भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ

भूमिका

भारतीय संस्कृति की कुछ ऐसी विशेषताएँ है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में दृष्टिगत नहीं होतीं। अपने विशिष्ट तत्वों के कारण ही भारतीय संस्कृति ने विश्व के देशों में अपने महत्त्व को बनाये रखा है। इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं –

  • प्राचीनता
  • निरन्तरता और चिरस्थायिता
  • आध्यात्मिकता
  • ग्रहणशीलता
  • समन्वयवादिता
  • धार्मिक सहिष्णुता
  • सर्वांगीणता
  • सार्वभौमिकता

प्राचीनता

भारतीय संस्कृति का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। भारत में सभ्यता का उद्भव तथा विकास ईसा से शताब्दियों पूर्व हुआ। प्रागैतिहासिक उपकरणों से ज्ञात होता है कि विश्व के अन्य भागों के साथ ही भारत में भी मानव संस्कृति का विकास हुआ था। सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज से भारतीय संस्कृति की प्राचीनता बढ़ गयी है तथा आज हमारे पास यह विश्वास करने के लिये पर्याप्त आधार है कि मिश्र और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं की तरह भारत की भी अपनी एक स्वतंत्र सभ्यता थी जो अधिकांश अंशों में समकालीन सभ्यताओं को अपेक्षा कहीं अधिक विकसित और गतिशील थी। मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ भारतवर्ष भी मानव सभ्यता का जनक होने का दावा कर सकता है जहाँ उन विचारों, विश्वासों और प्रक्रियाओं का प्रारम्भ हुआ जिन्होंने कालान्तर में विश्व इतिहास व सभ्यता को दशा व दिशा प्रदान किया। यूनान, रोम आदि देशों में सभ्यता का प्रादुर्भाव भारत के बहुत बाद में हुआ। इस प्रकार भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में सर्वप्रमुख है।

निरन्तरता एवं चिरस्थायिता

भारतीय संस्कृति में प्राचीनता होने के साथ ही साथ निरन्तरता और चिरस्थायिता भी है जोकि विश्व की अन्य संस्कृतियों में दृष्टिगोचर नहीं होती। मिस्र, सुमेर, अक्काद, बेबीलोन, असीरिया तथा ईरान की संस्कृतियों का अस्तित्व बहुत पहले हो समाप्त हो चुका है। मिस्र, मेसोपोटामिया आदि के आधुनिक निवासियों का अपनी प्राचीन संस्कृतियों से कोई सम्बन्ध तक नहीं है जो आज अतीत की कहानियाँ मात्र है।

किन्तु यह बात भारतीय संस्कृति के संदर्भ में लागू नहीं होती। भारतवर्ष का अतीत उसके वर्तमान जीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इस संस्कृति के मूल तत्त्व इतने स्थायी हैं कि समय का प्रवाह और प्रहार उन्हें विलुप्त नहीं कर पाया है।

शताब्दियों के परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति की मूल आत्मा समान बनी रही। इसमें अद्भुत निरन्तरता है। सैन्धव सभ्यता से प्राप्त देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आज भी भारतीयों के लिये पूजनीय है। हिमालय से कन्याकुमारी तक बसे हुए हिन्दू आज भी उन वैदिक मंत्रों का उच्चारण अतीव श्रद्धा के साथ करते हैं जिन्हें ऋषियों ने शताब्दियों पूर्व सिन्धु नदी के तट पर उच्चारित किया था।

यूनान और रोम की सभ्यताओं के उदात्त धर्म एवं दार्शनिक सिद्धान्त भी आज उनके निवासियों के लिये कोई महत्त्व नहीं रखते, जबकि भारतीयों के लिये उनकी प्राचीन भाषा, साहित्य, धर्म, दर्शन, सामाजिक आचार-विचार आज भी उतने ही मूल्यावान बने हुए हैं जितने प्राचीन समय में थे।

यह निरन्तरता भारतीय संस्कृति की अपनी निजी है जो पाश्चात्य दर्शकों के लिए आश्चर्यजनक प्रतीत होती है।

भारतीय संस्कृति के सम्मुख अनेक गम्भीर चुनौतियाँ आयीं जिनका सामना दृढ़ता के साथ करती हुई वह समय की कसौटी पर खरी उतरी है। ऐतिहासिक काल से लेकर प्राचीन युग के अन्त तक देश को अनेक भीषण एवं बर्बर आक्रमणों का सामना करना पड़ा किन्तु पराभव के दिनों में भी भारतीय संस्कृति ने अपना मूल स्वरूप स्थायी बनाये रखा तथा अपने उदात्त विचारों और विश्वासों से क्रूर, असभ्य व बर्बर जातियों को भी सभ्य बना दिया।

आध्यात्मिकता

आध्यात्मिकता अथवा धार्मिकता एक प्रकार से भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है जिसने इसके सभी अंगों को प्रभावित किया है। प्राचीन भारतीयों ने ऐहिक सुखों का महत्त्व समझते हुए भी उन्हें अपनी जीवन पद्धति में गौण स्थान प्रदान किया। प्राचीन समाज में चार पुरुषार्थों का विधान एवं चार आश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन मनुष्य की आध्यात्मिक साधना के ही प्रतीक है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है तथा अन्य सभी पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ एवं काम इसमें सहायक हैं। इनमें धर्म को प्रमुखता दी गयी है जो जीवन की सभी अवस्थाओं में व्यक्ति की क्रियाओं को प्रेरित एवं प्रभावित करता है। जो धर्म के द्वारा उन्नति करे वही विद्वान् और गुणवान कहा गया है। धर्म के माध्यम से ही जीवन यापन करने वाला मनुष्य अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करता है।

  • धर्मम् ही यो वर्धयते स पण्डितः।महाभारत।

ग्रहणशीलता

भारतीय संस्कृति की एक विशेषता उसकी ग्रहणशीलता ( Adaptability ) है। उसमें प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर अपने में समाहित कर लेने की अद्भुत शक्ति है। ऐतिहासिक काल से लेकर मध्य काल के पूर्व तक भारत पर अनेक जातियों के आक्रमण हुए। इनमें यवन, शक, कुषाण, हूण आदि प्रमुख है। भारतीय संस्कृति ने पहले तो इनके प्रबल प्रहार को शान्त व गम्भीर भाव से झेला और फिर क्रमशः इन विदेशियों को अपनी धारा में समाहित कर लिया। इनमें से अधिकतर ने ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्मों को ग्रहण किया और भारतीय संस्कृति के प्रचारक व उन्नायक बन गये। उदाहरणार्थ —

  • शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् वैदिक धर्म एवं संस्कृति का पोषक था।
  • कुषाण शासक कनिष्क ने न केवल बौद्ध धर्म ग्रहण किया अपितु उसके प्रचार-प्रसार में अपने साम्राज्य के सभी साधनों को भी लगा दिया।
  • हिन्द-यवन मिलिन्द (मेनाण्डर) से बौद्ध संघ में ‘अर्हत्’ पद प्राप्त किया।
  • क्रूर एवं बर्बर हूणों ने शैव धर्म ग्रहण किया।
  • पूर्व मध्य काल के तुर्क भी भारतीय संस्कृति के प्रभाव से नहीं बच सके।

यह सब संस्कृति की ग्रहणशीलता का ही परिणाम था।

समन्वयवादिता

भारतीय संस्कृति समन्वयवादी है। प्राचीन समय से ही विविध भेदों के बीच वैचारिक एकता तथा समानता को स्वीकृति की बात कही गयी है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने इस सम्बन्ध में अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए स्पष्टतः लिखा है। ‘समान मंत्र, समान समिति, समान मन, समान सबकी प्रेरणा, समान सबके हृदय, समान सबके मानस, समान सबकी स्थिति …।’

  • समानो मंत्रः समितिः समानी समानं मनं सह चित्तमेषम्। समनी व आकूतिः समाना हृदयानिवः। समानमस्तु वो मनः यथा वः सुसहासति॥ऋग्वेद॥

भारतीय विचारकों ने अतिवादी विचारधाराओं का विरोध किया है तथा मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है। अतिशय आसक्ति और विरक्ति दोनों ही त्याज्य है। भौतिक सुखों का उपभोग करते हुए भी उनसे लिप्त न होने का उपदेश दिया गया है। भारतीय व्यवस्थाकारों ने मानव जीवन में चार पुरुषार्थों के विधान द्वारा लौकिक व आध्यात्मिक सुख के बीच समन्वय स्थापित करने का सुन्दरतम् प्रयास किया है।

मानवता के महान् पुजारी महात्मा गौतम बुद्ध समन्वयवादी थे। गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति के बीच समन्वय स्थापित किया गया है जो सभी के लिये अनुकरणीय हैं। हिन्दू धर्म की यह सर्वप्रमुख धारणा रही है कि ‘ईश्वर एक है तथा संसार के सभी धर्म सच्चे और अच्छे है।’ गोस्वामी तुलसी तुलसीदास के राम तपस्वी राजा है। सम्पूर्ण श्रीरामचरित ही समन्वय का उद्घोष करता है।

भारतीय समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था भी विभिन्न वर्गों एवं मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के बीच समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से बनायी गयी थी।

सुप्रसिद्ध मौर्य सम्राट अशोक ने पारस्परिक मेल-मिलाप, प्रीति एवं सहानुभूतिपूर्ण एकत्व को ही विभिन्न वर्गों के लिये जीवन का श्रेष्ठ मार्ग घोषित किया है (समवाय एव साधु)।

अशोक का बारहवाँ बृहद् शिलालेख

‘समवाय’ अथवा समन्वय की अवधारणा ने ही भारत के दीर्घकालीन इतिहास के समस्त राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विकास को नियंत्रित करते हुए उसे एकता के सूत्र में आवद्ध होने के मार्ग पर अग्रसर किया है। समन्वय की यह प्रवृत्ति विश्व के किसी अन्य संस्कृति में दिखायी नहीं देती। भारतीय संस्कृति को विश्व इतिहास में समन्वय का एक महान् प्रयोग कहा जा सकता है।

धार्मिक सहिष्णुता

भारतीय संस्कृति धार्मिक विषयों में सहिष्णुता का उपदेश देती है। धर्मान्धता और संकुचित मनोवृत्ति इसमें नहीं मिलती। प्राचीन भारत में धर्म के नाम पर अत्याचार और रक्तपात प्रायः नहीं हुआ है। भारतीय मनीषा ने ईश्वर को एक सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान् आदि मानते हुये विभिन्न धर्मों और मतों को उस ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न मार्ग बताया है।

वेद में कहा गया है कि “सत् अर्थात् ब्रह्म एक है, किन्तु ज्ञानी लोग उसका विविध प्रकार से वर्णन करते हैं-एक सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन, सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुकरण करते हैं — मम वर्त्मना हि वर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।’

जैन दर्शन का स्याद्वाद एवं सप्तभंगीनय (Sevenfold Judgement) का सिद्धान्त धार्मिक सहिष्णुता का ही प्रतिपादक है।

सुप्रसिद्ध भारतीय सम्राट अशोक अपने बारहवे शिलालेख में धर्म-सहिष्णुता की भावना को इस प्रकार व्यक्त करता है- “मनुष्य को अपने धर्म का आदर तथा दूसरे के धर्म की अकारण निन्दा नहीं करनी चाहिए। एक न एक कारण से अन्य धर्मों का आदर करना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य अपने सम्प्रदाय को क्षीण करता है तथा दूसरे के सम्प्रदाय का अपकार करता है। जो कोई अपने सम्प्रदाय के प्रति भक्ति तथा उसकी उन्नति की लालसा से दूसरे के धर्म की निन्दा करता है वह वस्तुतः अपने सम्प्रदाय की ही बहुत बड़ी हानि करता है। लोग एक दूसरे के धर्म को सुनें। इससे सभी सम्प्रदाग बहुश्रुत होंगे तथा संसार का कल्याण होगा।”

अशोक का बारहवाँ बृहद् शिलालेख

प्राचीन इतिहास के स्वर्ण-युग गुप्तकाल में सर्वत्र धार्मिक सहिष्णुता देखने को मिलती है।

यहाँ धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता के उदाहरण अपवादस्वरूप ही मिलते है। प्राचीन भारतीयों ने उन विदेशी धर्मावलम्बियों को भी अपने यहाँ शरण प्रदान की जो अपने देशों में होने वाले धार्मिक संहार एवं अत्याचार से पीड़ित होकर यहाँ पहुँचे।

सर्वांगीणता

भारतीय संस्कृति मानव जीवन के सभी पक्षों के सम्यक् विकास पर बल देती है। मैक्समूलर जैसे कुछ पाश्चात्य विचारकों को धारणा है कि प्राचीन भारतीयों के लिये भौतिक जीवन एक स्वप्न और भ्रांति के समान था। किन्तु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता। वास्तविकता यह है कि प्राचीन भारतीयों ने भौतिक सुखों के महत्त्व को भी समझा तथा उनकी उपेक्षा नहीं की। यह सही है कि भारतीय जीवन के सभी पक्ष धर्म से अनुप्राणित थे। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि धर्म का सम्बन्ध मात्र पारलौकिक सुखों की प्राप्ति होती है (यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः)। मानव जीवन में आश्रम व्यवस्था एवं पुरुषार्थों का विधान मनुष्य तथा समाज के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर ही किया गया था।

सार्वभौमिकता

भारतीय संस्कृति में सार्वभौमिकता मिलती है। इसमें अपनी उन्नति के साथ की साथ समस्त विश्व के कल्याण को कामना की गयी है। वैदिक काल से ही भारतीय मनीषियों ने सम्पूर्ण विश्व को एक मानकर ‘विश्वबन्धुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे उदात्त सिद्धान्तों का प्रथम उद्घोष करते हुए सार्वभौमिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने न केवल मानव जाति अपितु प्राणी मात्र के कल्याण की चिन्ता व्यक्त किया है। ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि वह विश्व को अन्धकार से प्रकाश, असत् से सत् तथा नश्वरता से अमरता की ओर अग्रसर करे

  • असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृर्त्यो मा अमृतं गमय।

लोक कल्याण की भावना व्यक्त करते हुए कहा गया है- ‘सभी सुखी हों, विघ्नरहित हो, कल्याण का दर्शन करें तथा किसी को कोई दुःख प्राप्त न हो —

  • सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत्॥

सार्वभौमिकता की यह भावना भारतीय साहित्य एवं दर्शन में स्थान-स्थान पर मुखरित हुई है। यह भारतीय संस्कृति को अपनी थाती है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में दुर्लभ है।

भारतीय सभ्यता और संस्कृति के स्रोत । प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

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