अन्हिलवाड़ ( Anhilwara )

भूमिका

अन्हिलवाड़ ( Anhilwara ) गुजरात प्रांत के पाटन जनपद में स्थित है। वर्तमान में इसका नाम पाटन या पाटण ( Patan ) है। यह मध्यकाल में गुजरात की राजनीतिक सत्ता का केन्द्र एक लम्बें समय तक रहा है। अन्हिलवाड़ सरस्वती नदी के तट पर बसा है।

यहाँ पर यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यह सरस्वती नदी वैदिक सरस्वती नदी नहीं है। वैदिक सरस्वती नदी विलुप्त हो चुकी है। यहाँ पर हम जिस सरस्वती नदी की बात कर रहे हैं वह अरावली की पहाड़ियों से निकलकर लगभग ३६० किलोमीटर की यात्रा करके गुजरात के छोटे रन में खो जाती है। इसके तट पर दो प्रमुख शहर; पाटन ( पाटण ) और सिद्धपुर बसे हैं। इसी पर मुक्तेश्वर ( मोकेश्वर ) बाँध बनाया गया है। इसी के तट पर विश्व प्रसिद्ध ‘रानी की वाव’ स्थित है।

 

अन्हिलवाड़ ( Anhilwara )
अन्हिलवाड़ ( पाटन या पाटण )

अन्हिलवाड़ की स्थापना व नामकरण

७१२ ई० में सिन्ध पर अरबों के अधिकार हो जाने के बाद गुजरात पर उनके निरंतर आक्रमण व धावे होते रहे। इसी क्रम में गुजरात में राजनीतिक सत्ता व शिक्षा का केन्द्र रहे बलभी को नष्ट किया गया। कालान्तर में अन्हिलवाड़ की स्थापना की गयी।

पाटन या पाटण नामक गढ़वाले शहर की स्थापना ७४५ ई० में चावड़ राज्य के सबसे प्रमुख राजा ‘वनराज चावड़’ ( Vanraj chavda ) द्वारा की गयी थी।  वनराज चावड़ा ने अपने करीबी मित्र और प्रधान मंत्री ‘अन्हिल गडरिया’ ( Anhil Gadariya ) के नाम पर शहर का नाम ‘अन्हिलपुर पाटन’ या ‘अन्हिलवाड़ पाटन’ रखा था।

इसीलिए इसको अन्हिलवाड़ या पाटन या पाटण कहा जाता है। वर्तमान में पाटन गुजरात का एक जनपद है। अन्हिलवाड़ जिसका वर्तमान नाम पाटन या पाटण है, पाटन जनपद का मुख्यालय है। जनपद मुख्यालय के पास ही विश्व विरासत स्थल ‘रानी की वाव’ स्थित है।

अन्हिलवाड़ का इतिहास

चावड़ या चावड़ा राजवंश ने अन्हिलवाड़ में ७४५ ई० से ९४२ ई० तक शासन किया। इसके बाद अन्हिलवाड़ में चौलुक्य वंश की स्थापना मूलराज प्रथम ने की। चौलुक्य वंश ने ९४२ ई० से लेकर लगभग १२४० ई० तक शासन किया।

चौलुक्य वंश के अंतिम राजा के मन्त्री लवणप्रसाद ने गुजरात में बघेल राजवंश की स्थापना की। बघेल राजवंश ने गुजरात पर १३वीं शताब्दी के अंत तक शासन किया। १३वीं शताब्दी के अंत गुजरात पर दिल्ली के सल्तनत का अंग बन गया।

यहाँ पर यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि गुजरात पर शासन करने वाले चौलुक्य और दक्कन पर शासन करने वाले चालुक्य पृथक-पृथक हैं। चौलुक्य राजवंश को सोलंकी राजवंश भी कहा जाता है। वाडनगर अभिलेख के अनुसार गुजरात के चौलुक्य राजवंश की उत्पत्ति ब्रह्मा के कमण्डल या चुलुक से बतायी गयी है।

चौलुक्य शासकों के समय में इस नगर की महती उन्नति हुई। इसे उत्तुंग भवनों व मन्दिरों से सजाया गया। यह नगर ‘जैन धर्म’ का प्रमुख केन्द्र था।

अन्हिलवाड़ से अनेक जैन मन्दिरों के उदाहरण मिलते हैं। ये मन्दिर अपनी वास्तुकला और स्थापत्य दोनों के लिये प्रसिद्ध हैं। अन्हिलवाड़ में सबसे प्रमुख निर्माणकार्य ‘रानी की वाव’ है।

रानी की वाव

रानी-की-वाव ( The Queen’s Stepwell ) सरस्वती नदी के तट पर स्थित है। इसको ११वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में एक राजा के स्मारक के रूप में बनवाया गया था।

बावड़ी भारतीय उप-महाद्वीप पर भूमिगत जल संसाधन और भंडारण प्रणालियों का एक विशिष्ट स्वरूप है। इसका ( बावड़ी ) निर्माण तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से किया किया जाता रहा है। गुजरात में जल की कमी थी इसलिए हमको हड़प्पाकालीन धौलावीरा स्थल से जल संरक्षण की जो जानकारी मिलती है उसी का सतत विकासात्मक स्वरूप हम इसको कह सकते हैं।

समय के साथ बावड़ी की कला और वास्तुकला विकास होता गया। पहले ये रेतीली भूमि पर एक गढ्ढे सदृश बनाये जाते थे परन्तु विकास करते-करते ये विस्तृत बहुमंजिला जल संरक्षण व भण्डारण की विशेष वास्तुकला के रूप बनाये जाने लगे।

रानी-की-वाव बावड़ी निर्माण और मरु-गुर्जर स्थापत्य शैली में शिल्पकारों की उच्च कलात्मक क्षमता का प्रमाण है। यह जटिल तकनीक की निपुणता और विस्तार के साथ ही अनुपात की महान सुंदरता को दर्शाता है।

पानी की पवित्रता के महत्त्व को दर्शाने वाले एक उल्टे मन्दिर के रूप में डिज़ाइन किये गये उच्च कलात्मक गुणवत्ता के मूर्तिकला पैनलों के साथ सीढ़ियों के सात स्तरों में विभाजित किया गया है। ५०० से अधिक मुख्य मूर्तियाँ और एक हजार से अधिक छोटी मूर्तियाँ धार्मिक, पौराणिक और धर्मनिरपेक्ष कल्पना को दर्शाती हैं, जोकि साहित्यिक कार्यों को संदर्भित करती हैं।

चौथा स्तर सबसे गहरा है और २३ मीटर की गहराई पर ९.५ मीटर गुणा ९.४ मीटर आयताकार टैंक में जाता है। कुआँ इसके के पश्चिमी छोर पर स्थित है और इसमें १० मीटर व्यास और ३० मीटर गहरा एक शाफ्ट है।

अन्हिलवाड़ जिसे पाटन भी कहा जाता है में ही रानी की वाव ( Rani ki vav ) नामक एक प्रसिद्ध बावड़ी है। बावड़ी एक तरह का सीढ़ीदार कुँआ ( stepwell ) होता है। रानी की वाव को २३ जून, २०१४ में यूनेस्को द्वारा ‘विश्व विरासत स्थल’ के रूप में घोषित किया गया। भारत सरकार के १०० रूपये की मुद्रा पर रानी की वाव का चित्र भारतीय रिजर्व बैक ने अंकित किया है।

₹१०० की मुद्रा पर रानी की वाव का चित्र।
₹१०० की मुद्रा पर “रानी की वाव” का चित्र।

बावड़ी में बहुत सी कलाकृतियाँ हैं जिसमें अधिकतर वैष्णव धर्म की हैं; यथा – श्रीराम, श्रीकृष्ण, भगवान कल्कि इत्यादि। साथ ही नागकन्या, योगिनी व अप्सराओं की मूर्तियों को भी बनाया गया है।

रानी की वाव का निर्माण सन् १०६३ ई० रानी ‘उदयमती’ ने अपने पति राजा भीमदेव की स्मृति में करवायी थीं। राजा भीमदेव गुजरात में सोलंकी राजवंश के संस्थापक थे।

भूगर्भीय हलचलों से आने वाले जलप्लावन, सरस्वती नदी के मार्ग परिवर्तन के कारण यह लगभग सात शताब्दियों तक गाद जमने के कारण विस्मृत रही। कालान्तर में भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने इसे खोज निकाला।

 

रानी की वाव की विशेषताएँ :-

  • यह एक भूमिगत रचना है।
  • इसमें सीढ़ियों की एक शृंखला है जिसके सहारे गहरे पानी में उतरा जा सकता है।
  • इसमें सीढ़ियों के साथ साथ चबूतरे, मण्डप, और दीवारों पर मूर्तियाँ बनायी गयीं हैं।
  • लगभग ५०० बड़ी मूर्तियाँ और १००० छोटी मूर्तियाँ हैं।
  • रानी की वाव ७ मंजिल की थी जिसमें से वर्तमान में ५ मंजिल ही सुरक्षित बाकी की दो मंजिल भूमि में समायी हुई है।
  • यह बावड़ी जल प्रबंधन और संरक्षकों तकनीक का एक बेहतरीन उदाहरण है।
  • सात मंजिला यह बावड़ी मरु-गुर्जर शैली का साक्ष्य है जो कि भूगर्भीय हलचलों से सरस्वती नदी के मार्ग बदलने से लगभग ७ शताब्दियों तक विस्मृत के गर्त में खोया रहा। इसको भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने पुनः प्रकाश में लाया।
  • रानी की वाव विश्व की इकलौती बावली है जो विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित की गयी है।

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