मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age )

भूमिका

मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age ) का समय वैज्ञानिक काल-निर्धारण के आधार पर १,५०,००० ई०पू० से ३५,००० ई०पू० के बीच बताया गया है। उपकरण प्रौद्योगिकी में पूर्व पुरापाषाणकाल की अपेक्षा अवश्य विकास हुआ परन्तु आरम्भिक मानव अभी भी शिकारी व खाद्य संग्राहक ही था। अपने पूर्ववर्ती चरण से इसके अन्तर का आधार है : प्रयुक्त औजार व इसके लिए कच्चे माल का प्रयोग।

भारत के विभिन्न भागों से जो फलक प्रधान  पुरापाषाणकाल ( Palaeolithic Age ) के उपकरण मिलते हैं उन्हें इस काल के मध्य में रखा जाता है। फलकों की अधिकता के कारण मध्य पूर्व पाषाणकाल को ‘फलक संस्कृति’ ( Flake culture ) की संज्ञा दी जाती है। इन उपकरणों का निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर के स्थान पर चर्ट, जैस्पर, फ्लिन्ट जैसे मूल्यवान पत्थरों से किया जाने लगा।

मध्य पुरापाषाणकाल : कच्चा माल व औजार प्रौद्योगिकी

मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age ) कई प्रकार से एक विलक्षण संस्कृति है। इसकी अनेक विशेषताओं से सबसे महत्त्वपूर्ण है :-

  • प्रयुक्त कच्चे माल में आमूलचूल परिवर्तन — पूर्व पुरापाषाणकाल के विपरीत — जब क्वार्टजाइट प्रमुख कच्चा माल था — मध्यपुरापाषाण काल में अधिकांश क्षेत्रों ने शत-प्रतिशत जैस्पर, चर्ट, या इसी तरह के चमकदार शैल अपना लिये गये।
  • प्रौद्योगिकी की बुनियादी विशेषता थी — शल्क-निर्मित औजार उद्योग ( the Flake-tool industry )। ये प्रस्तर उपकरण ( Stone tools ) शल्कों ( Flakes ) से बनाये जाते थे। ये शल्क ( पपड़ियाँ ) बाटिकाश्मों या कंकरों ( pebbles or cobbles ) से प्राप्त की जाती थीं।

प्रयुक्त कच्चे माल ( raw materials ) में बदलाव एक ऐसी घटना है जो मानवीय सांस्कृतिक व्यवहार की हमारी धारणा के विरुद्ध है और विलक्षण भी। इसलिए अनेक प्रागितिहासकारों ने भारत के मध्यपुरापाषाण काल की व्याख्या बाहर की सांस्कृतिक घुसपैठ के रूप में देने का प्रयत्न किया है। परन्तु वर्तमान काल में यह दृष्टिकोण अस्वीकार्य है क्योंकि ऐसे अनेक स्थल प्रकाश में आये हैं जहाँ कच्चे माल में कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिलता। वस्तुतः राजस्थान और आंध्र प्रदेश के कुछ इलाक़ों में मध्य पुरापाषाण काल को पूर्वपुरापाषाण काल के शल्क तत्त्व ( flake element ) से पृथक् करना कठिन हो गया है।

उपलब्ध कच्ची सामग्री ( available raw materials ), रूप और आकार दोनों दृष्टियों से इनमें क्षेत्रीय भेद भी पाये जाते हैं।

मध्य पुरापाषाणयुगीन उद्योग जहाँ कहीं पूर्व पुरापाषाणयुगीन उद्योगों से विकसित हुए हैं, वहाँ उस स्थल पर निरंतर आवास कायम रहा था।

इस संस्कृति के उपकरण-प्ररूप है :-

  • वेधक ( borers )
  • वेधक खुरचनी ( scraper borer )
  • फलक-जैसे स्थूल शल्क ( blade like thick flakes ), और
  • वेधनियाँ ( points ) जिनकी आवृत्ति बहुत कम है।

बहुत कम स्थलों पर छोटे-छोटे ऐशूली प्रकार के हस्तकुठारों का विवरण भी प्राप्त हुआ है ( सम्पूर्ण उद्योग में कहीं भी एक या दो से अधिक नहीं मिले हैं )।

विनिर्माण-तकनीक में पिछले सांस्कृतिक कालखंड से कोई सुस्पष्ट अंतर देखने को नहीं मिलता। दूसरे शब्दों में, क्रोड ( Core ) उपकरणों की प्रधानता लुप्तप्राय हो जाती है जबकि शल्क विनिर्माण और उसमे भी लवाल्वाई तकनीक का चलन बढ़ता हुआ लगता है

इस तरह मध्य पूर्वपाषाणकाल के औजारों के संदर्भ में कुछ प्रमुख बातें उभरकर आती हैं :-

  • छोटे और मध्यम आकार के हस्त-कुठार ( Handaxes ), विदारणियाँ ( Cleavers ) और विभिन्न प्रकार की खुरचनियाँ ( scrapers ), वेधनियाँ ( borers ) और छुरिकाएँ/चाकू ( knives ) सम्मिलित हैं।
  • इन प्रस्तर औजारों में वेधनियाँ और आरियाँ ( borers and awls ) शामिल हैं, जो मोटी पपड़ियों ( शल्कों ) को गहरा तराश कर बनायी जाती थीं।
  • खुरचुनियाँ ( scrapers ) कई तरह के पाये गये हैं; यथा — सीधी ( straight ), अवतल ( concave ) और उत्तल ( convex ) पार्श्वों / किनारों वाली।
  • तक्षणियाँ ( burins ) भी इस उद्योग से संबद्ध पाये गये हैं, परन्तु ये औजार इस काल ( मध्य पुरापाषाणकाल ) में इतने व्यापक रूप से फैले हुए नहीं थे, जितने कि इसके बाद के काल में।

मध्य पुरापाषाणकाल : स्थल

मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age ) अधिकांशरूप  से भारतीय नदियों के द्वितीय तलोच्चन निक्षेपों ( aggradational deposits ) से यह सांस्कृतिक सामग्री मिली है। यदि पुणे का एक नदी से उपलब्ध रेडियो कार्बन तिथियाँ का संकेत मानें तो यह संस्कृति ( मध्य पूर्वपाषाणकालीन संस्कृति ) आज से कोई ४०,००० वर्ष पहले तक प्रकट नहीं हुई थी।

मध्य पूर्वपाषाणकाल के उपकरण महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर आदि सभी प्रान्तों के विभिन्न पुरास्थलों से खोज निकाले गये हैं।

मध्य पुरापाषाणकाल के कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थल ये हैं :

  • मध्य प्रदेश में भीमबेटका ( रायसेन ), सोन नदी घाटी, नर्मदा के किनारे स्थित समनापुर।
  • महाराष्ट्र में नेवासा।
  • झारखंड में पलामू व सिंहभूमि।
  • उत्तर प्रदेश में चकिया ( वाराणसी ), सिंगरौली बेसिन ( मिर्जापुर ), बेलन नदी घाटी ( यहाँ से पूर्व पुरा पाषाणकाल से लेकर उत्तर पुरापाषाणकाल तक के क्रमिक अवशेष मिलते हैं )।
  • राजस्थान में बागन-बेरॉच-कादमली नदी घाटियों, पुष्कर।
  • गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र।
  • हिमाचल में व्यास-वानगंगा व सिरसा नदी घाटियाँ।
  • ऊपरी सिंध की रोहड़ी पहाड़ियाँ।

नेवासा ( महाराष्ट्र ) इस संस्कृति का प्ररूप स्थल है।

अब हमें मध्यपुरापाषाणकाल के स्थल उपलब्ध हैं जो प्रायः सम्पूर्ण देश से सम्बंधित हैं, हालाँकि उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में उतने स्थल नहीं हैं जितने प्रायद्वीपीय क्षेत्र में हैं। ऐसी मान्यता है कि इसका मुख्य कारण पंजाब में उपयुक्त कच्चे माल का अभाव है। यह सर्वथा सम्भव है कि अधिकांश जनसंख्या ने मध्यवर्ती और दक्षिणी वनों को इसलिए पसंद किया हो कि वहाँ जीवन निर्वाह के लिए पशु व वनस्पति खाद्य की प्रचुरता थी। हाल ही में सिंध और राजस्थान के मरुस्थलों में एक विशाल क्षेत्र का सर्वेक्षण किया गया है और वहाँ मध्यपुरापाषाणकालीन जीवनयापन के संकेत मिले हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यपुरापाषाणकालीन लोग पंजाब नहीं गये जबकि सिंध, राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश उनके अत्यंत लोकप्रिय विचरण-क्षेत्र थे।

जहाँ तक संस्कृति का सम्बन्ध है, जिस क्षेत्र में ओडिशा, उत्तरी आंध्र और विंध्याचल शामिल हैं और जो गंगा घाटी तक फैला हुआ है, वह सांस्कृतिक विशेषताओं की दृष्टि से कमोवेश एकजैसा प्रतीत होता है। यहाँ के उपकरण बड़े-बड़े शल्कों के बने हैं जिनके किनारों को बहुत कम तेज किया गया है। वेधनियाँ प्रायः अनुपस्थित हैं जब कि हर प्रकार की खुरचनियाँ इनका मुख्य विषय हैं। थोड़ेसे गँड़ासे और हस्तकुठार भी मिले हैं।

दूसरी ओर पश्चिमी क्षेत्र के अंतर्गत अर्थात् उत्तरी महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात में मध्यपुरापाषाण अधिक परिष्कृत हैं और उनमें कई बहुत बढ़िया नोकें बनी हैं। कुछ उपकरणों में कुंदे को बारीक करने के लिए दोनों ओर घिसाई की गई है। लवाल्वाई तकनीक पश्चिमी क्षेत्र में जितनी स्पष्ट है, उतनी पूर्व में नहीं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अब मध्यपुरापाषाणकालीन स्थल अफगानिस्तान, ईरान, ईराक और पाकिस्तान में भी मिले हैं। इनमें से अधिकांश अपने उपकरण-प्ररूपों की दृष्टि से पश्चिमी यूरोप की मोस्तरी संस्कृति ( Mausterian culture ) से खूब मिलते-जुलते है। हो सकता है भारत के पश्चिमी क्षेत्र का इन विदेशी संस्कृतियों से कुछ सम्पर्क रहा हो, परन्तु ऐसी किसी तुलना का प्रयत्न करने से पहले हमें अपने देश से अधिक पुष्ट आधार सामग्री अवश्य प्राप्त होनी चाहिए।

मोस्तरी संस्कृति ( Mausterian culture )

मोस्तरी संस्कृति पारम्परिक रूप से युरोप, पश्चिमी एशिया व उत्तरी अफ्रीका के आरम्भिक चतुर्थ हिमयुग ( अर्थात् Wurm glaciation ) से सम्बंधित है जिसका समय लगभग ४०,००० ई०पू० के आसपास निर्धारित किया गया है। इस संस्कृति के निर्माता नियंडरथल मानव ( Neanderthal man ) थे। मोस्तरी संस्कृति के औजार शल्कन तकनीक ( flaking technique) पर आधृत थे जिनका निर्माण लेवाल्वाई शल्कन तकनीक ( Levallois flaking technique ) से किया जाता था।

कुल मिलाकर यह संस्कृति मध्य पुरापाषाणकाल से जुड़ी हुई है जिसके निर्माता नियंडरथल मानव था। उनके औजार शल्क -आधारित ( flake-based ) थे जिसे लेवाल्वाई तकनीक ( Levallois technique ) से बनाया जाता था। इसका समय मोटे-तौर पर १,६०,००० से ३०,००० आद्य पूर्व ( BP – Before Present ) तक माना गया है।

इस संस्कृति का नाम फ्रांस के एक स्थान ले मॉस्टीयर ( Le Moustier ) के नाम पर रखा गया है।

पाषाणकाल : काल विभाजन

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