अयोध्या

भूमिका

अयोध्या ( Ayodhya ) उत्तर प्रदेश प्रान्त में स्थित एक धार्मिक व ऐतिहासिक महत्त्व की नगरी है। यह पावन सरयू नदी के दायें तट पर बसी हुई है। इसकी प्रसिद्धि का कारण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली है। हिन्दू धर्मावलम्बियों के साथ-साथ यह जैनियों एवं बौद्धों के लिए भी पवित्र मानी गयी है। इसका प्राचीन नाम साकेत भी मिलता है।

गोस्वामी तुलसीदास अयोध्या के महिमा का वर्णन भगवान श्रीराम के श्रीमुख से कुछ इस तरह कराते हैं –

“इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥

सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥

जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान विदित जगु जाना॥

अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावन॥

जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहि बासा॥

अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥

हरषे सब कपि सुनी प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥”

उत्तरकाण्ड, श्रीरामचरितमानस।

अयोध्या : संक्षिप्त परिचय

विवरण – अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।

राज्य – उत्तर प्रदेश

जनपद – अयोध्या

प्रसिद्धि का कारण – रामजन्मभूमि।

अन्य जानकारी – अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर श्रीरामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है।

भौगोलिक स्थिति

अंगुत्तरनिकाय में कोसल जनपद का विवरण मिलता है। कोसल की पूर्व में गण्डक नदी ( सदानीरा नदी ), पश्चिम में पंचाल महाजनपद, दक्षिण में सई नदी ( सर्पिका या स्यंदिका नदी ) और उत्तर में नेपाल की तलहटी थी। सरयू नदी इस महाजनपद को उत्तरी और दक्षिणी भाग में विभक्त करती थी।

उत्तरी कोसल की राजधानी श्रावस्ती जबकि दक्षिणी कोसल की राजधानी कुशावती थी। काशी विजय के बाद कोसल पर्याप्त शक्तिशाली हो गया था ओर कपिलवस्तु के शाक्यों को भी आतंकित करने लगा था। कोसल का बौद्धकालीन शाक्तिशाली शासक प्रसेनजित थे। भगवान बुद्ध और प्रसेनजित समान आयु के थे। मगध साम्राज्यवाद से कोसल महाजनपद लम्बे समय तक बचा रहा था।

अयोध्या
अयोध्या

अयोध्या : स्थापना एवं नामोत्पत्ति

मान्यतानुसार अयोध्या को आदिपुरुष महाराज मनु ने बसाया था। उन्होंने ही इसका नाम अयोध्या भी रखा। अयोध्या नाम का अर्थ है – अ-योध्या अर्थात् ‘जिसे युद्ध में जीता न जा सके।’

प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेनसांग भी इसका विवरण देते हैं।

यह पवित्र सप्त पुरियों में से एक है :

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका॥

अयोध्या : पुरातात्विक व साहित्यिक साक्ष्य

शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र ( द्वितीय शती ई० पू० ) के राज्यपाल धनदेव का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है। पुष्यमित्र शुंग द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है।

अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय ( चतुर्थ शती ई० का मध्यकाल ) और तत्पश्चात् काफी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी।

गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघुवंश में कई बार उल्लेख किया है। कालिदास ने उत्तरकोसल की राजधानी साकेत और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था।

युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था।

वेदों, पुराणों व महाकाव्यों में अयोध्या

वेदों ( अथर्ववेद ) में अयोध्या को ईश्वर का नगर कहा गया है और कहा गया है कि यह स्वर्ग के समान सम्पन्न है।

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्यमयः कोशः स्वर्गों ज्योतिषावृतः॥ अथर्ववेद ॥

अयोध्या का उल्लेख महाकाव्यों में विस्तार से मिलता है। रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था।

अयोध्या को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानों मनु ने स्वयं अपने हाथों के द्वारा अयोध्या का निर्माण किया हो। अयोध्या नगर १२ योजन लम्बाई में और ३ योजन चौड़ाई में फैला हुआ था। जिसकी पुष्टि वाल्मीकि रामायण में भी होती है।

एक परवर्ती जैन लेखक हेमचन्द्र ने नगर का क्षेत्रफल १२ × ९  योजन बताया है।

स्कन्दपुराण के अनुसार सरयू तट पर बसी दिव्य अयोध्या नगरी दूसरी अमरावती के समान ही है।

मध्यकाल में अयोध्या

मध्यकाल में मुसलमानों के उत्कर्ष के समय अयोध्या उपेक्षा और मुस्लिम आक्रमण का शिकार बनी। यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ( मीर बकी या बकी मीर ) अपने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मसजिद बनवायी।

इस मस्जिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के थे। मुस्लिम शासन में चाहे वह सल्तनत काल हो या मुग़ल काल बार-बार भारतीय आस्था पर आततायियों ने चोट किया। जिसके ध्वंसावशेष अयोध्या, मथुरा, काशी इत्यादि से मिलते हैं।

मुग़लों से जब कई प्रांतीय राज्य अर्धस्वतंत्र हो गये। उन्हीं में से एक था अवध, जिसकी प्रारम्भिक राजधानी अयोध्या के समीप फैजाबाद थी। फैजाबाद के विभिन्न भवनों के निर्माण में भी अयोध्या के मन्दिरों की सामग्रियों का प्रयोग किया था। कालान्तर में अवध के नवाबों ने अपनी राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर ली।

स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीयों ने श्रीरामजन्मभूमि के लिए एक लम्बी विधिक लड़ायी से इसे प्राप्त किया है और अब वहाँ पर भागवान राम का मंदिर निर्माणाधीन है जो शीघ्र ही ( सम्भवतः २०२३ – २४ ) तक बनकर तैयार होने की आशा है।

अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू के अतिरिक्त रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं हैं।

बौद्ध साहित्य में अयोध्या

बौद्ध साहित्य में भी अयोध्या का उल्लेख मिलता है। गौतम बुद्ध का इस नगर से विशेष सम्बन्ध था। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के इस नगर से विशेष सम्बन्ध की ओर लक्ष्य करके मज्झिमनिकाय में उन्हें कोसलक ( कोसल का निवासी ) कहा गया है।

धर्म के प्रचार व प्रसार के लिए वे इस नगर में कई बार आ चुके थे। एक बार गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मानव जीवन की निस्सरता तथा क्षणभंगुरता पर व्याख्यान दिया था। अयोध्यावासी गौतम बुद्ध के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने उनके निवास के लिए वहाँ पर एक विहार का निर्माण भी करवाया था।

संयुक्तनिकाय से ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध ने यहाँ की दो बार यात्री थी। उन्होंने यहाँ पर फेण सूक्त और दारुक्खंधसुक्त का व्याख्यान दिया था।

जैन साहित्य में अयोध्या

जैन ग्रन्थ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभनाथ, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, अनन्तनाथ और अचलभानु — इन जैन मुनियों का जन्मस्थान माना गया है। अयोध्या नगरी का विस्तार लम्बाई में १२ योजन और चौड़ाई में ९ योजन बताया गया है। इस ग्रन्थ के अनुसारचक्रेश्वरी और गोमुख यक्ष अयोध्या के निवासी थे। घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को स्वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है। नगरी से १२ योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि गुरु का कैवल्यस्थान बताया गया है। इस ग्रन्थ ‘यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर २४ जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गयीं थीं। एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना करवायी थी। इस ग्रन्थ में अयोध्या को दशरथ, राम और भरत की राजधानी बताया गया है। जैनग्रन्थों में अयोध्या को ‘विनीता’ भी कहा गया है।

जैन ग्रंथ महापुराण ( आदिपुराण ) के अनुसार करोड़ों वर्ष पूर्व अयोध्या में पांच तीर्थंकरों के जन्म तो हुए ही हैं, साथ ही वहाँ अन्य अनेक इतिहास भी जुड़ें। अयोध्या में वर्तमान में रायगंज परिसर में ३१ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। वहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण नवमी के दिन भगवान ऋषभदेव के जन्म कल्याणक दिवस का वार्षिक मेला आयोजित होता है। जिसमें हजारों श्रद्धालु भक्त भाग लेकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। अयोध्या में स्वर्गद्वार मोहल्ले में ऋषभदेव का सुन्दर जिन मंदिर बना है। वह भगवान का वास्तविक जन्म स्थान माना जाता है। सरयू नदी के निकट ही भगवान ऋषभदेव उद्यान बहुत सुंदर बना हुआ है, जहाँ देश-विदेश के हजारों पर्यटक प्रतिदिन आकर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाते हैं।

रिज डेविड्स के अनुसार

रिज डेविड्स का कहना है कि दोनों नगर वर्तमान लंदन और वेस्टमिंस्टर के समान एक-दूसरे से सटे हुए रहे होंगे जो कालान्तर में विकसित होकर एक हो गये। अयोध्या सम्भवत: प्राचीन राजधानी थी और साकेत परवर्ती राजधानी। विशुद्धानन्द पाठक भी राज डेविड्स के मत का समर्थन करते हैं और परिवर्तन के लिए सरयू नदी की धारा में परिवर्तन या किसी प्राकृतिक कारण को उत्तरदायी मानते हैं, जिसके कारण अयोध्या का संकुचन हुआ और दूसरी तरफ नयी दिशा में परवर्ती काल में साकेत का उद्भव हुआ।

साक्ष्यों के अवलोकन के अनुसार

साक्ष्यों के अवलोकन से दोनों नगरों के अलग-अलग अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध हो जाती है तथा साकेत के परवर्ती काल में विकास की बात सत्य के अधिक समीप लगती है। इस सन्दर्भ में ई० जे० थामस रामायण की परम्परा को बौद्ध परम्परा की अपेक्षा उत्तरकालीन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि पहले कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी और जब बाद में कोशल का विस्तार दक्षिण की ओर हुआ तो अयोध्या राजधानी बनी, जो कि साकेत के ही किसी विजयी राजा द्वारा दिया हुआ नाम था।

पुरातत्त्वविदों के अनुसार

पिछले समय में कुछ पुरातत्त्वविदों यथा – प्रो० ब्रजवासी लाल तथा हंसमुख धीरजलाल साँकलिया ने रामायण इत्यादि में वर्णित अयोध्या की पहचान नगर की भौगोलिक स्थिति, प्राचीनता एवं सांस्कृतिक अवशेषों का अध्ययन किया।

  • Ramayana : myth or reality? – Hasmukh Dhirajlal Sankaliya.

रामायण में वर्णित उपर्युक्त विवरणों के अन्तर की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। इन दोनों विद्वानों का यह मत था कि पुरातात्विक दृष्टि से न केवल अयोध्या की पहचान की जा सकती है, रामायण में वर्णित अन्य स्थान यथा – नन्दीग्राम, शृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम एवं वाल्मीकि आश्रम भी निश्चित रूप से पहचाने जा सकते हैं।

इस सन्दर्भ में प्रो. ब्रजवासी लाल द्वारा विशद रूप में किए गए पुरातात्विक सर्वेक्षण एवं उत्खनन उल्लेखनीय है।

पुरातात्विक आधार पर प्रो० लाल ने रामायण में उपर्युक्त स्थानों की प्राचीनता को लगभग सातवीं सदी ई० पू० में रखा है।

इस साक्ष्य के कारण रामायण एवं महाभारत की प्राचीनता का जो क्रम था, वह परिवर्तित हो गया तथा महाभारत पहले का प्रतीत हुआ।

इस प्रकार प्रो० लाल तथा साँकलिया का मत हेमचन्द्र राय चौधरी के मत से मिलता है। श्री रायचौधरी का भी कथन था कि महाभारत में वर्णित स्थान एवं घटनाएँ रामायण में वर्णित स्थान एवं घटनाओं के पूर्व की हैं।

  • प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास – डॉ० हेमचन्द्र रायचौधरी।

मुनीश चन्द्र जोशी के अनुसार

श्री मुनीश चन्द्र जोशी ने प्रो० लाल और सांकलिया के इस मत की खुलकर आलोचना की, तथा तैत्तिरीय आरण्यक में उद्धृत अयोध्या के उल्लेख का वर्णन करते हुए यह मत प्रस्तुत किया है —

जब तैत्तिरीय आरण्यक की रचना हुई, उस समय मनीषियों की नगरी अयोध्या एवं उसकी संस्कृति ( अगर यह थी तो ) को लोग पूर्णत: भूल गये थे।

अयोध्या पूर्णत: पौराणिक नगरी प्रतीत होती है। आधुनिक अयोध्या और राम से इसका साहचर्य परवर्ती काल का प्रतीत होता है।

इन आधारों पर श्री जोशी ने कहा कि वैदिक या पौराणिक सामग्री के आधार पर पुरातात्विक साक्ष्यों का समीकरण न तो ग्राह्य है और न ही उचित। उनका यह भी कथन था कि अधिकतर भारतीय पौराणिक एवं वैदिक सामग्री का उपयोग धर्म एवं अनुष्ठान के लिए किया गया था। ऐतिहासिक रूप से उनकी सत्यता संदिग्ध है।

  • Archaeology and Indian Tradition : Some observation – M. C. Joshi
  • अष्टाचक्र नवद्वारा देवानां पुरयोध्यां तस्याम् हिरन्म्यकोशाह स्वर्गलोको जयोतिषावृतः यो वयताम् ब्रहमनो वेद अमृतेनावृतमपुरीम् तस्मै ब्रह्म च आयुः कीर्तिम् प्रजाम् यदुह विभ्राजमानाम् हरिणीम् यशशा संपरीवृत्ताम् पुरम् हिरण्यमयोम् ब्रह्मा विवेशापराजिताम्॥ तैत्तिरीय आरण्यक ॥

ब्रजवासी लाल के अनुसार श्री जोशी के मतों का खण्डन प्रो० ब्रजवासी लाल ने पुरातत्त्व में छपे अपने एक लेख में किया है।

  • Was Ayodhya a mythical city – B. B. Lal

श्री लाल का कहना है कि श्री जोशी का प्रथम मत उनके तृतीय मत से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि प्रथम तो जोशी यह मानने को तैयार ही नहीं होते एवं द्वितीय यह स्पष्ट नहीं है कि राम एवं आधुनिक अयोध्या का सम्बन्ध किस काल में एवं कैसे जोड़ा गया। प्रो. लाल का कहना है कि अयोध्या शब्द न केवल तैत्तिरीय आरण्यक में है, बल्कि इसका उल्लेख अथर्ववेद में भी मिलता है। इसके विस्तृत अध्ययन से अयोध्या शब्द का प्रयोग अयोध्या नगरी से ही नहीं बल्कि ‘अजेय’ से लिया जा सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक में वर्णित अयोध्या नगरी का समीकरण उन्होंने मनुष्य शरीर से किया है तथा श्रीमद्भागवदगीता में आए उस श्लोक का जिक्र किया है, जिसमें शरीर नामक नगर का वर्णन है। श्री लाल का कहना है कि तैत्तरीय आरण्यक, अथर्ववेद तथा श्रीमदभगवदगीता में शरीर के एक समान उल्लेख मिलते हैं। जिसमें कहा गया है कि देवताओं की इस स्वर्णिम नगरी के आठ चक्र ( परिक्षेत्र ) और नौ द्वार हैं, जो कि हमेशा प्रकाशमान रहता है। नगर के प्रकाशमान होने की व्याख्या मनुष्य के ध्यानमग्न होने के पश्चात् ज्ञान ज्योति के प्राप्त होने की स्थिति से की गयी है। आठ चक्रों ( परिक्षेत्रों ) का समीकरण आठ धमनियों के जाल – नीचे की मूलधार से शुरू होकर ऊपर की सहस्रधार तक से की गयी है। नवद्वारों का समीकरण शरीर के नवद्वारों — दो आँखें, नाक के दो द्वार, दो कान, मुख, गुदा एवं शिश्न — से किया गया है।

प्रो. ब्रजवासी लाल ने श्री मुनीशचन्द्र जोशी के शोधपत्र एवं सम्बन्धित सामग्री का विस्तृत विवेचन करके अपने इस मत का पुष्टीकरण किया कि आधुनिक अयोध्या एवं रामायण में वर्णित अयोध्या एक ही है। यदि पुरातात्विक सामग्री एवं रामायण में वर्णित सामग्री में मेल नहीं खाता तो इसका अर्थ यह नहीं कि अयोध्या की पहचान गलत है या कि वह पौराणिक एवं काल्पनिक नगर था। वास्तव में दोनों सामग्रियों के मेल न खाने का मुख्य कारण रामायण के मूल में किया गया बार-बार परिवर्तन है।

चीनी यात्रियों का यात्रा विवरण

फाह्यान

चीनी यात्री फाह्यान ने अयोध्या को ‘शा-चे’ नाम से अभिहित किया है। उसके यात्रा विवरण में इस नगर का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन मिलता है। फाह्यान के अनुसार यहाँ बौद्धों एवं ब्राह्मणों में सौहार्द नहीं था। उसने यहाँ उन स्थानों को देखा था, जहाँ बुद्ध बैठते थे और टहलते थे। इस स्थान की स्मृतिस्वरूप यहाँ एक स्तूप बना हुआ था ।

  • The Travels of Fa-hsien : Translated by H. A. Giles.

ह्वेन त्सांग

ह्वेन त्सांग नवदेवकुल नगर से दक्षिण-पूर्व ६०० ली यात्रा करके और गंगा नदी पार करके अयुधा ( अयोध्या ) पहुँचा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र ५००० ली तथा इसकी राजधानी २० ली में फैली हुई थी। यह असंग और बसुबंधु का अस्थायी निवास स्थान था। यहाँ फसलें अच्छी होती थीं और यह सदैव प्रचुर हरीतिमा से आच्छादित रहता था। इसमें वैभवशाली फलों के बाग थे तथा यहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक थी। यहाँ के निवासी शिष्ट आचरण वाले, क्रियाशील एवं व्यावहारिक ज्ञान के उपासक थे। इस नगर में १०० से अधिक बौद्ध विहार और ३००० से अधिक भिक्षुक थे, जो महायान और हीनयान मतों के अनुयायी थे । यहाँ १० देव मन्दिर थे, जिनमें अबौद्धों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी।

  • On Yuan Chawang’s Travels in India : Thomas Watters M. R. A. S.

ह्वेन त्सांग के अनुसार राजधानी में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान है जहाँ देशबंधु /  बसुबंधु ने कठिन परिश्रम से विविध शास्त्रों की रचना की थी। इन भग्नावशेषों में एक महाकक्ष था। जहाँ पर बसुबंधु विदेशों से आने वाले राजकुमारों एवं भिक्षुओं को बौद्धधर्म का उपदेश देते थे।

ह्वेन त्सांग लिखते हैं कि नगर के उत्तर ४० ली दूरी पर गंगा के किनारे एक बड़ा संघाराम था, जिसके भीतर अशोक द्वारा निर्मित एक २०० फुट ऊँचा स्तूप था। यह वही स्थान था जहाँ पर तथागत ने देव समाज के उपकार के लिए तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। इस विहार से ४-५ ली पश्चिम में बुद्ध के अस्थियुक्त एक स्तूप था। जिसके उत्तर में प्राचीन विहार के अवशेष थे, जहाँ सौतान्त्रिक सम्प्रदाय सम्बन्धी विभाषाशास्त्र की रचना की गयी थी।

ह्वेन त्सांग के अनुसार नगर के दक्षिण-पश्चिम में ५-६ ली की दूरी पर एक आम्रवाटिका में एक प्राचीन संघाराम था। यह वह स्थान था जहाँ असङ्ङ्ग बोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था।

आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग १०० कदम की दूरी पर एक स्तूप था, जिसमें तथागत के नख और बाल रखे हुए थे। इसके निकट ही कुछ प्राचीन दीवारों की बुनियादें थीं। यह वही स्थान है जहाँ पर वसुबंधु बोधिसत्व तुषित स्वर्ग से उतरकर असङ्ङ्ग बोधिसत्व से मिलते थे।

अयोध्या का पुरातात्विक उत्खनन

अयोध्या के सीमित क्षेत्रों में पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन कार्य करवाया गया है। इस क्षेत्र का सर्वप्रथम उत्खनन प्रो० अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एक दल ने १९६७-७० ई० में किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: जैन घाट के समीप के क्षेत्र, लक्ष्मण टेकरी एवं नल टीले के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ। उत्खनन से प्राप्त सामग्री को तीन कालों में विभक्त किया गया है —

प्रथम काल

उत्खनन में प्रथम काल के उत्तरी काले चमकीले मृण्भांड परम्परा ( एन० बी० पी० बेयर ) के भूरे पात्र एवं लाल रंग के मृद्भाण्ड मिले हैं। इस काल की अन्य वस्तुओं में मिट्टी के कटोरे, गोलियाँ, खिलौना, गाड़ी के चक्र, हड्डी के उपकरण, ताँबे के मनके, स्फटिक, शीशा आदि के मनके एवं मृण्मूर्तियाँ आदि प्रमुख हैं।

द्वितीय काल

इस काल के मृद्भाण्ड मुख्यतः ईसा के प्रथम शताब्दी के हैं। उत्खनन से प्राप्त मुख्य वस्तुओं में मकरमुखाकृति टोटी, दवात के ढक्कन की आकृति के मृद्पात्र, चिपटे लाल रंग के चपटे आधारयुक्त लम्बवत धारदार कटोरे, स्टैंप और मृद्पात्र खण्ड आदि हैं।

तृतीय काल

इस काल का आरम्भ एक लम्बी अवधि के बाद मिलता है। उत्खनन से प्राप्त मध्यकालीन चमकीले मृत्पात्र अपने सभी प्रकारों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त काही एवं प्रोक्लेन मृद्भाण्ड भी मिले हैं। अन्य प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी के डैबर, लोढ़े, लोहे की विभिन्न वस्तुएँ, मनके, बहुमूल्य पत्थर, शीशे की एकरंगी और बहुरंगी चूड़ियाँ और मिट्टी की पशु आकृतियाँ ( विशेषकर चिड़ियों की आकृति ) हैं।

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुनः उत्खनन

अयोध्या के कुछ क्षेत्रों का पुनः उत्खनन दो सत्रों १९७५-७६ तथा १९७६-७७ ई० में ब्रजवासी लाल और के० वी० सुन्दराजन के नेतृत्व में हुआ। यह उत्खनन मुख्यतः दो क्षेत्रों — रामजन्मभूमि और हनुमानगढ़ी में किया गया। इस उत्खनन से संस्कृतियों का एक विश्वसनीय कालक्रम प्रकाश में आया है। साथ ही इस स्थान पर प्राचीनतम बस्ती के विषय में जानकारी भी मिली है। उत्खनन में सबसे निचले स्तर से उत्तर कालीन चमकीले मृण्भांड और धूसर मृद्भाण्ड परम्परा के मृद्पात्र प्राप्त होते हैं। धूसर परम्परा के कुछ मृद्भाण्डों पर काले रंग में चित्रकारी भी मिलती है।

हनुमानगढ़ी क्षेत्र में उत्खनन

हनुमानगढ़ी क्षेत्र से भी उत्तरी काली चमकीली मृद्भाण्ड संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आये हैं। साथ ही यहाँ अनेक प्रकार के मृतिका वलय कूप तथा एक कुएँ में प्रयुक्त कुछ शंक्वाकार ईंटें भी मिली हैं। उत्खनन से बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ मिली हैं, जिनमें मुख्यत: आधा दर्जन मुहरें, ७० सिक्के, एक सौ से अधिक लघु मृण्मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।

महत्त्वपूर्ण उपलब्धि

इस उत्खनन में सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि आद्य ऐतिहासिक काल के रोलेटेड मृद्भाण्डों की प्राप्ति है। ये मृद्भाण्ड प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० के हैं। इस प्रकार के मृण्भांडों की प्राप्ति से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन अयोध्या में वाणिज्य और व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। यह व्यापार सरयू नदी के जलमार्ग द्वारा गंगा नदी से सम्बद्ध था।

ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन

आद्य ऐतिहासिक काल के पश्चात् यहाँ के मलबों और गड्ढों से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर व्यावसायिक क्रम में अवरोध दृष्टिगत होता है। सम्भवतः यह क्षेत्र पुन: ११वीं शताब्दी में अधिवासित हुआ। यहाँ से उत्खनन में कुछ परवर्ती मध्यकालीन ईंटें, कंकड़ एवं चूने की फर्श आदि भी मिलती हैं।

अयोध्या से १६ किलोमीटर दक्षिण में तमसा नदी के किनारे स्थित नन्दीग्राम में भी श्री ब्रजवासी लाल के नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया। उल्लेख है कि राम के वनगमन के पश्चात् भरत ने यहीं पर निवास करते हुए अयोध्या का शासन कार्य संचालित किया था। यहाँ के सीमित उत्खनन से प्राप्त वस्तुएँ अयोध्या की वस्तुओं के समकालीन हैं।

सीमित क्षेत्र में उत्खनन

१९८१-१९८२ ई० में सीमित क्षेत्र में उत्खनन किया गया। यह उत्खनन मुख्यत: हनुमानगढ़ी और लक्ष्मणघाट क्षेत्रों में हुआ। इसमें ७००-८०० ई० पू० के कलात्मक पात्र मिले हैं। श्री लाल के उत्खनन से प्रमाणित होता है कि यह बौद्ध काल में अयोध्या का महत्त्वपूर्ण स्थान था ।

बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा बुद्ध रश्मि मणि और हरि माँझी के नेतृत्व में २००२-२००३ ई० में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन कार्य किया गया। यह उत्खनन कार्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर संचालित हुआ।

उत्खनन से पूर्व उत्तरी कृष्ण परिमार्जित संस्कृति से लेकर परवर्ती मुगलकालीन संस्कृति तक के अवशेष प्रकाश में आये।

प्रथम काल के अवशेषों और रेडियो कार्बन तिथियों से यह निश्चित हो जाता है कि मानव सभ्यता की कहानी अयोध्या में १३०० ईसा पूर्व से प्रारम्भ होती है।

  • Excavations at the disputed site, ASI : Hari Manjhi and B. R. Mani

पर्यटन

अयोध्या घाटों और मंदिरों की प्रसिद्ध नगरी है। सरयू नदी यहाँ से होकर बहती है। सरयू नदी के किनारे १४ प्रमुख घाट हैं। इनमें गुप्तद्वार घाट, कैकेयी घाट, कौशल्या घाट, पापमोचन घाट, लक्ष्मण घाट आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।

मंदिरों में ‘कनक भवन’ सबसे सुंदर है। लोकमान्यता के अनुसार कैकेयी ने इसे सीता को मुंह दिखाई में दिया था।

ऊँचे टीले पर हनुमानगढ़ी आकर्षण का केंद्र है।

इस नगर में रामजन्मभूमि-स्थल की बड़ी महिमा है। इस स्थान पर विक्रमादित्य का बनवाया हुआ एक भव्य मंदिर था किंतु बाबर के शासनकाल में वहाँ पर मस्जिद बना दी गयी। जिसे ६ दिसंबर १९९२ को कुछ कारसेवकों ने गिरा दिया। न्यायालय के निर्णयानुसार वर्तमान में रामजन्मभूमि का निर्माण प्रगति पर है जो सम्भवतः २०२३-२४ ई० में पूर्ण होने की सम्भावना है।

सरयू के निकट नागेश्वरनाथ का मंदिर शिव के बारह ज्योतिलिंगों में गिना जाता है।

‘तुलसी चौरा’ वह स्थान है जहाँ बैठकर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना आरंभ की थी।

प्रह्लाद घाट के पास गुरु नानक भी आकर ठहरे थे।

अयोध्या जैन धर्मावलंबियों का भी तीर्थ-स्थान है। वर्तमान युग के चौबीस तीर्थकरों में से पाँच का जन्म अयोध्या में हुआ था। इनमें प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव भी सम्मिलित है।

इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमुख दर्शनीय मंदिर और स्थल निम्न हैं – राजद्वार मंदिर, लक्ष्मणकिला, कालेराम मंदिर, मणिपर्वत, श्रीराम की पैड़ी, गप्तारघाट इत्यादि।

कुछ प्रमुख दर्शनीय स्थल

श्रीरामजन्मभूमि : रामजन्मभूमि रामकोट पर स्थित है। यहीं पर भगवान राम ने अपने अपने अन्य तीन भाईयों के साथ जन्म लिया था। यहाँ पर श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुध्न अपने बालस्वरूप में विद्यमान हैं।

भागवान राम का जन्म चैत्र के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि को हुआ था। इसे अयोध्या के साथ-साथ पूरे हिन्दू जनमानस में बड़े धूम-धाम से मानाया जाता है।

मुस्लिम आततायी आक्रांताओं ने अयोध्या को अपने आक्रमण का बार-बार निशाना बनाया। यहाँ पर मंदिर को तोड़कर मस्जिद ( बाबर के शासनकाल में मीर बकी द्वारा ) बना दी गयी।

सबसे बड़ी दुःख की बात तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी शासन में बैठे लोगों ने तुष्टिकरण के कारण बार-बार इसकी उपेक्षा की। धैर्यवान रामभक्तों ने एक लम्बी विविध लड़ायी में विजयी होकर यहाँ पर रामजन्मभूमि का निर्माण शुरू किया। आशा है कि यह भव्य मदिर २०२३-२४ तक बनकर तैयार हो जायेगा।

एक बात ध्यान देनेवाली है कि १९९० के बाद से जब रामजन्मभूमि आन्दोलन ने तीव्रता पकड़ी सत्ता में बैठे लोगों ने अयोध्या के विकास की अवहेलना की। यहाँ पर आधारभूत ढ़ाँचे तक का विकास नहीं कराया गया। कभी रामसेवकों पर गोली चलवायी गयी तो कभी राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठा दिये गये।

यद्यपि वर्तमान सरकार रोजगार, मँहगायी जैसे कई मुद्दों पर असफल है, परन्तु उसने भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता के प्रतीक श्रीराम की नगरी अयोध्या के विकास का कार्य युद्ध स्तर पर किया है जो कि प्रसंशनीय है।

कनकभवन : लोकमान्यता के अनुसार रानी कैकेयी ने इसको सीताजी को मुँह दिखायी में दिया था। वर्तमान मंदिर को टीकमगढ़ की रानी ने १८९१ ई० में बनवाया था।

हनुमानगढ़ी : भगवान राम के अनन्य भक्त हनुमानगढ़ी का मंदिर एक टीले पर स्थित है। जो भी श्रद्धालु अयोध्या आता है वह हनुमानगढ़ी जाकर बजरंगबली के दर्शन अवश्य करता है।

नागेश्वरनाथ मंदिर : पवित्र सरयू स्नान के बाद श्रद्धालु सबसे पहले नागेश्वरनाथ में जाकर जाकर जल अर्पित करते हैं फिर वे हनुमानगढ़ी, रामजन्मभूमि व अन्य मंदिरों के दर्शनार्थ जाते हैं। यहाँ शिवरात्रि को भव्य मेला लगता है।

प्रमुख पर्व

पवित्र अयोध्या नगरी हिन्दू आस्था का केंद्र है। यहाँ पर देश के कोने-कोने से श्रद्धालु पहुँचते हैं। कुछ प्रमुख पर्व निम्न हैं जो हर्षोल्लास के साथ मनाये जाते हैं – श्रीरामनवमी, श्रीजानकीनवमी, श्रीरामविवाह, रामलीला जो की शारदीय नवरात्रि में होता है, दशहरा, दीपावली, कार्तिक परिक्रमा, सावन झूला इत्यादि।

इसके अतिरिक्त मंगलवार, तेरस व पूर्णिमा को पवित्र सरयू स्नान व हनुमान गढ़ी के दर्शन अयोध्या के आसपास के श्रद्धालु नियमित रूप से करते रहते हैं।

अयोध्या की दीपावली, राम की पैड़ी
राम की पैड़ी, अयोध्या ( दीपावली का दृश्य )

क्या अयोध्या और साकेत एक ही थे?

अयोध्या और साकेत दोनों को कुछ विद्वानों ने एक ही नगर के दो नाम माने हैं।

कालिदास ने भी रघुवंश में दोनों नगरों को एक ही माना है, जिसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है। कनिंघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है।

इसके विपरीत विभिन्न विद्वानों ने साकेत को भिन्न-भिन्न स्थानों से समीकृत किया है। इसकी पहचान सुजानकोट, आधुनिक लखनऊ, कुर्सी, पशा ( पसाका ) और तुसरन बिहार ( प्रयागराज से २७ मील दूर स्थित है ) से की गयी है।

इस नगर के समीकरण में उपर्युक्त विद्वानों के मतों में सबल प्रमाणों का अभाव दृष्टिगत होता है।

बौद्ध ग्रन्थों में भी अयोध्या और साकेत को भिन्न-भिन्न नगरों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

वाल्मीकि रामायण में अयोध्या को कोशल की राजधानी बताया गया है और बाद के संस्कृत ग्रन्थों में साकेत से मिला दिया गया है।

‘अयोध्या’ को संयुक्तनिकाय में एक ओर गंगा के किनारे स्थित एक छोटा गाँव या नगर बतलाया गया है। जबकि ‘साकेत’ उससे भिन्न एक महानगर था।

अतएव किसी भी दशा में ये दोनों नाम एक नहीं हो सकते हैं। फिरभी अयोध्या और साकेत का पर्यायवाची रूप में प्रयोग प्रचलित है।

इतिहास

पुण्यनगरी अयोध्या की गणना भारतवर्ष की सात पवित्र नगरियों में की जाती है –

“अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका।

पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः॥”

सर्वसाधारण में यह कहावत भी आयोध्या के सम्बन्ध में प्रचलित है –

“गंगा बड़ी गोदावरी,

तीरथ बड़ो प्रयाग।

सबसे बड़ी अयोध्या नगरी,

जहँ राम लियो अवतार॥”

अयोध्या प्रसिद्ध रघुवंशी ( सूर्यवंशी ) राजाओं की राजधानी रही है। इस वंश में भगवान राम के अतिरिक्त महाराज रघु, दिलीप, भगीरथ, हरिश्चन्द्र जैसे महान शासक हुए हैं। इस नगर की स्थापना मानव वंश के आदिपुरुष महाराज मनु ने की थी।

रामायण से विदित होता है कि श्रीराम ने कुश को कुशावती का राजा बनाया था। भगवान राम के अपने परमधाम चले जाने के बाद यह नगरी वीरान हो गयी। रघुवंश से ज्ञात होता है कि इसकी दीनहीन दशा को देखकर कुश ने पुनः अयोध्या को अपनी राजधानी बनायी थी।

महाभारत में उल्लेख मिलता है कि इस काल में अयोध्या के शासक दीर्घकाय थे। दीर्घकाय को महाबली भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय यात्रा के समय पराजित किया था।

अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पाण्डवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा॥ सभापर्व – महाभारत ॥

बौद्ध ग्रंथ घटजातक में कालसेन नामक अयोध्या के राजा का विवरण मिलता है। यहाँ पर अयोध्या को अयोज्झा कहा गया है।

गौतमबुद्ध के समय तक कोसल के दो केन्द्र हो गये थे — उत्तरी कोसल और दक्षिणी कोसल जिनकी क्रमशः श्रावस्ती और साकेत ( अयोध्या ) राजधानी थी।

बौद्धकाल में इसका महत्त्व अधिक बढ़ गया था। अयोध्या के निकट ही साकेत नामक नगरी बसा गयी थी। बौद्ध ग्रंथों में अयोध्या और साकेत का नाम साथ-साथ मिलता है जिससे जिससे इसके अलग अस्तित्व का आभास होता है। ( Buddhist India – T. W. RHYS DAVIDS )

रामायण में अयोध्या का उल्लेख कोशल जनपद की राजधानी के रूप में किया गया है।

पुराणों में इस नगर के संबंध में कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु इस नगर के शासकों की वंशावलियाँ अवश्य मिलती हैं, जो इस नगर की प्राचीनता एवं महत्त्व के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। ब्राह्मण साहित्य में इसका वर्णन एक ग्राम के रूप में किया गया है ।

सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।

राम के समय यह नगर अवध नाम की राजधानी से सुशोभित था। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अयोध्या पूर्ववर्ती तथा साकेत परवर्ती राजधानी थी। हिन्दुओं के साथ पवित्र स्थानों में इसका नाम मिलता है। फाह्यान ने इसका ‘शा-चें’ नाम से उल्लेख किया है, जो कन्नौज से १३ योजन दक्षिण-पूर्व में स्थित था।

मललसेकर ने पालि-परंपरा के साकेत को सई नदी के किनारे उन्नाव जनपद में स्थित सुजानकोट के खंडहरों से समीकृत किया है। नालियाक्ष दत्त एवं कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी इसका समीकरण सुजानकोट से किया है। थेरगाथा अट्ठकथा में साकेत को सरयू नदी के किनारे बताया गया है। अत: संभव है कि पालि का साकेत, आधुनिक अयोध्या का ही एक भाग रहा हो।

कोसल एक शक्तिशाली महाजनपद

कोसल १६ महाजनपदों में से एक था जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। बौद्धकाल के चार शक्तिशाली महाजनपदों में से एक था। अन्य तीन शक्तिशाली महाजनपद थे – वत्स, अवन्ति और मगध। मगध ने अन्ततः सबपर अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करके एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की।

महात्मा बुद्ध के पहले ही कंस नामक राजा ने काशी को जीतकर कोसल में मिला लिया था। जातक साहित्यों में कंस को ‘बारानसिग्गहो’ कहा गया है जिसका अर्थ है बनारस पर अधिकार करने वाला।

कंस का पुत्र उसका उत्तराधिकारी हुआ, जिसका नाम महाकोशल था। महाकोसल के समय में कोशल का काशी पर पूर्ण अधिकार हो गया। काशी के मिल जाने से कोशल का प्रभुत्व अत्यधिक बढ़ गया।

काशी व्यापार और वस्त्रोद्योग का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। यहाँ ( काशी ) तक्षशिला, सौवीर तथा अन्य सूदूरवर्ती स्थानों के साथ उसके व्यापारिक सम्बन्ध थे। इस राज्य के मिल जाने से कोशल की राजनैतिक तथा आर्थिक समृद्धि में पर्याप्त वृद्धि हुई।

पूर्व में कोसल का प्रतिद्वन्द्वी राज्य मगध था। कोशल तथा मगध के बीच वैमनस्य का मुख्य कारण काशी का राज्य था जिसकी सीमायें दोनों ही राज्यों को स्पर्श करती थीं।

बुद्ध के समय कोशल के राजा प्रसेनजित थे। वह महाकोशल के पुत्र थे।

प्रसेनजित ने मगध को संतुष्ट करने के लिए अपनी बहन महाकोशला अथवा कोशलादेवी का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार के साथ कर दिया तथा दहेज में काशी अथवा उसके कुछ ग्राम दिये। अतः बिम्बिसार के समय तक इन दोनों राज्यों में मैत्री सम्बन्ध कायम रहा।

बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु के समय में कोशल और मगध में पुनः संघर्ष छिड़ गया। संयुक्त निकाय में प्रसेनजित तथा अजातशत्रु के संघर्ष का विवरण मिलता है। ज्ञात होता है कि प्रथम युद्ध में अजातशत्रु ने प्रसेनजित को परास्त किया तथा उसने भाग कर श्रावस्ती में शरण ली किन्तु दूसरी बार अजातशत्रु पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया। कालान्तर में प्रसेनजित ने मगध से संधि कर लेना ही श्रेयस्कर समझा और उसने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से कर दिया। काशी के ग्राम, जो प्रसेनजित ने बिम्बिसार की मृत्यु के पश्चात् वापस लिये थे, पुनः अजातशत्रु को सौंप दिये।

प्रसेनजित के समय में कोशल का राज्य अपने उत्कर्ष पर था। काशी के अतिरिक्त उसका कपिलवस्तु के शाक्य, केसपुत के कालाम, पावा और कुशीनारा के मल्ल, रामग्राम के कोलिय, पिप्पलिवन के मोरिय आदि गणराज्यों पर भी अधिकार था।

बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय के अनुसार वह ‘पाँच राजाओं के एक गुट’ का नेतृत्व करता था। प्रसेनजित महात्मा बुद्ध एवं उनके मत के प्रति श्रद्धालु थे। बुद्ध उसकी राजधानी में प्रायः आते और विश्राम करते थे।

प्रसेनजित का पुत्र तथा उत्तराधिकारी विड्डूभ हुआ। संयुक्त निकाय से पता चलता है कि प्रसेनजित के मंत्री दीपचारन ने विडुडभ के साथ मिलकर कोशल नरेश के विरुद्ध षड्यन्त्र किया। विडूडभ ने अपने पिता की अनुपस्थिति में राजसत्ता पर अधिकार कर लिया। प्रसेनजित ने भागकर मगध राज्य में शरण ली, किन्तु राजगृह नगर के समीप पहुँचने पर थकान से उसकी मृत्यु हो गयी।

विडूडभ ने कपिलवस्तु के शाक्यों पर आक्रमण किया। संघर्ष का कारण बौद्ध साहित्य में यह बताया गया है कि कोशल नरेश प्रसेनजित महात्मा बुद्ध के कुल में सम्बन्ध स्थापित करने को काफी उत्सुक थे। इस उद्देश्य से उसने शाक्यों से यह माँग की कि वे अपने वंश की एक कन्या का विवाह उसके साथ कर दें। शाक्यों को यह प्रस्ताव अपने वंश की मर्यादा के प्रतिकूल लगा किन्तु वे कोशल नरेश को रुष्ट भी नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने छल से वासभखतिया नामक एक दासी की पुत्री को प्रसेनजित के पास राजकुमारी बनाकर भेज दिया। प्रसेनजित ने उससे विवाह कर लिया। विडूडभ उसी का पुत्र था।

जब उसे इस छल का पता लगा तब वह बड़ा कुपित हुआ तथा शाक्यों से बदला लेने का निश्चय किया।

कहा जाता है कि एक बार वह स्वयं शाक्य राज्य में गया था तो शाक्यों ने ‘दासी पुत्र’ कहकर उसका अपमान किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिये राजा बनते ही उसने शाक्यों पर आक्रमण कर दिया। वे पराजित हुये तथा नगर के पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का भीषण संहार किया गया। उनमें से अनेक ने भागकर अपनी जान बचाई। किन्तु विड्डभ को अपने दुष्कृत्यों का फल तुरन्त मिला।

शाक्यों के संहार के बाद जब वह अपनी पूरी सेना के साथ वापस लौट रहा था तो अचिरावती ( राप्ती ) नदी की बाढ़ में अपनी पूरी सेना के साथ नष्ट हो गया। रिज डेविड्स ने इस कथा की प्रामाणिकता को स्वीकार किया है। यह घटना महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ पहले की है। विड्डूभ के उत्तराधिकारी के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। लगता है उसके साथ ही कोशल का स्वतन्त्र अस्तित्व भी समाप्त हो गया और मगध में मिला लिया गया।

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल — २

अयोध्या अभिलेख

साकेत

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