भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध

भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध

परिचय

भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध अति विशेष हैं। यहाँ से भारत के व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध प्राचीनकाल से ही रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि कुछ उत्साही भारतीयों ने यहाँ जाकर राज्यों की स्थापना भी की थी।

भौगोलिक दृष्टि से यह भारत से पूर्व, न्यू गिनी के पश्चिम, चीन के दक्षिण और आस्ट्रेलिया के उत्तर में स्थित है। इसे हम दो भागों में बाँट सकते हैं :-

  • हिन्द-चीन जोकि मुख्य भूमि है। इसमें वर्तमान म्यांमार, थाईलैण्ड, कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम शामिल है।
  • समुद्री भूमि जिसमें वर्तमान इंडोनेशिया के द्वीप ( सुमात्रा, जावा, बाली आदि ), सिंगापुर, मलय प्रायद्वीप, बोर्नियो द्वीप, पूर्वी तिमोर, फिलीपीन्स द्वीप समूह जैसे द्विपीय भूभाग सम्मिलित हैं।

वर्तमान में इनमें से १० देशों ने मिलकर ‘आसियान संगठन’ बनाया हुआ है। इनके नाम हैं — म्यांमार, थाईलैण्ड, कम्बोडिया, लाओस, वियतनाम, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, ब्रुनेई और फिलीपीन्स। वर्तमान में भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध के संदर्भ में आसियान संगठन इस भूमिका ( सम्पर्क ) का निर्वहन कर रहा है।

प्राचीन काल में भारतवासी इस क्षेत्र को ‘सुवर्णभूमि’ या ‘सुवर्ण-द्वीप’ के नाम से पुकारते थे। यहाँ से गर्म मसाले, स्वर्ण, बहुमूल्य धातुओं, खनिजों आदि के लिये प्रसिद्ध था। प्राचीन ग्रंथों में सुवर्ण द्वीप के विभिन्न नाम मिलते हैं; जैसे —  रुप्यक द्वीप, ताम्र द्वीप, लंकाद्वीप, शंखद्वीप, कर्पूरद्वीप, नारिकेलद्वीप आदि।

पूर्व काल से ही भारतीयों ने इस क्षेत्र से व्यापारिक सम्बन्ध बनाये और कुछ हिन्दू राज्यों की स्थापना भी की थी।

जल और थल दोनों ही मार्गों से भारतीय स्वर्ण द्वीप जाया करते थे।

  • जल मार्ग — ताम्रलिप्ति जैसे प्राचीन बंदरगाह से भारतीय स्वर्ण द्वीप जाते थे।
  • स्थल मार्ग — यह मार्ग बंगाल, असम और ओडिशा होकर जाता था।
भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध
भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया

साक्ष्य

साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्यों से भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सम्बन्ध की जानकारी मिलती है। साहित्यिक साक्ष्यों में जातक ग्रंथों, अर्थशास्त्र, कथासरित्सागर, पुराणों, बृहत्कथा, मिलिन्दपण्हों, निद्देश, पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी, टॉलेमी का भूगोल आदि शामिल हैं।

सिंहली इतिवृत्त दीपवंश और महावंश के अनुसार ‘सोण’ और ‘उत्तर’ ने सुवर्ण भूमि में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। जातक ग्रंथों में ‘मरुकच्छ बन्दरगाह’ का उल्लेख है जहाँ से व्यापारी सुवर्ण द्वीप जाते थे। रामायण में जावा द्वीप को ‘यवद्वीप’ कहा गया है। पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी और टॉलेमी का भूगोल में स्वर्ण द्वीप को ‘छैरसे’ कहा गया है। हुएनसांग, इत्सिंग और अल्बेरुनी भी स्वर्ण द्वीप का उल्लेख करते हैं।

प्रमुख हिन्दू राज्य

कम्बुज ( कम्बोडिया )

चीनी साहित्य में इसे ‘फूनन’ या ‘फूनान’ कहा गया है। इसकी स्थापना ईसा की प्रथम शताब्दी में ब्राह्मण वंशीय ‘कौण्डिन्य’ ने की थी। यहाँ के निवासी इस समय आदिम अवस्था में थे। भारतीयों ने इन्हें सभ्य और सुसंस्कारित किया। कौण्डिन्य वंशजों ने लगभग १०० वर्षों तक शासक किया। इन लोगों ने सम्पूर्ण कम्बोडिया, कोचीन-चीन, स्याम और मलय प्रायद्वीप को मिलाकर पहले साम्राज्य की स्थापना की थी। इनके भारत और चीन से राजनयिक सम्बन्ध थे। छठीं शताब्दी में ‘जयवर्मन्’ और ‘रुद्रवर्मन्’ जैसे प्रभावशाली शासक हुए।

७वीं शती में कम्बुज ने फूनन के आधिपत्य से स्वयं को स्वतंत्र करा लिया और फूनन को भी जीत लिया। इन प्रारम्भिक शासकों में श्रुतवर्मन् और श्रेष्ठवर्मन् का नाम आता है। श्रेष्ठवर्मन् ही इस स्वतंत्रता का जन्मदाता था।

भववर्मन् ने कम्बुज में दूसरे राजवंश की स्थापना की। भववर्मन् ने फूनन को अपने अधीन कर लिया। भववर्मन् के कुल ने ६८१ ईसवी तक शासन किया।

इसके बाद कम्बुज पर शैलेंद्र वंशी शासकों का अधिकार हो गया। कम्बुज को शैलेंद्र शासकों से मुक्त कराने का श्रेय जयवर्मन् द्वितीय ( ८०२ – ८५० ई० ) को जाता है। उसने अंकोर क्षेत्र में अपनी राजधानी बसायी थी।

इन्द्रवर्मन् ने ८७७ ई० में कम्बुज में एक नये राजवंश की स्थापना की। इस राजवंश ने ८७७ से १००१ ई० तक शासन किया। इस वंश का शक्तिशाली शासक यशोवर्मन् ( ८८९ – ९०० ई० ) हुआ।

सूर्यवर्मन् ने ११वीं शती की शुरुआत में एक नये राजवंश की स्थापना की। इसके वंशज सूर्यवर्मन् द्वितीय ( १११३ – ११४५ ई० ) ने ही ‘अंकोरवाट के प्रसिद्ध विष्णु मंदिर’ का निर्माण कराया था।

जयवर्मन् सप्तम ( ११८१ – १२१८ ई० ) कम्बुज का अन्तिम प्रसिद्ध शासक था। उसनें अंकोरथोम को अपनी राजधानी बनायी। इसके बाद कम्बुज का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो जाता है।

चम्पा

चम्पा में हिन्दू राज्य की स्थापना द्वितीय या तृतीय शताब्दी में हुई। आरम्भिक शासकों में भद्रवर्मन् का नाम आता है। उसके राज्य में आधुनिक अनाम सम्मिलित था। उसमें माइसोन में भगवान शिव के मन्दिर का निर्माण कराया था। भद्रवर्मन् का उत्तराधिकारी गंगाराज हुआ। गंगाराज शासन के अंतराल में सिंहासन त्यागकर भारत में गंगा नदी के तट पर तपस्या करने के लिये चले आये थे। इसके बाद चम्पा में अव्यवस्था फैल गयी। चम्पा पर कम्बुज आदि के बराबर आक्रमण होते रहे। जयवर्मन् ने चम्पा को जीत लिया। १३वीं शती में इसे मंगोल आक्रमण का शिकार होना पड़ा।

ब्रह्मदेश ( बर्मा )

बर्मा में भारतीय संस्कृति का प्रवेश अतिप्रचीन समय में ही हो गया था। बर्मा की प्राचीन जातियाँ मोन् ( तैलंग ), प्लुस आदि थीं। ७वीं शताब्दी में द्वारावती एक प्रसिद्ध हिन्दू राज्य था। यहीं से स्याम और पश्चिमी लाओस में भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ।

अनिरुद्ध ( १०४४ – १०७७ ई० ) बर्मा का प्रसिद्ध शासक हुआ। उसने समस्त बर्मा में राजनीतिक एकता स्थापित की। एक भारतीय राजकन्या से उसने विवाह भी किया। वह बौद्ध मतानुयायी था। अनिरुद्ध ने पेगन या अरिमर्दनपुर में राजधानी बनायी। क्यानजिथ्य अनिरुद्ध के उत्तराधिकारियों में प्रसिद्ध शासक हुआ जिसने अरिमर्दनपुर में ‘आनन्द विहार’ का निर्माण करवाया था।

स्याम ( थाईलैण्ड )

स्याम में भारतीय संस्कृति का प्रवेश अतिप्रचीन समय में ही हो गया था। भारतीय संस्कृति का प्रवेश यहाँ बर्मा के माध्यम से हुआ था।

मलय प्रायद्वीप

सदुरपूर्व में मलय प्रायद्वीप को एक प्रवेश द्वार की तरह था ( मजूमदार )। ईसा की पाँच शताब्दियों में भारतीयों ने यहाँ कई राज्य स्थापित किये। ‘तक्कोल’ यहाँ का प्रमुख व्यापारिक स्थल था जहाँ से भारतीय व्यापारी सुदूर पूर्व जाया करते थे। मलाया से वास्तुकला और मूर्तिकला के अवशेष मिलते हैं।

पूर्वी द्वीपों के हिन्दू राज्य

हिन्द-चीन के मुख्य भूमि के अलावा दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों पर प्राचीन काल में भारतीयों ने कई राज्य स्थापित किये थे। प्राचीन काल में इन्हें वर्तमान के नाम से भिन्न नामों से पुकारा जाता था; जैसे — श्रीविजय, यवद्वीप, वरुणद्वीप, बाली आदि।

श्रीविजय

यह सुमात्रा द्वीप पर स्थापित सबसे प्राचीन राज्य था। सातवीं शती में यहाँ जयनाग नामक शासक का शासन था। प्रसिद्ध चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार श्रीविजय बौद्ध धर्म के अनुशीलन के लिए प्रसिद्ध था।

यवद्वीप

प्राचीन भारतीय साहित्यों में जावा को ‘यवद्वीप’ कहा गया है ( रामायण )। यवद्वीप से प्राप्त संस्कृत के अभिलेखों से विदित होता है कि छठीं शताब्दी में यहाँ पूर्णवर्मन् नामक शासक शासन कर रहा था। चीनी स्रोतों में यवद्वीप में एक राज्य का नाम ‘हो-लिंग’ मिलता है। विद्वान इसे कलिंग का रूपान्तरण मानते हैं। कुछ विद्वान इससे निष्कर्ष निकालते हैं कि जावा और कलिंग के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध था।

शैलेन्द्र साम्राज्य

८वीं शताब्दी ईसवी में शैलेन्द्र नामक नवीन राजवंश का उदय हुआ। शैलेन्द्र राजवंश ने एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसने लगभग सम्पूर्ण पूर्वी द्वीपों पर एकछत्र शासन स्थापना की थी इसमें जावा, सुमात्रा, मलाया और अन्य द्वीप सम्मिलित थे। इस वंश के शासक ‘महाराज’ की उपाधि धारण करते थे। अरब लेखक उनकी शक्ति और वैभव की प्रशंसा करते हैं। ‘जावा का बोरोबुदूर बौद्धस्तूप’ शैलेन्द्र वंशी शासकों के उत्साही निर्माता होने का प्रमाण है।

भारत में शक्तशाली चोल साम्राज्य के उदय और उनके आक्रमण से शैलेन्द्र वंश का पतन की शुरुआत हो गयी।

शैलेंद्र वंश के पतनोपरान्त जावा में ‘पूर्वी जावानी राज्य’ का उदय हुआ। पूर्वी जावा के राज्यों में ‘कडिरि’ और ‘सिहसरि’ प्रसिद्ध हैं।  १४वीं शताब्दी में यहाँ ‘मजपहित साम्राज्य’ की स्थापना हुई।

वरुण द्वीप ( बोर्नियो ) के अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि यहाँ के अधिकांश निवासी ब्राह्मण थे। यहाँ के ‘मूलवर्मा’ नामक शासक का विवरण मिलता है।

बाली द्वीप में ६ठीं शताब्दी से पूर्व ही हिन्दू उपनिवेश बन चुका था। चीनी साहित्य यहाँ के राजपरिवार को ‘कौण्डिन्यवंशीय’ बताते हैं। चीनी यात्री इत्सिंग बाली को बौद्ध धर्म का केन्द्र बताता है।

 

भारत-चीन सम्बन्ध

 

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भारत और मध्य एशिया

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