उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड (Northern Black Polished Ware, NBPW)

भूमिका

ये मिट्टी के पात्र ईसा पूर्व छठी शताब्दी अथवा बुद्ध काल के विशिष्ट मृद्भाण्ड हैं जिन्हें सामान्यतः उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड अथवा काली पॉलिश के बर्तन कहा जाता है। इन मृद्भाण्डों से द्वितीय नगरीकरण के प्रारम्भ की सूचना मिलती है। संक्षेप में इन्हें एन० बी० पी० डब्ल्यू० ( NBPW – Northern Black Polished Ware ) कहा जाता है।

काली पॉलिशदार पात्र परम्परा के मृत्तिका कला उद्योग ( Ceramics Industry ) ने अपनी चमकदार रंग, समय व स्थान के संदर्भ में व्यापकता के कारण अन्य मृदभाण्डों की अपेक्षा अधिक जिज्ञासा को पैदा किया। इस पात्र परम्परा की पहचान काँच सदृश चमकदार सतह है जो कि काली चमकदार रंग की है।

गंगा घाटी में एन० बी० पी० डब्ल्यू० संस्कृति की विशेषता है – लोहे के व्यापक उपयोग, सिक्कों की शुरूआत, स्तरीकृत और आर्थिक रूप से मजबूत समाज, धार्मिक जागरण या आन्दोलन ( बौद्ध व जैन धर्म ),  बड़े साम्राज्यों का उदय ( मगध साम्राज्यवाद ) आदि। इस सबका संयुक्त प्रभाव था गंगाघाटी का द्वितीय नगरीकरण। यह उत्तरी भारत के लोगों की भौतिक संस्कृति में एक नए युग की शुरुआत करता है।

मिथ्या नामकरण

‘उत्तरी काले पॉलिश वाले बर्तन’ या NBPW नाम स्पष्ट रूप से एक मिथ्या नाम ( misnomer ) है क्योंकि इसकी भौगोलिक सीमा उत्तरी भारत से परे फैली हुई है और यह काले रंग के अलावा भी कई रंगों में पायी जाती है।

प्रारंभिक अवस्था में इस मिट्टी के बर्तनों की खोज १९०४-०५ में सारनाथ ( वाराणसी ) और १९११-१२ में भीटा ( प्रयागराज ) में की गयी थी। इसे ‘उत्कृष्ट काले चमकदार’ ( fine black lustrous ) पात्र के रूप में वर्णित किया गया था। बाद में १९१३ में फिर से तक्षशिला ( रावलपिंडी, पाकिस्तान) में इस पात्र परम्परा के अधिक ठीकरे ( sherds ) मिले।

तक्षशिला से केवल २१ ठीकरे मिलने और उनकी काली चमकदार सतह के कारण मार्शल ने उन्हें ‘यूनानी काले पात्र’ ( Greek black ware ) के रूप में पहचाना और यह बताया कि यह पात्र परम्परा भारत में यूनानियों के आगमन के साथ यहाँ प्रारम्भ हुई।

परन्तु भीटा ( प्रयागराज  ) में पूर्व मौर्यकाल स्तर पर ये मृदभाण्ड पाये गये। १९३० व १९४० के दशक की शुरुआत में NBPW मुख्य रूप से गंगा के मैदानों में पाये गये। परन्तु तब से यह काफी विस्तृत क्षेत्र में पाया गया है।

नागपुर सम्मेलन में प्रो० हर्टेल ( Prof. Haertel ) ने  NBPW नामकरण को बदलने का सुझाव दिया क्योंकि शब्द और पात्र के वास्तविक चरित्र के बीच असमानता है। परन्तु गुप्ता, शर्मा, अग्रवाल, जोशी, दीक्षित, और सिन्हा जैसे विद्वानों और कई लोगों का मानना ​​है कि इस स्तर पर नाम बदलने से केवल भ्रम पैदा होगा, इसलिए नामकरण बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः यही नाम चलता रहा।

निर्माण तकनीक

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभाण्ड प्राविधिक दृष्टि से तत्कालीन भारत के सर्वोत्कृष्ट भाण्ड थे। इन्हें अच्छी तरह तैयार एवं गूँथी हुई मिट्टी से ऊँचे तापक्रम वाले आँवे में पकाकर निर्मित किया जाता था। इन पात्रों पर अत्यधिक चमकीली पॉलिश थी। यह अधिकांशतः काँच के समान झलकती थी तथा बिल्कुल काले रंग से लेकर गहरी भूरी अथवा धातु जैसी फौलादी नीली होती थी जिससे मृद्भाण्डों में विशेष प्रकार की भव्यता तथा चमक आ जाती थी।

इनकी पॉलिश के विषय में विद्वानों में मतभेद है –

  • सनाउल्ला का मत है कि इन बर्तनों के काले लेप में १३% लौह युक्त ऑक्साइड (Ferrous oxide) मिला होने के कारण इनका रंग काला हो गया है।
  • बी० बी० लाल का विचार है कि बर्तन बनाते समय उसकी सतह पर एक विशेष प्रकार का मिट्टी का घोल लगा दिया गया है।
  • एच० सी० भारद्वाज के अनुसार बर्तनों के काले रंग तथा चमक का कारण कार्बन तथा मैगनेटिक फेरस सिलिकेट का परिणाम है।
  • हेगडे का मानना है कि मैगनेटिक आक्साइड की पतली परत के कारण बर्तन काले-चमकीले हो गये है।

कहीं-कहीं इन पात्रों का रंग काले के अतिरिक्त गुलाबी, नीला, चॉकलेटी, रुपहला आदि भी मिलता है। इस प्रकार एन० बी० पी० भाण्डों के रंग तथा चमक एक रहस्य बनी हुई है।

इन्हें तेज गति से घूमने वाले चाक पर संभवतः बनाया जाता था जिससे इनका आकार अत्यन्त पतला तथा हल्का दिखाई देता है। कभी-कभी इन बर्तनों पर पट्टियाँ, अर्धवृत्त, लाल भूरी चित्तियों आदि के अलंकरण भी मिलते हैं।

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभाण्ड परम्परा के प्रमुख पात्र हैं – थालियाँ, कटोरे, छोटे प्याले, ढक्कन, हाँड़ियाँ, छोटे कलश आदि।

समृद्धि सूचक

अपनी उत्कृष्ट बनावट तथा अच्छी गढ़न के कारण ये धातु-पात्रों के समान सुन्दर लगते थे। स्पष्टतः ये समृद्धि सूचक बर्तन थे जिनका प्रयोग सामान्यजन नहीं करता था, अपितु ये धनाढ्य और कुलीन वर्गों द्वारा ही, जो प्रायः शहरों में निवास करते थे, अनुष्ठानों अथवा खान-पान में प्रयोग में लाये जाते थे। इनका व्यापार भी किया जाता था। अन्य बर्तनों की तुलना में ये बर्तन अधिक महँगे होते थे क्योंकि कुछ पुरास्थलों से प्राप्त इनके ठीकरे ताँबे के पिनों से जुड़े हुए हैं। इससे ज्ञात होता है कि इस पात्र परम्परा के टूटे हुए बर्तन का भी मूल्य होता था।

  • This is an excellent grade of pottery, first made as trade ceramics, presumably for wine and oils, about the sixth century BC. – D. Kosambi :  History and Civilization of Ancient India.

प्रसार

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड मध्य गंगाघाटी की प्रमुख पात्र परम्परा है। प्रयागराज तथा भागलपुर के बीच गंगा के दोनों ओर कछारी मैदान में ४५० एन० बी० पी० स्थलों की खोज की गयी है। रोपड़ तथा अहिच्छत्र समेत उच्च गंगा घाटी के अनेक स्थलों से ईसा पूर्व ३०० के पूर्व के एन० बी० पी० पात्र मिलते हैं। मालवा क्षेत्र में उज्जैन तथा बेसनगर से भी इनकी प्राप्ति हुई है। किन्तु सर्वाधिक स्थल मध्य गंगा क्षेत्र में स्थित है जो पूर्व-मौर्यकाल में नगरीकरण के उत्कर्ष का केन्द्र बिन्दु था।

यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि इन बर्तनों का निर्माण कहाँ होता है। आधुनिक पुरातत्ववेत्ता यह मानते हैं कि मध्य गंगाघाटी का प्रदेश ही इसके निर्माण का मुख्य स्थल था। इस क्षेत्र में कौशाम्बी तथा पटना के समीपवर्ती भाग से ये बर्तन बहुतायत में मिले है। ह्वीलर तथा कृष्णदेव जैसे पुराविद् यह बताते है कि मध्यक्षेत्र से ही ये बर्तन व्यापारियों अथवा तीर्थयात्रियों द्वारा पूर्वी राजस्थान पश्चिमी, मध्य तथा पूर्वी भारत में ले जाये गये थे। इनके निर्यात के लिये कौशाम्बी का क्षेत्र सबसे उपयुक्त स्थल था।

भारत, पाकिस्तान, बंगला देश तथा अफगानिस्तान के एक बड़े भूभाग में इन बर्तनों का प्रसार पाया जाता है। अफगानिस्तान के बेग्राम, पाकिस्तान के तक्षशिला, चारसद्दा, उदग्राम, नेपाल की तराई में तिलौराकोट आदि स्थलों से ये मृदभाण्ड मिलते हैं। भारतीय भूभाग में गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश आदि से इस पात्र परम्परा के बर्तन अथवा ठीकरे प्राप्त किये गये हैं। इस प्रकार इसका प्रसार एक व्यापक क्षेत्र में दिखायी देता है।

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड : प्रसार

प्रमुख स्थल

कुछ प्रमुख स्थल :-

  • अफगानिस्तान में
    • कंधार ( Kandhar )
    • बेग्राम ( Begram )
  • पाकिस्तान मे
    • चारसद्दा ( Charsadda ) – स्वात घाटी
    • उदग्राम ( Odegram / Odigram ) – स्वात घाटी
    • तक्षशिला ( Taxila ) – रावलपिंडी
  • नेपाल की तराई में
    • तिलौराकोट ( Tilaurakot )
  • पंजाब में
    • रोपड़ ( Ropar )
  • हरियाणा में
    • राजा कर्ण का टीला ( Raja Karn ka Tila ) – कुरुक्षेत्र जनपद
    • दौलतपुर ( Daulatpur ) – कुरुक्षेत्र जनपद
  • राजस्थान में
    • बैराट ( Bairat ) – जयपुर जनपद
    • नोह ( Noh ) – भरतपुर जनपद
    • जोधपुरा ( Jodhpura ) – जयपुर जनपद
  • उत्तराखंड में
    • काशीपुर ( Kashipur ) – ऊधम सिंह नगर
  • उत्तर प्रदेश में
    • हुलास ( Hulas ) – सहारनपुर
    • आलमगीरपुर ( Alamgirpur) – मेरठ जनपद
    • हस्तिनापुर ( Hastinapur ) – मेरठ जनपद
    • कसेरी ( Kaseri ) – मेरठ जनपद
    • अल्लाहपुर ( Allahpur ) – मेरठ जनपद
    • अहिच्छत्र ( Ahichchhtra ) – बरेली
    • अतरंजीखेड़ा ( Atranjikhera) – बरेली जनपद
    • जखेड़ा ( Jakhera ) – कासगंज जनपद
    • मथुरा ( Mathura )
    • सोंख ( Sonkh ) – मथुरा जनपद
    • काम्पिल्य ( Kampilya ) – फर्रुखाबाद जनपद
    • कन्नौज ( Kannauj )
    • साधवाखेड़ा ( Sadhvakhera ) – आगरा जनपद
    • राधन या राधनपुर ( Radhan or Radhanpur ) – कानपुर नगर
    • जाजमऊ ( Jajmau ) – कानपुर नगर
    • मुसानगर ( Musanagar ) – कानपुर देहात
    • फतेहपुर सीकरी ( Fatehpur Sikri ) – आगरा जनपद
    • खलौआ ( Khalaua ) – आगरा जनपद
    • बटेश्वर ( Bateshwar ) – आगरा जनपद
    • कौशाम्बी ( Kaushambi )
    • शृंगवेरपुर ( Shringverpur ) – प्रयागराज
    • हेतापट्टी ( Hetapatti ) – प्रयागराज जनपद
    • झूसी ( Jhusi ) – प्रयागराज जनपद
    • भीटा ( Bhita ) – प्रयागराज जनपद
    • अगियाबीर ( Agiabir ) – मिर्जापुर
    • सौंफरी ( Saunphari ) – शाहजहाँपुर जनपद
    • पेरियार ( Periyar ) – उन्नाव जनपद
    • अयोध्या ( Ayodhya )
    • चर्दा ( Charda ) – बहराइच जनपद
    • श्रावस्ती ( Shravasti )
    • गनवारिया / गाँवरिया ( Ganwaria ) – बलरामपुर जनपद
    • धुरियापार ( Dhuriapar ) – गोरखपुर जनपद
    • इमलीडीह कुर्द ( Imlidih Kurd ) – गोरखपुर जनपद
    • वैना ( Waina ) – बलिया जनपद
    • खैराडीह ( Khairadih ) – बलिया जनपद
    • लखनेश्वरडीह ( Lakhneshwardih ) – बलिया जनपद
    • चंदाडीह ( Chandadih ) – बलिया जनपद
    • लक्ष्मण टीला ( Lakshman Tila ) –  लखनऊ
    • हुलासखेड़ा ( Hulaskhera ) – लखनऊ जनपद
    • लहुरादेव ( Lahuradeva ) – संत कबीर नगर
    • मासनडीह ( Masondih ) – गाजीपुर जनपद
    • सराय मोहन ( Sarai Mohna ) – वाराणसी जनपद
  • बिहार में
    • सेनुवार ( Senuwar ) – रोहतास
    • सोनेपुर ( Sonepur ) – गया
    • ताराडीह ( Taradih ) – गया
    • तकियापार ( Takiapar ) – पटना
    • पाटलिपुत्र ( Pataliputra )
    • वैशाली ( Vaishali )
    • चिछार ( Chechar ) – वैशाली जनपद
    • कुतुबपुर ( Kutubpur ) – वैशाली जनपद
    • अफसढ़ ( Aphsarh / Aphsad ) – नवादा जनपद
    • बक्सर ( Buxar )
    • चंपा ( Champa ) – भागलपुर जनपद
    • ओरिप ( Oriup ) – भागलपुर जनपद
    • अंतीचक ( Antichak ) – भागलपुर जनपद
    • चिराँद ( Chirand ) – छपरा जनपद
    • माँझी ( Manjhi ) – छपरा जनपद
    • राजगीर ( Rajgir )
  • पश्चिम बंगाल में
    • बानगढ़ ( Bangarh ) – दक्षिण दीनाजपुर ( बेलूरघाट ) जनपद
    • चंद्रकेतुगढ़ ( Chandraketugarh ) – उत्तरी २४ परगना ( बारासात ) जनपद
  • मध्य प्रदेश में
    • उज्जैन ( Ujjain )
    • आव्रा ( Awra ) – मंदसौर
    • एरण ( Eran ) – सागर जनपद
    • त्रिपुरी ( Tripuri ) – जबलपुर जनपद
    • महेश्वर ( Maheshwar ) – खरगोन जनपद
  • महाराष्ट्र में
    • प्रकाश ( Prakash ) – नंदुरबार जनपद
    • बहल ( Bahal ) – जलगाँव जनपद
    • नासिक ( Nasik ) –
    • नेवासा (  Nevasa ) – अहमदनगर जनपद
    • टेर ( Ter ) – उस्मानाबाद जनपद
    • कौंडिन्यपुर ( Kaundinyapur ) – अमरावती
    • ब्रह्मपुरी ( Brahmapuri ) – कोल्हापुर जनपद
  • ओडिशा में
    • शिशुपालगढ़ ( Shishupalgarh ) – खोर्धा जनपद
  • तेलंगाना में
    • कोंडापुर ( Kondapur ) – रंगारेड्डी जनपद ( हैदराबाद )
  • आंध्र प्रदेश में
    • छब्रोलू या चेब्रोलू ( Chebrolu ) – गुंटूर जनपद
    • अमरावती ( Amravati ) – गुंटूर जनपद
    • धरणीकोट ( Dharnikot ) – गुंटूर जनपद

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड : स्थल

स्तरीकरण

स्तरिकी ( stratigraphy ) की दृष्टि से पंजाब, हरियाणा, उत्तरी राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड ( NBPW ) से पहले चित्रित धूसर मृदभाण्ड ( PGW ) मिलते हैं। रोपड़ (पंजाब), राजा-करण-का-किला (हरियाणा), नोह और जोधपुरा (राजस्थान), अहिच्छत्र, अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा और श्रावस्ती के स्थलों पर दो संस्कृतियों के बीच एक अतिव्याप्ति ( overlapping ) देखने को मिलता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रह्लादपुर, राजघाट आदि स्थलों के साथ-साथ बिहार में कम्राहार, वैशाली और सेनुवार आदि स्थलों पर उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड ( NBPW ) काले और लाल पात्र ( BRW ) से बाद का है। ऊपर उल्लिखित सभी क्षेत्रों में NBPW के बाद रेड स्लिप्ड वेयर ( red slipped ware ) आते हैं।

उत्पत्ति

उत्तरी काली पॉलिशदार पात्र परम्परा के निर्माताओं के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसकी चमक तथा पॉलिश को देखकर पहले कुछ विद्वानों ने यह विचार व्यक्त किया कि यूनान के ‘काले काचित मृद्भाण्ड’ (Black glazed ware) के प्रभाव से भारत की एन० बी० पी० परम्परा का जन्म हुआ। मार्शल ने उक्त यूनानी पात्रों को तक्षशिला की खुदाई के दौरान प्राप्त करने का दावा किया है। तक्षशिला के ‘भीर टीले’ से एन० बी० पी० पात्रों के ठोकरे (Sherds) मिलते हैं जिनको तिथि ईसा पूर्व ३०० के लगभग है। हाल ही में भीर टीले की खुदाई में ऊपरी स्तर से सिकन्दर का एक सिक्का मिलता है जबकि एन० बी० पी० पात्र के ठीकरे निचले स्तर से मिले हैं। इससे सूचित होता है कि सिकन्दर के आक्रमण के पहले से ही इस क्षेत्र में एन० बी० पी० पात्रों का निर्माण एवं प्रचलन प्रारम्भ हो चुका था। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि एन० बी० पी० पात्र तक्षशिला में बाद के स्तर से उतने बहुतायत में नहीं मिलते जितने कि गंगाघाटी के स्थलों में मिलते हैं। पुनश्च यूनानी मृद्भाण्ड की तिथि ईसा पूर्व ५००-३०० निर्धारित की गयी है जबकि एन० बी० पी० मृद्भाण्ड परम्परा का प्रारम्भ गंगाघाटी में ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में हो गया था। इन प्रमाणों के आलोक में हम एन० बी० पी० पात्र परम्परा को यूनानी काचित पात्र परम्परा से उद्भूत नहीं मान सकते हैं।

यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि एन० बी० पी० मृद्भाण्ड गंगाघाटी में बहुतायत में मिलते हैं। अतः इसी क्षेत्र को इसका उत्पत्ति स्थल माना जा सकता है। इसके पूर्व चित्रित धूसर मृद्भाण्डों के साथ काले पुते मृद्भाण्ड (Black slipped ware) मिलते है। हस्तिनापुर के उत्खाता बी० बी० लाल का विचार है कि इन्हीं भाण्डों से बाद में चलकर एन० बी० पी० भाण्डों की उत्पत्ति हुई। भारतीय कुम्हारों ने भाण्ड बनाने में दक्षता प्राप्त कर ली तथा उन्हीं के द्वारा अत्यन्त सुन्दर एवं ओपदार भाण्डों का निर्माण किया गया। यह भी ध्यातव्य है कि मध्य गंगाघाटी तथा उत्तरी विन्ध्य क्षेत्र के विभिन्न स्थलों की खुदाई में काले पुते भाण्ड एन० बी० पी०, भाण्डों के पहले के स्तरों से मिलते हैं जिससे इस संभावना को बल मिलता है कि ये एन० बी० पी० मृद्भाण्डों के जनक थे। अतः एन० बी० पी० पात्र परम्परा को विदेशी सिद्ध करने का कोई आधार नहीं है। यह विशुद्ध भारतीय परम्परा है।

तिथिक्रम

एन० बी० पी० मृद्भाण्डों का तिथिक्रम निर्धारित करने के लिये तक्षशिला, हस्तिनापुर, कौशाम्बी तथा श्रावस्ती के उत्खनन के आधार बनाया जा सकता है। तक्षशिला के भीर टीले के उत्खनन में एन० बी० पी० मृद्भाण्डों के २२ ठीकरे मिले है। इनमें सत्रह ठीकरे उस स्तर के नीचे से मिले है जिससे सिकन्दर के सिक्के मिलते हैं। इस निचले स्तर का निक्षेप २.२० से २.५० मीटर तक था जिसके लिये दो सौ से तीन सौ वर्षों के लगभग तक की अवधि अनुमानित की जाती है। चूंकि सिकन्दर का भारत पर आक्रमण ईसा पूर्व ३२६ में हुआ था, अतः इस प्रमाण के आधार पर उत्तरी काली मार्जित मृदभाण्ड परम्परा की तिथि तक्षशिला में ईसा पूर्व पाँचवीं शती मानी जा सकती है।

तक्षशिला के दूसरे टीले सिरकप से इस मृद्भाण्ड के दो टुकड़े मिले है। ये ऊपरी स्तर से १८ फीट ( ≈ ५.५ मी ) नीचे से मिलते है जहाँ बस्ती ईसा पूर्व दूसरी शती में बसी थी। इस आधार पर ह्वीलर का अनुमान है कि उत्तरी काली मार्जित मृद्भाण्डों का समय पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में ईसा पूर्व पांचवीं से दूसरी शती तक माना जा सकता है। चारसद्दा, उदय ग्राम तथा तक्षशिला में इन मृद्भाण्डों का प्रवेश मौर्य साम्राज्य के विस्तार के साथ हुआ था। किन्तु बी० बी० लाल इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है।

उत्तरी काली मार्जित मृदभाण्ड परम्परा की तिथि निर्धारित करने के लिये गंगाघाटी के स्थलों के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये मृद्भाण्ड अधिकांशतः इसी क्षेत्र से मिलते हैं। इनमें हम हस्तिनापुर तथा कौशाम्बी के पुरास्थलों से प्राप्त सामग्रियों का विशेष रूप से उल्लेख कर सकते हैं।

हस्तिनापुर ( मेरठ जिले को मवाना तहसील में स्थित ) का उत्खनन बी० बी० लाल द्वारा करवाया गया। उन्होंने यहाँ के सांस्कृतिक स्तरों को पाँच भागों में विभाजित किया है। तीसरे सांस्कृतिक स्तर से एन० बी० पी० भाण्ड मिलते हैं। इसके पूर्व के प्रथम तथा द्वितीय स्तरों से क्रमश: गैरिक एवं चित्रित धूसर मृदभाण्ड प्रकाश में आये हैं। चौथा स्तर शुंग कुषाण काल से सम्बंधित है जहाँ से मथुरा के दत्तनामधारी राजाओं एवं यौधेयों के सिक्के ( कुषाण सिक्कों की अनुकृति पर ढले हुए ) मिले है। इनके आधार पर इस सांस्कृतिक स्तर की तिथि ईसा पूर्व दूसरी शती से तीसरी शती ईस्वी तक निर्धारित की गयी है। तीसरे तथा चौथे स्तरों के मध्य एक सौ वर्षों का व्यवधान माना गया है जिससे सूचित होता है कि तीसरा स्तर ईसा पूर्व तृतीय शती तक चलता रहा। इसका अन्त एक अग्निकाण्ड में हुआ जैसा कि तीसरे और चौथे स्तरों के बीच मिली राख की मोटी परत से सूचित होता है। तीसरे स्तर के मोटे निक्षेप (लगभग २.७० मीटर) के आधार पर डा० बी० बी० लाल ने इसे छः उपकालों में विभाजित है तथा प्रत्येक के लिये पचास वर्ष का समय अनुमानित करते हुए सम्पूर्ण स्तर का काल तीन सौ वर्षों का प्रस्तावित किया है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि हस्तिनापुर में एन० बी० पी० भाण्ड परम्परा ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर तीसरी शताब्दी तक विद्यमान रही।

कौशाम्बी (मंझनपुर तहसील) के उत्खनन में पचीस निर्माण कालों के साक्ष्य मिले हैं। इन कालों को पहले चार किन्तु अब पाँच सांस्कृतिक स्तरों में बाँटा गया है। तीसरा सांस्कृतिक स्तर, जिसे अब चौथा स्तर कहा जाता है, एन बी० पी० पात्र परम्परा से संबंधित है। प्रत्येक निर्माण काल की अवधि सत्तर वर्ष मानी गयी है। चौथे काल से हूण नरेश तोरमण (५१० – ५१५ ई० ) की दो मुहरें ( seals ) मिलती है। प्रथम के ऊपर तोरमाण तथा द्वितीय पर हूणराज उत्कीर्ण मिलता है। इसे आधार मानकर कौशाम्बी के उत्खननकर्ता जी० आर० शर्मा ने प्रस्तावित किया था कि चौथे ( सम्प्रति पाँचवें ) सांस्कृतिक स्तर का अन्त हूण नरेश के आक्रमणों के फलस्वरूप ५८३ ई० ( ५१४ + ७० ) में हुआ। कौशाम्बी का तीसरा ( वर्तमान में चौथा ) सांस्कृतिक स्तर उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड परम्परा से सम्बंध रखता है। अशोक स्तम्भ वाले इस क्षेत्र से इस मृभाण्ड परम्परा के आठ आवासीय स्तर उद्घाटित किये गये हैं। कौशाम्बी के सांस्कृतिक स्तरों में कोई रिक्तता नहीं मिलती। इस प्रकार यहाँ के काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड स्तर का काल ई० पू० ६०५ – ६४५ की कालावधि में निश्चित किया गया है।

श्रावस्ती ( उ०प्र० ) के टीले को खुदाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष के० के० सिन्हा के निर्देशन में करवायी गयी थी। उन्होंने यहाँ से प्राप्त उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड का प्रारम्भिक समय ई० पू० ५०० – ३०० के मध्य निर्धारित किया हैं।

इस तरह अन्यान्य स्रोतों से जो संकेत मिलते हैं उनके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि उत्तरी काली मार्जित मृदभाण्ड परम्परा ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के आसपास देश के विभिन्न भागों में प्रारम्भ हो चुकी थी। रेडियो कार्बन तिथियाँ भी इसी का समर्थन करती हैं।

पुरातत्ववेत्ता ईसा पूर्व की छठीं से चौथी शताब्दियों को एन० बी० पी० की प्रचुरता के युग के रूप में पहचानते हैं। इसी अवस्था में धातु मुद्रा का प्रचलन हुआ तथा कालान्तर में पक्की ईंटों तथा कुओं ( ईसा पूर्व तीसरी शती ) का प्रचलन हुआ। मौर्य काल की यह विशिष्ट पात्र परम्परा बन गयी। राजगीर के उत्खनन में सम्पूर्ण मौर्यकालीन स्तरों से ये मृद्भाण्ड बहुतायत में मिलते है। ईसा की एक अथवा दो शती पूर्व इन भाण्डों का प्रचलन या तो बन्द हो गया या अत्यन्त सीमित हो गया।

भौतिक संस्कृति

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड परम्परा से गंगाघाटी में ईसा पूर्व छठीं शताब्दी अथवा बुद्ध काल में नगरीकरण का प्रारम्भ हुआ। उत्पादन अधिशेष, लौह तकनीक का विकास, शिल्प उद्योगों एवं व्यापार वाणिज्य की प्राप्ति, धातु मुद्रा का प्रचलन, लिपि का प्रयोग आदि इसकी प्रमुख विशेषतायें हैं।

कृषि तथा युद्ध दोनों में लौह-उपकरणों एवं अस्त्र-शस्त्रों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाने लगा। लौह अयस्क को पिघलाने एवं पीटकर उपकरण बनाने में निपुणता प्राप्त कर ली गयी। लौह निर्मित फालों की सहायता से कड़ी से कड़ी भूमि को तोड़कर अत्यन्त गहरी जुताई होने लगी तथा फावड़ा, कुदाल आदि की सहायता से जंगली पेड़ों को काटकर तथा उनकी जड़ों ( कुत्थ ) को उखाड़कर अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बना लिया गया।

उत्पादन अधिशेष से गैर-कृषक नागर जनसंख्या का पोषण हुआ तथा प्रमुख नगर बाजार के रूप में विकसित हो गये। नगरों में शिल्पी, व्यवसायी, कारीगर, व्यापारी आदि बड़ी संख्या में केन्द्रित हो गये। शासकों तथा धार्मिक नेताओं द्वारा नगरीकरण को प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किये जाने से इसकी प्रक्रिया अत्यंत तीव्र हो गयी। मौर्यकाल तक आते-आते भवनों के निर्माण में पक्की ईंटों तथा पत्थरों का प्रयोग किया जाने लगा। नगरों के चारों ओर सुरक्षा भित्ति एवं परिखा बनाये जाने के प्रमाण कौशाम्बी, अहिच्छत्र, राजगृह आदि की खुदाइयों से मिलते हैं। राजमार्गों के भी अवशेष मिले है। पक्के कुओं का भी निर्माण होने लगा।

लोहे के साथ-साथ अन्य धातुओं को जानकारी बढ़ी तथा उनकी सहायता से आभूषण, उपकरण, बर्तन आदि बड़ी मात्रा में बनाये जाने लगे। ताँबे तथा चाँदी की पत्तरों को काट कर सिक्के तैयार किये जाते थे। काली पॉलिशदार पात्र पुरास्थलों से ये बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। इन पर व्यापारियों एवं व्यवसायियों के चिह्न ठप्पा द्वारा लगाये जाते थे वस्तु विनिमय का युग समाप्त हुआ तथा नियमित सिक्कों के प्रचलन से व्यापार वाणिज्य में सुगमता हो गयी

उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड संस्कृति के लोगों की कलात्मक अभिरुचि काफी बढ़ी हुई थी। मृद्भाण्डों के साथ-साथ मृण्मूर्तियों के निर्माण में भी काफी प्रगति एवं निपुणता प्राप्त कर ली गयी। विभिन्न स्थलों से मिट्टी तथा पत्थर की बनी बहुसंख्यक नारी मूर्तियाँ तथा पशु-पक्षियों आदि की मूर्तियाँ मिलती है। राजगृह से प्राप्त प्राचीर अवशेष से सूचित होता है कि उसका निर्माण बड़े तथा बेडौल पत्थरों को बिना चुने के जोड़कर किया गया था। पिपरहवा बौद्ध स्तूप की धातुगर्भ मंजूषा में संरक्षित स्वर्ण, रजत, प्रवाल एवं स्फटिक मणियों के आभूषण एवं बहुमूल्य पत्थर इस युग के स्वर्णकारों एवं जौहरियों की उच्चस्तरीय कलात्मक निपुणता के परिचायक हैं। बड़ी संख्या में अस्थियों के उपकरण भी मिलते है।

अतः उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड परम्परा से संबद्ध लोगों की भौतिक संस्कृति अत्यन्त विकसित थी। राजनीतिक शक्ति एवं वाणिज्यिक प्रगति ने मिलकर भौतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया तथा कबाइली आधार पर गठित वर्णव्यवस्था का रूपान्तरण हो गया था।

मृद्भाण्ड परम्परायें ( Pottery traditions )

गैरिक मृद्भाण्ड ( Ochre Coloured Pottery – OCP )

चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW )

कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड ( Black and Red Ware – BRW )

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