मौर्योत्तर काल में विदेशियों के सामाजिक आत्मसातीकरण में धर्म की भूमिका

भूमिका

मौर्योत्तर काल में विदेशियों के सामाजिक आत्मसातीकरण इतिहास की एक प्रमुख घटना थी। विदेशी शासकों का अपना कोई धर्म नहीं था। अतः भारत में बस जाने के उपरान्त उनकी प्रवृत्ति वैष्णव, शैव तथा बौद्ध धर्मों में हुई जो उस समय समाज में प्रतिष्ठित हो चुके थे। भक्ति भावना का उदय हो चुका था तथा भारतीय धर्मों का द्वार विदेशियों के लिये खुल गया था। वैष्णव, शैव, बौद्ध एवं सभी धर्मों ने अपने द्वार विदेशियों के लिये भी खोल दिये गये।

ब्राह्मण धर्म

पारम्परिक ब्राह्मण धर्म का रूपान्तरण हो रहा था। भक्ति भावना के पुट का उदय इस काल में विशेष रूप से हुआ।

शास्त्रकारों ने विदेशी विजेताओं को हिन्दू धर्म तथा समाज में आकर्षित करने के लिये विधान बनाये।

  • स्मृतिकार मनु ने घोषित किया कि यवन, शक, पह्लव आदि जातियाँ वैदिक क्रियाओं के त्याग तथा ब्राह्मणों से विमुख होने के कारण ही वृषलत्व (शूद्रता) को प्राप्त हुई।
  • भागवत पुराण में व्यवस्था दी गयी कि ये भगवान विष्णु की पूजा करने से पवित्र होकर पुनः हिन्दू धर्म एवं समाज में प्रतिष्ठित हो सकती हैं।

इस प्रकार वैष्णव धर्म ने इन जनजातियों को ब्राह्मणधर्मी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समाविष्ट एवं समायोजित करने के लिये एक प्रबल साधन प्रदान किया। फलस्वरूप वैष्णव एवं शैव धर्मों के प्रति विदेशी शासकों का आकर्षण बढ़ा और उन्होंने इन धर्मों को ग्रहण कर लिया।

वैष्णव धर्म

  • यवन राजदूत हेलियोडोरस (Heliodorus) ने भागवत (वैष्णव) धर्म ग्रहण कर बेसनगर में गरुड़ध्वज स्थापित कर पूजा की।
  • महाक्षत्रप शोडासकालीन मोरा (मथुरा) पाषाण लेख में पंचवीरों (संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, साम्ब तथा अनिरुद्ध) की पाषाण प्रतिमाओं को मन्दिर निर्माण कर स्थापित किये जाने का उल्लेख मिलता है। शोडासकालीन लेखों से स्पष्ट है कि वह भागवत अथवा वैष्णव धर्म का संरक्षक था।
  • भागवत धर्म गान्धार क्षेत्र में प्रचलित था जहाँ विदेशी भी इसे ग्रहण कर रहे थे।
  • कुषाण राजाओं में से अन्तिम ने वासुदेव नाम धारण किया जो इस बात का सूचक है कि वह भागवत या विष्णु का उपासक था।
  • हुविष्क की एक ऐसी स्वर्ण मुद्रा मिलती है जिस पर चित्रित एक देवता एक हाथ में चक्र तथा दूसरे में उर्ध्वलिंग लिये हुए दिखाया गया है। यह स्पष्टतः हरिहर का आदि रूप है।

शैव धर्म

परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वैष्णव धर्म की अपेक्षा शक-कुषाण राजाओं में शैव धर्म अधिक लोकप्रिय था। इस शासकों का झुकाव शैव तथा बौद्ध धर्मों की ओर ही अधिक था।

शक क्षत्रपों तथा कुषाण शासकों में शैवधर्म अधिक लोकप्रिय रहा।

  • रुद्रदामन्, रुद्रसिंह, रुद्रसेन, शिवसेन क्षत्रप आदि नाम यह सूचित करते हैं कि क्षत्रप शासक शिव के भक्त थे। उनके सिक्कों पर वृषभ, नन्दिपद जैसे शैव प्रतीकों का अंकन मिलता है।
  • कुषाण शासकों के शैव होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।
    • विमकडफिसेस के सिक्कों पर ‘महीश्वर’ (महेश्वर) की उपाधि तथा त्रिशूल और नन्दी का अंकन है।
    • कनिष्क तथा हुविष्क के सिक्कों पर शिव तथा उनके सहायकों की आकृतियाँ है।
    • ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित एक विशिष्ट कुषाण सिक्के पर शिव को उमा के साथ चित्रित किया गया है।
    • लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित हुविष्क के कुछ सिक्कों पर उमा के साथ-साथ शिव परिवार के अन्य सदस्यों— महासेन, स्कन्द-कुमार, विशाख आदि का अंकन मिलता है।
    • वासुदेव के सिक्कों पर भी शिव तथा उनके प्रतीकों का अंकन है।
    • इन सबसे सिद्ध होता है कि प्रायः सभी कुषाण शासक शैव भक्त थे तथा शैवधर्म इस समय एक अत्यन्त लोकप्रिय धर्म बन चुका था।

बौद्ध धर्म

जिस भारतीय धर्म जिसने विदेशियों को सर्वाधिक आकर्षित किया वह बौद्ध धर्म है। विदेशी शासकों द्वारा बौद्ध धर्म अपनाये जाने से भी उनका भारतीय व्यवस्था में समावेश आसान हो गया क्योंकि इससे जाति, वर्ण आदि से सम्बन्धित कोई समस्या उठने की सम्भावना नहीं थी। बहुत से विदेशी शासकों ने बौद्ध धर्म को आश्रय दिया। भारतीय-यूनानी शासकों ने अपने सिक्कों पर बौद्ध चिह्न अंकित करवाये और कुषाणों ने भी बौद्ध प्रतिष्ठानों को प्रभूत दान दिये। कनिष्क का बौद्ध धर्म के प्रति योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसके समय में कई बौद्ध धर्मप्रचारक विदेशों में भेजे गये और बौद्ध धर्म विभिन्न देशों के सम्पर्क में आया।

  • यह एक सुविदित तथ्य है कि हिन्द-यवन शासक मेनान्डर (मिलिन्द) बौद्ध धर्म तथा दर्शन से अत्यधिक प्रभावित था। वह महान् बौद्ध दार्शनिक एवं विद्वान् नागसेन द्वारा बौद्ध धर्म में दीक्षित किया गया। इस मत का समर्थन मिलिन्दपण्ह नामक पालि ग्रन्थ से होता है। इसमें मेनान्डर तथा नागसेन के बीच संवाद सुरक्षित है। मेनान्डर के बाद भी पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बौद्ध धर्म प्रचलित रहा।
  • स्वात-घाटी अस्थि-मंजूषा लेख (Swat Relic Vase Inscription) से पता चलता है कि थियोडोरस नामक यूनानी गवर्नर ने बुद्ध के धातु अवशेषों को प्रतिष्ठित करवाया था। वह गान्धार क्षेत्र का क्षत्रप था। मेनान्डर की भाँति उसने भी बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। लेख की तिथि दूसरी शती ईसा पूर्व है।
  • तक्षशिला ताम्रपत्र अभिलेख से पता चलता है कि मेरीदर्ख उपाधि युक्त किसी यवन ने अपनी पत्नी के साथ एक स्तूप स्थापित करवाया था। पतिककालीन तक्षशिला ताम्रपत्र से विदित होता है कि उसने तक्षशिला में भगवान बुद्ध के धातु अवशेष तथा संघाराम स्थापित करवाया। इसका उद्देश्य क्षहरातों की शक्ति में वृद्धि करना था।
  • महाक्षत्रप राजवुल की अग्रमहिषी अयसिअ कुमुस ने भी बुद्ध के धातु अवशेष, स्तूप तथा संघाराम की स्थापना करवायी थी। मथुरा सिंहशीर्ष लेख (लगभग ५-१० ई०) से इसकी सूचना मिलती है। लेख का अन्त बुद्ध, धम्म तथा संघ के अभिवादन के साथ होता है।
  • कुषाण शासक कनिष्क का बौद्ध धर्म के महायान शाखा को संरक्षण और उसके प्रचार-प्रसार के लिए किये गये प्रयास तो सर्वविदित ही हैं। कनिष्क का बौद्ध धर्म से सम्बन्ध के लिए देखें — बौद्ध धर्म और कनिष्क

बौद्ध धर्म और व्यापारी वर्ग

देश के भीतर बौद्ध धर्म को सम्पन्न व्यापारी वर्ग द्वारा समर्थन प्राप्त हुआ। इस समय के अनेक विहार आदि व्यापारियों के अनुदान के ही परिणाम हैं। व्यापार के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी एवं मध्य एशिया भी पहुँचा। देश के अधिकतर विहार व्यापारिक मार्गों या पश्चिमी तट के पर्वतीय दर्रों पर स्थित थे। बड़े-बड़े अनुदानों के परिणामस्वरूप बौद्ध विहार धन के भण्डार हो गये थे।

बौद्ध धर्म में परिवर्तन

भिक्षु-भिक्षुणियों ने भी बौद्ध विहारों को दान दिया था। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वे अब इस प्रारम्भिक बौद्ध नीति को नहीं मानते थे कि भिक्षु एवं भिक्षुणी को अपनी समस्त इहलौकिक वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए। अतः बौद्ध धर्म के स्वरूप में परिवर्तन अनिवार्य हो गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि बौद्ध धर्म कनिष्क के शासनकाल में महायान और हीनयान में विभाजित हो गया।

FAQ

मौर्योत्तर काल में विदेशियों के सामाजिक आत्मसातीकरण में धर्म की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।

Write a note on the role of religion in the social assimilation of foreigners in the post-Mauryan period.

उत्तर—

मौर्योत्तर काल में विदेशी समुदायों का भारतीय समाज में आत्मसातीकरण एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसमें धर्म की प्रमुख भूमिका रही।

  • इस काल में यवन, पह्लव (पार्थियन), शक और कुषाण विदेशी शासक और उनके समुदाय भारत आए और धीरे-धीरे भारतीय सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं में घुल-मिल गये।
  • सामाजिक आत्मसातीकरण की प्रक्रिया में बौद्ध और हिंदू धर्म ने विशेष योगदान दिया।
  • बौद्ध धर्म की सहजता, सहिष्णुता और करुणा के कारण विदेशी समुदाय उसकी ओर अपेक्षाकृत अधिक आकर्षित हुए
  • कई विदेशी शासकों ने बौद्ध धर्म को अपनाया उदाहरणार्थ मिनान्डर, कनिष्क आदि।
  • कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को संरक्षण दिया। कनिष्क के शासनकाल में बौद्ध मठों और विहारों का विकास हुआ, जहाँ विदेशी और स्थानीय लोग साथ मिलकर अध्ययन और साधना करते थे।
  • इस तरह बौद्ध धर्म ने दोनों संस्कृतियों के बीच समन्वय स्थापित करने में सहायता की।
  • हिंदू धर्म ने भी विदेशी समुदायों को अपने भीतर समाहित किया और उन्हें विभिन्न संप्रदायों एवं अनुष्ठानों में शामिल किया।
  • हिंदू धर्म के अनुष्ठानों में विदेशी लोगों की भागीदारी ने उन्हें भारतीय समाज का हिस्सा बनने में सहायता की।
  • इस प्रक्रिया में विदेशी समुदायों ने धीरे-धीरे स्थानीय रीति-रिवाजों को अपनाना शुरू किया।
  • हिन्दु धर्म को अपनाने वाले प्रमुख व्यक्ति हेलियोडोरस, वासुदेव, शक शासक इत्यादि।

निष्कर्ष रूप में मौर्योत्तर काल में धर्म ने विदेशी समुदायों को भारतीय समाज में आत्मसात करने में सेतु का कार्य किया, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक समामेलन को बढ़ावा मिला।

भारत के प्राचीन बंदरगाह (Ancient ports)

मौर्योत्तर नगरीय विकास (Post-Mauryan Urban Growth)

मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने वाले कारक

मौर्योत्तर मुद्रा अर्थव्यवस्था (Post-Mauryan monetary economy)

मौर्योत्तर सिक्के

मौर्योत्तर राजव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

मौर्योत्तर समाज (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

विदेशी आक्रमण का प्रभाव या मध्य एशिया से सम्पर्क का प्रभाव (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति

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