भूमिका
समुद्रगुप्त न केवल गुप्त राजवंश के वरन् सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में स्थान रखता है। समुद्रगुप्त एक कुशल सेनानायक, प्रशासक, और विद्वानों के संरक्षक थे। निःसन्देह उसका काल राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जा सकता है। प्रयाग प्रशस्ति में उसका नाम “महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त” () अंकित है।
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुआ। वह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था।१
“महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्त-पुत्रस्य लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमार-देव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्रीसमुद्रगुप्तस्य…” १
—पंक्ति संख्या ३-४, स्कंदगुप्त का भीतरी स्तम्भ-लेख

संक्षिप्त परिचय
नाम | समुद्रगुप्त |
प्रयाग प्रशस्ति में नाम | महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त |
पिता | चन्द्रगुप्त प्रथम |
माता | कुमारदेवी |
पत्नी | दत्तदेवी |
पुत्र | चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’, रामगुप्त (सम्भवतया) |
राज्याभिषेक | ३३५ ई० |
शासनकाल | ३३५ ई० से ३७५ ई० |
उपाधि | परक्रमांक, सर्वराजोच्छेता, कविराज, परमभागवत, महाराजाधिराज, भारत का नेपोलियन (स्मिथ) |
उद्देश्य | धरणिबंध |
पूर्ववर्ती शासक | चन्द्रगुप्त प्रथम |
उत्तराधिकारी | चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ या रामगुप्त (सम्भवतया अल्प समय के लिए) |
युद्ध व सम्बन्ध | आर्यावर्त का प्रथम युद्ध |
दक्षिणापथ का युद्ध | |
आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध | |
आटविक राज्यों की विजय | |
प्रत्यंत (सीमावर्ती) राज्यों का विजय | |
विदेशी शक्तियाँ | |
समुद्रपारीय शक्तियाँ | |
अभिलेख | नालन्दा ताम्र-लेख |
गया ताम्र-लेख | |
प्रयाग प्रशस्ति | |
एरण प्रशस्ति | |
सिक्के | गरुड़ प्रकार |
धनुर्धारी प्रकार | |
परशु प्रकार | |
अश्वमेध प्रकार | |
व्याघ्रहन प्रकार | |
वीणावादन प्रकार | |
उद्देश्य | धरणिबन्ध |
नीतियाँ | प्रसभोद्धरण (आर्यावर्त के प्रति) |
ग्रहणमोक्षानुग्रह (दक्षिणापथ के प्रति) | |
परिचारीकृत (आटविकों के प्रति) | |
सर्वकरदानाज्ञाकरणप्रणामागमन (प्रत्यन्त राज्यों के प्रति) | |
आत्मनिवेदन-कन्योपायनदान-गरुत्दङ्क-स्वविषय-भुक्तिशासन (विदेशी शक्तियों व द्वीप के प्रति) | |
धर्म | परमभागवत (हिन्दू) |
साधन
- अभिलेख
- सिक्के

अभिलेख
समुद्रगुप्त के इतिहास का सर्वप्रमुख स्रोत उसी का अभिलेख। समुद्रगुप्त के चार अभिलेख मिले हैं—
- नालन्दा ताम्र-लेख
- गया ताम्र-लेख
- प्रयाग प्रशस्ति
- एरण प्रशस्ति
प्रयाग प्रशस्ति
इसे ‘इलाहाबाद स्तम्भ-लेख’ अथवा प्रयाग प्रशस्ति कहा जाता है। इसकी रचना उसके सन्धिविग्रहिक सचिव हरिषेण ने की थी। कनिंघम के मतानुसार यह लेख मूलतः कौशाम्बी में खुदवाया गया था। इस मत के समर्थन में दो प्रमाण दिये गये हैं—
- अभिलेख के ऊपरी भाग में मौर्य शासक सम्राट अशोक का एक लेख अंकित है जिसे उसने कौशाम्बी में खुदवाया था।
- चीनी यात्री हुएनसांग अपने प्रयाग विवरण में इसका उल्लेख नहीं करता।
मध्यकाल में मुगल शासक अकबर ने इसे कौशाम्बी से मँगाकर इलाहाबाद के किले में सुरक्षित करा दिया। प्रयाग स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के लेख के अतिरिक्त अशोक के छः मुख्य लेखों का एक संस्करण, रानी का अभिलेख, कौशाम्बी के महापात्रों को संघ भेद रोकने सम्बन्धी आदेश, जहांगीर का एक लेख तथा परवर्ती काल का एक देवनागरी लेख भी उत्कीर्ण मिलता है।
प्रयाग प्रशस्ति के प्रारम्भ में अशोक का लेख मिलता है। इसमें बौद्ध संघ के विभेद को रोकने के लिये कौशाम्बी के महामात्रों को दिया गया आदेश है। तत्पश्चात् समुद्रगुप्त का लेख अंकित है। यह ब्राह्मी लिपि में तथा विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है। प्रशस्ति की प्रारम्भिक पंक्तियाँ पद्यात्मक तथा बाद की गद्यात्मक है। इस प्रकार यह संस्कृत की ‘चम्पू शैली’ का एक सुन्दर उदाहरण है। इसे काव्य कहा गया है (काव्यमेषामेव)। प्रशस्ति की भाषा प्राञ्जल एवं शैली मनोरम है। न केवल इतिहास अपितु साहित्य की दृष्टि से भी यह अभिलेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
प्रारम्भ में फ्लीट ने यह मत व्यक्त किया था कि इस लेख की रचना समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसके किसी उत्तराधिकारी द्वारा करवायी गयी थी और इस प्रकार यह मरणोत्तर (Posthumous) अभिलेख है। परन्तु आज इस मत से सहमत होना कठिन है। इसके तीन कारण है—
इस लेख में समुद्रगुप्त की मृत्यु की तिथि नहीं दी गयी है।
इसमें अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता जबकि समुद्रगुप्त के सिक्कों में पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था।
अभिलेख के अन्त में यह उल्लिखित मिलता है कि ‘इस काव्य की रचना उस व्यक्ति ने की है जो परमभट्टारक के चरणों का दास था तथा जिसकी बुद्धि स्वामी के समीप कार्यरत रहने के कारण खुल गयी थी।२
“एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्प्पणानुग्रहोन्मीलित-मतेः” २
— पंक्ति संख्या, ३१; प्रयाग प्रशस्ति
अतः उपर्युक्त प्रमाणों के प्रकाश में हम इस अभिलेख को मरणोत्तर (Posthumous) नहीं मान सकते।
वस्तुतः इसकी रचना समुद्रगुप्त के जीवन-काल में हो की गयी थी। अभिलेख में समुद्रगुप्त के जीवन तथा कृतियों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है।
कहा जा सकता है कि यदि यह लेख अप्राप्त होता तो समुद्रगुप्त जैसे महान् शासक के विषय में हमारी जानकारी अधूरी रह जाती।
एरण का लेख
प्रयाग प्रशस्ति के अतिरिक्त मध्य प्रदेश के सागर जनपद में स्थित एरण (एरकिण) नामक स्थान से भी समुद्रगुप्त का एक लेख मिलता है। यह खण्डित अवस्था में है। इसमें समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से बढ़कर दानी कहा गया है जो प्रसन्न होने पर कुबेर तथा रुष्ट होने पर यमराज के समान था। अभिलेख में उसकी पत्नी का नाम दत्तदेवी मिलता है तथा उसे अनेक पुत्र-पौत्रों से युक्त बताया गया है। इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि एरकिण प्रदेश उसका (भोगनगर)३ था।
“स्वभोगनगरैरिकिंण-प्रदेशे” ३
— पंक्ति संख्या, २५; समुद्रगुप्त का एरण प्रशस्ति
नालन्दा और गया ताम्र-लेख
- उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त गया तथा नालन्दा से दो ताम्र-लेख (Copper-Plates) प्राप्त हुए है।
- जिनमें क्रमशः गुप्त संवत् ५ तथा ९ की तिथियाँ अंकित है।
- इनमें समुद्रगुप्त का नाम तथा उसकी कुछ उपलब्धियाँ उल्लिखित है।
- इनमें समुद्रगुप्त को ‘परमभागवत’ कहा गया है।
फ्लीट४, डी० सी० सरकार५ आदि विद्वानों ने इन दोनों ही ताम्रपत्रों को जाली (Forged) घोषित किया है, क्योंकि—
- इन लेखों में भाषा तथा व्याकरण सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ है।
- तिथि भ्रामक है।
- Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. 3, p. 256; John Faithful Fleet४
- Select Inscription, पृष्ठ २७१-२७४; डी० सी० सरकार५
इन दोनों के विस्तृत विवरण के लिए देखें—
मुद्रायें
समुद्रगुप्त की विविध प्रकार की मुद्रायें उसके जीवन एवं कार्यों पर सुन्दर प्रकाश डालती है। उसकी कुछ प्रकार की स्वर्ण मुद्रायें हमें प्राप्त होती है—
- गरुड़ प्रकार
- धनुर्धारी प्रकार
- परशु प्रकार
- अश्वमेध प्रकार
- व्याघ्रहन प्रकार
- वीणावादन प्रकार
गरुड़ प्रकार या छत्रधारी प्रकार (Standard type)
- मुख भाग (observe)—इसके मुख भाग (observe) पर अलंकृत वेष-भूषा में राजा की आकृति, गरुड़ध्वज, उसका नाम तथा मुद्रालेख ‘सैकड़ों युद्धों को जीतने तथा रिपुओं का मर्दन करने वाला अजेय राजा स्वर्ग को जीतता है, (समरशतविततविजयो जितरिपुरजितो दिवं जयति) उत्कीर्ण मिलता है।
- पृष्ठ भाग (reverse)— इसके पृष्ठ भाग (reverse) पर सिंहासनासीन देवी के साथ-साथ ‘पराक्रमः’ अंकित है। इस प्रकार के सिक्के नागवंशी राजाओं के ऊपर उसकी विजय के संकेत देते हैं।
धनुर्धारी प्रकार (Archer type)
- मुख भाग (observe)— इनके मुख भाग (observe) पर सम्राट धनुष-वाण लिये हुये खड़ा है तथा मुद्रालेख ‘अजेय राजा पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (अप्रतिरथो विजित्य क्षितिं सुचरितैः दिवं जयति) उत्कीर्ण है।
- पृष्ठ भाग (reverse)— इनके पृष्ठ भाग (reverse) पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि ‘अप्रतिरथः’ अंकित है।
परशु प्रकार (Battle-axe type)
- मुख भाग (observe) पर बायें हाथ में परशु धारण किये हुये राजा का चित्र तथा मुद्रालेख ‘कृतान्त परशु राजा राजाओं का विजेता तथा अजेय है’ (कृतान्तपरशुर्ज्जयत्यजितराजजेताऽजितः) उत्कीर्ण है।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर देवी की आकृति तथा उसकी उपाधि ‘कृतान्त परशु’ अंकित है।
अश्वमेध प्रकार (Ashvamedha type)
- मुख भाग (observe)— इनके मुख भाग (observe) पर यज्ञ यूप में बँधे हुये अश्व का चित्र तथा मुद्रालेख ‘राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोग की विजय करता है’ (राजाधिराजः पृथवीं विजित्य दिवं जयत्याहृतवाजिमेधः) उत्कीर्ण है।
- पृष्ठ भाग (reverse)— इसके पृष्ठ भाग (reverse) पर राजमहिषी (दत्तदेवी) की आकृति के साथ-साथ ‘अश्वमेध पराक्रमः’ अंकित है।
- ये सिक्के समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने के प्रमाण है।
व्याघ्र-हनन प्रकार (Tiger-slayer type)
- मुख भाग (observe) पर धनुष वाण से व्याघ्र का आखेट करते हुये राजा की आकृति तथा उसकी उपाधि ‘व्याघ्रपराक्रमः’ अंकित है।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ-साथ ‘राजा समुद्रगुप्त’ उत्कीर्ण है।
- इस प्रकार के सिक्कों से जहाँ एक ओर उसका आखेट प्रेम सूचित होता है, वहीं दूसरी ओर गंगा-घाटी की विजय भी इंगित होती है।
वीणावादन प्रकार (Lyrist type)
- मुख भाग (observe) पर वीणा बजाते हुये राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर हाथ में कॉर्नुकोपिया (cornucopia) लिये हुये लक्ष्मी की आकृति अंकित है।
- इस प्रकार के सिक्कों से उसका संगीत-प्रेम सूचित होता है।
राज्यारोहण
प्रयाग प्रशस्ति के प्रारम्भ में आठ श्लोक प्राप्त होते है जिनमें से कुछ खंडित अवस्था में हैं। चतुर्थ श्लोक में चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी चुने जाने का विवरण सुरक्षित है।
ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिये अपने सभासदों को एक सभा बुलायी। वह समुद्रगुप्त के गुणों पर इतना अधिक मुग्ध था कि भरी सभा में उसने उसे गले से लगाते हुये यह घोषणा की ‘आर्य! तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो।’
प्रशस्तिकार ने आगे लिखा है कि जहाँ इस घोषणा से चन्द्रगुप्त के दरबारी प्रसन्न हुए वहीं अन्य राजकुमार (तुल्यकुलज) दुःखी (म्लानमुख) हो गये।
“[आर्ये]हीत्युपगुह्य भाव-पिशुनैरुत्कर्ण्णितैरोमभिः सभ्येषूच्छवसितेषु तुल्य-कुलज-म्लानाननोद्वीक्षि[त]: [।]
[स्ने]ह-व्ययालुलितेन बाष्प-गुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा यः पित्राभिहितो नि[रिक्ष्य] निखि[लां] [पाह्येवमुर्वी] मिति [॥ ४]”
— पंक्ति संख्या- ७, ८; प्रयाग प्रशस्ति
कुछ इसी तरह का विवरण हमें एरण प्रशस्ति में प्राप्त होता है, जिसमें कहा गया है कि “अपनी भक्ति, विनम्रता, पराक्रम आदि गुणों के कारण ही उनका अभिषेक हुआ और वह राज-वैभव से सम्मानित एवं पुरस्कृत हुए॥”
“[ ताते ]न४ भक्तिनय-विक्रम-तोषितेन
[ सौ ]५ राज-शब्द-विभवैरभिषेचनाद्यैः ( । )
[ सम्मा ]नितः परम-तुष्टि पुरस्कृतेन”
—पंक्ति संख्या, १३, १४, १५; एरण प्रशस्ति
इस विवरण के आधार पर कुछ विद्वानों ने ऐसा विचार व्यक्त किया है कि समुद्रगुप्त के अन्य भाइयों ने उसके निर्वाचन का विरोध किया तथा समुद्रगुप्त को उनके साथ उत्तराधिकार का एक युद्ध लड़ना पड़ा। इस विद्रोह का नेतृत्व ‘काच’ नामक उसके भाई ने किया था।
काच नामधारी कुछ सिक्के प्राप्त होते है—
- इनके मुख भाग पर राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘काच पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (काचो गामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमैर्जयति), उत्कीर्ण है।
- पृष्ठ भाग पर ‘सर्वराजोच्छेता’ (समस्त राजाओं का उन्मूलन करने वाला) विरुद अंकित है।
इस ‘काच’ नामक राजा के समीकरण के विषय में मतभेद है।
- डी० आर० भण्डारकर इसे रामगुप्त के साथ समीकृत करते हैं परन्तु हमें ज्ञात है कि रामगुप्त एक निर्बल शासक था जो ‘सर्वराजोच्छेता’ विरुद का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता।
- रैप्सन तथा हेरास ने बताया है कि काच चन्द्रगुप्त प्रथम का बड़ा पुत्र था जिसने उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन प्राप्त किया। समुद्रगुप्त ने अपने बड़े भाई की हत्या कर राजगद्दी हथिया ली।
परन्तु उत्तराधिकार के युद्ध का समर्थन किसी भी प्रमाण से नहीं होता। अतः सहसा इस प्रकार का निष्कर्ष निकाल देना तर्कसंगत नहीं लगता।
- हमें ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने स्वयं समुद्रगुप्त के पक्ष में अपना राजसिंहासन त्याग दिया था।
- पुनश्च काच तथा समुद्रगुप्त की मुद्राओं में इतनी अधिक समानता है कि एलन (Allan) महोदय ने यह मत रखा है कि ‘काच’ वस्तुतः समुद्रगुप्त का मौलिक नाम था किन्तु बाद में अपना अधिकार क्षेत्र समुद्रतट तक विस्तृत कर लेने के बाद उसने अपना नाम समुद्रगुप्त रख लिया।
- सम्पूर्ण गुप्तवंश में केवल समुद्रगुप्त के लिये ही ‘सर्वराजोच्छेता’ विरुद का प्रयोग मिलता है।
अतः काच और समुद्रगुप्त दोनों ही एक व्यक्ति प्रतीत होते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि काच नामधारी सिक्कों के मुद्रालेख ‘काच पृथ्वी को विजित कर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग की विजय करता है’ (काचो गामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमैर्जयति) की समुद्रगुप्त के अश्वमेध सिक्कों पर उत्कीर्ण मुद्रालेख तथा प्रयाग प्रशस्ति के २९वीं-३०वीं पंक्तियों के विवरण में गहरी समानता दृष्टिगोचर होती है—
- अश्वमेध सिक्कों पर “वह सम्राट भूमण्डल की विजय करके स्वर्ग लोक की विजय करता है अंकित है।”
- “राजाधिराजः पृथवीं विजित्य दिवं जयत्याहृतवाजिमेधः”
- इसी प्रकार प्रयाग प्रशस्ति में कहा गया है कि “समस्त पृथ्वी को जीत लेने के कारण उसकी कीर्ति भूमंडल में विचरण करती हुई इन्द्र लोक में पहुँच गई थी।”
- “सर्व्व-पृथिवी-विजय-जानितोदय-व्याप्त-निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति-भवन-गमनावाप्त” —पंक्ति संख्या- २९, ३०; प्रयाग प्रशस्ति
इन विवरणों के प्रकाश में हमें काच नामधारी सिक्कों को स्वयं समुद्रगुप्त का स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
उत्तराधिकार-युद्ध के विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कर सकते। वास्तविकता जो भी हो, इतना तो स्पष्ट हो है कि यदि कोई युद्ध हुआ भी हो तो समुद्रगुप्त उसमें पूर्णतया सफल रहा और उसने अपने पराक्रम के बल पर सभी विद्रोहियों को शान्त कर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।
एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि—
- चतुर्थ श्लोक में उल्लिखित ‘तुल्यकुलज’ शब्द से समुद्रगुप्त के भाइयों अथवा गुप्तकुल के राजकुमारों का बोध नहीं होता, अपितु यहाँ समान वंश के राजकुमारों से तात्पर्य है।
- संस्कृत साहित्य में ‘तुल्य’ शब्द ‘सम’ तथा ‘सदृश’ का समानार्थी है। तुल्य तथा सम शब्दों का प्रयोग प्रायः समानता के अर्थ में किया गया है।
- अतः यहाँ किसी उत्तराधिकार युद्ध से तात्पर्य नहीं है। वस्तुतः समुद्रगुप्त जैसे शक्तिशाली सम्राट के राज्यारोहण से अन्य समान राजवंशों के शासक दुःखी हुये थे क्योंकि उनके मन में समुद्रगुप्त द्वारा जीते जाने का भय उत्पन्न हो गया। ऐसे शासकों में कोतकुलज, अच्युत, नागसेन आदि को माना जा सकता है।
शासनकाल
समुद्रगुप्त के शासनकाल को लेकर इतिहासकारों में मत वैभिन्न है—
- ३३५ से ३८० ई०; India’s Ancient Past, p. 233, R. S. Sharma (O.U.P, 2018 edition)
- ३३५ से ३७६ ई०; The Wonder That Was India, p. 64, A. L. Basham
- ३४० से ३८० ई०; प्राचीन भारत (NCERT), पृ० १८६, १८८, मक्खन लाल (२००३ संस्करण)
- ३५० से ३७५ ई०; A History of the Imperial Guptas, p. 404, S. R. Goyal
गुप्त सम्वत् का प्रारम्भ— चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्यारोहण के समय ३१९ ई० समय की। इस तरह यह तो स्पष्ट है कि चंद्रगुप्त प्रथम ने कुछ वर्षों तक तो शासन किया ही होगा।
समकालीन संदर्भ— समुद्रगुप्त अनुराधापुर के मेघवर्ण राजा के समकालीन थे, लेकिन उस राजा के शासनकाल को लेकर भी अस्पष्टता है, जो समुद्रगुप्त के शासनकाल की तारीख निर्धारित करने में मुश्किल पैदा करता है। यद्यपि वेल्हेम गीगर (Wilhem Geiger) के अनुसार मेघवर्ण का शासनकाल लगभग ३५२ से ३७९ ई० के मध्य बताया है। मेघवर्ण समुद्रगुप्त का समकालीन था।
शासन का अंत— समुद्रगुप्त का शासनकाल ३८० ईस्वी से पहले समाप्त हुआ, क्योंकि उनकी पौत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह उनके पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में हुआ।
इस तरह समुद्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि ३३५ ई० से ३५० ई० के मध्य और जबकि समापन की तिथि ३८० ई० से पूर्व विद्वानों ने रखा है। कुल मिलाकर हम समुद्रगुप्त का शासनकाल ३३५ ई० से ३७५ ई० मान सकते हैं।
युद्ध तथा विजयें
अपने पिता से प्राप्त राज्य को समुद्रगुप्त ने अपने पराक्रम और दिग्विजयी अभियानों से एक साम्राज्य में परिणत कर दिया।

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद समुद्रगुप्त ने अपना अभियान प्रारम्भ किया। वह एक महान् विजेता था जिसकी दिग्विजय का उद्देश्य प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में ‘सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना’ (धरणिबन्ध) था। प्रयाग प्रशस्ति उसकी विजयों का पूरा-पूरा विवरण हमारे समक्ष उपस्थित करती है जिसे हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रख सकते है—
- आर्यावर्त का प्रथम युद्ध
- दक्षिणापथ का युद्ध
- आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध
- आटविक राज्यों की विजय
- प्रत्यन्त राज्यों की विजय
- विदेशी शक्तियाँ
आर्यावर्त का प्रथम युद्ध
अपनी दिग्विजय की प्रक्रिया में समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक छोटा-सा युद्ध किया जिसे आर्यावर्त का प्रथम युद्ध कहा जाता है।
आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में समुद्रगुप्त ने चार शक्तियों को पराजित किया जिसका उल्लेख प्रयाग प्रशस्ति के श्लोक संख्या ७ (पंक्ति संख्या १३ और १४) में किया गया है।
“उद्वेलोदित-बाहु-वीर्य्य-रभसादेकेन येन क्षणादुन्मूल्याच्युत-नागसेन-ग[णपत्यादीननान्- संगरे] [I]
दण्डेर्ग्राहयतैव कोतकुलजं पुष्पास्वये क्रीडता सूर्य्ये [नित्य (?) * — — तटा] * — — — * — — * —॥”
—पंक्ति संख्या- १३-१४, प्रयाग प्रशस्ति
इनके नाम इस प्रकार दिये गये हैं—
- अच्युत
- नागसेन
- गणपतिनाग
- कोतकुलज
अच्युत
यह संभवतः नागवंशी राजा था जो अहिच्छत्र में शासन करता था। इस स्थान की पहचान बरेली (उत्तर प्रदेश) में स्थित रामनगर नामक स्थान से की जाती है जहाँ से ‘अच्यु’ नामांकित कुछ सिक्के प्राप्त हुये हैं।
नागसेन
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वह एक नागवंशी राजा था जो पद्मावती में शासन करता था। पद्मावती की पहचान ग्वालियर जनपद में स्थित पद्मपवैया से का जाती है।
गणपतिनाग
इसको मथुरा अथवा विदिशा-नरेश अनुमान किया जाता है। अभिलेख में मात्र ‘ग’ अक्षर ही उपलब्ध है। अच्युत और नागसेन के साथ गणपति नाम आगे इसी अभिलेख में प्राप्त होता है।
कोतकुलज
तीसरे शासक का नाम नहीं मिलता, बल्कि यह कहा गया है कि वह कोत वंश में उत्पन्न हुआ था। यह बताया गया है कि जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र में खुशियाँ मना रहा था, उसकी सेना ने उसे बन्दी बना लिया। दिल्ली तथा पूर्वी पंजाब से कोत नामधारी सिक्के मिलते हैं। लगता है वह इन्हीं भागों का शासक था।
यह स्पष्ट नहीं है कि समुद्रगुप्त ने इन चारों राजाओं को एक ही युद्ध में परास्त किया था अथवा अलग-अलग युद्धों में।
के० पी० जायसवाल का विचार है कि इन तीनों राजाओं ने एक सम्मिलित संघ बना लिया था और समुद्रगुप्त ने इस संघ को कौशाम्बी में पराजित किया था। परन्तु इस प्रकार की मान्यता के लिये कोई प्रमाण नहीं है। इस युद्ध को ‘आर्यावर्त का प्रथम युद्ध’ कहा जाता है।
मनुस्मृति में ‘पूर्वी समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र तक और विन्ध्याचल तथा हिमालय पर्वतों के बीच स्थित भाग को आर्यावर्त की संज्ञा प्रदान की गयी है।
“आसमुद्रात्तु वे पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बुधाः॥”
— मनुस्मृति (२/२२)
उपर्युक्त चार राजाओं में से तीन के नाम (गणपतिनाग, नागसेन और अच्युत) के नाम इसी प्रयाग प्रशस्ति में हमें पुनः मिलता है, जिसे विद्वानों ने “आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध” कहा है। ऐसा क्यों है?
- एक; ये तीन राजा समुद्रगुप्त के अधीनस्थ शासक थे जिन्होंने उनके पिता की मृत्यु के बाद विद्रोह किया था। समुद्रगुप्त ने विद्रोह को कुचल दिया और उन्हें उनकी क्षमा याचना के बाद पुनः स्थापित कर दिया। बाद में इन शासकों ने फिर से विद्रोह किया और समुद्रगुप्त ने उन्हें फिर से पराजित कर दिया।
- दो; शिलालेख के लेखक ने इन्हीं नामों को आर्यावर्त में समुद्रगुप्त की बाद की विजयों का वर्णन करते हुए दोहराना आवश्यक समझा, क्योंकि ये राजा उस क्षेत्र से सम्बन्धित थे।
- तीन; समुद्रगुप्त के दक्षिण अभियान के समय राजधानी से दूरी से प्रेरित होकर अन्य शासकों के साथ मिलकर इन तीनों ने एक संघ बनाकर विद्रोह का झण्डा बुलंद किया हो।
दक्षिणापथ का युद्ध
‘दक्षिणापथ’ से तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे। महाभारत में विदर्भ तथा कोशल के दक्षिण में स्थित प्रदेश को दक्षिणापथ की संज्ञा प्रदान की गयी है।
“एष पन्था विदर्भाणां असौ गच्छति कोसलान्।
अतः परंच देशोऽयं दक्षिणे दक्षिणापथः॥”
— महाभारत (२१/३१/१६)
गंगा घाटी के मैदानों तथा दोआब के प्रदेश की विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त दक्षिणी भारत की विजय के लिये निकल पड़ा। प्रशस्ति की उन्नीसवीं तथा बीसवीं पंक्तियों में दक्षिणापथ के बारह राज्यों तथा उनके राजाओं के नाम मिलते हैं। इन राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता किन्तु फिर कृपा करके उन्हें स्वतन्त्र कर दिया। उसकी इस नीति को हम “धर्म-विजयी” राजा की नीति कह सकते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि वह उनसे भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया। प्रयाग प्रशस्ति की २३वीं पंक्ति में वर्णित है कि ‘उन्मूलित राजवंशों को पुनः प्रतिष्ठित करने के कारण उसकी कीर्ति सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो रही थी’
“अनेक-भ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत-निखिल- भु[व]न-[विचरण-श्रा]न्त-यशसः”
यहाँ उन्मूलित राजवंशों से तात्पर्य दक्षिणापथ के राजाओं से ही है।
रायचौधरी ने समुद्रगुप्त की इस विजय की तुलना रघुवंश में वर्णित महाराज रघु की धर्म-विजय से की है जिसमें ‘उन्होंने महेन्द्र पर्वत के राजा को पराजित कर उसकी लक्ष्मी को हस्तगत किया, राज्य को नहीं।’
“ग्रहीत प्रतिमुक्तस्य स च धर्मविजयोनृपः।
श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम्॥”
— रघुवंश ४/४३
प्रयाग प्रशस्ति में इन राज्यों के नाम इस प्रकार मिलते हैं—
“कौसलक-महेन्द्र-माह[ ]कान्तारक-व्याघ्रराज-कौरालक-मण्टराज-पैष्टपुरक-महेन्द्रगिरि- कौट्टूरक-स्वामिदत्तैरण्डपल्लक-दमन-काञ्चेयक- विष्णुगोपावमुक्तक-
नीलराज-वैङ्गेयक हस्तिवर्म्म-पालक्ककोग्रसेन-दैवराष्ट्रक-कुबेर-कौस्थलपुरक-धनञ्जय-प्रभृति-सर्व्वदक्षिणापथ-राज-ग्रहण-मोक्षानुग्रह-जनित-प्रतापोन्मिश्र-माहाभाग्यस्य”
—पंक्ति संख्या, १९-२०, प्रयाग प्रशस्ति
- कोसल का राजा महेन्द्र
- महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज
- कौराल का राजा मण्टराज
- पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि
- कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
- एरण्डपल्ल का राजा दमन
- काञ्ची का राजा विष्णुगोप
- अवमुक्त का राजा नीलराज
- वेङ्गी का राजा हस्तिवर्मा
- पालक्क का राजा उग्रसेन
- देवराष्ट्र का राजा कुबेर
- कुस्थलपुर का राजा धनञ्जय
कोसल का राजा महेन्द्र
उपर्युक्त राज्यों में कोसल से तात्पर्य ‘दक्षिणी कोसल’ से है जिसके अन्तर्गत आधुनिक रायपुर, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) तथा सम्भलपुर (ओडिशा) के जनपद आते हैं।
महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज
महाकान्तार सम्भवतः ओडिशा के कोरापुट जनपद में स्थित जयपुर (Jeypore or Jaypur) का वनप्रदेश था जिसे ‘महावन’ भी कहा गया है। महाकान्तार (महा = बृहद् और कान्तार = वन)।
कुछ इतिहासकारों ने महाकान्तार को मध्य भारत का एक क्षेत्र माना और व्याघ्रराज को वाकाटक सामंत व्याघ्रदेव से सम्बद्ध किया है। इसके शिलालेख नचना (पन्ना, म०प्र०) में पाये गये हैं।
कौराल का राजा मण्टराज
कौराल के समीकरण के विषय में पर्याप्त मतभेद है। वार्नेट तथा रायचौधरी ने इसकी पहचान दक्षिण भारत के कोराड़ नामक ग्राम से किया है।
शरभपुरिया (Sharabhapuriya) राजा “नरेंद्र” के रावण शिलालेख (Rawan inscription) में मंटराज-भुक्ति (Mantaraja-bhukti) नामक क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। शरभपुरिया (Sharabhapuriya) राजा दक्षिण कोसल क्षेत्र के शासक थे।
के० डी० बाजपेयी जैसे कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मंटराज दक्षिण कोसल क्षेत्र के राजा थे। हालाँकि इतिहासकार ए० एम० शास्त्री इस विचार इससे असहमत होते हुए कहते हैं कि प्रयाग प्रशस्ति में कोसल के शासक का अलग से उल्लेख है।
लॉरेंज फ्रांज किलहॉर्न ने सुझाव दिया कि कौराल वही स्थान हो सकता है जो ऐहोल शिलालेख में ७वीं शताब्दी के राजा पुलकेशिन द्वितीय द्वारा कौनाल (या कुणाल) के रूप में उल्लिखित है। उन्होंने इसे वर्तमान आंध्र प्रदेश में कोलेरू झील के आसपास का क्षेत्र माना। लेकिन एच० सी० रायचौधरी ने इस पहचान को खारिज करते हुए कहा कि यह क्षेत्र हस्तिवर्मन के वेंगी साम्राज्य का हिस्सा था जिसका प्रयाग प्रशस्ति में अलग से उल्लेख मिलता है।
कौराल की अन्य संभावित पहचानों में ओडिशा के भंजनगर (पूर्ववर्ती रसेलकोंडा) के पास कोलाडा (Kolada) और ११वीं शताब्दी के राजा राजेंद्र चोल के महेंद्रगिरि शिलालेख में उल्लिखित कुलुला (Kulula) शामिल हैं, जिसकी पहचान आधुनिक तेलंगाना के चेर्ला (Cherla) क्षेत्र से की गयी है।
पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि
पिष्टपुर की पहचान आंध्र प्रदेश के गोदावरी जनपद में स्थित वर्तमान पिठारपुरम् से की जाती है।
संस्कृत में “गिरि” शब्द का उल्लेख पहाड़ी के लिए किया गया है, और इस कारण जे० एफ० फ्लीट ने यह अनुमान लगाया कि “महेंद्रगिरि” किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इसी आधार पर जे० एफ० फ्लीट ने यह अनुमान लगाया कि “महेंद्रगिरि” किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। उन्होंने सुझाया है कि श्लोक (महेंद्रगिरि-कौट्टूरक-स्वामिदत्त) एक राजा “महेंद्र” और एक स्थान “कोट्टूर पहाड़ी पर” जिसे स्वामिदत्त द्वारा शासित किया गया था को सन्दर्भित करता है। हालाँकि यह व्याख्या गलत है क्योंकि श्लोक स्पष्ट रूप से पिष्टपुर के महेंद्रगिरि और कोट्टूर के स्वामिदत्त को दो अलग-अलग व्यक्तियों के रूप में दर्शाता है।
जी० रामदास (G. Ramdas) ने श्लोक की व्याख्या करते हुए कहा कि स्वामिदत्त पिष्टपुर और “महेंद्रगिरि के पास कोट्टूर” का शासक था।
भाऊ दाजी (Bhau Daji) ने इसे “पिष्टपुर, महेंद्रगिरि और कोट्टूर के स्वामिदत्त” के रूप में अनुवादित किया। हालाँकि ये अनुवाद भी गलत हैं।
साथ ही यह तर्क अप्रासंगिक है कि “गिरि” नामधारी व्यक्तियों के नाम नहीं हो सकता है। क्योंकि कई ऐतिहासिक रिकॉर्ड में “गिरि” या इसके पर्याय “अद्रि” शब्द के साथ समाप्त होने वाले नामों का उल्लेख किया गया है।
कोट्टूर का राजा स्वामीदत्त
कोट्टूर सम्भवतः उड़ीसा के गंजाम जनपद में स्थित ‘कोतूर’ नामक स्थान था।
एरण्डपल्ल का राजा दमन
एरण्डपल्ल की पहचान आन्ध्र के विशाखापट्टनम् जनपद में स्थित इसी नाम के स्थान से की जाती है।
काञ्ची का राजा विष्णुगोप
कांची मद्रास स्थित कांचीवरम है तथा विष्णुगोप संभवतः पल्लववंशी राजा था।
अवमुक्त का राजा नीलराज
अवमुक्त की पहचान संदिग्ध है। संभवतः यह कांचीवरम के पास ही कोई नगर रहा होगा।
वेङ्गी का राजा हस्तिवर्मा
वेंगी कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित नेल्लोर के उत्तर में ‘पेड्डवेंगी’ नामक स्थान है तथा हस्तिवर्मा सालंकायनवंशी राजा था।
पालक्क का राजा उग्रसेन
पालक्क नेल्लोर (तमिलनाडु) जनपद का पालक्कड नामक स्थान है।
जे० डुब्राईल (J. Dubreuil) ने पालक्क को पालक्कड के रूप में पहचाना है जिसका उल्लेख कई पल्लव शिलालेखों में किया गया है। यह स्थान संभवतः पल्लव राजप्रतिनिधि का मुख्यालय था। उदाहरणार्थ युवराज (राजकुमार) विष्णुगोपवर्मन के उरुवपल्ली अनुदान शिलालेख (Uruvapalli grant inscription) को पालक्कड से जारी किया गया था।
जी० रामदास (G. Ramdas) ने इसे नेल्लोर जिले में उदयगिरि और वेंकटगिरि के बीच स्थित पक्काई (Pakkai) के रूप में पहचाना और यह सिद्धांत दिया कि यह वही स्थान है जिसे १०वीं शताब्दी के चोल राजा राजराज प्रथम के शिलालेखों में पाका-नाडु (Paka-nadu), पंका-नाडु (Panka-nadu) या पाकाई-नाडु (Panka-nadu) के रूप में संदर्भित किया गया है।
देवराष्ट्र का राजा कुबेर
देवराष्ट्र की पहचान इतिहासकार डूब्रील ने आधुनिक आन्ध्र प्रदेश के विजगापट्टम (विशाखापट्टनम्) जनपद में स्थित एलमंचिली नामक परगना के साथ की है।
एक विचार के अनुसार देवराष्ट्र ऐतिहासिक कलिंग क्षेत्र में स्थित था। यह वर्तमान में आंध्र प्रदेश के उत्तरी भाग में है। इस क्षेत्र में पिष्टपुर से जारी वशिष्ठ राजा अनंतवर्मन के शृंगावरपुकोटा शिलालेख (Srungarapukota inscription) में उनके दादा गुणवर्मन को देव-राष्ट्राधिपति (देव-राष्ट्र के अधिपति) कहा गया है।
१०वीं शताब्दी के वेंगी के चालुक्य राजा भीम प्रथम के कासिमकोटा शिलालेख (Kasimkota inscription) में कलिंग में देव-राष्ट्र नामक एक विषय (जिला) का उल्लेख किया गया है। इसी आधार पर जे० डुब्राईल (J. Dubreuil) ने देव-राष्ट्र की पहचान वर्तमान आंध्र प्रदेश के एलमंचिली तालुका के रूप में की।
समुद्रगुप्त के समय में ऐसा लगता है कि कलिंग क्षेत्र कई छोटे राज्यों में विभाजित था जिनमें कोट्टूर, पिष्टपुर और देवराष्ट्र शामिल हो सकते थे।
कुस्थलपुर का राजा धनञ्जय
कुस्थलपुर की पहचान बार्नेट ने उत्तरी आर्काट में पोलूर के समीप स्थित कुट्टलपुर से की है।
इतिहासकार डूब्रील* का विचार है कि समुद्रगुप्त के विरुद्ध पूर्वी दकन के राजाओं ने एक संघ बनाया जिसका नेता विष्णुगोप था। यही कारण है कि उसका नाम भौगोलिक क्रम की उपेक्षा कर अवमुक्तक नीलराज तथा वेंगी के हस्तिवर्मा के पहले दिया गया है। इस संघ ने कोलेरू (Kolleru) झील के पास समुद्रगुप्त को पराजित किया था जिसके परिणामस्वरूप वह उड़ीसा की तटवर्ती भागों में की गयी विजयों को छोड़कर अपनी राजधानी वापस लौट गया।
- Ancient History of the Deccan p. 60-61, G. Jouveau Dubreuil*
परन्तु यह निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि प्रशस्ति का स्पष्ट उल्लेख है कि वह कांची तक विजय करते हुए बढ़ गया था।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि समुद्रगुप्त पूर्वी घाट से अभियान प्रारम्भ कर वापसी में पश्चिमी घाट से लौटा था। परन्तु यह मत भी मान्य नहीं है। पश्चिमी घाट में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। यदि समुद्रगुप्त का वाकाटकों के साथ कोई युद्ध हुआ होता तो उसका उल्लेख प्रशस्ति में अवश्यमेव होता। समुद्रगुप्त वाकाटकों की शक्ति से परिचित था और उनके साथ व्यर्थ का संघर्ष मोल लेना हितकर नहीं समझता था।
यद्यपि उसने पश्चिमी दक्कन के वाकाटक राज्य पर आक्रमण तो नहीं किया किन्तु फिर भी उसने मध्य भारत में वाकाटकों के अधिकार को समाप्त कर दिया। यहाँ वाकाटकों के सामन्त शासन करते थे। इस समय यहाँ वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन प्रथम (३६०-३८५ ई०) का सामन्त व्याघ्रदेव शासन करता था। यह प्रयाग प्रशस्ति का व्याघ्रराज है जिसे समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान में पराजित किया था।
एरण का लेख भी मध्य भारत के ऊपर समुद्रगुप्त का अधिकार प्रमाणित करता है। इस विजय ने मध्य भारत में वाकाटकों के स्थान पर गुप्तों की सत्ता कायम कर दिया तथा इसके बाद वाकाटक राज्य पश्चिमी दकन में सीमित हो गया।
अतः ऐसा लगता है कि वह जिस मार्ग से अभियान पर गया उसी से वापस भी लौट आया। उसने सुदूर दक्षिण में अपनी विजय पताका फहरा दी परन्तु दक्षिण के राज्यों को उसने अपने प्रत्यक्ष शासन में लाने की चेष्टा नहीं की। यह उसकी महान् दूरदर्शिता थी।
दक्षिणी राज्य पाटलिपुत्र से दूर पड़ते थे तथा तत्कालीन आवागमन की कठिनाइयों के कारण उन्हें प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखना कठिन था। अतः समुद्रगुप्त ने बुद्धिमानी की कि उसने इन राज्यों को स्वतन्त्र कर दिया तथा उन्होंने उसे अपना सम्राट मान लिया।
समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ की नीति को “ग्रहणमोक्षानुग्रह” कहा गया है। इस नीति के तीन अंग थे—
- ग्रहण अर्थात् शत्रु राज्य पर अधिकार
- मोक्ष अर्थात् शत्रु को मुक्त करने की नीति
- अनुग्रह अर्थात् दया करके राज्य को लौटाना
समुद्रगुप्त द्वारा दक्षिण में अपनायी गयी नीति को भारतीय इतिहास में दिशा-बोधक हैं; उदाहरणार्थ—
- मध्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने सफलतापूर्वक दक्षिण में इसी नीति का अनुसरण किया।
- दूसरी ओर मुहम्मद बिन तुगलक और औरंगजेब के उदाहरण हैं, जिन्होंने दक्षिण पर सीधे नियन्त्रण में लाने के असाध्य प्रयास में साम्राज्य के विघटन का नींव रख दी।
लेवी का विचार है कि दक्षिण भारत में इस समय अनेक समृद्ध बन्दरगाह थे और समुद्रगुप्त उन पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता था। सम्भव है उसके दक्षिणापथ अभियान का उद्देश्य आर्थिक ही रहा हो। समुद्री व्यापार के द्वारा दक्षिण के राज्यों ने प्रभूत सम्पत्ति अर्जित कर रखी थी।
ईसा पूर्व प्रथम शती में कलिंग नरेश खारवेल ने भी पाण्ड्य राज्य पर आक्रमणकर वहाँ के शासक से मुक्तिमणियों का उपहार प्राप्त किया था।
मध्यकाल के अनेक लेखकों तथा यात्रियों ने दक्षिणी राज्यों की विपुल सम्पत्ति का उल्लेख किया है। अतः यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि समुद्रगुप्त को दक्षिणी भारत के अभियान में वहुत अधिक धन उपहार अथवा लूट में प्राप्त हुआ होगा।
आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध
दक्षिणापथ के अभियान से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुनः एक युद्ध किया जिसे ‘आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त ही किया था, उनका उन्मूलन नहीं। राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर के शासकों ने पुनः स्वतन्त्र होने की चेष्टा की। अतः दक्षिण की विजय से वापस लौटने के बाद समुद्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उखाड़ फेंका। इस नीति को प्रशस्ति में “प्रसभोद्धरण” कहा गया है। यह दक्षिण में अपनायी गयी “ग्रहणमोक्षानुग्रह” की नीति के प्रतिकूल थी।
समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। प्रयाग प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में आर्यावर्त के ९ राजाओं का उल्लेख हुआ है। उल्लेखनीय है कि यहाँ उनके राज्यों के नाम नहीं दिये गये हैं। ये इस प्रकार है—
“रुद्रदेव-मतिल-नागदत्त-चन्द्रवर्म्म-गणपतिनाग-नागसेनाच्युत-नन्दि-बल-वर्म्माद्यनेकार्य्या- वर्त्त-राज-प्रसभोद्धरणोवृत्त-प्रभाव-महतः”
—पंक्ति संख्या, २१; प्रयाग प्रशस्ति
- रुद्रदेव
- मत्तिल
- नागदत्त
- चन्द्रवर्मा
- गणपतिनाग
- नागसेन
- अच्युत
- नन्दि
- बलवर्मा
उपर्युक्त शासकों में से अनेक के राज्यों की ठीक-ठीक पहचान नहीं की जा सकी है—
रुद्रदेव
रुद्रदेव के विषय में निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किए गए हैं—
काशीनाथ दीक्षित, काशीप्रसाद जायसवाल और बी० बी० मीराशी जैसे विद्वानों ने रुद्रदेव को वाकाटक नरेश रुद्रसेन (प्रथम) माना है। हालाँकि उनके इस निष्कर्ष का आधार यह है कि समुद्रगुप्त के अभिलेख में वाकाटक शक्ति का उल्लेख नहीं मिलता, जो उस समय मध्य और पश्चिमी दक्कन की प्रमुख शक्ति थी। यह तर्क उन विद्वानों को चौंकाने वाला लगा। लेकिन इस मत के पक्षधर विद्वानों ने इस तथ्य की अनदेखी की है कि—
- वाकाटक रुद्रसेन (प्रथम) दक्षिणापथ का शासक था।
- समुद्रगुप्त के अभिलेख के अनुसार रुद्रदेव का उन्मूलन किया गया, जबकि वाकाटक रुद्रसेन का वंश लंबे समय तक अस्तित्व में रहा।
- समुद्रगुप्त के अभिलेख में उसकी विजयगाथा का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया गया है, जिसमें शक्तिशाली कुषाण और शक राजाओं का भी उल्लेख है। ऐसी स्थिति में यदि समुद्रगुप्त ने वाकाटक जैसे शक्तिशाली शासकों के विरुद्ध कोई अभियान चलाया होता, तो हरिषेण इसे केवल एक कमजोर राजा की श्रेणी में नहीं रखता, बल्कि इसे गर्व के साथ अभिलेख में दर्शाया जाता।
इसके विपरीत दिनेशचन्द्र सरकार का मानना है कि रुद्रदेव की पहचान पश्चिमी शक क्षत्रप रुद्रदामन (द्वितीय) या उनके पुत्र रुद्रसेन (तृतीय) से हो सकती है। लेकिन यह भी अस्वीकार्य लगता है क्योंकि समुद्रगुप्त ने पश्चिम या मध्य भारत में कोई अभियान नहीं किया था। एरण अभिलेख के अनुसार यह समुद्रगुप्त की पश्चिमी सीमा थी।
सभी मत-मतांतरों को ध्यान में रखते हुए यह अधिक स्वाभाविक प्रतीत होता है कि अभिलेख में उल्लिखित रुद्रदेव कौशांबी से प्राप्त सिक्कों से जुड़े रुद्र हो सकते हैं। यह सिक्के उसी स्थान से मिले हैं, जहाँ यह स्तंभ मूल रूप से स्थित था और उनकी लिपि भी स्तंभ लेख की लिपि से मेल खाती है।
अतएव सम्भवतः कौशाम्बी का राजा था जहाँ से रुद्र नामांकित कुछ मुद्रायें प्राप्त हुई है।
मत्तिल
बुलन्दशहर से ‘मत्तिल’ के नाम की एक मुद्रा मिली है, अतः वह इसी भाग का शासक रहा होगा।
फ्लीट और ग्राउस का कहना है कि बुलन्दशहर (उत्तर-प्रदेश) से मिली मिट्टी की मुहर पर जो मत्तिल नाम अंकित है वह इसी राजा का नाम है।
इस आधार पर वे उसे बुलन्दशहर के आसपास का राजा अनुमान करते हैं।
किन्तु इस मुहर पर राजोचित उपाधि का सर्वथा अभाव है जिसके कारण यह मानना कि मत्तिल किसी रूप में सत्ताधारी था। सम्भव नहीं जान पड़ता। सम्प्रति मतिल की पहचान संदिग्ध ही है।
नागदत्त
नाम के आधार पर अनुमान किया जाता है कि नागसेन और गणपति नाग की भाँति ही नागदत्त भी कोई नागराज होगा। परन्तु नाग नामांश से ही इसे नागवंशी अनुमान करने का कोई औचित्य नहीं है।
जायसवाल ने इसकी पहचान लाहौर से प्राप्त चौथी शती ई० की मुहर पर अंकित महाराज महेश्वर नाग के पिता नागभट (महाराज नागभट पुत्र महेश्वरनाग) से की है।
दिनेशचन्द्र सरकार की धारणा है कि वह उत्तर बंगाल के शासक और गुप्तों के दत्त नामान्त उपरिकों का पूर्वज रहा होगा। किन्तु दत्त नामान्त के आधार पर उसके उत्तरी बंगाल के शासक होने की कल्पना नहीं की जा सकती और न नागभट का समीकरण नागदत्त से करने का ही कोई आधार है।
सम्प्रति नागदत्त के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
चन्द्रवर्मा
चन्द्रवर्मा (चन्द्रवर्मन) पश्चिमी बंगाल के बांकुड़ा जनपद का शासक था। वहाँ सुसुनिया पहाड़ी से उसका लेख मिला है।
इस अभिलेख में उल्लिखित पुष्कर्ण-नरेश सिंहवर्मन के पुत्र चन्द्रवर्मन (पुष्करणाधिपतेर्महाराज श्री सिंहवर्मणः पुत्रस्य महाराज श्री चन्द्रवर्म्मणः) से प्रयाग प्रशस्ति के चन्द्रवर्मा की पहचान की गयी है।
किन्तु यह अनुमान दुरूह ही है। यह आर्यावर्त नरेश था और वह बंगाल में आर्यावर्त और बंगाल यदि इसे ध्यान में रखें तो दोनों स्पष्ट दो भौगोलिक इकाइयाँ हैं।
गणपतिनाग, नागसेन और अच्युत
ये तीनों वही शासक हैं जिनको समुद्रगुप्त में आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में पराजित किया था। प्रसंगवश यहाँ केवल इतना उल्लेख पर्याप्त होगा—
- गणपतिनाग तथा नागसेन निश्चयतः नागवंशी शासक थे जो क्रमश मथुरा और पद्मावती में शासन करते थे।
- अच्युत, अहिच्छत्र (बरेली) का राजा था।
नन्दि
नन्दि नामक राजा के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि वह पुराणों उल्लिखित नागराज शिवनन्दि होगा; किन्तु पुराणों में इस राजा का उल्लेख जिन राजाओं के साथ हुआ है वे गुप्तकाल से पहले के हैं। इस कारण यह पहचान सम्भव नहीं है।
भण्डारकर ने नन्दि को अच्युत का नामांश अनुमान किया है। उसे वे अच्युत से भिन्न नहीं समझते।
बलवर्मा
बलवर्मा के राज्यों की सही पहचान नहीं की जा सकती।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह हर्षवर्धन के समकालिक कामरूप-नरेश भास्करवर्मन का पूर्वज था। किन्तु अभिलेख में असम का उल्लेख आर्यावर्त से भिन्न, स्वतन्त्र रूप में हुआ है। इस कारण इसे असम-नरेश अनुमान करना सम्भव नहीं है। सम्भव है वह चन्द्रवर्मन का कोई दायाद रहा हो। पर इसके सम्बन्ध में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
आर्यावर्त के अन्य राज्य
प्रयाग प्रशस्ति का उपर्युक्त अंश इस कथन के साथ समाप्त होता है कि इन नौ राजाओं के अतिरिक्त आर्यावर्त में अन्य बहुत से राजा थे जिनके राज्य को समुद्रगुप्त ने बलात् उन्मूलन कर दिया (अनेकार्यावर्त-राज-प्रसभोद्धरण)।
आर्यावर्त्त के द्वितीय युद्ध के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के एक भाग पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया।
आटविक राज्यों की विजय
प्रशस्ति की इक्कीसवीं पंक्ति में आटविक राज्यों की भी चर्चा हुई है। इनके विषय में यह बताया गया है कि समुद्रगुप्त ने ‘सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया।’
“परिचारकीकृत-सर्व्वाटविक-राजस्य”
— पंक्ति संख्या, २१; प्रयाग प्रशस्ति
आटविक का सामान्य अर्थ वनवासी होता है और वह महाकान्तार का पर्याय जान पड़ता है। परन्तु महाभारत में आटविक और महाकान्तार में स्पष्ट भेद किया गया है। परिव्राजक महाराज संक्षोभ के खोह अभिलेख में कहा गया है कि उसके पूर्वज अठारह आटविक राज्यों सहित डाभाल (जबलपुर प्रदेश) के पैतृक राज्य पर शासन करते थे। परिव्राजकों की भूमि बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, रीवा तथा विन्ध्य शृंखला के अन्य भागों में थी। अतः बहुत सम्भव है इन्हीं को इस अभिलेख में आटविक कहा गया हो।
फ्लीट के मतानुसार उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर जनपद तक के वन-प्रदेश में ये सभी राज्य फैले हुये थे। उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच के आवागमन को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें नियन्त्रण में रखना आवश्यक था।
लगता है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणापथ अभियान पर जा रहे थे, इन राज्यों ने उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया। अतः उसने उन्हें जीतकर पूर्णतया अपने नियन्त्रण में कर लिया।
आटविक राज्यों के प्रति इस नीति को “परिचारीकृत” नीति कहा गया है।
प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्यों को विजय
प्रयाग प्रशस्ति की बाईसवीं पंक्ति में प्रत्यन्त राज्यों की एक लम्बी सूची मिलती है जो समुद्रगुप्त की पूर्वी, उत्तरी-पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं पर स्थित थे।
इन प्रत्यन्त राज्यों के सम्बन्ध में समुद्रगुप्त ने जो नीति अपनायी उसे प्रयाग प्रशस्ति में कहा गया है—
“सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन”
—पंक्ति संख्या, २२; प्रयाग प्रशस्ति
अर्थात् प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्य—
- सभी प्रकार के करों को देते थे (सर्वकरदान)
- उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे (आज्ञाकरण)
- उसे प्रणाम करने के लिये (राजधानी में) उपस्थित होते थे (प्रणामागमन)
ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के पराक्रम से भयभीत होकर इन राज्यों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर लिया था। प्रयाग प्रशस्ति की बाईसवीं पंक्ति में प्रत्यन्त राज्यों जो सूची मिलती है, वह इस प्रकार है—
“समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन”
—पंक्ति संख्या, २२; प्रयाग प्रशस्ति
अर्थात् “[जिसने] समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल, कर्तृपुर आदि सीमान्त प्रदेश के राजाओं तथा मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक, खर्परिक आदि [जन-राज्यों] को सभी प्रकार का कर देने, राजाज्ञा पालन करने, [राजधानी में] प्रणाम करने के लिए आने और [अपने] प्रचण्ड शासन (आदेश) को पूर्ण रूप से पालन करने के लिए बाध्य किया है”
इतिहासकारों ने सूचीबद्ध इन १४ राज्यों को दो प्रकार से वर्गीकृत किया है—
- शासनतन्त्र के आधार पर
- राजतन्त्र, इसमें ५ राज्य शामिल हैं— समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल, कर्तृपुर आदि।
- गणतन्त्र, इसमें ९ राज्य शामिल हैं— मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक, खर्परिक आदि।
- भौगोलिक आधार पर
- पूर्वी और पूर्वोत्तर के राज्य— समतट, डवाक और कामरूप।
- उत्तरी राज्य— कर्तृपुर और नेपाल।
- पश्चिम और उत्तर पश्चिम के राज्य— मालव, आर्जुनायन, यौधेय और मद्रक।
- मध्य-भारत के राज्य— आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काक और खर्परिक।
राज्यों की पहचान
समतट से तात्पर्य पूर्वी बंगाल (आधुनिक बंगला देश) के समुद्रतटवर्ती प्रदेश से है।
डवाक की पहचान असम के नौगाँव जनपद में स्थित ‘डवोक’ नामक स्थान से की जाती है।
कामरूप आधुनिक असम का केन्द्रीय भाग था।
कर्तृपुर की पहचान जालन्धर स्थित कर्तारपुर से की जाती है। एक मत के अनुसार इसके अन्तर्गत कुमायूँ, गढ़वाल तथा रुहेलखण्ड का प्राचीन कतूरियाराज प्रदेश भी आता था। नेपाल से तात्पर्य आधुनिक नेपाल राज्य से है। प्राचीन नेपाल गण्डक तथा कोसी नदियों के बीच स्थित था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गुप्तों के समय में यहाँ लिच्छवियों का राज्य था।
पूर्वी राज्यों, विशेष रूप से बंगाल पर अधिकार हो जाने से, समुद्रगुप्त को पूर्वी बंगाल के समृद्ध बन्दरगाहों का नियन्त्रण प्राप्त हो गया होगा। यहाँ का सुप्रसिद्ध बन्दरगाह ताम्रलिप्ति था जहाँ से मालवाहक जहाज मलय प्रायद्वीप, लंका, चीन तथा पूर्वी दीपों को नियमित रूप से जाया करते थे। स्थल मार्गों द्वारा भी यह स्थल बंगाल तथा भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। अतः कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त के इस भाग पर अधिकार ने गुप्त साम्राज्य की आर्थिक समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया होगा।
प्रत्यन्त राज्यों की दूसरी कोटि में नौ गणराज्य है जो पंजाब, मालवा, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में फैले हुये थे। ये समुद्रगुप्त के साम्राज्य को पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे। इसके नाम इस प्रकार मिलते है— १. मालव, २. अर्जुनायन, ३. यौधेय, ४. मद्रक, ५. आभीर, ६. प्रार्जुन, ७. सनकानीक, ८. काक, और ९. खरपरिक (खर्परिक)।
इनमें मालव लोग गुप्तों के समय में मन्दसोर (प्राचीन दशपुर) में राज्य करते थे। विस्तृत विवरण के लिए देखें— मालव गणराज्य
अर्जुनायनों का राज्य आगरा-जयपुर क्षेत्र में था। विस्तृत विवरण के लिए देखें— अर्जुनायन गणराज्य
यौधेय गणराज्य सतलज नदी के दोनों किनारों की भूमि, जिसे जोहियाबार कहा जाता है, में स्थित था। विस्तृत विवरण के लिए देखें— यौधेय गणराज्य
मद्रक लोग रावी तथा चिनाब नदियों के बीच की भूमि में शासन करते थे। उनकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) में थी।
आभीर झाँसी और विदिशा के बीच का भू-भाग अहीरवार कहलाता है। इस कारण लोगों ने यह मत प्रकट किया है कि समुद्रगुप्त के समय आभीर इसी प्रदेश में रहते रहे होंगे। किन्तु महाभारत में आभीरों की अवस्थिति सरस्वती और विनशन नदियों के निकट अर्थात् निचले सिन्धु-काँठे और पश्चिमी राजस्थान में बताया गया है। अतः समुद्रगुप्त के समय तक आभीर इसी ओर रहते रहे होंगे। विस्तृत विवरण के लिए देखें— आभीर राजवंश
प्रार्जुन गणराज्य सम्भवतः मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जनपद में स्थित था।
सनकानीक भिलसा के आस-पास शासन करते थे।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामन्तों में से एक सनकानिक महाराज थे जिन्होंने उदयगिरि में एक देवालय को दान दिया था। रायचौधुरी और उनके समर्थकों ने यह माना कि सनकानिक विदिशा प्रदेश में निवास करते थे। हालाँकि इस धारणा को व्यक्त करते समय उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि उसी समय गणपति नाग विदिशा के शासक माने जाते थे।
- संभवतः सनकानिक महाराज उन सैनिक और प्रशासनिक अधिकारियों में से थे जिन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता के संरक्षणकाल में वाकाटक राज्य की शासन व्यवस्था हेतु पाटलिपुत्र से भेजा गया था।
- उदयगिरि और साँची के अभिलेखों में वीरसेन और अम्रकारदेव जैसे अन्य गुप्त अधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है। यह स्पष्ट है कि वे इस क्षेत्र के निवासी नहीं थे।
- इस आधार पर सनकानिक महाराज को विदिशा प्रदेश का निवासी मानना उचित नहीं है। हरिषेण ने सनकानिकों को प्रार्जुनों और काकों के बीच रखा है, जिससे उन्हें उनके पड़ोसी राज्य के संदर्भ में देखना अधिक तार्किक प्रतीत होता है।
सनकानीक से बीस मील उत्तर में स्थित काकपुर नामक स्थान में काक गणराज्य था।
खरपरिक लोग दमोह (म० प्र०) के शासक थे।
- १४वीं शताब्दी के बटियागढ़ अभिलेख (दमोह जनपद) में खर्पर शब्द का प्रयोग देख कर अनुमान कर लिया गया है कि खर्परिक मध्य प्रदेश के दमोह जिले के निवासी थे। किन्तु इस अभिलेख में मात्र इतनी सी बात कही गयी है कि सुल्तान महमूद ने मीर जुलाच को चेदि का सूबेदार नियुक्त किया था, जो (मीर जुलाच) खर्पर सेना के विरुद्ध लड़ा था। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि खर्परिक (खरपरिक) स्वदेशी जनजातीय योद्धा थे।
- मध्यकालीन ग्रन्थों में खर्पर का तात्पर्य विदेशी जनजाति (संभवतः मंगोल) बताया गया है। डिंगल भाषा के ग्रंथों में “खर्पर” (Kharapara) शब्द का प्रयोग ‘मुस्लिम’ के पर्यायवाची के रूप में किया गया है। हालाँकि समुद्रगुप्त के काल में इस पहचान का कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समुद्रगुप्त-कालीन खर्परिक लोगों को उत्तर-पश्चिमी प्रदेश का निवासी माना जा सकता है।
विदेशी शक्तियाँ
प्रशस्ति की तेईसवीं-चौबीसवीं पंक्तियों में कुछ विदेशी शक्तियों के नाम दिये गये हैं जिनके विषय में यह बताया गया है कि वे ‘स्वयं को सम्राट की सेवा में उपस्थित करना, कन्याओं के उपहार एवं अपने-अपने राज्यों में शासन करने के निमित्त गरुड़ मुद्रा से अंकित राजाज्ञा के लिये प्रार्थना करना आदि विविध उपायों द्वारा उसकी सेवा’ किया करती थीं।
ये शक्तियाँ इस प्रकार है—
“परितोषित-प्रचण्ड-शासनस्य अनेक-भ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत-निखिल- भु[व]न-[विचरण-श्रा]न्त-यशसः दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि-शकमुरुण्डैः सैंहलकादिभिश्च
सर्व्व-द्वीप-वासिभिरात्मनिवेदन-कन्योपायनदान-गरुत्मदङ्क-स्वविषय-भुक्त्तिशासन-[य] -चनाद्युपाय-सेवा-कृत-बाहु-वीर्य-प्रसर-धरणिबन्धस्य प्रिथिव्यामप्रतिरथस्य”
—पंक्ति संख्या, २३-२४; प्रयाग प्रशस्ति
दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि
इससे तात्पर्य कुषाणों से है। कुषाण गुप्तों के समय पश्चिमी पंजाब में निवास करते थे तथा उनका शासक देवपुत्र, षाहि एवं षाहानुषाहि की उपाधियाँ ग्रहण करता था। समुद्रगुप्त का समकालीन कुषाण नरेश किदार कुषाण था जो पेशावर क्षेत्र का राजा था। पहले वह ससानी नरेश शापुर द्वितीय की अधीनता में था किन्तु बाद में समुद्रगुप्त की सहायता पाकर उसने अपने को स्वतन्त्र कर दिया।
कुछ विद्वानों (जॉन एलन) का विचार है कि देवपुत्र, षाहि तथा षाहानुषाहि से तात्पर्य तीन कुषाण राजाओं से है। प्रत्येक शासक एक-एक उपाधि ग्रहण करता था। किन्तु जैसा कि डी० आर० भण्डारकर ने बताया है, मूल शब्द देवपुत्र न होकर ‘दैवपुत्र’ है। यह एक तद्धित शब्द है। इससे स्पष्ट है कि यह अपने आप में स्वतन्त्र न होकर बाद के दोनों पदों— षाहि तथा षाहानुषाहि— से सम्बन्धित है। इस प्रकार तीनों को एक समस्त पद मानना ही उचित प्रतीत होता है। इससे तात्पर्य कुषाण शासकों की प्रसिद्ध राजकीय उपाधि ‘देवपुत्रमहाराजाधिराज’ प्रतीत होता है।
आर० सी० मजूमदार के अनुसार उत्तर-पश्चिम भारत में गडहरनरेश भी समुद्रगुप्त की अधीनता मानता था। उसकी एक मुद्रा पर ‘समुद्र’ उत्कीर्ण है।
शक
शक लोग गुप्तों के समय में पश्चिमी मालवा, गुजरात तथा काठियावाड़ के शासक थे। समुद्रगुप्त का समकालीन शासक रुद्रसिंह तृतीय (३४८-३७८ ईस्वी) था।
मुरुण्ड
स्टेनकोनों के मतानुसार मुरुण्ड शब्द चीनी ‘वंग’ का पर्यायवाची है जिसका अर्थ ‘स्वामी’ होता है। इस प्रकार ‘शक-मुरुण्ड’ का तात्पर्य शक-शासक से है। परन्तु यह मत असंगत है क्योंकि गुप्तों के पूर्व मुरुण्ड जाति का स्वतन्त्र अस्तित्व था। टॉलमी के भूगोल से ज्ञात होता है कि पूर्वी भारत में मुरुण्डों का शक्तिशाली राज्य था। चीनी स्रोतों में उन्हें ‘मेउलुन’ (Meou-loun) कहा गया है। उनके अनुसार मुरुण्ड राज्य विशाल नदी (गंगा) के मुहाने से सात हजार ली (लगभग १९३० किलोमीटर या १२०० मील) की दूरी पर स्थित था। इस स्थान से तात्पर्य कन्नौज से हो सकता है। जैन साहित्य में भी मुरुण्डों का उल्लेख मिलता है। हेमचन्द्र कृत अभिधानचिन्तामणि से पता चलता है कि मुरुण्डों का एक राज्य आधुनिक लघमान में स्थित था। सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि इसी क्षेत्र के मुरुण्डों ने समुद्रगुप्त के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित किया होगा।
एलन का विचार है कि वे पाटलिपुत्र के शासक थे तथा प्रारम्भिक नरेश उन्हीं के सामन्त थे। परन्तु यह संदिग्ध है।
सिंहल
इससे तात्पर्य लंकाद्वीप से है। समुद्रगुप्त का समकालीन लंका नरेश मेघवर्ण था। विल्हेम गीगर (Wilhem Geiger) मेघवर्ण का शासनकाल ३५२ से ३७९ ई० था। इस तरह वह समुद्रगुप्त का समकालीन था। चीनी स्रोतों से ज्ञात होता है कि उसने समुद्रगुप्त के पास उपहारों सहित एक दूत-मण्डल भेजा था। गुप्त नरेश की आज्ञा से उसने बोधिवृक्ष के उत्तर में लंका के बौद्ध भिक्षुओं के लिये एक भव्य विहार बनवाया था।
अन्य द्वीप
सिंहल के अतिरिक्त कुछ और भी द्वीपों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी क्योंकि प्रशस्ति में सिंहल के बाद “आदि सर्वद्वीपवासिभिः” उल्लिखित मिलता है। इसका संकेत दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों से है। यहाँ से हिन्दू उपनिवेशों के शासक इस समय अपनी मातृभूमि से सम्बन्ध बनाये हुये थे। जावा से प्राप्त तन्त्रीकामन्दक नामक ग्रन्थ में ऐश्वर्यपाल नामक राजा का उल्लेख हुआ है जो अपने को समुद्रगुप्त का वंशज कहता है।
यद्यपि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उपर्युक्त शक्तियों (कुषाण, शक-मुरुण्ड, सिंहल और अन्य द्वीप) के साथ समुद्रगुप्त का कोई युद्ध हुआ अथवा उसका सम्बन्ध मात्र कूटनीतिक ही था तथापि यह स्पष्ट है कि शकों तथा कुषाणों ने उसकी अधीनता मानी थी। कुछ कुषाण मुद्राओं पर समुद्र तथा ‘चन्द्र’ नाम अंकित है तथा शकों के कुछ सिक्के भी गुप्त प्रकार के हैं। इनसे शकों तथा कुषाणों पर गुप्त शासकों का प्रभाव स्पष्टतः सिद्ध होता है।
रोम को दूतमण्डल भेजना
एक रोमन इतिहासकार ने भारत से भेजे गये एक राजदूत मंडल के ३६१ ई० में रोम पहुँचने का उल्लेख किया है। यह घटना चौथी शताब्दी के मध्य में भारत की राजनीतिक स्थिति को समझने में महत्त्वपूर्ण है—
- ३६१ ई० से पहले, रोम ससानी साम्राज्य के साथ युद्धरत था।
- यह संभावना है कि समुद्रगुप्त ने ससानियों के विरुद्ध रोम का समर्थन करने के लिए राजदूत मंडल भेजा हो।
- समुद्रगुप्त ने किदार (कुषाण) के साथ मिलकर शापुर द्वितीय (ससानी शासक) के विरुद्ध मोर्चा खोल करके ससानी सेनाओं को व्यस्त और विचलित करके रोम पर दबाव कम करने में सहायता की हो।
रघुवंश का विवरण—
- बैक्ट्रिया और उत्तर-पश्चिमी भारत के राजनीतिक वातावरण को ध्यान में रखते हुए, यह सुझाव दिया गया है कि कालिदास द्वारा रघुवंश में रघु की दिग्विजय का चित्रण समुद्रगुप्त के वास्तविक अभियानों से प्रेरित हो सकता है।
- कालिदास ने रघु की विजयों का जो वर्णन किया, उसमें दक्कन के त्रिकूट पर विजय और पारसिकों, हूणों और कम्बोजों के खिलाफ अभियान शामिल हैं।
- इस प्रकार, कालिदास का महाकाव्य उस समय की वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं को प्रतिबिंबित कर सकता है, जो उस युग की राजनीतिक और सैन्य चुनौतियों का एक साहित्यिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
अश्वमेध यज्ञ
अपनी विजयों से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया। लगता है कि इस यज्ञ का अनुष्ठान प्रशस्ति लिखे जाने के बाद हुआ और इसी कारण उसमें इसका उल्लेख नहीं मिलता। स्कन्दगुप्त के भीतरी लेख में ‘समुद्रगुप्त को चिर काल से छोड़े गये अश्वमेध को करने वाला’ (चिरोत्सन्नाश्वमेधाहर्त्तुः) कहा गया है। परन्तु यह उल्लेख अतिरंजित है। गुप्तों के पूर्व पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये थे और वाकाटक नरेश प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञ किये।
समुद्रगुप्त के ‘अश्वमेध’ प्रकार के सिक्के उसके द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने के प्रमाण है। इनके मुख भाग पर यज्ञ-यूप में बँधे हुये अश्व की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मुद्रालेख ‘अश्वमेध पराक्रमः’ (अश्वमेध ही जिसका पराक्रम है) उत्कीर्ण मिलता है। प्रभावती गुप्ता के पूना ताम्र-लेख में समुद्रगुप्त को ‘अनेक अश्वमेध यज्ञों को करने वाला’ (अनेकाश्वमेधयाजिन) कहा गया है।
साम्राज्य तथा शासन
राज्य विस्तार
समुद्रगुप्त की नीतियों और दिग्विजय अभियानों का विश्लेषण करने पर हम उसके साम्राज्य विस्तार का अधोलिखित प्रकार से विश्लेषित कर सकते हैं—
समुद्रगुप्त का साम्राज्य एक मुख्य क्षेत्र को शामिल करता था, जो उत्तरी भारत में स्थित था और सम्राट द्वारा सीधे नियंत्रित किया जाता था। इसके अतिरिक्त इसमें कई राजतंत्रीय और जनजातीय अधीनस्थ राज्य सम्मिलित थे। इतिहासकार आर० सी० मजूमदार का मानना है कि समुद्रगुप्त ने सीधे एक क्षेत्र पर नियंत्रण रखा जो पश्चिम में रावी नदी (पंजाब) से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी (बंगाल और असम) तक फैला था, और उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में विंध्य पहाड़ियों तक विस्तारित था। उनके क्षेत्र की दक्षिण-पश्चिमी सीमा वर्तमान समय के करनाल से भिलसा तक एक काल्पनिक रेखा के रूप में थी।
दक्षिण में समुद्रगुप्त के साम्राज्य में वर्तमान समय के मध्य प्रदेश में स्थित एरण (सागर जनपद) निश्चित रूप से शामिल था, जहाँ से उनका अभिलेख मिला है।
प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार दक्षिणापथ के १२ राज्यों के प्रति समुद्रगुप्त ने सीधे नियन्त्रण स्थापित न करके बस अधीनता स्वीकार करवाकर उन्हें अपने-अपने राज्यों में शासन करते रहने दिया। इस नीति को “ग्रहणमोक्षानुग्रह” कहा गया है।
इतिहासकार कुणाल चक्रवर्ती के अनुसार समुद्रगुप्त के सैन्य अभियान वर्तमान पंजाब और राजस्थान के जनजातीय गणराज्यों को कमजोर करने में सहायक रहे, लेकिन ये राज्य उनके प्रत्यक्ष शासन के अंतर्गत नहीं थे। उन्होंने केवल उन्हें कर अर्पित किया।
इतिहासकार अश्विनी अग्रवाल के अनुसार गदाहरा जनजाति (Gadahara tribe) की एक स्वर्ण मुद्रा पर ‘समुद्र’ की लिखावट मिली है, जो यह संकेत करती है कि समुद्रगुप्त का नियंत्रण पंजाब क्षेत्र के चिनाब नदी तक फैला हुआ था।
कुछ पूर्ववर्ती विद्वान (जैसे जे० एफ० फ्लीट) यह मानते थे कि समुद्रगुप्त ने महाराष्ट्र के एक क्षेत्र पर भी अधिकार किया था। यह धारणा देवराष्ट्र को महाराष्ट्र और एरण्डपल्ल को एरण्डोल के रूप में पहचानने तथा वहाँ पाये गये गुप्तकालीन अवशेषों पर आधारित थी। हालाँकि वर्तमान में इस विचार को सत्य नहीं माना जाता है।
अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित था। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्तियों उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं। इस प्रकार समुद्रगुप्त ने अपने पिता से जो राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया। प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में उसने अपने ‘बाहुबल के प्रसार द्वारा भूमण्डल को बाँध लिया’ (बाहुवीर्यप्रसरणधरणि बन्धस्य …)। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।
प्रशासन
समुद्रगुप्त ने अत्यन्त नीति-निपुणता के साथ शासन का संचालन किया। केन्द्रीय भाग का शासन उसके प्रत्यक्ष नियंत्रण में था। प्रशस्ति में उसके कुछ प्रशासनिक पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं जो इस प्रकार है—
सान्धिविग्रहिक— यह सन्धि तथा युद्ध का मंत्री होता था। इसके अधीन वैदेशिक विभाग होता था। समुद्रगुप्त का सान्धिविग्रहिक हरिषेण था जिसने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की।
खाद्यटपाकिक— यह राजकीय भोजनालय (Royal Kitchen) का अध्यक्ष था। इस पद पर ध्रुवभूति नामक पदाधिकारी कार्य करता था।
कुमारामात्य— अल्टेकर महोदय के अनुसार आधुनिक भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service) के पदाधिकारियों की भाँति ही कुमारामात्य उच्च श्रेणी के पदाधिकारी होते थे। वे अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद पर पहुँच सकते थे। यही कारण है कि गुप्त लेखों में विषयपति, राज्यपाल, सेनापति, मंत्री आदि सभी को ‘कुमारामात्य’ कहा गया है। गुप्त प्रशासन में यह पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था।
महादण्डनायक— दिनेश चन्द्र सरकार की राय में यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी तथा फौजदारी का न्यायाधीश था। अल्तेकर के अनुसार वह सेना का उच्च पदाधिकारी होता था। सम्भवतः प्रयाग प्रशस्ति में इस पदाधिकारी का उल्लेख ‘महासेनापति’ के अर्थ में किया गया है। यह पद भी हरिषेण के अधिकार में था।
समुद्रगुप्त की शासन-व्यवस्था के विषय में हमें बहुत कम ज्ञात है। ऐसा प्रतीत होता है कि निरन्तर युद्धों में व्यस्त होने के कारण उसे शासन व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करने का अवकाश नहीं मिला था। प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित ‘भुक्ति’ तथा ‘विषय’ शब्दों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उसने अपने साम्राज्य का विभाजन प्रान्तों तथा जनपदों में किया होगा। किन्तु उनकी संख्या अथवा पदाधिकारियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
धर्म
नालंदा और गया अभिलेख में समुद्रगुप्त को विष्णु के भक्त (परमभागवत) के रूप में स्पष्ट रूप से वर्णित करते हैं।
- “परमभा- [ गवतो महाराजाधिराज-श्री समुद्रगु ] प्तः” — पंक्ति संख्या, ४; समुद्रगुप्त का नालन्दा ताम्रलेख
- “परमभागवतो महाराजाधिराज-श्री-समुद्र-गुप्तः” — पंक्ति संख्या, ६, ७; समुद्रगुप्त का गया ताम्रपत्र
वह गायों का दान करता है।
- “गो-शतसहस्र-प्रदायिनः” — पंक्ति संख्या, २५; प्रयाग प्रशस्ति
समुद्रगुप्त वैष्णव होते हुए भी अन्य पंथों और धर्मों के प्रति सहिष्णु थे—
- विभिन्न देवताओं और पौराणिक पुरुषों से तुलना प्रयाग प्रशस्ति (धनदं वरुणेन्द्रान्तक-समस्य) और एरण प्रशस्ति (पृथु-राघवाद्याः [ भूपो ] बभूव धनदान्तक-तुष्टि-कोपतुल्यः) में मिलता है। यह भी उसका सहिष्णुता का ही परिचायक है।
- उन्होंने अपने क्षेत्र में बोधगया में अनुराधापुर के राजा मेघवर्ण द्वारा निर्मित एक बौद्ध विहार के निर्माण की अनुमति दी।
व्यक्तित्व एवं चरित्र
समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का जो विवरण हमें उपलब्ध है उससे स्पष्ट हो जाता है कि वह एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला सम्राट था। आर्यावर्त्त के राजाओं का उन्मूलन तथा सुदूर दक्षिण के राज्यों की विजय उसकी उत्कृष्ट सैनिक प्रतिभा के परिचायक है। प्रयाग प्रशस्ति उसकी सैनिक कुशलता का वर्णन इन शब्दों में करती है— “वह विभिन्न प्रकार के सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में कुशल था, दोनों भुजाओं के बल से अर्जित विक्रम ही जिसका एकमात्र बन्धु था, प्रताप ही जिसका प्रतीक था, परशु, वाण, भाला, शंकु, नाराच आदि अनेक शस्त्रों के प्रहार से उत्पन्न शोभा द्वारा जिसके शरीर की कान्ति द्विगुणित हो जाती थी…।”
“तस्य विविध समर-शतावरण-दक्षस्य स्वभुज-बल-पराक्रमैकबन्धोः पराकमाङ्कस्य परशु-शर-शङ्कु-शक्ति-प्रासासि-तोमर-
भिन्दिपाल-न[ ]च-वैतस्तिकाद्यनेक-प्रहरण-विरूढाकुल-व्रण-शताङ्क-शोभा-समुदयोप चित-कान्ततर-वर्ष्मणः”
—पंक्ति संख्या १७,१८; प्रयाग प्रशस्ति
अपने विभिन्न युद्धों में समुद्रगुप्त ने जिन भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया उससे उसकी कूटनीतिज्ञता एवं राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय मिलता है। दक्षिणापथ के राज्यों के साथ अपनायी गयी नीति तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वथा उपयुक्त थी।
इतिहासकार स्मिथ ने समुद्रगुप्त की वीरता पर मुग्ध होकर उसे ‘भारतीय नेपोलियन’ (Indian Napoleon) कहना पसन्द किया।
समुद्रगुप्त युद्ध-क्षेत्र में जितना स्फूर्तिवान् था, शान्ति के समय में उससे कहीं अधिक कर्मठ था। वह स्वयं उच्चकोटि का विद्वान् तथा विद्या का उदार संरक्षक था। प्रशस्ति के शब्दों में ‘विद्वानों की जीविका की स्रोत अनेक काव्यों की रचना द्वारा जिसने “कविराज” की उपाधि प्राप्त की थी—
“विद्वज्जनो-पजीव्यानेक-काव्य-क्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज-शब्दस्य”
—पंक्ति संख्या २७; प्रयाग प्रशस्ति
दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नहीं है।
वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था। अपने कुछ सिक्कों पर वह वीणा बजाते हुये दिखाया गया है। प्रशस्ति में कहा गया है कि “गान्धर्व विद्या में प्रवीणता के कारण उसने देवताओं के स्वामी (इन्द्र) के आचार्य (बृहस्पति), तुम्बुरु, नारद आदि को भी लज्जित कर दिया था।”
“गान्धर्व्वललितैर्व्रीडित-त्रिदशपतिगुरु तुम्बुरुनारदा-”
—पंक्ति संख्या २७; प्रयाग प्रशस्ति
बौद्ध साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि कोई गुप्त सम्राट विद्या का उदार संरक्षक था और उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुवन्धु को अपना मंत्री नियुक्त किया था।
वामन के ‘काव्यालंकारसूत्र’ से भी इसकी पुष्टि होती है जिसमें समुद्रगुप्त का एक नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है।
“सोऽयं सम्प्रति चन्द्रगुप्ततनयः चन्द्रप्रकाशो युवा।
जातो भूपतिराश्रयः कृतधियां दिष्ट्या कृतार्थत्रम॥”
वसुबन्धु का काल चतुर्थ शती ईस्वी माना जाता है। अतः उसका संरक्षक समुद्रगुप्त ही था। इससे उसका विद्या के प्रति अनुराग सूचित होता है।
समुद्रगुप्त एक उदार तथा दानशील शासक था। उसे विद्वानों को पुरस्कृत करने वाला तथा गौओं एवं सुवर्ण मुद्राओं का दान करने वाला कहा गया है। वह सज्जनों के लिये उदय तथा दुर्जनों के लिये प्रलय के तुल्य था। असहायों एवं अनाथों को उसने आश्रय दिया था। प्रशस्ति में कहा गया है कि “उसकी उदारता के फलस्वरूप अष्ठकाव्य (सरस्वती) तथा लक्ष्मी का शाश्वत् विरोध सदा के लिये समाप्त हो गया था।”
“[स]त्काव्य-श्री-विरौधान्बुध-गुणित-गुणाज्ञाहतानेव कृत्वा”
—पंक्ति संख्या ६; प्रयाग प्रशस्ति
वह विविध शास्त्रों का ज्ञाता भी था। इस प्रकार उसके व्यक्तित्व में “सर्वराजोच्छेता” एवं “शास्त्रतत्वार्थभर्तुः” के गुणों का अनूठा समन्वय था।
समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ सम्राट था जिसने वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया। उसे ‘धर्म की प्राचीर’ (धर्म-प्राचीर-बन्धः) कहा गया है। उसने ब्राह्मणों को सहस्रों गायों का दान दिया था। उसके शासन काल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ। वह सर्वगुण सम्पन्न सम्राट था जिसके विषय में प्रयाग प्रशस्ति का कधन है कि “वह केवल लौकिक क्रियाओं के कर्ता के रूप में ही मृनुष्य था अपितु पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता था।”
“लोकसमय-क्कियानुविधान-मात्र-मानुषस्य लोक-धाम्नो देवस्य”
—पंक्ति संख्या २८; प्रयाग प्रशस्ति
एरण प्रशस्ति में उसकी तुलना पृथु, रघु आदि महान् शासकों के साथ की गयी है तथा उसे पराक्रम एवं विनय का स्रोत कहा गया है। वह प्रसन्न होने पर साक्षात् कुबेर था किन्तु रुष्ट होने पर यमराज के समान था (धनान्तक-तुष्टि-कोपतुल्यः)।
गया ताम्र-लेख में समुद्रगुप्त की उपाधि परमभागवत मिलती है।
इस प्रकार समुद्रगुप्त की प्रतिभा बहुमुखी थी। चाहे जिस दृष्टि से देखा जाय, वह महान् था। प्रयाग प्रशस्ति का कथन है कि ‘सहृदय विद्वत्समाज को आकर्षित करने वाला कौन सा ऐसा गुण है जो उसमें न हो’ वस्तुतः विषय में अत्युक्ति नहीं है।
“को नु स्याद्यो (ऽ) स्य न स्याद्गुण-(मति)-विदुषां ध्यान-पात्रं य एकः”
—पंक्ति संख्या १६; प्रयाग प्रशस्ति
निःसन्देह वह शारीरिक तथा बौद्धिक शक्तियों की प्रतिमूर्ति ही था। मजूमदार के शब्दों में “लगभग पाँच शताब्दियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी आधिपत्य के बाद आर्यावर्त (समुद्रगुप्त के काल में) पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा। यह स्वर्ण युग था जिसने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया और आदर्श तथा निराशा दोनों का प्रतीक बना।”
“After about five centuries of political disintegration and foreign domination, Aryavarta again reached the high Water-mark of moral, intellectual and material progress. It was the Golden Age which inspired succeeding generations of Indians and became alike ideal and despair.”
—The Classical Age, p. 16; R. C. Majumdar
तुलना
समुद्रगुप्त बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न सम्राट थे। यहाँ हम उन्हें दो महान व्यक्तित्वों से तुलना करेंगे— एक, सम्राट अशोक और दूसरे, नेपोलियन।
समुद्रगुप्त और नेपोलियन
समुद्रगुप्त को विंसेंट स्मिथ ने “भारतीय नेपोलियन” का नाम दिया, क्योंकि उसने सैन्य अभियानों और रणनीतिक कुशलता में बहुत उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के अपने प्रतिद्वंद्वियों को पूरी तरह पराजित किया, कठिन और लंबी दूरी के क्षेत्रों में दक्कन में अभियान चलाए, और सिंधु नदी पार एक प्रसिद्ध अभियान को अंजाम दिया। यह अभियान, जिसे उन्होंने स्वयं या उनके पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय ने नेतृत्व किया हो सकता है, उनकी सैन्य क्षमता का अद्वितीय उदाहरण था।
नेपोलियन और समुद्रगुप्त की तुलना कई दृष्टियों से सही साबित होती है। नेपोलियन ने अपने साम्राज्य को फ्रांस के केंद्र के रूप में स्थापित किया, जिसमें नीदरलैंड, बेल्जियम, जर्मनी, और इटली जैसे क्षेत्र शामिल थे। इसके चारों ओर सहयोगी और संरक्षित राज्यों का संजाल था। इसी तरह, समुद्रगुप्त के साम्राज्य में लगभग पूरा उत्तरी भारत था, हालाँकि सिंध, कश्मीर के कुछ हिस्से, और पश्चिमी राजस्थान इसके बाहर थे।
समुद्रगुप्त के साम्राज्य का संगठन रणनीतिक रूप से किया गया था। इसमें आधुनिक उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल का हिस्सा और पूर्वी मालवा शामिल थे। अधीनस्थ राज्यों के परे, उत्तर-पश्चिम में रियासतें, दक्कन में बारह राज्य, केरल, श्रीलंका और पास के द्वीप शामिल थे। ये क्षेत्र या तो उनके सहयोगी थे या उनके साम्राज्य के प्रति सम्मान प्रकट करते थे, जो मुख्य साम्राज्य के चारों ओर एक रक्षा परत बनाते थे।
समुद्रगुप्त का साम्राज्य रणनीतिक रूप से व्यवस्थित था। इसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल का हिस्सा और पूर्वी मालवा जैसे क्षेत्र शामिल थे। अधीनस्थ राज्यों में उत्तर-पश्चिम के राज्य, दक्षिणपथ में बारह राज्य, श्रीलंका, और कई द्वीप शामिल थे। ये क्षेत्र या तो उनके मित्र थे या उनके साम्राज्य के प्रति सम्मान प्रकट करते थे, जो साम्राज्य की रक्षा में योगदान करते थे।
समुद्रगुप्त का साम्राज्य संगठन नेपोलियन की रणनीतिक सोच को दर्शाता है। उन्होंने “चक्रवर्ती” (सार्वभौमिक संप्रभुता) की हिंदू अवधारणा से प्रेरित होकर पूरे भारत पर शासन का सपना देखा, जो गुप्त युग के समय काफी लोकप्रिय थी। यह नेपोलियन के फ्रांस-नेतृत्व यूरोप की दृष्टि के समान है। नेपोलियन का सपना वाटरलू की लड़ाई के बाद समाप्त हो गया, जबकि समुद्रगुप्त ने अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त किया और उसे अश्वमेध यज्ञ करके इसकी उद्घोषणा की। साथ ही हम देखते है कि वाटरलू की लड़ाई में हार के बाद नेपोलियन का फ्रांस-केंद्रित साम्राज्य बिखर गया, परन्तु समुद्रगुप्त के बाद भी गुप्त साम्राज्य सफलतापूर्वक चलता रहा और उसमें उत्थान ही हुआ।
एस० आर० गोयल के शब्दों में—
“Like Nepoleon, Samudragupta was also the Child of his Age and was deeply impressed by the thought-currents of his times. His Allahabad Prashanti clearly demonstrates that he was inspired by the Hindu ideal of chakravartitva or universal sovereignty which was very popular in the Gupta age. In practice it usually meant the establishment of one’s overlordship over the whole of Bharatavarsha. It may be regarded as the Indian counterpart of the Commonwealth of the European States which Napoleon wanted to establish under the hegemony of France. But while the dream of Napoleon was broken in the field of Waterloo, Samudragupta succeeded in translating his ideal into reality and lived to celebrate it by the performance of an Ashvamedha.”
— History Of the Imperial Guptas, p. 186; S. R. Goyal
नेपोलियन ने कई अनावश्यक युद्ध लड़े (रूस के साथ युद्ध), अनावश्यक हस्तक्षेप किये (स्पेन) और अव्यावहारिक नीतियाँ बनायी (महाद्वीपीय प्रणाली)। इन अदूरदर्शी कृत्यों के कारण अंततः उसका पतन हो गया।
दूसरी ओर समुद्रगुप्त की दक्षिणपथ का “ग्रहणमोक्षानुग्रह” की नीति दिशाबोधक कही जा सकती है। उसने व्यावहारिक नीतियों का अनुसरण किया। किस शक्ति का पूर्णतया उच्छेदन करना है और किसको केवल अधीनता स्वीकार करवानी है, इस सम्बन्ध में वह (समुद्रगुप्त) नेपोलियन से बहुत समझदार व दूरदर्शी ठहरता है।
नेपोलियन अपराजेय नहीं था, परन्तु समुद्रगुप्त विश्व के कुछ चुनिंदा सेनानायकों में से एक है जो आजीवन अपराजेय रहे।
एक और तथ्य समुद्रगुप्त और नेपोलियन में कालभेद है। पाश्चात्य इतिहासकार भारतीय व्यक्तित्वों को यूरोपीय विभूतियों से तुलना करते हैं, जैसे— कालिदास को “भारत का शेक्सपियर” कहना या समुद्रगुप्त को “भारतीय नेपोलियन कहना” या चाणक्य को “भारत का मैकियावेली” कहना आदि।
परन्तु कालिदास शेक्सपियर से, समुद्रगुप्त नेपोलियन से और चाणक्य मैकियावेली से पूर्ववर्ती हैं। अतः यह तुलना अगर करनी है तो इस तरह सही है—
- नेपोलियन यूरोप का समुद्रगुप्त है।
- शेक्सपियर अँग्रेजी का कालिदास है।
- मैकियावेली यूरोप का चाणक्य है।
समुद्रगुप्त और सम्राट अशोक
समुद्रगुप्त परमभागवत थे जबकि अशोक बौद्ध। परन्तु दोनों धर्म सहिष्णु थे। दोनों अद्वितीय सेनानायक थे। परन्तु उनकी नीतियों में भेद था।
सम्राट अशोक के कलिंग विजय के साथ भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित हुआ। तदुपरांत उसने सैन्य विजय व दिग्विजय के स्थान पर आध्यात्मिक विजय व धम्मविजय का मार्ग चुना। इतिहासकारों ने अशोक की इस नीति की आलोचना क्योंकि उसके देहावसान (२३७ ई०पू०) के बाद ५० वर्षों के अंदर (१८४ ई०पू०) मौर्य साम्राज्य का समाप्त हो गया।
दूसरी ओर समुद्रगुप्त के बाद (३७५ ई०) भी गुप्त साम्राज्य की प्रगति होती रही और स्कंदगुप्त के शासनकाल तक (४६७ ई०) साम्राज्य अक्षुण्ण बना रहा। यहाँ तक की किसी न किसी रूप में यह ५५० ई० तक बना रहा (१७५ वर्षों तक)।
सम्राट अशोक और समुद्रगुप्त की नीतियों के विश्लेषण की एक दृष्टि यह भी हो सकती है—
- अशोक के समय तक मौर्य साम्राज्य अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच गया था इसलिए सैन्य-विजय की अपेक्षा धर्म-विजय, नैतिकता, सहिष्णुता इत्यादि के द्वारा साम्राज्य को भावनात्मक रूप से एकजुट रखने की आवश्यकता थी।
- समुद्रगुप्त के साम्राज्य का विकास ही हो रहा था। इसलिए उसने ऐसी नीतियों का अनुसरण किया जिससे कि परवर्ती काल में भी गुप्त साम्राज्य का उत्थान होता रहा।
- सेनानायक के रूप में दोनों अपराजेय रहे हैं।
- अशोक ने पड़ोसी राजाओं पर सैन्य विजय के स्थान पर नैतिकता और सदाचार के माध्यम से धम्मविजय का मार्ग चुना। इसके विपरीत समुद्रगुप्त ने एक मजबूत और कठोर सरकार की स्थापना की जिसे ‘प्रचंड शासन’ कहा जाता है, जहाँ पड़ोसी शासकों को उनके आदेशों का पालन करना पड़ता था।
अशोक और समुद्रगुप्त की नीतियों के इस अंतर के परिणाम स्पष्ट थे—
- अशोक का मानवता और सार्वभौमिक मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने से राष्ट्रीयता और राजनीतिक शक्ति में गिरावट आयी। उनके शासनकाल ने उस महान साम्राज्य के पतन की शुरुआत की जिसे भारतीय लोगों ने सदियों के प्रयास के बाद स्थापित किया था।
- दूसरी ओर समुद्रगुप्त अपने समय की ऊर्जा, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के प्रतीक बने। साथ ही अपने प्रयासों से तत्कालीन युग को नयी दशा और दिशा दी। उन्हें देश के दूसरे महान साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उनके शासन प्रणाली ने ऐसे शासकों की एक शृंखला को प्रेरित किया जो लगभग उतने ही उल्लेखनीय थे जितने वह स्वयं।
एस० आर० गोयल के शब्दों में—
“The reign of Samudragupta “marked a distinct revival of the old glory and influence of the Brahmanical religion which had suffered decline since Asoka made Buddhism the dominant religion of India.” Actually, to a modern student of ancient India Samudragupta appears as the best answer which the Hindu society gave to the Buddhist ideal and example set by Asoka. The Maurya emperor had evidently aspired to be a ‘Chakravarti dharmika dharmaraja’ who is defined in the ‘Digha Nikaya’ as ‘‘conquering this earth to its ocean bounds, not by chastising rod, not by the sword, but by righteousness (dhamma) and living supreme over it.” As against it, Samudragupta aspired to be a ‘chakravartin’ in the traditional sense by the dint of his prowess and championed the cause of dharma, the ‘firm rampart’ of which he claimed to be. Both these great sons of India were dharma vijayins but their concepts of dharmavijaya differed. Asoka rather gave an over-emphasis on moral side of religion; the approach of Samudragupta was more balanced.”
— History Of the Imperial Guptas, p. 188, 189; S. R. Goyal
विक्रम की उपाधि
“विक्रमादित्य” उपाधि पर बहस की जाती है, लेकिन समुद्रगुप्त पहले ऐतिहासिक शासक थे, जिन्होंने आधिकारिक रूप से “विक्रम” उपाधि धारण की। विक्रमादित्य की कहानियाँ समुद्रगुप्त और उनके पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय दोनों की उपलब्धियों और व्यक्तित्वों को दर्शाती प्रतीत होती हैं।
समुद्रगुप्त को आमतौर पर “पराक्रम” उपाधि से जाना जाता था, लेकिन उनके शासन के अंत तक इसे “विक्रम” में बदल दिया गया।
- अश्वमेध प्रकार के सिक्कों पर “अश्वमेध पराक्रमः” अंकित है।
- व्याघ्र-हंता प्रकार के सिक्कों पर “व्याघ्र-पराक्रमः” अंकित है।
बाद में “विक्रम” या “विक्रमादित्य” की उपाधि कई गुप्त शासकों द्वारा अपनाई गयी; जैसे— चंद्रगुप्त द्वितीय और स्कंदगुप्त। जिसके कारण गुप्त काल को प्रायः “विक्रमादित्य का युग” कहा जाता है।
- “the Age of the Guptas is usually called the Age of the Vikramadityas.” —History Of the Imperial Guptas, p. 190; S. R. Goyal
यह अभी तक निश्चित नहीं है कि वास्तव में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा पहली शताब्दी ईसा पूर्व में मौजूद था या नहीं। लेकिन यह स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त प्रथम ऐतिहासिक शासक हैं जिन्होंने “विक्रम” की उपाधि धारण की।
- “Samudragupta is the first historical king who is known to have assumed the title of Vikrama.” —History Of the Imperial Guptas, p. 190; S. R. Goyal
उत्तराधिकारी
आधिकारिक गुप्त अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी उनके पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय थे। चंद्रगुप्त द्वितीय समुद्रगुप्त और दत्तदेवी से जन्मे थे।
हालाँकि, आंशिक रूप से लुप्त संस्कृत नाटक ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ की व्याख्या के आधार पर कुछ आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि समुद्रगुप्त के बाद उनके बड़े पुत्र रामगुप्त ने शासन सम्हाला जिन्हें बाद में चंद्रगुप्त द्वितीय ने पदच्युत कर दिया।
FAQ
समुद्रगुप्त की विजय नीति में “ग्रहणमोक्षानुग्रह” और “प्रसभोद्धरण” के बीच क्या अंतर था?
समुद्रगुप्त की विजय नीति में दो प्रमुख रूप देखे जाते हैं—
- ग्रहणमोक्षानुग्रह (दक्षिण भारत में)
- इस नीति के अंतर्गत समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के राज्यों पर विजय प्राप्त की लेकिन उन्हें अपने प्रत्यक्ष शासन में नहीं लिया।
- उसने इन राज्यों को पहले जीतकर फिर कृपा करके उन्हें स्वतंत्र कर दिया, जिससे वे उसकी अधीनता स्वीकार कर उपहार अर्पित करने लगे।
- यह एक दूरदर्शी नीति थी, क्योंकि दक्षिण भारत पाटलिपुत्र से बहुत दूर था और प्रत्यक्ष नियंत्रण रखना कठिन था।
- इसका प्रभाव यह हुआ कि दक्षिण भारत के शासकों ने समुद्रगुप्त को अपना सम्राट माना लेकिन उनके राज्यों पर उसका प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं था।
- प्रसभोद्धरण (उत्तर भारत में)
- इस नीति के अंतर्गत समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के राज्यों को पूर्णतः अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- उसने उन शासकों को पूरी तरह उखाड़ फेंका और उनके राज्यों को अपने प्रशासनिक क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया।
- इसका उद्देश्य उत्तर भारत को पूरी तरह अपने नियंत्रण में रखना था ताकि वहाँ कोई विद्रोह न हो।
- इस नीति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत का संपूर्ण राजनीतिक परिदृश्य बदल गया और गुप्त साम्राज्य की सत्ता निर्विवाद रूप से स्थापित हो गई।
निष्कर्ष:
समुद्रगुप्त ने अपनी रणनीति को क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाला। उत्तर भारत में उसने राज्यों को पूरी तरह मिलाकर अपने साम्राज्य को स्थायी रूप से मजबूत किया, जबकि दक्षिण भारत में उसने कूटनीतिक अधीनता को अपनाया। उसकी यह दूरदर्शी नीति भारतीय इतिहास में दिशा-बोधक सिद्ध हुई।
समुद्रगुप्त के आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में चार शक्तियों को पराजित करने के बावजूद तीन शासकों—गणपतिनाग, नागसेन और अच्युत—का नाम प्रयाग प्रशस्ति में दोबारा पराजित नौ राज्यों की सूची में क्यों आया?
इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़ा हुआ है। प्रयाग प्रशस्ति में इन शासकों के नाम का दोबारा उल्लेख होने के पीछे तीन संभावित कारण हो सकते हैं:
- पुनः विद्रोह: ये राजा पहले समुद्रगुप्त द्वारा पराजित किए गए थे और बाद में उन्होंने पुनः विद्रोह किया। समुद्रगुप्त ने विद्रोह को कुचल दिया और उन्हें फिर से अधीन कर लिया।
- संबंधित क्षेत्र: अभिलेख के लेखक ने समुद्रगुप्त की आर्यावर्त में की गई विभिन्न विजय अभियानों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया। इन तीन राजाओं का नाम दोहराया गया ताकि आर्यावर्त क्षेत्र में उनकी भूमिका को स्पष्ट किया जा सके।
- संघ का निर्माण: संभव है कि समुद्रगुप्त के दक्षिणापथ अभियान के समय, जब वह अपनी राजधानी से दूर था, इन शासकों ने एक नए संघ का गठन किया और विद्रोह किया। समुद्रगुप्त ने अभियान के पश्चात लौटकर फिर से उन्हें पराजित किया।
ये संभावनाएं दर्शाती हैं कि समुद्रगुप्त की विजय प्रक्रिया केवल एक बार की घटना नहीं थी, बल्कि यह एक सतत संघर्ष और रणनीति का हिस्सा थी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उसके शासनकाल में क्षेत्रीय राजाओं के साथ संबंध बेहद जटिल थे, और समुद्रगुप्त ने अपनी शक्ति को विभिन्न राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार बनाए रखा।
समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ अभियान पर टिप्पणी लिखिए?
समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के राज्यों को पहले विजित किया और फिर उन्हें स्वतन्त्र कर दिया क्योंकि उसकी नीति “ग्रहणमोक्षानुग्रह” थी। इस नीति के तीन मुख्य अंग थे—
- ग्रहण: शत्रु राज्य पर अधिकार
- मोक्ष: शत्रु को मुक्त करने की नीति
- अनुग्रह: दया करके राज्य को लौटाना
समुद्रगुप्त की यह नीति दूरदर्शिता पर आधारित थी। दक्षिण भारत पाटलिपुत्र से बहुत दूर था, और तत्कालीन परिवहन व संचार व्यवस्था की कठिनाइयों के कारण इन राज्यों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण बनाए रखना कठिन था। अतः उसने उन्हें स्वतंत्र कर दिया, जिससे वे उसे अपना सम्राट मानते रहे और उपहार आदि प्रदान करते रहे।
इसके अतिरिक्त, दक्षिण भारत के तटीय राज्यों की आर्थिक सम्पन्नता भी समुद्रगुप्त के अभियान का एक कारण रही होगी। उसने इन समृद्ध राज्यों पर दबदबा बनाया, जिससे उसकी कीर्ति पूरे भारत में फैल गई। यही कारण है कि उसकी विजय को “धर्म-विजय” भी कहा जाता है, क्योंकि उसने अपने शासन का विस्तार किए बिना ही अपनी प्रभुता स्थापित कर ली।
समुद्रगुप्त द्वारा आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध क्यों लड़ा गया, और इस युद्ध का उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर क्या प्रभाव पड़ा?
आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध समुद्रगुप्त द्वारा उत्तर भारत में अपने अधिकार को पूरी तरह स्थापित करने के लिए लड़ा गया।
युद्ध के कारण:
- प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त किया था, उनके राज्यों का पूर्ण उन्मूलन नहीं किया था।
- दक्षिणापथ अभियान के दौरान उसकी राजधानी से अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर भारत के शासकों ने पुनः स्वतंत्र होने की चेष्टा की।
- समुद्रगुप्त ने इन विद्रोहियों को पूरी तरह समाप्त करने और उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाने का निर्णय लिया।
प्रमुख परिणाम:
- उत्तर भारत पर पूर्ण नियंत्रण: समुद्रगुप्त ने नौ प्रमुख राजाओं (जैसे रुद्रदेव, मत्तिल, नागदत्त, गणपतिनाग, आदि) को पराजित कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
- “प्रसभोद्धरण” नीति: इस नीति के तहत उसने इन राज्यों को उखाड़ फेंका, जो दक्षिण भारत में अपनाई गई “ग्रहणमोक्षानुग्रह” नीति से भिन्न थी।
- राजनीतिक स्थिरता: इस विजय के साथ उत्तर भारत का संपूर्ण राजनीतिक परिदृश्य बदल गया और समुद्रगुप्त की सत्ता निर्विवाद रूप से स्थापित हो गई।
- आर्थिक और प्रशासनिक लाभ: इन राज्यों पर नियंत्रण के कारण साम्राज्य का विस्तार हुआ, जिससे आर्थिक समृद्धि और प्रशासनिक स्थिरता सुनिश्चित हुई।
इस युद्ध ने समुद्रगुप्त को भारत का निर्विवाद महान सम्राट बना दिया।
समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों को अपने अधीन करने के लिए कौन-सी नीति अपनाई, और यह नीति उसके साम्राज्य के विस्तार के लिए क्यों आवश्यक थी?
आटविक राज्यों का सामान्य अर्थ वनवासी राज्यों से है, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के वन क्षेत्रों में फैले हुए थे। समुद्रगुप्त ने इन राज्यों के प्रति “परिचारीकृत” नीति अपनाई, जिसका अर्थ है कि उसने सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया।
आटविक राज्यों के अधीन करने की आवश्यकता:
- सैन्य और प्रशासनिक नियंत्रण: ये राज्य उत्तर और दक्षिण भारत के बीच के मार्गों को बाधित कर सकते थे, इसलिए उन्हें नियंत्रित करना आवश्यक था।
- आर्थिक और व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा: उत्तर और दक्षिण भारत के बीच व्यापारिक मार्गों को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए इन राज्यों पर प्रभुत्व आवश्यक था।
- रणनीतिक महत्त्व: फ्लीट के मतानुसार, उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक के क्षेत्रों में इन राज्यों का विस्तार था और समुद्रगुप्त के लिए अपने दक्षिणापथ अभियानों को सफल बनाने हेतु इनका नियंत्रण आवश्यक था।
समुद्रगुप्त की नीति का प्रभाव:
- उसने इन राज्यों को संपूर्णतः अपने नियंत्रण में ले लिया।
- आटविक राज्यों को अपने अधीन कर समुद्रगुप्त ने उत्तर-दक्षिण भारत के बीच की राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित की।
- इससे गुप्त साम्राज्य के विस्तार और आर्थिक समृद्धि को बल मिला।
इस प्रकार, समुद्रगुप्त ने न केवल सैन्य विजय प्राप्त की, बल्कि एक व्यवस्थित प्रशासनिक नीति द्वारा आटविक क्षेत्रों को भी संगठित किया।
समुद्रगुप्त ने प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्यों को किस प्रकार अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया, और इन राज्यों के प्रति अपनाई गई उसकी नीति का क्या प्रभाव पड़ा?
समुद्रगुप्त ने अपनी शक्तिशाली सैन्य क्षमता और कूटनीतिक कौशल का उपयोग कर कई सीमावर्ती राज्यों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
उसकी नीति के मुख्य बिंदु:
- सभी प्रकार के कर अर्पित करना (सर्वकरदान): सीमावर्ती राज्यों को कर देना पड़ता था, जिससे उनकी आर्थिक निर्भरता बनी रहती थी।
- राजाज्ञा का पालन (आज्ञाकरण): सभी राज्यों को उसकी आज्ञाओं का पालन करना आवश्यक था।
- राजधानी में उपस्थित होकर प्रणाम करना (प्रणामागमन): इन राज्यों को समुद्रगुप्त के समक्ष श्रद्धा प्रकट करनी पड़ती थी।
प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित राज्यों की सूची:
- राजतंत्रीय राज्य: समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल, कर्तृपुर।
- गणतंत्रीय राज्य: मालव, आर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानीक, काक, खर्परिक।
इस नीति का प्रभाव:
- समुद्रगुप्त के सैन्य पराक्रम से प्रभावित होकर इन राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।
- उसके शासन को एक मजबूत आर्थिक और राजनीतिक आधार प्राप्त हुआ, जिससे उसका साम्राज्य अधिक शक्तिशाली बना।
- पूर्वी बंगाल के व्यापारिक केंद्रों पर नियंत्रण से उसकी आर्थिक समृद्धि में वृद्धि हुई।
- पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी राज्यों ने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली, जिससे वह क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने में सफल रहा।
समुद्रगुप्त ने केवल युद्ध द्वारा विजय प्राप्त नहीं की, बल्कि कूटनीति और प्रशासनिक सूझ-बूझ से इन राज्यों को अपने अधीन कर लिया।
समुद्रगुप्त के शासनकाल में किन विदेशी शक्तियों ने उसकी अधीनता स्वीकार की, और उनके साथ उसका संबंध कैसा था? इन विदेशी शक्तियों पर उसका प्रभाव किस प्रकार स्पष्ट होता है?
समुद्रगुप्त का प्रभाव न केवल भारत में बल्कि कई विदेशी शक्तियों तक भी पहुँचा। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, कई विदेशी राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसके प्रति सम्मान प्रकट किया। इनमें प्रमुख शक्तियाँ थीं—
- दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि (कुषाण शासक):
- ये पश्चिमी पंजाब में निवास करते थे और उनके शासक “देवपुत्र” तथा “षाहि-षाहानुषाहि” की उपाधि धारण करते थे।
- समुद्रगुप्त के समकालीन कुषाण नरेश किदार कुषाण ने उसके सहयोग से स्वतंत्रता प्राप्त की।
- शक:
- ये पश्चिमी मालवा, गुजरात तथा काठियावाड़ के शासक थे।
- समुद्रगुप्त के समकालीन शक नरेश रुद्रसिंह तृतीय (348-378 ई.) ने उसकी अधीनता स्वीकार की।
- मुरुण्ड:
- मुरुण्ड जाति का स्वतंत्र अस्तित्व था और पूर्वी भारत में उनका शक्तिशाली राज्य था।
- वे संभवतः पाटलिपुत्र के शासक रहे थे और उन्होंने समुद्रगुप्त से संबंध स्थापित किया।
- सिंहल (लंका):
- समुद्रगुप्त का समकालीन लंका नरेश मेघवर्ण था।
- उसने समुद्रगुप्त को उपहारों सहित एक दूत-मंडल भेजा और उसकी आज्ञा से बोधिवृक्ष के निकट एक भव्य विहार बनवाया।
- अन्य द्वीप:
- दक्षिण-पूर्वी एशिया के कुछ द्वीपों ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की।
- जावा से प्राप्त एक ग्रंथ में ऐश्वर्यपाल नामक राजा ने स्वयं को समुद्रगुप्त का वंशज कहा।
यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि समुद्रगुप्त ने इन विदेशी शक्तियों पर सैन्य अभियान चलाया था या यह केवल कूटनीतिक संबंध थे, लेकिन यह निश्चित है कि उसकी शक्ति इतनी प्रभावशाली थी कि शक, मुरुण्ड और कुषाणों शासकों ने उसकी अधीनता को स्वीकार किया। कुछ कुषाण मुद्राओं पर समुद्र और ‘चन्द्र’ नाम अंकित मिला है, जिससे गुप्त शासकों का प्रभाव स्पष्ट होता है। सिंहल से अच्छे कूटनीतिक संबंध थे। दक्षिण-पूर्वी एशिया के कुछ द्वीपों पर भी समुद्रगुप्त का प्रभाव था।
समुद्रगुप्त के राज्य विस्तार एवं प्रशासनिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं? उसके द्वारा अपनाई गई प्रशासनिक नीति किस प्रकार उसके विशाल साम्राज्य को संगठित और नियंत्रित करने में सहायक रही?
समुद्रगुप्त का साम्राज्य अत्यंत विस्तृत था, जिसमें उत्तर भारत का एक बड़ा भाग शामिल था। उसके राज्य विस्तार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
- विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र:
- पश्चिम में रावी नदी (पंजाब) से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी (बंगाल और असम) तक फैला था।
- उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक विस्तारित था।
- दक्षिण भारत के १२ राज्यों को उन्होंने अधीनता स्वीकार करने के बाद शासन करने की अनुमति दी, जिसे “ग्रहणमोक्षानुग्रह” कहा गया।
- पश्चिमोत्तर भारत की कुछ विदेशी शक्तियाँ भी उनकी अधीनता स्वीकार करती थीं।
- राज्य विस्तार की नीति:
- प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, उन्होंने उत्तर भारत में प्रत्यक्ष शासन किया, जबकि दक्षिण भारत में अधीनस्थ शासकों को सत्ता चलाने की स्वतंत्रता दी।
- उन्होंने सैन्य बल से राजाओं को परास्त किया लेकिन कई राज्यों को पूर्ण नियंत्रण में नहीं लिया।
- जनजातीय राज्यों को कर अर्पण करने हेतु बाध्य किया गया, जिससे उनका प्रभुत्व बना रहा।
- प्रशासनिक व्यवस्था:
- उनके शासन में कुछ महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे:
- सान्धिविग्रहिक: सन्धि और युद्ध का मंत्री, जिसका कार्य वैदेशिक मामलों को देखना था (हरिषेण)।
- खाद्यटपाकिक: राजकीय भोजनालय का प्रमुख (ध्रुवभूति)।
- कुमारामात्य: उच्च श्रेणी के प्रशासनिक अधिकारी, जिन्हें विषयपति, राज्यपाल, सेनापति और मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया।
- महादण्डनायक: पुलिस और न्याय व्यवस्था के प्रमुख अधिकारी (संभवतः महासेनापति)।
- उनके शासन में कुछ महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे:
- प्रशासनिक संगठन:
- प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित ‘भुक्ति’ और ‘विषय’ शब्दों से यह संकेत मिलता है कि उन्होंने अपने राज्य को प्रांतों और जनपदों में विभाजित किया होगा।
- निरंतर युद्धों में व्यस्त रहने के कारण वह प्रशासनिक सुधारों पर अधिक ध्यान नहीं दे सके, लेकिन उनकी व्यवस्था प्रभावी रही।
समुद्रगुप्त की नीति ने एक मजबूत और स्थिर शासन सुनिश्चित किया। उनकी सैन्य शक्ति और कूटनीतिक निर्णयों ने उन्हें एक महान सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित किया।
समुद्रगुप्त को सैन्य कौशल, कूटनीति, विद्या प्रेम, और दानशीलता के आधार पर क्या उसे एक आदर्श सम्राट कहा जा सकता है? उसके शासनकाल की प्रमुख विशेषताएँ क्या थीं?
समुद्रगुप्त न केवल एक असाधारण सेनानायक था, बल्कि एक कुशल राजनीतिज्ञ, विद्वान, कला प्रेमी और धर्मनिष्ठ सम्राट भी था।
- सैन्य कौशल: उसने आर्यावर्त के राजाओं को परास्त कर दक्षिण भारत तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। प्रयाग प्रशस्ति में उसकी युद्ध-कुशलता और वीरता का विस्तृत वर्णन है। विभिन्न प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग और बहुसंख्यक युद्धों में उसकी भागीदारी उसे एक अजेय योद्धा सिद्ध करती है।
- कूटनीति: समुद्रगुप्त की नीतियाँ परिस्थितियों के अनुसार भिन्न थीं। दक्षिण भारत के शासकों के साथ संधि करके उसने वहां राजनीतिक स्थिरता बनाई, जबकि उत्तर भारत में उसने प्रभुत्व स्थापित किया। उसकी यह कूटनीति उसकी दूरदर्शिता को दर्शाती है।
- विद्या और कला प्रेम: वह स्वयं एक कवि था और “कविराज” की उपाधि से सम्मानित किया गया। दुर्भाग्यवश उसकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है, लेकिन उसके विद्या प्रेम के प्रमाण बौद्ध ग्रंथों और काव्यालंकारसूत्र में मिलते हैं। साथ ही, वह एक उत्कृष्ट संगीतज्ञ था और वीणा वादन में दक्ष था।
- दानशीलता एवं धर्मनिष्ठता: उसने ब्राह्मणों को गौओं और स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, वह असहायों और अनाथों को आश्रय देने वाला शासक था।
- सार्वजनिक प्रतिष्ठा: उसे ‘धर्म की प्राचीर’ कहा गया, जिससे स्पष्ट होता है कि उसने वैदिक धर्म की रक्षा की और उसे पुनर्जीवित किया।
इस प्रकार, समुद्रगुप्त की बहुमुखी प्रतिभा उसे एक आदर्श सम्राट बनाती है। उसने राजनीति, युद्ध, कला, धर्म और प्रशासन में संतुलन बनाए रखा, जिससे उसका शासन स्वर्ण युग के रूप में जाना गया।
सम्राट अशोक और समुद्रगुप्त दोनों ही अपने समय के महान शासक थे। लेकिन उनकी विजय की अवधारणा और शासन नीति में क्या प्रमुख अंतर थे और कैसे इन नीतियों ने उनके साम्राज्यों की दीर्घकालिक स्थिरता को प्रभावित किया?
अशोक और समुद्रगुप्त दोनों ही अद्वितीय सेनानायक थे, लेकिन उनकी विजय और शासन की नीतियाँ भिन्न थीं। अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद सैन्य विजय की बजाय धम्मविजय को अपनाया, जिसमें नैतिकता, सदाचार, और धर्म आधारित नीति केंद्र में रही। उन्होंने अहिंसा और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया, जिससे मौर्य साम्राज्य का राष्ट्रीय भावनात्मक एकीकरण तो हुआ, लेकिन सैन्य शक्ति और राजनीतिक स्थायित्व में गिरावट आ गई। परिणामस्वरूप, उनके देहावसान के बाद ५० वर्षों के भीतर मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया।
इसके विपरीत, समुद्रगुप्त ने सैन्य शक्ति और विस्तार को प्राथमिकता दी। उन्होंने एक प्रचंड शासन स्थापित किया, जिसमें अधीनस्थ शासकों को उनके आदेशों का पालन करना पड़ता था। यह नीति इतनी प्रभावी थी कि उनके बाद भी गुप्त साम्राज्य का उत्थान जारी रहा और लगभग १७५ वर्षों तक गुप्त साम्राज्य किसी न किसी रूप में बना रहा। उनकी नीतियाँ न केवल तत्कालीन शासन को मजबूत करने में सफल रहीं, बल्कि आने वाले शासकों के लिए भी प्रेरणादायक रहीं।
इस प्रकार, अशोक ने नैतिकता और सार्वभौमिक मूल्यों को प्राथमिकता दी, जबकि समुद्रगुप्त ने शक्ति और प्रशासनिक नियंत्रण पर बल दिया। उनके इन अलग-अलग दृष्टिकोणों के कारण उनके साम्राज्यों के दीर्घकालिक परिणाम भिन्न रहे।
समुद्रगुप्त और नेपोलियन की तुलना क्यों की जाती है, और समुद्रगुप्त की रणनीति नेपोलियन की तुलना में अधिक प्रभावी क्यों मानी जाती है?
समुद्रगुप्त और नेपोलियन दोनों ही अपनी सैन्य कुशलता, विस्तारवादी नीति, और प्रशासनिक दक्षता के लिए प्रसिद्ध थे, इसलिए इतिहासकार अक्सर उनकी तुलना करते हैं। समुद्रगुप्त को विंसेंट स्मिथ ने “भारतीय नेपोलियन” कहा, क्योंकि उन्होंने कठिन अभियानों में सफलता प्राप्त की और अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराकर एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। लेकिन उनके बीच महत्त्वपूर्ण अंतर भी मौजूद हैं।
नेपोलियन ने कई अनावश्यक युद्ध किये; जैसे— रूस पर आक्रमण और स्पेन में हस्तक्षेप। ये उसकी रणनीतिक असफलता के मुख्य कारण बने। इसके विपरीत, समुद्रगुप्त की नीति अधिक व्यावहारिक थी। उन्होंने यह तय किया कि किस शक्ति को पूरी तरह समाप्त करना है और किसे अधीनता स्वीकार करवानी है। उनके दक्षिणापथ की नीति “ग्रहणमोक्षानुग्रह” दूरदर्शी थी, जिसमें उन्होंने विभिन्न राज्यों को अपने अधीन रखा, लेकिन अनावश्यक आक्रामकता नहीं दिखाई।
नेपोलियन की पराजय वाटरलू की लड़ाई में हुई, जिसके बाद उसका साम्राज्य समाप्त हो गया। दूसरी ओर, समुद्रगुप्त का साम्राज्य उनके बाद भी सफलतापूर्वक चलता रहा और उसमें विकास हुआ। वे अपने समय के अद्वितीय सेनानायक थे और आजीवन अपराजेय रहे। अतः यदि तुलना करनी हो, तो कहा जा सकता है—”नेपोलियन यूरोप का समुद्रगुप्त है,” न कि समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन!
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