भूमिका
ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे ‘संगम साहित्य’ कहते हैं। इसके पहले का कोई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ हमें दक्षिण भारत से प्राप्त नहीं होता है। सुदूर दक्षिण के प्रारम्भिक इतिहास का मुख्य साधन संगम साहित्य ही है।
संगम का अर्थ
‘संगम’ शब्द का अर्थ परिषद् अथवा गोष्ठी होता है जिनमें तमिल कवि एवं विद्वान् एकत्र होते थे। कवियों और विद्वानों की परिषद् के लिये “संगम” नाम का प्रयोग सर्वप्रथम सातवीं शती के प्रारम्भ में शैवसन्त (नायनार) तिरूनाबुक्करशु ने किया। इनका एक नाम अप्पार भी मिलता है।
संगम का सर्वप्रथम उल्लेख ‘इरैयनार अगप्पोरूल’ (८वीं शताब्दी) के भाष्य की भूमिका में प्राप्त होता है। इसमें तीनों संगमों का विवरण मिलता है। इसके अनुसार कुल मिलाकर तीनों संगम ९,९९० वर्ष तक चले। इरैयनार अगप्पोरूल के अनुसार इन संगमों में कुल ८,५९८ कवियों ने भाग लिया। इन तीनों संगमों को कुल १९७ पाण्ड्य राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया।
संगम में रचना प्रस्तुत करने की विधि
प्रत्येक कवि अथवा लेखक अपनी रचनाओं को संगम के समक्ष प्रस्तुत करता था तथा इसकी स्वीकृति प्राप्त हो जाने के बाद ही किसी भी रचना का प्रकाशन संभव था।
परम्परा के अनुसार अति प्राचीन समय में पाण्ड्य राजाओं के सरंक्षण में कुल तीन संगम आयोजित किये गये। इनमें संकलित साहित्य को ही ‘संगम-साहित्य’ की संज्ञा प्रदान की जाती है।
संगम साहित्य का ऐतिहासिक स्रोत के रूप में प्रयोग
संगम साहित्य का इतिहास के स्रोत के रूप में सावधानीपूर्वक प्रयोग करने की आवश्यकता है। संगम साहित्यों में कुछ शासकों और कवियों का विवरण मिलता है जिसकी पुष्टि परवर्ती अभिलेखों और अन्य ग्रन्थों से हो जाती है। परन्तु साथ ही कई विवरण कपोलकल्पित व अतिरंजित भी हैं। इसलिए यह मानना अनुचित न होगा कि संगम साहित्यों में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ कपोल-कल्पित तत्त्वों का घालमेल मिलता है।
कविताओं के अंत में दी गयी पाद टिप्पणियों का सावधानीपूर्वक सूक्ष्मावलोकन करके राजाओं, सामंतों तथा कवियों के काल का समीकरण किया गया है। इससे इतिहासकारों ने यह विचार व्यक्त किया है कि संगम साहित्य ४ अथवा ५ पीढ़ियों की रचना है और इसके रचनाकाल का विस्तार १२० से १५० वर्षों के बीच हो सकता है।
संगम साहित्य के सम्बन्ध में एक तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण है कि इसके संरक्षक ‘पाण्ड्य’ शासक थे परन्तु इसमें चेर राजाओं के सम्बन्ध में विस्तार से उल्लेख मिलता है।
तमिल भाषा का विकास
सुदूर दक्षिण में ब्राह्मी लिपि में छोटे-छोटे अभिलेख तमिल भाषा में प्राप्त हैं। इनका काल ई०पू० द्वितीय शताब्दी माना जाता है। इन अभिलेखों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि तमिल भाषा अभी विकासोन्मुखी दशा में ही थी। इसमें संस्कृत मूल के अनेक शब्दों का प्रयोग मिलता है।
वहीं दूसरी ओर संगम युग की तमिल भाषा पर्याप्त विकसित अवस्था में है और कविताएँ साहित्यिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी सशक्त हैं। संगम साहित्य में संस्कृत भाषा के अनेक शब्द पूर्णरूपेण से तमिल भाषा में आत्मसात हो चुके हैं।
संगम साहित्यों से यह भी प्रतीत होता है कि साहित्यों में सामाजिक जीवन के चित्रण की एक मान्य परम्परा विकसित हो चुकी थी। इससे यह ज्ञात होता है कि संगम साहित्य से पूर्व तमिल भाषा अपने विकास की अवस्था में थी।
संगम कवियों के विवरण से सुदूर दक्षिण के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। साथ ही दक्षिण भारत के विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध कैसे थे, इस सम्बन्ध में भी हमें जानकारी प्राप्त होती है। साहित्यिक दृष्टिकोण से भी संगम रचनाएँ बहुत ही प्रौढ़ और जीवंत हैं।
अतएव हम मोटेतौर पर संगम साहित्य के रचनाकाल का निर्धारण कर सकते हैं। संगम साहित्य का रचनाकाल को मोटेतौर पर हम १०० ई० से २५० ई० तक माना जा सकता है।
आर्य संस्कृति के दक्षिण प्रसार के संकेत
संगम साहित्य का दक्षिण भारत के इतिहास तथा संस्कृति के अध्ययन में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तर भारत में रचित वैदिक वाड़्गय और महाकाव्यों में अनेक ऐसे संकेत हैं जिससे ज्ञात होता है कि वैदिक संस्कृति का प्रसार दक्षिण की ओर हो रहा था। ऋषि अगस्त्य को दक्षिण में आर्य संस्कृति के प्रचार का श्रेय दिया जाता है। रामायण में जब भगवान राम वनवास गये थे तो उनकी मुलाकात अगस्त्य ऋषि से हुई और ऋषि ने बताया कि कैसे उन्होंने आर्य संस्कृति का प्रचार दक्षिण में किया। मौर्य साम्राज्य के दक्षिणी प्रसार से आर्य और द्रविड़ संस्कृति का समामेलन हुआ। संगम साहित्य से ही हमें दक्षिण और उत्तर भारत की संस्कृतियों के सफल समन्वय का स्पष्ट चित्र प्राप्त होता है।
संगम युग की तिथि
संगम काल की तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। फिरभी विभिन्न मत-मतान्तरों के अनुशीलन के साथ-साथ पुरातात्त्विक साक्ष्यों के मिलान करके हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संगमकाल और संगम साहित्य के प्रणयन का काल ईशा की पहली तीन शताब्दियों में निर्धारित किया जा सकता है।
- विस्तृत विवरण के लिए देखें — संगमयुग की तिथि या संगम साहित्य का रचनाकाल
तीन संगम
आठवीं शताब्दी (७५० ई०) में इरैयनार अगप्पोरुल के भाष्य की भूमिका में तीन संगमों का विवरण मिलता है। इसके अनुसार —
- तीनों संगम ९,९९० वर्ष तक चला।
- तीनों संगमों ८,५९८ कवियों ने भाग लिया।
- तीनों संगमों को कुल मिलाकर १९७ पाण्ड्य राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया।
विस्तृत विवरण के लिए देखें —
विद्वानों ने प्रथम दो संगमों की ऐतिहासिकता में संदेह व्यक्त किया है।
यद्यपि इनमें से अधिकांश ग्रन्थ नष्ट हो गये हैं फिर भी आज जो भी तमिल साहित्य बचा हुआ है, वह इसी संगम से सम्बन्धित है। तोल्काप्पियम् सहित तीसरे संगम के अवशिष्ट सभी ग्रन्थों का सम्पादन तिन्नेवेल्ली की ‘साउथ इण्डिया शैव सिद्धान्त पब्लिशिंग सोसायटी’ के द्वारा किया गया है।
प्रथम दृष्टया, प्रथम दो संगमों के पारम्परिक विवरण का ऐतिहासिक महत्त्व कम ही प्रतीत होता है; क्योंकि—
- प्रथम संगम के सदस्यों के रूप में देवताओं, ऋषियों व प्रमुख मनुष्यों आदि का बेतरतीब उल्लेख होना
- प्रथम और द्वितीय संगमों दोनों में ऋषि अगस्त्य का शामिल होना
- दोनों संगमों की समय की अत्यधिक अवधि
- पहले संगम की सभी रचनाओं का अनुपलब्ध होना या लुप्त हो जाना
- दूसरे संगम की एकमात्र रचना तोल्काप्पियम् के अतिरिक्त अन्य का नष्ट हो जाना
ये सभी इस निष्कर्ष की ओर संकेत करते हैं कि पहले दो संगमों की बात एक मनगढ़ंत कहानी हो। दूसरी ओर यह तर्क भी दिया जा सकता है कि इस पौराणिक आख्यान के पीछे कुछ न कुछ सच्चाई हो। साथ ही इन संगमों में देवताओं के सम्मिलित होने की बात कालान्तर में जोड़-तोड़ का परिणाम हो। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि तीन संगमों की जो समयावधि दी गयी है वह निश्चय ही कपोलकल्पित हो।
इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि अथवा यह संभावना है कि तीनों संगमों में कमोबेश निरंतरता हो, हालाँकि अब उन्हें पृथक-पृथक तीन संगमों के रूप में वर्णित किया जाता है, क्योंकि राजधानी पुराने मदुरा से कपाटपुरम् और फिर बाद में उत्तरी मदुरा में बदल गयी हो जबकि संगम निरन्तर चलता रहा हो।
जैसा कि विदित है कि पहले संगम की कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है। दूसरे संगम से तोल्काप्पियम् को छोड़कर कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है, हाँ बाद के लेखकों द्वारा इस संगम की कुछ रचनाओं के छिटपुट छंद अवश्य उद्धृत मिलते हैं।
अगस्त्य के कुछ अन्य शिष्यों ने भी अपने ग्रंथ लिखे जिनका उल्लेख बाद के लेखकों ने अपनी रचनाओं में किया है; ये हैं— अविनयम (Avinayam), नत्थट्टम (Naththatham) और कक्कैपडिनयम (Kakkaipadinayam)। इन रचनाओं में संबंधित लेखकों के नाम सम्मिलित हैं।
संगम साहित्य : संक्षिप्त विवरण
संगम साहित्य की रचना तमिल भाषा और ब्राह्मी लिपि में की गयी। संगम साहित्यों में आगम वर्ग की रचनाओं की कविताओं का सम्बन्ध ‘प्रेम’ से है और पुरम वर्ग की कविताओं का सम्बन्ध ‘राज प्रशस्ति’ से है।
विद्वानों के अनुसार संगमकाल साहित्य का विशाल भंडार रहा होगा, परन्तु वर्तमान में उसका अधिकांश भाग लुप्त हो चुका है। मोटे रूप में संगम साहित्य निम्नलिखित संकलनों में प्राप्त है- नर्णिणई, कुरुन्दोहई, ऐन्गुरुनूरु, पत्तुत्पत्तु, पदिटुप्पत्तु, परिपादल, कलित्तोहई, अहनानुरु और पुरनानूरु।
संगम तमिल कवियों का संघ (मंडल) था। संगम कवियों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था जिसके कारण संगम में प्रभूत साहित्य की रचना हुई। उपर्युक्त संकलनों में जो रचनाएँ वर्तमान में उपलब्ध हैं वे २,२८९ हैं। इनमें से कुछ कविताएँ अत्यंत छोटी जबकि कुछ एक पर्याप्त लंबी हैं; उदाहरणार्थ कुछ कविताएँ मात्र तीन पंक्तियों की है और एक कविता तो ८०० पंक्तियों से भी अधिक लम्बी है। ये कविताएँ ४७३ कवियों द्वारा रचित हैं जिनमें कुछ कवयित्रियाँ भी हैं।
अधिकांश कविताओं के अंत में टिप्पणियाँ भी दी गयी हैं, जिनमें कवियों के नाम तथा कविता-रचना की परिस्थिति आदि का विवरण सुरक्षित है। परन्तु १०० से अधिक ऐसी कविताएँ भी हैं जिनमें पाद-टिप्पणियाँ नहीं है। इन पाद-टिप्पणियों की प्रामाणिकता कहीं-कहीं संदिग्ध भी मानी गयी है।
संगम साहित्य का वर्गीकरण
बहुत पहले से ही तमिल विद्वानों ने कविताओं के वर्गीकरण की विधा विकसित कर ली थी। तमिल कविता को कई तरह से वर्गीकृत किया गया है। इन्हें कई तरह से वर्गीकृत किया गया है—
पहला वर्गीकरण : कविता को दो मुख्य समूहों में विभाजित किया गया था—
- आंतरिक (आगम) — जो ‘प्रणय’ या ‘प्रेम’ से सम्बन्धित
- बाह्य (पुरम) — जो राजाओं की प्रशंसा से सम्बन्धित
दूसरा वर्गीकरण : संगम साहित्य को मोटे तौर पर दो समूहों में बाँटा जा सकता है—
- आख्यानात्मक (narrative)— आख्यानात्मक ग्रंथ मेलकणक्कु (Melkannakku) अर्थात् अठारह मुख्य ग्रंथ कहलाते हैं। इनमें अठारह मुख्य ग्रंथ हैं— आठ पद्य संकलन (eight anthologies) और दस ग्राम्य गीत (ten idylls)। इसे क्रमशः इत्तुथोकै और पत्थुपात्तु कहा गया है।
- उपदेशात्मक (didactic)— उपदेशात्मक ग्रंथ कीलकणक्कु (Kilkanakku) अर्थात् अठारह लघु ग्रंथ कहलाते हैं। इसे पदिनेन कीलकन्क्कु कहा जाता है।
इस तरह उपलब्ध संगम साहित्य का सरल विभाजन तीन भागों में किया जा सकता है—
(१) पत्थुप्पात्तु
(२) इत्थुथोकै
(३) पदिनेन कीलकनक्कु
संगम साहित्य की कुछ विशेषताएँ
मनोभावों की संगत प्रकृति से तुलना; जिसे पंच-तिणै (tinai) कहा गया है —
- पहाड़ियाँ (कुरिंजि या कुरिंचि – Kurinchi or Kurinji)
- शुष्क भूमि (पलाई – palai)
- जंगल और वनभूमि (मुल्लई – mullai)
- खेती योग्य मैदान (मरुदम – marudam)
- तट (नेयडल – neydal)
मनोभावों को कविता के माध्यम से व्यक्त करते हुए संगत प्राकृतिक अवयवों से सम्बद्ध किया गया है;
- पहाड़ियाँ विवाह-पूर्व प्रेम और पशु-लूट पर कविताओं का दृश्य थीं;
- शुष्क भूमि, प्रेमियों के लंबे अलगाव और देश के बर्बाद होने पर;
- जंगल, प्रेमियों के संक्षिप्त अलगाव और छापामार अभियानों पर;
- घाटियाँ, विवाह-पश्चात प्रेम या वेश्याओं की चालों और घेराबंदी पर;
- और समुद्र तट, मछुआरों की पत्नियों के अपने स्वामियों से अलग होने और घमासान युद्ध पर।
एत्तुथोकै (अष्ट संकलनों) की कविता को पाँच खंडों में से एक में वर्गीकृत किया गया था, लेकिन अधिकांश कविताएँ इस औपचारिक वर्गीकरण को ध्यान में रखे बिना लिखी गयी थीं।
तुकांत — तमिल कविता की एक अनूठी विशेषता है आरंभिक तुक (initial rhyme) या स्वर-संगति (assonance)। यद्यपि तुकांत आरंभिक तमिल साहित्य में नहीं दिखायी देती है; तथापि संगम काल के अंत तक यह काफी नियमित हो गया था। कुछ कविता में यह स्वर-संगति या तुकबंदी चार या उससे अधिक पंक्तियों तक जारी रहती है।
संगमकाल के प्रमुख ग्रन्थ
तोलकाप्पियम् (Tolkappiyam) – तोल्काप्पियर
- यह द्वितीय संगम का एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ है।
- तोल्काप्पियम् को संगम युग और तमिल साहित्य का प्राचीनतम् ग्रन्थ माना जाता है।
- इसके रचनाकार तोल्काप्पियर हैं।
- यह तमिल व्याकरण का ग्रन्थ है।
विस्तृत विवरण के लिए देखें — तोलकाप्पियम् (Tolkappiyam) – तोल्काप्पियर
एत्तुथोकै / इत्थुथोकै / इत्तुथोकै (Ettuthokai : The Eight Collections)
इत्थथोकै में ८ संग्रह हैं।
- नत्रिनै / नत्रिणै / नत्रिनई (Natrinai)
- कुरुंथोकई (Kurunthokai)
- ऐनकुरूनूरु / एनकुरुनूर (Ainkurunuru)
- पदित्रुप्पाट्टू / पदित्रुप्पात्तु (Paditruppattu)
- परिपाडल / परिपादल (Paripadal)
- कलित्तोगई / कलिथौके (Kalittogai / Kalithokai)
- अहनानूर / नेडुनथोकई (Ahanuru / Nedunthokai)
- पुरनानूरू (Purananuru)
विस्तृत विवरण के लिए देखें — एत्तुथोकै या अष्टसंग्रह (Ettuthokai or The Eight Collections)
पत्थुप्पात्तु (Patthuppattu) : the ten Idylls
‘पत्थुप्पातु’ १० संक्षिप्त पदों का संग्रह है। इनके नाम हैं—
- तिरुमुरुकात्रुप्पदै (Tirumurukattruppadei) – नक्कीरर (Nakkirar)
- नेडुनलवाडै (Nedunalvadai) – नक्कीरर (Nakkirar)
- पोरुनर्रुप्पदै (Porunararrupadai) – रूद्रनकन्नार (Rudran Kannanar)
- पट्टिनपाले (Pattianappalai) — रूद्रनकन्नार (Rudran Kannanar)
- मदुरैक्काँची (Maduraikkanchi) — मरुथनार (Maruthanar)
- पोरुनारात्रुप्पदै (Porunaratruppadai) — कन्नियार (Kanniar)
- सिरुपाणात्रुप्पादै (Sirupanatruppadai) — नथ्थाथानार (Naththathanar)
- मुल्लैप्पात्तु (Mullaippattu) — नप्पूथनार (Napputhanar)
- कुरिंचिप्पात्तु (Kurinchippattu) — कपिलर (Kapilar)
- मलैपाडुकदाम (Malaipadukadam) — कौसिकनार (Kousikanar)
विस्तृत विवरण के लिए देखें — पत्तुपात्तु या दस-गीत (Pattuppattu : The Ten Idylls)
पदिनेन कीलकन्क्कु (Patinenkilkanakku)
‘पदिनेनकीलकन्क्कु’ अष्टादश लघु शिक्षाप्रद कविताएँ (The Eighteen Minor Didactic Poems) हैं, अर्थात् यह १८ लघु कविताओं का संग्रह है जो सभी उपदेशात्मक हैं।
- नालदियर (Nalathiyar)
- नान्माणिक्काडैकाई (Nanmanikkadaikai)
- ना-नरपथु (Na-narpathu) — इसमें चार संग्रह हैं—
- कारनार्पटु (Kaar Narpathu)
- कलवलिनारपथु (Kalavali Narpathu)
- इनियावै नारपथु (Iniyavai Narpathu)
- इन्ना नार्पथु (Inna Narpathu)
- ऐन्थिनै (Ainthinai) — इसमें चार संग्रह है—
- ऐन्तिणै ऐम्पदु (Aintinai Aimpathu)
- ऐन्दिणै इलुपदु (Aintinai Elupathu)
- तिणैमोलै ऐम्पथु (Tinaimoli Aimpathu)
- तिणैमालै नूरैम्बदु (Tinaimalai Nurraimpathu)
- कूरल / तिरुक्कुरल (Kural / Tirikkaral) – ११वाँ संग्रह
- तिरिकडुकम (Tirikadukam / Thirikatukam) – १२वाँ संग्रह
- इन्निलै (Innilai)
- आशारक्कोवै / आचारकोवै (Acharakovai)
- सिरुपंचमूलम् (Sirupanchamulam) – १५वाँ संग्रह
- पलमोलि नानुरु (Palamoli Nanuru)
- मुदुमोलिक-कांची (Mudumolik-Kanchi)
- एलादि (Eladi / Elathi)
विस्तृत विवरण के लिए देखें — पदिनेनकीलकनक्कु (Padinenkilkanakku) : अष्टादश लघु शिक्षाप्रद कविताएँ (The Eighteen Minor Didactic Poems)
तमिल महाकाव्य
वस्तुतः ईसा की प्रारंभिक शताब्दी से प्रारम्भ हुई साहित्य गतिविधि अबाध रूप से गतिमान रही। इसी क्रम में तमिल महाकाव्यों की रचना हुई। उस समय के कवि तमिल देश के विभिन्न भागों से आये थे और विभिन्न धर्मों और जातियों से सम्बन्धित थे। ये आगन्तुक विभिन्न व्यवसायों का प्रतिनिधित्व करते थे।
इस प्रकार, सत्रह सौ साल पहले के तमिलकम (Tamilakam) में, विभिन्न धर्मों— वैष्णव, शैव, जैन, बौद्ध— के पुरुष और महिलाएँ आपसी समझ और सद्भाव के साथ एक साथ रहते थे। तृतीय संगम के सबसे महान लेखकों में से एक, सित्तलै सत्तानार (Sittalai Sattanar) एक अनाज व्यापारी और बौद्ध थे; पहले से वर्णित कई छोटी उपदेशात्मक कविताएँ जैनियों द्वारा रचित थीं; और साथ ही वैदिक धर्मावलम्बी कवियों ने परस्पर हमला किये बिना ही भगवान विष्णु या भगवान शिव की स्तुति की।
वस्तुतः, तमिल साहित्य में ईसा की दूसरी शताब्दी को स्वर्ण काल (या ‘ऑगस्टान’ युग) माना जाता है। “पाँच प्रमुख महाकाव्यों” में से कम से कम दो की रचना स्वर्ण युग में ही की गयी थी, और सम्भवतया अन्य पाँच लघु महाकाव्य भी, बहुत बाद में नहीं लिखे गये थे। इनमें से अधिकांश महाकाव्य बौद्ध या जैन धर्मावलम्बियों की रचनाएँ हैं। इनमें से कुछ महाकाव्य तो समय के प्रवाह में खो गये। परन्तु वर्तमान में उपलब्ध रचनाएँ भी हमें तमिल साहित्य में उस महान युग की महिमा का परिचय कराती हैं।”*
“Indeed, the second century of the Christian era seems to have been a Golden Age (or ‘Augustan’ Age) in Tamil letters. ……… Two at least of the “Five Major Epics” were composed during the Golden Age, and the others, and perhaps the Five Minor Epics as well, were composed not much later; and most of these epics were the work of Buddhists or Jains Some of these epics cannot now be traced and are perhaps lost for ever; but even the extant works give us a fair idea of the glory of that great age in Tamil literature.”* — The Age of Imperial Unity, p. 300.
तमिल भाषा में महाकाव्यों की भी रचना की गयी। यद्यपि, ये ग्रन्थ संगम साहित्य के अन्तर्गत नहीं आते तथापि इनसे तत्कालीन जन-जीवन के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है। इस काल के पाँच प्रसिद्ध महाकाव्य है—
- शिल्प्पदिकारम् (Shilappadikaram)
- मणिमेखलै (Manimekhalai)
- जीवक-चिन्तामणि (Jivaka-Chintamani)
- वलयपति (Valayapati)
- कुण्डलकेशि (Kundalakesi)
इनमें प्रथम तीन ही उपलब्ध हैं।
इसके अतिरिक्त हमें पाँच लघु महाकाव्यों का विवरण मिलता है—
- यशोधरा काव्यम (Yasodhara Kavyam)
- चूलमणि (Chulamani)
- उदयन काव्यम (Udayana Kavyam)
- नागकुमार काव्यम (Nagakumara Kavyam)
- नीलकेशी (Neelakesi)
इनमें से चतुर्थ (नागकुमार काव्यम) अप्राप्त है, जबकि अन्य या तो प्रकाशित हो चुके हैं या कम से कम उनके बारे में कुछ तो ज्ञात है। संस्कृत कृति पर आधारित यशोधरा काव्यम में ३२० छंद हैं। थोलामोलिथवर (Tholamolithevar) द्वारा रचित चूलमणि एक लंबी और उत्कृष्ट कविता है। जैन धर्म से सम्बन्धित नीलकेशी एक दार्शनिक रचना है, जो सम्भवतया बौद्ध कृति कुंडलकेशि के प्रत्युत्तर में लिखी गयी थी।
अन्य रचनाएँ
पेरुंगडाई
- कवि — कोंगेलेवीर जैन
- इसमें कौशाम्बी के प्रसिद्ध शासक उदयन के पुत्र नखानदत्त के साहसिक कार्यों की कथा का वर्णन मिलता है।
शूलामणि
- रचयिता — तोलामोली या तोलामुण्डि जैन
- इस काव्य की गणना तमिल साहित्य के पाँच लघु काव्यों में होती है।
इसके अतिरिक्त संस्कृत भाषा के रामायण और महाभारत का तमिल भाषा में अनुवाद का उल्लेख किया जा सकता है, यद्यपि इन्हें संगम साहित्य में नहीं गिना जाता है।
- कम्बन की रामायण / रामावतारम् — ९वी शताब्दी, चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय का शासनकाल
- तमिलभाषा में महाभारत विल्लिपुत्तुर ने लिखा। जबकि पल्लववंशी नरेश नन्दिवर्मन तृतीय के शासनकाल (९वीं शताब्दी) में पेरुन्देवनार ने तमिल भाषा में ‘भारतवेणवा’ या ‘भारतम्’ नाम से महाभारत लिखी।
संगम साहित्य का रचनाकाल
संगम साहित्य की निश्चित तिथि के विषय में मतभेद है। सामान्यतः इसकी रचना पहली शताब्दी ईस्वी से लेकर तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य (१००-२५० ई०) तक की गयी थी। श्रीनिवास आयंगर ने तीनों संगमों की अवधि एक हजार वर्ष के लगभग (ई०पू० ५०० से ५०० ई० तक) बतायी है।
संगम साहित्य और पुरातात्त्विक स्रोतों के आधार पर सुदूर दक्षिण (तमिल देश) के इतिहास एवं संस्कृति का विवरण हमें प्राप्त होता है।
विस्तृत विवरण के लिए देखिए — संगमयुग की तिथि या संगम साहित्य का रचनाकाल
निष्कर्ष
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य काव्य-ग्रन्थ भी हैं। इन सभी से संगमयुग के इतिहास तथा उसकी संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इस समय उत्तर तथा दक्षिण की संस्कृतियों का समन्वय हो चुका था।