महात्मा बुद्ध के उपदेश और शिक्षायें

महात्मा बुद्ध के उपदेश और शिक्षायें

परिचय

ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने अपने मत के प्रचार का निश्चय किया। ज्ञान की प्राप्ति से लेकर जीवन के अंतिम समय तक वो अपने मत के प्रचार-प्रसार में लगे रहे।

 

धर्मचक्रप्रवर्तन

ज्ञान को पा लेने के बाद महात्मा बुद्ध गया से ऋषिपत्तन / मृगदाव ( सारनाथ ) आये। यहाँ पर उन्होंने अपना पहला उपदेश दिया। इस प्रथम उपदेश को धर्मचक्रप्रवर्तन या धम्मचक्कापवत्तन कहा गया है। यह प्रथम उपदेश बुद्ध ने उन्हीं पाँच ब्राह्मणों को दिया जो उरुवेला में उनका साथ छोड़कर ऋषिपत्तन चले आये थे। बुद्ध का यह उपदेश “चार आर्य सत्य” ( चतारि आरिय सच्चानि ) कहा जाता है।

प्रतीत्यसमुत्पाद

प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों से मिलकर बना है :- प्रतीत्य और समुत्पाद। प्रतीत्य का अर्थ है किसी वस्तु के होने पर, समुत्पाद का अर्थ है किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति।

प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है ‘संसार की सभी वस्तुएँ किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई हैं और इस तरह वे इस पर निर्भर हैं’।

इस कार्य-कारण सिद्धान्त को महात्मा बुद्ध ने सम्पूर्ण जगत् पर लागू किया।

प्रतीत्यसमुत्पाद

 

चार आर्य सत्य

गौतम बुद्ध ने सर्वप्रथम “चार आर्य सत्य” ( चतारि आरिय सच्चानि ) का उपदेश दिया वे निम्न हैं :—

  • दुःख 
  • दुःख समुदाय
  • दुःख निरोध
  • दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा

 

दुःख

संसार में सर्वत्र दुःख ही व्याप्त है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, मृत्यु दुःख है, अप्रिय मिलन दुःख है और प्रिय वियोग भी दुःख है। जिसे हम सुख मानते हैं वह भी दुःख से भरा हुआ है क्योंकि हमें सदैव यह भय रहता है कि वह सुख समाप्त न हो जाये और यह भय भी दुःख है। साथ ही आनन्द की समाप्ति पर भी दुःख होता है। संसार की दुःखमयता को देखकर बुद्ध ने कहा कि, ‘सब्बं दुःखं’। 

 

दुःख समुदाय

प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। इस तरह दुःख का भी कारण होता है क्योंकि कोई भी वस्तु बिना कारण के नहीं हो सकती है। इसकी व्याख्या बुद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद से करते हैं। इसे कार्य-कारण सिद्धान्त अथवा हेतुवाद भी कहते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार दुःख का मूल कारण ‘अविद्या’ ( अज्ञान ) है। संसार के समस्त दुःखों का सामूहिक नाम ‘जरामरण’ है।

जरा-मरण से लेकर अविद्या तक दुःख समुदाय में १२ कड़ियाँ बतायी गयी है :— (१) जरा-मरण, (२) जाति अर्थात् शरीर धारण करना, (३) भव अर्थात् शरीर स्पर्श करने की इच्छा, (४) उपादान अर्थात् सांसारिक उपादानों से लिपटे रहने की की इच्छा, (५) तृष्णा, (६) वेदना, (७) स्पर्श, (८) षडायतन में शामिल हैं पञ्च इंद्रियाँ और मन का समूह, (९) नामरूप, (१०) विज्ञान अर्थात् चैतन्य, (११) संस्कार और (१२) अविद्या।

 

दुःख निरोध

दुःख का अंत किया जा सकता है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है और अगर इस कारण को नष्ट कर दिया जाय तो वस्तु का भी विनाश हो जायेगा। अर्थात् कारण समाप्त होने पर कार्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा।

अतः यदि दुःखों के मूल कारण अविद्या का नाश कर दिया जाय तो दुःख भी नष्ट हो जावेंगे। इस प्रकार दुःख का निरोध हो जायेगा। दुःख-निरोध को ही ‘निर्वाण’ कहा गया है और यही जीवन का परम लक्ष्य है। इसकी प्राप्ति से पुनर्जन्म रुक जाता है और दुःखों का अंत हो जाता है।

निर्वाण का अर्थ जीवन का अंत नहीं बल्कि दुःखों का नाश है। इसकी प्राप्ति जीवन काल में भी सम्भव है। बुद्ध ने इस अवस्था को ‘वर्णनातीत’ बताया है।

 

दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा

दुःख के विनाश का मार्ग या उपाय ही दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा है। इसके लिए बुद्ध ने ‘अष्टांगिक मार्ग’ बताया है :—

अष्टांगिक मार्ग

विद्वानों का मत है कि गौतम बुद्ध ने शील, समाधि और प्रज्ञा को ही दुःख-निरोध का साधन बताया था। ( डॉ० गोविन्द चन्द्र पाण्डेय कृत ‘The studies in the origins of Buddhism’ )। 

प्राचीन बौद्ध साहित्यों में इन्हीं तीन का उल्लेख है।

  • शील का अर्थ है — सम्यक् आचरण।
  • समाधि का अर्थ है — सम्यक् ध्यान।
  • प्रज्ञा का अर्थ है — सम्यक् ज्ञान।

शील और समाधि से प्रज्ञा प्राप्ति होती है जोकि सांसारिक दुःखों से छुटकारा पाने का मूल साधन है। कालान्तर में इसके ८ साधन स्वीकार कर लिए गये एवं इन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया।

  1. सम्यक् दृष्टि
  2. सम्यक् संकल्प 
  3. सम्यक वाक्
  4. सम्यक् कर्मान्त
  5. सम्यक् आजीव
  6. सम्यक् व्यायाम
  7. सम्यक् स्मृति
  8. सम्यक् समाधि

उपर्युक्त अष्टांगिक मार्ग को इस तरह वर्गीकृत किया जा सकता है :—

  • शील के अंतर्गत सम्यक् कर्मान्त और सम्यक् आजीव।
  • समाधि के अन्तर्गत सम्यक् व्यायाम और सम्यक् स्मृति।
  • प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प और सम्यक् वाक्।

 

मध्यम प्रतिपदा

इस अष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है। बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग के अंतर्गत अधिक सुखपूर्ण जीवन या अधिक काया-क्लेश दोनों को वर्जित किया है। उन्होंने इस सम्बन्ध में मध्यम प्रतिपदा ( मार्ग ) का उपदेश दिया है।

दस शील या शिक्षापद 

बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार और नैतिकता पर अधिक बल दिया गया है। दस शीलों का अनुपालन नैतिक जीवन का आधार है। इन दस शीलों को शिक्षापद भी कहा गया है।

  1. सत्य
  2. अहिंसा
  3. अस्तेय
  4. अपरिग्रह
  5. ब्रह्मचर्य
  6. असमय भोजन न करना
  7. व्यभिचार न करना
  8. मद्य का सेवन न करना
  9. सुखप्रद शय्या का त्याग
  10. स्त्री संसर्ग न करना

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