बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय

परिचय

प्रथम शताब्दी ईसवी तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। अनेकानेक लोग नवीन विचारों एवं भावनाओं के साथ प्रविष्ट हो रहे थे। ऐसे में भिक्षुओं का एक समूह समयानुकूल परिवर्तन की माँग करने लगा और दूसरा समूह किसी भी सुधार या परिवर्तन के विरुद्ध थे। दूसरे शब्दों में कुछ लोग समयानुकूल परिमार्जन व परिष्कार के पक्षधर थे तो कुछ लोग किसी भी परिवर्तन के विरूद्ध। इसी मत वैभिन्य के आधार पर बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।

इस प्रकार के विवाद के उल्लेख हमें सबसे पहले सम्राट अशोक के समय में देखने को मिलता है। ऐसे परिवर्तन के पक्षधरों धम्म-विरोधी माना गया है। सारनाथ, साँची और कौशाम्बी के लघु स्तम्भ लेखों में सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के रक्षक के रूप में हमारे समक्ष आते हैं :-

“ए चुं खो भिखू वा भिखुनि वा संघं भाखति से ओदातानि दुसानि सनंधापयि या आनावाससि आवासयिये ( । )”

अर्थात्

“जो भी कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघ में भेद उत्पन्न करेगा उसे श्वेत वस्त्र धारण कराकर एकान्त स्थान में रखा जाएगा।”

सारनाथ स्तम्भलेख 

परन्तु समय के प्रवाह को अवरुद्ध नहीं किया जा सकता। मौर्य साम्राज्य के पतनोपरान्त कुषाण शासक कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से दो भागों में विभाजित हो गया —

( १ ) हीनयान

( २ ) महायान

हीनयान और महायान में अन्तर

इन दोनों सम्प्रदायों में निम्न भेद हैं :—

(१) हीनयान का शाब्दिक अर्थ है — निम्न मार्ग। इस मार्ग के लोग बौद्ध धर्म के परम्परागत रूप में किसी भी परिवर्तन के विरोधी थे। परन्तु यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिए ही सम्भव था।

महायान का शाब्दिक अर्थ है — उत्कृष्ट मार्ग। इस मार्ग के लोग सुधारवादी थे। इसमें परसेवा और परोपकार पर विशेष बल दिया गया। यह मार्ग सर्वसाधारण के लिए सुलभ था।

(२) हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता था।

महायान में महात्मा बुद्ध को एक देवता माना गया और उनकी पूजा की जाने लगी। साथ ही बोधिसत्व की संकल्पना साकार हुई।

  • अनेक बोधिसत्वों के पूजा की भी शुरुआत हुई। मोक्ष / निर्वाण प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे वे बोधिसत्व कहे गये।
  • प्रत्येक व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है।
  • निर्वाण में सभी मनुष्यों की सहायता करना बोधिसत्व का कर्तव्य है।
  • बोधिसत्वों में ‘प्रज्ञा और करुणा’ होती हैं। करुणा द्वारा वह जनसेवा करता है और प्रज्ञा से संसार का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है।
  • बोधिसत्वों को दस आदर्शों को प्राप्त करने का आदेश दिया गया है। इन्हें ‘पारमिता’ कहा गया है। पारमिताएँ वस्तुतः चारित्रिक पूर्णतायें है। ये हैं — दान, शील, सहनशीलता, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्रणिधान, बल और ज्ञान। इन्हें ‘दसशील’ कहा जाता है।

(३) हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है और इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं के प्रयत्नों से निर्वाण की प्राप्ति करनी चाहिए।

महायान में परसेवा और परोपकार पर बल दिया गया है। इसका उद्देश्य समस्त मानव जाति का कल्याण है।

(४) हीनयान में मूर्तिपूजा और भक्ति  का स्थान नहीं है।

महायान में मूर्तिपूजा का भी विधान है तथा मोक्ष के लिए बुद्ध की कृपा आवश्यक मानी गयी है।

(५) हीनयान की साधना-पद्धति अत्यंत कठोर है और वह भिक्षु जीवन का हिमायती है।

महायान की साधना-पद्धति सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ है। यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्व दिया गया है।

(६) हीनयान का आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है। जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं ‘अर्हत्’ कहा गया है। परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।

महायान का आदर्श ‘बोधिसत्व’ है। बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के बाद भी दूसरे प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। 

(७) हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है।

महायान की महानता का रहस्य उसकी नि:स्वार्थ सेवा और सहिष्णुता में है।

महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्व का खण्डन किये बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्रों विस्तृत कर दिया गया।

—आउटलाइन्स ऑफ महायान बुद्धिज्म, डी०टी०सुजुकी 

बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय और उप-सम्प्रदाय

बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय

कालान्तर में ये दोनों सम्प्रदाय दो-दो उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गये —

हीनयान के दो उपसम्प्रदाय –

  1. वैभाषिक 
  2. सौत्रान्तिक

महायान के दो उपसम्प्रदाय –

  1. शून्यवाद ( माध्यमिक ) 
  2. विज्ञानवाद ( योगाचार )

सातवीं-आठवीं शताब्दी में ‘वज्रयान’ नामक एक अन्य उपसम्प्रदाय का उदय हुआ।

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