जैन धर्म का प्रचार
जैन संघ
जैन संघ महावीर स्वामी के पहले से अस्तित्व में था। महावीर स्वामी ने पावा में ११ ब्राह्मणों को दीक्षित किया जो उनके पहले अनुयायी बने। महावीर ने अपने सारे अनुयायियों को ११ गणों ( समूहों ) में विभक्त किया और प्रत्येक समूह का गणधर ( प्रमुख ) इन्हीं ११ ब्राह्मणों को नियुक्त कर दिया। सभी गणधर अपने-२ समूहों के साथ जैन मत के प्रचार में संलग्न हो गये।
इन गणधरों के नाम जैन साहित्य ( कल्पसूत्र, आवश्यक निर्मुक्ति और आवश्यक चूर्णि ) में मिलता है जो निम्न हैं :-
- इन्द्रभूति
- अग्निभूति
- वायुभूति
- व्यक्त
- सुधर्मन
- मंडित
- मोरियपुत्र
- अकंपित
- अचलभ्राता
- मेतार्य
- प्रभाष
जैन संघ के सदस्य चार वर्गों में विभक्त थे :—
- भिक्षु
- भिक्षुणी
- श्रावक
- श्राविका
इसमें से भिक्षु और भिक्षुणी तो संन्यासी होते थे जबकि श्रावक और श्राविका गृहस्थ थे।
इन ११ गणधरों में से इन्द्रभूति और सुधर्मन को छोड़ सभी की मृत्यु महावीर स्वामी के जीवनकाल में ही हो गयी थी।
महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद सुधर्मन जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष बना। सुधर्मन के बाद जम्बू ४४ वर्षों तक संध का अध्यक्ष रहा। अंतिम नन्दवंशी शासक के समय सम्भूति विजय और भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे।
सम्भूति विजय की मृत्यु चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण के समय हुई। इनके शिष्य स्थूलभद्र थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मगध में १२ वर्षीय अकाल पड़ा जिसके फलस्वरूप भद्रबाहु के साथ चन्द्रगुप्त मौर्य वर्तमान कर्नाटक के श्रवणबेलगोला चले गये और वहीं पर संलेखना विधि से अपने प्राण त्याग दिए।
जैन धर्म के विकास में शासकों का योगदान
महावीर स्वामी के जीवनकाल में ही तत्कालीन शासकों का समर्थन मिला था जिनमें प्रमुख हैं :- चेटक, बिम्बिसार, अजातशत्रु, दधिवाहन, चण्ड प्रद्योत आदि।
- बिम्बिसार और उसकी १० रानियों की जैन धर्म में आस्था थी।
- अजातशत्रु को भी जैन मतावलंबी बताया गया है।
- कौशाम्बी नरेश की रानी मृगावती को जैन बताया गया है।
- सिन्धु-सौवीर का शासक उदयन जैन था।
- अवन्ति नरेश चण्ड प्रद्योत और उसकी ८ रानियों की महावीर के प्रति भक्तिभाव था।
- वज्जि संघ और मल्ल गणराज्य में महावीर का बड़ा सम्मान था।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकतर को बौद्ध साहित्य भी बौद्धानुयायी बताते हैं।
महावीर के देहावसान के बाद भी राजाओं का संरक्षण मिलता रहा।
- नन्दवंशी शासक जैन मतावलंबी थे।
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अंतिम समय में जैन धर्म अपना लिया था।
- अशोक का पौत्र सम्प्रति ने जैनाचार्य सुहास्ति से शिक्षा ली थी।
- कलिंग नरेश खारवेल का हाथी गुम्फा अभिलेख जैन धर्म से सम्बंधित प्राचीनतम् अभिलेखीय साक्ष्य है। इसी अभिलेख में उसके मगध आक्रमण और साथ में जिन् की प्रतिमा वापस लाने का उल्लेख है। इस लेख में दावा किया गया है कि यह जिन् प्रतिमा नन्दवंशी शासक महापद्मनन्द द्वारा कलिंग पर आक्रमण करके ले जायी गयी थी। उदयगिरि पहाड़ी पर खारवेल ने जैन भिक्षुओं के लिए गुफाओं का निर्माण कराया गया था।
- राष्ट्रकूट शासक इन्द्र चतुर्थ ने जैन विधि कायाक्लेश द्वारा देहत्याग किया था। अमोघवर्ष जैन था और उसकी राजसभा में जैन विद्वान जिनसेन और गुणभद्र रहते थे।
- गंगवंशी नरेश राजमल चतुर्थ के मंत्री चामुण्डराय ने श्रवणबेलगोला में बाहुबली की मूर्ति बनवायी थी।
- गुजरा के चालुक्य वंशी शासकों जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल नें जैन धर्म को प्रश्रय दिया था। इनके राजसभा में जैन विद्वान हेमचंद्र रहते थे।
- चन्देल शासक धँस के समय खजुराहो में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ।
- गुजरात के सोलंकी शासक भीमसेन प्रथम के समय उनके मंत्री विमलशाह ने दिलवाड़ा के प्रसिद्ध जैन मंदिरों का निर्माण कराया।
सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति के समय जैन धर्म का केन्द्र मगध से पश्चिम की ओर उज्जैन स्थानांतरित हो गया। जैनियों का दूसरा मुख्य केन्द्र मथुरा कुषाण काल में बना।