ताम्र संचय संस्कृति

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ताम्र संचय संस्कृति ( Copper Hoards Culture ) की जानकारी तब मिली जब १८२२ ई० में बिठूर ( कानपुर ) से ताँबे के काँटेदार बरछे ( Copper Harpoon ) मिले।

अब तक लगभग एक हजार ताँबे की वस्तुएँ भारत के विभिन्न भागों में लगभग ९० पुरास्थलों से प्राप्त की जा चुकी हैं।

चूँकि ये ताँबे की वस्तुएँ अधिकतर एक साथ कई वस्तुओं के समूह यानी संचय या निधि ( hoards ) के रूप में पायी गयी हैं, इसलिए उन्हें ताम्र संचय संस्कृति या ताम्र निधि संस्कृति ( copper hoards culture ) कहा जाता है।

सबसे बड़ा संचय गुंगेरिया– Gungeria ( बालाघाट जनपद, मध्य प्रदेश ) से प्राप्त हुआ है, जिसमें ताँबे की ४२४ वस्तुएँ और चाँदी की १०२ पतली चादरें हैं।

उपकरण

इस संस्कृति के लोग निम्न प्रकार के ताँबें की वस्तुओं का प्रयोग करते थे :-

  • ताँबे की कुल्हाड़ी – Celt
  • मत्स्य भाला – Harpoon
  • मानव आकृतियाँ – Anthropomorphs
  • ताँबे की अँगूठियाँ या वलय – Copper Rings
  • ताँबे की तलवारें – Copper Sword
  • काँटेदार बरछे – Antennae Swords
ताम्र संचय संस्कृति की वस्तुएँ
ताम्र संचय संस्कृति की वस्तुएँ

भौगोलिक विस्तार

सामान्यतः ये काँटेदार बरछे, दुसिंगी तलवारें और मानवाकृतियाँ बुनियादी तौर पर उत्तर प्रदेश के स्थलों तक ही सीमित हैं वो भी मुख्य रूप से गंगा-यमुना के दोआब में। इसलिए इसको गंगा घाटी ताम्र निधि ( Gangetic valley copper hoards ) भी कहा गया है।

जबकि आदिम कुल्हाड़ियाँ, छल्ले और अन्य वस्तुएँ अलग-अलग भौगोलिक इलाकों; जैसे- राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी पायी गयी हैं।

ताम्र-निधियों का विश्लेषण

इन ताम्र वस्तुओं के वैज्ञानिक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि वे खुले या बंद साँचों ( open or closed moulds ) में ढालकर बनायी गयी थीं।

ये वस्तुएँ आमतौर पर शुद्ध ताँबे की बनी हुई हैं, हालाँकि उनमें से कुछ में नगण्य मात्रा में अन्य धातुएँ भी मिली हुई पायी गयी हैं।

इन ताम्र संचयों का स्रोत संभवतः खेतड़ी क्षेत्र की तांबे की खानें और उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के पहाड़ी क्षेत्र रहे होंगे।

इन ताम्र संचयों में हथियारों और औजारों के साथ-साथ पूजा की वस्तुएँ भी पायी गयी हैं।

कांटेदार बरछियों और दुसिंगी तलवारों का प्रयोग तो हथियारों के रूप में किया जाता होगा, जबकि आदिम कुल्हाड़ियों तथा कुठारों का इस्तेमाल औजारों के रूप में होता होगा।

ऐसा लगता है कि छड़दार कुल्हाड़ियाँ खानों से खनिज खोदकर निकालने के काम आती थीं।

पायी गयी मानवाकृतियों में से कुछ तो काफी भारी और बड़ी हैं। उनका भार कुछ किलो तक और लंबाई ४५ सेमी० तक और चौड़ाई ४३ सेमी० तक है। संभवतः इन आकृतियों की पूजा की जाती थी। आज भी समस्त उत्तर भारत में ऐसी ही शनि देवता की मूर्तियों की पूजा की जाती है, जिनका आकार ४ से १० सेमी० होता है।

ताम्र-संचय संस्कृति : निर्माता

यह बताना बहुत कठिन है कि इन ताम्र संचयों के निर्माता कौन थे? गंगा के मैदान में इन ताम्र संचयों की कुछ वस्तुएँ गैरिक मृद्भांडों ( ochre coloured pottery ) के साथ पायी गयी हैं।

उत्तर प्रदेश के इटावा के पास सैपई ( Saipai ) से ताँबे की वस्तुओं के साथ-साथ गेरुवर्णी या गैरिक मृद्भाण्ड ( Ochre Coloured Pottery – OCP  ) पाये गये हैं। इसीलिए ताम्रपाषाण संस्कृति को का सम्बन्ध गैरिक मृद्भाण्ड ( OCP ) से माना गया है।

ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ ( Chalcolithic Cultures )

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