अहिच्छत्र ( Ahichchhtra )

भूमिका

अहिच्छत्र ( Ahichchhtra ) की पहचान उत्तर प्रदेश के बरेली जनपद के आँवला तहसील में स्थित रामनगर से की गयी है। यह उत्तर वैदिक काल में उत्तरी पाञ्चाल की राजधानी थी। महाभारत और पूर्व बौद्ध काल में यह एक प्रसिद्ध नगर था। यह हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म से सम्बन्धित स्थान रहा है। ऐसा माना जाता है कि यहीं २३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था।

 

अहिच्छत्र
अहिच्छत्र ( Ahichchtra )

अहिच्छत्र : नामकरण

अहिच्छत्र के कई नाम मिलते हैं; जैसे – अहिछत्र, अहिक्षेत्र आदि। अहि का अर्थ होता है – नाग, सर्प। क्षेत्र का अर्थ है – भूभाग। इस अर्थ में नागवंशी लोगों के निवास स्थान होने के कारण इसका नाम अहिक्षेत्र पड़ गया।

वेबर के अनुसार ‘शतपथ ब्राह्मण’ में उल्लिखित परिवका या परिचका नगरी को महाभारत में वर्णित एकचक्रा सम्भवतः अहिच्छत्र माना है।

महाभारत में इसको अहिक्षेत्र और छत्रावती भी कहा गया है।

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार अहिच्छत्र नाम का उद्भव २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से है। जैनियों के अनुसार नगर में बाढ़ आयी तब ध्यानस्थ पार्श्वनाथ को बचाने के लिये नागवंशी शासक धरानिंद्र ने उनके चारों ओर कुंडली मारकर ऊपर फण का छत्र बना लिया। तबसे इस स्थान का नाम अहिच्छत्र पड़ गया।

विविधतीर्थकल्प ( जैन ग्रन्थ ) में इसका एक नाम ‘संख्यावती’ भी मिलता है। साथ ही जैन ग्रन्थ तीर्थमालाचैत्यवंदन में इसका एक अन्य नाम ‘शिवपुर’ मिलता है।

वंदे श्री करणावती शिवपुरे नागद्रहे नाणके।

जैन ग्रन्थों में अहिच्छत्र का एक और नाम ‘शिवनयरी’ भी प्राप्त होता है।

टॉलमी ने अहिच्छत्र को ‘अदिसद्रा’ नाम से अभिहित किया है।

अहिच्छत्र : पैराणिक विवरण

महाभारत से ज्ञात होता है कि अर्जुन ने महाराज द्रुपद को परास्त करके गुरुदक्षिणा के रूप में उत्तरी पाञ्चाल को अपने गुरू द्रोणाचार्य को दिया था जिसकी राजधानी अहिच्छत्र थी। महाभारत के आदिपर्व में इसका विवरण इस तरह मिलता है।

सोऽध्यावसद्दीनमनाः काम्पिल्यं च पुरुषोत्तमम्।

दक्षिणांश्चापि पंचालान् यावच्चर्मण्वती नदी।

द्रोणेन चैव द्रुपदं परिभूयाथ पतितः।

पुत्रजन्म परीप्सन् वै पृथिवीमन्वसंचरत्।

अहिच्छत्रं च विषयं द्रोणः समभिपद्यत।’

इस तरह यह ज्ञात होता है कि पहले पाञ्चाल नामक एक ही जनपद था। बाल्यकाल में द्रुपद और द्रोण एक ही गुरूकुल में साथ-साथ पढ़ते थे। द्रुपद ने उस समय अपने मित्र द्रोण को कुछ वचन दिया था।

कालान्तर में जब द्रोणाचार्य राजा द्रुपद से अपने पुत्र अश्वत्थामा को दूध पिलाने के लिए काम्पिल्य जाकर गाय माँगी तो राजसभा में उनका अपमान किया गया। इसी अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए द्रोणाचार्य कुरु राज्य में आये और ऐसे शिष्य तैयार किये जो उनको ( द्रुपद ) पराजित कर सके।

द्रोणाचार्य की इस इच्छा का अर्जुन ने मान रखा। द्रुपद को पराजित करके जब द्रोणाचार्य के समक्ष पाण्डवों ने प्रस्तुत किया तब पाञ्चाल राज्य के उत्तरी भाग को द्रोणाचार्य ने ले लिया और इसकी राजधानी बनी अहिच्छत्र। दक्षिणी पाञ्चाल द्रुपद के पास ही रही।

अहिच्छत्र कुरु राज्य के पार्श्व ( बगल ) में ही स्थित था।

अहिच्छत्रं कालकूटं गंगाकूलं च भारत।

इस तरह आधुनिक रुहेलखंड के बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद से मिलकर बने पाञ्चाल राज्य के दो भाग थे –

  • एक; उत्तरी पाञ्चाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र थी।
  • दूसरी; दक्षिणी पाञ्चाल जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी। काम्पिल्य की पहचान फर्रुखाबाद के कम्पिल से की गयी है।

एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि स्वयं द्रुपदी के अन्य नामों में पांचाली भी एक नाम था।

अहिच्छत्र : इतिहास

महाजनपदकाल में पाञ्चाल एक प्रमुख महाजनपद था।

मौर्य सम्राट अशोक ने यहाँ पर एक स्तूप का निर्माण करवाया था। उत्खनन से ज्ञान होता है कि लगभग ३०० ई०पू० में यहाँ बड़ी जनसंख्या आवासित थी। भवन कच्ची ईंटों के बनाये गये थे।

कुषाणकाल ( लगभग प्रथम शताब्दी ई०पू० ) में इस स्तूप को पक्की ईंटों की चहारदीवारी से आबद्ध कर दिया गया। इस चहारदीवारी के दीवार की लम्बाई लगभग ३.५ किलोमीटर है। इस काल में भवन निर्माण में पकी हुई ईंटों का प्रयोग देखने को मिलता है। भवनों को पंक्तिबद्ध स्वरूप में बनाया गया था। कुषाणकालीन अवशेष में कटोरे, सुराहीनुमा, हजारे, दावात इत्यादि प्रमुख हैं।

यहाँ से मित्र शासकों के सिक्के मिलते हैं। कुषाण, पाञ्चाल और अच्यु नाम से अंकित मुद्राएँ भी मिली हैं।

अहिच्छत्र से ताम्र व लौह उपकरण पर्याप्त संख्या में मिलते हैं।

एक गुप्तकालीन मुहर मिली है जिसपर ‘अहिच्छत्र मुक्ति’ अंकित है। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की १३वीं पंक्ति में अच्युत नामक जिस शासक का उल्लेख है उसकी पहचान यहीं के राजा से की गयी है। अच्युत नागवंशी शासक थे।

उद्वेलोदित-बाहु-वीर्य्य-रभसादेकेन येन क्षणादुन्मूल्याच्युत-नागसेन-ग…( १३वीं पंक्ति )।

[ अर्थात् जिसने ( समुद्रगुप्त ) सीमा से बड़े बाहु द्वारा अकेले ही अच्युत एवं नागसेन को अविलंब जड़ समेत उन्मूलन कर दिया …। ]

हर्षवर्धन के समय आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ( युवानच्वांग ) ने ६४० ई० के लगभग इस स्थान की यात्रा की थी। वह लिखता है कि ‘दुर्ग के बाहर नागह्नद नाम का एक सरोवर है, जिसके पास नागराज ने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया था और इस तालाब पर एक छत्र निर्मित करवाया था।’

अहिच्छत्र से मिले ध्वंसावशेषों में से सर्वप्रसिद्ध पुरावशेष ढूह एक स्तूप का है। इस स्तूप की आकृति चक्की के सदृश होने के कारण इसको स्थानीय लोग ‘पिसनहारी का छत्र’ कहकर बुलाते हैं। लोकानुश्रुति के अनुसार यह स्तूप उसी स्थान पर बना है है जहाँ पर भगवान बुद्ध ने स्थानीय नागवंशी शासकों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था।

यहाँ से प्राप्त पुरावशेषों को लखनऊ के संग्रहालय में सुरक्षित तिया गया है।

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार यह एक लौहयुगीन स्थल है। यहाँ से चित्रित धूसर मृदभाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW ) मिलते हैं।

कुषाणकाल से लेकर गुप्तकाल के प्रारम्भिक समय तक यह एक समृद्ध नगर था। गुप्तकाल के परवर्ती समय से इसके पतन की सूचना मिलती है।

 

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