  • एक, कर्मकाण्ड और
  • द्वितीय- ज्ञानकाण्ड।

ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक कर्मकाण्डों की मीमांसा या कर्मकाण्डों का वर्णन है, जबकि उपनिषद् ज्ञानमार्ग से सम्बंधित हैं। 

इस आधार पर मीमांसा के दो प्रकार हो गये –

  • एक, कर्ममीमांसा और
  • द्वितीय, ज्ञानमीमांसा।

वैदिक कर्मकाण्डों के युक्तिपूर्वक व्याख्या और प्रतिपादन करने वाली विचारधारा कर्म-मीमांसा कहलायी। दूसरी ओर ज्ञान के माध्यम से तत्त्व तक पहुँचने की मीमांसा करने वाली मत प्रणाली ज्ञान-मीमांसा कहलायी। दूसरे शब्दों में कर्म-मीमांसा वेद-विहित कर्मों को प्राथमिकता देती है तो वहीं ज्ञान-मीमांसा ज्ञान को प्राथमिकता देती है।

महत्त्व की बात यह है कि इन दोनों दर्शन प्रणालियों का स्रोत तो वेद ही है, पर अपवर्ग तक पहुँचने का मार्ग भिन्न है। कर्म-मीमांसा वेद-विहित कर्मकाण्डों की राह का चयन करती है तो ज्ञान-मीमांसा ज्ञान-मार्ग का।

कर्म-मीमांसा और ज्ञान-मीमांसा को क्रमशः पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा कहा गया है।

इस दर्शन को ‘पूर्वमीमांसा’ इसलिए नहीं कहा जाता कि यह उत्तर-मीमांसा से पहले अस्तित्व में आया; वरन् यहाँ पूर्व का अर्थ है कर्मकाण्ड मानव का पहला धर्म है और ज्ञानकाण्ड उसके बाद आता है।

पूर्व-मीमांसा के लिए मीमांसा शब्द प्रचलित हो गया जबकि उत्तर-मीमांसा के लिए वेदान्त शब्द।

‘पूर्व-मीमांसा’ का उद्देश्य वैदिक कर्मकाण्डों की दार्शनिक महत्ता को प्रतिपादित करना है। यह मत वेदों को अपौरुषेय और नित्य मानती है। 

उपनिषद् ( वेदांत ) को ‘उत्तर-मीमांसा’ कहा गया है और इसमें ज्ञानमार्ग का प्रतिपादन है।

ज्ञानकाण्ड की मीमांसा वेदांत-दर्शन में जबकि कर्मकाण्ड की मीमांसा हमें मीमांसा दर्शन में मिलती है। यही कारण है कि मीमांसा और वेदान्त को समान तंत्र ( allied system ) भी कहा जाता है; जैसे कि सांख्य-योग और न्याय-वैशेषिक।

मीमांसा के विभिन्न नाम

मीमांसा को निम्न अन्य नामों से भी जानते हैं –

  • पूर्व-मीमांसा – इस दर्शन को ‘पूर्वमीमांसा’ इसलिए नहीं कहा जाता कि यह उत्तर-मीमांसा से पहले अस्तित्व में आया; वरन् यहाँ पूर्व का अर्थ है कर्मकाण्ड मानव का पहला धर्म है और ज्ञानकाण्ड उसके बाद आता है।
  • कर्म-मीमांसा – वेद विहित कर्मों की मीमांसा के कारण।
  • जैमिनीय धर्ममीमांसा – वेद विहित कर्मों को महर्षि जैमिनि ने धर्म कहा है इसलिए यह नामकरण किया गया है।
  • यज्ञविद्या – यज्ञों का विस्तृत विवेचन होने के कारण।
  • द्वादशलक्षणी – जैमिनि सूत्र बारह अध्यायों में विभक्त है इसलिए इस दर्शन को ‘द्वादशलक्षणी’ भी कहते हैं।

मीमांसा साहित्य

साहित्य –

  • जैमिनि कृत ‘मीमांसा सूत्र।’
  • शबरस्वामी कृति ‘शबर-भाष्य।’ यह जैमिनि सूत्र पर लिखी गयी टीका है।
  • कुमारिल भट्ट कृत ‘तन्त्रवार्तिक’ और ‘श्लोकवार्तिक।’
  • मध्वाचार्य कृत ‘जैमिनीय न्यायमाला विस्तार।’

मीमांसा दर्शन का उद्देश्य

मीमांसा दर्शन का मुख्य उद्देश्य वैदिक कर्मकाण्ड की पुष्टि करना है। इसको मीमांसा दो प्रकार से करती है –

  • वैदिक विधि-निषेधों को स्पष्ट करती है और उनकी पारस्परिक संगति बिठाने के लिए व्याख्या-प्रणाली को निर्धारित करती है।
  • कर्मकाण्ड के मूल सिद्धांत का युक्तिसंगत प्रतिपादन करती है।

कर्मकाण्ड का सिद्धान्त

मूलभूत वैदिक कर्मकाण्ड के सिद्धान्त में कई बातें अन्तर्निहित हैं; यथा –

  • आत्मा मृत्यु के बाद भी विद्यमान रहती है और परलोक में कर्मफल भोग करती है।
  • कर्मफल को सुरक्षित रखनेवाली कोई शक्ति है।
  • वेद ( जिस पर कर्मकाण्ड आधृत है ) अभ्रांत या भ्रमरहित है।
  • यह संसार या जगत् सत्य है जबकि हमारा जीवन और कर्म स्वप्नमात्र है।

नास्तिक दर्शन ( चार्वाक, बौद्ध और जैन ) वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते हैं। बौद्ध दर्शन अनात्मवादी, क्षणिकवादी और अनित्यवादी है; अर्थात् वे जगत् की सत्यता और आत्मा के अस्तित्व को भी नकारते हैं।

कुछ उपनिषदों में तो इस विचार की आलोचना की गयी है कि स्वर्ग मनुष्य का परम लक्ष्य है और यज्ञ सर्वोत्तम है।

मीमांसकों ने इन सभी का खण्डन करते हुए कर्मकाण्ड के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं।

मीमांसा के प्रमुख सिद्धान्त

मीमांसा दर्शन को को हम सुविधा की दृष्टि  से तीन भागों में बाँटकर अध्ययन कर सकते हैं –

  • प्रमाण-विचार ( Epistemology )
  • तत्त्व-विचार ( Metaphysics )
  • धर्म-विचार ( Religion and Ethics )

प्रमाण विचार

वेदों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए मीमांसकों ने प्रमा, प्रामाण्य इत्यादि पर गंभीरता से विचार किया है। मीमांसा में ज्ञान-विचार बहुत ही गंभीर और सूक्ष्म है।

ज्ञान के रूप और साधन

मीमांसा दर्शन में दो प्रकार के ज्ञान माने गये हैं —

  • प्रत्यक्ष;
  • परोक्ष – परोक्ष ज्ञान के पुनः ५ प्रकार हैं —
    • अनुमान,
    • शब्द,
    • उपमान,
    • अर्थापत्ति और
    • अनुपलब्धि।

इस तरह मीमांसा में कुल ६ प्रमाणों की स्वीकार्यता है।

अंतिम प्रमाण ( अनुपलब्धि ) को केवल भट्टमीमांसक मानते हैं, प्रभाकर नहीं।

मीमांसकों का प्रत्यक्ष और अनुमान सम्बंधित विचार नैयायिकों जैसा ही है।

प्रत्यक्ष प्रमाण

प्रत्यक्ष ज्ञान केवल सत् पदार्थों का हो सकता है। किसी ज्ञानेन्द्रिय के साथ सत् ( वर्तमान ) पदार्थ या विषय का सम्पर्क होने पर ही प्रत्यक्ष या यथार्थ ज्ञान आत्मा को हो सकता है। इस तरह के ज्ञान को सभी दोषों से मुक्त माना गया है। कुमारिल भट्ट ने साक्षात् प्रतीति को प्रत्यक्ष ज्ञान बताया है — “साक्षात् प्रतीति प्रत्यक्षः।” 

प्रभाकर के मत से प्रत्यक्ष ज्ञान वह है जिसमें विषय की साक्षात् प्रतीति हो — “साक्षात् प्रतीतिः प्रत्यक्षम्।” प्रभाकर के अनुसार विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा ( self ), ज्ञान ( cognition ) एवं विषय ( object ) का प्रत्यक्षीकरण होता है। अर्थात् वे त्रिपुटी-प्रत्यक्ष ( the triple perception ) के समर्थक हैं।

प्रत्यक्ष ज्ञान तब होता है जब इंद्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। 

दोनों विद्वानों ने छः इंद्रियों को मान्यता दी है जो इस प्रकार हैं —

  • पाँच बाह्य इंद्रियाँ
    • आँख
    • कान
    • नाक
    • जिह्वा
    • त्वचा
  • एक आंतरिक इंद्रिय
    • मन

दोनों विद्वान प्रत्यक्ष ज्ञान की दो अवस्थाएँ मानते हैं —

  • प्रथम अवस्था – निर्विकल्प प्रत्यक्ष
    • निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में हमें वस्तु की प्रतीति मात्र होती है। किसी वस्तु के सम्बन्ध में इतना ज्ञात होता है कि ‘वह है’ , जबकि उसके स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है।
  • द्वितीय अवस्था – सविकल्प प्रत्यक्ष
    • सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में वस्तु के विषय में ‘वह है’ के साथ-साथ उसके स्वरूप, आकार-प्रकार का भी ज्ञान होता है। जैसे – ‘वह गाय है’, ‘वह राम है’ इत्यादि।
परोक्ष / अप्रत्यक्ष प्रमाण
अनुमान प्रमाण

किसी पूर्व-ज्ञान के आधार पर वस्तुओं का अटकल लगाना अनुमान है।

पूर्वज्ञान के आधार पर किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान है। ऐसा ज्ञान केवल इन्द्रियों से ही नहीं होता, वरन् ऐसे साधन से होता है जिससे साध्य या अनुमानित वस्तु का नियत सम्बन्ध रहता है। साधन और साध्य के इस नियत सम्बन्ध को ‘व्याप्ति’ कहा गया है।

अनुमान में कम-से-कम ३ वाक्य होते हैं; और अधिक से अधिक ३ पद होते हैं। इन पदों को पक्ष, साध्य और साधन ( लिंग ) कहा जाता है। पक्ष उसे कहते हैं, जिसमें साधन ( लिंग ) का अस्तित्व मालूम है और साध्य का अस्तित्व प्रमाणित करना है। साध्य उसे कहते हैं, जिसका अस्तित्व पक्ष में सिद्ध करना है। साधन उसे कहते हैं, जिसका साध्य के साथ नियत या स्पष्ट साहचर्य ( सम्बन्ध ) हो और जो पक्ष में वर्तमान रहे। इसको इस प्रकार समझ सकते हैं :—

“पर्वत में आग है, क्योंकि उसमें धुआँ है। जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है।”

इसमें पर्वत पक्ष है, धुआँ साधन ( लिंग ) और आग साध्य है।

पर्वत में धुएँ को देखकर आग का पता चलता है, क्योंकि अग्नि और धुएँ में व्याप्ति का सम्बन्ध है। 

आनुमान को बोधगम्य या स्पष्ट बनाने के लिए उसे पाँच स्पष्ट पदों में व्यक्त किया जाता है :— प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन।

  1. प्रतिज्ञा –  इस पर्वत में अग्नि है।
  2. हेतु – क्योंकि इसमें धुआँ है।
  3. उदाहरण – जहाँ धुआँ है वहाँ आग है, जैसे- चूल्हे में आग।
  4. उपनय –  इस पर्वत में भी धुआँ है।
  5. निगमन – अतः इस पर्वत में भी अग्नि है।

इस तरह स्पष्ट है कि मीमांसा-दर्शन का अनुमान-विषयक प्रमाण विचार नैयायिकों जैसे ही हैं। परन्तु दोनों में सूक्ष्म भेद है। जहाँ न्याय दर्शन में अनुमान के लिए पाँच वाक्यों को आवश्यक माना गया है, वहीं मीमांसकों ने प्रथम तीन या अंतिम तीन वाक्यों को ही अनुमान के लिए पर्याप्त माना है।

उपमान प्रमाण

उपमान ( comparison ) का अर्थ है — तुलना। उपमान में समानता और तुलना के आधार पर एक वस्तु से दूसरी वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

मीमांसा और न्याय दोनों दर्शनों में उपमान को स्वतंत्र प्रमाण माना गया है, परन्तु दोनों मतों में इसे भिन्न प्रकार से व्याख्यायित किया गया है।

मीमांसा का उपमान नैयायिकों से भिन्न है। न्याय दर्शन में किसी विश्वसनीय व्यक्ति द्वारा पूर्ववर्णित ज्ञान के आधार पर वस्तु की पहचान होती है जबकि मीमांसा में प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक है। मीमांसा में किसी आप्त वचन की आवश्यकता नहीं है, अपितु स्व-स्मृति के आधार पर ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

नैयायिकों के अनुसार यदि हमने कभी नीलगाय नहीं देखी है और कोई अन्य हमें उसके बारे में बता देता है। कालान्तर में जब हम नीलगाय को देखकर पूर्व-वर्णित आधार पर नीलगाय को पहचान लेते हैं, तो हमारा यह ज्ञान उपमान प्रमाण कहलाता है।

मीमांसकों के अनुसार जब हम पहले देखी गयी वस्तु के समान बाद में दूसरी वस्तु देखकर जान लेते हैं कि स्मृत-वस्तु प्रत्यक्ष- वस्तु के समान है, तभी उपमान प्रमाण होता है। जैसे कोई व्यक्ति पूर्व में देखी गयी गाय के अपने पूर्वज्ञान के आधार पर वर्तमान में देखी गयी नीलगाय से यह निष्कर्ष निकालता है कि, ‘गाय नीलगाय के समान होती है’ , तो यह ज्ञान उपमान कहा जाता है।

उपमान का स्वरूप :-

  • यह ज्ञान प्रत्यक्ष के वर्ग में नहीं आता है क्योंकि गाय का उस समय प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है।
  • यह स्मृतिजन्य ज्ञान के वर्ग में भी नहीं आता है क्योंकि उस समय गाय ज्ञान पहले हुआ था परन्तु वर्तमान विषय अर्थात् नीलगाय का सादृश्य पहले ज्ञात नहीं था। अतः यह सादृश्य-ज्ञान स्मृतिजन्य के वर्ग में भी नहीं आता है।
  • यह ज्ञान अनुमान भी नहीं है। ‘यह नीलगाय पूर्व में देखी गयी गाय के सदृश है’ इससे ‘पूर्व में देखी गयी गाय इस नीलगाय के सदृश है’ ऐसे अनुमान के लिए हमें ‘व्याप्ति-मूलक वाक्य’ की आवश्यकता है; जैसे – ‘सभी पदार्थ अपने सदृश पदार्थों के सदृश होते हैं।’ लेकिन यहाँ पर ऐसी व्याप्ति नहीं है। अतः यह ज्ञान कि ‘गाय नीलगाय के समान होती है’ अनुमान ज्ञान नहीं है।
  • यह ज्ञान शब्द प्रमाण के वर्ग में भी नहीं आता है।
  • अतः निष्कर्ष यह है कि उपमान एक स्वतंत्र प्रकार का ज्ञान है।

न्याय मत का खंडन :-

नैयायिक पहले ‘आप्तवाक्य’ से यह ज्ञात करते हैं कि गाय के सदृश या समान नीलगाय होती है। बाद में जब जंगल में उसको गाय सदृश कोई जीवधारी दिखायी देता है तब उसे ज्ञात होता है कि यह प्राणी गवय है। यही उपमान है।

दूसरी ओर मीमांसकों के उपमान में यह कहा गया है कि ‘यह जीवधारी गाय के समान है’ इसका ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से उसे पूर्व में हुआ रहता है और जब जंगल में कोई प्राणी उसे दिखता है जो गाय के समान दिखता है तब वह यह निष्कर्ष निकालता है कि ‘यह गाय सदृश जन्तु गवय है।’ इस प्रकार का ज्ञान शब्द प्रमाण की स्मृति के द्वारा होता है।

अतः यह ज्ञान कि ‘यह जन्तु गवय है’ अनुमान से मिलता है।

इसतरह नैयायिकों ने जिसे प्रमाण कहा है वह वास्तव में स्वतंत्र प्रमाण नहीं है।

शबर स्वामी का मत :-

उपर्युक्त उपमान विषयक मीमांसकों का मत नवीन मीमांसकों का है। शबर स्वामी का उपमान विषयक मत कुछ अलग है। उनका उपमान ज्ञान पाश्चात्य तर्कशास्त्र के सादृश्यात्मक / समरूपता / अनुरूपता ज्ञान ( Analogy ) जैसा है।

शबर स्वामी उपमान का उदाहरण इस तरह देते हैं; जैसे – मुझे यह अनुभव है कि मैं हूँ’, ठीक उसी तरह हम यह भी जान जान सकते हैं कि दूसरों को भी स्वयं की आत्मा का आत्मा का अनुभव होता है। मुझे इस तरह का ज्ञान है वह किस आधार पर है? यही उपमान है। अतः शबर स्वामी उपमान का लक्षण करते हैं ‘ज्ञात वस्तु के सादृश्य के आधार पर अज्ञात वस्तु का ज्ञान।’

शबर स्वामी का यह उपमान विषयक ज्ञान analogical argument से अलग नहीं जान पड़ता है।

यह ध्यान देनेवाली बात है कि सादृश्य को मीमांसकों ने एक स्वतंत्र पदार्थ के रूप में मान्यता दी है। सादृश्य को गुण के तहत नहीं रखा गया है, क्योंकि गुण में गुण नहीं होता है, हालाँकि दो गुणों में सादृश्य हो सकता है। इसको सामान्य अर्थात् जाति के अंतर्गत भी नहीं रखा गया है क्योंकि सामान्य ( जैसे – गोत्व ) सभी व्यक्तियों में ( जैसे – गायों में ) एक समान होता है। सादृश्य में ऐसी बात नहीं है।

सादृश्य का अर्थ पूर्ण ऐक्य अथवा तादात्म्य नहीं है, परन्तु अधिकांश विषयों में समानता से है।

शब्द प्रमाण

मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण का सर्वाधिक महत्व है। मीमांसकों ने शब्द प्रमाण के दो भेद बताये हैं —

  • एक, पौरुषेय – आप्त-वाक्य या आप्त-कथन पौरुषेय हैं। विश्वसनीय व्यक्तियों के वचन / कथन को आप्त वाक्य या कथन कहा जाता है।
  • द्वितीय, अपौरुषेय – वेद-वाक्य अपौरुषेय हैं। वेद को स्वतः प्रमाण माना गया है जोकि नित्य और समस्त ज्ञान का आधार है। ऋषि वैदिक मंत्रों द्रष्टामात्र है न कि रचयिता। वेद-वाक्य दो प्रकार के माने गये हैं —
    • सिद्धार्थ-वाक्य – जिससे किसी सिद्ध विषय का ज्ञान हो।
    • विधायक-वाक्य – विधायक अर्थात् वे वाक्य जो किसी क्रिया-विधि का निर्देशन करते हैं या क्रिया के लिए आज्ञापित करते हैं। विधायक वाक्यों में ही यज्ञीय विधि-विधानों का निर्देशन है। मीमांसक विधायक वाक्यों को ही सर्वाधिक महत्व देते हैं। सिद्धार्थ वाक्य वहीं तक मान्य हैं जब तक वे विधायक वाक्यों का समर्थन करते हैं।

प्रभाकर केवल वेद-वाक्यों को ही शब्द प्रमाण मानते हैं और आप्त-वाक्यों को अनुमान की श्रेणी में रखते हैं।

मीमांसकों ने शब्द को नित्य ( eternal ) माना है। इसकी न तो उत्पत्ति होती है न ही विनाश। शब्द का अस्तित्व अनादिकाल से है।

दूसरी ओर नैयायिकों के मत में शब्द को अनित्य ( non-eternal ) माना गया है, अर्थात् इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है।

अर्थापत्ति प्रमाण

अर्थापत्ति ( Inplication ) शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है — अर्थ और आपत्ति; जिसके क्रमशः अर्थ हैं — विषय और कल्पना। इस तरह अर्थापत्ति का अर्थ है — “किसी विषय की कल्पना करना।”

ज्ञात अर्थ की व्याख्या के लिये अज्ञात अर्थ की कल्पना अर्थात् जिसकी सहायता के बिना ज्ञात अर्थ की उत्पत्ति न हो सके उसे अर्थापत्ति ( Implication ) कहते हैं। जब कोई ऐसी घटना हमारी दृष्टि में आती है जिसे समझने में कुछ विरोध हो तब उस विरोध को समझने के लिए कोई आवश्यक कल्पना की जाती है।

उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति दिन में भोजन नहीं करता फिरभी वह स्वस्थ्य है। उपवास और शरीर के पुष्ट होने में विरोध दिखता है। इस विरोध को समझने के लिए हम कल्पना करते हैं कि क्योंकि उपवास और शरीर के पुष्ट होने में विरोध है, इसलिए वह अवश्य ही रात्रि में भोजन करता होगा। यही अर्थापत्ति है। अर्थापत्ति द्वारा हम जान लेते हैं कि वह रात्रि में भोजन करता है। मीमांसक इस ज्ञान को स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं।

अद्वैत-वेदान्त दर्शन में भी अर्थापत्ति को स्वतंत्र प्रमाण माना गया है।

अर्थापत्ति के दो भेद हैं –

  • दृष्टार्थापत्ति :
    • प्रत्यक्ष द्वारा मिले ज्ञान की व्याख्या के लिए जो कल्पना अर्थात् अर्थापत्ति की जाती है वह दृष्टार्थापत्ति है। उदाहरणार्थ उपर्युक्त उदाहरण जिसमें हम प्रत्यक्ष रूप से यह देखते हैं अमुक व्यक्ति दिन में भोजन नहीं करता फिरभी हृष्ट-पुष्ट है, तो हम उसकी व्याख्या के लिए यह कल्पना करते हैं कि वह रात्रि में भोजन करता है। यही दृष्टार्थापत्ति है।
  • श्रुतार्थापत्ति :
    • श्रुत ज्ञान ( सुनकर या शब्द ज्ञान ) से मिले विषय की व्याख्या के लिए जो कल्पना की जाती है उसे श्रुतार्थापत्ति कहते हैं। उदाहरणार्थ यदि कोई कहे कि ‘अमुक गाँव गंगा जी में है।’ अब इसका अर्थ यह नहीं हो सकता है कि कोई गाँव गंगा जी की धारा में बसा है। अतः यह कल्पना करनी होगी कि गाँव गंगा जी के किनारे या तट पर बसा है। यही कल्पना श्रुतार्थापत्ति है।
    • इसी प्रकार साधारण वाक्यांशों को सुनकर हम उसमें संगति बिठाने के लिए कुछ शब्द जोड़ते हैं अथवा शाब्दिक अर्थ में असंगति को देखकर जब हम उसमें संगति बिठाने के लिए ‘लाक्षणिक अर्थ’ की कल्पना करते हैं तो उसे भी श्रुतार्थापत्ति कहते हैं। उदाहरणार्थ यदि बहुत सारे लोग उपस्थित हों और उनमें से कुछ लोग टोपी भी लगाये हों तो यदि हम कहें कि ‘नीली टोपी को बुलाओ!’ तो इसका अर्थ हुआ कि जिस व्यक्ति ने नीली टोपी लगायी हुई है उस व्यक्ति को बुलाना है न कि निर्जीव टोपी को।

अर्थापत्ति और पूर्व-कल्पना :— 

पाश्चात्य तर्क-शास्त्र में कार्य-कारण सम्बन्ध की स्थापना के लिए पूर्व-कल्पना ( Hypothesis ) की जाती है। किसी उपस्थित विषय की व्याख्या हेतु वास्तविक कारण के अभाव में पूर्व-कल्पना की जीती है। जब उस पूर्व-कल्पना की सिद्धि हो जाती है तब उसे ( पूर्व-कल्पना ) कारण या सिद्धान्त में परिणत कर दिया जाता है।

प्रथमदृष्ट्या अर्थापत्ति पूर्व-कल्पना एक-जैसा प्रतीत होता है, परन्तु दोनों में स्पष्ट अंतर है —

अर्थापत्ति ( Implication ) पूर्व-कल्पना ( Hypothesis )
इसका प्रयोग किसी विरोधपूर्ण स्थिति की व्याख्या के लिए किया जाता है। इसके प्रयोग के लिए विरोधपूर्ण परिस्थिति का होना अनिवार्य नहीं है। अर्थात् इसका क्षेत्र अर्थापत्ति की अपेक्षा व्यापक है।
यह एक स्वतंत्र प्रमाण है। यह एक तरह का अनुमान है।
इसमें पूर्ण निश्चितता का भाव रहता है। इसमें पूर्ण निश्चितता का भाव नहीं रहता है।
अनुपलब्धि प्रमाण

उपलब्धि ( प्राप्ति ) के अभाव के अभाव को अनुपलब्धि ( Negation / Non-existence ) कहते हैं।  इसके विषय में हम किसी विषय के न होने ( अभाव ) का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उदाहरणार्थ ‘कोठरी में घट नहीं है’ यह ज्ञान हमें वहाँ घड़े की अनुपलब्धि से प्राप्त हुआ है। यह  ज्ञान हमें किसी अन्य प्रमाण से नहीं हो सकता है।

परन्तु किसी वस्तु का न होना अनुपलब्धि का प्रमाण नहीं हो सकता है। घने अन्धकार में हम घट नहीं देख पाते हैं। इसी प्रकार पाप, पुण्य, परमाणु, आकाश आदि भी दिखायी नहीं देते, किन्तु इसे हम अभाव नहीं मान सकते हैं।

अभाव का अर्थ है ‘जिस परिस्थिति में जो वस्तु होनी चाहिए, उसका न होना।’ इसको योग्यानुपलब्धि’ कहते हैं। 

अनुपलब्धि प्रमाण को कुमारिल भट्ट और उनके अनुयायी मानते हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि अनुपलब्धि को अद्वैत-वेदान्त में भी एक स्वतंत्र प्रमाण माना गया है।

प्रभारकर और उनके अनुयायी अनुपलब्धि को स्वतंत्र प्रमाण नहीं मानते हैं। प्रभाकर अभाव का बोध कराने के लिए किसी स्वतंत्र प्रमाण की आवश्यकता नहीं समझते हैं और वे केवल ५ प्रामणों को ही मान्यता देते हैं। इसके साथ-साथ सांख्य और  न्याय दर्शन में भी अनुपलब्धि को स्वतंत्र प्रमाण नहीं माना गया है।

प्रामाण्य विचार

स्वतः प्रामाण्यवाद

दोषरहित कारण-सामग्री के पर्याप्त होने पर जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह यथार्थ ज्ञान होता है। यह यथार्थ ज्ञान निश्चयात्मक / विश्वासजनक होता है और इसमें भ्रम / संशय का कोई स्थान नहीं है; जैसे — सूर्य के प्रकाश में हमें दृष्टिगोचर वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान।

ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान की पुष्टि के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं होती है। अतः ज्ञान की प्रामाणिकता उस ज्ञान की उत्पादक वस्तु में ही विद्यमान रहती है।

इसके विपरीत, जब उस ज्ञान की उत्पत्ति के लिए पर्याप्त कारण-सामग्री में दोष / त्रुटि होने पर ज्ञान उत्पन्न ही नहीं होता है; जैसे — पाण्डुरोगी को यथार्थ का ज्ञान नहीं होता है।

मीमांसकों का यह मत ‘स्वतः प्रामाण्यवाद’ कहलाता है। इसके अन्तर्गत दो बातें आती हैं —

  • ‘प्रमाणं स्वतः उत्पद्यते’ अर्थात् ज्ञान की प्रामाणिकता उसकी उत्पादक सामग्री में ही विद्यमान रहती है।
  • ‘प्रामाण्यं स्वतः ज्ञायते च’ अर्थात् प्रामाणिकता का ज्ञान हमें उस ज्ञान के उत्पन्न होते ही हो जाता है। किसी अन्य स्रोत से हमें इसकी परीक्षा नहीं कंपनी पड़ती।

यथार्थता या विश्वसनीयता ज्ञान का स्वभाव है।

न्याय दर्शन में ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए अन्य युक्तियों का सहारा लेना पड़ता है और इसे ‘परतः प्रामाण्यवाद’ कहा गया है। नैयायिकों के मत से ज्ञान का प्रामाण्य उसके उत्पादक कारण सामग्री के अलावा बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है। आगे समझाते हुए नैयायिकों का कहना है कि कोई प्रत्यक्ष ज्ञान प्रामाणिक है या अप्रामाणिक, यह इस पर निर्भर करता है कि वह ज्ञानेंद्रिय जिसके आधार पर वह ज्ञान प्राप्त किया गया है, वह ठीक है अथवा नहीं। नैयायिकों के अनुसार प्रत्येक ज्ञान का प्रामाण्य अनुमान से निश्चित होता है।

मीमांसा दर्शन इसका खंडन करता है। मीमांसक नैयायिकों के परतः प्रामाण्यवाद को ‘अनवस्था दोष’ ( infinite regress ) मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि ‘क’ के प्रामाण्य के लिए ‘ख’ को मानना पड़े और आगे ‘ख’ के प्रामाण्य के लिए ‘ग’ को मानना पड़े और यह क्रिया अंतहीन चलती रहे…। यही अनवस्था दोष दोष है। इसका परिणाम यह होगा कि प्रामाण्य सिद्ध ही नहीं होगा और जीवन असम्भव हो जायेगा। मीमांसक ज्ञान को ‘स्वतः प्रमाण’ और ‘स्वतः प्रकाश’ मानते हैं। मीमांसक वेदों को स्वतः प्रमाण मानते हैं।

भ्रम

मीमांसकों के भ्रम सम्बन्धी विचार से पूर्व तनिक प्रभाकर और कुमारिल के ज्ञान के सिद्धान्त ( Theory of Knowledge ) के भेद जान लेना आवश्यक है :—

  • प्रभाकर का ज्ञान सिद्धान्त ‘त्रिपुटी प्रत्यक्षवाद’ ( the triple perception theory ) कहलाती है। इसके अनुसार ज्ञान स्व-प्रकाशित होता है, फिरभी यह शाश्वत नहीं है। इसकी उत्पत्ति और विनाश होता है। ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करता है और यह ज्ञाता और ज्ञेय को भी प्रकाशित करता है। इस तरह प्रत्येक ज्ञान में तीन तत्त्व रहते हैं — ज्ञान ( cognition ), ज्ञाता ( subject ) और ज्ञेय (object )। आत्मा को ज्ञाता गया है और यह ज्ञाता विषय नहीं हो सकता है। जिस विषय का ज्ञान होता है उसे ज्ञेय कहते हैं। प्रत्येक ज्ञान में ज्ञान की त्रिपुटी — अर्थात् ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को प्रकाशित किया जाता है। ज्ञान स्वप्रकाशित होता है, परन्तु आत्मा और विषय प्रकाशित होने के लिए ज्ञान पर निर्भर करते हैं।
  • कुमारिल भट्ट का ज्ञान सिद्धान्त ‘ज्ञाततावाद’ कहलाता है। ये ज्ञान को ‘स्वयं प्रकाशित’ नहीं मानते हैं। इनके अनुसार ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। ज्ञान साक्षात् रूप से नहीं जाना जाता है। ज्ञान आत्मा का व्यापार है। यह एक तरह क्रिया है। ज्ञान न तो स्व-प्रकाशित होता है, न ही दूसरे ज्ञान के द्वारा ही प्रकाशित होता है, जैसा कि न्याय-वैशेषिकों का मानना है। ज्ञान का अनुमान ज्ञातता पर आधृत होता है। ज्ञान का अनुमान वस्तु के प्रकाशित होने से होता है। जैसे ही वस्तु प्रकाशित होती है, वैसे ही ज्ञातता के रूप में ज्ञान का अनुमान होता है। ज्ञान वस्तु को प्रकाशित करता है, जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान का अनुमान होता है। अतः ज्ञान न तो स्वतः प्रकाशित होता है और न ही दूसरों के द्वारा प्रकाशित होता है।

मीमांसा दर्शन में भ्रम का अस्तित्व अस्वीकार्य है। इस सम्बन्ध में दो मत हैं — अख्यातिवाद और विपरीत-ख्यातिवाद। दोनों मत मानते हैं कि भ्रम का प्रभाव ज्ञानी की अपेक्षा हमारे जीवन पर अधिक पड़ता है। दोनों भ्रम को अपवाद के रूप में ग्रहण करते हैं। जगत् का सामान्य नियम हैं कि प्रत्येक ज्ञान सत्य और यथार्थ होता है। इसी आधार पर मानव का दैनिक कार्य-कलाप चलता है। परन्तु कभी-२ इसमें जो अपवाद मिलता है, वहीं भ्रम है।

अख्यातिवाद

इस मत को प्रभाकर और उनके अनुयायी मानते हैं। सभी ज्ञान सत्य होते हैं। जिसे हम भ्रम समझते हैं उसमें दो प्रकार के ज्ञान का समावेश होता है। जैसे – रज्जु में सर्पाभास; इसमें हमें एक टेढ़ी-मेढ़ी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान और पूर्व में देखे गये सर्प की स्मृति, ये दोनों एकमेव हो जाती है। यहाँ दोनों बातें सत्य हैं। दोष केवल हमारी स्मृति का है। हम प्रत्यक्ष और स्मृति का भेद नहीं कर पाते और प्रत्यक्ष में स्मृति का आरोप करके रज्जु में सर्प का आभास कर लेते हैं। स्मृति-लोप के कारण हमें दोनों के भेद का पता नहीं चल पाता है। इसे ही अख्यातिवाद कहा जाता है जोकि भ्रम की सत्ता का निषेध करता है।

विपरीत ख्यातिवाद

कुमारिल भट्ट अनुसार कभी-२ मिथ्या वस्तु में सत्य की प्रतीति होने लगती है। रज्जु में सर्प के आभास की अवस्था में दोनों की ही सत्ता है। भ्रम केवल यह है कि हम दो अलग-२ पदार्थों में उद्देश्य-विधेय का सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं। विषय तो सत्य होता है परन्तु संसर्ग का भ्रम उत्पन्न हो जाता है। यह एक वस्तु में दूसरी वस्तु के रूप में गलत समझने का है, जोकि ज्ञान के कारणों में कुछ दोष के कारण उत्पन्न होता है और कालान्तर में दूर हो जाता है। परन्तु जब तक भ्रम की प्रतीति होती रहती है यह ज्ञान स्वयं में वैध रहता है। यही विपरीत ख्यातिवाद है। इसमें कार्यता की प्रतीति अकार्य में हो जाती है अर्थात् जिस तरह का ज्ञान होना चाहिए वह किसी दोष के कारण नहीं हो पाता है, अपितु वह दूसरी तरह का होता है। इसी विपरीत ज्ञान को ‘विपरीत ख्यात’ कहा गया है।

तत्त्व-विचार

पूर्व-मीमांसा का तत्त्व-विचार विलक्षण है। यह अनीश्वरवादी दर्शन है। इसमें आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन नहीं मिलता है। यह मात्र वेद की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है।

मीमांसकों का कहना है कि मन्त्र ( वेद मन्त्र ) ही सबकुछ है, वही देवता हैं; देवता की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। मीमांसकों के अनुसार ‘शब्द मात्रं देवता’ ( भट्ट दीपिका )।

इस दर्शन में कर्म के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि कर्म से फल की प्राप्ति होती है अतः कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त किसी ईश्वर या देवता को मानने की आवश्यकता ही क्या है।

मीमांसकों के अनुसार शब्द नित्य है जबकि नैयायिक शब्द को अनित्य मानते हैं।

सांख्य एवं पूर्व-मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं परन्तु दोनों वेदों को मानने के कारण आस्तिक दर्शन हैं। परन्तु यहाँ दोनों में सूक्ष्म भेद है –

  • सांख्य दर्शन में यह माना गया है कि प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन होता है।
  • मीमांसकों का मानना है कि वेद नित्य है अर्थात् वे वेदों को कल्पान्त में नष्ट न होनेवाला मानते हैं।

जर्मन विद्वान मैक्समूलर कहते हैं कि मीमांसा को दर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें धर्मानुष्ठान का विवेचन मिलता है और तत्त्व-विचार ( जीव, ईश्वर, बंधन, मोक्ष व उसके साधनों ) का विवेचन नहीं मिलता है।

अब एक-एक करके इनपर विचार करते हैं :—

जगत् और उसके विषय

मीमांसकों ने जगत् और विषयों को सत्य माना है इसका परिणाम यह हुआ कि वे बौद्धों के शून्यवाद और क्षणिकवाद साथ-साथ अद्वैत-दर्शन के मायावाद को स्पष्टतः नकार देते हैं।

इस दर्शन में जगत् और उसके समस्त विषयों की सत्यता की स्वीकार्यता है। प्रत्यक्ष विषयों के अतिरिक्त स्वर्ग, नरक, आत्मा और वैदिक यज्ञीय देवों के अस्तित्व को भी प्रमाणों के आधार पर मान्यता है। कर्म सिद्धान्त को यह मत मान्यता देता है। कर्म के अनुसार ही सृष्टि की रचना होती है।

इस मत में जगत् की सृष्टि और प्रलय की मान्यता नहीं है; अर्थात् संसार की न तो उत्पत्ति होती है, और न ही विनाश। केवल इसके मनुष्य तथा पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है। जगत् की सत्ता निरन्तर विद्यमान रहती है — ‘न कदाचित् अनीद्रिशम् जगत्।’ 

कुछ मीमांसक वैशेषिक के परमाणुवाद को भी मानते हैं, परन्तु यह उनके परमाणुवाद से भिन्न है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में परमाणुओं का संचालक ईश्वर है, परन्तु मीमांसकों ने परमाणुओं के संचालक के रूप में ईश्वर को नहीं मानते हैं। यह कर्म का सिद्धान्त का है जो उन्हें प्रवर्तित करता है और जीवात्माओं के कर्मफल भोग के लिए संसार की रचना होती है। इस तरह मीमांसा दर्शन अनेकवादी और वस्तुवादी है।

इहलौकिक यज्ञादि से एक अदृष्ट शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे ‘अपूर्व’ कहा गया है। यह ( अपूर्व ) कर्मफल प्राप्त कराने वाली शक्ति है, जो आत्मा में निवास करती है। यह भविष्य में व्यक्ति को उसके कृत कर्म का फल प्रदान करती है। हम जो इहलौकिक कर्म करते हैं उसका फल परलोक में प्राप्त कर सकते हैं। जगत् का संचालक ‘अपूर्व’ है।

पदार्थ

प्रभाकर ७ पदार्थों का उल्लेख करते हैं :—

  • द्रव्य ( substance )
  • गुण ( quality )
  • कर्म ( action )
  • सामान्य ( generality )
  • परतंत्रता ( inherence )
  • शक्ति ( force )
  • सादृश्य ( similarity )

इसमें से प्रथम पाँच — द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और परतंत्रता; वैशेषिक दर्शन के द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और समवाय से मिलते-जुलते हैं। जिसकों मीमांसा में परतंत्रता गया है, उसे वैशेषिकों ने समवाय कहा है।

वैशेशिकों के उपर्युक्त पाँच पदार्थों के अतिरिक्त मीमांसकों ने शक्ति और सादृश्य को भी मान्यता दी है।

शक्ति द्वारा कार्य की उत्पत्ति होती है। यह अदृश्य होती है। जैसे अग्नि में एक अदृश्य शक्ति होती है, जो वस्तुओं को जलाती है।

सादृश्य द्रव्य, कर्म, सामान्य और समवाय से अलग है। दृश्य वस्तुओं के समान गुणों एवं कर्मों को देखकर सादृश्य का प्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है।

विशेष तथा अभाव स्वतंत्र पदार्थ नहीं हैं। प्रभाकर कहते हैं कि विशेष को पृथकत्व से अलग मानना भ्रामक है। अनुपलब्धि को स्वतंत्र पदार्थ न मानने के कारण प्रभाकर अभाव को भी नहीं मानते हैं।

कुमारिल ने दो तरह के पदार्थ माना है — भाव और अभाव पदार्थ। इनको पुनः इस तरह विभाजित किया गया है :—

  • भाव पदार्थ
    • कुमारिल ने चार प्रकार के भाव पदार्थ माने हैं :-
      • द्रव्य
      • गुण
      • कर्म
      • सामान्य
    • कुमारिल की तरह प्रभाकर भी विशेष पदार्थ का खंडन करते हैं।
    • कुमारिल समवाय का भी निषेध करते हैं; साथ ही वे शक्ति और सादृश्य को भी स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते हैं।
  • अभाव पदार्थ
    • कुमारिल ने चार तरह के अभाव पदार्थ माने हैं :-
      • प्राग्भाव
      • प्राध्वंसाभाव
      • अत्यंताभाव
      • अन्योन्याभाव
    • अभाव सम्बंधित कुमारिल के विचार वैशेषिकों के अभाव-विषयक विचार से मिलता-जुलता है।

आत्मा, बन्धन और मोक्ष

आत्मा को मीमांसकों ने एक द्रव्य माना है। आत्मा चैतन्य का आश्रय है और यह नित्य, सर्वगत, विभु और व्यापक द्रव्य है। आत्मा ज्ञाता ( knower ), भोक्ता ( enjyoyer ) और कर्त्ता ( agent ) है। शरीर आत्मा का भोगायतन है, बाह्य वस्तुएँ भोग्य हैं और इन्द्रियाँ भोग कराने की साधन हैं।

आत्मा स्व-प्रकाशमान है, इसीलिए इसको ‘आत्म-ज्योति’ भी कहा गया है।

चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है, अपितु यह एक आगन्तुक गुण हैं जो मन और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न हो जाता है। अर्थात् आत्मा स्वभावतः अचेतन है।

मोक्ष की अवस्था में आत्मा सभी गुणों से शून्य हो जाती है अर्थात् मोक्षावस्था में आत्मा चेतना-शून्य हो जाती है। मीमांसकों के आत्मा सम्बन्धी विचार न्याय-वैशेषिकों के विचार से मिलते जुलते हैं।

आत्मा बुद्धि और इंद्रियों से भिन्न हैं, क्योंकि आत्मा नित्य है, जबकि बुद्धि और इंद्रिय अनित्य।

आत्मा विज्ञान-संतान से भी अलग है। आत्मा विज्ञान का ज्ञाता होता है, जबकि विज्ञान स्वयं को जानने में असक्षम हैं। इसके साथ ही विज्ञान को स्मृति भी नहीं हो सकती है, जबकि आत्मा स्मृति का कर्त्ता होता है।

आत्मा शरीर से पृथक् है, क्योंकि देह कभी भी ज्ञाता नहीं हो सकता है।

अनेकात्मवादको मीमांसा दर्शन में मान्यता है। 

आत्मा का ज्ञान कैसा होता है? 

  • प्रभाकर ज्ञान को आत्मा का गुण मानते हैं ( न्याय-वैशेषिक की तरह )। आत्मा ज्ञाता है एवं वह ज्ञाता के रूप में प्रकाशित होती है। प्रत्येक ज्ञान में त्रिपुटी ( ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान ) को प्रकाशित करने क्षमता होती है।
  • कुमारिल ने ज्ञान को आत्मा का परिणाम माना है। वे कहते हैं कि जैसे ही आत्मा पर विचार किया जाता है वैसे ही यह बोध हो जाता है कि ‘मैं हूँ।’ इसको ‘अहं-वित्ति’ ( self-consciousness ) कहा गया है।

जीवात्मा ही बन्धनग्रस्त होता है और उसे ही मोक्ष प्राप्त होता है। बन्धन और मोक्ष सम्बन्धी मीमांसकों के विचार न्याय-वैशेषिकों जैसे ही हैं। आत्मा का शरीर, इन्द्रियों और बाह्य पदार्थों से मुक्ति ही मोक्ष है। मीमांसक वेदान्त के मोक्ष सम्बन्धी विचार से असहमत हैं। वेदान्त में आत्मा मोक्ष की अवस्था में जगत् से परे हो जाता है। सांख्य-योग की तरह मीमांसक जगत् और आत्मा के सम्बन्ध को मिथ्या भी नहीं मानता है।

मीमांसा में संसार नित्य माना गया है और आत्मा की मुक्ति के बाद भी वह जगत् में बना रहता है। मोक्षावस्था में मात्र यह ज्ञान होता है कि आत्मा समस्त गुणों, सुख, दुःख, आनन्द, चैतन्य आदि से विहीन होकर शुद्ध द्रव्य के रूप में रह जाता है। किन्तु बाद में कुछ भाट्ट ( कुमारिल भट्ट ) मीमांसक मोक्ष की अवस्था को आनन्दमय मानने लगे।

ईश्वर का स्थान

महर्षि जैमिनि ने ईश्वर का उल्लेख नहीं किया है जो कि अंतर्यामी और सर्वशक्तिमान गुणों से सम्पन्न हो। न तो जगत्-सृष्टि हेतु और न ही कर्मफल देने के लिए ईश्वर की आवश्यकता मानी गयी है।

यहाँ पर देवताओं के गुण-धर्म की भी चर्चा नहीं हुई है। हाँ देवताओं को केवल यज्ञ-बलि-ग्रहणकर्त्ता के रूप में मान्यता दी गयी है। देवताओं की मात्र इतनी उपयोगिता है कि उनके नाम पर यज्ञ किये जाते हैं।

चूँकि मीमांसा में अनेक देवताओं को माना गया है, तो क्या इस आधार पर मीमांसा दर्शन को अनेकेश्वरवादी ( polytheist ) कहा जा सकता है? परन्तु इसको अनेकेश्वरवादी कहना भ्रा्तिपूर्ण है, क्योंकि देवताओं का अस्तित्व मात्र वैदिक मंत्रों में ही है। संसार में उनका कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है। न तो देवता-आत्मा सम्बन्ध स्पष्ट है और न ही देवताओं की स्वतंत्र सत्ता की बात की गयी है। देवताओं को उपासना का विषय तक नहीं माना गया है।

कुमारिल और प्रभाकर दोनों ने जगत् की सृष्टि और संहार के लिए ईश्वर की आवश्यकता ही नहीं महसूस करते हैं। मीमांसक ऐसी किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर को मान्यता नहीं देते जो स्रष्टा, पालक व संहर्ता हो।

कुमारिल ईश्वर को वेद-निर्माता भी नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि वेद को ईश्वर की कृति मानी जायेगी वेद संदिग्ध हो जायेंगे। वेद तो अपौरुषेय हैं, स्व-प्रकाश हैं और स्व-प्रमाण भी।

इसलिए कुछ विद्वानों के मतानुसार मीमांसा के देवताओं को महाकाव्य का अमर पात्र सदृश बताया है। वे आदर्श नायक कहे जा सकते हैं।

अतः मीमांसा निरीश्वरवादी है।

परन्तु बाद के मीमांसा अनुयायियों ने ईश्वर को स्थान देते हुए उसे कर्मफलदाता और कर्म-संचालक मान लिया।

प्रो० मैक्समूलर ने मीमांसा दर्शन को निरीश्वरवादी कहने पर आपत्ति की है क्योंकि — मीमांसा ने ईश्वर के सृष्टि-कार्य के विरुद्ध आक्षेप किया है, लेकिन इस आधार पर यह मानना कि मीमांसा अनीश्वरवादी है, सही नहीं है। सृष्टि के अभाव में भी तो ईश्वर को माना जा सकता है। मीमांसा दर्शन वेद आधृत है। वेद में ईश्वर का पूर्ण रूप से संकेत है। इसलिए मीमांसा को अनीश्वरवादी मानना असंतोषजनक है।

धर्म

कतिपय मीमांसकों के अनुसार स्वर्ग जीवन का परम लक्ष्य है। इस विचार के पोषक जैमिनि एवं शबर हैं। स्वर्ग एक ऐसा स्थान है जहाँ दुःख का नामोनिशान नहीं है और वहाँ शुद्ध सुख का वास है। स्वर्ग की प्राप्ति कर्म से होती है। कर्म यज्ञ, बलि आदि कर्मों से संचित होता है।

अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि कौन-२ से कर्म वांछनीय है और कौन से कर्म आवांछनीय?

  • इसके उत्तर में मीमांसकों ने कहा कि ‘धर्मानुकूल कर्म’ ही वांछनीय हैं।
  • मीमांसा दर्शन में धर्म का बहुत अधिक महत्व है।
  • जैमिनि के अनुसार ‘धर्म वह आदेश है जो मनुष्य को कर्म के लिए प्रेरित करता है( चोदना लक्षणोंऽर्थोधर्मः )
  • धर्म का ज्ञान केवल अपौरुषेय वेदों से होता है।
  • वेद जिसका विधान करते हैं या वेद-विहित कर्त्तव्य ही धर्म है और जिसका निषेध वह अधर्म है।
  • अतः करणीय और अकरणीय कर्मों का आधार वैदिक-वाक्य हैं।
  • मीमांसा दर्शन में वैदिक कर्मकाण्डों पर अत्यधिक बल देते हुए प्रत्येक व्यक्ति के लिए उन्हें अनिवार्य रूप से करणीय बताया गया है। वेद-विहित यज्ञों और उनके कर्मकाण्डों का ठीक-२ अनुष्ठान करने का उपदेश मीमांसक देते हैं।

मीमांसकों ने कर्म को इतना अत्यधिक महत्त्व दिया कि ईश्वर का स्थान ही गौण हो गया। ईश्वर के गुणों का वर्णन तक मीमांसकों ने नहीं किया है। मीमांसा में ईश्वर को मात्र इसलिए मान्यता है कि उनके नाम पर यज्ञादिक क्रियाएँ संपादित की जाती हैं।

कर्म का उद्देश्य किसी ईश्वरीय या दैवीय सत्ता को प्रसन्न या संतुष्ट करना नहीं बल्कि आत्मा को शुद्ध करना है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मीमांसकों ने इस विषय पर वैदिक परम्परा का उल्लंघन करती है। वैदिक यज्ञादिक अनुष्ठानों का उद्देश्य इन्द्रादिक देवताओं की संतुष्टि थी। संतुष्ट व प्रसन्न होकर देवता इष्ट-साधन और अनिष्ट का निवारण करते थे। दूसरी ओर मीमांसा में यज्ञादिक विधियों वैदिक आदेश मानकर करने को कहा गया है।

कर्म के तीन प्रकार बताये गये हैं — 

  • अनिवार्य कर्म- ये भी दो प्रकार के हैं :-
    • नित्य कर्म – जैसे; ध्यान, स्नान, संध्या, पूजा आदि।
    • नैमित्तिक ( विशेष ) अवसरों पर किये जाने वाले कर्म। जैसे; विशेष अवसरों पर सामूहिक स्नान, जन्म, विवाह, मृत्यु के समय किये जाने वाले कर्म।
  • ऐच्छिक कर्म- इसको काम्य कहा जाता है। ऐसे कर्म जो निश्चित फल की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाय। जैसे; पुत्रेष्टि यज्ञ, यज्ञ आदि।
  • निषिद्ध कर्म- इसको करने से पाप की प्राप्ति होती है।
    • प्रायश्चित कर्म – किये गये निषिद्ध कर्म के प्रायश्चित करने हेतु किये गये कर्म।

उपर्युक्त कर्मों में से अनिवार्य कर्म ( नित्य और नैमित्तिक कर्म ) को वेद का आदेश मानकर करना चाहिए। इस तरह मीमांसा दर्शन में निष्काम कर्म को ( Duty for duty’s Sake ) को धर्म माना गया है। कर्त्तव्य पालन मात्र इसलिए नहीं करना चाहिए वरन् इसलिए करना चाहिए कि हमें कर्त्तव्य करना है।

प्रारम्भिक मीमांसक धर्म में ही विश्वास करते थे और उनका आदर्श स्वर्ग की प्राप्ति थी। कालान्तर में मीमांसकों ने स्वर्ग के स्थान पर अपवर्ग ( मोक्ष ) को मान्यता दी। परन्तु यहाँ मोक्ष लिए ज्ञान के स्थान पर वैदिक कर्मकाण्डों के अनुष्ठान को साधन के रूप में मान्यता दी गयी है। ज्ञान को कर्मकाण्डों में सहायक माना गया है।

मीमांसा दर्शन में कर्म को ही महत्व देता है जो अपनी शक्ति ( अपूर्व ) से फल प्रदान करने में सक्षम है। इसके लिए मीमांसक ईश्वर की सत्ता को अनिवार्य नहीं मानते हैं। मीमांसकों का ईश्वर विषयक विचार स्पष्ट नहीं है। इस दर्शन का प्रधान लक्ष्य कर्म की महत्ता का प्रतिपादन करना है।

FAQ

मीमांसा दर्शन के कर्म सिद्धान्त और कांट के कर्म सिद्धान्त में क्या अंतर है? 

मीमांसकों की भाँति कान्ट ( Emanuel Kant ) भी यह मानते हैं कि कर्त्तव्य कर्त्तव्य के लिए ( Duty for duty’s sake ) होना चाहिए न कि भावनाओं या इच्छाओं के लिए। ऐसा इसलिए कि भावनाओं का उद्वेग मनुष्य को कर्त्तव्य पथ से डिगा भी सकता है।

इस समानता के बावजूद कांट का कर्त्तव्य सिद्धान्त, मीमांसकों के कर्त्तव्य सिद्धान्त से अन्तर रखता है :—

मीमांसा का कर्त्तव्य सिद्धान्त  इमैनुएल कांट का कर्त्तव्य सिद्धान्त 
इस दर्शन में फल ( कर्मफल ) वितरण के लिये ‘अपूर्व सिद्धान्त’ को मान्यता दी गयी है। कांट फल के वितरण के लिए ईश्वर की मीमांसा करते हैं।
यहाँ पर कर्त्तव्य के स्रोत के रूप में एकमात्र वेदवाक्यों को मान्यता दी गयी है। कांत ने कर्त्तव्य के मूल स्रोत को आत्मा के उच्चतर रूप ( Higher Self ) को मानते हैं।

 

मीमांसा दर्शन के कर्म सिद्धान्त और गीता के निष्काम कर्म में क्या समानता है?

मीमांसा दर्शन का कर्म सिद्धान्त गीता के निष्काम कर्म से मिलता-जुलता है। मीमांसकों का कहना है कि कर्त्तव्य को कर्त्तव्य मानकर ही करना चाहिए न कि किसी उपकार या प्रतिफल के लिए।

इसी तरह गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म का उपदेश देते हुए कहते हैं कि ‘कर्म करना ही तुम्हारा अधिकार है, फल की चिंता न करो।’ ( कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्। )

 

मीमांसा दर्शन में ‘अपूर्व सिद्धान्त’ क्या है? या वर्तमान में किये गये कर्म का फल भविष्य में कैसे मिलेगा?

मीमांसा दर्शन में कहा गया है कि इस जगत् की सृष्टि सी है कि प्रत्येक कर्म का फल मिलता अवश्य है। वेद विहित कर्त्तव्य या कर्म करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

जब यज्ञादिक कर्म सम्पादित किये जाते हैं शुभ कर्मों का संचय होता है। ये शुभ कर्म ही व्यक्ति को स्वर्ग या मोक्ष ले जाते हैं।

इन कृत कर्मों का फल बाद में या भविष्य में कैसे मिलता है इसकी व्याख्या के लिए मीमांसकों ने ‘अपूर्व सिद्धान्त’ का सहारा लिया।

अपूर्व सिद्धान्त ( Theory of potential energy ) में अपूर्व का शाब्दिक अर्थ है — वह जो पूर्व या पहले नहीं था। इस सिद्धान्त के अनुसार कृत कर्मों से एक अदृश्य शक्ति या उर्जा उत्पन्न होती है, जिसको मीमांसकों ने अपूर्व नाम दिया है। यह अपूर्व शरीर नाश ( मृत्यु ) के बाद भी नष्ट नहीं होता है। यह परलोक में आत्मा के कर्मफल का नियंता होता है। यही ( अपूर्व ) आत्मा के सुख-दुःख का निर्धारक होता है।

कुमारिल के अनुसार ‘अपूर्व’ एक अदृश्य शक्ति है जो आत्मा के अंदर उदित होती है।

कर्म की दृष्टि से ‘अपूर्व’ को ‘कर्म-सिद्धान्त’ कहा जाता है। अपूर्व सिद्धान्त के अनुसार हरेक कारण में शक्ति अंतर्निहित होती है जिससे फल निकलता है। बीज में ही ऐसी शक्ति अंतर्भूत होती है जो अनुकूल परिस्थिति में वृक्ष को जन्म देती है।

अपूर्व का सिद्धान्त ‘सार्वभौम’ है। इसको संचालित करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। यह स्वयंचालित होता है।

अपूर्व की सत्ता का बोध वेद-ज्ञान से होता है। इसके अतिरिक्त ‘अर्थापत्ति’ से भी अपूर्व के विषय में ज्ञान मिलता है।

अपूर्व सिद्धान्त की आलोचना :—

  • अपूर्व सिद्धान्त हर परिस्थिति में कर्मफल क्यों नहीं देता? जैसे प्रत्येक बीज से वृक्ष क्यों नहीं उदित होता है?
    • इसका प्रतिउत्तर मीमांसकों ने ऐसे दिया की अनुकूल परिस्थितियों में अपूर्व फल को देता है जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों में नहीं। इसे वे बाधा कहते हैं। बाधाओं से शक्ति का ह्रास होता है। जैसे मेघाच्छन्न आकाश से प्रकाश रश्मियाँ पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाती परन्तु मेघ हटते ही पृथ्वी आलोकित हो उठती है।
  • शंकराचार्य ने आपत्ति की कि किसी आध्यात्मिक शक्ति ( ईश्वर ) के अभाव में अचेतन अपूर्व संचालित नहीं हो सकता और अपूर्व के आधार पर कर्मफल की व्याख्या असंगत है।

 

मीमांसा दर्शन में चरम लक्ष्य स्वर्ग या मोक्ष में से किसे माना गया है?

प्रारम्भ में मीमांसकों ने स्वर्ग को अपना परम लक्ष्य बताया था। परन्तु कालान्तर में चरम लक्ष्य मोक्ष हो गया। कुमारिल और प्रभाकर ने भी इस पर विचार किया है।

आत्मा स्वभावतः अचेतन है। इसमें चैतन्य का संचार शरीर, इन्द्रिय व मन के संयोग से हो। मोक्ष की अवस्था में शरीर, इंद्रिय व मन से आत्मा का सम्पर्क टूट जाता है। परिणामस्वरूप आत्मा मोक्षावस्था में चेतनाशून्य हो जाती है। इस अवस्था में आत्मा के धर्म व अधर्म नष्ट हो जाते हैं। पुनर्जन्म का चक्र टूट जाता है, क्योंकि धर्म और अधर्म के लिए ही आत्मा का पुनर्जन्म होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा से धर्म व अधर्म दोनों के नष्ट हो जाने से उसका शरीर से सदैव के लिए सम्पर्क टूट जाता है।

मीमांसकों का मोक्ष दुःख और दुःख दोनों से परे है, अर्थात् वह अनन्द की भी आवस्था नहीं है। इस सम्बन्ध में कुमारिल का कहना है कि यदि मोक्ष को आनन्दमय माना जाये तो तब वह स्वर्ग के समान हो जायेगा और वह तो नश्वर है। जबकि मोक्ष नित्य है क्योंकि वह अभाव का रूप है। अतः मीमांसा में मोक्ष आनन्दरहित माना गया है।

मीमांसा का मोक्ष-विचार न्याय-वैशेषिकों से मिलते जुलते हैं। नैयायिकों ने के अनुसार मोक्ष की अवस्था आनन्दविहीन होती है अर्थात् आत्मा ज्ञान, सुख, दुःख से शून्य हो अचेतन अवस्था में रहती है।

मीमांसकों ने मोक्ष के लिए ज्ञान व कर्म से सम्भव बताया है।

 

प्रभाकर और कुमारिल के मोक्ष सम्बन्धी विचारों में समानता है या असमानता उल्लेख करें?

  • प्रभाकर ने काम्य और निषिद्ध कर्म को न करके जबकि कर्मों के अनुष्ठान एवं आत्मज्ञान को मोक्ष का साधन कहा है।
    • आत्मज्ञान मोक्ष हेतु आवश्यक है, क्योंकि आत्म-ज्ञान से धर्म-अधर्म के संचय को रोककर शरीर के आत्यन्तिक उच्छेद का कारण हो जाता है।
    • अतः मोक्ष हेतु ज्ञान और कर्म दोनों आवश्यक हैं।
  • कुमारिल के विचार से भी मोक्ष लिए काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग, जबकि नित्य व नैमित्तिक कर्म को अंगीकृत करना चाहिए।
    • अकेले न तो विहित कर्म के सम्पादन से मोक्ष मिलता है और न ही मात्र ज्ञान से वरन् दोनों के सम्मिलित प्रयास से मोक्ष मिलता है
  • इस तरह कुमारिल और प्रभाकर दोनों के मोक्ष सम्बंधी विचार अत्यधिक समान हैं।

 

मीमांसा दर्शन की आलोचना क्यों की जाती है?

यद्यपि मीमांसा दर्शन को षड्दर्शनों में स्थान प्राप्त है अर्थात् वेद सम्मत होने के कारण आस्तिक दर्शनों में स्थान प्राप्त है; फिरभी इसमें तत्त्व-ज्ञान और आध्यात्म-शास्त्र का अभाव पाया जाता है। यहाँ पर परम तत्त्व, जीव व जगत् का विवेचन नहीं मिलता है। डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में—

“As a philosophical view of the universe it is strikingly incomplete.”

Indian Philosophy 

मीमांसा एक दर्शन न होकर कर्म-शास्त्र है। इसमें कर्म के प्रकार एवं विधियों का उल्लेख हुआ है। यहाँ पर यज्ञ विधियों का वर्णन मिलता है। यह कर्मकाण्ड बनकर रह गया है और इसमें दार्शनिक विचारों का अभाव ( शून्य ) है।

मीमांसा को पूर्व-मीमांसा और वेदान्त को उत्तर-मीमांसा कहा गया है।

  • मीमांसा कर्म-काण्ड पर आधृत है, जबकि वेदान्त ज्ञान-काण्ड पर।
  • मीमांसा को पूर्व-मीमांसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह वेदान्त से पहले का शास्त्र है।
  • परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से मीमांसा इतना पूर्व नहीं है कि उसे पूर्व-मीमांसा कहा जाये, हाँ तार्किक दृष्टि से ठीक है।

यहाँ पर आत्मा सम्बन्धी विचार अविकसित है। मोक्ष में आत्मा अचेतन अवस्था में आनन्दविहीन हो जाती है। इस तरह मोक्ष का आदर्श उत्साह से विहीन है।

मीमांसकों का धर्म-विचार भी अविकसित है। वैदिक देवताओं का स्थान यहाँ गौण बना दिया गया है। वे निरर्थक से लगते हैं। कर्म-काण्ड इतना प्रभावी हो गया है कि ईश्वर का स्थान अविशेष सा हो गया है। डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में —“ऐसे धर्म में इस तरह की बात बहुत कम है जिससे हृदय स्पन्दित और प्रकाशित हो उठे।”

फिरभी यह कहना कि मीमांसा दर्शन महत्त्वपूर्ण है ठीक नहीं है। इससे हमें धर्म व कर्त्तव्य का बोध होता है। हिन्दुओं के धर्म-कर्म का विवेचना मीमांसा से मिलता है।

 

मीमांसा दर्शन के संस्थापक कौन हैं? या मीमांसा दर्शन के प्रणेता कौन हैं? या मीमांसा दर्शन के प्रवर्त्तक कौन हैं?

महर्षि जैमिनि।

मीमांसा दर्शन का अर्थ क्या है?

मीमांसा षड् आस्तिक दर्शनों में से एक है। इसको पूर्व-मीमांसा भी कहते हैं। इसके प्रणेता महर्षि जैमिनि हैं, जिनकी कृति जैमिनि सूत्र इसका आधारभूत साहित्य है।

मीमांसा में वेदों को प्रामाणिक माना गया है। मीमांसा में वैदिक कर्मकाण्ड की पुष्टि की गयी है। इसीलिए इसको कर्म-मीमांसा भी कहते हैं।

इसमें कहा गया है कि :—

  • आत्मा मृत्यु के बाद भी अस्तित्व में रहती है और स्वर्ग में अपने कृत कर्मों का फल भोगती है।
  • एक ऐसी उर्जा या शक्ति है जो कर्मफल का संवहन करती है जिसे मीमांसकों ने अपूर्व कहा है।
  • वेद अभ्रांत हैं।
  • यह जगत् सत्य है, जबकि जीवन और कर्म भी स्वप्नमात्र नहीं है।

यह दर्शन प्रणाली वैदिक संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों के तात्पर्य को समझने, उनका सही प्रकार से विनियोग और उपयोग जानने का दर्शन है। यह मानव के कर्त्तव्य निर्धारण में एवं जीव-जगत् के बारे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति में वेदों को अकाट्य प्रमाण मानता है।

मीमांसा कितने प्रकार के होते हैं?

मीमांसा दर्शन छः आस्तिक दर्शनों में से हैं। यहाँ आस्तिक का अर्थ है, वेद में विश्वास करने वाली विचार प्रणाली।

वेद के दो अंग हैं —

  • एक, कर्मकाण्ड
  • द्वितीय, ज्ञानकाण्ड

इन्हीं दोनों अंगों के आधार पर दो दर्शन प्रणालियों का विकास हुआ —

  • कर्मकाण्ड की मीमांसा करने वाली प्रणाली मीमांसा दर्शन कहलायी।
  • ज्ञानकाण्ड की मीमांसा करने वाली प्रणाली वेदान्त दर्शन कहलायी।

दोनों दर्शन मीमांसा कहलायी, इसलिए भ्रम को दूर करने के लिए कर्मकाण्डीय मीमांसा को पूर्व-मीमांसा कहा गया; जबकि वेदांत दर्शन को उत्तर मीमांसा कहा गया है।

इस नामकरण का तार्किक आधार भी है :—

  • वेदों के कर्मकाण्डी साहित्य ( वेद, ब्राह्मण ) की रचना पहले हुई है अतः मीमांसा के कर्मकाण्डीय विचार प्रणाली के लिए पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा ) शब्द उचित है। साथ ही कर्मकाण्डों पर आधृत होने के कारण इसको कर्म-मीमांसा भी कहा जाता है।
  • वैदिक साहित्यों में ज्ञानपक्ष ( वेदांत या उपनिषद् ) उत्तरवर्ती हैं इसलिए ज्ञान-मीमांसा मत प्रणाली को उत्तर मीमांसा और वेदांत दर्शन नाम दिया गया है।

 

मीमांसा स्कूल क्या है?

मीमांसा का शाब्दिक अर्थ है — समझना अथवा विश्लेषण करना। इसे पूर्व-मीमांसा भी कहा जाता है। कर्म-काण्डों को प्राथमिकता देने के कारण इसको कर्म-मीमांसा भी कहा गया है। इसके प्रणेता महर्षि जैमिनि हैं। यह वैदिक कर्मकाण्डों पर आधारित मत प्रणाली है। इसके अनुसार वेद विहित कर्म धर्म है, जबकि निषिद्ध कर्म अधर्म। वेद सम्मत कर्म करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

मीमांसा स्कूल में धर्म क्या है?

इस दर्शन में वेद-विहित कर्म को धर्म कहा गया है। वेद नित्य हैं, अपौरुषेय हैं और ज्ञान के भण्डार है। यज्ञ, बलि, हवन इत्यादि के वेदों में निर्देश हैं। इनके अनुष्ठान से मानव धर्म का वहन करता है। इस तरह वेद-सम्मत कर्त्तव्य ही धर्म है।

दूसरी ओर मीमांसा कहती है कि ऐसे कर्मों या कर्त्तव्यों को नहीं करना चाहिए जो वेद-असम्मत या वेद-निषिद्ध हों। अर्थात् वेदों द्वारा निषिद्ध कर्म ही अधर्म हैं।

अतः कर्त्तव्यता और अकर्त्तव्यता का आधार वैदिक वाक्य है।

उत्तम जीवन वह है जिसमें वेद-विहित कर्मों को करते हुए जीवनयापन किया जाये।

मीमांसा का पर्यायवाची क्या है?

गंभीर मनन, गंभीर विचार, विवेचन।

Investigation, consideration.

मीमांसा शब्द का क्या अर्थ है?

मीमांसा शब्द का शब्दकोशीय अर्थ है – गंभीर मनन और विचार। आँग्ल भाषा में इसका अर्थ है – investigation, consideration.

अर्थात् किसी विषय या संदर्भ पर गंभीरतापूर्वक किये गये विचार-विमर्श को मीमांसा कहते हैं – ‘मीमांसनं मीमांसा।’

 

भारतीय दर्शन

 

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