चार्वाक दर्शन या लोकायत दर्शन

चार्वाक दर्शन
चार्वाक दर्शन

भूमिका

चार्वाक दर्शन के संस्थापक वृहस्पति माने जाते हैं। इस दर्शन को लोकायत दर्शन भी कहते हैं। लोकायत का अर्थ है सामान्य लोगों से प्राप्त विचार। इसमें लोक के साथ गहरे लगाव को महत्व दिया गया है और परलोक में अविश्वास व्यक्त किया गया है। इसमें मोक्ष, आत्मा, परमात्मा को महत्वहीन बताया गया है।

भारतीय दर्शनों की एक विशेषता है उसकी आध्यात्मिक ( Spiritualism ) प्रवृत्ति। लेकिन यह समझ लेना कि भारतीय दर्शनों की चिंतनधारा में भौतिकवाद या जड़वाद ( Materialism ) के लिए कोई स्थान नहीं है सर्वथा अनुचित है।

दूसरे शब्दों में भरतीय चिंतनधारा एकांगी नहीं रही है। यहाँ पर आध्यात्मिकता को जड़वादी तार्किक चुनौती मिलती है। इसी जड़वादी चिंतनधारा का प्रतिनिधित्व चार्वाक दर्शन करता है।

लोकायत नास्तिक ( Heterodox ), अनीश्वरवादी ( Atheistic ), प्रत्यक्षवादी ( Positivist ) और सुखवादी ( Hedonist ) दर्शन है।

नामकरण

जड़वाद – जड़वाद सिद्धान्त के अनुसार जड़ ही एकमात्र तत्त्व है। मन और चैतन्य का उद्भव जड़ से ही होता है। जड़ सभी पदार्थों का मूल है। ईश्वर, धर्म, आत्मा आदि को जड़ मानकर निम्न तत्त्वों में गिना जाता है अतः जड़वाद आध्यात्मिकता से विपरीत है। भारतीय साहित्यों में जड़वाद को चार्वाक शब्द के लिए प्रयोग किया गया है।

चार्वाक शब्द का अर्थ – इस शब्द के कई अर्थ मिलते हैं :-

  • एक, कुछ विद्वानों का मत है कि चार्वाक एक ऋषि का नाम था जिन्होंने जड़वाद का प्रतिपादन किया। अतः उनके अनुयायी चार्वाक और मत जड़वाद कहलाया। इस तरह जड़वाद और चार्वाक एक दूसरे के पर्याय ही हो गये।
  • द्वितीय, एक अन्य मतानुसार चार्वाक शब्द ‘चर्व्’ धातु से बना है। ‘चर्व्’ का अर्थ है चबाना या भोजन करना। चार्वाक मत में खाने-पीने पर विशेष बल दिया जाता था इसलिए इसका नाम ‘चार्वाक’ पड़ा (‘पिब, खाद च वरलोचने’ )।
  • तृतीय, कुछ विद्वान कहते हैं कि जड़वाद का नाम चार्वाक इसलिए कहते हैं क्योंकि उनके वचन ( वाक् ) बहुत मीठे होते थे। ‘चारु’ ( सुन्दर ) + वाक् ( बोली ) होने के कारण जड़वादी चार्वाक कहलाए।

लोकायत – जड़वाद ( चार्वाक ) दर्शन लोकायत भी कहलाता है क्योंकि यह लोक में आयत ( विस्तृत ) है अर्थात् ये लोक को महत्त्व देते हैं परलोक को सिरे से नकार देते हैं। दूसरे शब्दों में दर्शन की वह प्रणाली जो इहलोक को महत्त्व देती है और परलोक ( स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि ) जैसी अवधारणा को नहीं मानती है। इसलिए जड़वादी लौकायतिक भी कहलाते हैं। डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में

‘The Sastra is called Lokayata, for it holds that only this world or Loka is.’

Dr. Radhakrishnan; Indian Philosophy.

चार्वाक दर्शन की प्राचीनता

जड़वाद भारत में किसी न किसी प्रकार से प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में रहा है। इसका उल्लेख वैदिक साहित्य, बौद्ध ग्रंथ, पुराण और दर्शन साहित्यों में पाया जाता है। परन्तु जड़वाद पर वर्तमान में कोई स्वतंत्र रचना उपलब्ध नहीं है।

अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति तरह इसके अनुयायियों का कोई सुसंगठित सम्प्रदाय भी नहीं था। परन्तु यह ध्यातव्य है कि प्रत्येक भारतीय दर्शन में चार्वाक दर्शन ( जड़वाद ) का खंडन किया गया है। इन्हीं से चार्वाक दर्शन का परिचय मिलता है।

‘सर्वदर्शनसंग्रह’ ( माधव विद्यारण्य – १२९६-१३८६ ई॰ ) में अन्य दार्शनिक मतों के साथ चार्वाक दर्शन का भी संग्रह मिलता है।

इसके अतिरिक्त पुराणों ( विष्णुपुराण, पद्मपुराण, लिंगपुराण ) में थोड़ा बहुत परिवर्तन के साथ इस मत के उत्पत्ति की कथा दी गयी है। जिसका लब्बो-लुबाब यह है कि देवगुरू बृहस्पति ने चार्वाक मत का प्रचार दानवों ( असुरों ) में इसलिए किया कि वे इसके प्राभाव से दुर्बल होकर स्वयं नाश को प्राप्त हो जायेंगे।

चार्वाक दर्शन : उद्भव का एक आख्यान

पैराणिक ग्रंथों में चार्वाक मत के उद्भव सम्बन्धित एक आख्यान मिलता है। इस आख्यान के अनुसार राक्षस लोग देवताओं को बहुत परेशान किया करते थे। वे यज्ञादिक धार्मिक कृत्यों को बाधित करते और उनका उत्पीड़न करते थे।

देवताओं के गुरु बृहस्पति ने इस समस्या से बचने के लिए जड़वादी विचारधारा को उनके ( राक्षस ) मध्य प्रसारित कराया।

इसका प्रचार राक्षसों के मध्य इसलिए कराया गया ताकि वे दुर्बल होकर स्वनाश की ओर अग्रसर हो जायें।

वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड में जब भरत श्रीराम को मनाकर वापस अयोध्या लाने के लिए गये थे तो अपने साथ वो ‘जाबालि मुनि’ को साथ ले गये थे। ऋषि जाबालि और श्रीराम संवाद बहुत प्रसिद्ध है। ऋषि जाबालि के कथन चार्वाक मत की प्राचीनता को पुष्ट करते हैं।

चाणक्य कृति अर्थशास्त्र में भी बृहस्पति को अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना गया है।

बृहस्पति और चार्वाक कब हुए अज्ञात है परन्तु उपर्युक्त विवेचन से इसकी प्राचीनता का पता चलता है। परम्परानुसार चार्वाक को बृहस्पति का शिष्य माना गया है। कुछ लोग अजित केशकम्बलिन् के विचारों में चार्वाक दर्शन को पाते हैं परन्तु बृहस्पति को ही इस मत ( चार्वाक/लोकायत ) का संस्थापक स्वीकार किया गया है।

चार्वाक दर्शन : क्रमबद्ध ग्रंथ का अभाव

भारतीय जड़वाद का कोई क्रमबद्ध ग्रंथ नहीं मिलता है। तो एक स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है कि ग्रंथ या सूत्र के अभाव में चार्वाक दर्शन के ज्ञान का आधार या स्रोत क्या है?

अन्य दार्शनिक मतों की तरह चार्वाक दर्शन के भी मौलिक सूत्र अवश्य थे। डॉ० राधाकृष्णन ने बृहस्पति के सूत्रों को लोकायत मत का प्रमाण माना है।

‘the classic authority on the materialistic theory is said to be the Sutras of Bahaspati…’

—Dr. Radhakrishnan; Indian Philosophy.

परन्तु दुर्भाग्यवश उन सूत्रों का पता आज तक नहीं चल पाया है।

इसी क्रम में अगली स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है कि जब चार्वाक दर्शन का कोई क्रमबद्ध सूत्र नहीं मिलता है तो यह कैसे ज्ञात होता है कि चार्वाक दर्शन का अस्तित्व रहा होगा? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय दर्शनों की विचार पद्धति में छिपा हुआ है। भारतीय दार्शनिक विचारों को रखने की एक विशेष पद्धति का प्रयोग हुआ है। इस पद्धति के तीन अंग हैं —

  • पूर्व पक्ष —
    • इसमें एक दार्शनिक अपने प्रतिद्वंद्वी के विचारों को विस्तार पूर्वक रखता या विचार करता है।
  • खण्डन —
    • द्वितीय चरण में वह प्रतिद्वंद्वी दार्शनिक विचारों का तार्किक रूप से खण्डन करता है।
  • उत्तर पक्ष —
    • अन्त में वह अपने दार्शनिक मत की प्रस्थापना करता है।

इस त्रिस्तरीय विचार पद्धति का परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक दार्शनिक मत में प्रत्येक दर्शन का उल्लेख मिलता है। चार्वाक दर्शन भी इसका अपवाद नहीं है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक दर्शन में चार्वाक दर्शन पर सम्यक् विचार या मीमांसा की गयी है।

इस प्रकार विभिन्न भारतीय दर्शनों में चार्वाक दर्शन की जो मीमांसा मिलती है वहीं इस दर्शन के अस्तित्व का प्रमाण है और यह दर्शन कैसा था?, इसके विचार कैसे थे? इत्यादि की रूपरेखा का भी ज्ञान होता है।

प्रमाण विचार या ज्ञानमीमांसा

प्रत्यक्ष एकमात्र प्रमाण है। 

  • इस सम्बन्ध में चार्वाक की यह उक्ति प्रसिद्ध है –
    • ‘प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्।’ अर्थात् प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। ( Perception is the only source of Knowledge. )

तत्त्व ज्ञान अथवा यथार्थ ज्ञान को ‘प्रमा’ कहते हैं। प्रमा के कारण को प्रमाण कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिसके कारण यथार्थ ज्ञान या तत्त्व ज्ञान ( प्रमा ) प्राप्त होता है उसे प्रमाण कहते हैं।

प्रमाण कितने प्रकार के हैं ?  इस सम्बन्ध में भारतीय दार्शनिकों में मतभेद है। इस सम्बन्ध में ‘मानसोल्लास’ का एक प्रसिद्ध श्लोक है :

“प्रत्यक्षमेकं चार्वाकाः कणादसुगदौ पुनः।

अनुमानं च तच्चापि सांख्याः शब्दं च ते अपि॥

न्यायैकदेशिनोऽप्येवम् उपमानं च केचन।

अर्थापत्तया सहैतानि चत्वार्याह प्रभाकरः॥

अभावषष्ठान्येतानि भट्टा वेदान्तिनस्तथा।

संभवैतिह्ययुक्तानि तानि पौराणिका जगुः॥”

( मानसोल्लास, सोमेश्वर-तृतीय )

उपर्युक्त श्लोक में छः प्रमाणों का उल्लेख है :-

  • प्रत्यक्ष
  • अनुमान
  • शब्द
  • उपमान
  • अर्थापत्ति
  • अभाव

चार्वाक मत में ‘प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण माना गया है।’ एकमात्र इंद्रियजन्य ज्ञान ही यथार्थ है। इस मत में अनुमान, शब्द, उपमान जैसे प्रमाणों का खंडन किया गया है।

प्रत्यक्ष दो शब्दों से मिलकार बना है –  प्रति + अक्ष। प्रति एक उपसर्ग है जिसका अर्थ है – विपरीत, सामने; और अक्ष का यहाँ अर्थ है – नेत्र। अर्थात् ‘जो नेत्रों सामने हो’ या देखा जाये वह प्रत्यक्ष होता है।

चार्वाक मत में प्रारम्भ में इसी अर्थ को ग्रहण किया गया था। परन्तु बाद में इसके व्यापक अर्थ को ग्रहण किया गया। जिसमें यह कहा गया कि शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के अंतर्गत आयेंगी।

पाँच ज्ञान इंद्रियाँ और उनसे प्राप्त ज्ञान हैं —

  • नेत्र – रूप
  • कर्ण – शब्द
  • नासिका – गंध
  • त्वचा – स्पर्श
  • जिह्वा – स्वाद

प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए तीन बातें आवश्यक हैं —

  • इंद्रिय ( Sense organ )
    • प्रत्यक्ष ज्ञान इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ नेत्रहीन को किसी वस्तु के रूप-रंग का ज्ञान नहीं हो सकता है। उसी तरह कर्णाभाव में व्यक्ति को ध्वनि ( शब्द ) नहीं सुनायी देगा।
  • पदार्थ ( object )
    • प्रत्यक्ष के प्रत्यक्षीकरण के लिए आवश्यक है कि को ऐसी वस्तु या पदार्थ हो जो इंद्रियों को ग्राह्य हो। जैसे नेत्र को रूप ग्राह्य होता है तो कोई भी आकारवाली वस्तु जिसमें रूप रंग होगा वह नेत्र माध्यम से ज्ञाता विषय बनेगी। परन्तु वायु का हमें स्पर्श होता है तो उसका ज्ञान नेत्र के माध्यम से नहीं वरन् त्वचा के द्वारा होगा।
  • सन्निकर्ष ( contact )
    • प्रत्यक्ष ज्ञान का तृतीय तत्त्व है पदार्थ का इंद्रिय से सम्पर्क होना। वस्तु का इंद्रिय के संयोग में आना सन्निकर्ष कहलाता है। जब किसी पदार्थ का योग्य इंद्रिय से सम्पर्क या सन्निकर्ष होता है तो व्यक्ति को प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता। उदाहरणार्थ सुस्वादु भोज्य पदार्थ का स्वाद तभी ज्ञाता विषय बनेगा जब वह जिह्वा के सम्पर्क में आयेगा। दूर रखे भोजन के सुगंध को तो हम नासिका से पा लेगें परन्तु जबतक भोजन किया न जायें उसका स्वाद नहीं बता सकते हैं।

प्रत्यक्ष ज्ञान संदेह से परे निर्विवाद होता है। जो नेत्रों समक्ष उसके सम्बन्ध में संशय कैसा? जो ज्ञान प्रत्यक्ष होता है उसको किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। इसी सम्बन्ध में प्रचलित उक्ति है — प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्।

एकमात्र प्रत्यक्ष को ही ज्ञाता माध्यम स्वीकार करने के कारण अन्य सभी प्रमाणों का चार्वाक दर्शन में खण्डन किया गया है। अन्य प्रमाणों का खण्डन प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रमाणिकता को पुष्ट करता है। चार्वाक का प्रमाण-विज्ञान ( Epistemology  ) का विध्वंसात्मक खण्डन अत्यंत लोकप्रिय है।

अनुमान प्रमाण निश्चयात्मक नहीं है

अनुमान अप्रामाणिक है ( Inference is inauthentic. )। अनुमान के दो शब्दखण्ड हैं –  अनु + मान। अनु का अर्थ है – पीछे या बाद में और मान का अर्थ है – ज्ञान। अतः बाद में प्राप्त ज्ञान को अनुमान कहते है। अनुमान में प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष का ज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ आकाश में बादल देखकर वर्षा का अनुमान लगाना, पर्वत में धुआँ देखकर अग्नि का अनुमान लगाना इत्यादि। यहाँ पर मेघ को देखकर बादल और धूम्र को देखकर अग्नि का अप्रत्यक्ष ज्ञान मिलता है। इसी अप्रत्यक्ष ज्ञान को अनुमान कहा जाता है।

अनुमान संदेहास्पद है क्योंकि यह व्याप्ति पर निर्भर करता है। अनुमान को प्रमाण तभी मान जा सकता है जब इससे प्राप्त ज्ञान वास्तविक और शंका-विहीन हो। परन्तु अनुमान में इसका अभाव है।

चार्वाक दर्शन के अनुसार अनुमान को शंका-रहित तभी माना जा सकता है जब व्याप्तिवाक्य सन्देह से परे हो। अनुमान की प्रामाणिकता व्याप्ति-वाक्य की वास्तविकता पर आधारित है। अतः यदि व्याप्ति-वाक्य वास्तविक न हो, तो अनुमान कैसे वास्तविक हो सकता है?

व्याप्ति-ज्ञान – जो ज्ञान हमें बाह्य इंद्रियों से वर्तमान में प्राप्त हुआ है उसे भूत व भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने को व्याप्ति-ज्ञान कहते हैं। अथवा दो वस्तुओं के मध्य वास्तविक और एवं सामान्य सम्बन्ध ( Universal relation ) को व्याप्ति कहते हैं; यथा – आग और धुँआ में व्याप्ति सम्बन्ध है।

नैयायिक अनुमान प्रमाण को युक्तिसंगत मानते हैं और उदाहरण के रूप में धुआँ और आग का उदाहरण देते हैं –

  • जितने धूमवान ( धुआँवाले ) पदार्थ हैं, वे सभी वह्निमान् ( अग्नियुक्त ) हैं।
  • पर्वत धूमवान् है।
  • अतः पर्वत वह्निमान् है।

इसका खंडन चार्वाक मत में इस तरह करते हैं। उनका कहना है कि अनुमान तभी युक्तिपूर्ण और निश्चयात्मक माना जा सकता है जब व्याप्ति-वाक्य शंकाओं से परे हो। धूमवान पर्वत को निश्चयात्मक रूप से वह्निमान् तब माना जा सकता है जब सभी धूमवान पदार्थ वह्निमान् हों। सभी धुआँ वाले पदार्थ वह्निमान हैं, ऐसा तब सिद्ध हो सकता है जब सभी धुआँ वाले पदार्थों को उनके साथ आग से सम्बन्ध में देखा गया हो। परन्तु यह सर्वथा असम्भव कार्य है। भूत व भविष्य की बात ही छोड़ दीजिए हम तो वर्तमान में ही संसार के सभी धूम्रवान् पदार्थों से वह्नि ( अग्नि ) का सम्बन्ध का प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति की स्थापना नहीं कर सकते हैं।

व्याप्ति की स्थापना हम शब्द द्वारा भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि शब्द प्रमाण ( आप्त वचन ) की सिद्धि भी अनुमान के द्वारा होती है। यदि अनुमान को शब्द प्रमाण पर निर्भर होना पड़ा तो कोई भी व्यक्ति स्वयं अनुमान नहीं लगा सकता है क्योंकि उसे इसके लिए किसी आप्त पुरुष के वचनों पर निर्भर होना पड़ेगा।

आलोचक कहते हैं कि सभी धुआँ वाले पदार्थों में अग्नि को हम अवश्य नहीं देख सकते हैं, परन्तु उसके समानधर्मा पदार्थों अर्थात् धुआँ और आग सम्बन्धी पदार्थ को अवश्य देख सकते हैं। इसलिए सभी धूमवान और वह्निवान् पदार्थों को बिना देखे भी उनमें नियत सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। इसी सम्बन्ध के आधार पर हम कह सकते हैं कि जहाँ धुआँ है वहाँ आग भी होगी।

इसके प्रतिउत्तर में चार्वाकों का कहना है कि वस्तुतः प्रत्यक्ष के द्वारा धूमत्व का ज्ञान सम्भव ही नहीं है। धूमत्व तो एक जाति अथवा सामान्य है जोकि सभी धुआँ वाले वस्तुओं में वर्तमान है। इसलिए जब तक सभी धुआँ वाले वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान न हो तब तक उनके सामान्य का ज्ञान नहीं हो सकता है। किन्तु सभी धुआँ वाले वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप अनुभव करना सम्भव नहीं है। इसलिए ‘धूमत्व’ केवल उन धूमवान् पदार्थों का सामान्य समझा जाएगा जिन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कर चुके हों। अतः धूमत्व अप्रत्यक्ष या अनदेखे धूमवान् पदार्थों को देखकर व्याप्ति-ज्ञान नहीं हो सकता।

आलोचकों ने पुनः प्रश्न उठाया कि

  • यदि संसार में कोई निश्चित सर्वव्यापक नियम नहीं है तो सांसारिक वस्तुओं में नियमितता क्यों पायी जाती है?
  • अग्नि सर्वदा उष्ण क्यों होती है?
  • जल में शीतलता क्यों है?

चार्वाकों का इस सम्बन्ध में कहना है कि आग में गर्मी, जल में शीतलता आदि तो सम्बन्धित पदार्थों के स्वभाव हैं। वस्तुओं के प्रत्यक्ष धर्म को समझने के लिए किसी अप्रत्यक्ष की कल्पना अनावश्यक है। यह तो अनिश्चित है कि वस्तुओं में नियम अतीत में पाया गया है वह भविष्य में भी पाया जायेगा।

कार्य-कारण सम्बन्ध की स्थापना भी नहीं हो सकती है

तर्क के आधार पर यह प्रश्न उठता हो कि क्या धूम्र और वह्नि की व्याप्ति कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार स्थिर नहीं किया जा सकता है?

चार्वाकों का इस सम्बन्ध में क्या उत्तर होता?

  • एक, कार्य-कारण-सम्बन्ध में एक व्याप्ति है।
  • द्वितीय, दो वस्तुओं को बार-बार साथ देखकर हम कार्य-कारण-सम्बन्ध की स्थापना या किसी अन्य व्याप्ति की स्थापना नहीं कर सकते हैं।
    • क्योंकि ऐसा सम्बन्ध स्थापित करने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि उन दोनों पदार्थों या वस्तुओं का साहचर्य किसी अलक्षित कारण अथवा अन्य उपाधि पर तो निर्भर नहीं करता।
    • व्यक्ति बार-बार धुआँ और आग को साथ-साथ देखता है अतः वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी।
    • परन्तु यहाँ दोष की सम्भावना बराबर हो सकती है। क्योंकि यहाँ उपाधि की अवहेलना की गयी है।
    • उदाहरणार्थ धूम्रवान पदार्थ ( ईंधन ) की आर्द्रता। अग्नियुक्त पदार्थ से धूम्र तभी निकलता है जब वह्निवान् पदार्थ ( ईंधन ) में आर्द्रता हो।
    • जब तक दो वस्तुओं का सम्बन्ध उपाधिरहित न हो तब तक यह अनुमान का सही आधार नहीं हो सकता है।
    • प्रत्यक्ष के द्वारा यह सिद्ध नहीं हो सकता कि कोई व्याप्ति उपाधि रहित है, क्योंकि प्रत्यक्ष व्यापक नहीं हो सकता। यह सम्भव नहीं की प्रत्यक्ष द्वारा सभी उपाधियों का ज्ञान प्राप्त हो।
    • उपाधि-निरास के लिए अनुमान या शब्द की सहायता लेना भी उचित नहीं होगा, क्योंकि वे तो स्वयं असिद्ध हैं। और जो स्वयं असिद्ध हैं वे दूसरे का साधन कैसे हो सकता है? ( “स्वयं असिद्धः कथं परान् साधयति?” )।

यदा-कदा कुछ अनुमान सही निकल आते हैं परन्तु सदैव नहीं

कभी-कभी काकतालीय न्याय ( संयोगवश ) से व्यक्ति के अनुमान सत्य निकल आते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि वह अनेकशः असत्य भी सिद्ध होते हैं। इसलिए अनुमान सदैव सत्य नहीं हो सकता है। अनुमान का प्रामाणिक होना स्वाभाविक धर्म नहीं है। कुछ अनुमान प्रामाणिक हो सकते हैं, कुछ नहीं।

शब्द भी प्रमाण नहीं है

अप्रत्यक्ष वस्तुओं के सम्बन्ध में शब्द विश्वसनीय नहीं हो सकता है।

प्रश्न उठता है कि क्या योग्य और प्रवीण व्यक्तियों के शब्द प्रमाण नहीं? क्या विश्वासयोग्य व्यक्तियों से प्राप्त ज्ञान को हम प्रमाण मान कार्य सम्पादित नहीं कर सकते हैं?

चार्वाकों का इस सम्बन्ध में कहना है कि इन व्यक्ति यों का ज्ञान हमें शब्द के रूप में मिलता है और शब्दों का सुनना तो प्रत्यक्ष है।  इसलिए इसे प्रामाणिक मानना चाहिए। परन्तु, यदि शब्द से ऐसी वस्तुओं का बोध हो जो प्रत्यक्ष से परे हो अर्थात् यदि शब्द से अप्रत्यक्ष वस्तुओं का बोध हो तो यह शब्द-प्रमाण दोषयुक्त हो जायेगा। इस तरह शब्द-प्रमाण से प्रायः मिथ्या ज्ञान मिलता है।

वेद भी विश्वासयोग्य नहीं है

वेद के सम्बन्ध में चार्वाकों का कहना है कि वेद धूर्त पुरोहितों का कृतित्व है। पुरोहितों ने अज्ञानी और विश्वासपरायण व्यक्तियों को धोके में डालकर अपनी जीविका का प्रबंध किया है। पुरोहितों ने झूठी-मूठी आशा और प्रलोभन देकर व्यक्तियों को वैदिक कर्मों के अनुसार चलने के लिए प्रेरित किया।

अनुमान-सिद्ध शब्द भी अनुमान की भाँति ही संदिग्ध है

यह प्रश्न उठता है कि यदि हम योग्य और अनुभवी व्यक्तियों के शब्दों में अविश्वास करेंगे तो हमारा ज्ञान अत्यंत संकुचित हो जायेगा परन्तु हमारे कार्यों में बाधा पहुँचेगी?

इस संदर्भ में चार्वाकों का कहना है कि शब्द से प्राप्त ज्ञान अनुमान-सिद्ध हैं। किसी भी शब्द पर हम इसलिए विश्वास करते हैं क्योंकि वे आप्त पुरुषों के कथन हैं। शब्द से प्राप्त ज्ञान के लिए एक अनुमान की आवश्यकता होती है वह इस तरह है —

सभी विश्वसनीय व्यक्तियों के शब्द मान्य हैं।

क्योंकि ये शब्द आप्त पुरुषों के हैं।

अतः ये शब्द मान्य हैं।

अतः स्पष्ट है कि शब्द से प्राप्त ज्ञान अनुमान पर आधृत है। अतः शब्दों की प्रामाणिकता उसी प्रकार संदिग्ध है जिस तरह अनुमान की। हम अपने कार्य शब्द को विश्वासयोग्य मानकर करते हैं। कभी-कभी ये कार्य सफल हो जाते हैं और कभी-कभी असफल। इसलिए शब्द से ज्ञान-प्राप्ति को यथार्थ और निर्भर-योग्य साधन नहीं माना जा सकता है।

”अतः चार्वाकों के अनुसार क्योंकि अनुमान और शब्द विश्वसनीयता सिद्ध नहीं है, इसलिए प्रत्यक्ष एकमात्र प्रमाण है।”

तत्त्व-विचार

जड़ ही एकमात्र तत्त्व या सत्ता है ( जड़वाद )

चार्वाक के तत्त्व-विचार सम्बन्धी मत उनके प्रत्यक्ष प्रमाण सम्बंधित विचारों पर अवलंबित हैं। उनके अनुसार प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है अतः चार्वाक मात्र उन्हीं वस्तुओं को मानते हैं जिनका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।

ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग, जीवन की नित्य होना, अदृष्ट ( भाग्य ) आदि को चार्वाक सिरे से नकार देते हैं क्योंकि इनका कोई प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है।

हम केवल जड़-द्रव्यों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं इस आधार पर चार्वाक कहते हैं कि ‘जड़ ही एकमात्र तत्त्व है।’ इस मत को जड़वाद कहते हैं।

संसार चार भूतों से बना है

अधिकांश भारतीय दार्शनिक संसार के निर्माण को पंच-भूतों से मानते हैं। ये पंच-महाभूत हैं – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी।

परन्तु चार्वाक आकाश के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। क्योंकि इसका ज्ञान अनुमान के द्वारा होता है न कि प्रत्यक्ष।

अतः जगत् का निर्माण चार भूतों से हुआ है इस तरह जगत् का निर्माण चार जड़ तत्त्वों से हुआ है –

  • वायु,
  • अग्नि,
  • जल और
  • पृथ्वी।

इन चार भूतों से सजीव और निर्जीव दोनों की उत्पत्ति हुई है। प्राणियों का उद्भव इन चार भूतों से हुआ है और मृत्यु के बाद ये पुनः इन्हीं चार भूतों में मिल जाते हैं।

आत्मा नहीं है ( अनात्मवाद )

‘चैतन्य विशिष्ट शरीर ही आत्मा है।’  ( चैतन्यविशिष्टो देहः एव आत्मा। )

चार्वाक के अनुसार प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। प्रत्यक्ष दो प्रकार के हो सकते हैं – एक, बाह्य और द्वितीय, मानस।

मानस-प्रत्यक्ष के द्वारा हम चैतन्य का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं। चैतन्य बाह्य जड़-पदार्थों में नहीं पाया जाता है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि हमारे शरीर के अन्तर्गत अभौतिक सत्ता है जिसे आत्मा कहा गया और जिसका गुण चैतन्य है।

चार्वाक यह तो मानते हैं कि चैतन्य का ज्ञान तो प्रत्यक्ष के द्वारा होता है परन्तु वह यह नहीं मनाते हैं कि चैतन्य का गुण अभौतिक तत्त्व ( आत्मा ) के कारण है।

आत्मा का तो कभी प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। जड़ तत्त्वों से बने हमारे शरीर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। चैतन्य हमारे शरीर के अन्तर्गत ही है, अतः चैतन्य शरीर का गुण है। इस तरह चार्वाक का स्पष्ट मत है चेतन शरीर ही आत्मा है न की यह गुण किसी अभौतिक तत्त्व के कारण आता है।

दूसरे शब्दों में आत्मा के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। मनुष्य पूरी तरह से भूतों से बना है। ‘मैं स्थूल हूँ’ , ‘मैं कमजोर हूँ’ , ‘मैं लकवाग्रस्त हूँ ’ आदि वाक्यों से स्पष्ट है कि मनुष्य और उसके शरीर में कोई अंतर नहीं है। मनुष्य में जो चेतना है, वह चेतना मानव शरीर का विशेष गुण है। चेतना की उत्पत्ति भौतिक तत्वों से होती है।

प्रश्न उठता है कि चैतन्य का अस्तित्व तो किसी भी जड़-तत्त्व में नहीं पाया जाता है। जब जड़ तत्त्वों में ही इसका अभाव है तो उनके योग से बने हुए शरीर में इसका प्रादुर्भाव कैसे हो सकता है?

चार्वाक इस आक्षेप उत्तर इस तरह देते हैं – जड़ तत्त्वों के संयोग से किसी वस्तु का निर्माण होता है। यह सम्भव है कि जड़-तत्त्वों में यदि गुण-विशेष का अभाव है परन्तु उनके संयोग से उस गुण का उद्भव हो जाये। एक ही वस्तु को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में रखने से भी उसमें नये-नये गुणों का प्रादुर्भाव होता है। उदाहरणार्थ-

  • पान, चूना और सुपारी इन तीनों में लाला रंग का अभाव है परन्तु जब एक साथ इन्हें चबाया जाता है तो लाल रंग का उद्भव हो जाता है।
  • गुड़ में मादकता का अभाव है परन्तु सड़ने पर वह मादक हो जाता है।

इस तरह जड़-तत्त्वों का सम्मिश्रण एक विशेष प्रकार से होने पर चेतनायुक्त शरीर बनता है इसे ‘भूतचैतन्यवाद’ कहते हैं। शरीर से भिन्न आत्मा का कोई प्रमाण नहीं होता है। शरीर से भिन्न यदि आत्मा का अस्तित्व नहीं है तो उसके अमर या नित्य होने का कोई प्रश्न ही नहीं है।

मृत्यु के बाद शरीर नष्ट हो जाता है और यही जीवन का अंत है। पूर्व-जन्म, भविष्य-जन्म, स्वर्ग-नरक, कर्मफल जैसे विचार आधारहीन हैं। इसे हम ‘देहात्मवाद’ भी कह सकते हैं। देहात्मवाद के अनुसार मनुष्य का भौतिक शरीर ही उसकी आत्मा है। मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जाता है। आत्मा जैसा कोई अभौतिक तत्त्व नहीं है।

 

ईश्वर नहीं है ( अनीश्वरवाद )

चार्वाक ईश्वर को कपोल-कल्पित मानते हैं। जड़-तत्त्वों के सम्मिश्रण से संसार की उत्पत्ति हुई है। जगत् के सृजनकर्ता अथवा किसी स्रस्टा की कल्पना अनावश्यक है।

यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या संसार की सृष्टि के लिए जड़-तत्त्वों का संयोग स्वतः ही होता है?

किसी भी वस्तु के अस्तित्व में आने के लिए ‘उपादान कारण’ के साथ-साथ ‘निमित्त कारण’ की भी आवश्यकता होती है। जैसे – मृद्भाण्ड बनाने के लिए मृदा ( उपादान कारण ) और कुम्भकार ( निमित्त कारण ) की आवश्यकता होती है।

कई अन्य भारतीय दर्शनों में पंच-महाभूत और ईश्वर को क्रमशः उपादान और निमित्त कारण माना गया है। परन्तु चार्वाक दर्शन में एक तो पाँच की जगह चार महाभूतों को ही मान्यता है दूसरे ईश्वर जैसी किसी निमित्त कारण ( स्रष्टा ) को सिरे से नकार दिया गया है।

जड़-तत्त्वों का स्वयं अपना-अपना स्वभाव होता है। ये तत्त्व अपने स्वभानुसार स्वतः संयुक्त होकर इस जगत् का निर्माण करते हैं। इसके लिए किसी स्रष्टा या निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं होती है।

‘जगत् की उत्पत्ति का उद्देश्य क्या है? चार्वाक के अनुसार जगत् की सृष्टि का कोई उद्देश्य नहीं है। अधिक युक्ति-संगत यह है कि इसकी जड़-तत्त्वों के आकस्मिक संयोग से हुई है।

‘अतः चार्वाक ईश्वर को नहीं मानते और वे अनीश्वरवादी हैं।’

जड़-तत्त्वों के अन्तर्निहित स्वभाव के कारण ही इस जगत् की सृष्टि होती है। अतः चार्वाक-मत ‘स्वभाववाद’ भी कहलाता है।

जगत् की उत्पत्ति किसी प्रयोजन-साधन के लिए नहीं हुई है। संसार तो जड़-तत्त्वों के आकस्मिक या यादृच्छिक संयोग का परिणाम है अतः चार्वाक मत को ‘यादृच्छवाद’ भी कहा जाता है।

चार्वाक मत को ‘प्रत्यक्षवाद’ भी कहा जाता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष वस्तुओं के आस्तित्व को ही मानता है।

चार्वाक दर्शन के नैतिक नियम ( आचार मीमांसा )

मानव जीवन का अंतिम या चरम लक्ष्य क्या है?

कौन सा ऐसा चरम लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति मनुष्य का उद्देश्य है?

नैतिक विचारों के निर्णायक सिद्धान्त क्या हैं?

ऐसे नैतिक प्रश्नों के उत्तर तत्त्व-ज्ञान के आधार पर ही इन नैतिक प्रश्नों के उत्तर देते हैं।

स्वर्ग एक मिथ्या कल्पना है

चार्वाक दर्शन को लोकायत भी कहते हैं क्योंकि यह लोक में आयत विचार है अर्थात् परलोक में अविश्वास।

स्वर्ग और नरक पुरोहितों की कल्पना है और वह भी स्वार्थ-सिद्धि के लिए। ये पुरोहित अपने व्यावसायिक लाभ के लिए नाना-प्रकार के प्रलोभन और भय से वैदिक आचारों को करने के लिए बाध्य करते थे। बुद्धिमान लोग पुरोहितों के झाँसे में नहीं आते हैं।

दुःखों से मु्क्ति सम्भव नहीं है

अन्यान्य भारतीय दर्शनों में दुःखों से मुक्ति को अंतिम लक्ष्य माना गया है। दुःखों से पूर्ण मुक्ति ही मोक्ष है। मोक्ष के सम्बन्ध में इन दर्शनों में दो विचार मिलते हैं – एक, मोक्ष मृत्यु के बाद ही मिल सकता है और द्वितीय, मोक्ष इसी जीवन में सम्भव है।

चार्वाक इनमें से किसी भी मत को नहीं मानते हैं —

  • यदि मोक्ष का अर्थ आत्मा का शारीरिक बंधन से मुक्त होना है तो यह असम्भव है क्योंकि आत्मा जैसी कोई सत्ता ही नहीं है।
  • मोक्ष अर्थ यदि जीवन-काल में ही दुःखों से मुक्ति है तब भी यह असम्भव है क्योंकि शरीर-धारण और सुख-दुःख का अविछिन्न सम्बन्ध है। दुःख को कम किया जा सकता है और सुख को बढ़ाया जा सकता है परन्तु दुःखों से पूर्ण मुक्ति शरीर रहते असम्भव है। दुःख से मुक्ति तो मृत्यु के बाद ही हो सकती है। वृहस्पति सूत्र में कहा गया है कि – ‘मरणोत्तर एव अपवर्गः।’

चार्वाक आगे कहते हैं कि कुछ लोग अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाकर सुख-दुःख से परे की अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं। वे ऐसा इसलिए करना चाहते हैं कि सुख-दुःख मिले रहते हैं अतः वे दोनों का त्याग करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को चार्वाक मूर्ख कहते हैं। इस संदर्भ में चार्वाक कुछ उद्धरण देते हैं –

  • कोई विचारशील व्यक्ति अन्न का त्याग इसलिए नहीं करता कि उसमें भूसा मिला हुआ है।
  • काँटों के कारण मछली को खाने से मना नहीं किया जाता है।
  • पशुओं से फसल ध्वंस से डरकर कृषिकर्म नहीं त्यागा जाता है।
  • भिक्षुओं के माँगने के डर से भोजन पकाना बंद नहीं किया जाता है।

हम लोगों का अस्तित्व शरीर में और वर्तमान जीवन तक ही सीमित है। अतः अतः इस शरीर के द्वारा जो सुख मिल सकता है वहीं हमारा लक्ष्य होना चाहिए। परलोक-सुख की आशा में वर्तमान सुख का त्याग करना मूर्खता है। जैसे –

  • कल मोर मिलेगा इस आशा में हाथ आये कबूतर को नहीं छोड़ा जा सकता है।
  • संदिग्ध सोने की मुद्रा की अपेक्षा निश्चित कौड़ी ही श्रेष्ठ हैं।

“अतः मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए कि वह वर्तमान जीवन में अधिक से अधिक सुख प्राप्त करे और अपने दुःखों को कम से कमतर करे।”

सुख ही जीवन का लक्ष्य है 

सफल जीवन वहीं है जिसमें अधिक से अधिक सुखभोग होता हो। अच्छा काम वह है जिसमें दुःख की अपेक्षा सुखभोग अधिक हो। बुरा काम वह है जिसमें सुख की अपेक्षा दुःख अधिक प्राप्त होता हो। चार्वाक के इस मत को ‘सुखवाद’ ( Hedonism ) कह सकते हैं। सुखवाद में सुखभोग ही जीवन का अंतिम लक्ष्मीनारायण जाता है।

पुरुषार्थ विचार

भारतीय विद्वानों ने चार पुरुषार्थ माने हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

चार्वाक धर्म और मोक्ष को सिरे से नकार देते हैं। धर्म जैसी मिथ्या धारणा को वे स्वार्थपूरित पुरोहितवाद की उपज मानते हैं। मोक्ष जैसी धारणा में दुःख से मुक्ति चाहे वह देहमुक्ति हो या विदेहमु्क्ति दोनों मिथ्या है।

चार्वाक अर्थ और काम को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं। इन दोनों में भी काम को वे अंतिम लक्ष्य मानते हैं। अर्थ अंतिम लक्ष्य नहीं है बल्कि यह काम-प्राप्ति का एक साधन है।

वैदिक कर्मकाण्ड व्यर्थ हैं

चार्वाक आप्त वचनों या शब्द प्रमाण ( वेदादि ), धर्माधर्म और परलोक को सिरे से नकार देते हैं। वे योग, यज्ञादिक वैदिक कर्मों द्वारा स्वर्ग प्राप्ति और नरक से बचने के मार्ग का उपहास उड़ते कहते हैं –

( १ ) न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रणादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः॥

( २ ) गच्छतामिह जन्तूनां वृथा पाथेयकल्पना।

गेहस्थकृतश्राद्धेन पथि तृप्तवारिता॥

( ३ ) पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते॥

इस तरह चार्वाकों के आचार-व्यवहार ही उनका घर्म है और लौकिक व्यवहार भी सुख प्राप्ति के लिए है। लोकायतों का नैतिक विचार उनके जड़वाद का ही परिणाम है।

चार्वाक दर्शन की देन

चार्वाक दर्शन को भारतीय दार्शनिकों ने घृणा की दृष्टि से देखा। जनसाधारण में तो ‘चार्वाक’ शब्द ही निंदनीय माना जाता था। परन्तु यह उल्लेखनीय है कि चाहे कोई भी दार्शनिक मत हो उसे चार्वाक दर्शन से टकराना ही पड़ा। चार्वाकों द्वारा उठाये गये प्रश्नों से सभी भारतीय दर्शन टकरा-टकरा कर पुष्ट हुए। लोकायत मत की कितनी भी आलोचना कर लें पर उससे बच निकलना सम्भव नहीं।

  • चार्वाक मत ने भारतीय दर्शनों को हठ-विश्वास से बचाया। सभी भारतीय दर्शन चार्वाकों द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर विचार करते हैं और उनके आक्षेपों का समाधान करने का प्रयास भी। चार्वाक मत एक तरह से सभी के विचारों की कसौटी बन गया हो। इस संदर्भ में लौकायितों का दो तरह से योगदान दिया –
    • एक तो लोकायतों ने तरह तरह के दार्शनिक प्रश्न उठाकर समस्याएँ उपस्थित कीं।
    • दूसरे इसके कारण भारतीय दर्शनिक अपने हठ-विश्वास से बचकर उन प्रश्नों पर विचार करके अपने विचारों को तार्किक और युक्ति संगत बनाने में निरंतर प्रयत्नशील रहे।
  • चार्वाक का प्रमाण-विज्ञान को महत्त्वपूर्ण देन है। अनुमान, शब्द आदि के खंडन में चार्वाक न जो तर्क दिये उसके विरोध में भारतीय दर्शनों में विभिन्न युक्तियों द्वारा प्रमाण का जो विकास हुआ वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
  • सुखवाद ( Hedonism ) के कारण चार्वाकों की निंदा की जाती है। परन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि सुखभोग स्वयं में कोई घृणा का विषय नहीं हो सकता है क्योंकि सभी भारतीय विचारक किसी न किसी रूप में इसे वांछनीय मानते हैं। यह निदिंत तभी हो सकता है जब अश्लील और स्वार्थपूरित हो। इस आधार पर चार्वाकों के दो वर्ग किये जा सकते हैं –
    • धूर्त या निकृष्ट चार्वाक – ये लोग निकृष्ट इंद्रिय सुख को ही जीवन का आदर्श मानते हैं।
    • सुशिक्षित चार्वाक – उत्कृष्ट सुखों की कामना करते थे, जैसे ललित कलाओं के अभ्यास द्वारा सुख की कामना।
      • सभी चार्वाक स्वार्थपूरित सुखलिप्सा के समर्थक नहीं होते थे। स्वार्थसुखवाद सामाजिक व्यवस्था के लिए हानिकारक होता है। क्योंकि यदि सभी अपने-अपने सुख की प्राप्ति में ही लगे रहेंगे और दूसरे के सुख के लिए कुछ भी त्याग नहीं करेंगे तो सामाजिक जीवन सम्भव ही नहीं है।
      • कुछ चार्वाक राजा को ईश्वर मानते थे। दंडनीति और वार्ता पर भी वे विचार करते हैं। अतः स्पष्ट है कि चार्वाक समाज और उसकी आवश्यकता को स्वीकार करते थे। इस तरह कह सकते हैं कि चार्वाकों में केवल अराजक लोग ही नहीं अपितु उनमें शिष्ट लोग भी थे।
  • इस संदर्भ में हम वात्स्यायन कृत कामसूत्र का उदाहरण ले सकते हैं। यद्यपि वे साधारण अर्थों में जड़वादी नहीं माने जा सकते क्योंकि वह परलोकवादी और ईश्वरवादी थे परन्तु उनको सहज ही शिष्ट चार्वाकों में परिगणित किया जा सकता है। वे शिष्ट सुखवाद का वर्णन करते हैं अतः उनको हम विचारशील सुखवादी कह सकते हैं। वे पुरुषार्थों में त्रिवर्ग ( अर्थ, धर्म, काम ) को ही मान्यता देते हैं। उनके अनुसार इन तीन पुरुषार्थों का सामंजस्यपूर्ण सेवन करना चाहिए ( ‘परस्परस्य अनुपघातकम् त्रिवर्गं सेवेत।’ – कामसूत्र  )। धर्म और अर्थ अंतिम लक्ष्य नहीं है। आंतिम लक्ष्य तो केवल काम है। वात्स्यायन ब्रह्मचर्य, धर्म और नागरिक कर्त्तव्यों को महत्त्व देते हैं। वे कहते हैं कि इसके बिना सुखभोग पशुवत् सुख-लिप्सा की श्रेणी में आ जायेगा। पंचमेद्रियों की तृप्ति ही काम या सुख का मूल है। इंद्रियों की तृप्ति आवश्यक है। इसके लिए वे कहते हैं कि ६४ कलाओं के अभ्यास से व्यक्ति को अपनी इंद्रियों को संयत और शिष्ट बनाना चाहिए। अधैर्य को वात्स्यायन घातक मानते हैं। सुखलिप्सा संयत रहे तभी लाभकारी है।
  • प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध से पूर्व के कई सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है जिन्हें ‘धूर्त चार्वाकों’ की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है और इन सबका खंडन बुद्ध ने किया है –
    • पूरण काश्यप – घोर अक्रियावादी। इनका मत था कि मनुष्य के कर्मों का कोई फल नहीं होता है।
    • मक्खलि गोशाल – नियतिवादी। मनुष्य नियति के अधीन है। उसमें न बल है न पराक्रम। भाग्याधीन वह सुख-दुःख का भोग करता है।
    • अजित केशकम्बलिन – नितांत भौतिकवादी। इन्हें उच्छेदवादी ( nihilist ) भी कहते हैं। ये भी चार जड़ तत्त्व ( पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ) को मानते हैं। मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जाता है। ये चार्वाक परम्परा को पुष्ट करते हैं यद्यपि परम्परानुसार बृहस्पति को चार्वाक दर्शन का संस्थापक मना गया है। चूँकि संसार की समस्त घटनाएँ अपने स्वभाववश होती हैं अतः व्यक्ति को सुखभोग के लिए जो इच्छा हो ( यदृच्छावाद ) वही करना चाहिए।
    • पकुध कच्चायन – नित्यवादी। ये कर्म और पुनर्जन्म को नकारते हैं। इनके अनुसार सात तत्त्व नित्य और अबध्य हैं – पृथ्वी, जल, तेज, वायु, सुख, दुःख और जीवन। इसलिए यदि कोई किसी को मारता काटता है तो वह न तो मारा जाता है न ही काटा जाता है। यह सिद्धान्त भी भौतिकवादी प्रतीत होता है।
    • संजय वेलट्ठिपुत्त – अनिश्चयवादी या अज्ञेयवादी। वे न किसी मत को स्वीकार करते हैं न ही नकारते हैं। प्रत्येक प्रश्न का वे चतुष्कोटि न्याय से उत्तर देते हैं।
  • हाल ही में ‘तत्त्वोपल्लव सिंह’ नामक एक प्राचीन पाण्डुलिपि मिली है। यह चरम संशयवाद का उदाहरण है। इसके प्रणेता जयराशि लौकायतिक थे। इन्होंने तो प्रत्यक्ष ज्ञान को भी चुनौती दे दी। ये भौतिक तत्त्वों की सत्ता को भी सिरे से नकार देते हैं। ये चार्वाक संशयवाद को इन्होंने पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। वे कहते हैं कि सभी सिद्धान्तों को नकारने पर भी जीवन पूर्ववत् चलता रहेगा। ( ‘तदेवम् उपप्लुतेषु तत्त्वेषु अविचारितरमणीया सर्वे व्यवहारा घटन्टे।’ )

उपसंहार

यह केवल भौतिकवाद में विश्वास करता है। भौतिक तत्त्वों से बना हुआ मनुष्य का भौतिक शरीर ही उसका एकमात्र तत्त्व है। मृत्यु ही मनुष्य का अंत है। जीवन में आनंद लेना ही मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य है। मृत्यु से परे कोई जीवन नहीं होता; न स्वर्ग होता है न नरक; और न पुनर्जन्म होता है और न ही कर्मवाद। चार्वाक दर्शन आत्मा, परमात्मा अथवा इस जीवन से परे किसी अन्य जीवन में विश्वास नहीं करता।

इसलिए ‘बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि अधिकतम सुख प्राप्ति को वह अपना जीवन लक्ष्य बनाये।’ अन्य लक्ष्यों की अपेक्षा सुख प्राप्ति अपेक्षाकृत निश्चित है। जैसे भूसा मिला होने से अन्न का त्याग नहीं किया जाता है और जानवरों द्वारा चराई के डर से अनाज की बुवाई नहीं छोड़ी जाती है। उसी तरह सुखों का परित्याग इसलिए नहीं करना चाहिए की वे दुःख-मिश्रित हैं।

व्यक्ति को यथासंभव जीवन को सुखमय बनाने और दुखों से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए। संक्षेप में, उनका सिद्धांत है :—

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः ॥

( अर्थात् मनुष्य जब तक जीवित रहे सुख के साथ ज़िन्दा रहे। ऋण लेकर घृतपान करें। शरीर के भस्म होने पर पुनः जन्म नहीं होता है। )

 

भारतीय दर्शन

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