परिवार या कुटुम्ब ( Family ) का उद्भव और विकास

विषयसूची

प्रस्तावना

परिवार या कुटुम्ब
परिवार

परिवार एक पुरातन सामाजिक संस्था है।  सम्भवतः कुटुम्ब जितनी ‘नैसर्गिक’ अन्य कोई सामाजिक संस्था नहीं है। प्रचीन से लेकर अर्वाचीन संसार की सभी सभ्यताओं में कुटुम्ब का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और रहेगा। इस संस्था का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता है। यह सामाजिक जीवन की मूलभूत ईकाई है।

व्यक्ति और सामाजिक संस्थाएँ

एक व्यक्ति का समाजिक संस्थाओं से क्या सम्बन्ध होता है? एक व्यक्ति के रूप रूप में हमारी भूमिका सामाजिक संस्था विशेष से स्पष्ट होती है। किसी नाटक या टीवी कार्यक्रम की तरह ये नहीं हो सकता है कि कोई भी किरदार किसी को भी निभाने के लिए दे दिया जाये। दूसरे शब्दों में व्यक्ति की प्रस्थिति और भूमिका उसके नियंत्रण में नहीं होती है। व्यक्ति की भूमिका और उसकी प्रस्थिति को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ होती हैं। ये सामाजिक संस्थाएँ व्यक्ति की भूमिका निर्धारित करती हैं, सम्बन्धित विधि-निषेधों का विनियमन करती हैं और साथ ही पुरस्कृत और दण्डित भी करती हैं। ये संस्थाएँ कुटुम्ब की भाँति लघु हो सकती हैं तो दूसरी ओर राज्य की तरह बृहद् भी। प्रस्तुत लेख में हम परिवार नामक सामाजिक संस्था पर विचार करेंगे।

सामाजिक संस्था क्या है?

संस्था क्या है? विस्तृत अर्थ में संस्था एक स्थापित अथवा कम से कम विधि ( कानून ) या प्रथा द्वारा मान्य नियमों के अनुसार कार्य करती है। यह व्यक्ति के व्यवहार और भूमिका का विनियमन भी करती है और अवसर भी प्रदान करती है। कुछ प्रमुख सामाजिक संस्थाएँ निम्न हैं :-

  • परिवार, विवाह, नातेदारी
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • धर्म
  • शिक्षा

संस्थाएँ स्वयं लक्ष्य की भाँति भी देखी जाती रही है। परिवार, धर्म, राज्य, शिक्षा आदि को अपने आप में लक्ष्य भी माना गया है।

सामाजिक संस्थाओं को समझने के लिए समाजशास्त्र में दो दृष्टिकोण की चर्चा मिलती है :-

  • एक, प्रकार्यवादी दृष्टिकोण ( Functionalist view )— इस दृष्टिकोण में सामाजिक संस्थाओं को समाजिक मानकों, आस्थाओं, मूल्यों एवं समाज की जरूरतों को पूर्ण करने के लिए बने सम्बन्धों की भूमिका के जटिल ताने-बाने के रूप में देखती है। सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होती हैं। ये संस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं :-
    • औपचारिक – कानून, शिक्षा।
    • अनौपचारिक – परिवार, धर्म।
  • द्वितीय, संघर्षवादी दृष्टिकोण ( Conflict view ) — इस विचार के अनुसार; समाज में प्रत्येक व्यक्ति की प्रस्थिति समान नहीं होती है। सभी संस्थाएँ प्रभावशालियों के हित में संचालित होती हैं। इन प्रभावशाली लोगों का सभी सामाजिक संस्थाओं पर प्रभुत्व होता है। ये प्रभावी लोग यह भी सुनिश्चित करते हैं कि उनके विचार ही समाज के विचार बन जाये। ये विचार आवश्यक नहीं कि जिससे समाज का सामान्य हित साधन हो बल्कि यह प्रभावी लोगों की हितपोषक होती हैं।

परिवार या कुटुम्ब ( Family ) क्या है?

कुटुम्ब में प्रायः पति, पत्नी, बच्चे आते हैं। एक तरह से परिवार वह है जो एक छत के नीचे रहता है। इसमें रक्त सम्बन्धी आते हैं जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा को भी स्वीकृति प्राप्त है।

“परिवार या कुटुम्ब ( Family ) एक ऐसी संस्था है जिसमें पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री और भाई-बहन परस्पर प्रभावित करते हुए एक साझी संस्कृति की रचना करते हैं और उसे सुरक्षित रखते हैं।” कुटुम्ब ‘रक्त सम्बन्ध’ से जुड़ा होता है। कुटुम्ब का मुख्य आधार ‘विवाह’ है।

‘Family is a group of persons united by ties of marriage, blood or adoption, constituting a single household;  interacting and communicating with each other in respective social roles of husband and wife, mother and father, son and daughter, brother and sister; and creating and maintaining a common culture.

Burgess and Lock – The Family : From institution to Companionship.

 

‘Of all the organisations, larger or small which the society unfolds, none transcends the family in the intensity of its sociological significance.’

MacIver and Page : Society.

परिवार के उद्भव का सिद्धान्त

परिवार नामक संस्था का अस्तित्व कब और कैसे समाज में आया यह बहुत विवादित प्रश्न रहा है। विद्वानों का विचार है कि यह आदिम समाजों में भी बहुत शुरुआती दौर में ही अस्तित्व में आ चुका था। अर्थात् कुटुम्ब का अस्तित्व सदैव से रहा है, हालाँकि इसका स्वरूप भिन्न हो सकता है। पाश्चात्य विद्वान MacIver का कहना है कि ‘इतिहास का कोई ऐसा दौर नहीं था जिसमें कुटुम्ब जैसी सामाजिक संस्था विद्यमान न रही हो।’

परिवार के उद्भव के सम्बन्ध में कुछ निम्नलिखित सिद्धान्त हैं :—

  • यौन साम्यवाद का सिद्धान्त
  • पितृसत्तात्मक सिद्धान्त या शास्त्रीय सिद्धान्त
  • मातृसत्तात्मक सिद्धान्त
  • एक विवाही सिद्धान्त
  • उद्विकासवादी सिद्धान्त
  • बहुकारक सिद्धान्त

यौन साम्यवाद का सिद्धान्त

  • समर्थक विद्वान – लुईस मॉर्गन, फ्रेजर, ब्रिफाल्ट आदि।
  • प्रारम्भ में कोई परिवार नहीं थे।
  • प्रारम्भ में यौन-सम्बन्धों पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं था। स्त्री हो या पुरुष किसी से भी उन्मुक्त रूप से यौन-सम्बन्ध बनाते थे।
  • महिला को अतिथि के लिए प्रस्तुत किया जा सकता था।
  • ऐसे में इस तरह का परिवार मानव की भावना या उसकी ईर्ष्या का परिणाम था। क्योंकि जब पुरुष हो या स्त्री उसे अपने सहवास के लिए एकाधिकार भागीदार या जीवनसाथी की जो कि मात्र उसी को समर्पित हो की आवश्यकता महसूस हुई तो पारिवारिक जीवन की शुरुआत हुई।
  • कुटु्मब के उद्भव का एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्मुक्त यौन-सम्बन्धों में बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर आन पड़ती थी क्योंकि पुरुष शक के आधार पर यह कहकर बच लेता था कि यह बच्चा मेरा नहीं है। अतः पारिवारिक जीवन की शुरुआत हुई।

पितृसत्तात्मक परिवार का सिद्धान्त या शास्त्रीय सिद्धान्त

  • इस सिद्धान्त को प्लेटो और अरस्तू ने दिया। इसके समर्थक हेनरी मेन ( १८६१ ई० ) हैं।
  • इस विचार में यह कहा गया कि पुरुष का अपने कुटुम्ब पर पूर्ण नियंत्रण होता था।
  • प्राचीन यूनानी, यहूदी रोमन इतिवृत्त पितृसत्तात्मक समाज की पुष्टि करते हैं। अतः इस आधार पर यह कहा गया कि सबसे पहले पितृसत्तात्मक परिवार अस्तित्व में आये।
    • परन्तु यह सिद्धान्त दोषपूर्ण है क्योंकि अन्य प्रचीन समाजों में मातृसत्तात्मक परिवार पहले से ही विद्यमान रहे हैं।

मातृसत्तात्मक परिवार का सिद्धान्त

  • इस सिद्धान्त को ‘रॉबर्ट ब्रिफॉल्ट’ ने अपनी कृति ‘द मदर्स’ में दिया।
    • Briffault’s Law :- ‘The female, not the male, determines all the conditions of the animal family. Where the female can derive no benefit from association with the male, no such association takes place. ( Robert Stefen Briffault – The Mothers. )
  • ब्रिफॉल्ट के अनुसार उन्मुक्त यौन-व्यवहार के कारण बच्चों के पिता का ज्ञान न होने के कारण उनके लालन-पालन का उत्तरदायित्व माँ पर होता था। अतः परिवार मातृसत्तात्मक होता था।
  • बाद में कृषि कर्म के विकास से मानव सभ्यता में स्थायित्व आया तथा एकल यौन सम्बन्धों और विवाह से परिवार मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मकता की ओर क्रमशः विकास हुआ।
  • टायलर नामक विद्वान ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। इनके अनुसार प्रारम्भ में परिवार मातृसत्तात्मक था। उसके बाद मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का साहचर्य स्थापित हुआ और विकास के अंतिम दौर में परिवार पितृसत्तात्मक अवस्था में विकसित हुए जोकि वर्तमान में भी विद्यमान है।

उद्विकासवादी सिद्धान्त

  • इस सिद्धान्त से सम्बंधित विद्वान हैं – बैकोफेन ( Bachofen ), लुइस मार्गन, हरबर्ट, स्पेंसर, मैकलेनेन, लुबोक, टायलर आदि।
  • परिवार के उद्भव का उद्विकास की अवधारणा सबसे पहले अमेरिकी विद्वान ए० एच० मार्गन ने प्रस्तुत किया।
  • उनके अनुसार समाज की प्रारम्भिक अवस्था में परिवार और विवाह जैसी कोई सामाजिक संस्था नहीं थी। शुरुआती समय में ‘यौन-साम्यवाद’ की अवस्था थी। विवाह तथा परिवार जैसी सामाजिक संस्थाओं का विकास क्रमशः बाद में हुआ।
  • ए० एच० मार्गन ने परिवार के उद्विकास को पाँच चरणों में बाँटा है :—

समरक्त परिवार ( Consanguineous Family )

  • परिवार के उद्विकास का यह प्रथम चरण था।
  • इस अवस्था में यौन-सम्बन्ध स्वैच्छिक थे। अर्वाचीन स्थापित विधि-निषेध का इस चरण में पूर्णरूप से अभाव था।
  • किससे यौन-सम्बन्ध स्थापित करना है और किससे नहीं इस सम्बन्ध में कोई नियम नहीं थे। यहाँ तक कि भाई-बहन भी यौन सम्बन्ध बनाते थे।
  • इसकी पुष्टि के लिए मार्गन ने पॉलीजीनियन समाज का उदाहरण दिया है।

समूह परिवार ( Punaluan Family )

  • इस चरण में परिवार के लोगों में सामूहिक विवाह को मान्यता मिली।
  • एक परिवार के सभी भाइयों का सम्बन्ध उस परिवार सभी बहनों से होता था।
  • मार्गन ने पुंनालुअन परिवार को इस चरण के अंतर्गत रखा है।

सिस्माण्डियन परिवार ( Syndyasmian Family )

  • मार्गन के अनुसार इस चरण में परिवार की एक स्त्री विवाह एक पुरुष से होता था।
  • परन्तु मार्गन यह भी रेखांकित करते हैं कि परिवार के सभी पुरुषों का यौन सम्बन्ध परिवार की सभी स्त्रियों से हो सकता था।

पितृसत्तामक परिवार ( Patriarchal Family )

  • विकास के इस चतुर्थ चरण में परिवार पर पुरुष की श्रेष्ठता स्थापित हुई।
  • पुरुष एक से अधिक स्त्रियाँ / पत्नियाँ रख सकता था।
  • इस प्रकार के परिवार वर्तमान में भी विभिन्न संस्कृतियों में पाये जाते हैं।

एक विवाही परिवार

  • यह परिवार के विकास का अंतिम चरण है।
  • इसमें परिवार में एक पुरुष का विवाह एक स्त्री होता है।
  • हालाँकि मार्गन यह सम्भावना भी व्यक्त करते हैं कि परिवार के विकास की यह अंतिम अवस्था नहीं है। इसमें परिवर्तन की गुंजाइश बनी रहेगी।

मार्गन के सिद्धान्त की आलोचना

  • प्रकृत के विभिन्न जीवों यथा पशु-पक्षियों में हमें नर-मादा के जोड़े देखने को मिलते हैं। वे परस्पर समर्पित होते हैं।
  • जब इन अविकसित प्राणियों में यौन-साम्यावस्था नहीं मिलती तो मानव जैसे विकसित प्राणी में यौन साम्यवाद कैसे किसी भी चरण में हो सकता है?

एकविवाही सिद्धान्त

  • इस सिद्धान्त का प्रवर्त्तन वेस्टनमार्क ने अपनी कृति ‘हिस्ट्री ऑफ ह्यूमन मैरिज’ में किया है।
  • इस सिद्धान्त को डार्विन, जुकरमैन और मालिनोवस्की का समर्थन प्राप्त है।
  • इस मतानुसार परिवार नामक संस्था एक पुरुष की आवश्यकता एवं स्त्री पर स्वामित्व होने की भावना से उद्भूत हुई है।
  • यह सिद्धान्त व्यक्ति की ईर्ष्या और स्वामित्व की भावना पर आधृत है।
  • पुरुष शक्ति और अधिकार के कारण एक महिला को अपने पास रखना चाहता था और उससे यौन सम्बन्ध स्थापित करता था।
  • कालान्तर में इसी प्रथा को समाज ने मान्य कर लिया।
  • इस तरह परिवार का जन्म हुआ।

बहुकारक सिद्धान्त

  • कई विद्वानों का मत है कि परिवार के विकास के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है। ऐसे ही कुछ विद्वान हैं – राल्फ लिंटन, मैकल्वेयर।
  • समाज का उद्विकास एकदिशीय या एकल-रेखीय नहीं रहा है। ऐसे अनेक कारक रहे हैं जिसने परिवार के विकास के प्रभावित किया है।
  • MacIver के अनुसार परिवार को प्रभावित करने वाले मूल कारक है :-
    • यौन सम्बन्ध :— यौन सम्बन्ध परिवार के उद्भव का मूल कारक है। महिला हो या पुरुष यौन तुष्टि के लिए उसे सहचर / सहचरी की आवश्यकता होती है। इसी अवश्यकता ने परिवार जैसी संस्था की प्रथम बुनियादी ईंट रखी। इसी के साथ प्रजनन के लिए भी तो यौन सम्बन्ध आवश्यक है।
    • प्रजनन :- परिवार के मुख्य दायित्वों में से बच्चों का प्रजनन और उनका पालन-पोषण है। या यूँ कहें की बच्चे पैदा करने की ईच्छा से भी परिवार के उद्भव को प्रोत्साहित किया।
    • आर्थिक संगठन :- पारस्परिक मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहयोग की आवश्यकता होती है। इस सहयोग की आवश्यकता उसे परिवार जैसी संस्था की ओर ले जाती है।

निष्कर्ष

परिवार के उद्भव के सम्बन्ध में जितने भी उपर्युक्त सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है उनमें से बहुकारक सिद्धान्त सबसे उपयुक्त और समीचीन लगता है। बहुकारक सिद्धान्त को अनेक समाजशास्त्रियों की स्वीकार्यता भी प्राप्त है।

भारतीय परिवार या कुटुम्ब संस्था का विकास कैसे हुआ?

परिवार जैसी सामाजिक संस्था कब अस्तित्व में आयी यह एक यक्ष प्रश्न है। इस सामाजिक संस्था को अपने विकास के दौरान किन-किन चरणों से गुजरना पड़ा यह भी जटिल सवाल है।

इस संस्था की शुरुआत एक प्रजनक या जैविक संस्था के रूप में हुई थी, जो बाद में एक सामाजिक ईकाई बन गयी।

इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि मानव अपने विकास के चरण में पहले शिकारी और खाद्य संग्राहक था। प्रस्तरयुगीन शैल चित्रों जोकि विश्व के विभिन्न भागों के साथ-साथ भारतीय उप-महाद्वीप में भी पाये गये हैं; जैसे – भीमबेटका, आदमगढ़ इत्यादि; से कई बातों के संकेत मिलते हैं। जैसे इन चित्रों में सामूहिक शिकार, नृत्य आदि के चित्रों से ज्ञात होता है कि सहकार की भावना पनप चुकी थी। परन्तु क्या वर्तमान परिवार जैसी संस्था अस्तित्व में आ चुकी थी? उत्तर है नहीं। क्योंकि प्रस्तरकाल में मानव की जीवन स्थायी नहीं था। हाँ छोटी-छोटी टोलियाँ बन चुकी थीं, जो सामूहिक रूप मिलकर शिकार करते थे।

परिवार नामक संस्था मानव के स्थायी जीवन से जुड़ा हुआ है। भोजन को स्थायी स्वरूप देने के लिए मानव ने पहले पशुपालन सीखा, उसके बाद कृषि। पशुपालन में मानव का निवास चारागाह पर निर्भर था इसलिए वह इसकी खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पशुओं के साथ घूमता रहता था। परन्तु कृषि के लिए स्थायित्व आवश्यक था। कृषि से मानव के जीवन में स्थायित्व आया।

इस तरह कृषि और पशुपालन ने मानव जीवन को भोजन की सुरक्षा प्रदान की। मानव छोटे-छोटे समूहों में बसने लगे। छोटी-छोटी बस्तियाँ अस्तित्व में आयीं। विद्वानों का विचार है कि परिवार जैसी संस्था इसी सब का परिणाम थी।

इस तरह नवपाषाणकाल की उपलब्धि है – कृषि, पशुपालन और स्थायी ग्राम्य जीवन।

धातु संस्कृतियाँ जिसमें सबसे पहले ताम्रकालीन संस्कृति आती है। इसमें बस्तियाँ और बड़ी होती गयी। जो बाद में काँस्ययुगीन नगरीय सभ्यता ( हड़प्पा सभ्यता ) के रूप में प्रस्फुटित हुई।

सैंधव सभ्यता मातृसत्तामक समाज था।

सैंधव सभ्यता के पतन के बाद वैदिक सभ्यता का समय आता है।

ऋग्वैदिक समाज में परिवार कैसे होते थे इसका पता हमें ऋग्वेद के अनुशीलन से ज्ञात होता है। जिस प्रकार निर्वाह-अर्थव्यवस्था में सामान्यतः कबायली सामंजस्य होता है, उसी तरह पशुचारण समाज में पितृसत्तामक सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।

सामान्यतः ऐसा पाया गया है कि कृषिकर्मा समाज में स्त्रियों का प्रमुख स्थान ( मातृसत्तामक ) होता है, जबकि पशुचारण समाज में पुरुषों का स्थान प्रमुख ( या पुरुषसत्तामक ) स्थान होता है।

ऋग्वेद में परिवार-वाचक शब्द ‘कुल’ का प्रयोग विरल है। परिवार में मात्र माता-पिता, पुत्र-पुत्री, दास आदि ही नहीं वरन् अन्य सगे सम्बन्धी भी सम्मिलित होते थे। ऋग्वैदिक समाज में परिवार के अर्थ में ‘गृह’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यह शब्द ( गृह ) ऋग्वेद में बार-बार आया है।

ऋग्वैदिक समाज में परिवार का जो चित्र उभरता है वह बहुत व्यापक या विशद है। माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र और पुत्री के लिए तो स्वतंत्र शब्द मिलते हैं, परन्तु भतीजे, प्रपौत्र, चचेरे या ममेरे भाई-बहन आदि के लिए स्वतंत्र शब्द नहीं मिलते हैं। अन्य सम्बन्धों के लिए ‘नप्तृ’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

इसका क्या अर्थ है? विद्वानों के अनुसार एक पत्नी-विवाह पर आधारित कुल ऋग्वैदिक समाज में सामान्य बात नहीं थी।

परिवार कई पीढ़ियों एवं समपार्श्विक शाखाओं का समूहन होता था। जिसमें मातृ पक्ष और पितृ पक्ष की कई पीढ़ियाँ साथ-साथ रहती थीं। माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र और पुत्री के अतिरिक्त अन्य सम्बन्धों के लिए ‘नप्तृ’ शब्द के प्रयोग से इसी बात की पुष्टि होती है।

और स्पष्ट रूप से कहें तो पृथक परिवारों / कुटुम्बों की स्थापना की दिशा में पारिवारिक सम्बन्धों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं हुआ था एवं कुटुम्ब एक प्रकार से बृहद् सम्मिलित ईकाई थी। परिवार पितृसत्तामक था। कुटुम्ब में एक साथ कई पीढ़ियाँ रहती थीं। ऋग्वैदिक समाज में एक पत्नी वाले पितृसत्तामक परिवार के संकेत कम मिलते हैं। कुल शब्द का विवरण नहीं मिलता है, जबकि सामूहिकता सूचक शब्द; जैसे – जन्, विश् आदि शब्द बहुतायत मिलते हैं।

‘ऋजास्व’, ‘शुनःशेप’ और ‘दीवालिए’ जुआरी के आख्यान से स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक समाज में पुरुष मुखिया का परिवार पर पूर्ण नियंत्रण होता था।

तत्कालीन युद्धरत समाज में वीर पुत्रों के प्राप्ति की कामना बार-बार व्यक्त की गयी है, जबकि ऐसी कामना पुत्री के लिए नहीं की गयी है। दूसरे शब्दों में आर्यों के जीवन में पुत्रजन्म वरदान माना जाता था। यहाँ तक की प्रजा के सुख-समृद्धि और पशुधन की कामना भी मिलती है।

परन्तु इसका यह कतई आशय नहीं है कि स्त्रियों दशा दीन-हीन थी। वस्तुतः अनेक ऐसी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो वैदिक ऋचाओं की द्रष्टा थीं।

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि पूर्व-वैदिक काल में संयुक्त परिवार प्रथा थी। परिवार ‘पितृसत्तात्मक’ ( patriachal ) था। पिता का परिवार पर निरंकुश अधिकार होता था। इस निरंकुश अधिकार का पता ऋग्वेद के ‘ऋज्रास्व’ और ‘शुनःशेप’ आख्यान से पता चलता है। पारिवारिक सम्पत्ति पर सभी का अधिकार होता था। संयुक्त परिवार होते थे जिसमें कई पीढ़ियों ( ३ या ४ ) तक के सदस्य साथ-सात रहते थे।

विवाह संस्था सुसंस्थापित हो चुकी थी। हालाँकि कुछ आदिम प्रथाओं के संकेत भी मिलते है।

  • जुड़वा भाई-बहन यम और यमी का आख्यान। यमी ने यम के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे यम ने अस्वीकार कर दिया था।
  • बहुपति प्रथा के भी संकेत मिलते हैं; यथा मरुतों के साथ रोदसी का विवाह हुआ था, सूर्यतनया सूर्या का विवाह दोनों भाई अश्विन् के साथ रहती थीं।
  • परन्तु यह उल्लेखनीय है कि ऐसी आदिम प्रथाएँ प्रचलित नहीं थी अर्थात् विरल थीं। सम्भवतः ऐसी प्रथाओं का पूर्वकालिक मातृसत्तामक स्थिति के अवशेष का संकेत मिलता है। यहाँ पर कहीं माता के नाम पर पुत्रों का नामकरण भी मिलता है, यथा – मामतेय।
  • यहाँ पर नियोग प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है।
  • विधवा-विवाह का प्रचलन था परन्तु बाल-विवाह नहीं होते थे।

उत्तर-वैदिक काल में भी संयुक्त परिवार की व्यवस्था बनी रही। पिता का भी निरंकुश अधिकार बना रहा। कभी-कभी पुत्र अपने पिता के जीवनकाल में ही सम्पत्ति का बँटवारा करा लेने का उल्लेख मिलता है। इससे पिता को दुःख होता था।

परिवार के स्तर पर पिता के अधिकारों में वृद्धि पाते हैं। पिता अपने पुत्र को उत्तराधिकार तक से वंचित कर सकता था। राजपरिवार में ज्येष्ठाधिकार को मज़बूती मिलती गयी। पुरुष पूर्वजों की पूजा होने लगी जबकि स्त्रियों की स्थिति में अपेक्षाकृत ( ऋग्वैदिककाल की तुलना में ) परिवार और समाज दोनों स्तरों पर गिरावट आयी।

उत्तर-वैदिक कालीन साहित्यों में प्रयुक्त ‘गोत्र’ शब्द उल्लेखनीय है। गोत्र शब्द का मौलिक अर्थ है गोष्ठ अर्थात् जहाँ पर कुल या समुदाय के गोधन को बाँधा या सुरक्षित बाड़े में रखा जाता था। परन्तु धीरे-धीरे इसका अर्थ बदलकर एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न समुदाय हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि समान गोत्र समुदायों या परिवारों के मध्य वैवाहिक सम्बन्धों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

सूत्रकाल में पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के अनेक विधि-नियमों का निर्माण किया गया। ये नियम-विनियम हमें गृहसूत्रों में मिलते हैं। इस समय के निर्धारित पारिवारिक विधि-निषेधों से भारतीय हिन्दू समाज आज तक विनियमित होता आ रहा है।

यति धर्मों ( बौद्ध और जैन ) नें गृहत्याग का आदर्श समाज के समक्ष रखा। इससे संयुक्त परिवार व्यवस्था को गहरा आघात लगा। इन नास्तिक धर्मों के प्रभाव से लोग स्वजनों को छोड़कर भिक्षु / भिक्षुणी बनने लगे जिससे परिवार टूटने लगे। इससे बचने के लिए शास्त्रकारों ने अनेक विधि-विधान प्रस्तुत किये; यथा – मनु-स्मृति।

पूर्व-मध्यकाल में मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियों पर भाष्य लिखकर उनकी विस्तृत व्याख्या की गयी। इनमें परिवार और समाज सम्बन्धी व्याख्या भी सम्मिलित है। इन्हीं से वर्तमान हिन्दू समाज आज तक व्यवस्थित और शासित होता रहा है।

परिवार का बदलता स्वरूप

महिला प्रधान घर

  • जीविका की खोज में जब पुरुष बाहर या नगरीय क्षेत्रों में चले जाते हैं, तब महिलाओं के ऊपर घर की जिम्मेदारी आन पड़ती है। वे ही गृहणी और खेती-बाड़ी के दायित्वों का निर्वहन करती हैं।
  • जब घर में कोई पुरुष ऐसा न हो जो घर को सम्भाल सके या जिस स्त्रियाँ पति मर गया हो, बीमार हो, या पुरुष ने दूसरा विवाह कर लिया हो आदि; तो ऐसी परिस्थितियों में भी महिला घर के सम्पूर्ण ( घर और बाहर ) उत्तरदायित्व का निर्वहन करती है।
  • भारत के कुछ भागों; जैसे – दक्षिण-पूर्व महाराष्ट्र एवं उत्तरी आन्ध्र प्रदेश की कोल्लम जनजाति में महिला प्रधान गृह एक स्वीकृत मानक है।

प्रकार्यवादी विचारकों के अनुसार एकल-परिवार अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। यह समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और सामाजिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार यदि महिलाएँ परिवार की देखरेख करें एवं पुरुष परिवार की जीविका चलाये तो अर्वाचीन औद्योगिक समाज का कार्य निष्पादन श्रेष्ठ रूप से होता है।

प्रकार्यवादियों ने एकल परिवार को औद्योगिक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के सर्वोत्तम साधन के रूप में देखा है। परिवार का एक सदस्य घर और बच्चों को सम्भालता है जबकि दूसरा सदस्य जीविका के संस्साधन अर्जित करने के लिए घर से बाहर कार्य करता है। व्यावहारिक रूप से एकल-परिवार में भूमिका के विशिष्टीकरण में पति की जीविका चलाने वाले सहायक की जबकि पत्नी की घरेलू संरचना में प्रभावशाली भावनात्मक भूमिका होती है ( Giddens, 2001 )। इस प्रकार के दृष्टिकोण कई आधार पर आलोचना की गयी है –

  • अनुचित लिंगभेद के आधार पर कुटुम्ब में कार्य-विभाजन करके सरलीकरण करके सभी परिवार के लिए एक जैसा निष्कर्ष निकाला गया है।
  • इतिहास और अन्यान्य संस्कृतियों में इस निष्कर्ष को जस का तस नहीं लागू किया जा सकता है।
  • अर्वाचीन ही नहीं भारत में वस्त्र उद्योग में महिलाओं की प्रमुख भूमिका सदैव रही है।
  • यह निष्कर्ष अनिवार्य रूप से पुरुष को परिवार का मुखिया बताता है।

भारतवर्ष में एक प्रमुख चर्चा का विषय है – संयुक्त परिवार बनाम एकल परिवार।

समाजशास्त्री ए०एम० शाह कहते हैं कि स्वातंत्र्योत्तर काल में भारत में संयुक्त परिवार में वृद्धि हुई है। उनका तर्क है कि भारत में निरंतर औसत आयु में सुधार इसका मुख्य कारण है। वे अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए जनसंख्या के आँकड़ों का सहारा लेते हैं। वे कहते हैं कि ६० वर्ष या उससे अधिक आयु के लोगों की संख्या में बृद्धि औसत आयु में सुधार का परिणाम है। आगे वे कहते हैं कि – ‘हमें यह पूँछना होगा कि ये वृद्ध किस प्रकार के घरों में रहते हैं? मैं मानता हूँ कि इनमें से अधिकांश लोग संयुक्त परिवार में रहते हैं।’ ( ए०एम० शाह – १९९६ )

परन्तु यह एक सरलीकृत निष्कर्ष है जिसे हर परिस्थिति में नहीं लागू किया जा सकता है। मात्र औसत आयु का बढ़ना संयुक्त परिवार के बढ़नेवाले संकेत नहीं हो सकता है।

विभिन्न अध्ययनों से यह तथ्य ज्ञात होता है कि परिवार के विभिन्न स्वरूप विभिन्न समाजों में पाये जाते हैं। आवास के नियम, विवाह, पारिवारिक प्रथाओं ने परिवार के स्वरूप के निर्धारण में महती भूमिका निभायी है। हालाँकि अधिकांश परिवार पितृस्थानिक ( Patrilocal ) हैं, फिरभी भारतीय समाज में मातृस्थानिक ( Matrilocal ) परिवार भी पाये जाते हैं। पितृस्थानिक परिवार में नवदम्पत्ति पति के परिजनों के साथ रहता है जबकि मातृस्थानिक परिवार में नवदम्पत्ति पत्नी के परिजनों के साथ रहता है।

पितृतंत्रात्मक ( Patriarchal ) परिवार में पुरुष का, तो मातृतंत्रात्मक ( Matriarchy ) परिवार में महिलाओं को निर्णय लेने में प्रमुख भूमिका होती है।

मातृवंशीय ( Matrilineal ) समाज तो पाये जाते हैं परन्तु मातृतंत्रीय ( Matriarchal ) समाजों के बारे में ऐसा दावा नहीं किया जा सकता है।

परिवार का महत्त्व

  • परिवार वह संस्था है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपना उत्कर्ष करता है।
  • व्यक्तियों से परिवार बनता है और परिवारों से समाज बनता है।
  • नागरिक जीवन की प्रथम पाठशाला कुटुम्ब है।
  • ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो परिवार से सम्बद्ध न हो।
  • यह व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और परिवार वह ईकाई है जिसपर समाज रूपी भवन खड़ा हुआ है। परिवार व्यक्ति की रक्षा करता है और जैविकीय आवश्यकताओं की पूर्ति भी।
  • कुटुम्ब से ही समाज की निरंतरता कायम रहती है।
  • ‘सामाजिक महत्त्व की दृष्टि से कोई भी संस्था या संगठन ‘परिवार या कुटुम्ब’ का अतिक्रमण नहीं कर सकता है।’ — MacIver and Page.

परिवार की सम्पत्ति

प्राचीन ग्रंथों में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति पर कुटुम्ब के सभी सदस्यों का अधिकार था। सम्पत्ति के विभाजन पर सभी को अपना-अपना भाग मिलता था।

ऋग्वैदिक काल में पारिवारिक सम्पत्ति पर पिता का एकाधिकार होता था परन्तु बाद में यह क्रमशः घटता गया।

अधिकांश शास्त्रकारों का मत है कि सम्पत्ति का विभाजन पिता की मृत्यु के बाद ही होना चाहिए। परन्तु कहीं-कहीं इसका विरोध भी मिलता है।

पूर्व-मध्यकाल में हमें सम्पत्ति विषयक दो मत मिलते हैं :—

  • विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर ‘मिताक्षरा’ नामक भाष्य लिखा। मिताक्षरा में कहा गया है कि पुत्र के जन्म लेते ही उसका पिता की सम्पत्ति में अधिकार हो जाता है। पुत्र को पिता के जीवित रहते हुए सम्पत्ति में विभाजन का अधिकार दिया गया है।
  • जिमूतवाहन कृत ‘दायभाग’ का मत है कि पिता की मृत्यु के बाद ही पुत्र को सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त होता है।

परन्तु यह उल्लेखनीय है कि दोनों ( विज्ञानेश्वर और जिमूतवाहन ) का मत है कि पिता का पारिवारिक सम्पत्ति पर निरंकुश अधिकार नहीं है।

वैदिककाल में पारिवारिक सम्पत्ति के अंतर्गत मवेशी, भूमि, आभूषण आदि सम्मिलित थे। इनका बँटवारा किया जाता था।

पूर्व-मध्यकाल में यह मत दिया गया कि पारिवारिक सम्पत्ति में सदस्यों की व्यक्तिगत कमायी, दानादि सम्मिलित नहीं है।

‘स्त्रीधन’ के अन्तर्गत उसकी निजी सम्पत्ति आती थी जो वह दहेज में लाती थी अथवा उपहार में प्राप्त करती थी। यह पारिवारिक सम्पत्ति में शामिल नहीं थी।

आश्रम व्यवस्था

जाति-प्रथा का उद्भव और विकास

प्राचीन भारत में ‘दास प्रथा’

 

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