प्रतीत्यसमुत्पाद

प्रतीत्यसमुत्पाद

प्रतीत्यसमुत्पाद बुद्ध के उपदेशों का सार और उनकी शिक्षाओं का आधार-स्तम्भ है।

  • यह द्वितीय और तृतीय आर्य सत्यों में निहित है जोकि दुःख का कारण और उसके निरोध को बताते हैं। दुःख संसार है और दुःख निरोध निर्वाण है। यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
  • सापेक्षवादी दृष्टि से देखें तो प्रतीत्यसमुत्पाद संसार है और वास्तविकता की दृष्टि से यही निर्वाण भी है।
  • प्रतीत्यसमुत्पाद से ज्ञान होता है कि भौतिक जगत् की सारी वस्तुएँ सापेक्ष, परनिर्भर और जरा-मृत्यु के अधीन हैं अतः अनित्य हैं।
  • संसार की प्रत्येक वस्तु सापेक्ष होने के कारण न तो पूर्णतः सत्य हैं और न ही पूर्णरूपेण असत्य। पूर्ण सत्य इसलिए नहीं क्योंकि वे जरा-मृत्यु के वशीभूत हैं। पूर्णतः असत्य इसलिए नहीं क्योंकि उनका अस्तित्व दृश्यमान है। इस तरह सभी वस्तुएँ सत्य और असत्य अथवा वास्तविकता और शून्यता के मध्य स्थित हैं।
  • अतः बुद्ध की विचारधारा मध्यम-मार्ग ( मध्यम-प्रतिपदा ) है। यह दोनों अतिवादी विचारधाराओं — शाश्वतवाद और उच्छेदवाद, का निषेध करती है।
  • कालान्तर में यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने स्वर्णिम मार्ग ( Golden Rule ) का सिद्धान्त दिया वह बुद्ध के मध्यम मार्ग सदृश है।
  • बुद्ध अतिशय कायाक्लेश और अतिशय सुख दोनों के विरोधी थे।
  • बुद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद को अत्यधिक महत्व देते हैं और कहते हैं — “जो प्रतीत्यसमुत्पाद को समझता है वह धर्म को समझता है और जो धर्म को समझता है वह प्रतीत्यसमुत्पाद को समझता है।”
  • वेदों की अपौरुषेयता और आत्मा की नित्यता दोनों को बुद्ध ने अश्वीकार कर दिया।
  • कर्म-सिद्धान्त और पुनर्जन्म को बौद्ध धर्म में मान्यता है। इसके अनुसार जीवन विभिन्न अवस्थाओं का परिणाम है जो परस्पर निर्भर हैं। किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है और वर्तमान अवस्था परवर्ती अवस्था को जन्म देती है।
  • रिजडेविड्स के शब्दों में — यह चरित्र है जिसका जन्म होता है, किसी आत्मा का नहीं।
  • मिलिंदपण्हों में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार पानी में एक लहर दूसरे लहर को जन्म देकर समाप्त हो जाती है उसी तरह कर्मफल चेतना के रूप में जन्म का कारण होता है।

 

गौतम बुद्ध

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