गैरिक मृद्भाण्ड ( Ochre Coloured Pottery – OCP )

भूमिका

गैरिक मृद्भाण्ड एक विशेष प्रकार के मिट्टी के बर्तन हैं जो अधिकांशतः गंगा घाटी क्षेत्र से मिलते हैं। गैरिक मृदभाण्ड को गेरुवर्णी या गेरुए रंग के मृदभाण्ड भी कहते हैं।

गैरिक मृद्भाण्डों को खोज सर्वप्रथम पुराविद बी० बी० लाल ने १९४९ ई० में बिसौली (बदायूँ) तथा राजपुरपरसू (बिजनौर) के पुरास्थलों के उत्खनन के दौरान किया। इन स्थलों से उन्हें गेरुए रंग के मृद्भाण्ड-खण्ड प्राप्त हुए। इनके रंग के आधार पर ही इनका नामकरण गैरिक मृदभाण्ड किया गया। पुरातत्व में इनका नाम ‘ओ०सी०पी०’ ( Ochre coloured pottery – OCP ) सर्वप्रचलित है।

गैरिक मृदभाण्ड जीर्ण-शिर्ण क्यों हैं?

ये मृदभाण्ड अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में प्राप्त होते हैं। छूने पर इनका रंग अंगुलियों में लग जाता है तथा ये चूर-चूर हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि इन्हें पूर्णरूप से पकाया नहीं गया है। इस सम्बन्ध में विद्वानों के दो तरह मत हैं —

  • संकालिया का विचार है कि जिन स्थलों से ये भाण्ड मिले हैं वे काफी समय तक पानी में डूबे रहे होंगे जिससे उनमें नमी आ गयी तथा मृद्भाण्ड अत्यन्त कमजोर एवं भुरझुरे हो गये।
  • किन्तु बी० बी० लाल संकालिया के विचार से असहमति प्रकट करते हुए कहते हैं कि बर्तनों को दुर्बलता एवं भंगुरता उनके लम्बे समय तक खुले पड़े रहने एवं ऋतु परिवर्तन के कारण है।

गैरिक मृदभाण्ड परम्परा का विस्तार

इस प्रकार गैरिक पात्र परम्परा उत्तर में बहदराबाद से लेकर दक्षिण-पश्चिम में नोह तक तथा पूरब में अहिच्छत्र से पश्चिम में काटपलान तक विस्तृत थी। हस्तिनापुर, अंतरजीखेड़ा, अहिच्छत्र, शृंगवेरपुर तथा नोह की खुदाई में ये पात्र सबसे नीचे के स्तर से मिलते हैं।

गैरिक मृद्भाण्डों का विस्तार मुख्यतः उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तरी राजस्थान आदि में मिलता है। इससे सम्बन्धित प्रमुख स्थल है—

  • बहदराबाद ( Bahdarabad ) – जिला हरिद्वार, उत्तराखंड 
  • कटपलोन ( Katpalon ) – जालंधर, पंजाब
  • नोह ( Noh ) – भरतपुर, राजस्थान
  • अम्बाखेड़ी ( Ambalheri ) – सहारनपुर, उ०प्र०
  • बड़गाँव ( Badgaon ) – सहारनपुर, उ०प्र०
  • झिनझिना ( Jhinjhina ) – मुजफ्फरनगर, उ०प्र०
  • हस्तिनापुर ( Hastinapur ) – मेरठ, उ०प्र०
  • अतरंजीखेड़ा ( Atranjikhera ) – एटा, उ०प्र०
  • जखेड़ा ( Jakhera ) – कासगंज, उ०प्र०
  • सैपई ( Saipai ) – इटावा, उ०प्र०
  • लालकिला ( Lal Quila ), दौलतपुर ( Daulatpur ), किरातपुर ( Kiratpur ) – बुलन्दशहर, उ०प्र०
  • अहिच्छत्र ( Ahicchatra ) – बरेली, उ०प्र०
  • बहारिया ( Bahariya ) – शाहजहाँपुर, उ०प्र०
  • बिसोली ( Basauli ) – बदायूँ, उ०प्र०
  • राजपुर परसू ( Rajpur Parsu ) – बिजनौर, उ०प्र०
  • फतेहपुर सीकरी ( Fatehpur Sikri ), साधवा खेरा ( Sadhwa Khera ) – आगरा, उ०प्र०
  • राधनपुर ( Radhanpur ) – कानपुर देहात, उ०प्र०
  • पेरियार ( Periyar ) – उन्नाव, उ०प्र०
  • शृंगवेरपुर ( Shringaverpur ) – प्रयागराज, उ०प्र०
  • कमौली ( Kamauli ) – वाराणसी, उ०प्र० आदि।
गैरिक मृदभाण्ड : प्रमुख स्थल
गैरिक मृदभाण्ड : प्रमुख स्थल

गेरुवर्णी पात्र : प्रकार

गैरिक मृद्भाण्डों में कई प्रकार के पात्र मिले हैं। इनमें साधार तश्तरी एवं घड़े, बेसिन, कटोरे, ढक्कन, बड़ी आकार की नाँदें, भण्डारण पात्र, छोटे एवं सामान्य आकार के बर्तन आदि मुख्य रूप से उल्लेखनीय है।

प्रारम्भिक पात्रों पर कोई अलंकरण या चित्रण नहीं मिलता। किन्तु अंतरंजीखेड़ा एवं लाल किला से प्राप्त बर्तनों के टुकड़ों के लाल सतह पर काले रंग में चित्रण किया गया है। लाल किला से मिले एक पात्र पर कूबड़दार वृषभ (Humped Bull) का चित्रण है। कुछ बर्तनों के टुकड़ों पर विविध आकार-प्रकार की रेखाओं, पत्तियों आदि से चित्रकारियों की गयी है।

गैरिक मृदभाण्ड के निर्माता कौन थे?

गैरिक मृद्भाण्ड के निर्माता कौन थे? इस विषय में विद्वानों में मतभेद है।

  • बी० बी० लाल इन भाण्डों को ताम्रनिधियों के समकालीन मानते हुए इसके निर्माताओं को गंगाघाटी का आदि निवासी मानते हैं। उनके अनुसार गांगेयक्षेत्र में आर्यों के प्रवेश के पहले शबर, निषाद, मुण्डा आदि आदिम जातियाँ निवास करती थीं। इन्हें ही गैरिक भाण्डों का निर्माता कहा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि राजपुरपरसू, बहदराबाद, सैपई आदि स्थलों से गैरिक भाण्ड ताम्रनिधियों के साथ मिलते है जिससे दोनों की समकालीनता सिद्ध होती है। सैपई से गैरिक भाण्डों के साथ ताम्रनिर्मित एक मत्स्य भाला भी मिलता है।
  • इसके विपरीत कुछ विद्वान इन्हें प्राग्हड़प्पा तथा कुछ परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के निवासियों की कृतियाँ मानते हैं। उल्लेखनीय है कि अम्बाखेड़ी तथा बहदराबाद से प्राप्त कतिपय गैरिक मृद्भाण्ड प्राग्हड़प्पाकालीन मृद्भाण्डों जैसे हैं। एक भाण्ड पर कूबड़दार वृषभ का अंकन है जो हड़प्पावासियों का पवित्र पशु था। अम्बाखेड़ी से मिट्टी के बने कूबड़दार वृषभ, गाड़ी के पहिये तथा मृत्पिण्ड भी मिलते हैं जो हड़प्पा जैसे हैं। इन समानताओं को देखते हुए यज्ञदत्त शर्मा, कृष्णदेव जैसे विद्वानों का विचार है कि गैरिक भाण्ड उन लोगों की कृतियाँ हो सकती हैं जो हड़प्पा सभ्यता के पतनोपरान्त उस क्षेत्र में बसे थे। वे इस क्षेत्र के स्थायी निवासी थे, न कि भ्रमणशील या घुमक्कड़ जैसा कि बी० बी० लाल प्रस्तावित करते है।

आर० सी० गौड़ इन मृद्भाण्डों को तीन श्रेणियों में रखते है-

    • अतरंजीखेडा, सैपई, लाल किला, नोह से प्राप्त विशुद्ध गैरिक मृद्भाण्ड।
    • बहदराबाद, अम्बाखेड़ी आदि से प्राप्त वे गृद्भाण्ड जिन पर हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है।
    • आलमगीरपुर तथा बड़गाँव से प्राप्त मृद्भाण्ड जो परवर्ती हड़प्पा संस्कृति के भाण्डों से प्रभावित हैं।

इस प्रकार गैरिक मृद्भाण्ड के निर्माताओं का प्रश्न असंदिग्ध रूप से हल नहीं किया जा सकता।

तिथिक्रम

जहाँ तक गैरिक मृद्भाण्डों के तिथिक्रम का प्रश्न है, इस विषय में हमारा ज्ञान अनुमानपरक ही है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है हस्तिनापुर, नोह, अहिच्छत्र, अंतरंजीखेड़ा, शृंगवेरपुर आदि पुरास्थलों की खुदाई में सबसे निचले स्तर से ये मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। हस्तिनापुर के उत्खननकर्ता बी० बी० लाल के अनुसार इनका काल ईसा पूर्व १२०० के पूर्व निर्धारित किया जा सकता है। अधिकांश पुराविद् इन मृद्भाण्डों का समय ईसा पूर्व १३०० से १२०० निर्धारित करने के पक्ष में है।

मृद्भाण्ड परम्परायें ( Pottery traditions )

गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति ( Ochre Coloured Pottery Culture )

ताम्र संचय संस्कृति

चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW )

 

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