प्राचीन भारतीय साहित्य

भूमिका

‘प्राचीन भारतीय साहित्य’ बहुत विशाल है। इसके अध्ययन से हमें भारतीय सभ्यता, संस्कृति और इतिहास की जानकारी मिलती है। भारत की प्राचीनतम् भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है ( क्योंकि अभी तक हड़प्पा लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है ) । भारतीय साहित्य ( वाड़्मय ) को दो भागों में बांटा जा सकता है ।

धार्मिक साहित्य : इसे पुनः दो भागों में बांटा जा सकता है :-

  • एक, ब्राह्मण साहित्य और
  • द्वितीय, ब्राह्मणेत्तर या अवैदिक साहित्य ।

लौकिक साहित्य : धार्मिक साहित्य में विपुल वैदिक साहित्य, वेदांग, सूत्र साहित्य, महाकाव्य, पुराण, धर्मशास्त्र, बौद्ध ग्रन्थ और जैन साहित्य आते हैं। लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक और अर्द्ध-ऐतिहासिक के साथ-साथ जीवनियों को शामिल किया जा सकता है।

  • ऐतिहासिक ग्रंथों में कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र, कामन्दक कृत नीतिसार, कल्हण कृत राजतरंगिणी, सोमेश्वर कृत रसमाला और कीर्तिकौमिदी, मेरुतुंग कृत प्रबंधचिंतामणि, राजशेखर कृत प्रबन्धकोष और सिंध के इतिहास के लिए चचनामा आदि शामिल हैं ।

  • अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रंथों में पाणिनि कृत अष्टाध्यायी, कात्यायन कृत वार्तिक, पतंजलि कृत महाभाष्य, गर्गीसंहिता, विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस और कालिदास कृत मालविकाग्निमित्रम आदि शामिल हैं ।

  • ऐतिहासिक जीवनियों में अश्वघोष कृत बुद्धचरित, बाणभट्ट कृत हर्षचरित, वाक्पति का गौड़वहो, विल्हड़ कृत विक्रमांकदेवचरित, पद्मगुप्त का नवसाहसांकचरित, संध्याकार नंदी कृत रामचरित, हेमचन्द्र कृत कुमारपालचरित ( द्वयाश्रयकाव्य ), जयानक कृत पृथ्वीराजविजय आदि प्रमुख हैं ।

ब्राह्मण साहित्य

इसमें वैदिक और अन्य ब्राह्मण धार्मिक साहित्य आते हैं ।

वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वैदिक साहित्य को नित्य, अपौरुषेय और श्रुति कहा जाता है।

  • नित्य ( शाश्वत ) – इसका अर्थ है कि वेद का अस्तित्व सदैव से रहा है। कोई ऐसा समय नहीं था, है या होगा जबकि वेद न हो।
  • अपौरुषेय – इसका अर्थ है कि वेद मनुष्यकृत नहीं है। वेद – मंत्रों का ज्ञान प्राचीन ऋषियों को ईश्वर ने दिया। ऋचाओं व मंत्रों में वर्णित ऋषि मंत्र विशेष के रचयिता नहीं अपितु द्रष्टा – मात्र हैं।
  • श्रुति – वेदों का ज्ञान भारतीय परम्परा में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण के माध्यम से सुरक्षित रहा है। यह ज्ञान श्रवण के माध्यम से वर्तमान तक सुरक्षित है। इसलिए इसको श्रुति कहते हैं। 

वेदों को संहिता भी कहा जाता है। संहिता का शाब्दिक अर्थ है – संकलन या संग्रह। परम्परा से चला आ रहा वैदिक मंत्रों का संग्रह ( a collection of the hymns or other subject matter of a Veda. ) । 

वैदिक साहित्य में वह विपुल साहित्य आता है जिसमें ४ वेद और उससे सम्बंधित ब्राह्मण, आरण्यक, और उपनिषद् आते हैं । इसके संकलनकर्ता महर्षि वेदव्यास को माना जाता है ।

वेद – वेदों की संख्या ४ है, इसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद क्रमशः लिखे गये। वेद सामान्यतः पद्य में है परन्तु यजुर्वेद गद्य और पद्य दोनों में है। आकार में ऋग्वेद सबसे बड़ा और सामवेद सबसे छोटा होता है। अर्थात् आकार की दृष्टि से क्रमशः ऋग्वेद अथर्वर्वेद, यजुर्वेद और सामवेद आते हैं। वेदत्रयी में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद शामिल है। अथर्ववेद वेदत्रयी में शामिल नहीं है जबकि यह सबसे लोकप्रिय वेद था। अथर्वेवेद को ब्रह्मवेद कहा गया है। ऋग्वेद व सामवेद अभिन्न माने जाते है। ऋग्वेद को वेदब्रह्म कहते हैं।

ब्राह्मण वेदों को समझने के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना गद्य में की गयी और इसमें मुख्यतः कर्मकाण्डों का वर्णन है। प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण हैं ।

आरण्यक – आरण्यक का अर्थ है जंगल। इसमें आत्मा-परमात्मा का वर्णन है ।

उपनिषद् या वेदांत – ये वेदों का अंतिम भाग है (वेदांत)। उपनिषद् का अर्थ है गुरु के निकट बैठना। इसमें आत्मन् और ब्रह्मन् के गूढ़ दार्शनिक विचारों का विवेचन मिलता है। सामान्यतः उपनिषदों की संख्या १०८ मानी जाती है पर इसमें से १०-१२ उपनिषद ही महत्त्वपूर्ण हैं जिनपर शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है। उपनिषद् गद्य और पद्य दोनों में लिखे गये हैं। पद्य में लिखे गये उपनिषद हैं – कठ, ईश और श्वेताश्वतर उपनिषद्। गद्य में लिखे गए उपनिषद् हैं – वृहदारण्यक, छान्दोग्य, प्रश्न, माण्डूक्य, ऐतरेय, कौशितकी, तैत्तिरीय, केन आदि। वृहदारण्यक और छान्दोग्य सबसे प्राचीन उपनिषद् माने जाते हैं ।

परमार काल में उव्वट ने, चोलकाल में वेंकटमाधव ने और विजयनगर काल में सायण ने वेदों पर भाष्य लिखा। मुगलकाल में दाराशिकोह ने काशी के संस्कृत विद्वानों की सहायता से ५२ उपनिषदों का संस्कृत से फारसी भाषा में अनुवाद किया और इसको ‘सिर्र-ए-अकबर’ ( The Great Secret ) नाम दिया।

मैक्समूलर ने वेदों का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में –‘Sacred Book Of East’ के नाम से किया।

वेद और उससे सम्बंधित ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् 

वेद

ब्राह्मण

आरण्यक

उपनिषद्

ऋग्वेद

ऐतरेय

कौशीतकी

ऐतरेय

कौशीतकी

ऐतरेय

कौशीतकी

यजुर्वेद

तैत्तिरीय

शतपथ

वृहदारण्यक

तैत्तिरीय

शतपथ

वृहदारण्यक

तैत्तिरीय

कठ

ईश

श्वेताश्तर

मैत्रायण

महानारायण

सामवेद

ताण्ड्य

जैमिनीय

जैमिनीय

छान्दोग्य

जैमिनीय

छान्दोग्य

अथर्ववेद

गोपथ

मुण्डक

माण्डूक्य

प्रश्न

 

ऋग्वेद

ऋग्वेद को वेदब्रह्म भी कहा जाता है। यह भारत का प्राचीनतम् व सबसे बड़ा वेद हैं। इसके संकलनकर्ता वेदव्यास माने जाते हैं। इसका संकलन सप्तसैंधव क्षेत्र ( वर्तमान पंजाब, जोकि भारत और पाकिस्तान में है।) में हुआ। इसकी तिथि को लेकर विवाद है । लोकमान्य तिलक इसके संकलन समय को ६००० ई०पू०, विंटरनित्स ३००० ई०पू० और मैक्समूलर १२०० – १००० ई०पू० मानते हैं । वैसे ऋग्वेद के संकलन का समय सामान्यतः १५०० से १००० ई०पू० के मध्य माना जाता है । ऋग्वेद में ऋचाओं ( मंत्रों ) का संकलन है। ऋग्वेद में कुल १० मंडल हैं जिसमें से ६ मंडल ( २ से ७ तक ) प्राचीन हैं जबकि शेष ४ मंडल ( १, ८, ९ और १० ) बाद के हैं। प्रत्येक मंडल की शुरुआत अग्नि की स्तुति से हुई है यहाँ तक की ऋग्वेद की प्रथम ऋचा ही अग्नि को समर्पित है । ऋग्वेद के ३ से ८ तक के मंडल एक विशेष ऋषि कुल से संबंधित हैं। ऋग्वेद में अयोध्या का उल्लेख सर्वप्रथम मिलता है। ऋग्वेद के संवादसूक्त से भारतीय नाटक के आरंभिक सूत्र मिलता है। ऋग्वेद के ३ पाठ मिलते हैं :-

१ – शाकल : इसमें १०१७ सूक्त हैं और इसे ही वास्तविक ऋग्वेद माना जाता है।

२ – बालखिल्य : यह ८वें मंडल का परिशिष्ट है जिसमें कुल ११ सूक्त हैं।

३ – वाष्कल : इसमें कुल ५६ सूक्त हैं परन्तु यह अभी तक अप्राप्य है।

ऋग्वेद में कुल सूक्तों की संख्या १०२८ है ( १०१७ + ११ ) और मंत्रों की संख्या १०४६२ है ।

ऋग्वेद के मंडल

प्रथम मंडल : मधुछन्दा, दीर्घतमा, अंगिरा

द्वितीय मंडल : गृत्समद

तृतीय मंडल : विश्वामित्र; प्रसिद्ध गायत्री मंत्र इसी मंडल में है।

चतुर्थ मंडल : वामदेव; इसमें कृषि का अधिक उल्लेख है।

पंचम मंडल : अत्रि

षष्टम मंडल : भरद्वाज

अष्टम मंडल : कण्व; इसीमें ११ सूक्तों का बालखिल्य परिशिष्ट के रूप में है।

नवम् मंडल : पवमान अंगिरा; यह मंडल सोम के देवता को समर्पित है। इसी मंडल में एक ऋषि कहता है कि , ” मैं कवि हूँ , मेरा पिता वैद्य है और मेरी माता अन्न पीसने वाली है। साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते है ।” *

कारूरहम् तातुभिषगुलपल प्रक्षिणी नना।
नानाधियो वसूयवोsनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेंद्रो परिस्रव॥*

दशम् मंडल : क्षुद्रसूक्तीय, महासूक्तीय; इसी मंडल में नासदीय सूक्त और पुरुष सूक्त है।

  • नासदीय सूक्त में पहली बार अखिल ब्रह्म की कल्पना की गयी है।

एकम् सद् विप्राः बहुदा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥

  • पुरुषसूक्त में सर्वप्रथम शुद्र शब्द का प्रयोग मिलता है और इसमें यह बताया गया है कि कैसे चातुर्वर्ण्यों की उत्पत्ति हुई।

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः।
उरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्याम् शुद्रो अजायत्॥

ब्राह्मण ग्रन्थ : ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं – ऐतरेय और कौषीतकी।

ऐतरेय ब्राह्मण – इसके संकलनकर्ता महीदास की माँ इतरा के नाम पर इस ग्रन्थ का नाम ऐतरेय ब्राह्मण पड़ा है। इसमें राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत , राज्याभिषेक के यज्ञ विधान, राष्ट्र शब्द का उल्लेख , सोमयज्ञ का वर्णन , शुनःशेप आख्यान आदि का उल्लेख है। समुद्र के लिए अथाह , अनंत, जलधि , आदि शब्दों का उल्लेख है। भारतीय साहित्यों में रत्नाकर शब्द का प्रयोग हिन्द महासागर के लिए गया है ।

कौषीतकी / शंखायन ब्राह्मण – इसके संकलनकर्ता कुषितक के नाम पर इसका नाम पड़ा है ।

आरण्यक : ऋग्वेद से जुड़े दो आरण्यक हैं – ऐतरेय और कौषीतकी।

उपनिषद : ऋग्वेद से जुड़े दो उपनिषद हैं – ऐतरेय और कौषीतकी।

यजुर्वेद

यह एक कर्मकाण्डीय वेद है । इसमें विभिन्न यज्ञों के अनुष्ठान की विधियों का उल्लेख है ।इसमें ४० अध्याय और १९९० ऋचाएं हैं । यह गद्य और पद्य दोनों में है । यजुर्वेद के दो भाग है – शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद ।

शुक्ल यजुर्वेद ( वाजसनेयी संहिता ) को वास्तविक यजुर्वेद कहते हैं । इसकी दो शाखाएँ हैं ; कण्व और माध्यन्दिन ।

कृष्ण यजुर्वेद की ४ शाखाएँ हैं :— काठक, कपिष्ठल, मैत्रेयी और तैत्तिरीय। काठक संहिता में हमें कृषि और उससे सम्बंधित अनेक प्रक्रियायों का उल्लेख मिलता है ।

ब्राह्मण ग्रन्थ : तैत्तिरीय ब्राह्मण ( कृष्ण यजुर्वेद से सम्बंधित ) और शतपथ ब्राह्मण ( शुक्ल यजुर्वेद से सम्बंधित )।

शतपथ ब्राह्मण – इसके संकलनकर्ता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं । यह सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण ब्राह्मण माना जाता है । महर्षि याज्ञवल्क्य ने विदेहराज जनक से शिक्षा प्राप्त की थी । इसमें निम्न बातों का उल्लेख मिलता है :- (१) विदेथ – माधव आख्यान से आर्यों के पूर्वी-विस्तार का संकेत मिलता है।, (२) इसमें कृषि की पूरी प्रक्रिया का वर्णन मिलता है तथा इसमें ६, १२ और २४ वृषभों से जुते हलों का उल्लेख हैं।, (३) इसमें गंडक नदी को सदानीरा और नर्मदा के लिए रेवा शब्द मिलता है।, (४) इसमें पुनर्जन्म का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है।, (५) इसमें जलप्लावन की कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार सम्पूर्ण संसार में जल प्लावित हो जाने पर भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके मनु और सतरूपा की रक्षा की थी, इन्हीं मनु वैवस्वत से पुनः जीवन की उतपत्ति हुई।, (६) इसमें पुरुरवा और उर्वशी आख्यान है।, (७) इसमें चिकित्सक देवता अश्वनी कुमारों द्वारा च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान करने का उल्लेख है।, (८) इसमें स्त्री के लिए अर्धांगिनी शब्द का प्रयोग हुआ है।, (९) इसमें वैश्यों के लिए अन्यस्यबालिकृत और अन्यस्याद्य शब्द का उल्लेख है।, (१०) इसमें १२ प्रकार के रत्निनों का उल्लेख है।, (११) इसमें रामकथा का वर्णन भी है ।

आरण्यक : वृहदारण्यक , तैत्तिरीय और शतपथ प्रमुख आरण्यक यजुर्वेद से जुड़े हुए हैं ।

उपनिषद : यजुर्वेद से जुड़े उपनिषद हैं – वृहदारण्यक , कठोपनिषद , ईशोपनिषद , तैत्तिरीय उपनिषद , श्वेताश्वतर उपनिषद , मैत्रायण उपनिषद , महानारायण उपनिषद आदि ।

(१) वृहदारण्यक उपनिषद में यञवल्क्य-गार्गी संवाद का उल्लेख है ।

(२) कठोपनिषद में यम-नचिकेता का संवाद है । इसमें आत्मा को पुरुष कहा गया है और मृत्यु से सम्बंधित चर्चाएँ हैं ।

(३) ईशोपनिषद में कहा गया है की सम्पुर्ण संसार इसी ईश में व्याप्त है ।

(४) तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है , ” अधिक अन्न उपजावो ” ।

(५) श्वेताश्वतर उपनिषद में सर्वप्रथम भक्ति का उल्लेख मिलता है यद्यपि भक्ति का विस्तृत वर्णन आगे चलकर श्रीमद्भगवतगीता में मिलता है ।

सामवेद

यह सबसे छोटा वेद है। इसमें कुल १५५९ ऋचाएँ हैं जिसमें से १४७१ ऋग्वेद से ली गयी हैं जबकि मात्र ७८ ही इसकी हैं इसीलिए इसको ऋग्वेद से अभिन्न माना जाता है। साम का शाब्दिक अर्थ है गायन । इसमें संगीत के सप्तस्वरों का ( सा..रे..गा…) का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। इसकी कुल तीन शाखाएँ हैं – कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।

ब्राह्मणग्रन्थ : सामवेद के मुख्यतः दो ब्राह्मण हैं – ताण्ड्य और जैमिनीय ।

ताण्ड्य ब्राह्मण – यह बहुत बड़ा ब्राह्मण है इसीलिए इसे महाब्राह्मण कहते हैं । यह २५ अध्यायों में विभक्त है इसीलिए इसे पंचविश ब्राह्मण भी कहते हैं। इसका एक परिशिष्ट षड्विश भी है जिसे अद्भुत ब्राह्मण कहते हैं क्योंकि इसमें अकाल आदि का उल्लेख है ।

आरण्यक : सामवेद के दो आरण्यक हैं – जैमनीय और छान्दोग्य।

उपनिषद : सामवेद के दो उपनिषद हैं – छान्दोग्य और जैमनीय।

छान्दोग्य उपनिषद – यह प्राचीनतम उपनिषदों में से एक है जो गद्य में लिखा गया है । इसकी प्रमुख बातें निम्न हैं – (१) देवकी पुत्र श्रीकृष्ण का प्राचीनतम् उल्लेख इसमें है।, (२) प्रथम तीन आश्रमों का उल्लेख सर्वप्रथम इसी में है अर्थात् सन्यास आश्रम का उल्लेख नहीं है।, (३) इसमें कुरु नरेश उद्दालक आरुणि और उनके पुत्र श्वेतकेतु के मध्य आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता से सम्बंधित प्रसिद्ध संवाद है।, (४) इसमें “तत् त्वम् असि” का उल्लेख है ।

अथर्ववेद

ऋग्वेद के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा वेद है। अथर्वा ऋषि के नाम पर इसका नाम अथर्ववेद पड़ा। इसे ब्रह्मवेद और श्रेष्ठ वेद भी कहते हैं । यह सर्वाधिक लोकप्रिय वेद था क्योंकि इसमें जनसाधारण से जुड़े भूत-प्रेत, जादू- टोना, आयुर्वेद आदि का उल्लेख है । इसमें २० अध्याय, ७३१ सूक्त और ५९८७ मन्त्र हैं। इसकी दो शाखाएँ हैं – शौनक और पिप्पलाद। इससे निम्न जानकारियाँ मिलती हैं – (१) इसमें मृत्युलोक के राजा परीक्षित का सबसे पहले उल्लेख है।, (२) इसमें मगध, अंग, अयोध्या आदि का उल्लेख है।, (३) इसमें सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ बताया गया हैं।, (४) इसमें प्रथम कृषि वैज्ञानिक पृथुवैन्य का उल्लेख है।, (५) वैसे तो गोत्र शब्द का उल्लेख सर्प्रथम ऋग्वेद में है परन्तु वहाँ उसका अर्थ गोष्ठ अर्थात् जहाँ एक ही कुल की गायें पाली जाती हैं के अर्थ में हुआ है । अथर्ववेद में गोत्र का प्रयोग सर्वप्रथम कुल के अर्थ में हुआ है जिसका अर्थ है एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय।, (६) राजा के निर्वाचन से सम्बंधित सूत्र इसमें पाए जाते हैं।, (७) १० प्रपाठकों में निदानसूत्र जैसे रोगनिदान , तंत्र-मन्त्र , जादू-टोना आदि का उल्लेख है। इसके केन सूक्त को चिकित्सा विज्ञान का आधार माना जाता है ।

ब्राह्मण ग्रन्थ : अथर्वेद का एकमात्र ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण है ।

आरण्यक : अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है ।

उपनिषद : अथर्ववेद के उपनिषद हैं – मुंडकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद।

मुंडकोपनिषद – इसमें “सत्यमेव जयते” का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है । इसी में यज्ञों को ऐसी टूटी नौकाओं के सामान बताया गया है जिसके द्वारा इस जीवन रुपी भवसागर को पार नहीं किया जा सकता ।

माण्डूक्योपनिषद : यह सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है।

प्रश्नोपनिषद : इसमें आत्मा-ब्रह्म पर गूढ़ दार्शनिक विचारों का विवेचन है।

वेदांग

वेदों को अच्छे से समझने के लिए संस्कृत भाषा में गद्य में वेदांगों की रचना हुई । इसकी कुल संख्या ६ है; (१) शिक्षा, (२) कल्प, (३) व्याकरण, (४) निरुक्त, (५) छंद और (६) ज्योतिष।

पाणिनि ने अष्टाध्यायी में इन वेदांगों की तुलना शरीर के विभिन्न अंगों से की है :-

वेदांग शरीर के अंगों से तुलना
व्याकरण मुख
ज्योतिष  आँख
नाक  शिक्षा
निरुक्त कान
छंद पैर
कल्प हाथ

 

(१) शिक्षा अर्थात् उच्चारण शास्त्र, वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण के लिए इसकी रचना की गयी और इसके अध्ययन को स्वन् विज्ञान कहते हैं। वामज्य कृत गायलम इसका प्राचीनतम उदहारण है।

(२) कल्प का अर्थ है कर्मकांड , इसमें वैदिक कर्मकांडों का उल्लेख है। इस साहित्य को कल्पसूत्र कहते हैं और इसके ३ भाग हैं :- श्रौत सूत्र, गृह सूत्र और धर्म सूत्र।

श्रौत सूत्र : इससे वैदिक यज्ञों की जानकारी मिलती है । इसी का भाग है शुल्वसूत्र जिससे यज्ञ वेदियों के निर्माण का उल्लेख है और इसी से रेखगणित की उत्तपत्ति मानी जाती है।

गृह सूत्र : इसमें गृहस्थाश्रम से जुड़े सम्बंधित धार्मिक अनुष्ठानों और कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। इसमें आश्रम, संस्कार, पुरुषार्थ आदि का उल्लेख है। महाभारत का उल्लेख सर्वप्रथम आश्वलायन गृहसूत्र में मिलता है ।

धर्म सूत्र : इससे राजनितिक, आर्थिक और सामाजिक जानकारी मिलती है। धर्मसूत्रों से सर्वप्रथम जाति व्यवस्था की जानकारी मिलती है। प्रमुख धर्म सूत्र हैं – आपस्तंम्भ, गौतम और वशिष्ठ धर्म सूत्र आदि। गौतम धर्म सूत्र सबसे पुराना धर्म सूत्र है। वशिष्ठ धर्म सूत्र का प्रसिद्ध कथन है, ” पिता रक्षित कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वतन्त्र्यमर्हति॥”

(३) व्याकरण – शब्दों की मीमांसा करने वाले शास्त्र को व्याकरण कहते हैं। पाणिनि कृत अष्टाध्यायी प्राचीनतम व्याकरण ग्रन्थ है। पतंजलि कृत महाभाष्य और कात्यायन कृत वार्तिक अन्य व्याकरण के ग्रन्थ हैं। पाणिनि, पतंजलि और कात्यायन को मुनित्रय कहते हैं ।

(४) निरुक्त अर्थात् व्युत्पत्ति शास्त्र। इसमें वैदिक शब्दों की उत्तपत्ति बताई गयी हैं । निरुक्त के प्रथम आचार्य कश्यप ऋषि थे जिन्होनें निघण्टु नामक पुस्तक लिखी परन्तु वर्तमान में यह अनुपलब्ध है । वर्तमान में यास्क कृत निरुक्त ( ५वीं शती ई०पू० ) क्लासिकल संस्कृत का प्राचीनतम् ग्रन्थ माना जाता है।

(५) छंद – पद्यों को छंदों में सूत्रबद्ध करने के लिए छंदों की रचना की गयी इसे फिट्सूत्र और चतुष्पदी वृत कहा जाता है। पिंगल कृत छंदसूत्र इसका प्राचीनतम् ग्रन्थ है।

(६) ज्योतिष ब्रह्माण्ड और नक्षत्रों को देखकर को देखकर भविष्य बताने की कला ज्योतिष का विषय है । लगथ मुनि कृति वेदांग ज्योतिष प्राचीनतम् ज्योतिष ग्रन्थ है । ज्योतिष के अन्य ग्रंथों में गार्गी संहिता, ब्रह्मसिद्धान्त, वृहत्संहिता आदि हैं ।

उपवेद

प्रत्येक वेद का कोई न कोई उपवेद है :-

(१) शिल्पवेद, यह ऋग्वेद से सम्बंधित है और इससे शिल्पकला सम्बंधी जानकारी मिलती है।

(२) गन्धर्व वेद, यह सामवेद से सम्बंधित है और इससे संगीत कला की जानकारी मिलती है।

(३) धनुर्वेद, यह यजुर्वेद से सम्बंधित है और इससे धनुर्विद्या की जानकारी मिलती है।

(४) आयुर्वेद, यह अथर्ववेद से समन्धित है। उपनिषदों में श्वेतकेतु नामक आयुर्वेदाचार्य का उल्लेख है। अथर्ववेद का निदानसूत्र आयुर्वेद से सम्बंधित है। आयुर्वेद का जन्मदाता चरक को माना जाता है जोकि कनिष्क का राजवैद्य था तथा उसने चरक संहिता लिखी ।

धर्मशास्त्र

धर्मशास्त्र के अंतर्गत मुख्यतः स्मृतियाँ आती हैं। ये धर्मशास्त्र मुख्यतः पद्य में लिखे गए हैं परन्तु विष्णु स्मृति गद्य में लिखी गयी है। स्मृतियाँ मुख्यतः विधि विषयक ग्रन्थ हैं जिसमें मुख्यतः सामाजिक विधानों का संकलन किया गया है। इन स्मृतियों का अंतिम संकलन गुप्त काल में किया गया है। मनुस्मृति सुंगकाल में तो देवल स्मृति गुप्तोत्तर काल में १२वीं शती में संकलित की गयी।

मनुस्मृति

मनुस्मृति का समय दूसरी सती ई० पू० से दूसरी ई० मानी जाती है। इसका संकलन शुंगकाल में हुआ और यह भारत की प्राचीनतम् स्मृति है । इसमें सामाजिक विधानों को अत्यंत कठोर बनाया गया है । आधुनिक मनु डॉक्टर बी० आर० आंबेडकर को माना जाता है। मनुस्मृति की मुख्य बातें निम्न हैं :-

(१) मनुस्मृति में भारत के प्रमुख क्षेत्रों का उल्लेख है :-

ब्रह्मवर्त क्षेत्र – सरस्वती और दृषद्वती नदियों के मध्य का क्षेत्र ,

ब्रह्मर्षि क्षेत्र – गंगा और यमुना का दोआब ,

मध्य क्षेत्र – मध्य भारत / विंध्यांचल क्षेत्र और

आर्यावर्त – नर्मदा के उत्तर में सम्पूर्ण उत्तर भारत।

(२) मनु ने जाति व्यवस्था के नियम अत्यंत कठोर बनाये तथा ब्राह्मणों को किसी भी दशा में शुद्र प्रदत्त अन्न और जल ग्रहण करने की मनाही की।

(३) मनु वैवाहिक संबंधों में अनुलोम विवाह की आलोचना न करके प्रतिलोम विवाह की आलोचना करते हैं।

(४) मनु ने विदेशी शासक वर्ग को म्लेक्ष्य कहा और निम्न क्षत्रिय वर्ग में शामिल किया।

(५) मनु वर्ण-संकर की आलोचना करते हैं यद्यपि उनकी पुस्तक में ६३ वर्ण-संकर का उल्लेख है।

(६) मनु ने सर्वाधिक दंड शूद्रों के लिए जबकि सबसे कम ब्राह्मणों के लिए निर्धारित किया है। यद्यपि चोरी के अपराध में मनु और नारद दोनों ब्राह्मण को शुद्र से अधिक दंड का प्रावधान करते हैं ।

(७) मनु ने विधवाओं के विवाह की मान्यता नहीं दी तथा उनके मुंडन संस्कार की बात करते हैं। यद्यपि मनु यह भी कहते है की, ” यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त्रफला: क्रियाः॥”

(८) मनुस्मृति में स्त्रीधन पर सर्वप्रथम पुत्रियों और फिर बहुओं के अधिकार की बात कही गयी है।

(९) मनुस्मृति में आचार्या और उपाध्याया का उल्लेख है। आचार्या निःशुल्क तो उपाध्याया सशुल्क शिक्षा प्रदान करती थीं।

(१०) मनुस्मृति प्रथम पुस्तक है जिसमें अधिकारियों को भूमि के रूप में वेतन देने की बात कही गयी है। यद्यपि इसकी शुरुआत हर्षवर्धन के काल में हुई जिसका वर्णन वाणभट्ट के हर्षचरित में है।

(११) मनुस्मृति में कुछ मुद्राओं का वर्णन मिलता है :- सुवर्ण, सोने का सिक्का जिसका भार ८० कृष्णल या १५० ग्रेन था।; कार्षापण, ताँबे का सिक्का जिसका भार ८० कृष्णल या रत्ती अथवा १५० ग्रेन थी।

विशेष: कालांतर में मनुस्मृति पर कुछ भाष्य और टीकाएँ लिखी गयी हैं –

मेधातिथि, कुल्लूकभट्ट और गोविंदराज ने मनुस्मृति पर भाष्य लिखा है जबकि भारुचि ने टीका लिखा है।

मेधातिथि ने अपने प्रसिद्ध भाष्य में सती प्रथा की आलोचना की है और उसे आत्महत्या कहा है। बाणभट्ट ने भी अपने हर्षचरित में सतीप्रथा की आलोचना की है।

याज्ञवल्क्य स्मृति

यह गुप्तकाल में लिखी गयी प्रथम स्मृति है जबकि प्राचीनता में मनुस्मृति के बाद इसका स्थान आता है। इसकी प्रमुख बातें निम्न हैं :-

(१) मनु ने अनुलोम विवाह की अनुमति दी है विशेषकर ब्राह्मण पुरुष की शुद्र कन्या से (अनुलोम विवाह) जबकि याज्ञवल्क्य इसका विरोध करते हैं।

(२) याज्ञवल्क्य ने नियोग प्रथा का समर्थन किया है जबकि मनु इसकी निंदा करते हैं।

(३) कायस्थ वर्ग का उल्लेख सर्वप्रथम इसी स्मृति में मिलता है। कायस्थ का एक वर्ग के रूप में उल्लेख गुप्तकाल में मिलता है जोकि गुप्तोत्तर काल में एक जाति में बदल गयी । जाति के रूप में कायस्थ का उल्लेख गुप्तोत्तर स्मृति, ओसनम् / ओसनस् स्मृति में मिलता है।

(४) याज्ञवल्क्य स्मृति प्रथम स्मृति है जिसमें स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार दिया गया है यद्यपि यह अधिकार पुत्रहीन विधवा को प्राप्त है।

(५) मनु द्युत-क्रीड़ा के विरोधी थे परन्तु याज्ञवल्क्य स्मृति में इसे राजकीय आय का एक साधन माना गया है।

(६) याज्ञवल्क्य स्मृति की महत्ता के कारण ही कालांतर में इसपर भाष्य लिखे गए :- विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, अपरार्क / आदित्य -प्रथम प्रमुख भाष्यकार हैं। अपरार्क केरल के एक शिलाहार शासक थे।

नारद स्मृति

यह गुप्तकाल की प्रमुख स्मृति है इसमें आर्थिक श्रेणियों और न्याय व्यवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। इसकी प्रमुख बातें निम्न हैं :-

(१) इसमें नियोग प्रथा और विधवा विवाह की अनुमति दी गयी है।

(२) इसमें दासों के सर्वाधिक १५ प्रकारों का उल्लेख है। दासों की मुक्ति का विधान भी सर्वप्रथम इसी स्मृति में किया गया था।

(३) इस स्मृति के अनुसार विधवाओं की संपत्ति राज्य द्वारा लेकर उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी राज्य को उठानी चाहिए इसे सनातन धर्म कहा गया है।

(४) इसमें गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्रा दीनार का उल्लेख है यह मुद्रा सर्वप्रथम रोम में जारी की गयी थी जबकि भारत में इसे कुषाणों ने इसे जारी किया। दीनार शब्द लैटिन भाषा के डेरिक से बना है ।

(५) नारद द्युत-क्रिया को राजकीय नियंत्रण में कराने के पक्षधर हैं।

अन्य स्मृतियाँ

अन्य प्रमुख स्मृतियाँ हैं : पाराशर स्मृति , वृहस्पति स्मृति , कात्यायन स्मृति , विष्णु स्मृति , देवल स्मृति आदि। इसमें से देवल स्मृति पूर्व-मध्यकाल की है शेष गुप्तकाल की है ।

विष्णु स्मृति गद्य में लिखी गयी गुप्तकाल की मानी जाती जाती है । इसमें मुद्राओं का विवेचन मनु स्मृति की अपेक्षा अधिक विकसित रूप में दिया गया है।

देवल स्मृति पूर्व-मध्यकालीन स्मृति मानी जाती है। सामान्यतः इसे विधि-विषयक स्मृति नहीं मानी जाता है क्योंकि इसमें उन हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल करने का विधान मिलता है जिन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया था।

अचल संपत्ति के हस्तांतरण से सम्बंधित पुस्तकें

पिता से पुत्र में अचल संपत्ति का हस्तांतरण वर्तमान समय में २ पुस्तकों पर आधृत है :-

(१) मिताक्षरा विज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गयी याज्ञवल्क्य स्मृति पर भाष्य है। विज्ञानेश्वर चालुक्य वंशी शासक विक्रमादित्य-षष्ठ (१०७६-११२६ ई०) के दरबार में थे। मिताक्षरा के अनुसार पिता की सम्पत्ति में पुत्र का जन्मना अधिकार है। बंगाल, असम और पूर्वोत्तर भाग को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण भारत में यही विधान आज भी प्रचलित है।

(२) दायभाग के लेखक जीमूतवाहन हैं। १२वीं शदी में लिखी गयी इस पुस्तक में पिता की मृत्यु के बाद ही पुत्र को संपत्ति में अधिकार मिलता है। बंगाल, असम और पूर्वोत्तर भारत में यही विधान आज भी प्रचलित है।

पुराण

पुराण का शाब्दिक अर्थ है प्राचीन आख्यान और इसके संकलनकर्ता लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं वैसे परम्परानुसार वेदव्यास को माना जाता है इसका अंतिम संकलन गुप्तकाल में माना जाता है। सर्वप्रथम पार्जिटर नमक विद्वान ने पुराणों के ऐतहासिक महत्व की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। सामान्यतः पुराणों की संख्या १८ है :- (१) मत्स्य, (२) मार्कण्डेय, (३) भविष्य, (४) भागवत, (५) ब्रह्माण्ड, (६) ब्रह्मवैवर्त, (७) ब्रह्मा, (८) वामन, (९) वाराह, (१०) विष्णु, (११) वायु, (१२) अग्नि, (१३) नारद, (१४) पद्म, (१५) लिंग, (१६) गरुड़, (१७) कूर्म तथा स्कन्द पुराण। इसमें मत्स्य और वायु पुराण सबसे प्राचीन है। पुराणों में मुख्यतः प्राचीन राजवंशों का इतिहास वर्णित है। विष्णु पुराण में इतिहास की परिभाषा दी गयी है।

अमरकोश में पुराणों के मुख्यतः ५ विषयवस्तु माने गए है* :-

(१) सर्ग – जगत् की सृष्टि,

(२) प्रतिसर्ग – सृष्टि का प्रत्यावर्तन ऐवम् प्रतिविकास,

(३) मन्वन्तर – महायुगों का इतिहास,

(४) वंश – विभिन्न वंशों का इतिहास और

(५) वंशानुचरित – किसी वंश विशेष का इतिहास।

“सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशों मन्वान्तराणि च।

वंशानुचरितश्चचैनं पुराणं पंचलक्षणम्॥*

इनमें ऐतिहासिक दृष्टि से “वंशानुचरित” का विशेष महत्त्व है। अठारह पुराणों से केवल पाँच में (मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भागवत) ही राजाओं की वंशावली पायी जाती है। इनमें मत्स्यपुराण सबसे अधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक है। पुराणों की भविष्य शैली में कलियुग के राजाओं की तालिकायें दी गयी है। इनके साथ शिशुनाग, नन्द, मौर्य, आन्ध्र तथा गुप्त वंशों की वंशावलियाँ भी मिलती है।

मौर्यवंश के लिये विष्णु पुराण तथा आन्ध्र (सातवाहन) वंश के लिये मत्स्यपुराण महत्त्व के है। इसी प्रकार वायु पुराण में गुप्तवंश की साम्राज्य सीमा का वर्णन तथा गुप्तों की शासन पद्धति का भी कुछ विवरण प्राप्त होता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अग्निपुराण का काफी महत्त्व है जिसमें राजतन्त्र के साथ-साथ कृषि सम्बन्धी विवरण भी दिया गया है।

इस तरह पुराण प्राचीनकाल से लेकर गुप्तकाल के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का परिचय कराते है। छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के पहले के प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये तो पुराण ही एकमात्र स्रोत है। दूसरे शब्दों में महाभारत से ६०० ई० पू० के मध्य के इतिहास का एकमात्र स्रोत पुराण ही हैं।

परन्तु इसकी सबसे बड़ी कमी है की इसमें भविष्यवाणियाँ की गयी हैं; दूसरे, इससे समय की जानकारी नहीं मिलती है ।

महाकाव्य

भारत में कई महाकाव्य लिखे गए परन्तु सर्वप्राचीन और लोकप्रिय दो हैं : रामायण और महाभारत। इनका अंतिम संकलन गुप्तकाल में किया गया यद्यपि इसमें से रामायण सर्वप्राचीन है। इसीलिए रामायण को आर्ष या आदि महाकाव्य कहा जाता है। पुलकेशिन-द्वितीय का ऐहोल अभिलेख ऐसा प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है जिसमें रामायण, महाभारत, कालिदास और भारवि का उल्लेख मिलता है।

रामायण

रामायण के संकलनकर्ता महर्षि वाल्मीकि हैं। रामायण को आदि / आर्ष काव्य जबकि महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि कहा जाता है। इसका अंतिम संकलन गुप्तकाल में माना जाता है। शुरू में इसमें ६,००० श्लोक थे बाद में इनकी संख्या बढ़कर १२,००० और अंततः २४,००० हो गयी इसीलिए इसे चतुर्विंशति साहस्री संहिता भी कहते हैं। इसकी कहानी उत्तर प्रदेश के अयोध्या से शुरू होकर बिहार और सम्पूर्ण भारत होते हुए श्रीलंका तक जाती है। गुप्तकाल में इसका प्रचार दक्षिण-पूर्व एशिया तक हो जाता है। रामायण की लोकप्रियता को देखते हुए इसका कई भाषाओं में अनुवाद किया गया :-

(१) तमिल भाषा – चोल शासक कुलोत्तुंग-तृतीय के समय में कम्बन ने रामायणम् / रामावतारम् नाम से रामायण का अनुवाद तमिल भाषा में किया है।

(२) बांग्ला भाषा – बंगाल के शासक बारबकशाह के शासनकाल में कृत्तिवास ने रामायण का अनुवाद बंगाली भाषा में किया इसे बंगाली भाषा का बाइबिल या पंचम वेद कहा जाता है।

(३) फ़ारसी भाषा – अकबर के काल में बदायुँनी ने रम्मनामा नाम से रामायण का अनुवाद किया।

(४) अवधी भाषा – अकबर के काल में गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण के श्रीराम के आदर्श चरित्र का वर्णन अपने प्रसिद्ध महाकाव्य “श्रीरामचरितमानस” में किया। प्रसिद्ध विद्वान ग्रियर्शन ने श्रीरामचरितमानस को उत्तर भारत के करोंड़ो लोगों की एकमात्र बाइबिल बताया है। यद्यपि आइन-ए -अकबरी में तुलसीदासजी का उल्लेख नहीं है ।

(५) तमिल भाषा – २०वीं शदी में ई० वी० रामास्वामी नायकर ने तमिल भाषा में सच्ची रामायण लिखी इसमें राम की जगह रावण की महिमा है।

महाभारत

इसका संकलन महर्षि वेदव्यास ने किया गया है। इसका अंतिम संकलन गुप्तकाल में किया गया है। प्रारम्भ में इसमें ८,८०० श्लोक थे तब इसे जयसंहिता कहा गया परन्तु जब श्लोकों की संख्या बढ़कर २४,००० श्लोक हो गयी तब इसे भारत कहा गया और जब श्लोकों की संख्या बढ़कर १०० हज़ार अर्थात् एक लाख हो गयी तब इसे “महाभारत या शतसाहस्त्री संहिता” कहा गया वर्तमान में यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है। इसकी प्रस्तावना में वेदव्यास ने लिखा है, “धर्मे अर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्तितदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्॥” महाभारत का युद्ध कुल १८ दिनों तक चला इसीलिए इसमें कुल १८ पर्व हैं। इसका एक परिशिष्ट हरिवंश भी है। इसका छठा पर्व भीष्म पर्व है उसी का भाग श्रीमद्भगवद्गीता है जिसमें भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी है। इसमें भी सर्वाधिक महत्व कर्म को दिया गया है। महाभारत के महत्व के कारण ही अन्य भाषाओं में इसके अनुवाद हुए :-

(१) तमिल भाषा – संगमकाल में विल्लिपुत्तुर ने तमिल भाषा में अनुवाद किया। पल्लवकाल में पेरुन्देवनार ने तमिल भाषा में भारतम् या नंदिक्लंमबकम् नाम से अनुवाद किया।

(२) बांग्ला भाषा – बंगाल के शासक नुसरतशाह के समय काशीदास ने इसका अनुवाद किया यद्यपि इसकी शुरुआत उसके पिता अलाउद्दीन हुसैनशाह के समय में ही हो गयी थी।

(३) फ़ारसी भाषा – अकबर के काल में विद्वानों के एक वर्ग ने इसका अनुवाद रज्बनामा नाम से किया जिसका नेतृत्व फ़ैज़ी ने किया जिसमें शामिल थे – नकीब खान, अबुल फ़ज़ल, बदायुँनी आदि।

श्रीमद्भगवतगीता में भक्ति का विस्तृत उल्लेख है। इसमें अवतारवाद का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। दाराशिकोह ने इसका अनुवाद फ़ारसी में किया।

बौद्धसाहित्य

त्रिपिटक

बौद्ध साहित्य तीन पिटारियों में प्राप्त होने के कारण ‘त्रिपिटक’ कहा जाता है। यह पाली भाषा में लिखा गया है तथा इसका निर्माण, संकलन और संपादन महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद से लेकर प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व तक हुआ। इन त्रिपिटकों का संकलन विभिन्न बौद्ध संगीतियों में हुआ। ये त्रिपिटक हैं – (१) सुत्तपिटक, (२) विनयपिटक, (३) अभिधम्म पिटक।

(१) सुत्तपिटक – सुत्त का अर्थ होता है धर्मोपदेश। इसमें बौद्ध धर्म के सिद्धान्त और उपदेश संगृहीत हैं। इसके अंतर्गत ५ निकाय आते हैं – दीर्घ निकाय, मज्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय और खुद्दक निकाय। प्रथम चार में बुद्ध के उपदेश वार्तालाप के रूप में दिए गए हैं जबकि पाँचवाँ (खुद्दक निकाय ) पद्यात्मक शैली में है। संयुक्त निकाय का ही भाग धर्मचक्रप्रवर्तन सुत्त है और इसी में मध्यम प्रतिपदा तथा अष्टांगिक मार्ग का उल्लेख है। अंगुत्तर निकाय में ही १६ महाजनपदों का उल्लेख है। खुद्दक निकाय में कई ग्रन्थ आते हैं – थेरागाथा, थेरीगाथा, जातक आदि। जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्म की कहानियों का वर्णन है।

(२) विनयपिटक – इसमें संघ सम्बन्धी नियम तथा दैनिक जीवन सम्बन्धी आचार-विचार, विधि-निषेधों आदि का उल्लेख है। इसके निम्न भाग हैं :- पतिमोक्ख ( प्रातिमोक्ष ), सुत्त विभंग, खन्धक और परिवार।

(३) अभिधम्म पिटक – इसमें बौद्ध दार्शनिक सिद्धांतों का वर्णन है। यह प्रश्नोत्तर रूप में है। इसकी रचना सम्राट अशोक के समय तृतीय बौद्ध संगीति के समय मोग्गलपुत्ततिस्स ने की थी। अभिधम्मपिटक सबसे बाद की रचना है और इसमें सर्वप्रथम संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है । इसके अंतर्गत ७ ग्रन्थ आते हैं :- धम्मसंगणि, विभंग, धातुकथा, युग्गल पंचति, कथावत्थु, यमक और पट्ठान।

अन्य बौद्ध साहित्य

त्रिपिटकों के अलावा अन्य प्रमुख बौद्ध ग्रन्थ – नागसेन कृत मिलिन्दपन्हो, सिंहली अनुश्रुतियाँ दीपवंश और महावंश।

संस्कृत बौद्ध ग्रन्थ

अश्वघोष कनिष्क के राजसभा में रहते थे और इनकी तीन रचनायें प्रसिद्ध हैं – बुद्धचरित, सौन्दरानन्द और शारिपुत्र-प्रकरण। इसमें से प्रथम दो महाकाव्य है जबकि अंतिम नाटक है। इसके अतिरिक्त महावस्तु, ललितविस्तार, दिव्यावदान अन्य संस्कृत में लिखे गए बौद्ध ग्रन्थ हैं।

जैन साहित्य

जैन साहित्य को आगम ( सिद्धाँत ) कहा जाता है । ये अर्धमागधी / मागधी / प्राकृत में लिखे गए हैं। इसके तहत १२ अंग, १२ उपांग, १० प्रकीर्ण, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र और अनुप्रयोग सूत्र आते हैं।

१२ अंग – आचारंगसुत्त, सूयग दंग ( सूत्र कृतंग ) सूत्र, ठाडंग ( स्थानांग ), समवायांग सुत्त, भगवती सुत्त, नायाधम्मकथा ( ज्ञाताधर्मकथा ) सुत्त, उवासगदसावों ( उपासकदशा ) सुत्त, अंतगडदसावों, अणुत्तरोववाइय दसावों, पण्हावागरणाइ ( प्रश्न व्याकरण ), विवाग सुयम और दिट्टिवाय ( दृष्टिवाद )। भगवती सूत्र में १६ महाजनपदों का उल्लेख है परन्तु बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय से कुछ नाम भिन्न मिलते हैं ।

१२ उपांग – प्रत्येक अंग से सम्बंधित एक-एक उपांग है – औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चंद्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, निरयवलि, कल्पावसन्तिका, पुष्पिका, पुष्प चूलिका और वृष्णि दशा।

१० प्रकीर्ण – ये प्रमुख ग्रंथों के परिशिष्ट हैं – चतुःशरण, आतुर-प्रत्याख्यान, भक्तिपरिज्ञा, संस्तार, तंदुल वैतालिक, चंद्रवैध्यक, गणिविद्या, देवेंद्रस्तव और महाप्रत्याख्यान।

छेदसूत्र – इसमें जैन भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए विधि-नियमों का संकलन है। इसका महत्व बौद्धों के विनयपिटक जैसा है। छः छेदसूत्र हैं :- निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, आचार दशा, कल्प तथा पञ्चकल्प।

मूलसूत्र – उत्तराध्ययन, षडावषयक, दशवैकालिक और पिंडनिर्युक्ति ( पाक्षिक सूत्र )।

नांदी सूत्र और अनुयोग द्वार – ये दोनों जैनियों के स्वतंत्र ग्रन्थ हैं जो एक प्रकार से विश्वकोश हैं। इसमें भिक्षु-भिक्षुणिओं के लिए आचरणीय प्रायः सभी बातें लिखी गयी हैं।

उपर्युक्त सारे ग्रंथ श्वेताम्बर संप्रदाय से जुड़े हैं। दिगंबर सम्प्रदाय के लोग इनकी प्रामाणिकता को नहीं मानते हैं।

अन्य जैन ग्रन्थ :- कल्पसूत्र ( भद्रबाहु ), परिशिष्टपर्वन ( हेमचन्द्र , अपभ्रंश में ) आदि।

संस्कृत जैन ग्रन्थ – तत्वार्थाधिगम सूत्र ( उपस्वामी ), न्यायावतार: ( सिद्धिसेन ), द्रव्य संग्रह ( नेमिचन्द्र ), स्यादवादमंजरी ( मालिसेन ), प्रभाकमल मार्तण्ड ( प्रभाचन्द्र )।

 

संगम साहित्य

संगम साहित्यों से विदित होता है कि कुल तीन संगम का आयोजन पाण्ड्यों की राजधानी मदुरा में हुआ। संगम का अर्थ है परिषद या गोष्ठी जिसमें तमिल विद्वान और कवि भाग लेते थे।

तीन संगम

प्रथम संगम :— यह सम्मेलन मदुरा में हुआ और इसकी अध्यक्षता ऋषि अगस्त्य ने की थी। इस संगम का कोई भी साहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

द्वितीय संगम :— यह सम्मेलन कपाटपुरम् ( अलवम् ) में हुआ और इसके संस्थापक ऋषि अगस्त्य जबकि अध्यक्षता तोल्काप्पियर ने की थी। इस सम्मेलन का एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ तोल्काप्पियम् है। इसकी रचना तोल्काप्पियर ने की है और यह तमिल व्याकरण का ग्रंथ है।

तृतीय संगम :— यह संगम उत्तरी मदुरा में हुआ और इसकी अध्यक्षता नक्कीरर ने की थी। वर्तमान संगम साहित्य के अधिकांश साहित्य इसी संगम से सम्बंधित हैं।

संगम साहित्य

इसकी रचना तमिल भाषा और ब्राह्मी लिपि में की गयी थी। 

संगम साहित्य का वर्गीकरण 

तमिल व्याकरण 

तोल्काप्पियम् —  यह द्वितीय संगम का उपलब्ध एकमात्र ग्रंथ है। यह तमिल भाषा का उपलब्ध ग्रंथों में प्राचीनतम् रचना मानी जाती है। इसके संकलनकर्ता ऋषि अगस्त्य के शिष्य तोल्काप्पियर हैं। यह तमिल व्याकरण की रचना है। इसमें चतुवर्ग ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) का भी उल्लेख है।

तीन संग्रह 

एतुत्थौके ( अष्टसंग्रह ) — इसमें ८ रचनाएँ शामिल हैं :—

  • नारिनई, कुरुन्थोगई, ऐनगुरुनूरू, पदिरुपात्तु, परिपादल, अगानाओरु, पुरानानूरु, कालित्तोगई।

पत्तुप्पात्तु ( दस गीतों का संग्रह ) — इसमें १० रचनाएँ सम्मिलित हैं :—

  • तिरुमुरुगात्रुप्पदै, पोरुनर्रुप्पदै, शिरुमानार्रुप्पदै, पेरुम्बानारूप्पदै, मुल्लैप्पात्तु, मदुरैकाञ्ची, नेडुनलवाडै, कुरिंजिपात्तु, पत्तिनपालै, मलैपडुहकाद्रम।

पदिनेनकीलकंकु ( १८ कविताओं का संग्रह ) — इसमें १८ रचनाएँ सम्मिलित हैं :—

  • नालिउ, नान्मणिक्कडिगै, इन्नार्नापदु, कारनार्पतु, कलवलिनार्पतु, ऐन्तिगैएम्पतु, ऐन्दिणैएम्बदु, तिणैमालैएम्बदु, तिणैमालैनीनूर्रैम्बदु, कैन्निलै, कूरल, तिरिकडुकम्, आशारक्कोवै, पलमोलि, शिरुमंचमूलम्, मुदुमोलिक्ककांजि, एलादि, इनिलै।

एत्तुथौके और पत्तुप्पात्तु में ‘अहम’ ( प्रणय ) और ‘पुरम’ ( वीरता ) की कविताएँ मिलती हैं। जबकि पदिनेनकीलकन्कु में नैतिकता और सदाचार सम्बंधित कविताएँ मिलती हैं।

इन तीनों का संग्रह तृतीय संगम में किया गया।

महाकाव्य

संगम काल में कुल ५ महाकाव्य लिखे गये जिनमें से वर्तमान में तीन ही उपलब्ध हैं।

शिल्पाद्दिकारम् — इसकी रचना इलांगाआदिगन ने की और यह जैन धर्म से सम्बंधित रचना है।

मणिमेकलै — इसके रचनाकार शीतलैसत्तनार हैं। यह बौद्ध धर्म से सम्बंधित कृति है।

जीवक चिंतामणि — यह तिरुक्तदेवर की कृति है। यह जैन धर्म से संबंधित महाकाव्य है।

 

संस्कृत के प्रमुख कवि तथा ग्रन्थ

 

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था कैसी थी ?

 

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