संगमकाल (The Sangam Age)

भूमिका

सुदूर दक्षिण भारत का इतिहास संगमकाल (The Sangam Age) से प्रारम्भ होता है। सुदूर दक्षिण में संगम संस्कृति और सभ्यता का विकास कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में हुआ।

‘संगम’ संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संगम’ शब्द का अर्थ है— मेल, मिलाप, मिलन और संगम। भारतीय उपमहाद्वीप के सुदूर दक्षिण में मौर्योत्तर काल में और विशेषकर ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों को संगमकाल कहा जाता है। इन काल में हमें तीन प्रमुख (चोल, चेर और पाण्ड्य) राज्यों का उल्लेख पाते हैं।

इस काल में विद्वान मदुरा में तीन बार मिले और इसी में तमिल भाषा में साहित्यों का संकलन हुआ। इस मिलन को संगम कहा गया। इन्हीं संगम साहित्यों में तत्कालीन संगमकालीन इतिहास और संस्कृति का ज्ञान हमें प्राप्त होता है।

संगमकाल

भौगोलिक पृष्ठभूमि

सुदूर दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप त्रिभुज के आकार रूप में कन्याकुमारी तक विस्तृत है। समुद्र से घिरे होने के कारण भारतीय इतिहास में इसकी विशिष्ट स्थिति रही है। पूर्व में तटीय भाग को उत्तरी सरकार और कोरोमंडल तट कहते हैं। बंगाल की खाड़ी की ओर कोरोमंडल तट लगभग एक हजार मील लंबा है। पश्चिमी तट को कन्नड़, कोंकण और मालाबार तट में बाँटा गया है।

विदेशी व्यापार के संदर्भ में दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति का विशेष महत्त्व रहा है। पश्चिम में भूमध्यसागर तथा अफ्रीका और पूर्व में दक्षिण-पूर्व एशिया व चीन के समुद्री मार्ग के मध्य होने के कारण दक्षिण भारत का पश्चिमी तथा पूर्वी देशों से घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध विकसित हुआ| इस व्यापारिक सम्बन्ध का दक्षिणी राज्यों की समृद्धि में विशेष योगदान रहा। समुद्री व्यापार में दक्षिण के महत्त्व पर ‘पेरिप्लस ऑफ़ दि इरिथ्रियन सी’ नामक कृति (प्रथम शती ईसवी) द्वारा पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

संगमकाल के पूर्व का काल

नवपाषाणयुगीन संस्कृति के पश्चात् सुदूर दक्षिण के इतिहास में जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ उसे ‘महापाषाणयुगीन संस्कृति’ (Megalithic culture) कहा जाता है। इस संस्कृति के लोग अपने मृतकों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिये वे बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग करते थे।

महापाषाण संस्कृति के निर्माता प्रायः प्राग्साक्षर (Pre-literate) लोग थे। इन रचनाओं के उद्देश्य अथवा उनके उपयोग के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है। गार्डन चाइल्ड का अनुमान है कि महापाषाण किसी अन्धविश्वास सम्बन्धी अनुष्ठानिक अथवा धार्मिक उद्देश्य से बनाये जाते थे।

दक्षिण के आन्ध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल के विभिन्न पुरास्थलों जैसे ब्रह्मगिरि, मास्की, पुदुकोट्टै, चिंगलपुत्त, शानूर आदि से बृहत्पाषाणिक समाधियों के अवशेष मिले हैं। इनकी कुछ सामान्य विशेषतायें हैं—

  • प्रायः सभी महापाषाणों का निर्माण ऊँची पहाड़ी स्थलों पर किया गया है।
  • इनके नीचे एक या अधिक तालाब पाये गये हैं। इसका कारण संभवतः निर्माण सामग्रियों की सुलभता एवं कृषि के लिये सिंचाई की सुविधा रहा होगा।
  • इससे यह भी ज्ञात होता है कि महापाषाण रहने की बस्ती के समीप ही बनाये जाते थे।
  • महापाषाण संस्कृति के निर्माता कृषि कर्म से भलीभाँति परिचित थे तथा इनके द्वारा उत्पादित प्रमुख अनाज चावल, जौ, चना, रागी आदि थे।
  • ये लोग लोहे का उपयोग जानते थे। समाधियों की खुदाई में विविध प्रकार के लौह उपकरण जैसे तलवार, कटारें, त्रिशूल, चिपटी कुल्हाड़ियाँ, फावड़े, छेनी, बसूली, हँसिया, चाकू, भाले आदि मिले हैं।
  • सभी समाधियों से एक विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्डों ‘काले और लाल’ (Black and red ware) प्राप्त होते हैं। ये चाक पर बनाये गये हैं तथा इनके ऊपर पॉलिश भी मिलती है। इन्हें उल्टे मुँह आग पर पकाया जाता था। इनका भीतरी तथा मुँह के पास वाला भाग काला हो गया है जबकि शेष लाल है। प्रमुख बर्तन घड़े, मटके, कटोरे, थाली आदि हैं।
  • मिट्टी के अतिरिक्त ताँबे तथा काँसे के बर्तनों का उपयोग भी ये लोग जानते थे।
  • प्रायः सभी समाधियों से आंशिक समाधीकरण के उदाहरण मिलते हैं। शवों को जंगली जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। तत्पश्चात् बची हुई अस्थियों को ही चुन कर समाधिस्थ करने की प्रथा थी।
  • विद्वानों ने इस संस्कृति का काल ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक निर्धारित किया है।

विस्तृत विवरण के लिए देखें — महापाषाण संस्कृति

स्रोत

संगम युग के इतिहास को जानने के निम्नलिखित साधन हैं—

  • साहित्य
    • मेगस्थनीज का विवरण
    • संगम साहित्य
    • पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी
    • टॉलेमी का भूगोल
  • पुरातत्त्व

इनमें से कुछ का विवरण अधोलिखित है—

मेगस्थनीज

  • संगम युग के तीनों राज्यों (चोल, चेर व पाण्ड्य) में से सबसे पहले पाण्ड्य राज्य का उल्लेख मेगस्थनीज ने किया है। मेगस्थनीज पाण्ड्य राज्य के बारे में बताते हुए कहते हैं कि यह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था और यहाँ का शासन एक स्त्री के हाथ में था।

संगम साहित्य

ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे ‘संगम साहित्य’ कहते हैं। इसके पहले का कोई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ हमें दक्षिण भारत से प्राप्त नहीं होता है। सुदूर दक्षिण के प्रारम्भिक इतिहास का मुख्य साधन संगम साहित्य ही है।

विस्तृत विवरण के लिए देखें — संगम साहित्य का ऐतिहासिक महत्त्व

अभिलेख

  • सम्राट अशोक के द्वितीय और तेरहवें बृहत् शिलालेख में तमिल राज्यों का उल्लेख मिलता है।
  • खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में यह विवरण मिलता है कि उसने तमिल राज्यों के एक संघ को पराजित किया था।
  • सुदूर दक्षिण में ब्राह्मी लिपि में छोटे-छोटे अभिलेख तमिल भाषा में प्राप्त हैं। इनका काल ई०पू० द्वितीय शताब्दी माना जाता है। इन अभिलेखों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि तमिल भाषा अभी विकासोन्मुखी दशा में ही थी। इसमें संस्कृत मूल के अनेक शब्दों का प्रयोग मिलता है।

अरिकामेडु के विवरण के लिए देखें — अरिकामेडु

राजनीतिक इतिहास

संगम-साहित्य से हमें तमिल प्रदेश के तीन राज्यों— चोल, चेर तथा पाण्ड्य— का विवरण प्राप्त होता है। उत्तर-पूर्व में चोल, दक्षिण-पश्चिम में चेर तथा दक्षिण-पूर्व में पाण्ड्यों का राज्य स्थित था। तीनों राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में हम संगम साहित्य से ही जानते हैं। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में तमिल प्रदेश की राजनीति में इन्हीं तीन राज्यों का बोलबाला था।

राज्यों का उदय

सुदूर दक्षिण में महापाषाणकालीन संस्कृति से संगमकालीन संस्कृति की ओर संक्रमण को हम कुछ इस तरह समझ सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप तीन प्रमुख राज्यों का उदय हुआ। महापाषाणकालीन संस्कृति के निर्माता लोग उच्च भूमि (uplands) से उतरकर उर्वर नदी घाटियों में आकर बसने लगे और कछारी डेल्टा क्षेत्रों को कृषियोग्य बनाया। उच्च भूमि से निम्न भूमि की ओर पलायन कोई तिथि विशिष्ट पर होने वाली घटना नहीं थी वरन यह एक लम्बे समय तक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया थी।

फिरभी इसे मौर्यकाल के आसपास माना जा सकता है क्योंकि जहाँ मेगस्थनीज को पाण्ड्य राज्य का ज्ञान था वहीं अशोक के अभिलेखों में राज्यों चोल, चेर, पाण्ड्य और सत्तियपुत्रों का उल्लेख मिलता है। इसी तरह प्रथम शताब्दी ई०पू० कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने तमिल प्रदेश के तीन राज्यों के संघ ‘त्रामिरदेश संघटम्’ (तमिर-दह-संघातं) को पराजित किया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ई०पू० प्रथम शती तक ये तीनों राज्य अस्तित्व में आ चुके थे।

बहुत सारे व्यापारी, विजेता लोग तथा ब्राह्मण, जैन और बौद्ध धर्मप्रचारक प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण तक पहुँचे। उनके साथ आयी भौतिक संस्कृति के बहुत से तत्त्वों के साथ इन महापाषाणिक संस्कृति निर्माताओं से सम्पर्क स्थापित हुआ। इस सम्पर्क से इन्होंने सम्भवतः धान रोपने (wet paddy cultivation) की परिपाटी अपनायी; अनेकों गाँव और नगर बसाये और उनके बीच भी सामाजिक वर्ग बन गये। इस सम्पर्क का प्रभाव मौर्य साम्राज्य के दक्षिण प्रसार से और प्रगाढ़ होता गया। सुदूर दक्षिण में आहत मुद्राओं के वितरण से उत्तर-दक्षिण व्यापार का पता चलता है।

उत्तर और सुदूर दक्षिण के बीच सांस्कृतिक और आर्थिक सम्पर्क को तमिलकम् या तमिझकम् (Tamizhakam) कहा गया है और यह ईसा-पूर्व चौथी सदी से निरन्तर महत्त्वपूर्ण होता चला गया। दक्षिणापथ अर्थात् दक्षिण को जाने वाला मार्ग उत्तर भारत के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ क्योंकि दक्षिण से उन्हें सोना, मोती और विविध रत्न प्राप्त होते थे।

अशोक की उपाधि “देवानामपिय” (dear to gods) को एक तमिल राजा ने अपनाया था। आरम्भिक संगम साहित्य के रचनाकारों को गंगा और सोन नदी का ज्ञान था और साथ ही वे मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र से भी परिचित थे।

वस्तुतः यह सब धर्म और संस्कृति के प्रसार का परिणाम था। ब्राह्मणों, जैनियों, बौद्धों और आजीवकों तथा इन सब के अनुयायियों ने पारस्परिक सम्पर्क के साथ-साथ समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया| साथ ही व्यापारियों के कार्यकलापों से भी लाभ हुआ।

यह महत्त्व की बात है कि अशोक के अभिलेख मुख्य-मुख्य महामार्गों पर स्थापित किये गये थे। आरम्भिक अवस्था में ही गंगा के मैदान की संस्कृति का बहुत कुछ प्रभाव उन श्रमण परम्परा (नास्तिक संप्रदायों) के कार्यकलाप के जरिए भली-भाँति दिखायी पड़ता था जिसका उल्लेख हमें प्राचीनतम् तमिल ब्राह्मी अभिलेखों में प्राप्त होता है। ब्राह्मणीय प्रभाव से भी ये क्षेत्र अछूता न रहा; क्योंकि संगम शासकों को महाभारत से जोड़ना, हिमालय तक की विजय की कामना, ऋषि अगस्त्य व कौण्डिन्य गोत्रीय ब्रह्मणों का अत्यधिक महत्त्व इत्यादि इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं|

परन्तु यह प्रभाव एकदिशीय नहीं था अर्थात् तमिल संस्कृति के भी बहुत से तत्त्वों का प्रभाव उत्तर में भी पड़ा उदाहरणार्थ ब्राह्मण धर्म सम्बन्धी ग्रन्थों में कावेरी नदी की गणना देश की सात पवित्र नदियों में होने लगी, प्राचीन तमिल देवता मुरूगन उत्तर भारतीय शिव-पुत्र स्कन्ध से सम्बद्ध हो गये इत्यादि|

दक्षिण में जो प्रमुख तीन राज्य अस्तित्व में आये वह तभी सम्भव हो पाया जब कृषि उत्पादन इतना अधिशेष हो कि वह राज्य के प्रशासन व सैन्य व्यास्था का पोषण कर सके। यह तब सम्भव हुआ होगा जब जंगल को काटकर साफ करने और जोतकर खेती करने के काम को आसान बनाने के लिए लोहे का कुशलतापूर्वक उपयोग बड़ी मात्रा में होने लगा हो।

चोल, चेर और पाण्ड्य इन तीनों राज्यों के उदय में रोमन साम्राज्य के साथ बढते हुए व्यापार ने भी प्रेरित और प्रोत्साहित किया। ईसा की पहली सदी से ही ये तीनों राज्यों के शासक उस आयात-निर्यात व्यापार से लाभ उठाते रहे जो एक ओर दक्षिण भारत के समुद्रतटवर्ती प्रदेश और दूसरी ओर रोमन साम्राज्य के पूर्वी उपनिवेशों (मिश्र आदि) के बीच चलता रहा।

संगम कवियों ने इन तीन बड़े राज्यों को प्राचीनता तथा सम्मानित परम्परा प्रदान करने के लिए इनका सम्बन्ध महाभारत के कौरव-पाण्डव युद्ध से जोड़ा है। परन्तु स्पष्ट रूप से इसमें कवियों की कपोल-कल्पना ही प्रधान है और इसमें इस तरह वर्णित घटनाओं का ऐतिहासिक तथ्यों से तालमेल नहीं है; उदाहरण के लिये चेर शासक उदियनजेरल (१३० ई०) ने कुरुक्षेत्र में भाग लेने वाले योद्धाओं को भोजन कराया था। इसी तरह करिकाल द्वारा हिमालय तक विजय की बात कही गयी है।

इन तीन अभिषिक्त शासकों (चोल, चेर और पाण्ड्य) के अलावा अनेक छोटे-छोटे राज्यों का भी इस क्षेत्र में अस्तित्व था। ये छोटे-छोटे राज्य परिस्थितियों के अनुसार तीन बड़े राज्यों (चोल, पाण्ड्य, चेर) में से किसी एक की युद्ध में सहायता किया करते थे। संगम कवियों ने इन छोटे राज्यों में से ७ राज्यों की उनके राजाओं की उदारता के कारण पर्याप्त प्रशंसा की है। यहाँ तक कि कवियों ने उनके लिए वेल्लल अर्थात् संरक्षक (Vellas = Patrons) नाम का प्रयोग किया है।

आदन के दूसरे पुत्र शेनगुट्टुवन (धर्मपरायण कुट्टवन, लगभग १८० ई०) का यशोगान संगम युग के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों की श्रेणी में आने वाले परणर ने किया है। यह राजा घुड़सवारी, हाथी की सवारी तथा दुर्ग की घेरेबंदी में कुशल था। परणर ने इसके समुद्री अभियान का उल्लेख किया है, जिससे प्रतीत होता है कि उसके पास नौसैनिक बेड़ा रहा होगा। बाद की अनुश्रुतियों में इसकी सफलताओं को अतिशयोक्तिपूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया है। किंतु समकालीन साहित्य से यह ज्ञात होता है कि यह एक साहसी योद्धा तथा साहित्य-कला का उंदार संरक्षक था। इसने ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की। इस चेर राजा के समय में विशेष महत्त्व की बात है पत्तिनी (पत्नी) पूजा अर्थात् एक आदर्श तथा पवित्र पत्तिनी को देवी रूप में मूर्ति बनाकर पूजा जाना। इसे ‘कण्णगी’ की पूजा कहा गया है। यह और भी रोचक बात है कि ‘पत्तिनी पूजा’ के लिये पत्त्थर किसी आर्य शासक से युद्ध के बाद प्राप्त किया गया और उसे गंगा में स्नान कराकर ले आया।

चोल-राज्य

संक्षिप्त परिचय

संगम युगीन राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली चोल राज्य था और साथ ही संगमकाल के तीन प्रमुख राज्यों में से सर्वप्रथम चोलों का अभ्युदय हुआ। यह पेन्नार तथा दक्षिणी वेल्लारु नदियों के बीच में स्थित था। इसके अन्तर्गत चित्तूर, उत्तरी अर्काट, मद्रास से चिंगलपुत्त तक का भाग, दक्षिणी अर्काट, तंजौर, त्रिचनापल्ली का क्षेत्र सम्मिलित था। चोलों की प्रारम्भिक राजधानी ‘उत्तरी मनलूर’ थी, परन्तु ऐतिहासिक युग में ‘उरैयूर’ बन गयी। उरैयूर सूती वस्त्र उद्योग के लिए प्रसिद्ध थी। कालान्तर में करिकाल के शासनकाल में चोलों की राजधानी ‘पुहार’ (कावेरीपत्तनम्) बनी। चोलों के वैभव का मुख्य स्रोत सूती वस्त्रों का व्यापार था। उनके पास कुशल नौसेना भी थी।

विस्तृत विवरण के लिए देखें — चोल वंश या चोल राज्य : संगमकाल (The Cholas or The Chola’s Kingdom : The Sangam Age)

चेर राज्य

संगम युग का दूसरा राज्य चेरों का था जो आधुनिक केरल प्रान्त में स्थित था। इसके अन्तर्गत कोयम्बटूर का कुछ भाग तथा सलेम (प्राचीन कोंगू जनपद) भी सम्मिलित थे। संगम कवियों ने चेरों की प्राचीनता महाभारत के युद्ध से जोड़ने का प्रयास किया है जोकि काल्पनिक है। रोमनों ने अपने हितों की रक्षा के लिये सेना की दो टुकड़ियाँ क्रमशः मुजिरिस और क्रांगानोर में रखी हुई थीं। बताया जाता है कि रोमनों ने रोमन सम्राट ऑगस्टस के सम्मान में मंदिर का निर्माण भी चेर राज्य में करवाया था।

संक्षिप्त परिचय

  • राजधानी — वंजि या करूर
  • बंदरगाह राजधानी — तोण्डी / मुजिरिस
  • राजचिह्न — धनुष
  • क्षेत्र — केरल और तमिलनाडु का कुछ भाग
  • पहला ऐतिहासिक शासक — उदियनजेरल
  • यद्यपि तीनों संगमों को पाण्ड्य राजाओं ने संरक्षण दिया, तथापि इसमे सर्वाधिक उल्लेख चेर शासकों का मिलता है|
  • प्रमुख शासक –
    • उदियनजेरल
    • नेदुनजेरल आदन
    • कुट्टुवन
    • कालनकैक कण्णि नारमुडिचेर
    • शेनगुट्टुवन
    • अंदुवन
    • सेल्वाक्काडुंगो वाली आदन
    • आय और पारि
    • पेरुंजेरल इरुमपोरई
    • कुडक्को इलनजेराल इरुमपोरई
    • सेइये या शेय

विस्तृत विवरण के लिए देखें – चेर राज्य या चेर राजवंश : संगमकाल (The Chera Kingdom or The Chera Dynasty : The Sangam Age)

पाण्ड्य राजवंश

संगमकालीन तीन अभिषिक्त शासकों में पाण्ड्य भी थे। तीनों संगमों के संरक्षक पाण्ड्य ही थे। पाण्ड्य राज्य का उल्लेख हमें मेगस्थनीज की इंडिका और अशोक के अभिलेखों में मिलता है। संगम साहित्य से प्राप्त विवरण अत्यंत भ्रामक है। जिसके कारण पाण्ड्य इतिहास के प्रमाणिक इतिहास निर्माण मे कठिनाई होती है।

पाण्ड्यों का उल्लेख सबसे पहले मेगस्थनीज ने किया है। उसके अनुसार पाण्ड्य राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध है। आगे वह कहता है की इस राज्य की शासन-सत्ता एक स्त्री के हाथ में थी, जिससे मातृसत्तामक समाज का संकेत मिलता है।

पाण्ड्य राज्य को रोमन साम्राज्य से व्यापार में लाभ मिलता था। पाण्ड्य राजा ने रोमन सम्राट ऑगस्टस की राजसभा में राजदूत भेजा था। पाण्ड्य राजा ने ईसा की आरम्भिक सदियों मे वैदिक यज्ञ किए थे।

संक्षिप्त विवरण 

  • प्रारम्भिक राजधानी या बंदरगाह राजधानी – कोर्कई या कोल्ची
  • स्थायी राजधानी – मदुरै या मदुरई
  • राजचिह्न – मछली
  • क्षेत्र – तमिलनाडु का दक्षिण-पूर्वी भाग, कावेरी नदी के दक्षिण
  • तीनों संगमों का आयोजन मदुरै में हुआ
  • कोर्कई बंदरगाह समुद्र से मोती निकालने के लिए प्रसिद्ध था
  • प्रमुख राजा –
      • नेडियोन
      • पलशालै मुडुकुडुमी
      • नेदुंजेलियन प्रथम
      • नेदुंजेलियन द्वितीय
      • विरवरशेलिय
      • नल्लिवकोडन

विस्तृत विवरण के लिए देखें – पाण्ड्य राजवंश या पाण्ड्य राज्य : संगमकाल (The Pandya Dynasty or Pandya Kinds: The Sangam Age)

संगमकालीन राज्यों का पतन

  • पत्तुपात्तु’ में “शिरुपाण-आरुप्पडै” (Sirupan-arruppadai) नामक नत्तत्तनार (Nattattanar) की कविता है।
  • शिरुपाण-आरुप्पडै कविता के विवरण से दक्षिणी भारत में राजनीतिक परिवर्तन की जानकारी मिलती है।
  • नत्तत्तनार कृत इस कविता का नायक नल्लियक्कोडन (Nalliyakkodan) है।
  • नल्लियक्कोडन का शासनकाल लगभग २७५ ई० के आसपास बताया जाता है।
  • नल्लियक्कोडन को संगम काल का अंतिम शासक माना जा सकता है।
  • नल्लियक्कोडन का शासन क्षेत्र में गिंडगिल (Gindagil), मरकनम (Markanam), आमुर (Amur) और वेलूर (Velur) शामिल थे। गिंडगिल नामक गाँव वर्तमान टिंडिवनम (Tindivanam) के पास पड़ता है।  गिंडगिल (Gindagil) और मरकनम (Markanam) तमिलनाडु के विलुपुरम जनपद में पड़ता है।
  • नत्तत्तनार कृत शिरुपाण-आरुप्पडै के विवरण से ज्ञात होता है कि तमिल क्षेत्रों की तीनों राजधानियों— वंजी, उरैयूर तथा मदुरै— में उदार तथा दानशील शासकों का काल समाप्त हो चुका था।
  • इसके बाद इन राज्यों के ह्रास का काल प्रारंभ होता है।

संगम काल के तीन शासकों के ध्वंसावशेष पर कांची के पल्लवों का उदय होता है। प्रयाग प्रशस्ति से हमें ज्ञात होता है की गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणी अभियान में जिस विष्णुगोप नामक राजा को पराजित किया था उसकी पहचान पल्लव राजवंश के शासक के रूप में की गयी है। कालांतर में हम पुनः पाण्ड्य साम्राज्य और चोल साम्राज्य का उदय होते हुए देखते हैं।

संगम-युगीन संस्कृति

सुदूर दक्षिण में संगम साहित्य से प्राप्त विवरण के आधार पर वहाँ की राजनीतिक गतिविधियों का सिंहावलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक स्थिति पर्याप्त सुदृढ़ रही होगी। शासन व्यवस्था, सेना तथा युद्ध के अतिरिक्त राज्याश्रित कवि तथा विद्वानों पर होने वाले व्यय भार कम न रहे होंगे। संगमकालीन विवरण से स्पष्ट है कि सभी शासकों ने कृषि, उद्योग, व्यापार तथा विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया था।

सामासिक संस्कृति का विकास

संगमकाल की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों, लोगों द्वारा स्वीकृत और पोषित सांस्कृतिक विचारों और आदर्शों, उन्हें मूर्त रूप देने वाली और बनाये रखनेवाली संस्थाओं और गतिविधियों का संगम साहित्य असामान्य रूप से पूर्ण और वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है। इस पूर्ण और वास्तविक चित्र की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी सामासिक संस्कृति (composite culture) या मिश्रित चरित्र (composite character) है। यह दो मौलिक रूप से अलग-अलग संस्कृतियों के समामेलन का परिणाम है। इन दो संस्कृतियों को सुदूर दक्षिण की तमिल और उत्तर की आर्य संस्कृति के रूप में वर्णित किया जा सकता है। परन्तु वर्तमान में इनके मूल तत्त्वों को शुद्ध रूप में पहचानना दुष्कर कार्य है।

हालाँकि, उनमें से कुछ को स्पष्ट रूप से पहचाना जा सकता है जिनका स्रोत उत्तरी भारत में है परन्तु आर्यीकरण के दौरान उन्हें कुछ फेर-बदल के साथ दक्षिण में अपना लिया गया। जैसे —

  • महाभारत और रामायण की कहानियाँ संगम कवियों को ज्ञात थीं। तीनों तमिल राजाओं में से प्रत्येक का दावा है कि उन्होंने महाभारत युद्ध की पूर्व संध्या पर योद्धाओं को भोजन कराया था। एक चेर शासक उदियनजेरल ने तो महाभोजन की उपाधि ही ग्रहण कर ली थी क्योंकि उसने महाभारत युद्ध में सम्मिलित होनेवाले योद्धाओं को भोजन कराया था।
  • भगवान शिव द्वारा असुरों (त्रिपुर) के तीन धातु के किलों का विनाश करना।
  • राजा शिबि द्वारा एक गृद्ध द्वारा पीछा किए जा रहे कपोत को बचाने के लिये अपने शरीर का मांस देना।
  • सूर्य पर अधिकार करने के लिये श्रीकृष्ण और असुरों के मध्य संघर्ष।
  • ऋषि अगस्त्य से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ।
  • समुद्र के नीचे एक बड़ी मात्रा में अग्नि की उपस्थिति।
  • उत्तर-कुरु (उत्तरी देश) को निरंतर आनंद की भूमि के रूप में विवरण।
  • देवी अरुंधति को सतीत्व के आदर्श के रूप में मान्यता।
  • तीन ऋणों या ऋणत्रय की अवधारणा।
  • यह विश्वास कि चकोर पक्षी केवल वर्षा का जल ही पीता है।
  • विशेष परिस्थितियों में वर्षा की बूँदें मोती में बदल जाती हैं।

ये कुछ उदाहरण हैं जिनको गिनाया जा सकता है। कहा जाता है कि तोलकाप्पियम को ऐंद्र सम्प्रदाय (Aindra school) के संस्कृत व्याकरण के आधार पर लिखा गया था।

तोलकाप्पियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुष्ठान के साथ विवाह को एक संस्कार के रूप में तमिल देश में आर्यों द्वारा स्थापित किया गया था। उत्तर भारतीय धर्मशास्त्रों में विवाह के आठ रूपों का उल्लेख मिलता है, जोकि स्वयं उत्तर में प्रचलित आर्य और पूर्व-आर्य रूपों के मिश्रण का परिणाम है।  इन आठ विवाह रूपों का उल्लेख तोलकाप्पियम् और अन्य कृतियों में किया गया है। इन्हें तमिल रूपों में सावधानीपूर्वक समायोजित कर लिया गया।

तमिलों में विवाह की अवधारणा अपेक्षाकृत सरल थी। उन्होंने स्त्री और पुरुष के स्वाभाविक मिलन को मान्यता दी तथा प्रेम की अभिव्यक्ति में स्वाभाविक अंतर को पहचाना। यह सम्भवतया देश के विभिन्न भागों की भौतिक स्थितियों में अंतर के कारण था।

उन्होंने इसे (प्रणय विवाह) पाँच तिणै या पंच तिणै (five tinais) नाम दिया। उन्होंने एकतरफा प्रेम के लिए को कैक्किलै या कैक्किलाई या कैक्किणै (kaikkilai / kaikkinai) और अनुचित प्रेम को पेरुंडिणै (perundinai)  नाम दिया। इसी ढाँचे में आठ आर्य विवाह रूपों को सम्मिलित करने का प्रयास किया गया। यद्यपि यह प्रयास आसानी की जगह और जटिलता भरा था।

तमिल और आर्य संस्कृति के संश्लेषण का सबसे ठोस परिणाम यह हुआ कि तमिल भाषा समृद्धि और उर्वर हुई। एक समृद्ध साहित्य का उदय हुआ जिसमें शास्त्रीय सौंदर्य के साथ स्थानीय भाषा की ऊर्जा और शक्ति का मिश्रण था। संगम साहित्य, जोकि तमिल साहित्य का सबसे प्रारंभिक स्तर है, कई मायनों में सर्वश्रेष्ठ भी है।

शासन व्यवस्था

संगमयुगीन राज्य ‘कुल संघ’ प्रतीत होते हैं। ऐसे राज्य में कुल के विभिन्न परिवारों के वयस्क पुरूष राज्य-कार्य में भाग लेते हैं। इस युग में वंशानुगत राजतंत्र का प्रचलन था। राजा बहुत सी उपाधियाँ धारण करते थे, जैसे— को, मन्नम, वेन्दन, कारवेन, इरैयन, अधिराज आदि। ‘को’ उपाधि देवताओं एवं राजा दोनों के लिए प्रयुक्त की जाती थी। राजा का जन्म दिवस प्रतिवर्ष मनाया जाता था और इस दिन को पैरूनल (महान दिवस) कहा जाता था। राजा के बाद युवराज का स्थान था। तमिल ग्रंथो में युवराज को कोमहन तथा अन्य पुत्रों को इलैगो कहा गया है।

पुरुनानरू नामक ग्रंथ में चक्रवर्ती राजा की चर्चा की गयी है। राजा प्रतिदिन अपनी सभा (नालवै) में प्रजा के कष्टों को सुनता था और न्याय कार्य सम्पन्न करता था। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय, राजा की सभा (मनरम्) थी। सभा के लिए मनरम् के साथ पोडियाल शब्द का भी उल्लेख मिलता है। मनरम् का शाब्दिक अर्थ है नगर जबकि पोडियाल का शाब्दिक अर्थ है सार्वजनिक स्थल।

अधिकारी या संस्था

राजा के कार्य में सहायता के लिए निम्न अधिकारियों या संस्थाओं का उल्लेख मिलता है—

  • अमाइच्चार / अमैच्चार — मंत्री
  • पुरोहितार — पुरोहित
  • सेनापतियार — सेनापति
  • दूतार — दूत / राजदूत
  • ओर्रार — गुप्तचार

प्रशासनिक इकाइयाँ

केन्द्र प्रान्तों में बँटे थे जिसे ‘मंडलम्’ कहा गया है। मंडलम् कमिश्नरियों में बँटे थे जिसे पलनाडु या कोट्टम् कहा गया है। वलनाडु आगे नाडु (जिला) में और नाडु आगे कुर्रम (तहसील) में विभाजित थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम (उर) थी।

  • राज्य (केन्द्र) — मंडलम् (प्रान्त) — वलनाडु / कोट्टम् (कमिश्नरी) — नाडु (जिला) — कुर्रम (तहसील) — उर (ग्राम)

नगर प्रशासन

सम्पूर्ण राज्य को मण्डलम् कहा जाता था, जैसे— चोल मण्डलम्, चेरमण्डलम् आदि। मण्डलम् के बाद नाडु, नाडु के बाद उर होता था। उर नगर होता था जिसमें एक बड़ा ग्राम (पेरूर) एक छोटा ग्राम (शिरूर) अथवा एक प्राचीन ग्राम (मुदूर) आदि का विभिन्न रुपों में वर्णन मिलता है। पत्तिनम् तटीय नगर का नाम था और पुहार बन्दरगाह क्षेत्र था। चेरि किसी नगर का उपनगर या गाँव का नाम होता था जबकि पड़ोसी क्षेत्र को पक्कम् कहा जाता था। सलाई मुख्य मार्ग था और तेरू किसी नगर की एक गली होती थी।

राजस्व प्रशासन

राजस्व का सबसे प्रमुख स्रोत भूमिकर था। इसे कुडमै या इरय कहा जाता था। कृषि उत्पादन में राज्य का कितना हिस्सा था यह अस्पष्ट है परन्तु सम्भवतया भूराजस्व की मात्रा १/६ थी। भूमि की माप की इकाइयाँ मा तथा बेलि थीं।

पथकर और सीमा शुल्क को उल्गू या शुंगम कहा जाता था। आंतरिक व्यापार की सुरक्षा के लिए और तस्करी (smuggling) रोकने के लिए सड़कों पर सेना द्वारा चौकसी रखी जाती थी।

सामान्यतया राजा को दिया जाने वाला शुल्क कुडमै या पादु या पादुबाडु के नाम से जाना जाता था। बलपूर्वक प्राप्त किए जाने वाले उपहार को ईरादू कहा जाता था।

कर अदा करने वाला क्षेत्र बरियमवारि नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र से कर वसूलने वाला अधिकारी वरियार कहलाता था। प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री ने कुम्बकोणम में चोलों के कोषागार का भी वर्णन किया है।

इस तरह राजस्व के प्रमुख स्रोत थे—

  • भूराजस्व (मुख्य स्रोत)
  • चुंगी (customs)
  • पारगमन शुल्क (transit duties)
  • युद्ध से प्राप्त लूट के माल

न्याय प्रशासन

संगम युग में राजा ही न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। राजा के न्यायालय को मनरम् कहा जाता था। दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे। चोरों के हाथ तथा झूठी गवाही देने वालों की जिह्वा काट ली जाती थी।

सैन्य प्रशासन

संगम युग में चतुरंगिणी सेना— पैदल, हस्ति, अश्व एवं रथ का उल्लेख मिलता है। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि रथ में घोड़े के स्थान पर वृषभ (बैल) जोते जाते थे। सैन्य आवश्यकता के लिए अश्व का आयात किया जाता था। सेना में हाथियों का विशेष महत्त्व होता था। नौ-सेना का भी उल्लेख प्राप्त होता है।

आभिजात्य वर्ग (nobles), राजकुमार (princes) और सेनापति (captain) हाथी की सवारी करते थे। सेनानी (commanders) रथों का प्रयोग करते थे। पदाति और अश्वारोही अपने पैरों की सुरक्षा के लिए चमड़े की पनही या जूते पहनते थे।

सेनापति की उपाधि एनाडि (Enadi) थी। युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त सैनिकों के सम्मान में एक स्तम्भ बनाया जाता था जिसमें उनके नाम एवं उनकी उपलब्धियाँ लिखी जाती थीं। इन स्तम्भों को वीरगल या वीरक्कल कहा जाता था। सैनिक सम्बन्धी की अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ कलावली (Kalavali) नामक ग्रंथ से प्राप्त होती हैं।

मरवा नामक जनजाति अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण सेना में विशेष स्थान पाती थी।

विस्तृत विवरण के लिए देखें — संगमकालीन शासन व्यवस्था (Sangam Age Governance System)

सामाजिक दशा

संगमकालीन समाज पर उत्तर भारतीय समाज का प्रभाव दिखायी पड़ता है। यद्यपि संगम समाज जाति व्यवस्था पर आधारित नहीं था। हाँ संगम समाज में हमें वर्ग व्यवस्था अवश्य दिखायी देती है। पुरुनानरू ग्रन्थ में उत्तर भारत की तरह ४ वर्ग या जाति (कुडी-Kudi) — तुडियन (Tudian), पाणन / पाड़न (Panan), परैयन (Paraiyan) और कदम्बन (Kadamban) का उल्लेख प्राप्त होता है।

समाज सामान्यतया चार वर्गों में विभाजित था—

  • शुड्डुम वर्ग : ब्राह्मण व बुद्धिजीवी वर्ग — उत्तर भारत के विपरीत दक्षिण भरतीय ब्राह्मणों के खानपान पर कोई प्रतिबंध नहीं था। वे मांसाहार, मदिरापान व ताड़ी पीते थे। उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बसनेवाले ब्राह्मणों को वेदमार कहा गया है। ये राजा के सलाहकार की भूमिका का भी निर्वहन करते थे।
  • अरसर वर्ग : शासक और योद्धा वर्ग — योद्धा वर्ग में कुछ ऐसी जनजातीयाँ भी शामिल थीं जिनका मुख्य कार्य पशुहरण, लूटपाट और डाका डालना था। ऐसी ही एक जनजाति थी मरवा जिनमें वेत्ची (गोहरण) की प्रथा प्रचलित थी। मलवर डाका डालने का कार्य करते थे।
  • बेनिगर वर्ग : व्यापारी वर्ग — यह व्यापारियों का वर्ग था। इस वर्ग में छोटे व्यवसायियों को चेति वर्ग कहा जाता था। कुछ ऐसे भी व्यवसायी इस वर्ग में शामिल थे जिनकी सामाजिक स्थिति निम्न थी; जैसे—
    • पुलैयन — रस्सी की चारपाई बनानेवाले
    • एनियर — शिकार करनेवाले
    • परदवर — मछुवारे
  • वेल्लाल वर्ग : कृषक वर्ग — इसमें प्रकार के कृषक सम्मिलित थे—
    • वेल्लालर— ये सम्पन्न कृषक थे। इनके प्रमुख को वेलिर कहा जाता था। ये लोग सरकारी पदों और सैनिकों के रूप में नियुक्त होते थे। इस वर्ग का विवाह अरसर वर्ग में होता था। चोल राज्य में वेल्लालर वर्ग की उपाधि वेल और अरशु जबकि पाण्ड्य राज्य में कविदी थी।
    • कडैसियर— कृषक मजदूर

कुछ कारीगर खेत मजदूर वर्ग के थे। परियार लोग खेतिहर मजदूर थे, लेकिन पशु की खाल या चर्म का काम करते थे और चटाई के रूप में उसका इस्तेमाल करते थे। इस युग में गुप्तचरों की ओर्रार कहा जाता था। इस युग की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता दास प्रथा का अभाव था।

विवाह

उत्तर भारत की भाँति दक्षिण भारत में भी विवाह को संस्कार की मान्यता प्राप्त थी। तोलकाप्पियम् में ८ प्रकार के विवाहों का उल्लेख प्राप्त होता है। सामान्यतः विवाह में लड़कियों की उम्र १२ वर्ष एवं लड़कों की १८ वर्ष की होती थी। इन अष्ट-विवाहों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है—

  • पंचतिणै — प्रेम विवाह (गन्धर्व विवाह) – स्त्री तथा पुरूष के सहज प्रणय तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओं को पंचतिणै कहा गया है।
  • कैक्किणै —एक पक्षीय प्रेम (असुर, राक्षस, पैशाच)
  • पेरून्दिणै — अन्य चार विवाह; प्रजापत्य, आर्ष, ब्रह्म और दैव। ये विवाह संगम युग में सर्वाधिक प्रचलित थे।

महिलाओं की स्थिति

  • समाज में विधवा विवाह एवं पुनर्विवाह का प्रचलन था।
  • सती प्रथा का प्रचलन धा।
  • बहुत सी कवयित्री स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है; जैसे— ओबैयर तथा नच्चेलियर।
  • समाज में विधवाओं की स्थिति हेय थी, उसे कई यातनाओं का सामना करना पड़ता था जिसमें बाल कटाना, आभूषण त्यागना, समारोहों में भाग न लेना आदि प्रमुख थे।
  • दक्षिण भारत में चेर शासक लाल शेनगुट्टवन के काल में पत्तिनी पूजा प्रारम्भ हुई।
  • गणिकाओं को परतियर / परदियर कहा जाता था।
  • नर्तक-नर्तकियों तथा गायकों के दल घूम-घूम कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। इन्हें वाणर तथा विडैलियर कहा जाता था।

भोजन

संगम समाज में शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनो प्रचलित था। ताड़ी तथा मदिरा का प्रयोग लोग करते थे। प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता था। गुप्तकाल की भाँति भोजन के बाद पान-सुपारी खाने का प्रचलन था।

जादू-टोने व अंधविश्वास

समाज में कुछ अन्ध-विश्वास भी व्याप्त थे; जैसे—

  • खुले बाल वाली स्त्री को बुरा समझा जाता था।
  • कौवे के बोलने को अतिथि के आगमन की सूचना समझा जाता था।
  • ज्योतिषी लोगों का भाग्य बताता था।
  • जादू-टोना, ताबीज आदि का प्रचलन था।
  • बरगद के पेड़ को देवताओं का निवास स्थान माना जाता था।
  • सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को साँप द्वारा निगलना मानते थे।

सामाजिक विषमता

संगम युग में सुस्पष्ट समाजिक विषमताएँ व्याप्त थीं—

  • धनी लोग ईटों के मकानों में रहते थे।
  • नगरों में धनी व्यापारी लोग अपने घर के ऊपरी तल्ले में रहते थे।
  • गरीब लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे।

विस्तृत विवरण के लिए देखें — संगमकालीन सामाजिक दशा

आर्थिक दशा

संगम साहित्य, क्लासिकल रचनाओं और पुरातत्त्विक अवशेषों से संगमकालीन आर्थिक दशा का ज्ञान मिलता है।

कृषि

राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि यहाँ की भूमि बहुत उर्वरा थी। भूमि की उर्वरा शक्ति के सम्बन्ध में कावेरी डेल्टा के बारे में कहावत प्रसिद्ध थी कि— ‘जितनी भूमि एक हाथी बैठने में घेरता है, उतने में ७ व्यक्तियों के लिए अन्न पैदा होता है।

चेर राज्य भैंस, कटहल, काली मिर्च तथा हल्दी के लिए विख्यात था। संगम कविताओं में रागी और गन्ने के उत्पादन, गन्ने से शक्कर बनाने, फसल काटने, खाद्यान्नों के सुखाने का अत्यंत सजीव वर्णन मिलता है। कृषि कार्य मुख्य रूप से महिलाएँ करती थीं।

भूमि के पाँच मुख्य (पंचतिणै) प्रकार मिलते हैं—

  • मरूदम (Marudam)— यह उपजाऊ कृषि भूमि थी— the cultivated plains— यहाँ धान, वज्जि, कज्जि, कुवलै आदि सभी प्रकार की फसलें पैदा होती थी।
  • कुरिंजि (Kurinji)— पर्वतीय भूमि— the hills— यह मरुदम से कुछ कम उपजाऊ होती थी। इस तरह की भूमि मे ज्वार, धान, बाँस, चीड़ और आम उगाये जाते थे। ज्यादातर कृषक इसी प्रकार के क्षेत्र में रहते थे।
  • मुल्लै (Mullai)— यह अरण्य या जंगली भूमि थी— the jungle and woodlands — यहाँ पशुपालक ज्यादा रहते थे। इसमें रागी, कोडरै आदि उपज होती थी।
  • नेथल (Neydal)— यह समुद्रवर्ती क्षेत्र / तटवर्ती भूमि थी — the coast— यहाँ का मुख्य उत्पादन नमक और मछली थी। यहाँ मछुआरे और नमक बनाने वाले रहते थे।
  • पालै (Palai)— यह रेगिस्तानी भूमि थी— the dry lands— इस कारण यहाँ उत्पादन नाममात्र का होता था। यहाँ के निवासी लूट-पाट एवं चोरी पर निर्भर थे।

शिल्प और उद्योग

संगम काल में विभिन्न शिल्प और उद्योग प्रचलित है। कुछ प्रमुख उद्योगों का विवरण अधोलिखित है—

  • वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रचलित था। सूती, रेशमी, ऊनी सभी प्रकार के वस्त्रों का निर्माण होता था। उरैयूर एवं मदुरा वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे। उरैयूर कपास के लिए प्रसिद्ध था। अरिकामेडु से मलमल के वस्त्रों निर्यात होता था। चीन से चीनी रेशम ‘चीनांशुक’ प्राप्त होता था।
  • मसाला उद्योग— विदेशी व्यापार के लिए निर्यात की प्रमुख वस्तु थी। चेर राज्य मसाला उद्योग के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध था। यहाँ काली मिर्च और हल्दी का प्रभूत उत्पादन होता था। काली मिर्च के रोमन साम्राज्य को प्रभूत निर्यात के कारण इसका नाम ही ‘यवनप्रिय’ पड़ गया।
  • धातु उद्योग— सोना तथा लोहा।
  • हाथी दाँत उद्योग— वारंगल, कलिंग आदि क्षेत्र हाथी दाँत के लिए प्रसिद्ध थे।
  • चर्म उद्योग— चमड़े से जूते, बाजे इत्यादि बनाये जाते थे।
  • मद्य उद्योग— गन्ने, चावल और जौ से मदिरा बनायी जाती थी।
  • तेल उद्योग— अदरक और तिल से तेल का निर्माण किया जाता था।
  • नमक उद्योग— तटवर्ती नगरों मे प्राप्त होता था। आन्तरिक व्यापार में इसका विशेष महत्त्व था।

व्यापार

संगम युग की महत्त्वपूर्ण विशेषता इसका आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार था। इस समय रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार अत्यन्त उन्नत अवस्था में था। इस व्यापार का विस्तृत विवरण प्लिनी ने अपनी पुस्तक ‘नेचुरल हिस्टोरिका’ में किया है। रोम के शासको में सर्वाधिक व्यापार आगस्टस के समय में होने के प्रमाण हैं, क्योंकि इसी समय के सर्वाधिक स्वर्ण सिक्के भारत में पाये गये हैं। आगस्टस के बाद टाइबेरियस एवं नीरो के समय व्यापार में क्रमशः गिरावट आती गयी। आगस्टस का एक मन्दिर मुजिरिस (क्रांगानोर) में बनवाया गया था। रोमन लोगों ने यहाँ रक्षा के लिये सेना की दो टुकडियाँ भी स्थापित की थीं। कावेरीपत्तनम (पुहार) में एक यवन बस्ती थी।

स्वतंत्रता के बाद अरिकामेडु (पोडुका) के उत्खनन में रोमन उत्पत्ति के पात्र, दीप के टुकड़े आदि प्राप्त हुए हैं। रोम के अतिरिक्त यूनान, मिस्र, चीन और श्रीलंका के साथ भी व्यापार उन्नत अवस्था में था।

एक अज्ञातनामा यूनानी नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ द इरीश्रियन सी’ में विभिन्न बन्दरगाहों (लगभग २४) की सूची मिलती है। इस ग्रन्थ में नौरा (कन्नौर), तोण्डी (आधुनिक पोन्नानी), मुशिरी और नेल्सिंडा (कोट्टयम के निकट) पश्चिमी तट के प्रमुख बन्दरगाह बताये गये है। पाण्ड्यों के बन्दरगाह शालियूर तथा कोर्कई थे। कोर्कई को पेरिप्लस में कॉल्ची भी कहा गया है। कोर्कई समुद्री मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ से अपराधियों द्वारा मोती निकाले जाने और उन्हें मदुरा के बाजार में बेचे जाने का उल्लेख पेरिप्लस एवं प्लिनी दोनों ने किया है। पाकजलडमरूमध्य से निकाली गयी मोती पुहार (कावेरीपत्तनम्) और उरैयूर के बाजारों में बिकती थी। चेरों के बन्दरगाह तोण्डी, मुशिरी या मुजिरिस, करौरा, वांजि तथा बन्दर थे। चोलों के बन्दरगाह पुहार, अरिकमेडु तथा उरैयूर थे। उरैयूर कपास के लिए विख्यात था। पेरिप्लस में अरिकमेडु का नाम पेडोक मिलता है।

निर्यातित वस्तुओं में गरम मसाले, हाथी दाँत की बनी वस्तुएँ, रेशमी वस्त्र, मोती, बहुमूल्य रत्न, नीलम, कर्पर (Tortoise Shell), वैदूर्य, तोता, मयूर, बन्दर आदि प्रमुख थे।

आयातित वस्तुओं में अश्व, मदिरा, सीसा, सोना और चाँदी प्रमुख थे।

पाण्ड्य राज्य का एक व्यापारिक मण्डल भड़ौच बन्दरगाह से लगभग २१ ई०पू० में आगस्टस की राजसभा में पहुँचा।

विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषता थी कि व्यापार बिचौलियों द्वारा किया जाता था। बिचौलियों का कार्य करने वाले मुख्य रूप से सिकन्दरिया के यहूदी एवं यवन थे।

संगम युग का वैदेशिक व्यापार भारतीय पक्ष में था। प्लिनी अपनी पुस्तक में इस बात के लिये आँसू बहाता है कि “उसके यहाँ का सारा सोना विलासिता की सामग्री खरीदने में भारत चला जाता है तथा प्रतिवर्ष ६० करोड़ सेस्टर्स की हानि उसके देश को होती है।”

संगम युग में आन्तरिक व्यापार भी उन्नत अवस्था में था। यह वस्तु-विनियम पर आधारित था। इस समय के नमक के व्यापारियों का विशेष उल्लेख है।

विस्तृत विवरण के लिए देखें — संगमकालीन आर्थिक दशा

धर्म, आस्था व विश्वास

संगमकालीन धर्म पर उत्तर भारतीय धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इसे हम निम्न शीर्षकों में देख सकते हैं—

वैदिक धर्म

वैदिक धर्म को दक्षिण में प्रचारित व प्रसारित करने का श्रेय दो प्रमुख ऋषियों को प्राप्त है;

  • एक, ऋषि अगस्त्य और
  • द्वितीय, ऋषि कौण्डिन्य।

लोग कर्मवाद, पुनर्जन्म, भाग्यवाद पर विश्वास करते थे। अनेक लोग संन्यासी का जीवन व्यतीत करते थे। इस काल में जीववाद, टोटमवाद, बलि प्रथा इत्यादि प्रचलित थी। शवों को जलाने और शवाधान की प्रथा प्रचलित थी।

संगमकाल के प्रमुख देवता— मुरुगन, इन्द्र, भगवान विष्णु (अनंतशायी विष्णु), श्रीकृष्ण, बलरामजी, भगवान शिव, अर्धनारीश्वर इत्यादि थे। देवियों में सरस्वतीजी, देवी मरियम्मा / येलम्म्मा (रेणुका) आदि प्रमुख थीं। मणिमेकलै में कापालिक शैव संन्यासियों की चर्चा मिलती है। इनमें से कुछ के विवरण निम्न हैं—

  • मुरुगन— दक्षिण भारत के सर्वप्रमुख देवता। इनका नाम सुब्रमण्यम व वेलन भी है। वेलन का सम्बन्ध वेल से है। वेल का अर्थ वर्छा है और वर्छा मुरुगन का प्रमुख अस्त्र है। मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (कुक्कुट) है और इन्हें पर्वत शिखर पर क्रीड़ा करना बहुत प्रिय है। मुरुगन की पत्नियों में कुरवस नामक एक जनजातीय स्त्री भी है। वेलनाडन नामक नृत्य मुरुगन की उपासना में किया जाता था। उत्तर भारत के देवता शिव-पुत्र स्कंद / कार्तिकेय / कुमार से मुरुगन तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। आदिच्चन्नलूर से हमें प्राप्त प्रमाणों से प्रागैतिहासिक काल से ही मुरुगन के पूजा के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
  • इन्द्र— संगमकाल में पुहार के वार्षिकोत्सव में इन्द्र के विशेष पूजा का विवरण मिलता है। इन्द्र के मन्दिर को वजक्कोट्टम कहा जाता था।
  • श्रीकृष्ण— पशुचारण जाति के लोग भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करते थे।
  • भगवान विष्णु— संगम साहित्य में भगवान विष्णु के नाम का तमिल रूपान्तर ‘तिरुमल’ मिलता है। पदित्रुपात्तु से ज्ञात होता है कि तिरुमल की पूजा में तुलसी और घण्टी का उपयोग किया जाता था। अभिलेखों में भगवान विष्णु के मन्दिर को विन्नगार कहा गया है।
  • मरियम्मा— ये परशुराम की माँ और महत्त्वपूर्ण देवी हैं। रुष्ट होने पर ये चेचक फैला देती थीं। इन्हें बकरा व मुर्गा की बलि चढ़ाई जाती थी।
  • कोर्रावाई / कोर्रावै (Korravai) — विजय की देवी थीं।

श्रवण परम्परा

  • संगमकाल से पूर्व ही श्रवण परम्परा यहाँ पहुँच चुकी थी।
  • जैन परम्परा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व चौथी शती में ही जैन धर्म का प्रवेश दक्षिण भारत में हो चुका था। जैन मुनि भद्रबाहु के साथ स्वयं राज्य का त्यागकर चन्द्रगुप्त मौर्य श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पहाड़ी पर तपश्चर्या करने का विवरण मिलता है।
  • सम्राट अशोक के समय में अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म से तमिल लोगों का परिचय हो चुका था। कालांतर में बौद्ध धर्म को तमिल क्षेत्र ने अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान दिये।

निष्कर्ष

उत्तर भारतीय व दक्षिण के धर्म का समन्वय हमें सर्वत्र मिलता है। वैदिक धर्म का यहाँ स्वागत हुआ। मुरुगन और मरियम्मा के उदाहरण से इस समन्वय को हम समझ सकते हैं। वैदिक और श्रमण परम्परा ने यहाँ समाज, कला व साहित्य को समृद्ध किया।

विस्तृत विवरण के लिये देखें — संगमकालीन धर्म, आस्था व विश्वास: संक्षिप्त विश्लेषण (Religion, faith and belief of the Sangam age: Brief analysis)

संगम साहित्य में सामाजिक विकास के संकेत

दोनों तरह के संगम ग्रंथों (आख्यानात्मक और उपदेशात्मक) में समाज के विकास की कई अवस्थाओं का संकेत मिलता है।

इनमें से आख्यानात्मक ग्रंथों को वीरगाथा काव्य (heroic poetry) कहते हैं, जिनमें वीर पुरुषों की कीर्ति गायी ही गयी है और साथ ही सतत चलनेवाले युद्धों और पशुहरणों का बारम्बार उल्लेख मिलता है। इससे संकेत मिलता है कि तमिल लोग आरम्भ में पशुचारक थे। महापाषाणीय जीवन का आभास संगम साहित्य में मिलता है। सबसे पुरातन महापाषाणिक लोग मौलिक रूप से पशुचारक, शिकारी या मछुआरे प्रतीत होते हैं। हालाँकि उन्हें चावल की खेती का ज्ञान था।

प्रायद्वीपीय भारत में कई पुरास्थलों से हँसिया (sickles) और फावड़े (hoes) तो मिले हैं, परन्तु फाल (ploughshares) का अभाव मिलता है। लोहे की अन्य वस्तुएँ भी प्राप्त हुई हैं; जैसे— कीलक (wedges), सपाट सेल्ट (flat celts), बाणाग्र (arrowheads), लंबी तलवार (long swords) और बर्छी (lances), खूँटी (spikes) और शूलाग्र (spearheads), हार्सबिट (Horsebit) इत्यादि। ये हथियार मुख्यतः युद्ध और शिकार के हैं। प्रसंगवश हड़प्पा सभ्यता से मिले औजारों के अवशेष उन्हें युद्धप्रिय कम जबकि व्यापारादि में व्यस्त रहनेवाले प्रमाणित करते हैं। इसका कुछ प्रतिरूप संगम साहित्यों में भी मिलते हैं जिसमें अनवरत युद्धों और पशुहरणों की चर्चा मिलती है। संगम साहित्यों से स्पष्ट होता है कि युद्ध के लूट (booty) से लोगों का अच्छा निर्वाह होता था।

संगम साहित्य में यह भी कहा गया है कि जब कोई वीरगति को प्राप्त होता है तो वह पत्थर के टुकड़े के समान हो जाता है। यह हमें पत्थर के टुकड़ों के उस घेरे का स्मरण कराता है जो महापाषाणिक लोगों की कब्रों पर बनाये जाते थे। कालान्तर में सम्भवतया इसी से वीरकल (virakal) स्थापित करने की प्रथा चल पड़ी जिसमें गाय और अन्य वस्तुओं के लिए लड़ते-लड़ते मरने वाले वीरों के सम्मान में वीरकल अर्थात् स्मारक स्वरूप वीर-प्रस्तर खड़ा किया जाता था। इस तरह संगम साहित्य में वर्णित सामाजिक विकास की आरम्भिक अवस्था कहीं न कहीं आरम्भिक महापाषाणिक अवस्था से सम्बंधित हो जाती है।

हमें आख्यानात्मक (narrative) संगम ग्रंथों से कुछ जानकारी राज्य के गठन के सम्बन्ध में मिलती है, जिसके अनुशीलन से ज्ञात होता है कि सेना के नाम पर योद्धाओं के दल मात्र होते थे तथा कर-संग्रह प्रणाली और न्याय-व्यवस्था अपनी आरम्भिक अवस्था में थी।

इन ग्रंथों से हमें व्यापारियों, वणिकों, शिल्पियों और कृषकों के बारे में भी कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। इनमें कई नगरों का उल्लेख मिलता है; जैसे— कांची, कोर्कई, मदुरै, पुहार और उरैयूर। इसमें पुहार या कावेरीप‌ट्टनम सबसे अधिक प्रसिद्ध था। संगम साहित्यों में जिन नगरों और आर्थिक कार्यकलापों की चर्चा है उनकी पुष्टि यूनानी और रोमन विवरणों से तथा संगम स्थलों पर हुए उत्खनन से भी होती है।

संगम ग्रंथों का बहुत कुछ अंश उपदेशात्मक (didactive) भी है, जो संस्कृत और प्राकृत जानने वाले विद्वान ब्राह्मणों की रचना है। उपदेशात्मक ग्रंथों में ईसवी सन् की आरम्भिक सदियों का प्रतिबिम्ब है। उनमें न केवल राजा और राजसभा के लिए, बल्कि विविध सामाजिक और व्यावसायिक वर्गों के लिए भी आचार-नियम (code of conduct) बताये गये हैं। यह सब ईसा की चौथी सदी के बाद ही संभव हुआ होगा जब पल्लव राजाओं के आश्रय में बड़ी संख्या में ब्राह्मण आये। साहित्यों में ग्रामदान का तथा राजाओं के सूर्यवंश और चंद्रवंश का भी उल्लेख है।

संगम ग्रंथों के अतिरिक्त एक और ग्रंथ है जो तोलकाप्पियम (Tolkkappiyam) कहलाता है। यह व्याकरण और अलंकारशास्त्र का ग्रंथ है। एक और महत्त्वपूर्ण तमिल ग्रंथ है तिरुकुरल (Tirukkural), जिसमें दार्शनिक विचार और सूक्तियाँ हैं। इसके अलावा, तमिल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं जिनके नाम हैं शिलप्पादिकारम् (Silppadikaram) और मणिमेकलै (Manimekalai)। इन दोनों की रचना ईसा की छठी शताब्दी के आसपास हुई अथवा यह कहा जा सकता है कि महाकाव्यों की रचना संगमकाल से कुछ समय बाद हुई।

प्रथम महाकाव्य शिलप्पादिकारम् को तमिल साहित्य का उज्जवलतम रत्न माना जाता है। इसमें एक प्रेम कथा वर्णित है। कोवलन नामक एक अमीर अपनी कुलीन धर्मपत्नी कण्णगी की उपेक्षा करके कावेरीपट्टनम की माधवी नामक नर्तकी से प्रेम करता है। शिलप्पादिकारम् का रचियता संभवतया जैन था और वह तमिल देश के सभी राज्यों को कथा-स्थल बनाना चाहता था।

द्वितीय महाकाव्य मणिमेकलै मदुरा के एक वैश्य का लिखा है जो अनाज का व्यापार करता था। इसमें कोवलन और माधवी के संगम से उत्पन्न कन्या के साहसिक जीवन का वर्णन है। परन्तु यह महाकाव्य धार्मिक अधिक है, साहित्यिक कम। इसका रचनाकार बौद्ध था।

दोनों महाकाव्यों की प्रस्तावना में कहा गया है कि दोनों के लेखक ईसा की दूसरी सदी में राज करने वाले चेर राजा सेनगुट्ट्वन के मित्र और समकालीन थे। ये दोनों महाकाव्य उतने प्राचीन तो नहीं हो सकते हैं, क्योंकि इनमें ईसा की छठी सदी तक के तमिलों के सामाजिक और आर्थिक जीवन का आभास मिलता है।

इसमें संदेह नहीं है कि तमिल लोग ईसवी सन् के आरम्भ के पहले से ही लिखना जानते थे। ब्राह्मी लिपि में लिखे ७५ से भी अधिक छोटे-छोटे अभिलेख प्राकृतिक गुफाओं में, विशेषकर मदुरै क्षेत्र में पाये गये हैं। इन में प्राकृत शब्दों से मिश्रित तमिल भाषा का प्राचीनतम् स्वरूप दिखायी देता है। ये ईसा पूर्व दूसरी या पहली शताब्दी के हैं, जब जैन और बौद्ध धर्मप्रचारकों का इन क्षेत्रों में प्रवेश हुआ। कई स्थलों के उत्खननों में अभिलिखित मृद्भाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। इनसे ज्ञात होता है कि ईसा सन् के प्रारम्भ में तमिल भाषा कैसी थी। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि संगम साहित्य के प्रचुर अंश ईसा सन् की आरम्भिक सदियों में लिखे गये, हालाँकि उन का अंतिम संकलन ६०० ई० के आसपास हुआ।

इस प्रकार संगम साहित्य सुदूर दक्षिण के आरंभिक इतिहास और संस्कृति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है।

कला और स्थापत्य

संगम साहित्य से तमिल प्रदेश में कला एवं स्थापत्य के विकास के विषय में भी कुछ जानकारी प्राप्त होती है। धनी वर्गों के घर ईंट और चूने से बनाये जाते थे, जबकि निर्धन वर्ग फूस की झोंपड़ियों में रहता था। दीवारों पर सुंदर भित्ति चित्र बनाये जाते थे। नगर निर्माण सुनियोजित ढंग से होता था। नगर-निर्माण की प्रचलित परम्पराओं का पालन किया जाता था। नगरों की सुरक्षा के लिये प्राचीर का निर्माण किया जाता था। उनके चारों ओर गहरी खाइयाँ खोदी जाती थीं।

पुहार (कवेरीपट्टिनम) नगर का विशद वर्णन संगम साहित्य में मिलता है। नगर दो भागों में बसा हुआ था। समुद्रतटीय भाग में व्यापारियों, कारीगरों तथा यवनों की बस्तियाँ, दुकानें एवं बाजार थे। नगर के भीतरी भाग में सुंदर, आलीशान, उद्यानों से घिरे महल सदृश मकान थे।

व्यापार के द्वारा प्राप्त धन से पुहार के निवासियों का जीवन अत्यन्त विलासपूर्ण हो गया था। उनके भवन भव्य अलंकृत एवं बहुमंजिले बन गये थे। इन भवनों में ऊपर तो धनाढ्य व्यापारी सपरिवार रहता था और नीचे की मंजिल का उपयोग व्यापार के लिए होता था।

वातायनों, शयनागारों, गलियारों, तोरण द्वारों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाता था। मंदिर एवं बलि वेदियाँ भी बनायी जाती थीं। हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ यहाँ बौद्ध तथा जैन स्मारक भी स्थित थे।

ललित कलाओं और दस्तकारी के विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया।

तथाकथित अंधकार युग

संगम युग के अंत के बाद एक लंबे अंधकार युग का विवरण मिलता है। क्योंकि संगमकाल के बाद की लगभग तीन शताब्दियों की अवधि के सम्बन्घ में हमें बहुत कम ज्ञात है। जब छठी शताब्दी ई० के अंत में राजनीतिक मंच पर सभ्यता का एक रहस्यमय और सर्वव्यापी शत्रु कलभ्र (Kalabhras) नामक आततायी शासक (evil rulers) आये। कलभ्रों (Kalabhras) ने स्थापित राजनीतिक व्यवस्था को बिगाड़ दिया। यह राजनीतिक अव्यवस्था पांड्य, पल्लव और बादामी के चालुक्यों के हाथों कलभ्रों की हार से ही बहाल सकी थी।

कलभ्रों के बारे में हमें अभी तक कोई निश्चित जानकारी नहीं है। कुछ बौद्ध पुस्तकों से हमें कलभ्रकुल के एक निश्चित अकुताविक्कांत (Accutavikkanta) के बारे में पता चलता है, जिसके शासनकाल के दौरान चोल देश में बौद्ध मठों और लेखकों को बहुत संरक्षण मिला था।

तमिल की बाद की साहित्यिक परम्परा के अनुसार उसने तीन तमिल राजाओं – चेर, चोल और पाण्ड्य – को बंदी बनाकर रखा था। दसवीं शताब्दी ई० के तमिल के जैन व्याकरणविद् अमितसागर (Amitasagara) ने उनके बारे में कुछ गीत उद्धृत किये हैं। सम्भवतया अकुता /अकुताविक्कांत (Accuta / Accutavikkanta) स्वयं बौद्ध थे, और कलभ्रों द्वारा की गयी राजनीतिक क्रांति धार्मिक विरोध के कारण हुई थी।

किसी भी स्थिति में कलभ्रों की कलि-अरसर (kali-arasar) अर्थात् दुष्ट राजाओं के रूप में निंदा की जाती है। कलभ्रों ने कई अधिराजों को उखाड़ फेंका और ब्रह्मदेय अधिकारों को समाप्त कर दिया। इन अतिक्रमणकारियों और उनके द्वारा कब्जा की गई भूमि के लोगों के बीच कोई प्रेम नहीं था। इन अतिक्रमणकारियों / घुसपैठियों (interlopers) का अतिक्रमण की गयी भूमि पर अधिवासित लोगों से कोई लगाव नहीं था।

इस पराजय में चोल तमिल भूमि से लगभग पूरी तरह से लुप्त से हो गये, हालाँकि उनकी एक शाखा का पता रायलसीमा में अवधि के अंत में लगाया जा सकता है, तेलुगु-चोडा, जिनके राज्य का उल्लेख सातवीं शताब्दी ई. में युआन च्वांग द्वारा किया गया है।

इस विनाश के साथ ही चोल तमिल भूमि से लगभग पूरी तरह से लुप्त हो गये। हालाँकि उनकी एक शाखा का पता इस काल के अंत में रायलसीमा में लगाया जा सकता है, जो कि तेलुगु-चोड (Telugu-Choda) थे। इनके राज्य का उल्लेख ह्वेनसांग / युआन च्वांग (Hiuen-Tsang / Yuan-Chwang) ने सातवीं शताब्दी ई० में किया है।

कालभ्रों के कारण विद्यमान व्यवस्था में आयी उथल-पुथल से चेर भी अप्रभावित नहीं रहे। हालाँकि इस अवधि में इस क्षेत्र के बारे में केरलोत्पत्ति (Keralotpatti) और केरलमहात्म्यम (Keralamahatmyam) की परवर्ती किंवदंतियों के अतिरिक्त बहुत कम साक्ष्य उपलब्ध हैं। इसके अनुसार, भूमि के शासकों को पड़ोसी देशों से आयातित करना पड़ा। इन नवागन्तुक शासकों ने पेरुमल (Perumal) की उपाधि धारण की थी। सम्भवतया वैष्णव संत कुलशेखर आलवर (Kulasekhara Alvar) इन पेरुमलों में से एक थे। अपनी कविताओं में कुलशेखर आलवर ने कोंगु नाडु /  कोंगु मंडलम् (Kongu Nadu / Kongu Mandalam) और कोल्ली पहाड़ियाँ (Kolli hills) के अतिरिक्त चेर, चोल और पांड्य पर भी सम्प्रभुता का दावा किया है।

कुलशेखर आलवर के समय का निर्धारण किसी भी निश्चितता के साथ नहीं किया जा सकता है। हालाँकि उनके लिये छठी शताब्दी के प्रारम्भ का समय सुझाया गया है। इसका आधार यह है कि बाद की अवधि में पाण्ड्य और चोल पर शासन करने का कुलशेखर आलवर का दावा विश्वसनीय नहीं हो सकता है। हालाँकि यह अधिक सम्भावना है कि यह दावा केवल अतिशयोक्ति हो और कुलशेखर आलवर बहुत बाद के समय नौवीं शताब्दी ई० में रहे हों।

इस तथाकथित अंधकार काल में बौद्ध और जैन धर्म के उत्थान से में महान साहित्यिक रचनायें हुई। अठारह लघु कृतियों (पदिनेनकीलकक्कु) के अंतर्गत वर्गीकृत अधिकांश रचनाएँ इसी अवधि की हैं। साथ ही शिलप्पादिकारम, मणिमेकलै, जीवक चिंतामणि और अन्य रचनाएँ भी इसी अवधि के दौरान लिखी गयी। इन लेखकों को विधर्मी संप्रदायों (heretical’ sects) का समर्थक बताया गया है। प्रसंगवश उत्तर भारतीय शास्त्रकारों ने मौर्योत्तर काल का वर्णन अव्यवस्था व अराजकता के रूप में किया है जिसे वे (शास्त्रकार) कलिकाल कहते हैं। कुछ-कुछ परिस्थितियों में समानता थी, कम से कम धर्म के क्षेत्र में। क्योंकि दोनों क्षेत्रों में बौद्ध और जैन धर्म प्रगतिशील विचार के कारण प्रभावी हो चले थे और उन्हें राजकीय संरक्षण भी मिल रहा था। जबकि ब्राह्मण धर्म विचारों के कारण अप्रगतिशील हो चला था। ऐसे में आवश्यकता थी शंकराचार्य और भक्त कवि व संतों की। शंकराचार्य ने वैदिक धर्म को नवजीवन दिया जबकि भक्ति ने विराट आन्दोलन के रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपने आगोश में ले लिया।

निष्कर्ष

इस प्रकार संगम साहित्य के अध्ययन से हमें प्राचीन तमिल क्षेत्र के समाज तथा संस्कृति की अच्छी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इसमें सामान्य मनुष्यों के दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या का जितना सूक्ष्म विवरण दिया गया है वह बहुत कम ग्रन्थों में प्राप्त होता है। नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार यह साहित्य तमिल देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों, जनता के विचारों और आदर्शों तथा उनको जीवित रखने वाली संस्थाओं और कार्यों का पूर्ण तथा वास्तविक विवरण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है।

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