ब्रह्मगिरि , चित्रदुर्ग; कर्नाटक

भूमिका

ब्रह्मगिरि ( Brahmagiri ) पुरास्थल वर्तमान कर्नाटक राज्य ( प्राचीन मैसूर ) के चित्तलदुर्ग ( चित्रदुर्ग ) जनपद में स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ पर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ रहते थे। गौतम ऋषि सप्तर्षियों में से एक हैं।

ब्रह्मगिरि के निकट ही सिद्धपुर और जटिंगरामेश्वर भी स्थित है। ब्रह्मगिरि, सिद्धपुरा और जटिंगरामेश्वर तीनों कर्नाटक के चित्रदुर्ग जनपद में स्थित हैं और तीनों स्थलों से अशोक के लघु शिलालेख मिलते हैं। ये लघु शिलालेख मौर्य साम्राज्य की दक्षिणी सीमा को इंगित करते हैं।

ब्रह्मगिरि लेख से ज्ञात चलता है कि अशोक के साम्राज्य में दक्षिणी प्रान्त का केन्द्र सुवर्णगिरि था जहाँ एक कुमार रहता था। साथ ही इसमें इसिला ( Isila ) का भी उल्लेख है जो स्थानीय मुख्यालय था। इससे अशोक के धर्म प्रचार का भी ज्ञान होता है। इस लेख में वह दावा करता है कि उसके धर्म-प्रचार के कारण सारे जम्बूद्वीप के निवासी देवताओं से मिला दिये गये।

यहाँ ( ब्रह्मगिरि ) से तीन संस्कृतियों – नवपाषाणकाल, महापाषाणकाल और मौर्यकाल के अवशेष मिलते हैं।

ब्रह्मगिरि, चित्रदुर्ग, कर्नाटक
ब्रह्मगिरि

संक्षिप्त परिचय

नाम – ब्रह्मगिरि ( Brahmagiri )

स्थिति – चित्रदुर्ग जनपद, कर्नाटक

विशेष – पुरातात्त्विक स्थल। यहाँ से तीन संस्कृतियों – नवपाषाणकाल, महापाषाणकाल और ऐतिहासिककाल के अवशेष मिले हैं। यह अशोक के लघु शिलालेख के लिए प्रसिद्ध है।

ब्रह्मगिरि : समय निर्धारण

इस स्थल का वैज्ञानिक उत्खनन ह्वीलर महोदय ने १९४७ – ४८ ई० में करवाया और इन्होंने इसके द्वितीय संस्कृति का समय ( महापाषाणिक संस्कृति ) का समय द्वितीय शताब्दी ई०पू० से प्रथम शताब्दी ई० के मध्य तक निर्धारित की। लेशनिक महोदय भी ह्वीलर के कालनिर्धारण से सहमत हैं। ३०० ई०पू० से १०० ई० के मध्य।

ह्वीलर द्वारा तीनों संस्कृतियों का समय निर्धारण :-

  • प्रथम चरण : ई०पू० प्रारम्भिक सह्स्राब्दी से द्वितीय शताब्दी के शुरुआत तक ( The early 1st millennium to the beginning of the 2nd century BC )
  • दूसरी संस्कृति : प्रथम शताब्दी ई०पू० से लेकर प्रथम शताब्दी ई० तक ( 2nd century BC to the 3rd century AD )
  • तृतीय सांस्कृतिक चरण : प्रथम शताब्दी के मध्य से लेकर तृतीय शताब्दी ईसवी तक ( middle of the 1st century AD to the 3rd century AD )
  • वे अशोक के अभिलेख को भी को भी संस्कृति के प्रथम चरण की अंतिम समय के लोगों को संबोधित मानते हैं।

परन्तु इस काल निर्धारण में कई आपत्तियाँ उठायी गयीं –

  • दक्कन की महापाषाणकालीन संस्कृति जो कि निश्चित रूप से लौहयुगीन है पर्याप्त रूप से प्राचीन है। यह लगभग १००० से ८०० ई०पू० के मध्य मानी गयी है। यद्यपि सुदूर दक्षिण में यह संस्कृति द्वितीय और तृतीय शताब्दी तक रही।
  • ह्वीलर का समय निर्धारण हैमेनडोर्फ को दोषपूर्ण लगता है। उनका तर्क है कि अशोक का ब्रह्मगिरि लघु शिलालेख नवीन प्रस्तरयुगीन पशुचारकों के लिए नहीं हो सकता है। निश्चित ही महापाषाण संस्कृति के लोग मौर्यकाल से पूर्व यहाँ बसते होंगे परन्तु मौर्यकाल तक यहाँ ऐतिहासिक युग प्रारम्भ हो चुका था। अतः वे महापाषाण संस्कृति का समय ९०० ई०पू० के आसापास का माना है।
  • इतिहासकार रामशरण शर्मा ( कृति – प्राचीन भारत ) के अनुसार अशोक के शिलालेखों में उल्लिखित चोड, पाण्ड्य और चेर सम्भवतः भौतिक संस्कृति के महापाषाण काल में हुए थे।
  • परन्तु हल्लूर से मिलें अवशेषों के ‘C14 परीक्षण’ के आधार पर यहाँ पर लोहे का प्रचलन समय १००० ई०पू० के आसपास माना गया है।

ब्रह्मगिरि का उत्खनन

इस स्थल की प्रथम बार १८९१ ई० में बेंजामिन एल० राइस ने खोज की जिन्हें यहाँ पर सम्राट अशोक का लघु शिलालेख मिला। सर्वप्रथम १९४० ई० में एम० एच० कृष्णन् ने इस स्थल की खुदाई कराकर इसके पुरातात्त्विक महत्त्व की ओर संकेत किया गया था। परन्तु विधिवत उत्खनन १९४७ ई० में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के तत्कालीन महानिदेशक एच० एम० ह्वीलर द्वारा करवाया गया। इसके बाद शेषाद्री ने १९५६ ई० तो अमलानंद घोष ने १९६५ और १९७८ ई० में उत्खनन कराया।

१९४० ई० में एम० एच० कृष्ण के द्वारा यहाँ एक आवास स्थल की खोज की गयी। उन्होंने स्थल के विभिन्न हिस्सों में १६ खाइयों की खुदाई करायी और पाँच सांस्कृतिक स्तरों को पहचान की :-

  • माइक्रोलिथिक ( microlithic culture )
  • नवपाषाण ( Neolithic culture )
  • लौह युग ( Iron Age culture )
  • मौर्य ( Mouryan Age culture ) और
  • चालुक्य-होयसल ( Chalukya-Hoysala age culture )

माइक्रोलिथिक संस्कृति को उनके द्वारा ‘रोप्पा संस्कृति’ ( Roppa Culture ) के रूप में नामित किया गया था, इस संस्कृति का नामकरण खायी की रोप्पा गाँव की सीमा के भीतर स्थित होने के कारण किया गया।

मार्टीमर ह्वीलर ने एम० एच० कृष्ण के संग्रह में चक्रांकित पात्र ( Rouleted Ware ) की खोज की। ह्वीलर ने आवास स्थल पर तीन संस्कृतियों का एक क्रम स्थापित किया :—

  • अवधि I – नवपाषाण या नवपाषाण-ताम्रपाषाण;
  • अवधि II – मेगालिथिक संस्कृति;  और
  • अवधि III – प्रारंभिक ऐतिहासिक संस्कृति।

शेषाद्री ( १९५६ ई० ) ने ब्रह्मगिरि का पुनः अन्वेषण किया और जैस्पर, चर्ट आदि के फ्लेक टूल्स जैसे स्क्रेपर्स को एकत्र किया और उन्होंने इन पुरावशेषों को व्हीलर के समय निर्धारण के ‘चरण या अवधि एक – ए’ में रखा ( Period – I A )।

बाद में १९६५ ई० में छलनी या तलछट मलबे ( Sieved derbies ) से ताँबे की दो वस्तुएँ और सतह के ढेर से जोरवे डिज़ाइन के काले रंग के लाल बर्तन के टुकड़ों की खोज की गयी।

१९७८ ई० में ‘अवधि एक बी’ ( Period — I B ) और मेगालिथिक की अतिव्यापी परतों से समान चित्रित टुकड़े पाए गए।

ह्वीलर द्वारा इस पुरातात्त्विक स्थल के उत्खनन के आधार पर यहाँ की संस्कृतियों का विवरण प्रकाशित किया गया। ब्रह्मगिरि की खुदाई में तीन संस्कृतियों के अवशेष मिलते हैं :-

प्रथम संस्कृति : नवपाषाणकाल

ब्रह्मगिरि के उत्खनन से सबसे पहली या सबसे प्रचीन संस्कृति जो प्रकाश में आयी है वह नवपाषाणकाल से सम्बन्धित है। इस स्तर से मिले अवशेष निम्न हैं —

  • इस स्तर से पॉलिशदार पत्थर, कुल्हाड़ी और हड्डियों के बने कुछ उपकरण मिलते हैं।
  • सलेटी तथा काले रंग के मृद्भाण्ड मिलते हैं। ये अधिकतर हस्तनिर्मित हैं। आमतौर पर मोटे ग्रे बनावट के और इसके अलग-अलग रंगों में, जले हुए या बिना जले हुए, मिट्टी के बर्तनों पर चित्रित सजावट के अलावा कुछ में हेरिंग-बोन पैटर्न ( Herring bone Pattern )सहित सरल उत्कीर्ण डिजाइन हैं।
  • मिट्टी और सरकन्डे की सहायता से वे अपने निवास के लिये गोलाकार तथा चौकोर घर बनाते थे।
  • इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे।
  • उनके द्वारा उत्पादित प्रमुख फसलें कुथली, रागी, चना, मूंग तथा प्रमुख पालतू पशु गाय, बैल, भेड़, बकरी, भैंस, सूअर आदि थे।
  • अपने मृतकों को वे घरों की फर्श के नीचे दफन करते थे। दो प्रकार की अंतिम संस्कार यहाँ से मिलते हैं — शिशु कलश दफन ( infant urn burial ) और वयस्क शवाधान ( adult inhumation burial )।
  • इस संस्कृति के अंतिम चरण; जिसको period I B कहा गया है; से सीमित मात्रा में धातु प्रयोग के साक्ष्य भी मिले हैं।
  • इस संस्कृति की संभावित तिथि ई०पू० २५०० – १००० के मध्य निर्धारित की गयी है।

द्वितीय संस्कृति : महापाषाणकाल

ब्रह्मगिरि की दूसरा चरण महापाषाण संस्कृति ( megalithic culture )  से जुड़ा है। महापाषाण काल को बृहद् पाषाण काल भी कहते हैं।

चरण दो की प्रमुख विशेषता पॉलिशदार पत्थर की कुल्हाड़ियों और सूक्ष्म पाषाणोपकरण के साथ-साथ कृषि कार्य में लोहे का उपयोग है। मृद्भाण्ड पूर्ववर्ती संस्कृति से पूरी तरह से अलग हैं। ये मृद्भाण्ड मुख्य रूप से तीन तरह के हैं — अत्यधिक पॉलिश काले और लाल पात्र; पूर्णतया काले मृद्भाण्ड और उज्जवल के साथ ही मोटे सुर्ख लाल पात्र।

संस्कृति के इस द्वितीय चरण की अनूठी विशेषता एक विशेष रूप से निर्मित पत्थर के सिस्ट या खुदाई वाले गड्ढे में मृतकों का शवाधान है। प्रत्येक सतह पर पत्थरों के एक चक्र से घिरा हुआ है या कभी-कभी दो संकेंद्रित वृत्त हैं। जिसका व्यास ४.८ से ६.३ मीटर तक होता था।

एक महापाषाण में ३३ स्वर्ण और दो कार्नेलियन मनके, चार ताम्र चूड़ियाँ और एक शंख पाया गया है। उत्खननकर्ता का सुझाव है कि गड्ढे का घेरे एक विशेष और प्रतिबंधित सामाजिक समूह के लिए विशेष समाधि स्थल हो सकते हैं।

इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं —

  • लौह उपकरणों का प्रयोग। लौह निर्मित चाकू, भाले, तलवारें, बाणाग्र आदि बड़ी संख्या में मिलते हैं।
  • काले-लाल मृदूभाण्डों का प्रयोग। बर्तनों का निर्माण चाक पर किया गया लगता है। अनेक आकार-प्रकार के कटोरे मिले हैं जिनमें से कुछ पर चित्रकारियाँ हैं।
  • इस संस्कृतिक स्तर से महापाषाणिक समाधियों के भी साक्ष्य मिले हैं जो मुख्यतः संगोरा एवं डाल्मेन प्रकार की हैं।
  • इस संस्कृति की तिथि मार्टीमर ह्वीलर ने ईसा पूर्व २०० – ५० ई0 के बीच निर्धारित की जाती है। परन्तु आधुनिक शोधों में यह पाया गया कि इसका समय लगभग १००० ई०पू० के आसपास का है।

तृतीय संस्कृति : ऐतिहासिक काल

यह चरण प्रारम्भिक ऐतिहासिक अवस्था का द्योतक है। इसके सुचारु इतिहास की जानकारी सम्राट अशोक के लघु शिलालेख ( Minor Rock-Edict ) से मिलती है। ऐसे ही लघु शिलालेख पास में ही सिद्धपुरा और जटिंगरामेश्वर से भी मिलते हैं।

मौर्योत्तर काल में यह भूभाग सातवाहनों ( आंध्र-सातवाहन ) के शासन में आया। इस काल के अनेक परातात्त्विक अवशेष मिलते हैं। यह वही समय था जब पश्चिम में रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार अत्यंत उन्नत अवस्था में था। जिसके प्रमाण हमें यहाँ से मिले चक्रांकित पात्रों ( Rouletted ware ) से मिलते हैं।

इस स्तर से भूरे रंग अथवा गेरुए रंग में पुते मृद्भाण्डों के टुकड़े मिलते हैं। कुछ टुकड़ों पर सफेद एवं पीले रंग में चित्रण किया गया है। कुछ चक्रांकित भाण्ड भी हैं जिन्हें अरिकमेडु से प्राप्त भाण्डों की समानता के आधार पर रोमन मूल का माना जाता है। प्रमुख भाण्ड तश्तरियाँ हैं। ब्रह्मगिरि की तृतीय संस्कृति का काल पहली से तीसरी शती के बीच माना गया है। इस प्रकार ब्रह्मगिरि पुरातात्विक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है।

प्रारंभिक ऐतिहासिक काल की प्रमुख विशेषता तेज पहिये पर बने अधिक परिष्कृत मिट्टी के बर्तनों से है, जिसमें लाल रंग के तहत सफेद रंग की ज्यामितीय डिजाइन ( Russet-coated Painted Ware ) है। आंतरिक रूप से टोंटीदार तश्तरियाँ जो छिछली है ( the shallow dish with beaked eadge ) और सीधे किनारे वाले कटोरे ( straight-sided bowl ) सबसे विशिष्ट प्रकार के हैं। गहनों के लिए काँच का प्रयोग उल्लेखनीय है। किनारों पर हाथियों की एक पंक्ति के साथ एक टेराकोटा गोल पदक का टुकड़ा इस अवधि की लोकप्रिय कला साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

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