जाति-प्रथा का उद्भव और विकास

विषयसूची

भूमिका

जाति-प्रथा भारतीय समाज की ऐसी विशेषता है जो अन्यत्र इस प्रकार नहीं पायी जाती है। मजे की बात तो यह है यह हिन्दू समाज की विशेषता तो है ही साथ ही इससे मुस्लिम और ईसाई समाज भी अप्रभावित नहीं रहा है।

जिस कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की आधारशिला वैदिक काल में पड़ी थी कालान्तर में उसकी परिणति जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था में हुई। दूसरे शब्दों में जहाँ वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी वहीं जाति व्यवस्था विशुद्ध रूप से जन्म पर आधारित है।

जाति शब्द का अर्थ

जाति शब्द ‘जन्’ से व्यूत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – जन्म लेना।

जाति को अँग्रेजी में ‘caste’ अनूदित किया गया है। Caste शब्द स्पैनिश और पुर्तगाली शब्द ‘casta’ से आया है, जिसका अर्थ है – lineage, race, breed; इसका स्त्रीलिंग शब्द है – ‘Casto’, जिसका अर्थ है – pure, unmixed। Caste शब्द का मूलतः लैटिन शब्द ‘castus’ से आया है जिसका अर्थ है – ‘chaste’।

जाति की परिभाषा

जाति का अर्थ वंशानुक्रम ( heredity ) पर आधारित एक विशेष सामाजिक समूह से लगाया जाता है। और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो जाति-प्रथा जन्मजात भेदों के आधार पर एक व्यवस्था का नाम है।

जाति-प्रथा के तहत ऊँच-नीच सम्बन्धित संस्तरण का व्यवसाय, धन, शिक्षा या धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इसका सीधा सम्बन्ध जन्म से है। यह वर्ण और वर्ग दोनों से भिन्न है।

जब कोई वर्ग पूर्णरूप से वंशानुक्रम पर आधारित हो उसे जाति कहते हैं।

Cooley.

जाति एक बंद वर्ग है।

मजूमदार और मदान ।

जाति परिवारों के समूहों का एक संकलन होता है एवं इसका एक सर्वमान्य नाम होता है। ये लोग एक ही काल्पनिक पूर्वज अथवा देवता से वंश-परंपरा या उत्पत्ति का दावा करते हैं। एक ही प्रकार के परम्परागत व्यवसाय को अपनाने पर बल देते हैं। एक ही सजातीय समुदाय के रूप में उनके द्वारा मान्य होते हैं जो अपना मत व्यक्त करने योग्य होते हैं।

Herbert Risely.

अर्थात् ‘जाति-प्रथा जन्माधारित सामाजिक संस्तरण ( पदसोपान ) एवं खण्ड-विभाजन की वह गतिशील व्यवस्था है जो खान-पान, विवाह, व्यवसाय इत्यादि के सम्बन्ध में अनेक या कुछ प्रतिबंधों को अपने जाति समुदाय के सदस्यों पर लागू करती है या इनसे सम्बंधित नियमों को विनियमित करती है।’

जाति-प्रथा का उद्भव

जाति प्रथा के उद्भव के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है और उन्होंने कई प्रकार के मत दिये हैं –

  • दैवी या परम्परागत सिद्धान्त।
  • प्रजाति का सिद्धान्त – रिजले, धूर्वे।
  • व्यावसायिक उत्पत्ति का सिद्धान्त – नेसफील्ड। यह सिद्धान्त कुछ सीमा तक तर्कसंगत और ग्राह्य है।
    • आर्थिक या उद्विकासीय सिद्धान्त – इबेटसन।
  • ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त – डुंबायन, धूर्वे, इबेटसन।
  • धार्मिक उत्पत्ति का सिद्धान्त – होकार्ट, सेनार्ट।
  • प्रागैतिहासिक उत्पत्ति का सिद्धान्त – हट्टन।
  • भौगोलिक उत्पत्ति का सिद्धान्त – गिल्बर्ट।

दैवी सिद्धान्त

दैवी या परम्परागत सिद्धान्त के अनुसार वर्ण की उत्पत्ति परम् पुरुष या विराट पुरुष या ब्रह्मा से हुई। कालान्तर में कठोर होकर यही वर्ण-व्यवस्था जाति-प्रथा में रूपान्तरित हो गयी। इसका उल्लेख हमें ऋग्वेद से लेकर धर्मशास्त्रों और पुराणों आदि में मिलता है।

ब्राह्मणोंऽस्य मुखामासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरुतदस्य यद्वैश्य पदभ्यां शूद्रो अजायतं॥

ऋग्वेद।

 

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थ मुखबाहुरुपादतः।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यों शूद्रं च निरवर्त्तयत्॥

मनुस्मृति।

 

  • आलोचना
    • वर्तमान समय में मनुष्य के ऐसी अलौकिक उत्पत्ति की कल्पना निराधार है।
    • प्रतिलोम विवाह से नयी जातियों, उपजातियों के उद्भव को पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके अलावा अन्य कारक भी उत्तरदायी रहे हैं।

प्रजाति का सिद्धान्त

जाति के उद्भव का ‘प्रजातीय-सिद्धान्त’ का प्रतिपादन सबसे पहले ‘हरबर्ट होप रिजले’ ने अपनी कृति ‘The People of India’ में किया है। उनके अनुसार जाति-प्रथा की उत्पत्ति प्रजातीय विभेदों ( racial differences ) के कारण हुई है। इस सिद्धान्त के समर्थकों में धूर्वे, डॉ० मजूमदार, एन॰के॰दत्त, एच॰राव आदि विद्वान शामिल हैं।

प्रजाति का अर्थ प्राणि विज्ञान में मनुष्यों के ऐसे समूह से है जिनमें शारीरिक लक्षणों के आधार पर समानता और विभेद हो।

इन विद्वानों में रिजले, धूर्वे और मजूमदार के प्रजातीय सिद्धान्त पर दृष्टिपात करना प्रासंगिक है।

रिजले ( Risley ) महोदय के प्रजातीय सिद्धांत का मूल आधार है :

  • प्रजातीय वैभिन्य
  • अनुलोम विवाह

रिजले महोदय अपने विचार पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जब इण्डो-आर्यन पश्चिमोत्तर ( फारस ) से भारत में आये तब वे चार भागों में बँटे थे। इस विभाजन को उन्होंने भारतीय समाज पर भी लागू किया।

इसके अलावा विजेता आर्यों की विजित लोगों से सांस्कृतिक और प्रभातीय भिन्नता थी जिसके कारण वे पूर्णरूपेण घुलमिल नहीं पाये अर्थात् विजेता और विजितों में पार्थक्य बना रहा।

विजेता आर्यों में स्त्रियों का अभाव था इसलिए उन्होंने स्थानीय स्त्रियों वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, परन्तु अपनी लड़कियों विवाह विजितों ( स्थानीय समुदाय ) के साथ नहीं किया। दूसरे शब्दों में क्योंकि आर्य आक्रमणकारी थे। आक्रमणकारियों में पुरुषों की प्रधानता होती है। इसलिए समय की आवश्यकता के अनुसार उन्होंने अनुलोम विवाह तो किये परन्तु प्रतिलोम विवाह को निषिद्ध बनाये रखा।

आगे रिजले महोदय कहते हैं कि अनुलोम विवाह से विभिन्न प्रजातीय सम्मिश्रण तैयार हुआ और यहीं से जातियों का उद्भव हुआ।

धूरिये ( Ghurye ) के अनुसार जाति-प्रथा का उद्भव गंगा के मैदान में हुआ, क्योंकि आर्य सभ्यता का केन्द्र यही था। इनका कहना है कि आर्य लोग तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व ( ≈ २५०० ई० पू० ) पश्चिमोत्तर से भारतीय उप-महाद्वीप में आये। वे विजेता थे और यहाँ के लोग विजित। विजेता का गर्व और पवित्रता की भावना से वशीभूत हो उन्होंने आदिवासियों / स्थानीय लोगों को स्वयं से पृथक रखा।

धूरिये महोदय आगे कहते हैं कि जब आर्य यहाँ आये तो उनमें कम-से-कम स्पष्ट रूप से तीन वर्ग थे, जिनमें विवाह नहीं होते थे, यद्यपि यह विवाह निषिद्ध भी नहीं था।

आगे धूरिये महोदय कहते हैं कि आर्यों ने यहाँ के निवासियों को धार्मिक क्रियाकलापों से अलग रखा साथ ही वैवाहिक सम्बन्धों पर कठोर प्रतिबंध लगा दिये।

अतः डॉ० धूरिये के अनुसार जाति-प्रथा आर्यों के उन प्रयत्नों का प्रतिफल है जो उन्होंने भारत मूल निवासियों को स्वयं के धार्मिक व सामाजिक व्यवस्था से दूर रखने के लिए किये थे।

डॉ० धूरिये अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि अंतर्विवाह का उद्भव सर्वप्रथम गंगा के हुई एवं यहीं से अंतर्विवाह की धारणा और जाति-प्रथा देश के अन्यान्य भागों में प्रसारित हुई।

शारीरिक या रक्त की शुद्धता और सांस्कृतिक दृढ़ता को बनाये रखने के लिए ब्राह्मणों द्वारा किये गये प्रयत्नों से ही विभिन्न वर्ग परस्पर पृथक रहे और जाति-प्रथा का विकास हुआ।

अतः जाति-प्रथा को ब्रह्मणों ने जन्म दिया। डॉ० धूरिये के शब्दों में ‘जाति प्रथा इण्डो-आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का बच्चा है।’

मजूमदार का सिद्धान्त – काडरिंगटन महोदय का मत है कि जाति-प्रथा की उत्पत्ति के लिए संस्कृति के शब्दों का सहारा लेना चाहिए। काडरिंगटन महोदय के इस विचार से मजूमदार सहमत होते हुए इसी आधार जातियों के उद्भव की व्याख्या करते हैं।

वर्ण शब्द संस्कृत भाषा के ‘वृ’ धातु से व्युत्पन्न हुआ है। इसके दो अर्थ मिलते हैं —

  • वरण करना या चुनना। अर्थात् इसका तात्पर्य है वृत्ति या व्यवसाय-चयन।
  • रंग। ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग सबसे इसी अर्थ में मिलता है।

आर्य लोग श्वेतवर्णीय थे जबकि यहाँ के लोगों को जिन्हें दास-दस्यु कहा गया है कृष्णवर्ण का बताया गया है। इनमें प्रजातीय सम्मिश्रण हुआ। मजूमदार इस सम्मिश्रण के निम्न कारण बताते हैं —

  • आर्य आक्रांता थे अतः स्त्रियों की कमी थी।
  • आर्य घुमंतू जीवन जीते थे, जबकि यहाँ के स्थानीय लोग स्थायी। स्थानीय लोगों के स्थायित्व ने आर्यों को आकर्षित किया।
  • विकसित द्रविड़ संस्कृति जिसमें मातृसत्तात्मक समाज, देवियों की पूजा, शिक्षा इत्यादि से आर्य प्रभावित हुए।

इन कारणों से प्रजातीय सम्मिश्रण हुआ।

दूसरी ओर, विभिन्न प्रजातियों के मध्य संघर्ष और सहकार समानान्तर रूप से चलता रहा। जिससे जहाँ एक ओर विभिन्न सामाजिक समूह पुष्ट हुए तो दूसरी ओर अंतर्विवाही समूह भी अस्तित्व में आते गये। साथ ही प्रजातीय शुद्धता और सांस्कृतिक एकता के प्रयास भी चलते रहे।

इस उठापटक में ऊपर के तीन वर्णों ने महत्त्वपूर्ण व्यवसायों पर अधिकार दृढ़ कर लिये और तथाकथित निकृष्ट व्यवसायों को निम्न लोगों के लिए छोड़ दिया गया। व्यावसायिक नियम बनाकर उन्हें बदलने की स्वतन्त्रता समाप्त कर दी गयी। इसे समाज पर लादने के लिए ब्राह्मणों ने अपने प्रभाव का प्रयोग किया।

हालाँकि ऊपर के तीन वर्णों ने अपना स्थान ऊँचा रखा, फिरभी यह सुचारु रूप से नहीं चलता था। समाज में अपना सम्मानित स्थान पाने के लिए सभी समूह संघर्षरत रहते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक सोपानात्मक / संस्तरणात्मक संगठन का विकास हुआ।

नेसफील्ड के मतानुसार जाति की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि कौन सा व्यवसाय ऊँचा या नीचा अथवा अच्छा या बुरा है। जबकि मजूमदार के अनुसार जाति की समाज में स्थिति इस बात पर निर्भर थी कि उस जाति-विशेष में कितनी रक्त शुद्धता है और वे अन्य जाति समूहों से कितने पृथक रह सके हैं।

ब्राह्मणों और जनजातियों में सबसे अधिक प्रजातीय शुद्धता पायी जाती है। इन दोनों समूहों के बीच अगणित सामाजिक समुदाय हैं। इनमें रक्त-शुद्धता एवं सांस्कृतिक सम्बंधों में वैभिन्य पाया जाता है। इसी प्रणाली को गलती से ‘हिन्दू जाति-प्रथा’ कहते हैं।

उपर्युक्त विवेचन का लब्बोलुबाब यह है कि ये विद्वान आर्य-आक्रमण को अपनी व्याख्या का आधार बनाते हैं। उनके अनुसार जब आर्य यहाँ आये तो उन्होंने विजित जातियों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये परन्तु पराजित कन्याओं से उत्पन्न संतानों को आर्य समाज में स्वीकार्यता नहीं मिली। परिणाम स्वरूप कई जातियाँ उत्पन्न होती चली गयीं। पहले यह पंजाब, फिर गंगा के मैदान और फिर पूरे भारत में प्रचलित होती चली गयी।

  • आलोचना
    • हट्टन की आलोचना
      • प्रजातीय सिद्धान्त खान-पान सम्बन्धी प्रतिबंधों पर प्रकाश नहीं डालते हैं। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में नीग्रो लोगों के लिए अलग होटल, जलपान गृह इत्यादि स्थापित किये गये हैं। फिरभी वहाँ पर छुआ-छूत नहीं पायी जाती है जैसा कि भारत में।
      • यदि प्रजातीय और सांस्कृतिक वैभिन्य और सम्पर्क ही जाति-प्रथा के उद्भव के लिए उत्तरदायी हैं तो यह मुसलमानों और ईसाइयों में क्यों नहीं पायी जाती है?
      • प्रजातीय भेद और पक्षपात के आधार पर अनुलोम विवाह की बात तो समझ में आती है, परन्तु इससे जाति-प्रथा की उत्पत्ति कैसे हुई यह प्रजातीय सिद्धान्त के स्पष्ट नहीं होती है। क्योंकि प्रजातीय भेदभाव व पक्षपात संसार के अन्य समाजों में भी मिलते हैं परन्तु वहाँ पर जातियों का विकास क्यों नहीं हो सका? इसकी व्याख्या करने में यह सिद्धान्त असफल है।
      • वर्ण व्यवस्था को समाज पर लादने के लिए ब्राह्मणों का उपयोग किया गया, ऐसा कहना भी ग़लत है, क्योंकि हट्टन के अनुसार जाति व्यवस्था की अनेक विशेषताएँ ऐसे भागों में भी फैली जहाँ ब्राह्मणों का प्रभाव नहीं है।
    • प्रजातीय विभेद मात्र भारत तक सीमित नहीं है। यह विश्व के अन्य भागों ( जैसे – अफ्रीका, अमेरिका आदि ) में में भी पायी जाती है। वहाँ भी विजेता और विजित लोग रहे हैं। तो विश्व के अन्य भागों में भारत जैसी जाति प्रथा क्यों नहीं पायी जाती है?
    • भारत में आने वाली ईसाई, पारसी, मुस्लिम आदि में कठोर जाति व्यवस्था क्यों नहीं पायी जाती है?
    • इस तरह मात्र प्रजातीय आधार पर जाति प्रथा के उद्भव की व्याख्या करना तर्कसंगत नहीं है।

व्यावसायिक उत्पत्ति का सिद्धान्त

जाति-प्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ‘व्यावसायिक उत्पत्ति’ का सिद्धान्त ‘नेसफील्ड’ ने अपनी कृति ‘Brief View of the Caste System’ में दिया। नेसफील्ड के अनुसार जाति-प्रथा की उत्पत्ति के लिये व्यवसायगत कारण ही प्रमुख थे।

‘Funtion and funtion alone, I think, was the foundation upon which the whole caste system of India was built up. Community of occupation is the sole basis for caste system. Community of occupation was the sole causative principle of the caste system.’

( Nesfield )

समान व्यवसाय के व्यक्ति संगठित होकर जाति में परिणत हो गये। व्यावसायिक ऊँच और नीच की भावना का उद्भव हुआ। इसी ऊँच-नीच भावना के आधार पर समाज में जातिगत भेद-भाव का जन्म हुआ।

जर्मन विद्वान ‘दहलमन’ ने भी इस विचार का समर्थन किया है। इनके अनुसार प्रारम्भ में जो वर्ग बने वे व्यावसायिक आधार पर श्रेणियों में परिणत हो गये। बाद में यही श्रेणियाँ कठोर हो जाति में बदल गये। इनकी अपनी-अपनी परम्परायें बन गयीं। अन्तर्जातीय विवाह और खान-पान पर प्रतिबंध लगा दिये गये।

  • आलोचना 
    • व्यावसायिक उत्पत्ति के सिद्धान्त को कुछ सीमा तक तर्कसंगत माना जा सकता है क्योंकि प्राचीन भारतीय समाज में प्रायः जातियाँ व्यावसायिक आधार पर ही संगठित हुई थीं।
    • फिरभी एकमात्र व्यवसाय के आधार पर ही जाति प्रथा का उद्भव मानना समीचीन नहीं होगा। हमें ज्ञात है कि विश्व के अन्य भागों में ( यथा – मिश्र, यूरोप आदि ) भी व्यावसायिक आधारों पर वर्गों पर गठन तो हुआ परन्तु वे वर्ग जाति में नहीं परिणत हुए।
    • अतः इस विचार से जाति प्रथा के उत्पत्ति की पूर्णतया व्याख्या नहीं हो पाती है।

आर्थिक अथवा उद्विकासीय सिद्धान्त

यह सिद्धान्त नेसफील्ड के व्यावसायिक सिद्धान्त का ही परिवर्तित रूप कहा जा सकता है। इसमें किस प्रकार व्यावसायिक समूहों से जातियों का विकास हुआ इसकी मीमांसा की गयी है इसलिए इसको नेसफील्ड के विचार का परिवर्धन और परिष्कार करने का प्रयास झलकता है।

इस सिद्धान्त के प्रणेता इबेट्सन महोदय हैं।

इस सिद्धान्त के अनुसार जातियों की उत्पत्ति चार वर्गों के आधार पर नहीं वरन् आर्थिक संघों से हुई। वर्ग से संघ और संघ से जाति का विकास हुआ है।

प्रारम्भ में मानव खानाबदोश था और रक्त-सम्बन्ध के आधार पर अपने कबीले से जुड़ा रहता था। उद्विकास के इस स्तर पर स्थायित्व नहीं था अतः जाति का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। भोजन के लिए जब मानव ने कृषि करना शुरू करना किया तो उसके जीवन में स्थायित्व आया।

इस आर्थिक विकासक्रम में अगले चरण में उद्योग और व्यापार का चरण चरण आया। आर्थिक जीवन जटिल होने लगा। जिससे समाज में श्रम-विभाजन की आवश्यकता आन पड़ी। अतः शासक वर्ग ने आर्थिक क्रियाकलापों को व्यवस्थित करने के लिए व्यवसायगत विभिन्न विधि-निषेधों का निर्धारण किया। फलतः विभिन्न सामाजिक वर्गों का समूहीकरण या उद्भव हुआ।

शनैः शनैः ये सामाजिक समूह जो कि समान प्रकार के आर्थिक क्रियाकलापों में संलग्न थे, पारस्परिक सामुदायिक भावना से आबद्ध होने लगे। वे पारस्परिक सहायता, सहयोग, स्वहित और रक्षा की भावना से सम्बद्ध होते गये। धीरे-धीरे वे खान-पान और वैवाहिक सम्बन्धों सम्बन्धी विधि-निषेधों का निर्धारण होने से एवं साथ ही अपने समूह की प्रतिष्ठा को बढ़ाने, दूसरे समूहों से संघर्ष ने एवं दूसरे समूह से पृथकत्व की भावना का दृढ़ीकरण होता गया।

कालान्तर में इसी को धार्मिक और सामाजिक मान्यता दे दी गयी।

पदसोपान ( hierarchy ) में सर्वोच्च प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष में पुरोहितों के संघ या श्रेणी को सफलता मिली। जिससे कि उन्होंने इस पदसोपान में स्वयं को सर्वोच्च स्थान पर रखा।

इस व्यवस्था को स्थायित्व देने के लिए प्रत्येक संघ या समूह ने अपने व्यवसाय को दृढ़ता से पालन किया और अंतर्विवाह करने लगे।

इसको शनैः शनैः सभी संघों में अपनाया जाने लगा जिससे दिन-प्रतिदिन अंतर्विवाही संघों की संख्या बढ़ती गयी। इस तरह एक पदसोपानात्नक / संस्तरणात्मक संगठनों ( hierarchical organisations ) का उद्भव होता गया।

यही जाति व्यवस्था का प्रारम्भ था।

  • आलोचना
    • हट्टन महोदय इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर करते हैं कि संसार के अन्यान्य भागों में भी व्यावसायिक संघ समय के साथ अस्तित्व में आये परन्तु वहाँ तो उनसे जाति जैसी प्रथा का प्रादुर्भाव नहीं हुआ। अतः जाति प्रथा के उद्भव में व्यवसाय को एक कारक तो माना जा सकता है परन्तु एकमात्र कारण नहीं।
    • डॉ० मजूमदार के अनुसार इस सिद्धान्त में प्रजातीय भेदों की उपेक्षा गयी है। क्योंकि यह अत्यंत ही जटिल संरचनात्मक पदसोपानात्मक सामाजिक संस्था है; इसलिए इसके जातियों के उद्भव के पीछे केवल पुरोहितों का हाथ है, यह कहना भी सही नहीं है।

ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त

जाति-प्रथा के उद्भव के सम्बन्ध में ‘ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त’ के समर्थक डुंबायसन, जी॰एच॰धूर्वे, इबेट्सन आदि हैं। इन विद्वानों के अनुसार जाति-प्रथा के पीछे ब्राह्मणों की सोची-समझी चाल मानते हैं। ब्राह्मणों ने समाज में अपनी श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए ये चाल चली। इन लोगों ने विभिन्न वर्गों के व्यवसाय निश्चित करके उसको शास्त्रीय मान्यता प्रदान कर दिया।

‘Caste in India is the Brahmanic child of Indo-Aryans, called in the land of the Ganga and the Yamuna and transferred to other parts of the country.’

( जी॰एच॰धूर्वे – कास्ट, क्लास एण्ड ऑकुपेशन )

इन विद्वानों ने कहा कि ब्राह्मणों ने बड़ी चालाकी से सामाज में अपनी विशिष्ट स्थिति बना ली जिसमें शूद्रों को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया।

  • आलोचना 
    • परन्तु जाति-प्रथा एक प्राचीन व्यवस्था है। इसे एकमात्र ब्राह्मणों की चाल नहीं माना जा सकता है।
    • इसे कई कारकों में से स्वीकार किया जा सकता है परन्तु एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता है।
    • यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जाति व्यवस्था अत्यंत प्रचीन समय से चली आ रही है। तो यह मानना कि ब्राह्मणों की इस चाल को कोई समझ नहीं सका अत्यंत हास्यास्पद तर्क है।
    • हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि इस सामाजिक संस्था को स्थायित्व देने के लिए ब्राह्मणों ने अनेक धार्मिक आडम्बरों और तिकड़मों के माध्यम से पुष्ट करने का प्रयास किया।
    • अर्थात् जाति प्रथा की निरन्तरता जोकि ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर आधृत है को बनाये रखने में ब्राह्मणों का हाथ है।

धार्मिक उत्पत्ति का सिद्धान्त

होकार्ट, सेनार्ट आदि विद्वान् जाति-प्रथा के उद्भव के पीछे ‘धर्म और धार्मिक क्रियाओं’ को प्रमुख कारण मानते हैं। इन विद्वानों के अनुसार जाति-प्रथा देवताओं को बलि चढ़ाने का संगठन मात्र है। प्राचीन समय से ही देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि दी जाती थी। यज्ञ में बलि के लिए विभिन्न सामग्री अर्पित की जाती थी। पहले यह यज्ञादिक विधि-विधान सरल थे परन्तु कालान्तर में ये जटिल होते गये। यहाँ तक की जब यह प्रथा विकृति हुई तो पशुओं व मनुष्यों तक की बलि दी जाने लगी थी।

विभिन्न धार्मिक कर्मकाण्डों के लिए विभिन्न वर्गों की आवश्यकता होने लगी। ब्राह्मण और अन्य उच्चवर्ग के लोग पशुओं की बलि का कार्य स्वयं न करके इसके लिए निम्न वर्ग के लोगों को नियुक्त करते थे। हवन सामग्री ( हविष्य ) एकत्रित करने के एक अलग वर्ग बन गया। इसी तरह अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए भी वर्ग बनते गये और वे संगठित होकर जातियों में परिणत हो गयीं।

उदाहरणार्थ वर्तमान में भी जब कोई धार्मिक या सामाजिक समारोह होता है तो जाति-निश्चित कृत्य लोग करते हुए पाये जाते हैं; जैसे – विवाह में नाई, धोबी ( रजक ), मनिहार, माली, कुम्भकार, लुहार इत्यादि आदि वर्तमान में भी अपनी निश्चित भूमिका का निर्वहन करते हैं। इसके लिए उनको पारिश्रमिक मिलता है। परन्तु ध्यान देने वाली बात यह है कि यह तो सामाजिक विभाजन है। इसमें धर्म का स्थान कहाँ?

  • आलोचना
    • परन्तु जाति-प्रथा एक सामाजिक संगठन है। इसलिए धर्म के आधार पर जाति-प्रथा की उत्पत्ति मानना समीचीन नहीं लगता है।
    • हालाँकि यह कहा जा सकता है कि जाति-प्रथा को बनाये रखने के लिए धर्म का मुलम्मा अवश्य चढ़ाया गया परन्तु उद्भव होने में धार्मिक कर्मकाण्डों को एकमात्र कारक नहीं माना जा सकता है।

सेनार्ट का सिद्धान्त – एक प्रकार से सेनार्ट ( Senart ) का सिद्धान्त होकार्ट के सिद्धान्त का पूरक है। इसके अनुसार ‘भोजन सम्बन्धित विधि निषेधों’ के आधार पर जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई। ये आगे समझाते हुए कहते हैं कि खान-पान सम्बन्धी विभेद या प्रतिबंध पारिवारिक पूजा और कुल-देवता में विभिन्नता के कारण उत्पन्न हुआ। एक वर्ग समूह किसी देवता विशेष को मानकर उसको बलि-विशेष अर्पित करते थे इस प्रकार वे अलग-अलग जाति समूहों में संगठित हो गये।

सेनार्ट ने आगे कहा कि आर्यों के आने के बाद भारत में मिश्रित प्रजातियों के समूह बनते गये। एक ओर आर्यों ने प्रजातीय सुद्धता के साथ-साथ धार्मिक पवित्रता को बनाये रखने का प्रयास किया। इस प्रयास में उन्होंने धर्म का सहारा ले स्वयं की स्थिति को सर्वोच्च बनाये रखने के लिए जाति व्यवस्था का निर्माण किया।

  • आलोचना
    • सेनार्ट के विचारों की आलोचना डालमैन महोदय ने करते हुए कहा कि सेनार्ट ने जाति-प्रथा के उद्भव का सरलीकरण किया है जोकि अवैज्ञानिक है।
    • जाति प्रथा के उद्भव को एकमात्र धार्मिक आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। सबसे प्रमुख बात तो यही है कि यह एक सामाजिक संस्था है। अतः प्रजातीय, व्यावसायिक कारकों की अवहेलना करना नितांत अतार्किक है।
    • सेनार्ट महोदय जाति और गोत्र का अंतर न कर सके। गोत्र एक ही सामान्य आदि पूर्वज की कल्पना जिससे की वे अपनी उत्पत्ति मानते हैं, न कि जाति, जैसा कि सेनार्ट ने कल्पना की है।

प्रागैतिहासिक उत्पत्ति का सिद्धान्त

जाति-प्रथा की उत्पत्ति के लिए ‘प्रागैतिहासिक उत्पत्ति के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन हट्टन ने अपने कृति ‘Caste in India’ में किया है।

हट्टन के मतानुसार वर्तमान में भी भारतवर्ष के दुर्गम क्षेत्रों में अनेक ऐसी आदिम जातियाँ मौजूद हैं जो हिंदू, बौद्ध, जैन, मुस्लिम आदि के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हैं। इन दुर्गम क्षेत्रों में बसे गाँवों की अपनी राजनीतिक व्यवस्था है, परम्परा है, संस्कृति है और इनमें व्यवसाय आधारित सामाजिक विभाजन भी पाया जाता है।

इस बात से स्पष्ट होता है कि आर्यों के आने से पूर्व भी जाति-प्रथा के तत्त्व भारतवर्ष में मौजूद थे। आर्यों ने आकार इसे और स्पष्ट बनाया और अपनी स्थिति इसमें सबसे ऊपर रखी।

अतः यहाँ पर पहले से जाति-प्रथा की प्रारम्भिक अवस्था विद्यमान थी।

दूसरे शब्दों में आर्यों से पूर्व भारतीय आदिम जातियों में कुछ ऐसी परम्पराओं, विश्वास व निषेध के कारण जाति प्रथा का जन्म हुआ। इन प्रथाओं व विश्वासों के आधार पर वे विभिन्न वर्गों में बँटी हुई थीं।

खान-पान और वैवाहिक विधि-निषेधों की व्याख्या के लिए हट्टन ने ‘माना’ का सहारा लिया।

ये आदिम जातियाँ ‘माना’ नामक एक आधिभौतिक शक्ति में विश्वास करती थीं। उन लोगों का विश्वास था कि यह शक्ति प्रत्येक तत्त्व में विद्यमान है और अच्छे-बुरे कर्मों का फल देती है। इस शक्ति के डर से समान स्थान पर रहने वाले लोग अपरिचितों के सम्बन्ध रखने से विरत रहते थे। एक गाँव के लोग दूसरे गाँव से विभिन्न विधि-निषेधों के साथ सम्पर्क स्थापित करते थे। जैसे – वर्तमान में भी असम की नागा जातियों में ऐसी प्रथा विद्यमान है। एक गाँव के पहाड़ी लोग सामान्यतः एक ही वृत्ति या व्यवसाय अपनाते हैं। ‘माना’ में विश्वास के कारण ये आदिम जातियाँ खान-पान व सामाजिक सम्पर्क नियंत्रित होते रहे हैं। क्रमशः ये तत्त्व विकसित होकर जाति व्यवस्था में सहायक हुए और कालान्तर में आर्यों ने इसे सुदृढ़ आधार दे दिया।

हट्टन का आगे कहना है कि आक्रांता आर्यों के सामाजिक व राजनीतिक प्रभाव ने जाति-प्रथा को पनपने में सहायता की। आर्यों में पहले से ही सामाजिक वर्ग थे तो स्थानीय लोगों का माना में विश्वास के कारण अनेक निषेध होने के कारण पहले से ही समूह का विभाजन था। अतः जाति प्रथा का विकास हुआ।

आगे हट्टन यह भी कहते हैं कि भारत के मूल निवासियों में ऊँच-नीच की भावना नहीं थी, यह तो आर्यों के कारण प्रारम्भ हुई।

इस तरह हट्टन अपने विचारों का संक्षेपण निम्न बिन्दुओं में करते हैं —

  • निषेधात्मक जनजातीय मनोभाव
  • व्यवसाय आधृत सामाजिक विभाजन; यथा – नागा जनजातियों में
  • अपरिचित लोगों और वस्तुओं के प्रति कुसंस्कारों से ही भारतीय समाज का ढ़ाँचा बना।

इन्हीं सब कारकों पर भेदापभेद के कठोर होने से जाति-प्रथा का उद्भव हुआ।

  • आलोचना 
    • परन्तु यह मत एकांगी है।
    • विश्व के अन्य भागों ( जैसे अफ्रीका ) में की आदिम जातियों में भी इस तरह के विधि-निषेधों का पालन करती थीं परन्तु वहाँ भारत की तरह जाति-प्रथा विकसित नहीं हुई।
    • इस तरह आदिम परम्पराओं को जाति-प्रथा के उद्भव का एक कारण माना जा सकता है परन्तु एकमात्र कारण नहीं।

भौगोलिक उत्पत्ति का सिद्धान्त

गिल्बर्ट आदि विद्वान जाति-प्रथा के उद्भव के लिए ‘भौगोलिक तत्त्वों’ को उत्तरदायी मानते हैं। पुरातन साहित्यों से ज्ञात होता है कि समान भौगोलिक परिवेश में रहने वाले लोग समान वृत्ति या व्यवसाय अपनाते थे। कालान्तर में वे जातियों में परिणत हो गयीं। जैसे – बंगाल के निवासी गौड़ , दक्षिण के दक्षिणात्य, त्रिवर गाँव के तिवारी कहलाये आदि।

समालोचना

उपर्युक्त सभी मत एकांगी है। इनमें से कोई भी एक मत जाति-प्रथा के उद्भव की व्याख्या करने में अक्षम हैं। जाति प्रथा एक विशेष प्रकार की जटिल व्यवस्था है। इसके उद्भव के लिए कोई कारण विशेष उत्तरदायी नहीं है बल्कि इसकी उत्पत्ति विभिन्न कारकों के पारस्परिक संघात ( क्रिया-प्रतिक्रिया ) से हुई है।

इस सम्बन्ध में ‘हट्टन’ के विचार समीचीन लगते हैं –

हट्टन के अनुसार ( Caste in India ) भारत में जाति प्रथा विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और भौगोलिक तत्त्वों के पारस्परिक प्रभावों की स्वाभाविक परिणति है जो एकसाथ अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलती है।

‘Indian caste system is the natural result of the interaction of number of social, geographical, political, religious and economic factors, not elsewhere found in conjunction.’

( Hutton – Caste in India )

जाति-प्रथा का विकास

वैदिक साहित्यों में जाति-प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। धर्मसूत्रों में ‘जाति’ शब्द का प्रयोग केवल ‘मिश्रित वर्णों’ के लिए किया गया है और उन्हें प्रायः शूद्र की संज्ञा गयी है।

सबसे पहले निरुक्त और अष्टाध्यायी में हमें कृष्णजातीय एवं ब्राह्मणजातीय शब्दों का प्रयोग मिलता है। इससे यह संकेत मिलता है कि ई॰पू॰ पाँचवीं शताब्दी तक समाज में जाति प्रथा प्रतिष्ठित हो गयी थी और चारों वर्ण भी कठोर होकर जाति का रूप लेने लगे थे।

सूत्रकाल ( ६०० – ३०० ई॰पू॰ ) के धर्मसूत्रों के समय से हमें ‘जाति-धर्म’ के विवरण मिलने लगते हैं। जातक-साहित्यों और यूनानी लेखकों से पता चलता है कि सामान्यतः प्रत्येक जाति के लोग अपने ही पेशे या वृत्ति ( profession ) का पालन करते थे।

मौर्यकाल :

  • मौर्यकाल तक आते-आते वर्ण-व्यवस्था कठोर होकर जाति में बदलकर जन्माधारित हो चुकी थी। यूनानी विद्वानों से जाति-प्रथा की कठोरता का संकेत मिलता है।
  • मेगस्थनीज ७ वर्गों ( दार्शनिक, कृषक, अहीर, कारीगर / शिल्पी, सैनिक, निरीक्षक और सभासद ) का उल्लेख करता है यद्यपि यह न तो वर्ण व्यवस्था से मिलता है न ही जाति-प्रथा से। मेगस्थनीज ने अपने ७ वर्गीय सामाजिक विभाजन में वर्ण, जाति और वर्ग के अंतर को भुला दिया है।
  • अर्थशास्त्र में चार वर्णों के अतिरिक्त अनेक वर्णसंकर जातियों का विवरण मिलता है। इन वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति का कारण ‘अनुलोम’ और ‘प्रतिलोम’ विवाह को बताया गया है।
    • जिन वर्णसंकर जातियों का उल्लेख कौटिल्य ने किया है वे हैं – अम्बष्ठ, निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वेदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चाण्डाल, श्वपाक आदि। इनमें से कुछ जनजातियाँ थीं, जो एक सुनिश्चित व्यवसाय करती थीं।
      • चाणक्य ने ‘चाण्डाल’ के अतिरिक्त सभी वर्णसंकर जातियों को ‘शूद्र’ वर्ण में सम्मिलित किया है।
    • इसके अतिरिक्त अन्य व्यवसाय आधारित जातियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं; जैसे – तंतुवाय ( जुलाहा ), रजक ( धोबी ), दर्जी, स्वर्णकार ( सुनार ), लौहकार ( लोहार ), बढ़ई आदि।
      • विष्णुगुप्त ने इन सबको शूद्र वर्ण में स्थान दिया है।
  • इस काल में में शूद्रों की स्थिति में सुधार हुए क्योंकि –
    • शिल्पकला और सेवावृत्ति के अलावा ‘वार्ता’ ( कृषि, पशुपालन और वाणिज्य ) से आजीविका चलाने की अनुमति दी गयी।
    • अर्थशास्त्र में स्पष्ट रूप से शूद्रों को आर्य कहा गया है और उनको मलेच्छ से अलग माना गया है। यह भी कहा गया है कि आर्य शूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता है – हालाँकि म्लेच्छों में संतान को दास रूप में बेचना अथवा विक्रय करना दोष नहीं है।
  • समाज में ब्राह्मणों का स्थान विशिष्ट था परन्तु पूर्ववर्ती शास्त्रकारों या परवर्ती स्मृतिकार मनु की तरह अर्थशास्त्र में इसे बार-बार दुहराया नहीं गया है। मौर्यकाल में ब्राह्मणों ( शिक्षकों, पुरोहितों, वेदपाठी ब्राह्मण ) को करमुक्त भूमि-दान दिये जाते थे जिसे ‘ब्रह्मदेय’ कहा जाता था।
  • अशोक के अभिलेखों में ‘दास’ और ‘कर्मकार’ का विवरण मिलता है, जोकि शूद्र वर्ण में ही आते थे। अशोक के समय बौद्ध धर्म की लोकप्रियता और दण्डसमता से जाति-प्रथा में पर्याप्त शिथिलता के संकेत मिलते हैं। वह दासों और भृत्यों से अच्छे व्यवहार का निर्देश देते हैं।
  • नट, नर्तक, गायक, वादक, तमाशा दिखानेवाले, रस्सी पर नाचनेवाले, मदारी ग्रामों और नगरों में अपनी-अपनी कलाओं का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों ग्रामों प्रवेश पर निषेध थे परन्तु नगरों में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था।
  • जाति-प्रथा की पुष्टि मेगस्थनीज की इण्डिका से भी होती है। उसके अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी जाति से बाहर न तो विवाह कर सकता था और न ही व्यवसाय को बदल सकता था।

मौर्योत्तर काल :

मौर्योत्तर काल की दो प्रमुख घटनाएँ हैं जिन्होंने समाज पर गहरा प्रभाव डाला –

  • एक, विदेशी आक्रमण और उनका भारतीयकरण अथवा भारतीय समाज में आत्मसातीकरण।
  • और द्वितीय, ब्राह्मण प्रतिक्रिया।

मौर्य सम्राटों विशेषकर सम्राट अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता ने ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती दे दी थी। सार्वभौम मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद विदेशी आक्रमण से वर्ण व्यवस्था के समक्ष एक चुनौती आ खड़ी हुई। एक ओर मौर्य मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर का शुंग, कण्व, सातवाहन आदि ब्राह्मण राज्य पनपे तो दूसरी ओर सार्वभौम साम्राज्य के अभाव में पश्चिमोत्तर से यूनानी, शक, पह्लव और कुषाणों के आक्रमण हुए। एक ओर तो इस काल के ब्राह्मण शासक वर्ण व्यवस्था को प्रतिष्ठित करने और वर्णसंकरता रोकने का दंभ भरते थे, तो स्वयं ही दूसरे वर्ण व विदेशी कन्याओं से विवाह भी करते थे।

  • शातकर्णि प्रथम ने महारठी ( क्षत्रिय ) की कन्या नागनिका से विवाह किया था।
  • पुलुमावी ने शक शासक रुद्रदामन की पुत्री विवाह किया था।
  • ईक्ष्वाकुवंशी शान्तमूल अपने पुत्र वीरपुरुषदत्त का विवाह उज्जयिनी के शक शासक की कन्या रुद्रभट्टारिका से किया था।
  • रुद्रदामन के लेख में वह दावा करता है कि वह स्वयं कई स्वयंवरों में जाकर राजकुमारियों का वर्ण किया था। इनमें से हो सकता है कि कुछ क्षत्रिय कन्याएँ रही हो।

यही दुविधा इस काल के शास्त्रकारों समक्ष भी आयी। वे विदेशियों की हाथ में राजनीतिक सत्ता होने से उनकी उपेक्षा भी नहीं कर सकते थे। विदेशियों को समाज में स्थान देने के लिए वर्णसंकर के साथ-साथ धर्म का भी आश्रय लिया गया। दूसरे शब्दों में इस समस्या के समाधान के लिए तत्कालीन शास्त्रकारों ने दो तरीके निकाले – एक, वर्णसंकर और द्वितीय, धर्म।

अधिकांश विदेशी आक्रांता शासकों ने स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर दिया जिससे तत्कालीन शास्त्रकारों को समझौता करना पड़ा। अतः इनको ‘व्रात्य क्षत्रिय’ कहकर वर्ण व्यवस्था में स्थान देते हैं।

इन आक्रांताओं के साथ उनके पुरोहित भी आये जिनकों ब्राह्मणों के साथ संयुक्त कर दिया गया; जैसे – शकों के साथ आये ‘मग’ या ‘शाकद्वीपी’ पुरोहित। अन्य को शूद्र, वृषल आदि कहते हैं। पतंजलि यवनों और शकों को ‘अनिरवासित शूद्र’ कहते हैं। मनुस्मृति में हमें ६० वर्णसंकर जातियों का उल्लेख मिलता है।

इसी काल में भक्ति-भावना का उदय हुआ। मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि धार्मिक संस्कारों और ब्राह्मणों की अवहेलना करने से ही यवन, शक, पह्लव आदि जातियाँ धीरे-धीरे शूद्रों की श्रेणी में आ गयी। मनु के अनुसार ये विदेशी जातियाँ संस्कार युक्त होने पर क्षत्रिय जाति में गिनी जा सकती हैं।

भागवत् पुराण ने सुझाया कि विष्णु के पूजन से ये जातियाँ पवित्र हो जायेंगी। इसी काल में बौद्ध धर्म के महायान शाखा का उदय हुआ। मिलिन्दपन्हो में मेनाण्डर को क्षत्रिय मानते हुए उसकी वंशावली दी गयी है। विदेशियों ने वैष्णव, शैव व बौद्ध धर्म अपनाया और भारतीय समाज में समाहित होती चली गयीं।

  • यवन हेलियोडोरस ने भागवत् धर्म ग्रहण किया।
  • मेनाण्डर ने बौद्ध धर्म अपनाया।
  • कुषाणों के सिक्कों पर बौद्ध, वैष्णव व शैव प्रतीक मिलते हैं। कनिष्क का बौद्ध धर्म से लगाव विख्यात ही है।

संगमकाल :

सुदूर दक्षिण का उल्लेख तो हमें कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज कृत इण्डिका और सम्राट अशोक के अभिलेखों में मिलता है परन्तु इसकी विस्तृत जानकारी संगम साहित्यों से मिलती है।

मौर्योत्तरकाल में सुदूर दक्षिण का ‘आर्यीकरण’ हो चुका था। संगमकाल की विशेषता है उत्तर और दक्षिण संस्कृतियों का समन्वय या दूसरे शब्दों में आर्य व द्रविड़ संस्कृतियों का समन्वय।

उत्तर भारतीय समाज की वर्ण व जाति व्यवस्था का प्रभाव यहाँ पर भी पड़ा परन्तु कुछ बातें उल्लेखनीय हैं –

  • उत्तर भारत की तरह संगमकाल में चार वर्ण की व्यवस्था नहीं थी।
  • संगमकाल में हम जहाँ एक ओर शासक व ब्राह्मण वर्ग का उदय पाते हैं, परन्तु परवर्ती समय की तरह जातीय भेदभाव नहीं मिलता है।
  • समाज में स्पष्ट विषमता थी। कुछ लोग बहुत धनी थी कुछ अकिंचनता में जीते थे।
  • समाज में शासक व ब्राह्मण वर्ग का बोलबाला था।
  • दास प्रथा नहीं थीं।
  • सामाजिक विरोध के संकेत नहीं मिलते हैं।

संगमकालीन समाज के वर्ग भेद को निम्न प्रकार से देख सकते हैं –

  • समाज में राजा का सर्वोच्च स्थान था।
  • ब्राह्मणों का उदय सर्वप्रथम संगमकाल में इस क्षेत्र में हुआ। समाज में राजा के बाद इनका स्थान था। यहाँ के ब्राह्मण मदिरापान और मांसाहार करते थे। मजे की बात तो ये थी की सुरापान और सामिष भोजन समाज में बुरा नहीं मना जाता था। कुछ ब्राह्मण उत्तर से आकर दक्षिणों बस गये थे, इनको ‘वेदमार’ कहा जाता था।
  • समाज में वेल्लाल ( Vellalas ) एक अन्य वर्ग था और इनका प्रमुख ‘वेलिर’ कहलाता था। समाज में इनका स्थान ब्राह्मणों के बाद आता था। इनका मुख्य उद्यम कृषि-कर्म था। वेल्लार अपनी आर्थिक स्थिति के आधार पर दो वर्गों में बँटे थे –
    • एक, धनी वेल्लाल ( वेल्लालर )। ये धनी कृषक युद्ध में भाग लेते थे और प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किये जाते थे। प्रशासनिक पदों पर नियुक्त लोगों को चोल राज्य में ‘वेल’ और ‘अरशु’ जबकि पाण्ड्य राज्य में ‘कविदी’ की उपाधि दी जाती थी। राजपरिवार में इनके वैवाहिक सम्बन्ध होते थे।
    • द्वितीय, निर्धन वेल्लार। इनके पास स्वयं की भूमि नहीं होती थी। ये धनी कृषकों ( वेल्लार ) की भूमि पर मजदूरी करते थे। कृषक मजदूरों के लिए ‘कडैसियर’ ( Kadaisiar ) शब्द मिलता है।
  • सेनानायकों को ‘एनाड़ी’ ( Enadi ) की उपाधि दी जाती थी।
  • व्यवसायियों के वर्ग को ‘वेनिगर’ कहा जाता था। इसमें छोटे व्यावसायियों को ‘चेति वर्ग’ कहा जाता था। इसी में कुछ दस्तकार व शिल्पी वर्ग के नाम भी मिलते हैं –
    • पुलैयन – रस्सी की चारपायी बनानेवाले।
    • एनियर – शिकारी और बधिक।
    • परदवर – मछुवारे।
    • पेरियर ( pariyars ) – कृषक मजदूर थे साथ ही वे पशु-चर्म के प्रयोग से चटाई बनाते थे।
  • तमिल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर ‘मरवा’ या ‘मलवर जाति’ के लोग रहते थे। जिनका पेशा डाका और लूटपाट था। ये वेत्ची ( गो-गरण ) के लिए कुख्यात थे।

संगम युग में वर्ण व्यवस्था अप्रचलित थी। ‘पुरुनानरू’ नामक रचना में चार वर्गों का उल्लेख मिलता है – तुड़ियन, पाड़न, पड़ैयन और कड़म्बन। उपर्युक्त सभी वर्गों या जातियों को चार समूहों में बाँटा जा सकता है –

  • अरसर वर्ग ( Arasar class ) – शासक और योद्धा वर्ग।
  • शुड्डुम वर्ग – ब्राह्मण और बुद्धिजीवी वर्ग।
  • वेल्लाल वर्ग – कृषक वर्ग।
  • वेनिगर वर्ग – व्यापारी और दस्तकार वर्ग।

गुप्तकाल :

गुप्तकाल में वर्ण व्यवस्था पूर्णरूपेण जन्म आधारित थी। परम्परागत वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जातियों की संख्या बढ़ती गयी। गुप्तकालीन साहित्यों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि वर्णगत या जातिगत कर्त्तव्यों के बंधन शिथिल होते गये थे।

गुप्तकाल में जातियों के विषय में व्यवसाय के बंधन शिथिल होने लगे थे। परम्परागत वर्णों का आधार गुण या कर्म न होकर जन्म ही था। व्यक्ति का कर्म जो भी हो उसकी वर्ण व जाति जन्म वहीं रहती थी जिसमें वह जन्मा हो।

स्मृतियों में ‘आपद्धर्म’ की बात की गयी है जिसमें वर्ण और जाति से सम्बंधित पेशे को छोड़कर अन्य वर्णों या जातियों की वृत्ति अपना सकते थे। क्षत्रिय भी व्यापार और वृत्ति करते थे। ब्राह्मण शिल्प व क्षात्र वृत्ति अपनाते थे। शूद्रों के क्षत्रिय और वैश्य वृत्ति अपनाने के उल्लेख मिलते हैं।

ब्राह्मण को वर्ण और जातियों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। यद्यपि ब्राह्मण के कर्त्तव्य धार्मिक और साहित्यिक थे तथापि इसकाल के साहित्यों में ब्राह्मणों द्वारा जातिगत पेशओं को छोड़कर अन्य वृत्तियों को अपनाने का उल्लेख मिलते हैं; जैसे –

  • व्यापारिक कर्म : शूद्रक कृति मृच्छकटिक नाटक का नायक चारुदत्त एक ब्राह्मण था परन्तु वह व्यापार करता था।
  • क्षत्रिय कर्म : ब्राह्मण राजा व सैनिक वृत्ति अपनाने के कई उदाहरण मिलते हैं –
    • इसी तरह मानव्य गोत्रीय ब्राह्मण ‘मयूरशर्मन्’ जिसने कि काँची में शिक्षा पायी थी, वनवासी के कदम्ब राजवंश का संस्थापक था।
    • ब्राह्मण इन्द्रविष्णु और उसका पुत्र मातृविष्णु गुप्तों के अंधीन सामन्त थे।
    • वाकाटव राजवंश ब्राह्मण थे।
    • हर्षवर्धन का समकालीन कामरूप का शासक भास्करवर्मन् ब्राह्मण था।
  • फिरभी मजे की बात तो देखो ये अब कर्म नहीं बल्कि जन्मगत श्रेष्ठता का दावा करते थे और ब्राह्मण वृत्ति से इतर क्षत्रिय या वैश्य या कृषि वृत्ति अपनाने पर भी ब्राह्मण ही बने रहे।

क्षत्रिय शासक वर्ग था फिरभी वे अन्य वर्णों के वृत्तियों को अपनाते थे –

  • स्कंदगुप्त के समय के इंदौर अभिलेख से ज्ञात होता है कि क्षत्रिय लोग वैश्य वृत्ति करते थे।
  • इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के वृत्ति को अपनाया हो।
  • हुएनसांग क्षत्रियों की प्रशंसा करता है।
  • बाणभट्ट सूर्य व चन्द्र वंशी क्षत्रिय कुलों का उल्लेख करता है।

इसी तरह वैश्य वर्णों ने क्षत्रिय और शूद्र वृत्ति के अपनाने का भी उल्लेख मिलते हैं –

  • हर्षवर्धन वैश्य वर्ण का था।
  • अमरकोश में वैश्य को कृषक का प्रिया बताया गया है। परन्तु विष्णु और याज्ञवल्क्य स्मृतियों से ज्ञात होता है कि बटाई पर खेत शूद्रों को दी जाती थी अतः शूद्र भी कृषक थे।
  • प्रो॰ रामशरण शर्मा का विचार है कि, ‘गुप्तकाल में वैश्यों का कार्य अर्थ-सम्बन्धी नीतियों का संचालन था, परन्तु उनकी स्थिति समाज में शूद्रों के समकक्षों गयी थी। क्योंकि वैश्य अध्ययन और यज्ञ से विमुख हो गये थे।’
  • बौधायन भी वैश्यों की स्थिति को शूद्रों के समान दर्शाते हैं।
  • इस काल में वैश्य वर्ण के अन्तर्गत सम्मिलित जातियाँ निम्न थीं – कृषक, व्यापारी, लोहार, सुनार, बढ़ई, तेली, सूत निकालने वाले, बुनकर, पशुपालक, मालाकार आदि।
  • वैश्य वर्ण ही राज्य को सर्वाधिक कर देता था।
  • धर्मशास्त्रों के अनुसार कुछ वस्तुओं के वैश्यों द्वारा व्यापार करना वर्जित किया गया था। महाभारत के अनुसार ये वर्जित वस्तुएँ थीं – मद्य, मांस, लोहा, चमड़ा आदि।
  • वैश्यों के लिए आपद्धर्म था कि वह क्षत्रिय और शूद्र कर्म अपना सकता था। वैश्य गौ, ब्राह्मण और वर्ण-रक्षण हेतु शस्त्र ग्रहण कर सकता था।

शूद्र वर्ण द्वारा क्षत्रिय व वैश्य वृत्ति अपनाने के उल्लेख मिलते हैं –

  • मनु की अपेक्षा गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों के प्रति कम कठोर हैं। दूसरे शब्दों में गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों को कृषि, व्यापार और कारीगरी की अनुमति देती हैं –
    • मनुस्मृति में शूद्रों के लिए एकमात्र द्विजों की सेवावृत्ति बताया है, परन्तु याज्ञवल्क्य ने शूद्रों के लिए सेवा के साथ-साथ व्यापार, कृषि और दस्तकार होने की अनुमति दी है।
    • नृसिंह पुराण में कृषि को शूद्रों की वृत्ति कहा गया है।
    • हुएनसांग भी शूद्रों का खेतिहर के रूप में उल्लेख करता है।
  • मनुस्मृति की ही तरह महाभारत के शान्तिपर्व में इस बात को दोहराया गया कि द्विज अपने सेवक को पुराना छाता, पगड़ी, बिस्तर, आसन, जूते, पंखे और फटे-पुराने कपड़े दें।
    • परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्राचीनकालीन मत कि शूद्रों को ब्राह्मणों की सेवानिवृत्ति में ही संतुष्ट रहना चाहिए, न तो सैद्धान्तिक और न ही व्यावहारिक रूप में माना गया।
  • इसकाल में शूद्र राजा, सैनिक और पदाधिकारी होने के उल्लेख मिलते हैं –
    • हुएनसांग के अनुसार सिंधु और मतिपुर के शासक शूद्र थे।
    • परम्परागत शूद्र, आभीर और म्लेच्छ राजाओं का उल्लेख भी मिलता है। जोकि सिंधु और कश्मीर प्रदेशों पर शासन करते थे। सम्भवतः इन्हें इसलिए शूद्र कहा गया है क्योंकि इन जातीय या विदेशी शासकों को ब्राह्मणों का संरक्षण प्राप्त नहीं था।
  • गुप्तकाल में शिल्पकार्य शूद्रों के सामान्य कर्त्तव्यों में आ गया था।
  • वायुपुराण में शूद्र के दो कर्त्तव्य बताये गयें है –
    • शिल्प।
      • अमरकोष में शिल्पकारों की सूची शूद्रों के वर्ग में दी गयी है – सामान्य शिल्पी, शिल्प श्रेणी के प्रमुख, माली, धोबी, कुम्भकार, जुलाहा, राजमिस्त्री, दर्जी, चित्रकार, शस्त्रकार, चर्मकार, लुहार, शंख-शिल्पी, स्वर्णकार, बढ़ई, वंशी, वीणा वादक, अभिनेता, नर्तक आदि।
      • इस सूची से ज्ञात होता है कि शूद्र सभी तरह के शिल्प व व्यवसाय करते थे।
    • भृत्ति
      • महाभारत का अनुशासनपर्व कहता है कि यदि शूद्र न हों तो मजदूर नहीं होंगे अर्थात् शूद्रों का बहुत बड़ा भाग मजदूर ( भृत्त ) था।
      • अमरकोश में मजदूरी के सभी ११ पर्याय शूद्र वर्ग में दिये गये हैं।
      • नारद और बृहस्पति स्मृति में भृतकों को तीन कोटियों में रखा गया है –

( १ ) सेना में काम करनेवाले,

( २ ) कृषिकर्म करनेवाले और

( ३ ) भार ढोनेवाले।

⇒ इनको क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम कर्मकार रखा गया है।

      • बृहस्पति द्वारा वर्णित पारिश्रमिक की दरों से ज्ञात होता है गुप्तकाल के अंत में मजदूरी दुगुनी हो गयी थी। वे बिना अन्न और अस्त्र के कार्य करते थे जो इस बात के प्रतीक है कि वे अपने भरण-पोषण कि लिए नियोजकों पर आश्रित नहीं थे।
  • बृहस्पति इस पुरातन नियम को दोहराते हैं कि शिल्पकारों को मास में एक दिन राजा का कार्य करना होगा।
  • इस काल में शूद्र शिल्पकारों की आर्थिक दशा में सुधार आया जो इस बात से प्रमाणित होता है कि व्यापारी और शिल्पकार राजकरदाता थे।
  • शूद्रों का इसकाल में व्यापार और वाणिज्य को करना कर्त्तव्य माना जाने लगा –
    • बृहस्पति के अनुसार हर प्रकार की बिक्री करना शूद्रों का समान कर्त्तव्य है।
    • पुराण भी शुद्रों को क्रय-विक्रय और व्यापार द्वारा जीवन निर्वाह की अनुमति देते हैं।
  • गुप्तकालीन धर्मशास्त्रों में स्पष्ट रूप से शूद्रों को अस्पृश्यों और दासों से पृथक बताया गया है।
  • वनवासियों का जनजातियों के वर्ण व्यवस्था में सम्मिलित होने से शूद्र व अस्पृश्य जातियों मरी संख्या में वृद्धि हुई।

कृषक, पशुपालक, धातुकार, तैलकार, जुलाहे, माली आदि विशिष्ट जातियाँ बन चुकी थीं। अनेकानेक संकर ( मिश्रित ) जातियाँ अस्तित्व में आ चुकीं थीं। स्मृतियों में मूर्धावसिक्त, अम्बष्ठ, पारसव, उग्रकरण आदि संकर जातियों का उल्लेख हुआ है।

गुप्तकालीन अभिलेखों में ‘कायस्थ’ नामक पदाधिकारियों का विवरण मिलता है जोकि पेशेवर लेखक थे हालाँकि ये अभी तक जाति नहीं बन पायी थी।

गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों को व्यापार, शिल्प और कृषि करने की अनुमति प्रदान करती हैं।

  • बृहस्पति स्मृति के अनुसार – ‘विक्रयः सर्वपण्यानां शूद्रधर्म उदाहृतः।
  • शूद्र सैनिक भी थे।
  • मृच्छकटिक के अनुसार उज्जयिनी में शूद्र अधिकारी थे।
  • अभी भी शूद्रों को वैदिक साहित्य के पठन-पाठन का अधिकार नहीं मिला परन्तु वे महाकाव्य और पुराण के श्रवण का अधिकार मिल गये थे।
  • यह समाज का शूद्रों के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण का परिचायक है।

इस काल में न्याय व्यवस्था और दण्ड विधान वर्ण व जाति भेद पर आधृत थी –

  • पूर्ववर्ती नियम को इसकाल में स्मृतिकारों ने दुहराया कि शूद्र केवल अपने वर्ण के लिए साक्ष्य दे सकते हैं।
  • गवाहों के लिए स्मृतिकारों ने जो चेतावनी दी है उनमें सबसे कठोर चेतावनी शूद्रों के लिए है।
  • ब्राह्मण के विरुद्ध किये गये अपराधों के लिए नारद और बृहस्पति ने शूद्रों के लिए कठोर शारीरिक दण्ड का विधान किया है। परन्तु बृहस्पति ने जो दण्ड-सूची दी है उससे इसका संकेत नहीं मिलता है।
  • चीनी यात्री फाह्यियान के अनुसार मध्यदेश का राजा मृत्युदण्ड या अन्य शारीरिक दण्ड के बिना ही शासन करता था।
  • अतः गुप्तकालीन दण्डविधान मृदु हो गया था ( मौर्यों की अपेक्षा ), मृत्यु दण्ड की समाप्ति व शारीरिक यातना के दण्ड में कमी से सर्वाधिक लाभ शूद्रों को हुआ था।

दायविधि के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती शास्त्रकारों अपेक्षा गुप्तकालीन शास्त्रकार शूद्रों के सम्बन्ध में कुछ उदार हैं –

  • विष्णु के अनुसार द्विज पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न पुत्र अपने पिता के आधे धन का अधिकारी होगा।
  • परन्तु बृहस्पति के अनुसार द्विज पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न पुत्र को मात्र भरण-पोषण का ही अधिकार है, चाहे उसके पिता के कोई अन्य पुत्र हो।
  • महाभारत के अनुशासन पर्व में द्विज पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न पुत्र को सम्पत्ति का अधिकारी कहा गया है।
  • शूद्र पिता के पुत्रों की सम्पत्ति उसके संतानों में समान रूप से बंटती थी।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति में शूद्र पिता और दासी माँ से जन्में पुत्र को पिता की इच्छा होने पर ही सम्पत्ति में अधिकार मिलता था।
  • महाभारत के अनुशासन पर्व में शूद्र पिता और दासी माँ से जन्में पुत्र को पिता की सम्पत्ति का १०वाँ भाग निश्चित किया गया है।

धर्म सम्बन्धी अधिकारों के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती शास्त्रकारों की अपेक्षा गुप्तकालीन शास्त्रकार उदार हैं –

  • मत्स्य पुराण कहती है कि शूद्र यदि भक्ति में निमग्न रहे, सुरापान न करे, इंद्रियाशक्त न हो और निर्भर रहे तो उसे भी मोक्ष मिल सकता है।
  • मार्कण्डेय पुराण में दान देना और यज्ञ करना शूद्रों का कर्त्तव्य बताया गया है।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि शूद्र ‘ओंकार’ के स्थान पर ‘नमः’ का प्रयोग करते हुए पंच महायज्ञ कर सकते हैं।
  • महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है सभी वर्ण के लोग यज्ञों सकते हैं, यदि उनमें श्रद्धा है।
  • इस तरह गुप्तकाल में शूद्रों को रामायण, महाभारत, पुराण के श्रवण और कभी-कभी वेद श्रवण के अधिकार भी मिल गये थे।
  • षड्दर्शनों का अंतिम संकलन गुप्तकाल में हुआ था। इनमें से योग व सांख्य दर्शन में वर्ण व जाति का कोई विभेद नहीं था। इसलिए अनेक शिक्षित शूद्रों के उदाहरण मिलते हैं।
  • इसकाल के शास्त्रकारों ने शूद्रों के लिए संन्यास वर्जित किया है।
  • विष्णुपुराण के अनुसार यदि ब्राह्मण किसी शूद्र के यज्ञ में सहायक बना तो वह नरकगामी होगा।
  • ब्राह्माण्ड पुराण के अनुसार श्राद्ध का अवशिष्ट अन्न को दे देने से श्राद्ध का फल नहीं मिलता है।
  • इन अनुदार विचारों के बावजूद शूद्रों की धार्मिक अवस्था में सुधार आया था।
  • परन्तु शास्त्रों के अनुशीलन से शूद्रों की असंतुष्टि के प्रमाण मिलते हैं –
    • महाभारत की अनुशासनपर्व में शूद्रों का नाशक कहा गया है।
    • अन्य ग्रंथों में उन्हें विरोधी, हिंसक, अहंकारी, क्रोधी, मिथ्याभाषी, लोभी, कृतध्न, नास्तिक, आलसी, अपवित्र आदि कहा गया है।
    • महाभारत के शांतिपर्व में ९ श्लोकों में ब्राह्मण का क्षत्रिय जुगलबंदी पर बल दिया गया है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि वैश्य व शूद्र वर्ण संयुक्त होकर विरोध पर तत्पर थे।
      • अतः गुप्तकाल में भी वर्ण-संघर्ष का अंत नहीं हुआ।
      • हालाँकि गुप्तकाल में शूद्रों की दशा में सुधार अवश्य हुए थे।

वर्ण संकर या मिश्रित जातियाँ : याज्ञवल्क्य स्मृति में निम्न वर्ण संकर जातियों का उल्लेख मिलता है —

वर्ण संकर जातियाँ

वर्ण संकर जाति

पिता का वर्ण माँ का वर्ण विवाह का प्रकार

मूर्द्धावषिक्त

ब्राह्मण क्षत्रिय

अनुलोम विवाह

अम्बष्ठ

ब्राह्मण वैश्य

निषाद / पारशव

ब्राह्मण शूद्र

माहिष्य

क्षत्रिय वैश्य

उग्र

क्षत्रिय शूद्र

करण

वैश्य शूद्र

सूत

क्षत्रिय ब्राह्मण

प्रतिलोम विवाह

वैदेहक

वैश्य ब्राह्मण

पुक्कस

वैश्य क्षत्रिय

आयोगव

शूद्र वैश्य

चाण्डाल

शूद्र

ब्राह्मण

सामान्यतः कारीगरों की श्रेणियाँ जाति के रूप में परिणत होती गयीं जिससे कि जातियों की संख्या बहुत बढ़ गयी। उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गुप्तकाल में ग्रामवृद्धों व मुखियाओं का एक नया वर्ग उभरकर आया जिनको भूमि-हस्तांतरण की सूचना दी जाती थी। ये महात्तार नामक पदाधिकारी थी। गुप्तोत्तर काल में यही महात्तार जाति के रूप में उभरे। यही वर्तमान की मेहता, महतो जैसी जातियाँ हैं।

गुप्तकालीन अभिलेखों के अनुशीलन से ‘उप-जातियों की गतिशीलता’ ज्ञात होती है। कुमारगुप्तकालीन मंदसोर अभिलेख में पट्टवाय श्रेणी ( रेशम बुनकरों की श्रेणी ) अपने बुनकर वृत्ति को छोड़कर अन्य पेशे को अपना लिया था। व्यवसाय परिवर्तन के बाद भी इन लोगों की अपनी वृत्ति के प्रति श्रद्धा बनी रही।

गुप्तकालीन अभिलेखों में ‘कायस्थ’ नामक पेशेवर लेखक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता परन्तु यह कोई जाति नहीं थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में कायस्थों के लिए प्रथम कायस्थ और ज्येष्ठ कायस्थ कहा गया है। गुप्तोत्तरकाल में कायस्थ एक जाति के रूप परिणत हो गयी। गुप्तकालीन विषय ( जनपद ) का प्रशासन विषयपति एक चार सदस्यीय समिति के सहयोग से करता था। इस चार सदस्यीय समिति में एक सदस्य प्रथम कायस्थ ( मुख्य लेखक ) भी होता था। सबसे पहले याज्ञवल्क्य स्मृति में कायस्थ वर्ग का उल्लेख मिलता है जबकि गुप्तोत्तरकालीन उसनश स्मृति में सबसे पहले कायस्थ का एक जाति के रूप में उल्लेख मिलता है।

अस्पृश्य :

स्मृतियों और फाह्यियान के विवरण से ज्ञात होता है कि समाज में अश्पृश्यता प्रचलित थी।

  • फाह्यियान अछूतों को ‘चाण्डाल’ कहता है जोकि गाँवों व नगरों के बाहर रहते थे। ये आखेट करते और माँस विक्रय करते थे। गाँवों व नगरों में प्रवेश के समय चाण्डाल लकड़ी पीटते हुए आते थे ताकि लोगों को यह ज्ञानों सके कि वे आ रहे हैं और अन्य वर्ण व जातियाँ उनके मार्ग से हटकर स्वयं को स्पर्श से बचा सकें।
  • गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों व अस्पृश्यों के बीच पूर्ववत् अंतर बताया गया है। शूद्रों और श्वपाकों का पृथक रूप से वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है।
  • परन्तु अमरकोश में वर्णसंकर और अस्पृश्यों को शूद्र जाति में ही रखा गया है।
  • गुप्तकालीन ग्रंथों में अछूतों का विशेषकर चाण्डालों का वर्णन बहुत अपमानजनक रूप से किया गया है। उनको अपवित्र, मिथ्याभाषी, चोर, झगड़ालू, क्रोधी और लोभी कहा गया है।
  • जितना बल ब्राह्मणों की पवित्रता पर पर था उतना ही बल अस्पृश्यों की अपवित्र पर था। यहाँ तक कहा गया है कि यदि किसी ‘द्विज’ की दृष्टि किसी अस्पृश्य पर पड़ जाये तो वह अपवित्र हो जाता था। उसे पवित्र होने के लिए धार्मिक अनुष्ठानों तक का विधान किया गया है।
  • स्मृतियों में अंत्यज या चाण्डाल जाति की उत्पत्ति का कारण प्रतिलोम विवाह को बताया गया है।
  • अंत्यज जातियाँ सबसे निम्न वृत्ति का पालन करती थीं। साधारणतः चाण्डालों का पेशा था – सड़कों व गलियों की सफाई करना, श्यमशान का कार्य करना, अपराधियों को फाँसी पर लटकाना, रात्रि में चोरों को पकड़ना आदि।
  • डोम्ब जाति के लोग गीत गाकर सार्वजनिक मनोरंजन करते थे। डोम्ब नामक जाति गुप्तकाल में ही स्वतंत्र जाति के रूप में प्रकट हुई। डोम्ब जाति को अस्पृश्य माना जाता था। जैन स्रोत भी इन्हें उपेक्षित वर्ग में रखा है।
  • हुएनसांग भी अस्पृश्यता का वर्णन करता है। उनके अनुसार कसाई व मेहतर नगर के बाहर विशेष रूप से चिह्नित घरों में रहते थे।
  • विंध्य वनों में शबर जाति रहती थी जो अपने देवताओं को मानव-बलि चढ़ाते थे।
  • अस्पृश्यता की स्थिति पहले की अपेक्षा व्यापक हो गयी।
  • हालाँकि अस्पृश्य सिद्धान्त रूप में शूद्र माने जाते थे परन्तु व्यवहारिक रूप से वे शूद्रों से पृथक थे।

इसकाल की स्मृतियाँ ब्राह्मणों की पवित्रता पर बल देती हैं और ये पवित्रता छुआ-छूत व खान-पान सम्बन्धी थीं।

  • ब्राह्मण को शूद्र का अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से आध्यात्मिक बल का ह्रास होता है।
  • महाभारत के शांतिपर्व में बढ़ई, चर्मकार, धोबी और रजक का अन्न अग्राह्य बताया गया है।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार स्नातकों को शूद्रों और पतितों का अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए।
  • जो ब्राह्मण शूद्रों का अन्न ग्रहण करें अथवा क्षत्राणी वैश्य की पंगत में बैठकर भोजन करें उनके लिए प्रायश्चित का विधान किया गया है।
  • ब्राह्मणों को सिर्फ द्विजों से अन्न ग्रहण करना चाहिए। और यदि वह इससे अपनी जीविका न चला सके तो वह दासों और शूद्रों से अन्न खा सकता था।
    • बृहस्पति ने संकट के समय ब्राह्मणों को शूद्रों व दासों के अन्न खाने की अनुमति दी है।
  • परन्तु, यह प्रमाण नहीं मिलता है कि अस्पृश्यों को छोड़कर अन्य शूद्र जातियों का पानी पीना वर्जित था।
    • शूद्रक कृत मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि ब्राह्मण और शूद्र एक ही कुएँ से पानी पीते थे।

हर्षकाल :

इस काल में परम्परागत चारों वर्णों के साथ-साथ समाज में अनेक जातियाँ और उप-जातियाँ थीं। इस काल में ब्राह्मण अपने गोत्र, प्रवर, चरण या शाखा के नाम से प्रसिद्ध थे। ब्राह्मण कर्मणा के स्थान पर जन्मना श्रेष्ठता का दावा करते थे। हर्षचरित में कहा गया है – ‘असंस्कृतमतयोपि जात्येव द्विजन्मनो माननीया।’

चीनी यात्री हुएनसांग क्षत्रियों को राजाओं की जाति का कहता है। परन्तु इसकाल में अधिकतर शासक क्षत्रियेतर जाति से थे। कामरूप का शासक ब्राह्मण ( भास्करवर्मन् ) था। सिंध और मतिपुर के शासक शूद्र थे। हर्षवर्धन स्वयं वैश्य जाति से थे। जबकि बलभी, चालुक्य नरेश क्षत्रिय थे।

इसकाल तक वैश्यों ने कृषि कर्म छोड़कर पूर्णतया व्यापार और वाणिज्य को अपना लिया था। इस समय तक राजनीतिक शक्ति भी उनके हाथ आ गयी थी। स्वयं हर्षवर्धन वैश्य जाति से थे।

हुएनसांग शूद्रों को कृषक कहता है। सिंध व मतिपुर के शासक शूद्र थे। जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग अछूत समझा जाता था। हुएनसांग ने कसाई, मछुये, जल्लाद, भंगी आदि को अस्पृश्य बताया है। ये अछूत जातियाँ ग्राम व नगरों से बाहर रहती थीं और आगमन के समय लकड़ी की दंडी पीटकर अपने आगमन की सूचना देती थी ताकि लोग उनके स्पर्श से बच सकें। बाणभट्ट कृति ‘कादम्बरी’ में चाण्डाल स्त्री को ‘स्पर्शवर्जित’ और ‘दर्शनमात्रफलं’ कहकर सम्बोधित किया गया है।

सिद्धान्त रूप में सजातीय विवाहों को ही मान्यता थी परन्तु व्यवहार में अन्तर्जातीय विवाह होते थे। जैसे – हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरिवंशी क्षत्रिय शासक ग्रहवर्मा से हुआ। बलभी नरेश ध्रुवभट्ट द्वितीय हर्षवर्धन का जामाता था।

गुप्तोत्तर काल :

गुप्तोत्तर काल में सामान्यतः ६५० ई॰ से १२०० ई॰ तक का समय आता है। इसे ‘पूर्व-मध्यकाल’ या ‘राजपूत काल’ भी कहते हैं। इसको दो भागों में बाँटा गया है –

  • प्रथम चरण ( ६५० से १००० ई॰ तक )
    • इसकाल में वैश्विक परिदृश्य पर दो घटनाएँ हुईं जिन्होंने भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों प्रभावित किया। ये हैं –
      • रोमन साम्राज्य का पतन
      • इस्लाम का उदय व भारत में आगमन
    • व्यापार और वाणिज्य का पतन
    • सामान्तवाद का उदय
    • ग्रामीण क्षेत्रों आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होते जाना और अन्तर्मुखी बनना।
    • स्थानीयता का विकास
  • द्वितीय चरण ( १००० से १२०० ई॰ तक का समय )
    • पश्चिम एशिया में बड़े मुस्लिम साम्राज्यों का उदय जिससे व्यापार व वाणिज्य को बल मिला।

८वीं शताब्दी में भारतीय समाज पर इस्लाम धर्म का प्रभाव परिलक्षित होने लगा। इस्लाम में भेदमूलक वर्ण व जाति-प्रथा के सामने गम्भीर चुनौती उपस्थित कर दी। इसके परिणामस्वरूप हिन्दू शास्त्रकारों ने भेदमूलक प्रथओं को दूर करने के स्थान पर अलगाव की नीति अपनायी। हिन्दू समाज में कठोरता व रूढ़िवादिता की वृद्धि हुई। इसकाल के विचारक इसकी तुलना कलिकाल से करते हैं। समाज को शुद्ध रखने के लिए खान-पान, विवाह, स्पृश्यता आदि के नियम कठोर कर दिये गये।

अन्तर्जातीय खान-पान पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये। ब्राह्मणों के अन्य वर्ण व जाति में भोजन आपातकाल को छोड़कर निषिद्ध कर दिया गया। शौचाचार की भावना प्रबल होती गयी। कश्मीरी विद्वान् क्षेमेन्द्र के विवरण से ज्ञात होता है कि प्राच्य, दक्षिणात्य और गौड़ लोगों में शौचाचार की भावना अपेक्षाकृत प्रबल थी। ये लोग अपने सम्बंधियों के अलावा किसी अन्य को स्पर्श तक नहीं करते थे। अलबेरुनी कहते हैं कि जब दो ब्राह्मण साथ भोजन करते तो बीच में एक कपड़ा रख लेते अथवा लकीर खींच लेते थे। इस काल में तो वैदिकोत्तर धर्म जैसे – बौद्ध, जैन आदि तक को अस्पृश्य घोषित कर दिया। कोई ब्राह्मण भी यदि इन वैदिकोत्तर धर्म को स्वीकार कर लेता तो वह भी कुजात घोषित कर दिया जाता था।

इस काल में ‘कलिवर्ज्य सिद्धान्त’ प्रस्तुत किया गया। इस सिद्धान्त के अनुसार विदेश यात्रा, विदेशियों से सम्पर्क आदि को निषिद्ध माना गया।

विभिन्न जातियों और उप-जातियों की बढ़ती संख्या के कारण सामाजिक व्यवस्था अत्यंत जटिल होती गयी।

फिरभी, इसकाल में जाति-प्रथा के विरुद्ध जोरदार आवाजें उठतीं रहीं। जैन आचार्यों, शाक्त-तांत्रिक सम्प्रदायों, चार्वाकों, वैष्णव व शैव भक्तों आदि ने इसका विरोध किया। उन्होंने ‘कर्म के महत्त्व’ का पुनः प्रतिपादन किया। गुजरात और राजस्थान में जैन धर्म पर्याप्त रूप से लोकप्रिय था। जैन आचार्य ‘अमितगति’ ( ११वीं शताब्दी ) ने जोर देकर कहा कि जाति का निर्धारण आचरण से होता है, न कि जन्म या वंश से। बौद्ध ग्रंथ ‘लटकमेलक’ जाति-प्रथा और अस्पृश्यता की निंदा करता है। शाक्त-तांत्रिक और सिद्ध सम्प्रदायों ने जाति-प्रथा का विरोध किया है। इस काल के चार्वाक भी जाति-पाँति के विरोध में पीछे नहीं रहे। दक्षिण में आलवार और नायनार भक्त कवियों का प्रादुर्भाव इसी काल में हुआ जोकि मध्यकाल में उत्तर भारत पहुँच कर एक विराट आन्दोलन लेने वाली थी। दक्षिण कमें ही लिंगायत सम्प्रदाय के ‘आचार्य बासव’ मानव मात्रा समता पर बल दिया। लक्ष्मीधर भट्ट कृति ‘कृत्यकल्पतरु’ से ज्ञात होता है कि सभी जातियों के लोग तीर्थयात्रा करते थे और साथ इकट्ठा हो पुराणों का श्रवण करते थे।

बी॰एन॰एस॰यादव की कृति ‘Society and Culture in Northern India in the twelve Century’ में यह विचार व्यक्त किया है कि जाति-पाँति के विरुद्ध जो आवाजें १२वीं शताब्दी तक प्रबल हुई उसके पीछे निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में सुधार प्रमुख कारण था।

बदलते नये सामाजिक परिवेश के कारण पूर्व-मध्य काल में सामाजिक कर्त्तव्यों का नये सिरे से निर्धारण किया गया।

  • पराशर स्मृति ( ६०० – ९०० ई॰ ) में कृषि को ब्रह्मणों का सामान्य वृत्ति बताया गया है। हालाँकि इससे पूर्व यह उनका मात्र ‘आपद्धर्म’ ही था। पराशर स्मृति के टीकाकार माधवाचार्य ( १३०० – १३८० ई॰ ) ने कहा कि कलियुग में आपद्धर्म ही सामान्य धर्म बन जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि करना या कराना शुरू कर दिया था।
  • इस काल के क्षत्रिय वर्ण दो भागों में बँटे थे – एक, शासन व सैन्य वृत्ति वाले और द्वितीय, कृषि करने वाले। पराशर स्मृति भी क्षत्रियों की सामान्य वृत्ति कृषि को बताती हैं। यद्यपि बृहद्धर्म पुराण में ब्राह्मणों की पूजा को क्षत्रिय के प्रमुख कर्तव्यों में रखा गया है।
  • इस काल में वैश्य व शूद्र दोनों निकट आ गये। पराशर स्मृति में ‘कृषि, वाणिज्य और शिल्प’ को दोनों की वृत्ति बताया गया है।
  • यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि इस काल में ‘कृषि’ को सभी वर्णों की सामान्य वृत्ति बताया गया है। यह समाज के कृषिमूलक स्वरूप का सूचक है जिसे विद्वानों ने सामान्तवाद के संकेत के रूप में देखा है।

जो भूमि अनुदान मौर्योत्तर काल में शुरू हुआ था ( भूमि अनुदान का प्राचीनतम् अभिलेखीय साक्ष्य सातवाहनों के समय का है ) वह इस समय तक एक सर्वमान्य प्रथा सी बन गयी थी। इन प्रभूत भूमि अनुदानों से जोकि दाता के शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार असमान होते थे, के कारण नये वर्गों का उदय हुआ जिनके लिए परम्परागत वर्ण व्यवस्था में स्थान देने के लिए व्यवस्थाकारों विधान किये। भूवनदेव कृति ‘अपराजितपृच्छा’ ( १२वीं शताब्दी ) में ग्रामों के अधिकार के आधार पर सामन्तों की श्रेणीयों का उल्लेख किया गया है –

  • महामण्डलेश्वर – एक लाख ग्राम
  • माण्डलिक – पचास हजार ग्राम
  • महासामन्त – बीस हजार ग्राम
  • सामन्त – दस हजार ग्राम
  • लघु सामन्त – पाँच हजार ग्राम
  • चतुरांशका – एक हजार ग्राम

इसके अलावा ५०, २०, ३, २ और १ ग्राम के अधिकार वाले सामन्तों का भी उल्लेख मिलता है। ‘चतुरांशका’ छोटे राजा थे और उनके नीचे ‘राजपुत्रों’ की गणना होती थी जोकि ग्राम-प्रमुख होते थे। सामन्त श्रेणी में मात्र क्षत्रिय वर्ण सम्मिलित नहीं थे अपितु इसमें सभी वर्ण समाहित थे। अन्य वर्णों व जातियों को भी प्रशासनिक व सैनिक सेवा के लिए वेतन के रूप में भूमि दी जाती थी। इस समय कारीगरों, व्यापारियों को भी सामन्ती उपाधियाँ दी जाती थीं; जैसे – ठाकुर, राउत, नायक, रणक्षेत्र आदि।

पूर्व-मध्य काल में तीन प्रमुख जातियों का उद्भव मुख्य घटना है –

  • एक – कायस्थ जाति
  • द्वितीय – महत्तर
  • तृतीय – राजपूतों का उद्भव

कायस्थ :

याज्ञवल्क्य स्मृति ( गुप्तकाल ) में सर्वप्रथम कायस्थ वर्ग के अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। जबकि सबसे पहले ‘उशनस स्मृति’ ( गुप्तोत्तर काल ) में कायस्थों का एक जाति के रूप में विवरण मिलता है। पूर्व-मध्य कालीन लेखों में विभिन्न कायस्थ कुलों का भि विवरण मिलने लगता है; जैसे – गौड़, माथुर, श्रीवास्तव, निगम आदि।

कायस्थ पदाधिकारियों का आविर्भाव भूमि-सम्बन्धी अभिलेखों को सुरक्षित रखने के लिए हुआ था। इस वर्ग के अधिकारियों में पहले उच्च वर्ग के शिक्षित लोगों को नियुक्त किया जाता था। कालान्तर में ये वर्ग एक जाति के रूप में संगठित हो गये। इन्हें हम पारम्परिक लिपिक या लेखक वर्ग भी कह सकते हैं। कुछ क्षेत्रों में तो इन्हें ‘ठाकुर’ की उपाधि दी जाती थी।

शास्त्रकारों के समक्ष इनकी सामाजिक स्थित को लेकर द्विविधा उत्पन्न हो गयी। इसलिए कायस्थों इसकाल के शास्त्रकारों ने द्विज और शूद्र दोनों ही वर्णों में स्थान दिया है।

ब्राह्मणों से कायस्थों का विरोध भी जगजाहिर था क्योंकि एक ओर वे शिक्षित होने कारण बड़े-बड़े प्रशासनिक पदों पर नियुक्त होने लगे तो दूसरी ओर भूमि अधिकार सम्बन्धी अभिलेख कायस्थों के पास सुरक्षित होते थे। अतः प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति का एकाधिकार ब्राह्मणों के हाथों से  जाता रहा और भूमि अनुदान के अभिलेखों के लिए हो सकता है कि कायस्थों से ब्राह्मणों को परेशानी का सामना करना पड़ा हो। इसलिए कुछ ब्राह्मण लेखकों ने कायस्थों को ‘प्रजा-पीड़क’ तक कहा है। कल्हण कृति राजतरंगिणी में कायस्थ जाति की निंदा की गयी है।

महत्तर :

उत्तरी भारत में ग्राम शासन के पदाधिकारियों ‘महत्तर’ का एक विशिष्ट वर्ग संगठित हो गया। ये ही आजकल की महतो, मेहता, मल्होत्रा जैसी जातियाँ हैं।

वैश्य वर्ण का पतन और शूद्र वर्ण का उत्थान :

पूर्व-मध्य काल में वैश्यों की स्थित में गिरावट आयी तो वहीं शूद्रों की स्थित में सुधार आया। ये परिवर्तन ऐसा था कि वैश्य व शूद्र वर्णों को एक साथ समेट लिया गया। वैश्य वर्ण की स्थिति में गिरावट का कारण मुख्य रूप से व्यापार व वाणिज्य में गिरावट ( आंतरिक व बाह्य दोनों ) माना जाता है। दूसरी ओर शूद्रों ने कृषक के रूप में वैश्यों का स्थान ले लिया था और उनकी स्थित में सुधार आया। अल्बेरुनी को यदि प्रमाण माना जाये तो ११वीं शताब्दी तक वैश्यों को वेदपाठ के अधिकार भी जाते रहे। व्यापार और वाणिज्य के पतन के कारण व्यापारिक व व्यावसायिक श्रेणियाँ महत्वहीन हो गयीं।

  • पराशर स्मृति में वैश्यों व शूद्रों दोनों के लिए समान धर्म के रूप में कृषि, वाणिज्य और शिल्प का उल्लेख हुआ है ( वैश्यः शूद्रस्तथा कुर्यात् कृषिवाणिज्य शिल्पकम् )।
  • विष्णुपुराण कहता है कि कलियुग में वैश्य कृषि और व्यापार छोड़ देंगे और दासकर्म व कलाओं से अपनी जीविका का निर्वाह करेंगे।
  • स्कंदपुराण कहता है कि कलियुग में व्यापारियों का पतन होगा। इसमें से कुछ तेली व अनाज फटकने वाले होंगे और अन्य राजपुत्रों पर आश्रित होकर रहेंगे।
  • विष्णुपुराण और वायुपुराण में तो यह तक घोषणा कर दी गयी कि कलियुग में वैश्य वर्ण का पतन हो जायेगा।
  • अलबेरुनी वैश्य और शूद्रों की स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं पाता है।
  • पूर्व-मध्य काल में आने वाले अरब यात्री ‘इब्न खुर्दद्व’ और ‘अल इद्रिसी’ ने तो वैश्य वर्ण का उल्लेख तक नहीं किया है।

पूर्व-मध्य काल में शूद्रों की स्थिति में सुधार के कई कारण थे। एक तो इस काल तक कृषि को शूद्रों व वैश्यों दोनों का समाना कार्य माना गया ( पराशर स्मृति, देवल स्मृति )। इस काल में सामन्ती प्रवृत्ति पूर्ण रूप से उभरकर आयी। भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण सामन्तों और भू-स्वामियों को भूमि पर कृषि कार्य हेतु बड़ी संख्या में कृषकों की आवश्यकता हुई। इस आवश्यकता की पूर्ति शूद्र वर्ण ने की। कृषि कर्म से शूद्रों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।

इस तरह कृषि कर्म वैश्यों के हाथ से सामान्यतः जाता रहा। यही कारण है कि पूर्व-मध्यकाल के लेखक वैश्यों का उल्लेख मात्र व्यापारी के रूप में करते हैं। ९वीं शताब्दी के जैन विद्वान ‘जिनसेन’ वैश्यों को वणिज वर्ग कहते हैं। १३वीं शताब्दी की रचना बृहद्धर्म पुराण और देवीभागवत तो वैश्व वर्ण के लिए व्यापार-वाणिज्य को उनकी एकमात्र वृत्ति बताती है।

अतः स्पष्ट है कि अब वैश्य कृषि के अधिकारी नहीं रहे। उनमें से कुछ निम्न श्रेणी के लोग शूद्र वर्ण से संयुक्त हो गये।

परन्तु जब ११वीं-१२वीं शताब्दी में पश्चिम एशिया में मुस्लिम शासकों ने बड़े साम्राज्य स्थापित किये और उत्तरी भारत में भी बड़े-बड़े राज्य स्थापित हुए तो व्यापार और वाणिज्य को बल मिला। ऐसी परिस्थिति में वैश्य वर्ण की स्थिति में सुधार आया। गुजरात में तो इनकी गणना सामन्तों में की जाती थी। बंगाल के व्यापारी इतने सम्पन्न थे कि उन्होंने १२वीं शताब्दी में सेन व गौड़वेशी शासकों से संघर्ष तक किया था।

जातियों और उप-जातियों की संख्या में वृद्धि :

पूर्व-मध्य काल की एक प्रमुख विशेषता है जातियों व उप-जातियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि। परम्परागत चार वर्ण तो सूत्रकाल में जन्माधारित हो गये थे परन्तु इस काल में प्रत्येक वर्ण में जातियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई।

परम्परागत वर्ण अव्यवस्था से सर्वाधिक प्रभावित ब्राह्मण हुए। ब्राह्मण पहले गोत्र, प्रवर और शाखाओं में विभाजित थे। इसके अलावा वृत्ति, शिक्षा, धर्म, शुचिता, क्षेत्र, स्थान आदि के आधार पर भी ब्राह्मणों में भेद किया जाता था। बढ़ते भूमि-अनुदानों ने स्थानीयता को दृढ़ करने में योगदान दिया। इस स्थानीयता ने ब्राह्मणों में जातियों व उप-जातियों को बढ़ावा दिया। स्थान-विशेष के आधार पर ब्राह्मणों की विभिन्न जातियाँ विकसित हो गयीं। जैसे –

  • राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय कालीन अभिलेख ( ९२६ ई॰ ) में उत्तर भारत के ब्राह्मणों के ५ वर्गों का उल्लेख है – सारस्वत्, कान्यकुब्ज, उत्कल, मैथिल और गौड़।
  • बंगाल के ब्राह्मणों के दो शाखाओं का विवरण मिलता है – राढ़ीय और वारेन्द्र।
  • परवर्ती मध्यकाल तक ‘वारेन्द्र’ ब्राह्मणों की ५६ उप-जातियों का उल्लेख मिलता है।
  • कुछ बंगाली ब्राह्मणों के नाम ग्रामों के नाम पर निकले; जैसे – बन्दोपाध्याय, मुखोपाध्याय, चट्टोपाध्याय आदि।
  • सभाशृंगार में ब्राह्मणों की ३५ शाखाओं का उल्लेख मिलता है।
  • हेमचन्द्र ने कलिंग, सौराष्ट्र, अवन्ति और काशी के ब्राह्मणों का उल्लेख किया है।
  • अलबेरुनी ने मग या शाकद्वीपी ब्राह्मणों का उल्लेख किया है जो ईरान से शकों के साथ भारत आये थे। ये सूर्य की पूजा करते थे।

कुछ स्थान के ब्राह्मण स्वयं को सबसे पवित्र मानते थे; जैसे – अन्तर्वेदी, श्रीमाल, आनन्द नगर ( नागर ) आदि के ब्राह्मण।

इसी तरह कुछ स्थानों के ब्राह्मणों को अपवित्र ( पाप-देशाः ) माना जाता था; जैसे – सौराष्ट्र, सिन्ध, दक्षिणापथ, कलिंग आदि। इन पाप-देशाः ब्राह्मणों के साथ खान-पान और विवाह को निषिद्ध किया गया था।

इसी तरह धार्मिक व दार्शनिक विचारधारा के आधार पर भी ब्राह्मणों की कई उप-जातियाँ बन गयीं थी।

राजपूतों का आविर्भाव :

क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत ‘राजपूत’ नामक स्वाभिमानी, वीर व साहसी जाति का आविर्भाव पूर्व-मध्य काल की एक प्रमुख घटना है। १२वीं शताब्दी तक ३६ राजपूत जातियों का उल्लेख मिलने लगता है।

राजपूतों की उत्पत्ति के विद्वानों ने विभिन्न कारण बतायें हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राजपूतों के विभिन्न जातियों की उत्पत्ति में परम्परागत भारतीय वर्णों और विदेशी जातियों से हुई। इसमें परम्परागत क्षत्रिय वर्ण के अतिरिक्त अन्य वर्ण भी सम्मिलित थे। जिन्होंने राजसत्ता पायी वो शासक वर्ग में सम्मिलित होते गये।

इसी तरह ‘मत्स्यपुराण’ में ‘ब्रह्मक्षत्र’ परम्परा का उल्लेख हो मिलता है जिसको विद्वानों ने इस तरह व्याख्यायित किया है कि जो ब्राह्मण राजसत्ता में आये वो शासक वर्ग में समाहित हो गये। इस तरह ब्रह्मक्षत्र परम्परा से भी राजपूतों की उत्पत्ति हुई।

अरबी यात्री ‘ईब्न खुर्दद्व’ ( १०वीं शताब्दी ) दो तरह के क्षत्रियों का उल्लेख करता है – सत्क्षत्रिय और क्षत्रिय।

१२वीं शताब्दी में हम क्षत्रिय कुलीनों और सामन्तों की विभिन्न श्रेणियों का उल्लेख पाते हैं – राजपुत्र, सामन्त, महासामन्त, माण्डलिक, महामाण्डलिक आदि। इस काल में ‘राजपूत्र’ शब्द भू-सम्पन्न कुलीनवर्ग ( Landed aristocracy ) थे।

भारतीय इतिहास में ७वीं से १२वीं शताब्दी का समय ‘राजपूत काल’ के नाम से प्रसिद्ध है। वास्तव में पूर्व-मध्य काल को राजपूत काल के नाम से जाना जाता है।

कुछ विद्वान इसे अंधकार काल ( dark age ) कहा है क्योंकि –

  • इसी समय सामन्तवाद अपने चरम पर था जिसके फलस्वरूप शासक की शक्ति का ह्रास हुआ।
  • विकेन्द्रीकरण और स्थानीयता की भावना को बढ़ावा मिला।
  • व्यापारिक क्रियाकलापों में गिरावट आयी।
  • धर्म के क्षेत्र में अवसान के लक्षण दिखायी देते हैं।
  • सती-प्रथा और जौहर-प्रथा जैसी कुप्रथायें समाज में प्रचलित हो गयीं।

राजपूत शब्द संस्कृत के राजपुत्र का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल में राजपुत्र शब्द का प्रयोग किसी जाति के लिए न होकर क्षत्रिय राजकुमारों या राजवंशियों के लिए प्रयुक्त होता था।

  • ऋग्वेद में हमें सबसे पहले ‘राजन्य’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • जबकि अर्थशास्त्र में ‘राजपुत्र’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • मौर्योत्तर काल में ‘क्षत्रिय’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • अर्थशास्त्र ( मौर्यकाल ), अश्वघोष की रचनाओं ( मौर्योत्तर काल ), बाणभट्ट कृति हर्षचरित व कादम्बरी आदि में राजपुत्र शब्द का प्रयोग किया गया है।
  • जबकि हुएनसांग ( युवानच्वांग ) शासक वर्ग के लिए क्षत्रिय शब्द प्रयोग करता है, राजपूत नहीं।
  • अरब आक्रमण के बाद ‘राजपूत’ शब्द का प्रयोग मिलने लगता है। दूसरे शब्दों में ‘राजपूत’ शब्द का एक जाति या वर्ण के रूप में प्रचलन मुस्लिमों के भारतीय उप-महाद्वीप पर निरंतर आक्रमण के बाद से प्रचलित हुआ।
  • नाडौल के चाह्मानों के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि हालाँकि ‘राजपुत्र’ शब्द का अर्थ ‘राजा का पुत्र’ ही था, फिरभी इस शब्द में क्रमिक रूप से परिवर्तन होता गया क्योंकि अब इसका प्रयोग ऊँची राजनीतिक स्थिति की ओर नहीं बल्कि एक वंशज समूह के लिए किया जाने लगा। इस तरह ‘राजपुत्र’ का व्यापक अर्थ था – ‘राजा के वास्तविक पुत्र से लेकर निम्नतम श्रेणी का भू-स्वामी।’
  • कुमारपालचरित, वर्णरत्नाकर आदि में ३६ राजपूत कुलों की सूची मिलती है। राजतरंगिणी में भी ३६ राजपूत कुलों का वर्णन है। परन्तु दोनों की राजपूत सूचियों में अंतर है।

आगे चलकर जेम्स टॉड ने राजपूत शब्द का विस्तृत उल्लेख किया और उनका इतिहास लिखा। राजपूत शब्द का प्रयोग सबसे पहले ‘कर्नल टॉड’ ने अपनी कृति ‘Annals and History of Rajasthan’ में किया है। राजस्थान के प्रमुख इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने अपनी कृति ‘History of Rajasthan’ में राजपूत शब्द का प्रयोग किया है।

राजपूतों के उद्भव के प्रश्न में तिथिक्रम की दृष्टिकोण से ‘गुर्जर-प्रतिहार’ सबसे पहले आते हैं और इनकी राजनीतिक भूमिका प्रभावशाली रही।

ये राजपूत कहाँ से आये इसपर मतभेद है, इनमें से कुछ मत निम्न हैं –

  • विदेशी उद्भव का मत – इस मत के समर्थक कर्नल जेम्स टॉड, विंसेट स्मिथ, विलियम क्रुक, भंडारकर, ईश्वरी प्रसाद आदि हैं।
    • टॉड राजपूतों की उत्पत्ति प्राचीन शीथियन-कुषाण आदि जातियों से मानते हैं। कर्नल टॉड का कहना है कि शकों और राजपूतों के रीति-रिवाज ( सूर्य-पूजा, अश्वमेध यज्ञ आदि ) मिलते जुलते हैं।
    • कनिंघम गुर्जर-प्रतिहारों की उत्पत्ति ‘यू-ची’ जाति ( कुषाण ) से मानते हैं। इस सम्बन्ध में ये ‘ब्रोच गुर्जर ताम्रपत्र’ ( ९७८ ई॰ ) का साक्ष्य देते हैं।
      • परन्तु इस ताम्रपत्र की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।
    • कुछ विद्वानों का कहना है कि ‘गुर्जर’ हुणों के साथ भारत आये थे।
      • परन्तु यदि गुर्जर हुणों के साथ आये होते तो तत्कालीन साहित्यों में इसका उल्लेख अवश्य मिलता।
    • स्मिथ भी इनकी उत्पत्ति शक-कुषाणों से मानते हैं।
    • भंडारकर, ईश्वरी प्रसाद आदि भी इस मत से सहमत हैं।
  • प्राचीन क्षत्रियों से – गौरी शंकर ओझा।
  • श्रीराम के भाई लक्ष्मण से – प्रतिहार अभिलेखों में अपनी उत्पत्ति लक्ष्मण से बतायी गयी है। इसमें कहा गया है कि प्रतिहार शब्द का अर्थ द्वारपाल है जिस प्रकार वनवास के समय में लक्ष्मण ने राम की रक्षा राक्षसों से द्वारपाल के रूप में की उसी तरह उन्होंने इस देश की रक्षा अरबों से की।
  • अग्निकुल सिद्धान्त – चन्द्रवरदायी कृति पृथ्वीराजरासो।
    • प्राचीन ऋषियों वशिष्ठ, गौतम, कौशिक आदि ने माउण्ट आबू पर्वत पर एक यज्ञ का आयोजन किया और उससे उन्होंने ३ राजपूत कूल – ‘प्रतिहार’, ‘चालुक्य’, ‘परमार’ – उत्पन्न हुए। बाद में उन्होंने पुनः यज्ञ किया तब ‘चाह्वान’ या ( ‘चाह्मान’ या ‘चौहान’ ) उत्पन्न हुआ।  इस तरह अग्निकुल सिद्धान्त से ४ राजकुल वंश – प्रतिहार, चालुक्य, परमार और चाह्वान उत्पन्न हुए।
    • आगे चलकर कुछ अन्य पुस्तकों में भी इस कथानक का उल्लेखमिलता है; जैसे – पद्मगुप्त कृति नवसाहसांकचरित, सूर्यमल्ल कृति वंश भाषिक आदि।
    • अग्निकुल सिद्धान्त का विशेष महत्त्व है। अग्नि पवित्रता का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि क्षत्रियों के अतिरिक्त कुछ विदेशी जातियों को भी अग्नि के माध्यम से पवित्र कर राजपूत वर्ग में शामिल कर लिया गया।

पूर्व-मध्यकाल में स्थान और वृत्ति के आधार पर अनेक वैश्य उप-जातियाँ बनती चली गयी। गुजरात और राजस्थान में वैश्यों की अनेक शाखाएँ थीं जो कालांतर में जातियाँ बन गयीं और ये स्थान विशेष के नाम पर गठित हुई थीं – श्रीमाल, प्राग्वाट, उपकेश, धर्कट, पल्लिवाल, मोढ़, गुर्जर, नागर, दिशावाल, दुम्बद आदि। कुछ वैश्यों की जातियाँ वृत्ति के आधार पर गठित हुई थीं; जैसे – सुवर्णवणिक, औषधिक आदि। वैश्यों में भी कुलीन और निर्धन वर्ग थे। निर्धनों को शूद्रों के साथ समेट लिया गया था।

पूर्व-मध्यकाल में सर्वाधिक संख्या शूद्रों की थी। उनकी संख्या में इस काल में सर्वाधिक वृद्धि हुई। इस काल के सामाजिक परिवर्तनों से शूद्र वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए। परम्परागत वृत्ति के अलावा विभिन्न शिल्पों के आधार पर जातियाँ संगठित होती गयीं। हेमचन्द्र कृति ‘अभिधानचिन्तामणि’ और ‘देशीनाममाला’ एवं यादवप्रकाश की ‘वैजयन्ती’ नामक रचनाओं में शूद्र जातियों की एक लम्बी सूची दी गयी है; जैसे – शिल्पी, लुहार, बढ़ई, मोची, तेली, सोनार, बुनकर, धोबी, दर्जी, मालाकार, मदिरा-मांस विक्रेता, जादूगर, शिकारी, नर्तक इत्यादि पेशेवर शूद्र जातियाँ थीं। अम्बष्ठ और रथकार जैसी संकर जातियाँ थीं। किरात, भील जैसी जनजातियों का उल्लेख अमरकोश और अभिधानचिन्तामणि में शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि हजारों संकर जातियों की उत्पत्ति वैश्य जाति की स्त्रियों और निम्न जाति के पुरुषों के संसर्ग से हुआ। स्कंदपुराण में शूद्रों की १८ उप-जातियों का उल्लेख मिलता है – शिल्पी, बढ़ई, कुम्हार, वार्धिक, चित्रक, सूत्रक, धोबी, गच्छक, जुलाहा, तेली, चमार, शिकारी, बाजा बजाने वाले, कौल्हिक, मछुआ, औनामिक और चाण्डाल। इनका विभाजन उत्तम, अधम और अन्त्यज तीन वर्गों में किया गया है। वर्णरत्नाकर नामक रचना में आदिवासी जातियों की एक लम्बी सूची मिलती है। हेमचन्द्र ने शक, यवन, रोमक, मुरुण्ड, चीन, हूण इत्यादि विदेशी जातियों और शबर, भील, पुलिन्द, किरात, खस, गोंड, द्रविड़ आदि स्वदेशी जातियों को म्लेच्छ बताया गया है। पूर्व-मध्यकाल में अस्पृश्य जातियों की संख्या बहुत वृद्धि हुई। इनमें मुख्य रूप से पिछड़ी जनजातियों के लोग सम्मिलित थे। प्रो॰आर॰एस॰शर्मा की कृति ‘पूर्व-मध्यकालीन भारत में सामाजिक परिवर्तन’ में बताया – ‘चूँकि पूर्व मध्य-काल में बहुत बड़े पैमाने पर ब्राह्मणीकरण हुआ, अतः अछूत जातियों की संख्या में पर्याप्त रूप से बृद्धि हुई।’ अछूतों को अन्त्यज कहा जाता था। ये अन्त्यज ग्राम और नगरों से बाहर रहते थे। अलबेरुनी ने धोबी, मोची, मछुआ, माझी, शिकारी, बुनकर आदि को अन्त्यज कहा है। विज्ञानेश्वर ने धर्मशास्त्रों में उल्लिखित परम्परागत ७ अन्त्यजों के साथ-साथ ७ अन्त्यावसायिनों का भी उल्लेख किया गया है और ये अन्त्यजों से भी हीन माने गये थे। १३वीं शताब्दी के लेखक हेमाद्रि ने ७ अन्त्यजों में ९ और जातियों को जोड़ दिया – तक्षक, स्वर्णकार, शौचिक, तिलयंत्री, सूत, चक्री, ध्वजा, नापित और लोहार।

पूर्व-मध्यकाल में अनेक पेशेवर जातियों को अस्पृश्य जाति घोषित कर दी गयी थीं। अस्पृश्यता सम्बन्धी नियमों को इस युग में और विस्तृत बना दिया गया था। अछूतों में चाण्डाल सबसे प्रमुख थे और उनको उनके आचरण के कारण अपवित्र माना जाता था।  डोम और चर्मकार भी १२वीं शताब्दी तक अस्पृश्य माने जाने लगे थे। हेमचन्द्र कृत देशीनाममाला से सूचित होता है कि बाहर निकलते समय लकड़ी की छड़ी पीटते रहते थे ताकि लोग उनके सम्पर्क से बच सकें। इसकाल में छुआ-छूत की भावना इतनी दृढ़ हो चुकी थी कि अपरार्क और विज्ञानेश्वर जैसे व्यवस्थाकारों ने यहाँ तक कह दिया कि चाण्डाल की छायामात्र से ही व्यक्ति अपवित्र हो जाते थे। दूसरी ओर मेधातिथि और कुल्लूकभट्ट हैं, जो ऐसा नहीं मानते हैं। अब तक हिन्दू समाज का एक बड़ा भाग अस्पृश्य मान लिया गया था। हद तो तब हो गयी जब इसकाल में स्मृतिकारों ने वाममार्गी शाक्त और ब्राह्मणेतर धर्मों ( बौद्ध, जैन, चार्वाक आदि ) को अस्पृश्य घोषित कर दिया गया। बृद्धहारीत में तो शैवों को भी अस्पृश्य घोषित कर दिया।

पूर्व-मध्यकाल में शिल्प ( craft ) को जाति का आधार मान लिया गया था। इसकाल के प्रथम चरण में व्यापार-वाणिज्य के पतन के कारण शिल्पकार स्थान विशेष में बँधकर जाति विशेष में विकसित हो गये। विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों भी अनेकानेक उप-सम्प्रदायों में बँटने से भी जातियों में वृद्धि होती गयी।

पूर्व-मध्यकाल तक हिन्दू समाज की जाति सम्बन्धी विघटन की प्रक्रिया पूर्णता ले चुकी थी। हमें स्पष्टतः सामाजिक संगठन में ह्रास दिखते हैं। वर्ण और जातियाँ स्व-धर्म ( कर्त्तव्य ) से विमुख हो गये थे। सामन्ती प्रवृत्ति हावी हो चुकी थी। शौचाचार और अस्पृश्यता की भावना पहले की अपेक्षा अत्यधिक प्रबल हो चुकी थी।

इस्लाम के आगमन से हिन्दू समाज संकीर्ण एवं अंतर्मुखी होता गया। सामाजिक संगठन सुधारात्मकता को न अपनाकर प्रतिरक्षात्मक हो गया था।

पूर्व-मध्यकाल के भारतीय समाज की सहिष्णुता और ग्रहणशीलता में कमी आयी थी। कल्हण कृति राजतरंगिणी में ६४ उप-जातियों का उल्लेख मिलता है। अछूत जातियाँ गाँव व नगर से बाहर रहती थीं। इस काल में आविर्भूत राजपूत जातियाँ अत्यंत उच्च कोटि के योद्धा थे। उनमें आत्मसम्मान, साहस, वीरता व देशभक्ति की भावनाएँ कूट-कूटकर भरी थीं। वे अपने वचनपालन व शरणागत रक्षकों लिए प्रसिद्ध थे। साथ ही उनमें कुछ दुर्गुण भी थे; यथा – मिथ्याभिमान, अहंकार, व्यक्तिगत द्वेष भावना, संकीर्णता, पारस्परिक संघर्ष, एकता का अभाव आदि।

जाति और वर्ण में अंतर

जाति और वर्ण दोनों पृथक संस्था हैं। वर्ण मात्र चार हैं जबकि जातियाँ अनेक हैं। वर्ण परिवर्तन सरल था परन्तु जाति परिवर्तन कठिन है। वर्णों में परस्पर खानपान व विवाह हो सकते थे परन्तु जाति व्यवस्था में इसका निषेध किया गया है।

जाति और वर्ण व्यवस्था में अंतर

जाति प्रथा

वर्ण व्यवस्था

जाति शब्द ‘जन्’ शब्द से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – जन्म लेना।

जाति का निर्धारण जन्म से ही हो जाता है।

वर्ण शब्द संस्कृति के ‘वृ’ धातु से व्युत्पन्न हुआ है। जिसका शाब्दिक अर्थ है – वरण करना या चुनना। वर्ण शब्द के दो अर्थ हैं –

  • वृत्ति या व्यवसाय का चयन करना।
  • रंग।

ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग ‘रंग’ के अर्थ में हुआ है जहाँ आर्यों को श्वेत वर्ण का और दास-दस्युओं को कृष्ण वर्ण का कहा गया है।

कालान्तर में वर्ण शब्द ‘वृत्ति’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा और व्यवसाय या वृत्ति के आधार ( कर्म ) पर समाज चार वर्णों में बँट गया।

इस तरह वर्ण व्यवस्था ‘कर्म’ पर आधारित थी।

जातियाँ अनेक हैं। वर्ण मात्र चार हैं।
एक जाति से दूसरी जाति में संक्रमण अथवा जाति परिवर्तन कठिन है। वर्ण परिवर्तन सरल था।
एक जाति से दूसरी जाति में खान-पान और विवाह का निषेध है। वर्ण व्यवस्था में खान-पान और विवाह का कोई निषेध नहीं था।

जाति और वर्ग में अंतर

जाति और वर्ग दोनों पृथक संस्था हैं। वर्ग का निर्माण भिन्न-भिन्न व्यवसायों के आधार पर समाज में मनुष्यों के संगठित होने से होता है। वर्ग का जन्म और अन्तर्जातीय विवाह से कोई लेना-देना नहीं है। विभिन्न वर्गों के मध्य खानपान और विवाह का निषेध भी नहीं होता। जातियों के व्यवसाय प्रायः जन्म से निश्चित हो जाते हैं परन्तु वर्गों के व्यवसाय सामान्यतः परिवर्तित हो सकते हैं। किसी निम्न वर्ग का व्यक्ति अपनी योग्यता के बल से उच्च वर्ग में स्थान प्राप्त कर सकता है, दूसरी ओर जाति व्यवस्था में यह सम्भव नहीं है। इस तरह वर्ग विभाजन का आधार व्यवसाय है।

जाति और वर्ग में अंतर

जाति प्रथा

वर्ग व्यवस्था

व्यक्ति की जाति जन्म से ही निर्धारित हो जाती है।

इस तरह जाति-प्रथा का आधार जन्म है।

वर्ग का निर्माण विभिन्न व्यवसायों के आधार पर समाज में व्यक्तियों के संगठित होने से होता है।

दूसरे शब्दों में वर्ग-विभाजन का आधार व्यवसाय है।

जाति का जन्म और विवाह से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वर्ग का जन्म अथवा अन्तर्जातीय विवाह से कोई सम्बन्ध नहीं है।
जातियों के बीच खान-पान और विवाह का निषेध होता है।

दूसरे शब्दों में खान-पान और विवाह सम्बन्ध समान जाति में ही होते हैं।

विभिन्न वर्गों के बीच खान-पान और विवाह का निषेध नहीं होता है।
जाति के वृत्ति या व्यवसाय प्रायः सुनिश्चित होते हैं। वर्ग के व्यवसाय परिवर्तनशील होते हैं।
जाति परिवर्तन कदापि सम्भव नहीं है। निम्न वर्ग का व्यक्ति योग्यता और कार्यकुशलता के आधार पर उच्च वर्ग में संक्रमण कर सकता है।

 

जाति-प्रथा की प्रकृति : संरचनात्मक एवं संस्थानात्मक विशेषताएँ ( Nature of Caste System : Structural and Institutional Characteristics )

श्री कीथर ( Kethar ) ने जाति व्यवस्था की दो विशेषताओं का उल्लेख किया है :

  • जाति की सदस्यता मात्र उन लोगों तक सीमित है जो उस समूह की संतान है अर्थात् जाति की सदस्यता जन्म से निर्धारित होती है।
  • जाति के सदस्य कठोर नियमों से आबद्ध होते हैं। ये सदस्य जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं।

डॉ० धूर्वे ने जाति-प्रथा के संरचनात्मक एवं संस्थात्मक दोनों पक्षों को पर विचार करते हुए कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है जोकि निम्नलिखित है –

  • समाज का खंडात्मक विभाजन ( Society’s Segmental Division ) – जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को विभिन्न समूहों या खंडों में बाँट दिया। प्रत्येक समूह की स्थिति, पद, स्थान और कार्य तक निश्चित कर दिये गये हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० धूर्वे कहते हैं कि ‘जाति-व्यवस्था से आबद्ध समाज में सामुदायिक भावना संकुचित या सीमित होती है एवं समग्र समुदाय के प्रति न होकर यह एक जाति के सदस्यों का पहले अपने जाति के प्रति नैतिक कर्तव्य बोध होता है।’ जाति का सदस्य जातिगत नियमों से आबद्ध होते हैं। उसका प्रथम कर्तव्य अपनी जाति के प्रति होती है। यदि वह किसी जातिगत नियम का उल्लंघन करता है तो दण्ड का विधान भी होता है यहाँ तक कि उसे जाति-बहिष्कृत भी किया जा सकता है। इस अर्थ में जाति के सदस्यों का जाति से इतर सम्पूर्ण समुदाय के प्रति भावना सीमित हो जाती है।
  • संस्तरण ( Hierarchy ) – जाति-व्यवस्था में विभिन्न खण्डों में ऊँच-नीच की एक सोपानिकी या पदक्रम या संस्तरण होता है। इस पदक्रम में प्रत्येक जाति का स्थान जन्म से निर्धारित हो जाता है। इस सोपानिकी में सबसे ऊपर ब्रह्मण वर्ण की जातियाँ आती हैं और सबसे निचले पायदान पर अस्पृश्य जातियाँ। इन दोनों संस्तर के मध्य असंख्य जातियाँ हैं। एक ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रत्येक जाति अपने को ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्नशील रहती है और किसी न किसी जाति को अपने से नीचा दिखाने में। इस क्रम में वे अपने से उच्च जाति के तौर-तरीकों को अपनाकर या किसी उच्च जाति से अपना सम्बन्ध ( जैसे आदि पुरुष मानकर ) बताकर स्वयं की जाति के स्थान को सामाजिक पदसोपान में ऊँचा उठाने को प्रयासरत रहते हैं।
  • भोजन पर सामाजिक प्रतिबंध ( Social Restriction on Feeding ) – जाति-व्यवस्था के प्रमुख विशेषताओं में से एक है – खान-पान सम्बन्धी प्रतिबंध। किसके साथ भोजन करना है और किसके साथ नहीं यह भँलीभाँति निर्धारित होता है। किसके हाथ से भोजन-पानी किया जायेगा और किसके साथ नहीं। इस सम्बन्ध में एक सामान्य नियम यह है कि उच्च जाति के हाथ से उससे निम्न जाति के लोग भोजन-पानी ग्रहण कर सकते हैं। सबसे अधिक प्रतिबंध अस्पृश्य जातियों पर है। इस सम्बन्ध में भोजन के प्रकार के आधार पर भी प्रतिबंध बनाये गये हैं –
    • फलाहार – फल, दूध, दूध से बने पदार्ध।
    • पक्का भोजन – तेल या धृत में तले हुए खाद्य पदार्थ; जैसे – पूड़ी, कचौड़ी इत्यादि।
    • कच्चा भोजन – जल में उबालें या बनाये गये भोज्य पदार्थ; जैसे – चावल, दाल, रोटी इत्यादि।
      • प्रत्येक जाति में उपर्युक्त तीन प्रकार के भोजन से सम्बंधित नियम मिलते हैं।
      • बंगाल, गुजरात और दक्षिण भारत में इस तरह ( तीन तरह का भोजन विभाजन ) का विभाजन नहीं मिलता है।
    • माँसाहारी भोजन के सम्बन्ध में भी विभिन्न नियम-विनियम मिलते हैं।
      • माँसाहार को शाकाहार से निकृष्ट माना जाता है।
      • सामान्यतः उत्तर भारत में ब्राह्मण मांसाहार वर्जित है। परन्तु दक्षिण भारत में ऐसा नहीं है।
      • सामान्यतः क्षत्रिय या राजपूतों से शिकार व माँसाहार सम्बद्ध माना जाता है।
      • माँसाहार में भी पदानुक्रम पाया जाता है। जैसे सूकर का माँस निकृष्ट माना जाता है।
    • इसी तरह पानी पीने के सम्बन्ध में भी नियम-विनियम निर्धारित किये गये हैं।
  • विभिन्न जातियों की सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार ( Social and Religious Disabilities and Privileges of the Different Sections ) – जाति-व्यवस्था में कुछ जातियों को विशेषाधिकार जन्म से ही विशेषाधिकार प्राप्त हैं तो कुछ पर निर्योग्यताएँ लाद दी गयी हैं।
    • जातिगत पदसोपान में उच्च जाति से निम्न जाति तक क्रमशः यह विशेषाधिकार घटता जाता है।
    • सबसे अधिक विशेषाधिकार ब्राह्मण जातियों को तो सबसे कम या यूँ कहें न के बराबर अस्पृश्य जातियों को प्राप्त है।
  • व्यवसायों के अप्रतिबंधित चुनाव का अभाव ( Lack of Unrestricted Choice of Occupations ) – सामान्यतः जाति विशेष किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ गया है। जैसे – ब्राह्मण जाति के लोग पुरोहिताई तो चर्मकार लोग पनही ( जूते, चप्पल ) बनाने के व्यवसाय से जुड़े हैं। सामान्यतः व्यवसाय परिवर्तन ठीक नहीं माना जाता है। जाति प्रथा में कुछ व्यवसायों को अच्छा तो कुछ को निकृष्ट मानकर इसका भी पदानुक्रम निर्धारित कर दिया गया। फिरभी कुछ व्यवसाय ऐसे थे जो सबके लिए खुले थे; जैसे – कृषि कार्य, व्यापार, सैनिक कर्म आदि। इस सम्बन्ध में अनेक अपवाद भी मिलते हैं। जैसे – गुप्तकालीन कृति मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि व्यवसाय परिवर्तन होते थे। जैसा कि श्री बेन्स ने लिखा है कि ‘जातिगत व्यवसाय परम्परागत होता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी जातियाँ अपने जातिगत व्यवसाय से ही जीविका चला रही हैं।’
  • वैवाहिक प्रतिबंध ( Marriage Restriction ) – जाति व्यवस्था में विवाह सम्बन्धित विधि-निषेध सबसे प्रमुख है। वेस्टरमार्क ने इसको ‘जाति-प्रथा का सार’ कहा है। जाति से बाहर विवाह नहीं होता है। जातियाँ उपजातियों में विभाजित हैं। कौन सी उपजाति का वैवाहिक सम्बन्ध किस उपजाति में होगा यह निर्धारित कर दिया गया है। जैसे समान गोत्र विवाह नहीं हो सकता क्योंकि वे समान आदिपुरुष की संतति माने जाते हैं। इसी तरह लड़की का विवाह अपने से उच्च उपजाति में किया जाता है। इस सम्बन्ध में भौगोलिक, सांस्कृतिक व भाषाई सुविधाओं का भी ध्यान रखा जाता है। परन्तु इन विधि-निषेधों का अतिक्रमण सदैव होता रहा है। समाज में अनुलोम और प्रतिलोम विवाह होते रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न जातियों की संख्या में वृद्धि होती गयी।

जाति प्रथा की विशेषताएँ

  • एक जाति का दूसरी जाति के साथ खान-पान और विवाह के सम्बन्ध नहीं होते या निषेध होता है।
  • प्रायः जाति विशेष का एक सुनिश्चित वृत्ति या व्यवसाय ( profession ) होता है।
  • जातियों में ऊँच-नीच की भावना होती है और इसमें ब्राह्मण जाति का सर्वोच्च स्थान होता है।
  • जाति का निर्धारण जन्म के समय ही हो जाता है और व्यक्ति चाहकर भी जाति नहीं बदल सकता है जबतक की जाति के नियमों के उल्लंघन के दण्डस्वरूप उसे बहिष्कृत न कर दिया जाये।
  • एक जाति से दूसरे जाति में संक्रमण सम्भव नहीं है।
  • ब्राह्मण जाति की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था का आधार स्तम्भ है।

जाति-प्रथा की उपादेयता या लाभ

पाश्चात्य विद्वान विल्सन के शब्दों में ‘जाति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन के समस्त जीवन एवं घटनाओं पर होता है। इसका प्रतिबंध जीवन के भूत एवं भविष्य दोनों पर होता है। जाति यह निश्चित करती है कि वह जाति विशेष का व्यक्ति किस तरह का भोजन करेगा, किसके साथ बैठकर भोजन करेगा, किसके हाथ से पानी पियेगा, कैसे वस्त्राभूषण धारण करेगा और किसके साथ सामाजिक सहवास के विभिन्न पहुलुओं में भागीदार बनेगा?’

जातियों की भूमिका या कार्य को हम तीन भागों में बाँटकर स्पष्ट कर सकते हैं –

  • व्यक्तिगत जीवन में लाभ या भूमिका
    • सामाजिक स्थिति को स्पष्ट करना
    • मानसिक सुरक्षा
    • व्यवसाय का निर्णय
    • जीवनसाथी का वरण
    • सामाजिक सुरक्षा
    • व्यवहार नियंत्रण
  • जातिगत समुदाय के प्रति भूमिका या कार्य
    • धार्मिक भावनाओं की रक्षा करना
    • रक्त-शुद्धता बनाये रखना
    • जातिगत संस्कृति की रक्षा करना
    • सामाजिक स्थिति सुनिश्चित करना
  • समाज के प्रति भूमिका या कार्य
    • सामाजिक विकास और संरक्षा का निर्वहन
    • राजनीतिक स्थायित्व में भूमिका का निर्वहन
    • समाज में श्रम-विभाजन की व्यवस्था
    • प्रजनन की शुद्धता में भूमिका का निर्वहन
    • सामाजिक ढ़ाँचे का आधार प्रदान करना
    • शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा में योगदान

व्यक्तिगत जीवन में लाभ या भूमिका

समाजिक स्थिति को स्पष्ट करना :- जाति जन्म से ही अपने सदस्य की सामाजिक स्थिति को निर्धारित कर देती है जिसे न सम्पति, न दरिद्रता, न सफलता और न किसी प्रकार को विपदा ही हटा सकती है। जब तक कि वह किसी नियम को स्वयं नहीं तोड़ता है। दूसरे शब्दों में; ब्राह्मण परिवार में जन्मा अथवा अन्य जाति में जन्मा बालक आजीवन उसी जाति का रहेगा। इसका प्रमुख कारण यह है कि जाति की सदस्यता मुख्यतः और एकमात्र जाति पर ही आधारित है। क्योंकि जन्म के आधार को बदला नहीं जा सकता इसीलिए जाति भी अपरिवर्तनीय है। एक बालक जिस परिवार में जन्म लेता है उसकी सामाजिक स्थिति स्वतः ही जाति के आधार पर स्वयमेव निर्धारित हो जाती है।

वर्तमान में; यह भी सत्य है कि आधुनिकता ने सामाजिक पदसोपानात्मक प्रस्थिति को स्थायी रूप से पंगु बनाने का काम किया है। वर्तमान में शिक्षा, धन, सत्ता इत्यादि सामाजिक पदसोपानात्मक स्थिति को निश्चित करते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि आधुनिक राजनीति ने जातिवाद को बढ़ावा भी दिया है। अपनी जाति के किसी नायक की खोज करके उसके चारों ओर एकत्र होकर दूसरे समुदाय का खण्डन व महापुरुषों को जातिवादी खाँचे में फ़िट करने की दूषित मानसिकता जातिप्रथा को कमजोर करने के स्थान पर उसे मज़बूत ही कर रही है।

मानसिक सुरक्षा प्रदान करना :-  जाति प्रत्येक व्यक्ति की जन्म से ही उसके सामाजिक दायित्वों, कार्यों व सम्बन्धों को निर्धारित कर देती है। वह जानता है कि उसका वैवाहिक सम्बन्ध कहाँ होगा, समाज में उसकी क्या भूमिका होगी, उसका व्यवसाय क्या होगा इत्यादि। उसको किस तरह के धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक कृत्यों में भागीदार बनना है। इस तरह उसकी सारी मानसिक उलझन जाती रहती है। वह पूर्व निर्धारित दायित्वों व कर्त्तव्यों का निर्वहन करता है। परन्तु यह न तो प्रचीन काल में पूर्णतः अनुसरित होता था न ही वर्तमान में।

व्यवसाय का निर्धारण :– प्रत्येक जाति का व्यवसाय जन्म से हो निर्धारित हो जाता है एवं बाल्यावस्था से ही उस पेशे के पर्यावरण में पलने के कारण उसके विषय में व्यक्ति को स्वतः ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। इस तरह व्यवसाय के सम्बन्ध में व्यक्ति का जीवन एक पूर्व-निर्धारित दिशा की ओर आगे की ओर बढ़ता है एवं बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपने परम्परात्मक पेशों में वह निपुण हो जाता है।

जीवनसाथी का निर्धारण :– जाति व्यवस्था का विवाह सम्बन्ध को पूर्व निश्चित कर देती है। जाति इस बात का निर्धारण करती है कि जाति व्यक्ति के व्यक्ति का वैवाहिक सम्बन्ध किस समूह में होगा। वैवाहिक के सम्बन्धों में किन-किन प्रतिबन्धों का पालन करना है, किसके साथ वह विवाह कर सकता है एवं किसके साथ नहीं कर सकता है। इन विषयों में जाति का निर्णय अन्तिम होता है। इसमें व्यक्तिगत इच्छा अथवा अनिच्छा का प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता।

जातिगत वैवाहिक सम्बन्धों पर शास्त्रीय प्रतिबन्धों को इतिहास के हर कालखण्ड में अनदेखा किया जाता रहा। इसका उदाहरण है अनेकानेक जातियों और उप-जातियों की वर्तमान स्थिति।

वर्तमान में किसी भी बालिग वर व कन्या को अपनी इच्छा से विवाह करने का अधिकार प्राप्त है और जातीय प्रतिबन्ध कम से कम सैद्धांतिक रूपये उसे नहीं रोक सकते हैं। परन्तु जातीय प्रतिबन्ध इतने गहरे तक समाये हुए हैं कि अन्तर्जातीय विवाह बहुत ही कम होते हैं। अर्थात् आज भी जीवनसाथी के चुनाव के में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।

सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना :– जाति अपने सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है। पहले सदस्यों के जीवन में किसी प्रकार को विपत्ति आने पर जाति अपने जातीय संगठन या जाति-पंचायत द्वारा उसकी सहायता करती थी। कोई भी धार्मिक, सामाजिकया सामूहिक कृत्य हो सामाज के लोग मिलकर करते थे। यह ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी होता आ रहा है। जैसे किसी का गृह निर्माण होता है तो छत ढालते समय हमारे यहाँ आज भी सभी भाई-पट्टीदार मिलकर सहयोग करते हैं। विवाह में सहयोग करते हैं। यहाँ तक कि वह अन्तिम संस्कार तक का प्रबन्ध करते हैं।

परन्तु आधुनिकता की मार से यह सकारात्मक सहकार लुप्तप्राय होता जा रहा है। अब किसी को किसी के लिए समय ही नहीं है। राज्य आयोजित व नियन्त्रित सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न योजनाओं के बन जाने के फलस्वरूप जाति के इस कार्य का क्षरण हुआ है। आधुनिक समय की इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की एक विशेषता यह भी है कि इन योजनाओं को किसी जाति-विशेष के लिए नहीं बनाया जाता वरन् निर्धारित मानकों पर खरे होने पर समाज के सभी सदस्यों को इन योजनाओं से लाभ मिलता है।

फिरभी सामाजिक सहकार की ये भावना सदैव बनी रहनी चाहिये और इसके क्षरण से नुक़सान ही नुक़सान है।

व्यवहार नियन्त्रण :– हरेक जाति के अपने नियम व प्रतिबन्ध होते हैं। इन नियमों और प्रतिबन्धों के द्वारा जाति अपने सदस्यों के व्यवहारों पर समुचित नियन्त्रण बनाये रखती है। जातिगत नियम-विनियम यह निर्धारित करते हैं कि व्यक्ति को कौन-कौन से संस्कारों को करना है, किसके साथ सामाजिक अलगाव रखना है, किन लोगों के साथ खान-पान सम्बन्ध रखने हैं और किन लोगों के साथ सामाजिक सम्बन्ध ( विवाह ) बनाने हैं। इस प्रकार जाति का नियन्त्रण व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित सामान्यतः सभी क्षेत्रों पर होता है।

जातिगत समुदाय के प्रति भूमिका

जाति जहाँ एक ओर व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों का निर्धारण करती है वहीं दूसरी ओर सामुदायिक प्रकार्यों को भी निर्धारित करती है।

धार्मिक भावनाओं की सुरक्षा :- व्यक्ति के धार्मिक जन-जीवन पर जाति का प्रभाव स्पष्ट और गहरे रूप से दिखायी देता है। हर एक जाति की अपनी धार्मिक विधियाँ होती हैं जिनकी वह जाति संरक्षा करती है। कुछ विद्वानों के अनुसार जाति विशेष देवी-देवता भी पृथक पृथक होते हैं, जिनको प्रायः कुलदेवता और कुलदेवी कहा जाता है। प्रसिद्ध विद्वान देसाई कहते हैं कि, “यह जाति ही है जो जनता के धार्मिक जीवन में अपने सदस्य की स्थिति को निश्चित करती है।”

रक्त-शुद्धता बनाये रखना :- जाति वैवाहिक विधि-निषेधों द्वारा जाति के रक्त की शुद्धता को बनाए रखने में सहायक होती है। हालाँकि रक्त-शुद्धता की अवधारणा का आज कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, तथापि जाति के अपने दृष्टिकोण से अपने से अलग जातियों से, विशेषकर नीचे की जातियों के साथ सम्मिश्रण से बचने के लिए जाति-प्रथा एक उत्तम व्यवस्था है।

जातीय संस्कृति की रक्षा :- हट्टन महोदय का कहना है कि प्रत्येक जाति की अपनी एक निजी शिक्षा-पद्धति, ज्ञान, कुशलता, व्यवहार करने की विधि इत्यादि होती है जिसको हम संस्कृति कहते हैं। प्रत्येक जाति में यह सब ( संस्कृति ) एक पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है क्योंकि एक जाति के वयस्क सदस्य अपने नए सदस्यों को ये सब सिखा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जाति अपनी संस्कृति को संरक्षित बनाये रखती है।

सामाजिक स्थिति सुनिश्चित करना :- प्रत्येक जाति अपने समुदाय के लिए एक निश्चित सामाजिक स्थिति ( पदसोपानिक स्थिति ) को सुनिश्चित करती है; जिसके अनुसार जातीय संस्तरण ( पदसोपान ) में प्रत्येक की स्थिति सुनिश्चित होती है। साथ ही सामुदायिक और आन्दोलन के एक सामान्य संगठन के निर्माण के द्वारा जाति अपने सदस्यों की स्थिति को उन्नत करने सहायक होता है। इसके उदाहरण के रूप में हम कायस्थ जाति का उदाहरण ले सकते हैं।

जाति-प्रथा की हानियाँ

  • आर्थिक दृष्टिकोण
    • श्रमिक की गतिशीलता बाधित हुई
    • श्रमिक की कुशलता में बाधक
    • आर्थिक हानि
  • राजनीतिक दृष्टिकोण
  • सांस्कृतिक दृष्टिकोण
  • सामाजिक दृष्टिकोण
    • जाति की तानाशाही
    • जाति-प्रथा की कठोरता
    • अस्पृश्यता
    • निम्न जातियों की गिरी हुई दशा
    • निर्योग्यताएँ
    • अनेक सामाजिक समस्याओं का मूल कारण
    • प्रगति में बाधक
    • अलगाव की प्रवृत्ति
    • पारस्परिक घृणा और द्वेष
    • समाज और राष्ट्र की एकता में बाधक

वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में जाति की भूमिका

समाजशास्त्री प्रो० योगेन्द्र सिंह का कहना है कि राजनीतिक आधुनिकीकरण का एक उल्लेखनीय पक्ष भारतीय राजनीति में जाति की ‘घुसपैठ’ है।

जाति-प्रथा सामाजिक पदसोपान की मुख्य आधार रही है। वर्तमान में भी यह ( जाति-प्रथा ) जातीय संगठनों का माध्यम से सामाजिक संस्तरण की राजनीतिक माँगों को पूरा करने में प्रयासरत है। दूसरे शब्दों में वर्तमान राजनीति में जाति का उपयोग राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक समर्थन पाने के लिए बार-बार किया जाता रहा है।

प्रो० रजनी कोठारी के विचार में वर्तमान राजनीति एक ‘प्रतियोगी उद्यम’ ( competitive enterprise ) है। इस प्रतियोगी उद्यम में सफलता हेतु शक्ति व समर्थन का अर्जन आवश्यक है। इस शक्ति और समर्थन का स्रोत संगठन और जाति हो सकती है। संगठन और जातिगत वफादारी के आधार पर शक्ति व समर्थन पाना वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में धड़ल्ले हो रहा है।

प्रो० रजनी कोठारी आगे कहते हैं कि वर्तमान में जिसे ‘राजनीति का जातिवाद’ कहा जा रहा है, वह वास्तव में ‘जाति का राजनीतिकरण’ है।

प्रो० योगेन्द्र सिंह कहते हैं कि जाति की राजनीतिक भूमिका दो चरणों से होकर गुजरी है —

  • प्रथम स्तर या चरण में राजनीतिकरण की यह प्रक्रिया परम्परागत प्रबल जातियों / उच्च जातियों तक सीमित रही। जैसे दक्षिण में ब्राह्मण, उत्तर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ आदि।
    • इसी को प्रो० रजनी कोठारी ‘खाईबंद जातियों’ ( entrenched castes ) की राजनीति कहा है।
  • दूसरे स्तर या चरण में राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ। इस चरण में वर्चस्व वाली जातियों को मध्यम व निम्न जातियों से चुनौती मिली।
    • इसको प्रो० रजनी कोठारी ने ‘उदीयमान जाति’ ( ascendant castes ) कहा है।

दास प्रथा

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भारतीय संस्कार व्यवस्था

भारतीय पुरुषार्थ व्यवस्था और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं महत्त्व

 

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