मानव उद्विकास ( Human Evolution )

भूमिका

मानव उद्विकास ( Human Evolution ) मुख्य रूप से मैदानी रहन-सहन के प्रति एक प्रकार से अनुकूलन की प्रक्रिया है। जिसमें मानव को कई चरणों से गुजरना पड़ा। यह अनुकूलन प्रक्रिया लाखों वर्षों तक चलती रही और यह अब भी अनवरत जारी है। अफ्रीका महाद्वीप को छोड़कर अन्यत्र मानव उद्विकास की प्रक्रिया उलझी हुई है। भारतीय संदर्भ में तो यह और भी जटिल हो जाती है।

मानव उद्विकास : वैश्विक परिदृश्य

पृथ्वी की आयु लगभग ४·६ अरब वर्ष है। भौमिक समय सारणी के अंतिम चरण को नूतनजीवी महाकल्प ( Cenozoic era ) कहते हैं। इसे दो भागों में बाँटा गया है : तृतीयक और चतुर्थक कल्प।

तृतीयक कल्प ( tertiary period ) का समयकाल आज से ६·५ करोड़ वर्ष से २० लाख वर्ष के मध्य आता है। इसे पाँच युगों में बाँटा गया है – पुरा-नूतन ( Palaeocene ), आदि-नूतन ( Eocene ), अल्प-नूतन ( Oligocene ), मध्य-नूतन ( Miocene ), और अति-नूतन ( Pliocene )।

चतुर्थक कल्प ( quarternary period ) का समयकाल आज से २० लाख वर्ष पूर्व से वर्तमान तक चल रहा है। चतुर्थक कल्प को दो युगों – अत्यंत नूतन और नूतनतम युग ( Pleistocene and Holocene epoch ) में बाँटा गया है। अत्यंत नूतन युग को हिम-युग ( ice age ) और नूतनतम युग को  हिम-युग के बाद ( post ice age ) भी कहते हैं। अत्यंत नूतन युग वर्तमान से २० लाख वर्ष पूर्व से शुरू होकर लगभग १०,००० ई॰पू॰ वर्ष पूर्व तक रहा। जबकि नूतनतम युग आज से कोई १०,००० ई॰पू॰ से शुरू होकर अब तक चल रहा है।

यद्यपि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत लगभग ३·५ अरब वर्ष पूर्व से मानी जाती है। मानव पूर्वज-परंपरा को अधिक से अधिक मध्य नूतन-युग ( Miocene epoch ) तक खींचा जा सकता है। भारत में शिवालिक निक्षेपों में प्राप्त रामापिथेकस के आधार पर जिसकी आयु १ करोड़ २० लाख वर्ष से लेकर ९० लाख वर्ष के मध्य आँकीं गयी है। परन्तु मानव पूर्वज ने आकर अत्यंत-नूतन काल में ही अपनी जैविक क्षमताओं को और अधिक परिपूर्ण करने के लिए स्वयं को वातावरण के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करने लगा। इस तरह कह सकते हैं कि मानवसम प्राणी का आविर्भाव पृथ्वी पर पूर्व-अत्यंत-नुतन युग ( pre-Pleistocene ) या आरंभिक अत्यंत-नुतन ( early-Pleistocene ) में हुआ।

लगभग ३·५ से २ करोड़ वर्ष के मध्य एक कपि-समूह उष्णकटिबंधीय वन से बाहर निकल आया जोकि कोई ३ या ४ फुट लम्बा था। इस निष्क्रमण का कारण संभवतः ‘जलवायु-परिवर्तन’ था। ये कपि समूह जंगल की सीमा पर मँडराते रहते थे और आगे चलकर मैदानी जीवन के लिए अनुकूलित हो गये। इस अनुकूलन प्रक्रिया में ‘तीन’ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए :—

( १ ) अर्ध-उत्तान मुद्रा ( semi erect posture ) में गमन,

( २ ) हाथों का मुक्त हो जाना, और

( ३ ) उपकरण प्रयोग।

‘मानव उद्विकास की शुरुआत मुख्यतः मैदानी जीवन के प्रति अनुकूलन की प्रक्रिया है।

उत्तान मुद्रा के कारण हाथ मुक्त हो गये। हाथों के मुक्त होने से मानव ने तोड़ने, जोड़ने और फाड़ने के कार्य में वह सिद्धहस्त होने लगा। हाथों का प्रयोग वह मस्तिष्क के आदेश पर करने लगा। वह उपकरण का निर्माता बना। इन क्रियाकलापों ने मानव संस्कृति का उदय हुआ। बदली खान-पान की आदतों तथा धरती पर ( मैदान अनुकूलन ) वास से मानवसम की थूथन छोटी हो गयी, खोपड़ी नीचे से चौड़ी हो गयी और मेरुदंड खोपड़ी के एक सिरे से हटकर उसके मध्य में आ गया। इन संयुक्त परिवर्तनों से उसकी बोली, ज्ञान भंडार और मस्तिष्क की क्षमता निरंतर बढ़ती गयी

आधुनिक मानव ( Homo sapiens sapiens ) के आविर्भाव को आज से लगभग १·१५ लाख वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में उत्तर पूरापाषाणकाल ( the late Stone Age or the upper Palaeolithic age ) के आसपास चिह्नित किया जा सकता है। अन्य मानवसम ( hominids ) की अपेक्षा इसका माथा / ललाट ( forehead ) चौड़ा और अस्थियाँ पतली थीं। आधुनिक मानव ने विभिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रस्तर उपकरण बनाये। परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि ये शारीरिक-संरचना की दृष्टि से बोलने में सक्षम थे या नहीं। ऐसा माना जाता है कि भाषा का जन्म लगभग ३५,००० ई॰पू॰ हुआ परन्तु अब इसे खिसकाकर लगभग ५०,००० ई॰पू॰ कर दिया गया है। आधुनिक मानव की मस्तिष्क क्षमता १२०० से २००० घन सेंटीमीटर है।

‘हाथ ने मस्तिष्क की सहायता से कार्य करने से विगत लगभग १० लाख वर्षों में मानव कूड़ा चुनने वाले से उठकर अत्यंत विकसित संस्कृति का निर्माता बन गया।’

२ करोड़ वर्ष के आस-पास कपि समूह दो वर्गों में विभाजित हो गया — एक, जो जंगलों में रह गयी वह रामापिथेकस ( Ramapithecus ) कहलायी और द्वितीय, जो वन से बाहर निकलकर मैदानी क्षेत्र के अनुकूल हुए वे ऑस्ट्रेलोपिथेकस ( Australopithecus ) कहलाये।

ऑस्ट्रेलोपिथेकस मानव का ‘आदि-पूर्वज’ बना और यह लगभग पूर्व-अत्यंतनूतन काल में प्रकट हुआ।

आरंभिक मध्य-अत्यंतनूतन काल में विश्व के अनेक भागों में अपेक्षाकृत विकसित मानव जाति का उदय हुआ जिसे हम पिथेकेंथ्रोपस ( Pithecanthropus ) अथवा इरेक्टस ( Erectus ) कहते हैं।

नियन्डरथल ( Nianderthals ) मानव का आविर्भाव मध्य-अत्यंतनूतन काल के अंत या उत्तर-अत्यंतनूतन काल के प्रारम्भ में हुआ। ये संभवतः प्रथम मानवसम प्राणी थे जिन्होंने न केवल हिमाच्छादित क्षेत्र की चुनौती को स्वीकार किया अपितु समशीतोष्ण क्षेत्रों में दूर-दूर तक जा पहुँचे।

आज से लगभग ३०,००० वर्ष पूर्व ‘आधुनिक मानव’ जिसे ‘प्रज्ञ मानव’ ( Homo sapien sapien )  कहा जाता है, का विकास हुआ। इनमें सम्मिलित हैं — क्रोमैगनन, चांल्सडेनी, ग्रीमाल्डी आदि। विगत ३०,००० वर्षों में मनुष्य सुकुमार बन गया क्योंकि वह वह शनैः शनैः आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आश्रित होता चला गया। मानव ने प्रकृति के साथ भौतिक अनुकूलन पर बल देना छोड़ दिया।

जीवाश्म वैज्ञानिकों ने मानव उद्विकास को ५ अवस्थाओं में देखा है परन्तु इनमें कोई सीधा और सरल संबंध नहीं है। ये पाँच अवस्थाएँ हैं :— रामापिथेकस, ऑस्ट्रेलोपिथेकस अफ्रीकेनस, होमो इरेक्टस, नियण्डरथल और प्रज्ञ मानव।

मानव उद्विकास शृंखला ( Human Evolution )
मानव उद्विकास शृंखला

रामापिथेकस ( Ramapithecus ) — भारत में शिवालिक निक्षेपों में प्राप्त रामापिथेकस के आधार पर जिसकी आयु १ करोड़ २० लाख वर्ष से लेकर ९० लाख वर्ष के मध्य आँकी गयी है। इसे निचले और ऊपर के जबड़ों के टुकड़ों से पहचाना जाता है जिसमें यदा-कदा दंत दिख जाते हैं। ये दंत आधुनिक कपि की अपेक्षा ऑस्ट्रेलोपिथेकस से मिलते-जुलते हैं। ऐसी चौड़ाई का संकेत मिलता है जो थूथनदार कपि में नहीं पायी जाती है।

ऑस्ट्रेलोपिथेकस अफ्रीकेनस ( Australopithecus africanus ) — यह हल्का और सुकुमार मानवसम प्राणी था। इसकी ऊँचाई ४२ से ५० इंच ( १०६·६८ से १२७ सेंटीमीटर ) तक और भार ४० से ७० पौंड ( १८·१६ से ३१·७८ किलोग्राम ) तक था। यह सीधा चलता था एवं इसकी पीठ संतुलन साधने हेतु झुका लेता था। कपि की तरह इसका चेहरा थूथनदार था। पैर छोटे थे और खोपड़ी मानव से बहुत मिलती-जुलती थी। इसके रदनक दंत ( canine teeth ) मनुष्यों के रदनक के समान छोटे थे। कृदंत दंत ( incisors teeth ) जबड़ों के साथ उर्ध्वाधर ( vertical ) थे जो कि मानव कृदंत के समान थे। कपियों के कृदंत बाहर की ओर निकले होते हैं। चौड़ी नाक, विकसित माथा और मस्तिष्क का औसत आयतन ४५० घन सेंटीमीटर था। दक्षिण अफ्रीका से प्राप्त इन प्रारूपों का समय ५० से ८·५ लाख वर्ष तक पुराना माना जाता है। मानव विकास के शृंखला में ऑस्ट्रेलोपिथेकस का आविर्भाव सर्वप्रमुख घटना माना गया है। इस शब्द ( Australopithecus ) को लैटिन से लिया गया है जिसका अर्थ है दक्षिणी वानर ( southern ape )। इसे अंतिम पूर्व-मानव ( hominid ) माना जाता है। इस प्रजाति में मानव और कपि ( नर-वानर ) दोनों के गुण थे। इसे ‘आद्य-मानव’ ( proto-human ) कहा जाता है।

होमो शृंखला — इसके तहत दो प्रजातियाँ प्रमुख हैं : एक, होमो हैबिलिस और द्वितीय, होमो इरेक्टस

  • होमो हैबिलिस ( Homo habilis ) — प्रथम महत्त्वपूर्ण मानव ‘होमो हैबिलिस’ था। होमो हैबिलिस का अर्थ है – हस्तकला में निपुण या कौशलयुक्त मानव। यह प्रथम मानव था जिसने औजार या उपकरण बनाये। इसकी मस्तिष्क क्षमता ५०० से ७०० घन सेंटीमीटर तक थी।
  • होमो इरेक्टस ( Homo erectus ) — इसे पिथेकेंथ्रोपस ( Pithecanthropus ) भी कहा जाता है। इसका अर्थ है — ‘सीधा चलने वाला कपि-मानव’। इसकी मस्तिष्क क्षमता में पर्याप्त विविधता पायी जाती है — ७७५ से १,३०० घन सेंटीमीटर। दृष्टि क्षमता बढ़ गयी थी। इसकी ऊँचाई लगभग ५ फुट थी। इसकी सबसे अच्छी विशेषता ‘व्यापक भौगोलिक वितरण’ थी। पुराने मानवसम प्राणी केवल अफ्रीका में पाये गये, परन्तु होमो इरेक्टस तरह-तरह के परस्पर विपरीत भौगोलिक वातावरणों में पाये गये हैं — अफ्रीका के उष्णकटिबंधीय मैदानों से लेकर चीन के समशीतोष्ण क्षेत्रों तक। इसका समयकाल १५ से ७·५ लाख वर्ष के बीच मानी जाती है। नये प्रकार के प्रस्तर औजार ( हस्त-कुठार ) और अग्नि के आविष्कार व प्रयोग का श्रेय इसे ही दिया जाता है।

नियण्डरथल ( Neanderthals ) — इसकी मस्तिष्क क्षमता लगभग आधुनिक मानव के समान थी। इसका समयकाल ४ से १ लाख वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इसका शरीर छोटा ( लगभग ५ फुट ऊँचा ), ललाट पतला और मस्तिष्क का आयतन १२०० से १८०० घन सेंटीमीटर था। इसका समयकाल आज से २·३ लाख वर्ष से ३०,००० वर्ष पूर्व तक माना गया है।

प्रज्ञ मानव ( Homo sapien sapien ) — अपने पूर्ववर्ती से अलग इसमें दो प्रमुख शारीरिक विशेषताएँ लक्षण प्रकट हुए : एक, उभरी हुई ठोड़ी का विकास और द्वितीय, खोपड़ी में उत्तल या गोलाकार अग्रभाग का विकास। कुछ गौड़ लक्षण भी विकसित हुए; जैसे – भ्रू-अस्थि, करोटि के ऊपर की अस्थि ( skull top bone ) आदि। प्रज्ञ मानव समूह में भी कुछ आंतरिक विषमता मिलती है। इस समूह से तीन प्रमुख मानव-प्रजातियों के विकसित होने के पूर्व संकेत मिलते हैं जो कि निम्न हैं – काकेशसी, मंगोलॉयड और निग्रॉयड।

मानव उद्विकास : भारतीय परिदृश्य

अफ्रीका को छोड़कर मानव उद्विकास उपर्युक्त पंच अवस्थाएँ पूर्ण रूप से अन्यत्र नहीं पायी जाती है। भारत में यह स्थिति और भी विलक्षण हो जाती है। मानव उद्विकास की अवस्थिति एक तो पुरापाषाणकाल की मिलती नहीं हैं दूसरे जो मध्य-पाषाणकाल के साक्ष्य मिलते हैं वे मूल-निवासी बनाम बाहरी आर्य आक्रमण जैसे औपनिवेशिक विभेदात्मक ऐतिहासिक लेखन पर गम्भीर प्रश्न खड़ा कर देते हैं।

यहाँ से हमें मानवसम प्राणी का अवशेष पोतवार के पठार ( पंजाब प्रांत, पाकिस्तान ) से मिला है जोकि लगभग १ करोड़, २० लाख वर्ष से ९० लाख वर्ष पुराने हैं। ये मानवसम रामापिथेकस और शिवापिथेकस के अवशेष हैं। इसमें मानवों ( hominids ) की कुछ लाक्षणिक विशेषताएँ हैं परन्तु ये वानरों ( apes ) की ही श्रेणी में आते हैं। रामापिथेकस का जो अवशेष मिला है वह मादा-खोपड़ी है। विद्वानों का मत है कि शिवालिक क्षेत्र से प्राप्त इस प्रजाति का प्रसार भारतीय उप-महाद्वीप में अन्यत्र नहीं हो सका और न ही इससे मानव का विकास हो सका। यह प्रजाति विलुप्त हो गयी।

हथनौरा, मध्य प्रदेश ( नर्मदा घाटी ) से सन् १९८२ में एकमेव मानव-वंशी जीवाश्म ( खोपड़ी ) मिला है। इसकी कपाल क्षमता होमो इरेक्टस के समान है। यद्यपि कुछ विद्वान इसे आद्यप्राज्ञ मानव ( Homo sapiens ) से संबंधित करते हैं।

हालाँकि होमो सेपियंस के जीवाश्म भारतीय उप-महाद्वीप में अन्यत्र नहीं मिले हैं।

हाँ श्रीलंका के फाह्यियान गुफा ( Fa-Hien cave ) से आधुनिक मानव ( Homo sapiens sapiens ) के अवशेष मिले हैं जोकि लगभग ३४,००० वर्ष पुराने हैं। फाह्यियान गुफा को पाहियांगला गुफा ( Pahiyangla cave ) भी कहते हैं। श्रीलंका में यह समय उत्तर अत्यंत नूतन युग ( late Pleistocene epoch ) और आरंभिक नूतनतम युग ( early Holocene epoch ) का है। फाह्यियान गुफा ( Fa Hien cave ) भारतीय उप-महाद्वीप में आरंभिक उत्तर अत्यंत नूतन युग ( early late Pleistocene epoch ) की है। इसकी कलाकृतियाँ ( artifacts ) लगभग ३१,००० वर्ष पुरानी हैं। आधुनिक मानव को लगभग ३४,००० वर्ष पुराना माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि भारत में मानव का प्रसार दक्षिणी से उत्तर की ओर हुआ न कि उत्तर से दक्षिण की ओर। लगभग ५०,००० वर्ष पूर्व अफ्रीका से सम्रुदी तटीय भागों से होता हुआ मानव दक्षिण भारत पहुँचा और फिर वहीं से यह उत्तर की ओर बढ़ा।

फिर भी एक प्रश्न उठता है कि यदि मानव उद्विकास के साक्ष्य भारतीय उप-महाद्वीप में अनुपलब्ध हैं तो जो उपकरण कश्मीर से लेकर कावेरी तक और असम से लेकर भुज तक मिले हैं उनका क्या? दूसरे शब्दों में, यह बात तो स्वीकार करनी पड़ेगी कि इस काल-खंड में कंकाल-अवशेषों पर विशेष अनुसंधान नहीं किये गये हैं। विभिन्न नदी अवक्षेपों में हमें पर्याप्त रूप से पशु जीवाश्म मिलते हैं। अतः इस तर्क में कोई बल नहीं है कि उष्णकटिबंधीय जलवायु जीवाश्मों व वस्तुओं के परिरक्षण हेतु अनुपयुक्त है। इस सम्बन्ध में यह बात उल्लेखनीय है कि ट्रिनिल ( Trinil, On the banks of Solo River, Jawa Island, Indonesia ) की प्रतिलब्धियाँ ( Finds ) भूमध्यरेखा के पास की है और केन्या की प्रतिलब्धियाँ भी भूमध्यरेखा के पास ही हैं। अतः इस सम्बन्ध में धैर्यपूर्वक अधिक गहन अनुसंधान की आवश्यकता है।

मानव उद्विकास : भारतीय प्रजातीय संकल्पना का सच-झूठ

बी०एस० गुहा ने प्रागैतिहासिक मानव अस्थिपंजरों के आधार पर ६ आदिम जातियों की पहचान की है :-
  • नेग्रिटो
  • प्रोटोऑस्ट्रेलॉयड
  • मंगोलियन
  • मेडीटरेनियन ( भूमध्यसागरीय )
  • पश्चिमी ब्रेकाइसेफलस
  • नार्डक

उपर्युक्त ६ जातियों को नृविज्ञानियों ( Anthropologist ) ने परंपरा के अनुसार भारत की जनसंख्या के चार मूल प्रजातीय उपभेद में समूहित किया है :

  • निग्रोटो (Negrito) अथवा नाटे, गोल-गोल सिर वाले, शिशु-सदृश किस्म के नीग्रो;
  • आद्य आस्ट्रेलियाई (Proto-Austroloid) अथवा मँझोले कद के, लम्बे सिर, चपटी नाक वाले काले-कलूटे प्रकार के;
  • काकेशसी (Caucassoids) अथवा ऊँचे कद के, मध्यम आकार के सिर, लंबी नाक और रोएँदार शरीर वाली क़िस्म; और
  • मंगोलाभ (Mangoloids) अथवा नाटे, चौड़े सिर, चपटी नाक और दरार जैसी आंखों वाली क़िस्म की प्रजाति।
तथाकथित आर्य लोगों को काकेशाभ से जोड़ा गया है और भारत के मूल निवासियों को आस्ट्रेलियाई और निग्रीटो के साथ। इसी तरह मंगोलॉयड को नए प्रवासियों के साथ जोड़ा गया है। अतः प्रस्तुत संदर्भ में यह निर्दिष्ट करना आवश्यक है कि नृविज्ञानियों ने, या यों कहिए कि पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ऐसी कोई अकेली विशेषता नहीं बताई है जिसके आधार पर किसी प्रतिलब्धि (find) को आर्य वर्ग से संबंधित माना जा सके।
मानव के शारीरिक प्ररूपों का सबसे प्रथम विवरण प्रयागराज, उत्तर प्रदेश के निकट सराय नाहर राय तथा उसके पड़ोस के बागाइखोर और लेखानिया क्षेत्रों में मध्य पाषाण युग से मिलता है। इनमें से अधिकांश कंकाल ऊँचे कद, चपटी नाक और चौड़े मुँह वाली प्रजाति का संकेत देते हैं। इनका सिर न तो बहुत लंबा है (दीर्घ-शिरस्कता जो कि विश्व की अधिकांश प्रतिलब्धियों की पुरापाषाणयुगीन विशेषता है), न चौड़ा है, वरन इन दोनों सीमाओं के बीच के आकार का है। इनकी आँखों के गड्ढे ठेठ चौकोर हैं, अत: आंखें छोटी-छोटी हैं। यह प्रजातीय प्ररूप भारत के चारों आधुनिक प्रजातीय प्ररूपों में किसी से भी मिलता-जुलता नहीं है, परंतु अत्यंत नूतन-युगीन कंकालों के अभाव में इन्हीं को भारत के पुरापाषाणकालीन मानव का निकटतम मानना होगा । दूसरे शब्दों में, जो नाटा निग्रीटो या आस्ट्रेलियाई समूह वर्तमान कबायली जनसंख्या का मुख्य प्रजातीय उपभेद है, वह उपर्युक्त प्ररूप से व्युत्पन्न नहीं हो सकता
मिर्जापुर में लेखानिया और बागाइसोर स्थानों पर मिलने वाला प्ररूप और भी नाटा है, अतः उसे आधुनिक विध्य जनजातियों का पूर्वज मानना अधिक युक्तिसंगत होगा।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में बागोर स्थल पर मिलने वाला प्रजातीय रूप कमोबेश मिर्जापुर के प्ररूप से मिलता-जुलता है।
दूसरे शब्दों में, हमें इसके पुराने से पुराने ज्ञात मानव इतिहास में ( १०,००० अद्य पूर्व – B.P, Before Present ) दो सुस्पष्ट प्रजातीय प्ररूपों के अस्तित्व की संभावना स्वीकार करनी होगी।
  • एक नार्ट से मँझोले कद वाली, आयतमस्तिष्क, चपटी नाक वाली किस्म पर्वतीय क्षेत्रों तक सीमित थी, और
  • दूसरी ऊंचे कद, लंबे सिर किंतु चपटी नाक और चौड़े मुंह वाली किस्म ने खुली नदी घाटियों को आबाद किया।

भारत की अधिकांश जनजातियाँ नवपाषाण काल के सूत्रपात से पहले उपलब्ध प्रजातीय समूहों की वंशज हैं— इस तर्क का अनुसरण करते हुए इस संभावना पर विचार करना होगा कि बागोर, लेखानिया और बागाइखोर एक सामान्यीकृत प्ररूप प्रस्तुत करते हैं जो आस्ट्रेलियाई के रूप में विकसित हुआ है।

परवर्ती मध्यपाषाणकालीन प्रतिलब्धि के नाते लंघनज (Langhnaj) उस सीमा तक विशेषीकरण का संकेत देता है, जिससे इस प्रजातिसमूह का विकास अवश्य हो सकता था। यहाँ मुखमंडल की अधिकांश विशेषताएँ आस्ट्रेलियाई से मिलती-जुलती है— केवल क़द और सिर इसका अपवाद है। कद ऊँचे से लेकर मँझोला तक था और सिर बहुत लंबा था जिसकी कपाल-क्षमता बहुत कम थी। इसका मुखमंडल छोटा किंतु चौड़ा होता है जिसमें थोड़ी-सी कूपिकीय उद्हनुता ( alveolar prognathism) देखने को मिलती है। इस प्ररूप को इन्हीं विशेषताओं के कारण श्रीलंका के बेड्डा कबायलियों के समान माना गया है जो कि अब लुप्त हो चुके हैं।
  • यदि मुखमंडल में ऊपर के ओष्ठ और निचले ओष्ठ के मध्य का हिस्सा सामने की ओर बाहर निकला हो तो इसको कूपिकीय उद्हनुता कहते हैं।
मध्यपाषाण काल और उसके बाद से मानव-प्ररूपों की विषमताएँ बहुत स्पष्ट होने लगती है। लंबे मुँह, साधारण नाक, आयतमस्तिष्क और नाटे कद वाला प्ररूप सबसे व्यापक और सुलभ प्ररूप हो जाता है। अतः एक व्यापक श्रेणी के रूप में इसे ‘भूमध्य-सागरीय प्ररूप’ की संज्ञा दी गई है।
नीग्रीटो रूप बहुत ही कम लोगों में और बहुत ही छिटपुट क्षेत्रों में पाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस देश में अभी तक उसके किसी पाषाणयुगीन पूर्वज का कोई पता नहीं चला है। परिणामतः जब तक ऐसा कोई अन्वेषण/अनुसंधान प्रकाश में नहीं आता, हमें उसको सुदूरपूर्व का परवर्ती मध्य पाषाणकालीन आप्रवासी मानना होगा । प्रसंगवश, एक प्रजातीय रूप के नाते नीग्रीटो न्यू गिनी में आज के कबायलियों में बहुत ही व्यापक रूप से पाया जाता है।
एक वैकल्पिक संभावना के रूप में अनेक गैर-विशेषज्ञों ने भारत में पाये जाने वाले नीग्रीटो उपभेद की आरंभिक सातवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक के अफ्रीकी दास व्यापार का परिणाम माना है। यह दृष्टिकोण विचारणीय नही है क्योंकि नीग्रीटो ऐसा रूप है जो अफ्रीकी नीग्रोसम रूप से बहुत भिन्न है। मूल अंतर यह है कि नीग्रीटो एक शैशवी रूप (infantile form) है जिसमें छोटा सिर पाया जाता है जबकि अधिकांश नीग्रोसम प्रजातियाँ लंबे सिर और ऊँचे से मँझोले कद वाली होती हैं।
अंततः यह बात ध्यान देने योग्य है कि लगभग लौह युग तक के अधिकांश कंकाल-प्ररूप अधूरे हैं। अतः वर्तमान भारत के मूल मानव प्ररूप से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। फिरभी हो, यह ध्यातव्य है कि सचमुच ऊंचे कद, लंबे चेहरे और नाक वाली प्रजाति इन प्रतिलब्धियों में से किसी में भी देखने को नहीं मिलती

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