प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था कैसी थी ?

भूमिका

भारतीय सभ्यता और संस्कृति वैश्विक इतिहास में विशेष महत्त्व रखती है। इस दृष्टि से ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा’ का सूक्ष्म विश्लेषण अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

“ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं समस्ततत्तवार्थविलोकदक्षम्।

तेजोऽनपेक्षम् विगतान्तरायं प्रवृत्तिमत्सर्वजगत्त्रयेऽपि॥”

( अर्थात् ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है जो उसे सभी तत्त्वों के मूल को जानने में सहायक है तथा सही कार्यों को करने का मार्ग बताता है। )

महाभारत में उल्लिखित है कि, ‘नास्ति विद्यासमं चक्षुर्नास्ति सत्यसमं तपः।’ विद्या के बारे में कहा गया है कि ‘सा विद्या सा विमुक्तये’ अर्थात विद्या मोक्ष का साधन है। विद्या द्वारा परिमार्जित और विकसित की गयी बुद्धि ही वास्तविक शक्ति है ( बुद्धिर्यस्य बलं तस्य )।

विद्या के विविध उपयोग बताये गए हैं :—

“मातेव रक्षति पितेव हिते नियुक्ते कांतेव चापि रमयत्यपनीय खेदं ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति किं नसाधयति कल्पलतेव विद्या ।।”

( अर्थात् यह माता के समान रक्षा करती है , पिता के समान हितकारी कार्यों में नियोजित करती है , पत्नी के समान दुखों को दूर कर आनंद पहुंचाती है, यश और वैभव का विस्तार करती है एवं कल्पलता के सामान गुणकारी है । )

“विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोतिः धनाद्धर्मः ततः सुखम्।।”

( अर्थात् विद्या से विनय आता है , विनय से पात्रता , पात्रता से धनार्जन होता है , धन से धर्म और जिससे सुख की प्राप्ति होती है। )

विद्या के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है कि “न चौरहार्यं न च भ्रातभाज्यं न राज्यहार्यं न च भारकारि। व्ययेकृतेवर्धत एवं नित्यं, विद्याधनंसर्वधनंप्रधानं॥” अर्थात् विद्या ऐसा धन है जिसे न चोर चुरा सकता है, न भाई बंटा सकता है, न राजा छीन सकता है और न ही मनुष्य के लिए यह भारतुल्य है। यह ऐसा धन है जो व्यय करने पर भी बराबर बढ़ता है । इसीलिए विद्याधन सभी धनों में प्रधान है ।

विद्या विहीन व्यक्ति को तो पशु के सामान तक कहा गया है ( विद्याविहीना: पशुः)।

शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास का साधन है। भारतीय शिक्षा का उद्देश्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान नहीं है बल्कि इससे संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना है। विद्या के द्वारा व्यक्ति उत्तम आजीविका प्राप्त करता है परन्तु यह मात्र आजीविका का साधन नहीं है। शिक्षा आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है (यावज्जीवमधीते विप्रः)। प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का माध्यम रही है।

हमारे प्राचीन ऋषियों ने तो यह तक कहा है कि जो माता-पिता अपनी संतान को शिक्षा नहीं देते वो वास्तव में उनके शत्रु ही है ( माता शत्रु: पिता वैरी बालोये नपठिता)।

प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य

प्राचीन ग्रन्थों में शिक्षा के उद्देश्यों का आधुनिक शिक्षा सिद्धान्त की तरह वर्णन नहीं मिलता। फिरभी विभिन्न ग्रन्थों में इससे सम्बन्धित जो उल्लेख मिलते हैं उनके आधार पर हम प्राचीन शिक्षा के उद्देश्यों और आदर्शों के बारे में ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। इसे हम निम्न प्रकार क्रमबद्ध रूप से समायोजित कर सकते हैं :—

१- चरित्र निर्माण।

२- व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास।

३- नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का विकास।

४- सामाजिक सुख।

५- कौशल की वृद्धि।

६- संस्कृति का प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण।

७- निष्ठा एवं धार्मिकता का विकास करना।

१ – चरित्र निर्माण

शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति का चरित्र निर्माण है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सच्चरित्रता को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। चरित्र व्यक्ति का सबसे बड़ा आभूषण है। चरित्र एवं आचरण से हीन व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा की गयी है।

मनुस्मृति में वर्णित हैं कि ‘सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान् भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु केवल गायित्री मन्त्र का ज्ञाता पण्डित भी यदि वह चरित्रवान् है तो श्रेष्ठ कहलाने योग्य हैं।

‘सावित्रीमात्र सारोपि वरं विप्रः सुयंत्रित। नायंत्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी सर्वविक्रयी॥’ मनुस्मृति ॥

चरित्र का निर्माण सत्कर्मों से ही सम्भव होता है। शिक्षा से व्यक्ति जो ज्ञान और शक्ति का अर्जन करता है उससे उसमें नैतिक गुणों का उद्भव होता है एवं सन्मार्ग का अनुगमन करने की प्रेरणा उसको प्राप्त होती है।

भारतीय विचारकों या यूँ कहें भारतीय परम्परा में चरित्र को विद्वता पर वरीयता दी गयी है अथवा अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। महाभारत में ऐसा कहा गया है कि केवल धार्मिक व्यक्ति ही विद्वान होता है।

‘धर्मम् हि यो वर्धयते स पण्डितः॥’ महाभारत ॥

शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे मनुष्य अपनी तामसी तथा पाशविक प्रवृत्ति पर नियन्त्रण पा सकता है। उसमें अच्छे व बुरे के विभेद करने का विवेक जागृत होता है। वह बुरे कर्मों को तिलांजलि देकर स्वयं को सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है।

विद्यार्थियों के लिये शिक्षा की व्यवस्था कुछ इस तरह की गयी थी कि आरम्भ से ही उसे सच्चरित्र होने की प्रेरणा मिलती थी एवं वह तदनुसार स्वयं को विकसित करता था। वह गुरुकुल में आचार्य / गुरू के सन्निध्य ( सानिध्य ) में रहता था। आचार्य जहाँ एक ओर शिष्य की बौद्धिक प्रगति का ध्यान रखता था, वहीं दूसरी ओर उसके नैतिक आचरण की भी निगरानी करता था। वह ( आचार्य / गुरू ) इस बात का ध्यान रखते थे कि विद्यार्थी दैनंदिन जीवन में शिष्टाचार और सदाचार के नियमों का पालन करें। इनमें छोटे, बड़े और समकक्षों के प्रति आचरण सम्मिलित थे। इनके द्वारा विद्यार्थी को अपना चरित्र निर्माण करने में सहायता मिलती थी।

ब्रह्मचर्य आश्रम ( विद्यार्थी जीवन ) में रहते हुए शौच, आचार, स्नान, सान्ध्य-वंदन आदि विद्यार्थी के चरित्र के मूल आधार थे जो उसके चरित्र का उत्थान या विकास करते थे। विद्यार्थी के समक्ष महापुरुषों — जैसे हरिश्चन्द्र, राम, लक्ष्मण, हनुमान, अर्जुन, भीष्म और सीता, सावित्री, अनसूय्या, द्रौपदी, गार्गी जैसी महान स्त्रियों के उच्च चरित्र का आदर्श प्रस्तुत किया जाता था जिससे उसके चरित्र निर्माण में प्रेरणा मिलती थी।

प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लक्ष्य को पूरा करने में सफलता मिली। इसके द्वारा शिक्षित विद्यार्थी कालान्तर में चरित्रवान और आदर्श नागरिक बनते थे। भारत की यात्रा पर आने वाले विदेशी यात्रियों मेगस्थनीज, फाह्यान, हुएनसांग आदि सभी ने यहाँ के लोगों के नैतिक समुन्नत चरित्र के समुन्नत का प्रमाण प्रस्तुत किया है।

 

२ – व्यक्तित्व का सर्वाङ्गीण विकास

प्राचीन शिक्षा का एक उद्देश्य विद्यार्थी को व्यक्तित्व के विकास को पूरा अवसर प्रदान करना था। भारतीय व्यवस्थाकारों ने बालकों के व्यक्तित्व को दबाने का कभी भी प्रयास नहीं किया।

कुछ विद्वान् ऐसा ऐसा विचार है कि भारतीय शिक्षा पद्धति में कठोर अनुशासन के द्वारा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को दबा दिया गया जिससे उनका समुचित विकास नहीं हो सका अथवा व्यक्तित्व निखर न सका। परन्तु ऐसी धारणा भारतीय दृष्टिकोण को भली प्रकार से न समझ सकने के कारण है।

वस्तुतः यहाँ प्रत्येक युग में व्यावहारिक दृष्टि से वृत्ति ( व्यवसाय ) के चुनाव की स्वतन्त्रता रही है। स्मृतिकारों ने जो शिक्षा का विधान प्रस्तुत किया गया है वह अधिकतर काल्पनिक और आदर्शवादी है। व्यावहारिकता में उस पर आचरण बहुत कम किया गया।

प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति छात्र के बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास का भी पूरा ध्यान रखती है। ‘स्वस्थ्य मस्तिष्क का अधिष्ठान ( आश्रय ) स्वस्थ्य शरीर होता है’ यह अवधारणा प्राचीन भारतीय चिन्तकों में सर्वस्वीकृत थी। शिक्षा से विद्यार्थी में आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, आत्म-संयम, विवेक-शक्ति, न्याय- शक्ति इत्यादि गुणों का उदय और विकास होता था जो उसके व्यक्तित्व को विकसित करने में सहायक थे।

विद्याध्ययन के पूर्व उपनयन संस्कार के समय पर ही बालक में आत्म-विश्वास जागृत किया जाता था। उसे ( विद्यार्थी ) यह अवबोध कराया जाता था कि उसके कर्त्तव्यों के निर्वाह और लक्ष्य की प्राप्ति में देवगण उसकी सहायता करेंगे। अग्नि से यह प्रार्थना की जाती थी कि वह उसे बुद्धि व शक्ति प्रदान करें। सविता उसकी शारीरिक बाधाओं को दूर करते थे। इन दैवी शक्तियों से सम्पन्न ब्रह्मचारी ( विद्यार्थी ) भविष्य के प्रति आश्वस्त होकर निष्ठापूर्वक पूर्ण दृढ़ता से अपने कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का निर्वहन करता था।

भविष्य-जीवन की कठिनाइयों का भय छात्र को कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता था। छात्र में आत्मसम्मान की भावना भी बढ़ाई जाती थी। उसको यह याद दिलाया जाता था कि वह अपने जाति और देश की संस्कृति का रक्षक है। संस्कृति का विकास तभी सम्भव है जबकि वह अपने कर्त्तव्यों का विधिवत् पालन करे।

ब्रह्मचारी ( विद्यार्थी ) का महत्व इतना अधिक था कि शासक भी उसका आदर करता और अपने से ऊँचा आसन प्रदान करता था। वह ब्रह्मचारी को यथेच्छित धन-धान्य प्रदान करता था। महाकवि कालिदास कृत रघुवंश महाकाव्य में उल्लिखित है कि राजा रघु ने कौत्स के शिष्य वरतन्तु को चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रायें उसके माँगने पर प्रदान कर दिया था।

छात्र को भविष्य जीवन की चिन्ता नहीं सताती थी। समाज उसके निर्वाह का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर वहन करता था। ब्रह्मचारी जहाँ कहीं भी जाता उसका आदर व सम्मान किया जाता था। लोग उसके निर्वाह के लिये यथोचित द्रव्य-प्रदान करते थे।

विद्यार्थी का लक्ष्य स्पष्ट और सुनिश्चित होता था। यदि बालक व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करता तो उसकी वृत्ति पूर्व निर्धारित थी। यदि छात्र धार्मिक शिक्षा ग्रहण करता तब भी अकिंचनता उसके मार्ग में बाधक नहीं थी। विद्यार्थी की आवश्यकतायें सीमित होती थीं और समाज उनकी आपूर्ति करता था। विद्यार्थी सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श का पालक होता था।

आत्म-संयम और आत्म-अनुशासन की प्रवृत्तियाँ उसके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होती थीं। वह इन्द्रियों की उच्छृङ्खल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखता था। आहार, विहार, वस्त्र, आचरण इत्यादि सभी को वह नियमित रखता था। शुद्धता और सादगी विद्यार्थी-जीवन के प्रमुख ध्येय थे।

गीता में कहा है कि ‘यथायोग्य आहार-विहार करने वाले, कर्मों में यथायोग्य प्रयास करने वाले, यथायोग्य शयन करने वाले और यथायोग्य जागने वाले व्यक्ति के लिये ही योग दुःखों का विनाशक बनता है।”

‘युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥’

श्रीमद्भागवदगीता

आत्मसंयम से व्यक्ति में विवेक और न्याय-शक्ति का उद्भव होता है। व्यक्ति सत्-असत् ( सही-ग़लत ) का भेद करने में समर्थ हो जाता है। इन सभी तत्वों का विद्यार्थी के व्यक्तित्व के सम्यक् विकास में योगदान होता है।

इस तरह हम देखते हैं कि भारतीय मनीषियों ने विद्यार्थी की प्रवृत्तियों और भावनाओं को अनावश्यक दबाने का प्रयास नहीं किया। आत्म-नियन्त्रण और आत्मानुशासन से उनका तात्पर्य यथोचित तथा यथावश्यक आहार, विहार, वस्त्राभरण, निद्रा, शयन इत्यादि से था। इससे विद्यार्थी को उच्छृङ्खल होने से बचाया जाता था। अध्यापक विद्यार्थी को प्रताड़ित करने के स्थान पर स्नेह और सद्भावना द्वारा सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करता था।

 

( ३ ) नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का विकास

प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को नागरिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का अवबोध कराकर उसे एक जिम्मेदार नागरिक बनाना भी था। शिक्षा की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार का आयोजन किया जाता था जिसमें आचार्य विद्यार्थी के समक्ष उसके भावी कर्त्तव्यों को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता था। तैत्तिरीय उपनिषद् में इसे इस प्रकार रखा गया है-

“सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना। अपने परिश्रम ( स्वाध्याय ) में आलस्य मत करना। गुरु को दक्षिणा देने के बाद सन्तति उत्पादन की परम्परा को विच्छिन्न मत करना। सत्यमार्ग से विचलित मत होना। धर्म से विचलित मत होना। लाभकारी कार्यों में प्रमाद मत करना। महान् बनने का अवसर न खोना। अध्ययन-अध्यापन के कर्त्तव्यों की उपेक्षा मत करना। देवताओं तथा पितरों के यज्ञ, श्रद्धादि की उपेक्षा मत करना। माता को देवी मानना । आचार्य को देवता मानना। पिता को देवता मानना। अपने अतिथि को देवता समझना। दोष रहित कार्यों को करना, अन्य नहीं। हम लोगों के अच्छे कार्यों का अनुकरण करना। जो कुछ भी दान करना, श्रद्धा, विश्वास, आनन्द, विनम्रता, भय तथा दयालुता से करना। कर्त्तव्य या आचरण में किसी प्रकार के संदेह होने पर उत्तम विवेक वाले ब्राह्मणों की भाँति आचरण करना।”

“सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान् मा प्रमद। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम् भूत्यै न प्रमदितव्यम्। स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यं। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयो- पास्यानि, नो इतराणि। श्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। हिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम् अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा व वृत्तविचिकित्सा वा स्यात् ये तत्र ब्राह्मणा समर्शिनः स्युः तथा ते तत्र वर्तेरन् तथा तेषुवर्तेथाः। एष आदेशः एष उपदेशः।…”

-तैत्तिरीय उपनिषद्

इस तरह गुरू अपने विद्यार्थी को उसके सभी सामाजिक कर्त्तव्यों का बोध कराते थे। अध्ययन के उपरान्त वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता और आचार्य द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करते हुए देश एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों व उत्तरदायित्वों का निर्वहन करता था।

विभिन्न व्यवसायों की अपनी अलग-अलग आचार संहितायें होती थीं। इसमें सामाजिक कर्त्तव्यों पर विशेष बल दिया गया था; जैसे –

  • चिकित्सकों से अपेक्षा की जाती थी कि वह अपने जीवन के मूल्य पर भी रोग एवं कष्ट का निदान करें।
  • योद्धा वर्ग प्राणोत्सर्ग द्वारा देश एवं समाज की रक्षा करने की शिक्षा प्राप्त करता था।
  • विभिन्न शिल्पियों के लिये अलग-अलग आचार सहितायें होती थीं जिनके द्वारा वे अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हुए समाजिक कर्त्तव्यों को पूरा करते थे। उन्हें यह सलाह दी गयी कि वे केवल अपने स्वार्थ में ही लिप्त न रहें अपितु अपने धन का समुचित भाग परोपकार और जनकल्याण के कार्यों में भी व्यय करें।

 

( ४ ) सामाजिक सुख और कौशल की वृद्धि

भारतीय शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य सामाजिक सुख के साथ-साथ निपुणता या कुशलता को प्रोत्साहन प्रदान करना भी था। मात्र संस्कृति या मानसिकता एवं बौद्धिक शक्तियों का विकास करने के लिये ही शिक्षा नहीं प्रदान की दी जाती थी, वरन् इसका प्रमुख ध्येय विभिन्न उद्योगों, व्यवसायों आदि में लोगों को दक्ष ( कुशल ) बनाना भी था।

भारतीय समाज में श्रम विभाजन (division of labour ) के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया था। व्यवसाय सामान्यतः वंशानुगत होते थे। विभिन्न वर्णों व जातियों के लोग अपनी-अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा प्राप्त करके अपने-अपने कर्मों में निपुणता ( कौशल ) प्राप्त करते थे। गीता में वर्णित है कि ‘अपने-अपने कर्मों में रत मनुष्य ही सिद्धि को प्राप्त करता है।’

“स्वे-स्वे कर्माणिभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।”

—श्रीमद्भागवदगीता

भारतीय शिक्षा पद्धति ने अपने समक्ष सदैव यह उद्देश्य रखा कि नयी पीढ़ी के युवकों को उनके आनुवंशिक व्यवसायों ( पेशों ) में प्रवीण बनाया जाय। सभी प्रकार के कार्यों के लिये शिक्षा देने की व्यवस्था प्राचीन भारत में थी। कार्य विभाजन के द्वारा विभिन्न शिल्पों व व्यवसायों में लोग निपुणता प्राप्त करने लगे जिससे सामाजिक प्रगति को बल मिला और समाज में सन्तुलित भी बना रहा।

 

( ५ ) संस्कृति का प्रचार-प्रसार और संरक्षण

शिक्षा संस्कृति के परिरक्षण और संवर्धन का प्रमुख माध्यम है। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा प्राचीन संस्कृति निरंतर प्रवाहमान रहती है और पूर्वकालिक परम्पराओं में जीवनी-शक्ति आती है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति ने इस उद्देश्य का सम्यक् रूप से निर्वहन किया है।

विभिन्न वर्णों ( व जातियों ) के लोगों का कर्त्तव्य था कि वे अपनी सन्तति को अपने वर्ण व जाति से सम्बन्धित सभी तरह के शिल्पों और प्रगति के विषय में प्रारम्भ में ही शिक्षित कर दें।

आर्यों की शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य वैदिक साहित्य का संरक्षण भी था। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह व्यवस्था की गयी कि प्रत्येक विद्यार्थी वेदों को कण्ठस्थ करे और उसको अपने मस्तिष्क में सुरक्षित रखे। ब्राह्मणों का एक वर्ग अपने पवित्र ग्रन्थों की स्मृति सुरक्षित रखने को सदैव तत्पर रहा। कुछ लोग काव्यशास्त्र, व्याकरण, लौकिक साहित्य, तर्कविद्या, दर्शन में निपुण होकर प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखते थे। भारत में वेद और अन्य धर्म ग्रन्थ जिस प्रकार से आज तक जीवित हैं उसकी समता किसी अन्य सभ्यता में देखने को नहीं मिलती है अर्थात् यह शिक्षा प्रणाली अद्वितीय है अनुपम है।

भारतीय समाज में वैदिक युग से ही तीन ऋणों ( त्रिऋण ) का सिद्धान्त प्रचलित हुआ। इसने प्राचीन पीढ़ियों की सर्वोत्तम परम्पराओं को सुरक्षित बनाये रखने और उसके प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

त्रिऋण सिद्धांत के आनुसार यह माना गया कि जन्म के साथ ही व्यक्ति पर तीन ऋण लद जाते हैं—

  • देवऋण,
  • ऋषिऋण तथा
  • पितृऋण।

इन त्रिऋणों उऋण ( मुक्त होना ) प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य होता है। इसके लिये उसे कुछ कार्यों को सम्पन्न करना पड़ता है।

  • देवऋण से मुक्ति यज्ञों का अनुष्ठान करने पर,
  • ऋषिऋण से मुक्ति ब्रह्मचर्य के पालन से और
  • पितृऋण से मुक्ति सन्तानोत्पन्न करने पर मिलती है।

इन ऋणों के विधान से इस बात की पूरी व्यवस्था की गयी थी कि भावी पीढ़ियाँ अपनी प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं को संरक्षित रखें एवं उनका प्रचार-प्रसार भी करते रहें।

प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं को सुरक्षित रखने के कुछ अन्य उपाय भी थे :-

  • स्वाध्याय — स्वाध्याय में प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती थी कि वह विद्यार्थी जीवन में पढ़े हुए पाठों के कम से कम एक भाग की प्रतिदिन पुनरावृत्ति करे।
  • ऋषि तर्पण — ऋषि तर्पण में यह विधान किया गया कि वह प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में पूर्वकाल के मनीषियों के प्रति व्यक्ति कृतज्ञता ज्ञापित करे।

कालान्तर में जब वैदिक संस्कृत का प्रचलन क्षीण पड़ गया तब लोक भाषा में पुराण आदि साहित्यों को प्रस्तुत किया गया जिनके माध्यम से वैदिक संस्कृति और परम्पराओं को जनसामान्य तक पहुँचाया गया। परिणामस्वरूप भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति जीवन्त बनी रही । 

 

( ६ ) निष्ठा तथा धार्मिकता का संचार करना

भारत की प्राचीन संस्कृति धर्मप्रधान रही है। धर्म ने संस्कृति के सभी पक्षों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। अतः भारतीय शिक्षा पद्धति भी धर्म से प्रभावित रही है। शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों में निष्ठा और धार्मिकता की भावना जागृत करना है।

विद्या के प्रारम्भ में जो संस्कार होते थे, गुरुकुल में छात्रों के लिये जो अनुष्ठान और व्रत निर्धारित थे तथा उसकी जो प्रतिदिन की प्रार्थना होती थी। इन सभी संस्कृतियों व कृत्यों द्वारा विद्यार्थियों के मस्तिष्क में पवित्रता और धार्मिकता का विकास होता था। यह आध्यात्मिक भावना छात्र को भौतिक-आकर्षण से विरत करती थी।

विद्यार्थी सत्यनिष्ठा के साथ अपना आचार-विचार संयमित रखते हुये अध्ययन करता था और उज्जवल चरित्र का निर्माण करता था।

परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा छात्रों को संसार त्यागकर संन्यास ग्रहण करने की प्रेरणा देती थी। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को सामाजिक जीवन के लिए उपयुक्त बनाना था।

वैदिक युग में भी बहुत कम लोग आजीवन ब्रह्मचर्य रहते थे। अधिकांश लोग विद्याध्ययन के पश्चात् गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे। प्राचीन धर्मग्रन्थों में गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि यह अन्य सभी तीन आश्रमों का पोषक था। संन्यास और कायाक्लेश को अधिक मान्यता नहीं मिली।

इस तरह प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के उद्देश्य अत्यन्त उच्च कोटि के रहे हैं। शिक्षा-सम्बन्धी प्राचीन भारतीयों का दृष्टिकोण केवल आदर्शवादी ही नहीं, वरन् अधिकांश अंशों में व्यावहारिक भी रहा है।

शिक्षा व्यक्ति को सांसारिक जनजीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के समाधान के लिये सर्वथा उपयुक्त बनाती थी। यह समाज-सुधार का सर्वोत्तम माध्यम थी। इसीलिए भारतीय विचारकों ने सबके लिये इसकी व्यवस्था की थी। प्रत्येक आर्य के लिये उपनयन संस्कार अनिवार्य था जिससे विद्यारम्भ होता था।

बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि मनुष्य पितृऋण से मुक्त केवल सन्तानोत्पन्न करने से ही नहीं होता अपितु इसके लिये उसे अपने पुत्रों की उचित शिक्षा की व्यवस्था भी करनी होती थी।

तस्मात्पुत्रमनुशिष्टं लोक्यमाहुस्तस्मादेन- मनुशास्ति।

यह भी कहा गया कि जो माता-पिता अपने बालक को ठीक समय पर शिक्षा नहीं प्रदान करते वे उसके सबसे बड़े शत्रु हैं –

माता शत्रुः पिता वैरी बालो ये न पाठितः।

इन उक्तियों के स्पष्टरूप से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यापक था और वह व्यक्ति में निष्ठा एवं धार्मिकता का विकास करने जैसे लक्ष्य का निर्वहन योग्य ढंग से करने में सक्षम रही थी।

 

प्राचीन भारतीय शिक्षा का पाठ्यक्रम

प्राचीन भारतीय शिक्षा का पाठ्यक्रम सदैव एकसमान नहीं रहा है। यह समय के साथ बदलता एवं विकसित होता गया।

‘ऋग्वैदिक काल’ में शिक्षा का अर्थ था वैदिक साहित्य का अध्ययन और अध्यापन। ‘उत्तरवैदिक काल’ में अन्य तीन वेद के साथ ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों की रचना हुई अतः ये भी पाठ्यक्रम में शामिल हो गए।

‘सूत्रकाल’ ( ६०० – ३०० ई॰पू॰ ) में वैदिक साहित्य को सरल बनाने के लिए छः वेदांगों की रचना हुई और ये पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गए।

वैदिकोत्तर काल में वैदिक साहित्यों का अध्ययन कम होने लगा और उसकी जगह दर्शन, धर्मसाहित्य, महाकाव्य, व्याकरण, खगोलविद्या, मूर्तिकला, वैद्यक, पोतनिर्माण कला आदि लेने लगे। विभिन्न शिल्प और व्यवसाय की शिक्षा का महत्त्व बढ़ने लगा। धार्मिक और लौकिक शिक्षा में सामंजस्य बनाया गया। इस युग के स्नातक, वेदों के साथ-साथ १८ शिल्पों में निपुण होते थे।

वात्स्यायन कृत कामसूत्र में कहा गया है कि एक सुसंस्कृत महिला को ६४ कलाओं में निपुण होना चाहिये।

“प्राचीन भारतीय साहित्य और विदेशी यात्रियों से पता चलता है कि पाठ्यक्रम में ४ वेद, छः वेदांग, १४ विधाएँ, १८ शिल्प, ६४ कलाएँ आदि शामिल थीं।”

  • ४ वेद :- ऋग्वेग, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद।

  • ६ वेदांग :- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष और निरुक्त।

  • १४ विधाएँ :- ४ वेद, ६ वेदांग, धर्मशास्त्र, पुराण, मीमांसा तथा तर्क।

  • १८ शिल्प :- गायन, वादन, चित्रकला, गणित, नृत्य, गणना, यंत्र, मूर्तिकला, कृषि, पशुपालन, वाणिज्य, चिकित्सा, विधि, प्रशासनिक प्रशिक्षण, धनुर्विद्या तथा सैन्य प्रशिक्षण, जादूगरी, सर्पविद्या तथा विष को दूर करने की विधि, छिपे हुए धन को पता लगाने की विधि।

  • ६४ कलाएँ :- गायन, वाद्य, नृत्य, नाट्य, चित्रकला, सजावट(बेलबूटे बनाना), फूल और चावल आदि से पूजा की तैयारी, शयन रचना, वस्त्र और अंगों को रंगना, मणियों की फर्श बनाना, शय्या रचना, जल को बांध देना, सिद्धियां, हार या माला बनाना, कान और चोटी के लिए फूल के गहने बनाना, कपड़े और गहने बनाना, फूलों से शृंगार, कानों के पत्तों की रचना, सुगंधित वस्तुएं बनाना, इंद्रजाल, वेश बदलना, हाथ की सफाई, पाककला, पेयपदार्थ निर्माण, सिलाई, कठपुतली, पहेली, प्रतिमा, कूटनीति, पुस्तक पढ़ना, नाट्य रचना, समस्यापूर्ति, पट्टी, बेंत या बाण बनाना, गलीचे और दरी निर्माण, बढ़ई का काम, गृहनिर्माण, रत्न पहचान, सोना-चाँदी आदि बनाना, मणियों के रंग की पहचान, खानों की पहचान, पेड़ चिकित्सा, भेड़, मुर्गा, बटेर लड़ाना, पक्षियों की बोली, उच्चाटन की विधि, केश प्रच्छालन, मन कि बात जानना, म्लेच्छित कुतर्क विकल्प, विभिन्न देशों की भाषा ज्ञान, शुभाशुभ का ज्ञान, मातृका यंत्र बनाना, रत्नोंको नाना प्रकार के आकारों में कटाना, सांकेतिक भाषा का ज्ञान, मन में कटक रचना करना, नई-नई बातें सोचना, छल से कम निकालना, सभी कोशों का ज्ञान, छंदों का ज्ञान, वस्त्र एवं रूप बदलने का ज्ञान, द्यूत, दूर के मनुष्य या वस्तु का आकर्षण, बालकोंके खेल, मंत्र विद्या, विजय विद्या, बेताल आदि का वशीकरण। (स्रोत-कामसूत्र)

हुएनत्सांग और अलबेरुनी बताते हैं कि व्याकरण और ज्योतिष की शिक्षा भारत में बहुत प्रचलित थी। राजदरबार में ज्योतिषियों का विशेष सम्मान था। शिक्षा केंद्र में धार्मिक एवं लौकिक दोनों तरह की शिक्षा दी जाती थी।

तक्षशिला में वैदिक साहित्य के साथ-साथ १८ शिल्पों की भी शिक्षा दी जाती थी।

लेखन और पठन सामग्री

वैदिक युग में शिक्षा मौखिक होती थी तथा पवित्र मंत्रों को कंठस्थ कर लिया जाता था। सूत्रकाल में लेखन कला के विकास के बाद इनका संकलन किया गया। परन्तु पाण्डुलिपि महंगी होने के कारण याद करने पर ही बल रहा। पुस्तकालयों का भी अभाव था। ऐसी स्थिति में मौखिक शिक्षा ही सबसे सरल विधि बनी रही।

अशोक के अभिलेख से पता चलता है कि लिपि का विकास हो चुका था। विद्वानों का मत है कि मौर्यकाल के ब्राह्मी लिपि के विकास में कम-कम ३०० वर्ष तो लगे होंगे। इस तरह कैसे भी माने तो वैदिकोत्तर काल या सूत्रकाल या ६ठीं शताब्दी ई॰पू॰ तक लिपि का विकास हो चुका था। 

कार्टियस का कथन है कि भारतीय सन से बने वस्त्र के टुकड़ों और पेड़ों की छाल पर लिखते थे।

अलबेरुनी का कहना है कि —

  • भारतीय यूनानियों की तरह चमड़े पर नहीं लिखते थे। 
  • दक्षिण भारत में ताड़पत्र ( तालपत्र ) पर लिखा जाता था।
  • मध्य भारत में भोजपत्रों पर लिखा जाता था।
  • बच्चे काली पट्टी पर सफेद पदार्थ से लिखते थे।

ऐसे में बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में पुस्तकालयों की व्यवस्था थी। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण नालंदा विश्वविद्यालय का धर्मगंज पुस्तकालय था। विद्यार्थी इनकी सहायता से अध्ययन करते थे। विदेशी विद्वान भी इन प्राचीन पाण्डुलिपियों की अनुकृति बनाकर साथ अपने देश ले जाने के लिए आते थे; जैसे- हुएनसांग व इत्सिंग ने नालंदा के पुस्तकालय में उपलब्ध पाण्डुलिपियों की प्रतिकृतियाँ बनायीं और अपने साथ ले गये थे।

शिक्षक विद्यार्थी को कुछ पाठ देते थे और उसे याद कर लेने के बाद दूसरा पाठ दिया जाता था। इसलिए मौखिक शिक्षा का महत्व बना रहा क्योंकि पाण्डुलिपियों का बनाना और उनका संरक्षण आसान नहीं था।

गणित का अभ्यास जमीन पर लिखकर किया जाता था इसीलिए तो लीलावती जैसे ग्रंथ को पाटी गणित तक का नाम दे दिया गया।

गुरुकुल, बौद्ध विहार और मंदिर

प्राचीनकाल में शिक्षा देने के लिए दो तरह की व्यवस्था थी — एक, औपचारिक और द्वितीय, अनौपचारिक।

औपचारिक शिक्षा के अन्तर्गत विहार, मठ, मंदिर, आश्रम, गुरुकुल आते थे और यह उच्च शिक्षा के केन्द्र होते थे। साथ ही आर्थिक श्रेणियाँ व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करती थीं।

अनौपचारिक शिक्षा देने के लिए परिवार, पुरोहित, संन्यासी, त्योहारिक-प्रसंग जैसे साधन थे। माता को प्रथम और श्रेष्ठ गुरू कहा गया गया है और परिवार को प्रथम पाठशाला।

वैदिकयुग में परिषद, शाखा और चरण जैसी शिक्षण संस्थानों का उल्लेख मिलने लगता है परन्तु व्यवस्थित ढंग से शिक्षण संस्थानों को बौद्धों ने प्रारम्भ किया था।

प्राचीन काल में विद्यार्थी गुरु के घर रहकर विद्या ग्रहण करते थे । इस प्रकार के छात्रों को ‘अंतेवासी’ या ‘आचार्य कुलवासी’ कहते थे। उपनयन संस्कार के बाद ही विद्यार्थी गुरुकुल में निवास हेतु जाता था जहाँ वह शिक्षा प्राप्त करता था।

गुरुकुल अधिकतर वन क्षेत्र में होते थे। हालाँकि, बौद्ध शिक्षा केन्द्र अधिकतर नगरों या अग्रहार ग्रामों में स्थिति होते थे। तक्षशिला के शिक्षक राजधानी में निवास करते थे। उद्दालक आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु ने गुरुकुल में शिक्षा पायी थी ( छान्दोग्य उपनिषद)। कृष्ण और बलराम ने सांदीपनि के आश्रम में रहकर शिक्षा पायी थी ( विष्णु पुराण)। रामायण में भारद्वाज तथा वाल्मीकि के आश्रम और महाभारत में कण्व एवं मार्कण्डेय ऋषियों के आश्रमों का शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र के रूप में वर्णन है। दुर्वासा ऋषि के आश्रम में १०,००० विद्यार्थियों का उल्लेख मिलता है। ऐतिहासिक काल में चन्द्रगुप्त मौर्य ने तक्षशिला में रहकर शिक्षा पायी थी।

अधिकतर दार्शनिक आचार्य दूरदराज निर्जन वन क्षेत्रों में आश्रम स्थापित करके अध्यापन और चिंतन करते थे। जैसे – वाल्मीकि, सांदीपनि, कण्व आदि मुनियों के आश्रम। 

हालाँकि अधिकांश गुरुकुल किसी ग्राम या नगर के समीप किसी शान्त बाग या वाटिका या उपवन में स्थापित करने को प्राथमिकता दी जाती थी। इसके दो कारण या लाभ थे –

  • प्रथम, गृहस्थ आचार्यों को आसानी से गृहस्थी की सामग्री सुलभ हो जाया करती थी।
  • द्वितीय, ब्रह्मचारी शिष्यों को भिक्षा आसानी से मिल जाती थी।
    • ध्यातव्य है कि मनु जैसे स्मृतिकार स्वाजातियों और बंधु-बांधवों के यहाँ भिक्षाटन का निषेध करते हैं। इसका कारण यह था कि इससे पक्षपात और ब्रह्मचारी शिष्य के हृदय में घर के प्रति मोह / आकर्षण हो सकता था।

विद्याप्रेमी शासक विद्वानों को नगर या आपकी राजधानी में बसकर शिक्षण देने के लिए प्रोत्साहित करते थे। जिससे कि विभिन्न नगर शिक्षा-केन्द्र के रूप में उभरे;  जैसे – तक्षशिला, पाटलिपुत्र, मिथिला, धारा, काँची, तंजौर आदि।

कुछ शासकों ने शिक्षण केन्द्र स्थापित किये; जैसे- कुमारगुप्त ने नालंदा विश्वविद्यालय, भट्टार्क ने बलभी विश्वविद्यालय, धर्मपाल ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय आदि।

इसके अतिरिक्त शासक और धनाढ्य वर्ग मुक्त हस्त मठों, मंदिरों व शिक्षण संस्थानों को दान दिया करते थे; जैसे- हर्षवर्धन ने १०० ग्राम नालंदा विश्वविद्यालय के निर्वाह हेतु दिया था।

इसी तरह विभिन्न धर्मस्थल भी शिक्षा केन्द्र के रूप में विकसित हुए थे; जैसे – काशी, नासिक आदि।

बौद्धानुयायियों ने धर्म प्रचार के साथ-साथ शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया था। उनके मठ और विहार शिक्षा केन्द्र होते थे। सम्राट अशोक के समय विहारों की अत्यधिक प्रगति हुई जिससे की ये धर्म-प्रचार के अलावा शिक्षा केन्द्र के रूप में भी उभरे। इस शृंखला में हम नालंदा ( गुप्तकाल ), बलभी ( गुप्तकाल ) विक्रमशिला ( पाल शासन ) आदि बौद्ध विहारों का नाम ले सकते हैं जो कि शासकों के संरक्षण में प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुए।

बौद्ध शिक्षण संस्थानों का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मंदिरों को शिक्षा केन्द्र बनाया। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि पूर्व में ये शिक्षा केन्द्र दूर-दराज वनों, ग्राम या नगर के पास किसी वाटिका या निकुंज में स्थित होते थे। 

शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ शिक्षण कार्य के लिए प्रसिद्ध थे।

गुप्त काल में ब्राह्मणों को जो भूमिदान दिया जाता था वो “अग्रहार” कहलाती थी और ये शिक्षा के प्रमुख केंद्र होते थे। हर्षचरित में गुरुकुल का वर्णन मिलता है। अलबेरुनी भी गुरुकुल की स्थापना का वर्णन करता है। जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि छात्र प्रायः १४-१५ वर्ष की आयु में गुरुकुल में अध्ययन के लिए जाते थे।

दक्षिण भारत में पल्लवों की राजधानी काँची शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र था। यहाँ एक संस्कृति महाविद्यालय था जिसे ‘घटिका’ कहा जाता था। कदम्ब नरेश मयूरशर्मा शिक्षार्जन के लिए काँची के घटिका में ही गये थे। तर्कशास्त्र के विद्वान दिङ्गनाथ ने यहीं शिक्षा पायी थी। हुएनसांग भी काँची के घटिका का उल्लेख करता है।

दक्षिण भारत के मंदिरों की एक विशेषता यह थी कि वे शिक्षा का केन्द्र होते थे। राजेन्द्र चोल के समय का ब्राह्मण ग्राम एन्नारियम से एक अभिलेख मिला है। इसको चतुर्वेदी मंगलम् कहा गया है। यहाँ के मंदिर से लगा हुआ एक विद्यालय ‘गंगैकोण्ड चोलमंडप’ था। 

चिंगलपट जनपद के अंतर्गत वेंकटेस पेरुमाल मंदिर में विद्यार्थियों के रहने और पढ़ने की व्यवस्था थी। इसी जनपद में तिरुवेरिपुर शिव मंदिर के प्रांगण से लगा हुआ व्याकरण शिक्षा केन्द्र था। मलकापुरम् मंदिर के प्रांगण से लगा हुआ विद्यालय था। वीर राजेन्द्र चोल कालीन ( १०६३ ई॰ ) अभिलेख में उल्लेख है कि तिरुमुक्कडल मंदिर के मंडप में एक विद्यालय था। इसी तरह बीजापुर के मंदिर ( ११वीं शताब्दी ) में मीमांसा के अध्ययन की व्यवस्था थी।

पूर्व-मध्यकाल ( ८०० – १२०० ई॰ ) में शिक्षा

शिक्षा व्यवस्था जो पहले से विकसित हो रही थी इस अवधि में भी कमोबेश उसी प्रकार जारी रही। सामूहिक शिक्षा ( mass education ) की अवधारणा नहीं थी। लोग वह सीखते थे जो उनके जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक होता था। विद्यार्जन एक छोटे वर्ग तक सीमित था; जैसे – ब्राह्मण, उच्च व कुलीन वर्ग, कायस्थ आदि।

कभी-कभी मंदिरों में उच्च शिक्षा की व्यवस्था भी की जाती थी। आमतौर पर छात्र को शिक्षक के घर जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु उसके साथ रहना पड़ता था। ऐसी स्थिति में छात्र को शुल्क देना होता था अथवा समावर्तन संस्कार के समय वह गुरु-दक्षिणा देता था। जो छात्र गरीब होने के कारण शुल्क देने में असमर्थ होते थे वे गुरु की व्यक्तिगत सेवा करते थे।

पाठ्यक्रम में वेदों की विभिन्न शाखाएँ, व्याकरण, तर्क, दर्शन आदि सम्मिलित होते थे। शासक और कुलीन वर्ग राजनीति भी पढ़ते थे जिसमें राजनीतिक नैतिकता सम्मिलित होती थी। इस काल में लिखी गयी कामंदक नीतिसार का इस संदर्भ योगदान महत्वपूर्ण है।

कायस्थों की अपनी शिक्षण प्रणाली थी जिसमें लेखाकर्म ( accountancy ) सम्मिलित होती थी।

विज्ञान, खगोलशास्त्र ( Astronomy ), वैद्यक-शास्त्र ( medicine ) भी विभिन्न केन्द्रों पर पढ़ाये जाते थे।

बल्ख में जन्मे अबू माशिर ( Abu Maashir ) अरबी खगोलविद् ( Astronomer ) ने बनारस में १० वर्ष रहकर शिक्षा ग्रहण की थी।

शिल्प या व्यावसायिक शिक्षा देने का उत्तरदायित्व सामान्यतः श्रेणियाँ ( guilds ) और परिवार उठाते थे। जैसे एक व्यापारी पिता अपने पुत्र को व्यापारिक पेशे ( profession ) से सम्बंधित जानकारी को बड़ी बारीकी से सिखाता था।

कुछ बौद्ध मठों / विहारों में लौकिक विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी। इस काल में ऐसे प्रसिद्ध केंद्र थे नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी, सोमपुरी, बलभी जैसे बौद्ध विहार। इन केन्द्रों पर दूर-दूर से शिक्षार्थी आते थे यहाँ तक की विदेशों से भी। इन शिक्षण केन्द्रों पर शिक्षा निःशुल्क थी। इनके व्यय के लिए शासक वर्ग धन और भूमि दान दिया करते थे; जैसे – नालंदा को २०० ग्राम अनुदान में प्राप्त थे।

कश्मीर शिक्षा का एक और प्रमुख केन्द्र था। इस अवधि में यहाँ कई शैव सम्प्रदाय और शिक्षकों केन्द्र फले-फूले।

दक्षिण भारत में कई महत्वपूर्ण मठ स्थापित हुए; जैसे – मदुरई और शृंगेरी मठ।

शिक्षा के विभिन्न केन्द्रों ने चर्चा को प्रोत्साहित किया जिसका मुख्य विषय धर्म और दर्शन होता था। भारत के विभिन्न भागों में फैले मठों, शिक्षण केन्द्रों आदि के मध्य स्वतंत्रतापूर्वक विचार-विनिमय होते रहते थे। दार्शनिक शिक्षा तक तक पूर्ण नहीं मानी जाती थी जब तक वे भारतवर्ष के विभिन्न हिस्सों में जाकर वहाँ के विद्वानों से चर्चा-परिचर्चा द्वारा अर्जित ज्ञान की पुष्टि न कर लें। इस प्रकार पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में विचार, मत और दर्शन आदि परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा एक-दूसरे को पुष्ट करते हुए ‘भारतीय सांस्कृतिक एकत्व’ को दृढ़ता प्रदान करते थे।

इस अवधि में विज्ञान की प्रगति धीमी हो गयी। शल्य चिकित्सा क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुई। शव-विच्छेदन जैसे कार्यों को हीन मानकर निम्न वर्गों पर छोड़ दिया गया। फोड़े-फुंशी आदि का इलाज नाई किया करता था।

खगोलशास्त्र ( Astronomy ) पर ज्योतिष ( Astrology ) हावी होती चली गयी।

हालाँकि गणित के क्षेत्र में कुछ प्रगति अवश्य हुई। इस काल में भास्कर-द्वितीय की कृति ‘लीलावती’ एक मानक पुस्तक के रूप में लम्बे समय तक बनी रही।

वैद्यक-शास्त्र ( Medicine ) में भी कुछ प्रगति हुई; जैसे –

  • खनिज चिकित्सा, उदाहरणार्थ पारा से चिकित्सा।
  • पेड़-पौधों से सम्बंधित पुस्तकें ( plant science ) लिखी गयीं।
  • पशु-चिकित्सा पर पुस्तकें लिखी गयीं, उदाहरणार्थ घोड़े, हाथी आदि की चिकित्सा।

यह बात उल्लेखनीय है कि भारतीय घोड़ों के पालन-पोषण और प्रजनन को समुचित रूप से नहीं सीख पाये। इसका परिणाम यह हुआ कि –

  • भारतीयों को अरब देशों, ईरान, मध्य एशिया से घोड़ों के आयात पर निर्भर रहना पड़ता था। जिसमें बहुमूल्य मुद्रा व्यय होती थी।
  • आयातित घोड़ों की देखभाल भी ठीक से नहीं हो पाती थी।
  • इन क्षेत्रों पर मुस्लिम विजय से भारतीयों को घोड़ों की आपूर्ति में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।

इस काल में भारतीय विज्ञान में अप्रगति के कई कारण थे –

  • विज्ञान का विकास समग्र रूप में समाज के विकास व सोच पर निर्भर करता है। समाज का चरित्र निरंतर कठोर और संकीर्ण होता जा रहा था।
  • धार्मिक रूढ़ि।
  • सामंती परिवेश।
  • भारतीयों की शेष विश्व से अलग-थली रहने की विकसित होती प्रवृत्ति।
    • ११वीं शताब्दी में आये विद्वान अल्बरूनी यहाँ के विद्वानों की संकीर्ण प्रवृत्ति ( insular attitude ) का उल्लेख करता है। भारतीय विद्वान जो कुछ जानते थे उसे अन्य लोगों के साथ विशेषकर विदेशियों से बाँटने में स्वभावतः लापरवाह थे या बचते थे। उनका विचार था कि अन्य किसी का ज्ञान-विज्ञान उनके समान नहीं है।

स्त्री-शिक्षा

पूर्व-वैदिक काल में बालकों के समान बालिकाओं का भी उपनयन संस्कार होता था। अनेक विदुषी महिलाओं का उल्लेख मिलता है। अपाला, घोषा, रोमशी, इंद्राणी जैसी कुछ मंत्रद्रष्ट्री महिलाओं का उल्लेख है। विश्वारा को ब्रह्मवादिनी और मंत्रद्रष्ट्री कहा गया है। वृहस्पति और उनकी पत्नी जुहु की कथा से स्पष्ट है कि स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से तपस्या का अधिकार प्राप्त था। कन्याओं को लौकिक और आध्यात्मिक दोनों तरह की शिक्षा दी जाती थी।

वैदिक काल में शिक्षा प्राप्त कन्याओं की दो श्रेणियाँ थीं :-

  • एक, ब्रह्मवादिनी – आजीवन अविवाहित या ब्रह्मचारिणी रहकर शिक्षार्जन करने वाली कन्या।
  • द्वितीय, सद्योवधू / सद्योद्वाहा – विवाह तक शिक्षा ग्रहण करने वाली कन्याएँ।

उत्तर-वैदिक काल में कन्याओं को गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा घर पर ही शिक्षा दिलाने की बात की जाने लगी। वे अपने पिता, भाई या चाचा आदिक सगे-संबंधियों से शिक्षा ग्रहण करने की बात कही गयी है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अब संभ्रांत कुल की कन्यायें ही शिक्षा ग्रहण कर पाती थीं। हालाँकि गार्गी, मैत्रेयी, अत्रेयी जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख मिलता है।

सूत्रकाल में बालिकाओं का उपनयन संस्कार बंद हो गया। विवाह की जो आयु पूर्व-वैदिक काल में १६ वर्ष थी वह उत्तर-वैदिक काल में १४ वर्ष और सूत्रकाल में यह आयु और घट गयी। इसका प्रभाव कन्याओं की शिक्षा पड़ा। उपनयन संस्कार क्रमशः बंद हुआ। ईस्वी सन् के प्रारम्भ में उपनयन संस्कार औपचारिकता मात्र रह गया और इसको विवाह के कुछ समय पूर्व सम्पन्न करके औपचारिकता निभा दी जाती थी। द्वितीय शताब्दी तक इसे या तो पूर्णतया बंद कर दिया गया या विवाह को ही इसका विकल्प मान लिया गया। 

हालाँकि ‘गोभिल गृहसूत्र’ के अनुसार अशिक्षित पत्नी को यज्ञ करने में समर्थ नहीं होती कहकर उनकी शिक्षा का समर्थन किया गया है।

जैन और बौद्ध धर्म में अनेक महिलाओं ( भिक्षुणियों ) का उल्लेख आया है जिन्होंने शिक्षा और साहित्य के विकास में अपूर्व योगदान दिया; जैसे –

  • सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ( बौद्ध धर्म )
  • जयंती ( जैन धर्म ) 

सातवाहन नरेश हाल कृत ‘गाथासप्तशती’ में ७ कवयित्रियों की रचनाएँ मिलती हैं।( शीलभट्टारिका, देवी, विजयांका, अवंतिसुदरी )। सातवाहन शासन में स्त्रियों दशा अच्छी थी। सातवाहन शासक अपने नाम के पूर्व अपनी माँ का नाम लगाते थे। महिलाएँ शासन-प्रशासन में भाग लेती थीं।

‘रूसा’ नामक आयुर्वेद में पारंगत महिला का उल्लेख मिलता है।

गुप्तकाल में वात्स्यायन कृत कामसूत्र में स्त्रियों लिए कहा गया है कि उन्हें ६४ कलाओं में निपुण होना चाहिए। गुप्तकाल में कुमारदेवी और प्रभावतीगुप्त का उल्लेख मिलता है। प्रभावतीगुप्त ने तो वाकाटक शासन में संरक्षिका के रूप में कार्य किया था।

हर्षवर्धन के समय उल्लेख मिलता है कि वह अपनी बहन राज्यश्री के साथ मिलकर कन्नौज से शासन करता था।

गु्प्तोत्तर काल में स्त्रियों की दशा में और गिरावट आयी। विवाह की आयु में और कमी होने से शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ा। परन्तु शासक वर्ग ( राजपूत ) की कन्याओं को शासन-प्रशासन और सैनिक शिक्षा दी जाती थी क्योंकि वे कभी-कभी शासिकाओं या संरक्षिकाओं के रूप में कार्य करती थीं। इस काल की अनेक महिलाओं का उल्लेख मिलता है :—

  • चालुक्य शासन में अनेक महिलाओं का उल्लेख मिलता है, जैसे – विजयभट्टारिका।
  • पल्लव काल में आलवार साध्वी आण्डाल।
  • भारती ( मंडन मिश्र की पत्नी ) जिसने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया था।
  • सुगंधा और दिद्दा ( कश्मीर )।
  • अवंतीसुन्दरी ( राजशेखर की पत्नी ) एक विदुषी महिला थीं।
  • अनेक राजपूत महिलाओं के उल्लेख मिलते हैं जो विदुषी थीं, वीरांगनाएँ थी।

महिलाओं को ललितकला ( संगीत, नृत्य, चित्र, मालाकारी आदि ) की शिक्षा दी जाने पर विशेष बल था।

सह-शिक्षा ( Co-Education )

बालिकाओं के लिए पृथक शिक्षण संस्थानों का उल्लेख नहीं मिलता है। सह-शिक्षा ( co-education ) को बुरा नहीं माना जाता था। बालक और बालिकाएँ साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करते थे। ‘बौद्ध विहारों’ में भिक्षुणियों के शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी। ‘आश्वलायन गृहसूत्र’ में बालक और बालिकाओं के साथ-साथ शिक्षा का वर्णन मिलता है। सह-शिक्षा के कुछ उदाहरण :—

  • ‘उत्तररामचरित’ में उल्लेख आता है कि वाल्मीकि आश्रम में ‘अत्रेयी’ नामक कन्या लव-कुश की सहपाठिनी थी।
  • भवभूति कृत ‘मालतीमाधव’ में भूरिवसु और देवराट की सहपाठिनी ‘कामन्दकी’ नामक कन्या का गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है।
  • पुराणों में कहोद, रुहु, प्रमदवरा आदि कन्याओं के सह-शिक्षा का उल्लेख मिलता है।

परन्तु सह-शिक्षा के ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं।

धीरे-धीरे सहशिक्षा के स्थान पर शास्त्रकार कन्याओं की शिक्षा व्यवस्था घर पर ही कराने का विधान करने लगे। कुलीन, धनाढ्य और शासक वर्ग के लिए तो यह सम्भव था। गुरूपत्नी, गुरूकन्या या गुरू की पुत्रवधू को शिक्षा का अवसर इसलिए मिल जाता था क्योंकि वे आश्रम में ही रहती थीं। परन्तु इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि सामान्य कन्याओं के लिये शिक्षा तक पहुँच कठिन होती गयी।

गुरु-शिष्य सम्बन्ध

‘प्राचीन भारतीय समाज’ में गुरु को आदरपूर्ण स्थान प्राप्त था। ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा’ प्रणाली में ऐसी सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ कम थीं जहाँ प्रबंध समिति द्वारा अध्यापक नियुक्त हों। अधिकतर आचार्य अपने निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षण का कार्य करते थे। प्रायः शिक्षक और शिक्षार्थी के मध्य सीधा संबंध होता था। विद्यार्थी योग्य शिक्षक के पास शिक्षा ग्रहण करने जाता था तथा शिक्षक भी जिज्ञासु छात्र को ही अपना शिष्य स्वीकर करता था।

छात्र गुरु के घर उसके घर के सदस्य के रूप में रहकर शिक्षा ग्रहण करता था। गुरु और शिष्य का संबंध पिता और पुत्र जैसा होता था। निरुक्त के अनुसार शिष्य अपने आचार्य को पिता और माता समझे तथा उनका कभी विरोध न करे ( तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्योत्कतमच्चनाह)। उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी का दूसरा जन्म होता है और गायत्री उसकी माता तथा आचार्य उसका पिता होता है ( तत्र यद् ब्रह्म जन्मास्य मींजीबन्धनचिह्नितमतत्रास्य माता सावित्री पितत्वाचार्य उच्चते॥ )

शिष्य को अपना लेने के बाद गुरु उससे कोई शुल्क नहीं लेता था, बल्कि स्वयं उसे भोजन , वस्त्र आदि देता था। शिष्य के बीमार होने पर गुरु उसकी सेवा और उपचार करता था।

शिष्य गुरु के परिवार की तरह रहता था। वह गुरु के गृह कार्य करता था। वह गुरु के लिए भिक्षाटन करता और उसकी आज्ञा का पालन करता था। वह गुरु के लिए जल, दातून, आसन आदि की व्यवस्था करता, ईंधन की व्यवस्था करता, घर की सफाई करता तथा गायों की सेवा करता था। वह गुरु के सोने के बाद सोता तथा उनसे पहले जगता था।

शिष्य न तो गुरु की निंदा कर सकता था न ही सुन सकता था। यद्यपि गुरु की त्रुटियों को शिष्य एकांत में बता सकता था( आपस्तम्ब ) और धर्मविहीन गुरु की शिष्य अवज्ञा कर सकता था ( गौतम )।

शिष्य प्रायः एक गुरु को छोड़कर दूसरे के यहाँ नहीं जाता था। ऐसे शिष्य जो एक गुरु को छोड़कर दूसरे गुरु के पास शिक्षा लेने चले जाते थे उन्हें पतंजलि “तीर्थकाक” कहते हैं।

जातक ग्रंथो से पता चलता है कि कभी-२ आचार्य अपनी कन्या का विवाह अपने योग्य शिष्य से कर देते थे।

शिष्य के कार्यों के लिए गुरु उत्तरदायी होते थे। गुरुपत्नी शिष्यों के प्रति मातृवत् व्यवहार रखती थीं।

गुरुकुल में सभी के साथ समभाव रखा जाता था। यहाँ शिष्य कठोर अनुशासन में रहता था। जातकग्रंथो से पता चलता है कि उद्दंड शिष्यों को दंड दिया जाता था। तिलमुत्थि जातक के अनुसार काशी के एक राजकुमार को उसके गुरु द्वारा शारीरिक दंड दिए जाने का उल्लेख है।

शिक्षा पूर्ण होने के बाद समावर्तन संस्कार के बाद शिष्य गुरुकुल से वापस अपने घर आता था। परंतु उसका गुरु से संपर्क बराबर बना रहता था।

शिक्षण शुल्क या गुरू दक्षिणा

‘प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली’ में शिक्षण शुल्क का कोई निश्चित नियम नहीं मिलता है। शिक्षा प्रायः निःशुल्क थी। जो लोग धन के लालच में शिक्षण कार्य करते थे उन्हें महाकवि कालिदास ‘ज्ञान का व्यवसायी’ कहते हैं। शिक्षा की समाप्ति के बाद ‘गुरु-दक्षिणा’ दी जाती थी। निर्धन शिष्यों के लिए इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था कि धनाभाव के कारण वो शिक्षा-अर्जन से वंचित न रह जाए।

जातक कथाओं से पता चलता है कि श्रेष्ठीपुत्र और राजकुमार तक्षशिला में प्रवेश के समय ही शुल्क चुका देते थे। महाभारत से पता चलता है कि भीष्म ने द्रोणाचार्य को कुरु राजकुमारों की शिक्षा से पूर्व ही शुल्क चुका दिए थे। जो अभिभावक शुल्क देने में असमर्थ होते थे वो सेवा द्वारा शुल्क चूकाते थे और ऐसे विद्यार्थी भिक्षाटन द्वारा गुरु दक्षिणा चूकाते थे।

ऐसे भी कई दृष्टांत हैं जहां पर गुरुओं ने शुल्क लेने से मना कर दिया; जैसे – याज्ञवल्क्य ने जनक से और बौद्ध भिक्षु नागसेन ने मिनांडर से दक्षिणा नहीं ली।

कभी-२ गुरु शिष्य की सेवा से प्रसन्न होकर उसकी सेवा को ही गुरु दक्षिणा मान लेता था। जो शिष्य हठ करते थे उसने क्रोधित होने के भी उदहरण हैं। ‘रघुवंश’ से पता चलता है कि आचार्य वरतन्तु के शिष्य कौत्स के हठ के कारण गुरु चिढ़ गए और उन्होंने १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की मांग कर दी, जिसे कौत्स राजा रघु की सहायता से प्रदान कर पाने में सफल हुआ।

संसाधनों की व्यवस्था

प्राचीन काल में राज्य और समाज से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह शिक्षा का भार उठाये। इसी संदर्भ में आचार्य और विद्वानों के निर्वाह के लिए शासक और कुलीन वर्ग व्यवस्था करते थे और शिक्षण संस्थाओं को भूमि एवं धन का दान देते थे।

गौतम और विष्णु जैसे शास्त्रकारों ने ये व्यवस्था दी थी कि छात्रों को निःशुल्क पढ़ाने और शिक्षकों के निर्वाह की व्यवस्था राजा को करनी चाहिए।

राज्य प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा की व्यवस्था नहीं करता था, तथापि आचार्यों और विद्वानों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता दी जाती थी। 

“समाज का भी यह कर्तव्य था कि वह शिक्षा का भार उठाये। प्रत्येक गृहस्थ से आशा की जाती थी कि वह ब्रह्मचारी को भिक्षा दे और उसे द्वार से रीते हाथ न लौटाये। निर्धन से निर्धन परिवार से आशा की जाती थी कि वह शिक्षा के लिए कुछ न कुछ अंशदान अवश्य करे।”

मौर्यकाल में पुरोहित, ऋत्विज और आचार्यों को राज्य से नियत वेतन मिलता था। ब्राह्मणों और विद्वानों को कर-मुक्त भूमि दान में दी जाती थी जिसे ‘ब्रह्मदेय’ कहा जाता था। यह भी ज्ञात होता है कि राज्य अपनी आय का एक भाग का व्यय धार्मिक और शैक्षणिक संस्थानों को दान देने में व्यय करता था। सम्राट अशोक ने अनेक विहार, मठ आदि बनवाये और उन्हें उदारतापूर्वक दान दिये। ये विहार और मठ शिक्षा का कार्य भी करते थे।

मौर्योत्तर काल में भी यह अनवरत चलता रहा। सातवाहन, शक और कुषाण शासकों में संस्थान, विहार, विद्वान और ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक दान दिये।

गुप्तयुग में ब्राह्मण विद्वानों को दिये गए ग्रामदान को अग्रहार कहते थे। इसी समय नालंदा और बलभी विहार की स्थापना हुई जो कालान्तर में प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के रूप में उभरे। कुमारगुप्त और बुद्धगुप्त ने नालंदा विहार को दान दिये थे।

हर्षवर्धन ने ओडिशा में ‘जयसेन’ नामक विद्वान को १४ ग्राम दान में दिए थे ( चीनी स्रोत )। हर्षवर्धन ने नालंदा विश्वविद्यालय को भी १०० ग्राम दान में दिए थे। उसने यहाँ पर पीतल विहार बनवाया था। हुएनसांग कहता है कि हर्षवर्धन राज्य की आय का १ / ४ भाग शिक्षा और १ / ४ भाग विद्वानों पर व्यय करता था।

पाल शासकों के समय अनेक विहारों और शैक्षणिक केंद्रों का विकास हुआ। इनको शासक उदारतापूर्वक दान देकर उनके व्यय की व्यवस्था करते थे; यथा –

  • गोपाल ने ओदंतपुरी विहार की स्थापना की।
  • धर्मपाल ने विक्रमशिला और सोमापुर विहार की स्थापना की।

दक्षिण भारत में अग्रहार और मंदिर शिक्षा का केन्द्र भी हुआ करते थे। राज्य शिक्षकों व्यवस्था नहीं करता था अपितु ब्राह्मणों और मंदिरों को दान देकर शिक्षा में सहायता अवश्य करता था।

  • अग्रहारों में ब्राह्मण शिक्षण केंद्र चलाते थे और यह शिक्षा निःशुल्क होती थी।
  • राष्ट्रकूट शासन के समय सतलोगी का त्रयीपुरुष मंदिर शिक्षा का प्रख्यात केन्द्र था।
  • पल्लव काल में काँची शिक्षा का विख्यात केन्द्र था।
  • चोल काल में मंदिर और ग्रामसभाएँ शिक्षकों व्यवस्था किया करती थीं। इस समय के अनेक अभिलेख इसका उल्लेख करते हैं –
    • एन्नारियम नामक ब्राह्मण ग्राम से राजेन्द्र चोल के समय का एक अभिलेख मिला है। इस अभिलेख से पता चलता है कि शिक्षकों लिए संसाधनों की व्यवस्था कैसे की गयी थी।
      • इसे चतुर्वेदी मंगलम् कहा गया है।
      • मंदिर से लगा हुआ एक विद्या मंदिर था जिसका नाम ‘गंगैकोण्ड चोलमण्डप’ था।
      • ग्राम सभा ने मंदिर को ३०० एकड़ भूमि दान में दी थी जिससे शिक्षण से सम्बंधित संसाधनों की व्यवस्था चलती थी। इससे ३४० छात्रों और १६ शिक्षकों के व्यय की व्यवस्था होती थी।
      • प्रत्येक छात्र को एक सेर चावल प्रतिदिन और १ / ४ तोला सोना वार्षिक मिलता था। स्वर्ण से विद्यार्थी के वस्त्रादि की व्यवस्था होती थी।
      • अध्यापकों के लिए १६ सेर चावल प्रतिदिन के हिसाब से मिलता था। उनके भरण-पोषण के लिए ४५ वेलि भूमि पृथक रूप से निर्धारित थी।
    • चिंगलपट जनपद के अन्तर्गत ‘वेंकटेस पेरुमाल मंदिर’ में ६० छात्रों के रहने और पढ़ने व्यवस्था थी।
    • चिंगलपट जनपद में ही तिरुवेरिपुर नामक स्थान पर शिव मंदिर के प्रांगण से लगा हुआ एक व्यकरण विद्यापीठ था। यहाँ पर ४०० छात्रों के अध्ययन और मंदिर के विभिन्न व्ययादि के लिए ४०० एकड़ भूमि धर्मदाय के लिए दी गयी थी।
    • वीर राजेन्द्र चोल के समय ( १०६३ ई॰ ) का एक अभिलेख मिला है। इससे ज्ञात होता है कि तिरुमुक्कडल मंदिर का मंडप एक विद्यालय के रूप में कार्य करता था।
    • ११वीं शताब्दी में बीजापुर में एक मंदिर था जिसको १२०० एकड़ भूमि धर्मदाय के रूप में प्राप्त थी। इससे साधुओं, मीमांसा के अध्ययन का करनेवाले छात्रों के व्यय चलते थे।
    • मलकापुरम् मंदिर से लगा हुआ १३वीं शताब्दी का एक विद्यालय था। यहाँ आठ शिक्षक अध्यापन का कार्य करते थे। यहाँ पर एक वैद्य भी नियुक्त थे। छात्रों के भोजन, वस्त्र, औषधि आदि की व्यवस्था थी। अध्यापकों को भूमि के रूप में वेतन मिलता था।

परीक्षा तथा उपाधियाँ

‘प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था’ में वर्तमान की तरह न तो परीक्षा की व्यवस्था थी, न ही उपाधियाँ देने का प्रावधान।

विद्यार्थी जब एक पाठ याद कर लेता था तो गुरु उसे दूसरा पाठ याद करने को देते थे।अध्ययन की समाप्ति के बाद समावर्तन संस्कार होता था और उसे विद्वत्समाज के समक्ष प्रस्तुत किया जाता था। विद्वत्समाज विद्यार्थी के अध्ययन की परीक्षा करती थी तत्पश्चात वह स्नातक बन जाता था। हालाँकि विद्वत्सभा छात्र की योग्यता की अंतिम प्रमाण नहीं थी, अपितु निर्णायक छात्र का गुरु होता था। चरक एवं राजशेखर ऐसी विद्वत्परिषदों का उल्लेख करते हैं।

प्राचीनकाल में उपाधि की कोई प्रथा नहीं थी यहाँ तक कि हुएनत्सांग भी इसका उल्लेख नहीं करता है।

उपाधि प्रदान करने की प्रथा पूर्व-मध्यकाल की देन है। बंगाल के पाल शासक विक्रमशिला के छात्रों को अध्ययन की समाप्ति पर सनद (diploma) प्रदान करते थे ( तारानाथ )। बंगाल के विद्वत्परिषद द्वारा छात्रों को “तर्कालंकार”, “तर्कचक्रवर्ती” जैसी उपाधियाँ दी जाती थीं।

प्राचीन भारतीय शिक्षा के दोष

भारतीय संस्कृति के उत्कर्ष काल में शिक्षा व्यवस्था का दृष्टकोण व्यापक था और संकीर्णता नहीं थी। सभी के लिए शिक्षा के द्वार खुल थे। परंतु कालांतर में इसमें कुछ दोष आ गए; यथा –

१- शिक्षा पर धर्म का अधिक प्रभाव और आध्यामिक विकास पर अधिक बल था।

२- शिक्षा आदर्शवादी अधिक थी व्यावहारिक कम।

३- पाठ्यक्रम में लौकिक विषयों का अभाव जबकि धार्मिक विषयों का बोलबाला था।

४- वैदिक साहित्य को अपौरुषेय, नित्य और पवित्र मान लेने से तर्कशक्ति का ह्रास होता चला गया।

५- ५वीं / ६ठवीं शती के बाद विद्वानों की समस्त शक्ति प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की सुरक्षा पर केन्द्रित होती चली गयी और मौलिक चिंतन व सिद्धान्तों का अभाव सा होता चला गया।

६- भारतीय विद्वान धीरे-धीरे कूपमंडूक होते चले गए और बाह्य जगत से कटते चले गए इस बात की पुष्टि अलबेरुनी करता है।

७- धीरे-२ शिक्षा वर्ग-विशेष तक सीमित होती चली गई।

८- शिक्षा का माध्यम संस्कृत होने और लोकभाषा की उपेक्षा के कारण शिक्षा की पहुँच जनसामान्य तक न रही।

९- शिक्षा की विभिन्न शाखाओं में सामंजस्य नहीं था।

प्राचीन विश्वविद्यालय

भारत में निम्न प्रसिद्ध प्राचीन विश्वविद्यालय थे :-

तक्षशिला विश्वविद्यालय 

नालंदा विश्वविद्यालय 

बलभी विश्वविद्यालय 

विक्रमशिला विश्वविद्यालय 

 

 

प्राचीन भारतीय साहित्य

 

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