ज्योतिष और खगोल विद्या का प्राचीन भारत में विकास

ज्योतिष और खगोल विद्या का विकास

भूमिका

‘ज्योतिष और खगोल विद्या’ का विकास साथ-साथ हुआ। वेदों को समझने के लिए जिन छः वेदांगों की रचना हुई उसमें से अन्तिम ज्योतिष है। प्राचीन ज्योतिर्विद्या का ‘उद्देश्य’ समय-समय पर होने वाले यज्ञों का मुहूर्त और काल निर्धारण करना था। यहाँ तक कहा गया है कि :—

“यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञं।”

( अर्थात् ज्योतिष को भलीभाँति जानने वाला ही यज्ञ का यथार्थ ज्ञान रखता है। )

ज्योतिष विद्या ( Astrology ) क्या है ?

‘ज्योतिष विद्या’ ( Astrology ) के अन्तर्गत मानव जीवन और पृथ्वी पर ग्रह और नक्षत्रों के शुभाशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है।

ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार – ‘the study of the position of stars and the movements of the planets in the belief that they influence human affairs.’

खगोल विद्या या खगोलशास्त्र ( Astronomy ) क्या है ?

मानव जीवन पर ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव की दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता था, अतः खगोल विद्या का विकास इसके साथ-साथ हुआ। कालान्तर में ग्रह और नक्षत्रों या आकाशीय पिण्डों का अध्ययन एक अलग विषय ही बन गया।

खगोल शब्द भूगोल का विलोम है। खगोल शब्द का अर्थ है — आकाश मंडल या आकाशीय पिण्डों का अध्ययन।

‘खगोलशास्त्र’  ( Astronomy ) के तहत पृथ्वी और उसके वातावरण से बाहर स्थित आकाशीय पिण्डों का अध्ययन किया जाता है। अर्थात् विज्ञान की वह शाखा जिसमें पृथ्वी के वायुमंडल से परे ‘ब्राह्मांड’ का अध्ययन किया है।

इसके तहत ब्राह्माण्ड में घटने वाली घटनाओं का प्रेक्षण ( observation ), विश्लेषण ( analysis ) और उसकी व्याख्या की जाती है।

इन ब्राह्मण्डीय घटनाओं को समझने के लिए गणित, भौतिकी और रसायन विज्ञान का सहारा लिया जाता है।

 

ज्योतिष और खगोल विद्या का सम्बंध

इन दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। क्योंकि मानव पर ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव ( ज्योतिष ) को जानने के लिए आकाशीय पिण्डों की जानकारी ( खगोलशास्त्र ) की जानकारी आवश्यक थी। ज्योतिष की गणना बिना गणित के सम्भव नहीं था।

इस तरह ज्योतिष, खगोलशास्त्र और गणित का विकास कहीं न कहीं अंतर्सम्बंधित हैं।

गुप्तकालीन विद्वान आर्यभट्ट ने सबसे पहले ज्योतिष को गणित से पृथक शास्त्र के रूप में स्थापित किया।

ज्योतिष और खगोलशास्त्र को पृथक-पृथक विषय के रूप में मान्यता आधुनिक काल में आकर मिली।

“खगोलशास्त्र (Astronomy ) को ‘सिद्धान्त ज्योतिष’ और ज्योतिष विद्या को ‘फलित ज्योतिष’ भी कहते हैं। जहाँ आकाशीय पिण्डों ( ग्रह-नक्षत्रों ) का अध्ययन खगोलशास्त्र के अन्तर्गत आता है, वहीं इनके मानव जीवन पर शुभाशुभ प्रभाव का अध्ययन ज्योतिष के अन्तर्गत। अतः आकाशीय पिण्डों के अध्ययन का सैद्धांतिक पक्ष खगोलिकी का विषय है, तो उसका प्रभाव ज्योतिष का।”

ज्योतिष और खगोल विद्या का विकास

खगोलिकी और ज्योतिषी की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। मानव यह शुरू से ही सोचने लगा था कि :—

  • दिन क्यों होता है?
  • रात क्यों होती है?
  • जब वह आसमान की ओर रात्रि में देखता तो तारे दिखते और वह उनका रहस्य जानने को उत्सुक हुआ।
  • मौसम क्यों बदलते हैं?
  • इस तरह के अनेक प्रश्न उसके दिमाग में कौंधते थे।

प्राचीनकाल से ही मानव द्वारा धार्मिक और मिथकीय कार्यों को ज्योतिष व खगोलिकी के अनुसार करने के संकेत मिलते हैं।

वैदिक काल में यज्ञ करने के लिए शुभ समय का विचार किया जाता था। यज्ञों के लिए शुभ नक्षत्र, पक्ष, माह और तिथि का निर्धारण करने के लिए ज्योतिष और खगोलशास्त्र का प्रयोग किया जाता था। छः वेदांगों में से एक ज्योतिष को वेदरूपी शरीर का नेत्र गया है।

ज्योतिष पर लिखी गयी प्रथम कृति लगथमुनि की ‘वेदांग ज्योतिष’ है। ज्योतिष से सम्बंधित अन्य ग्रंथ हैं — गार्गी संहिता,  बृहत्संहिता, नारद संहिता आदि।

गुप्तकाल से पूर्व भारतीय ज्योतिष की कम जानकारी मिलती है। सम्भवतः पूर्व-गुप्तकालीन ज्योतिष पर मेसोपोटामिया का प्रभाव था। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ज्योतिष पर ‘यूनानी प्रभाव’ दिखने लगता है। भारतीयों ने यूनानी ज्योतिष से प्रेरणा ली :—

  • भारतीयों ने यूनानियों से कैलेंडर ( पंचांग ) सीखा।
  • सप्ताह के सात दिनों का बँटवारा और विभिन्न ग्रहों के नाम यूनानियों से लिए।
  • विद्वान ‘टार्न’ के अनुसार काल-गणना, सम्वत् प्रयोग, सात दिनों का सप्ताह आदि भारतीयों ने यूनानियों से सीखा।
  • फलित ज्योतिष का ज्ञान भारतीयों को पहले से ही था, परन्तु नक्षत्रों का अवलोकन करके भविष्य बताने की कला यूनानियों से सीखी गयी थी।
  • ज्योतिष के पाँच सिद्धान्तों में से दो ( पौलिश, रोमक ) का उदय यूनानी सम्पर्क से बताया गया है।
  • यूनानी भाषा के कुछ शब्द भी भारतीय ज्योतिष में प्रचलित हुए; यथा – द्रक्कन, लिप्त, हारिज, केन्द्र आदि।
  • ‘गार्गी संहिता’ स्पष्ट रूप से कहती है कि, ‘ज्योतिष के क्षेत्र में भारत यूनान का ऋणी है।’ इसमें कहा गया है कि, ‘यद्यपि यवन बर्बर हैं किन्तु ज्योतिष के मूल निर्माता होने के कारण वे वंदनीय हैं।’
  • ‘बृहत्संहिता’  ( वाराहमिहिर ) कहती है कि —

”म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम्।

ऋषिदत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैववद् द्विजैः॥”

( अर्थात् यद्यपि यवन म्लेच्छ हैं, परन्तु ज्योतिष के जन्मदाता होने के कारण वे प्रचीन ऋषियों के समान पूज्य हैं। )

भारतीय ग्रंथों में ज्योतिष के पाँच प्रकारों का उल्लेख मिलता है — पैतामह, वाशिष्ठ, सूर्य, पौलिश और रोमक। इनमें से अन्तिम दो ( पौलिश और रोमक ) की उत्पत्ति यूनान से मानी गयी है। रोमक सिद्धान्त के सम्बन्ध में वाराहमिहिर ने जिन नक्षत्रों का उल्लेख किया है वे यूनानी प्रतीत होते हैं। पौलिश सिद्धान्त सिकन्दरिया के प्राचीन ज्योतिषी ‘पाल’ के सिद्धान्तों पर आधृत प्रतीत होती है। ज्योतिष के माध्यम से यूनानी भाषा के अनेक शब्द संस्कृत और बाद की भारतीय भाषाओं में प्रचलित हुए।

गुप्तकाल में ज्योतिष और खगोल विद्या पर्याप्त लोकप्रिय हो चुकी थी। कालिदास जैसे कवियों ने इसका अनेकशः उल्लेख किया है। इस काल के प्रसिद्ध ज्योतिषी आर्यभट्ट और वाराहमिहिर थे।

आर्यभट्ट

आर्यभट्ट  ( जन्म ४७६ ई॰, पाटलिपुत्र ) ने २३ वर्ष की अवस्था में ‘आर्यभट्टीयम्’ लिखी।

ज्योतिष के प्रगति की निश्चित और प्रत्यक्ष जानकारी हमें इसी कृति ( आर्यभट्टीयम् ) से मिलती है।

‘आर्यभट्ट-प्रथम’ ज्योतिष पर लेखनी उठाने वाले प्राचीनतम् ज्ञात ऐतिहासिक व्यक्ति थे। निःसंदेह वे भारत द्वारा उत्पन्न महानतम् वैज्ञानिकों में से हैं।’ ( ए॰ एस॰ अल्तेकर )।

आर्यभट्ट लिखते हैं :—

‘मैने खगोलीय सिद्धान्तों के सच्चे-छूठे समुद्र में गहरी डुबकी लगायी और अपनी बुद्धि रूपी नौका के माध्यम से सच्चे ज्ञान की मूल्यवान निमज्जित मणि का उद्धार किया।’

( आर्यभट्टीयम् )

आर्यभट्ट का ज्योतिष और खगोल विद्या में योगदान

  • आर्यभट्ट ने बताया कि चन्द्र या सूर्य ग्रहण चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने या सूर्य और पृथ्वी के मध्य चन्द्रमा के आ जाने से होता है न कि राहु या केतु के कारण।
  • उन्होंने बताया कि पृथ्वी गोल है और स्वयं के अक्ष के चारों ओर परिभ्रमण करती है।
  • सूर्य स्थिर है और पृथ्वी गतिशील।
  • चन्द्रमा और अन्य ग्रह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं और उनमें स्वयं का कोई प्रकाश नहीं होता है।
  • जीवा के फलनों ( sine functions ) का पता लगाया और खगोल के लिए प्रयोग किया।
  • दो क्रमागत दिनों की अवधि में वृद्धि या कमी को मापने का सूत्र दिया।
  • ग्रहीय गतियों की व्याख्या के लिये अधिचक्रीय सिद्धान्त ( Epicyclic theory ) दी।
  • चन्द्रमा की कक्षा में पृथ्वी की छाया के कोणीय व्यास को शुद्ध रूप में प्रकट किया।
  • यह बताया कि ग्रहण में चन्द्रमा का कौन सा भाग आच्छादित होता है और ग्रहण की अवधि में अर्धांश एवं पूर्ण ग्रास का ज्ञान कैसे किया जा सकता है।
  • वर्ष की लम्बाई ३६५·२५८६८०५ बताई जोकि वर्तमान गणित के अनुसार ३६५·२४२२ के निकट है।
  • सूर्य के पराकाष्ठा का देशान्तर ( Longitude of Sun’s Apogee ) और चन्द्रमा के पातों ( Moon’s nodes ) के नक्षत्र काल ( Sidereal period ) विषयक उनके विचार सही हैं।
  • कॉपरनिकस ( १४७३ – १५४३ ई० ) से पूर्व ही आर्यभट्ट ने ब्रह्माण्ड के ‘सूर्य केन्द्रित सिद्धान्त’ दिया था।
  • आर्यभट्ट ने ज्योतिष को गणित से पृथक शास्त्रों रूप में स्थापित किया।
  • आर्यभट्ट के प्रमुख शिष्य थे — निःशंक, पाण्डुरंगस्वामी और लाटदेव।
  • लाटदेव ने पौलिश और रोमक सिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत की। उन्हें ( लाटदेव ) ‘सर्व सिद्धान्त गुरू’ भी कहा जाता है।

वाराहमिहिर

वाराहमिहिर (६ठीं शताब्दी ) को ‘फलित ज्योतिष’ का प्रवर्तक माना जाता है। ये उज्जयिनी के निवासी थे। इनके पिता का नाम आदित्यदास था।

इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ पंचसिद्धान्तिका, बृहत्जातक, बृहत्संहिता और लघुजातक हैं।

पंचसिद्धान्तिका में तृतीय-चतुर्थ शताब्दी में प्रचलित ज्योतिष के पाँचों सिद्धान्तों — पैतामह, वाशिष्ठ, सूर्य, पौलिश और रोमक — का उल्लेख मिलता है।

वाराहमिहिर ने विज्ञान में कोई मौलिक योगदान तो नहीं दिया परन्तु ‘पंचसिद्धान्तिका’ लिखकर ज्योतिष इतिहास में योगदान दिया।

बृहत्जातक और बृहत्संहिता में भौतिक भूगोल, नक्षत्र विद्या, वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान आदि के विषय में लिखा है।

पौधों में होने वाले विभिन्न रोगों और उनके निदान के क्षेत्र में भी उन्होंने काम किया। विभिन्न औषधि के रूप में पौधों के गुणकारी उपयोग सम्बन्धी उनके शोध आयुर्वेद की अमूल्य निधि हैं।

बृहत्संहिता  ज्योतिष, भौतिक भूगोल, वनस्पति और प्राकृतिक इतिहास का विश्वकोश ही है।

ब्रह्मगुप्त

ब्रह्मगुप्त की कृति ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त’ और ‘खण्ड खाद्यक’ है।

ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त में कुल २४ में से २२ अध्याय ज्योतिष से सम्बंधित हैं।

इन्हें इस बात का श्रेय है कि अरबों में ज्योतिष का प्रचार सर्वप्रथम इन्होंने ही किया।

इनके ग्रंथों का अनुवाद अलबेरुनी ने किया।

सचाऊ के अनुसार ‘प्राच्य सुधार के इतिहास में ब्रह्मगुप्त का स्थान अत्यन्त ऊँचा है।

टॉलमी के पूर्व उन्होंने ही अरब के निवासियों को ज्योतिष का ज्ञान सिखाया था।’

निष्कर्ष

भारतीय खगोलशास्त्री अच्छे गणितज्ञ भी हुआ करते थे और इस विषय में उनका ज्ञान यूनानियों से अपेक्षाकृत अच्छा था। गणित के माध्यम से ही भारतीय खगोलविद्या यूरोप पहुँची थी। ७वीं शताब्दी के सीरियाई ज्योतिषविद् सिविरस सिवोख्त ( Severous Sebokht ) को इसकी महानता का ज्ञान था। बगदाद के खलीफा ने अपने यहाँ भारतीय खगोलविदों को नियुक्त किया हुआ था। मध्यकालीन यूरोपीय खगोलशास्त्र में प्रचलित शब्द ‘आक्स’ ( ग्रहपथ का सर्वोच्च स्थान ) निश्चित रूप से संस्कृत के ‘उच्च’ से लिया गया है।

 

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