ऐहोल ( Aihole )

भूमिका

ऐहोल ( Aihole ) कर्नाटक प्रांत के बागलकोट जनपद में मालप्रभा नदी के तट पर स्थित है।  इसको मन्दिरों का नगर’ ( Town of Temples ) भी कहा गया है। यहाँ से लगभग ७० मन्दिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जैन कवि रविकीर्ति विरचित पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल अभिलेख भी यहीं से मिलता है।

 

ऐहोल ( Aihole )
ऐहोल

वेसर शैली या चालुक्य शैली का जन्म

यह वह समय था जब उत्तरी भारत में वैभवशाली गुप्त साम्राज्य का अवसान हो चुका था और दक्कन में वाकाटकों का। दक्कन सदैव उत्तरी और दक्षिणी भारत को जोड़ने वाली कड़ी का काम करता रहा है। गुप्तोत्तर काल में उत्तर भारतीय कला और स्थापत्य दक्कन होते हुए दक्षिण पहुँची। एक और महत्वपूर्ण बात दक्कन में उत्तरी नागर और दक्षिणी द्रविड़ शैली के संगम से एक नयी स्थापत्य शैली ने जन्म लिया। इसको ‘वेसर शैली’ नाम दिया गया। दक्कन पर चालुक्यों के लम्बे शासन और उन्हीं के शासन में जन्म लेने के कारण वेशर शैली को ‘चालुक्य शैली’ भी कहा जाता है। राजवंशों का उत्थान और पतन होता रहा परन्तु वेशर शैली ( चालुक्य शैली ) निरंतर जीवंतता के साथ विकसित होती रही।

कुछ स्वाभाविक प्रश्न उठते हैं; जैसे – दो शैलियों का समावेश क्यों हुआ? एक ही स्थान पर दो भिन्न-भिन्न शैलियों की वास्तुकला क्यों बनायी गयी? इसका कारण जिज्ञासा थी या कुछ अलग कर दिखाने की ललक?

निस्संदेह यह तत्कालीन वास्तुकलाविदों की सर्जनात्मक इच्छाओं की गतिमान अभिव्यक्तियाँ थीं, जो तत्कालीन भरतीय उप-महाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत अपने साथी कलाकारों के साथ प्रतियोगिता रखते थे। साथ ही शासकों की रुचियाँ, शक्ति व कलानुराग का भी कम प्रभाव नहीं कहा जा सकता। यह स्पष्टीकरण हो सकता है कि सटीक न हो पर पर इन तथ्यों समझने का प्रयास अवश्य कहा जा सकता है कि कैसे कला का विकास, पूर्णता और उसमें परिवर्तन होता है? साथ ही यह कलाविदों और शोधार्थियों के लिए रोचक क्षेत्र भी है।

ऐहोल से मिले मन्दिर

ऐहोल में चालुक्य शैली के सबसे प्राचीन मन्दिर मिलते है। प्रारंभिक चालुक्यों ने शुरुआत में शैलकृत गुफाओं का निर्माण करवाया और फिर संरचनात्मक मन्दिरों का निर्माण करवाया। पुरानी गुफाओं में से एक है – ‘रावण फाडी गुफा’ ( the Ravana Phadi cave ) या रावण की पहाड़ गुफा। यहाँ से पयी गयी एक प्रमुख प्रतिमा है – ‘नटराज की मूर्ति’। यह नटराज मूर्ति ‘सप्तमातृकाओं’ से घिरी हुई है। इसमें से तीन प्रतिमाएँ भगवान शिव के बायीं ओर और चार प्रतिमाएँ दायीं ओर निर्मित हैं। सप्तमातृकाओं की प्रतिमा लालित्यपूर्ण हैं, शारीरिक संरचना पतली है, मुखाकृति लम्बी बनायी गयी है और ये छोटी धोती पहने हुए हैं जिसमें चुन्नटें बनायीं गयीं हैं। कलाविदों के अनुसार ये निश्चित रूप से पश्चिमी दक्कन या वाकाटक शैलियों से अलग हैं जोकि महाराष्ट्र के पौनार व रामटेक जैसे स्थानों पर दिखती हैं।

ऐहोल से मिले लगभग ७० मन्दिरों में से ( जिनमें अधिकतर भग्नावस्था में हैं और कुछ वर्तमान ) कुछ निम्न हैं –

  • लाढ खाँ मन्दिर
  • दुर्गा मन्दिर
  • हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर
  • मेगुती जैन मन्दिर

इसमें से ‘लाढ़ खाँ’ और ‘दुर्गा मन्दिर’ इनमें सर्वविदित हैं। अधिकतर मन्दिर वैष्णव अथवा शैव मत को समर्पित हैं। ऐहोल का विष्णु मन्दिर अभी भी सुरक्षित अवस्था में है।

लाढ़ खाँ मन्दिर

हिन्दू गुहा मन्दिरों में सबसे सुन्दर सूर्यदेव को समर्पित मन्दिर है, जिसका नाम ‘लाढ़ खाँ’ है। लाढ़ खाँ मन्दिर वर्गाकार ( ५० वर्ग फीट ) है और इसकी छत स्तम्भों पर टिकी हुई है। छत में एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह और द्वार मण्डप ( Porch ) बनाया गया है। मन्दिर तीन दिशाओं – पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में दीवाल से घिरा है। पूर्वी दिशा में स्तम्भयुक्त एक खुला बरामदा और एक बड़ा सा सभा-कक्ष बनाया गया है। छत को बड़े प्रस्तरों से बनाया गया है। लाढ़ खाँ मन्दिर में शिखर नहीं है। मन्दिर के मध्य में नन्दी की विशाल मूर्ति स्थापित है परन्तु  मन्दिर का अन्य भाग बैष्णव लक्षणों से पूरित है। लाढ़ खाँ मन्दिर के सम्बन्ध में कलाविद् पर्सी ब्राउन का कहना है कि मौलिक रूप से यह एक विशाल सभा मण्डप रहा होगा जिसको बाद में मन्दिर का रूप दे दिया गया होगा।

दुर्गा मन्दिर

लाढ खाँ मन्दिर से सर्वथा भिन्न ‘दुर्गा मन्दिर’ बनाया गया था। इसका आकार ६० × ३६ फीट है। इस मन्दिर को लाढ़ खाँ मन्दिर से लगभग १०० वर्ष बाद बानाया गया था। विद्वानों के अनुसार इसको बौद्ध चैत्य के अनुसरण पर ब्राह्मण मन्दिर के रूप बनाने का प्रयास माना जा सकता है। इस मन्दिर को एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया है। गर्भगृह पर एक शिखर भी बना है। बरामदे का छत चपटी है और इसको भूमि से लगभग ३० फीट ऊपर बनाया गया है। बरामदे में प्रदक्षिणा पथ बना है। बाहरी स्तम्भों को देव मूर्तियों से सजाया गया है। अधिष्ठान और स्तम्भों का अलंकरण द्रविड़ शैली में किया गया है। इस मन्दिर का शिखर नागर शैली में जबकि द्रविड़ वास्तु के विविध लक्षणों को समाहित किये हुए यह मन्दिर उत्तर-दक्षिण समन्वय का अनुपम उद्धरण है। मूर्तिकारी के दृष्टिकोण से यह मन्दिर लाढ़ खाँ मन्दिर से अपेक्षाकृत सुन्दर है। जिसके प्रदक्षिणापथ में नटराज शिव की मूर्ति विराजमान हैं।

हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर

ऐहोल में ही ‘हच्चीमल्लीगुड्डी मन्दिर’ है। यह दुर्गा मन्दिर के ही समान है परन्तु आकार में छोटा है। गर्भगृह और मण्डप के बीच निर्मित अन्तरालइस मन्दिर की नवीन विशेषता है।

मेगुती जैन मन्दिर

यहाँ की कुछ गुहाओं में जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ भी मिलती है। ऐहोल प्रशस्ति के लेखक ‘रविकीर्ति’ जैन थे। उन्होंने ऐहोल में ही जिनेन्द्र का मन्दिर बनवाया था। इस जिनेन्द्र मन्दिर को ‘मेगुती मन्दिर’ या ‘मेगुती जैन मन्दिर’ कहा जाता है। इस मन्दिर का निर्माण एक अलंकृत अधिष्ठान पर हुआ है। इसमें गर्भगृह, स्तम्भपूरित मण्डप और अन्तराल बनाया गया है। स्तम्भों के शीर्षभार का अलंकरण पर्याप्त रूप से सुन्दर है। मेगुती का मन्दिर ‘द्रविड़ शैली’ में है। इसको भूमि से सीधे ऊपर ढाँचा खड़ा करके निर्मित किया गया है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए मुख मण्डप है। दुर्भाग्य से इस मन्दिर का निर्माण अधूरा रह गया है।

ऐहोल के मन्दिरों का निर्माण गुहाचैत्यों के अनुकरण पर कराया गया था। अन्तर बस इतना है कि धातुगर्भ के स्थान पर इसमें मूर्तियों को स्थापित किया गया है।

ऐहोल अभिलेख

यहाँ से वातापी के चालुक्य वंश के शासक ‘पुलकेशिन् द्वितीय’ का अभिलेख मिला है। इस अभिलेख को रविकीर्ति द्वारा एक प्रशस्ति के रूप में सन् ६३४ ई० में मेगुती के जैन मन्दिर की दीवार पर अंकित कराया गया था। इसकी शैली महाकवि कालिदास और भारवि से प्रभावित है। इस प्रशस्ति में पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। समकालीन नरेश हर्षवर्धन के साथ युद्ध का भी इसमें उल्लेख किया गया है। ऐहोल अभिलेख से कई ऐतिहासिक तथ्यों का ज्ञान मिलता है।

निष्कर्ष

वातापी के चालुक्यों के समय में ऐहोल कला और स्थापत्य का केंद्र बनकर उभरा। जिसके प्रमाण वहाँ के पुरातात्विक अवशेष, वर्तमान मन्दिर और शिलालेख देते हैं।

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