संगमकालीन सामाजिक दशा

भूमिका

संगम साहित्य के अध्ययन से हम तत्कालीन तमिल क्षेत्र की सामाजिक दशा के विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। इस समय तक सुदूर दक्षिण का आर्यीकरण हो चुका था। यह साहित्य हमारे सामने आर्य तथा द्रविड़ संस्कृतियों के समन्वय का चित्र उपस्थित करता है अथवा दूसरे शब्दों में संगमकाल की एक सामाजिक विशेषता है— उत्तरी और दक्षिणी भारत के सांस्कृतिक तत्त्वों का समन्वय। उत्तर भारतीय समाज की कई परम्पराओं को इस काल के तमिलवासियों ने अपना लिया था।

सामाजिक वर्गीकरण

तमिल समाज उत्तर भारतीय समाज की भाँति वर्गभेद पर आधारित था। सर्वोपरि स्थान राजा का ही होता था जो अपने अधिकारियों एवं कर्मचारियों के साथ समस्त सुख सुविधाओं का उपभोग करता था। संगमकाल में अनेक वर्गों का विवरण मिलता है परन्तु दक्षिण भारत में उत्तर भारत के समान चार वर्णों की व्यवस्था नहीं थी। संगमकाल में शासकवर्ग और ब्राह्मणों का उदय हुआ परन्तु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य स्मरणीय है कि जिस तरह तत्कालीन उत्तरी भारत में जाति व्यवस्था थी और कालान्तर में तमिल समाज में कठोर जाति व्यवस्था होने वाली थी वैसी कठोर व्यवस्था हम संगमकालीन समाज में नहीं पाते हैं।

संगमकालीन कवि विभिन्न सामाजिक समूहों का विशद विवरण देते हैं, यथा —

  • उत्तरी सीमांत पर मालवार (Malavar) जनजाति रहती थी। येअशिक्षित थे। ये उत्तरी सीमांत क्षेत्रों में लूटपाट करके जीवन निर्वाह करके थे।
  • शिकारियों के लिये ईयिनार (Eyinar) शब्द मिलता है। ईयिनार की झोपड़ियाँ धनुष और ढालों से भरी होती थीं।
  • चरवाहे (Shepherds) घृत व मक्खन का उत्पादान करते और बेचते थे।
  • सुशिक्षित वेदपाठी ब्राह्मण यजमानों के लिये अनुष्ठान करते थे। ध्यातव्य है कि ये ब्राह्मण मांस भक्षण करते और ताड़ी पीते थे, परन्तु तत्कालीन समाज में इसे बुरा नहीं माना जाता था।
  • पुरनानुरू (Purananuru) की एक कविता में केवल ४ जातियों (कुडी ⁄ Kudi) का उल्लेख मिलता है, यथा —
    • तुडियन (Tudian)
    • पनन (Panan)
    • परैयन (Paraiyan)
    • कदंबन (Kadamban)
  • पुरनानुरू (Purananuru) के अनुसार पूजा के योग्य केवल वीरक्कल अर्थात् वीर-प्रस्तर (Hero-stone) था। यह वीरक्कल अर्थात् वीर-प्रस्तर (Hero-stone) देवता का प्रतीक माना जाता था। इसको युद्ध भूमि में मारे गये योद्धाओं के सम्मान में लगाया जाता था।
  • यह माना जाता है कि पुरनानुरू (Purananuru) में उल्लिखित जाति व्यवस्था और वीर-प्रस्तर पूजा बहुत प्राचीन है, सम्भवतया आर्य प्रभाव पहुँचने से पहले।
  • वीरक्कल अर्थात् वीर-प्रस्तर (Hero-stone) को स्थापित करके उसकी पूजा की प्रथा संगमकाल में और उसके बाद भी चलती रही।
  • टोंडी (Tondi), मुशिरी (Musiri), पुहार (Puhar) इत्यादि पत्तनों पर विदेशी जातियाँ (यवन) रहते थे। ये यहाँ व्यापार के उद्देश्य से आते थे।
  • हालाँकि विदेशी जातियाँ (यवन) तमिल नहीं बोल सकतीं थीं, फिरभी यवन मदुरै में महल-रक्षक (palace guards) व मार्ग-रक्षक (street police) के रूप में कार्य करते थे।
  • यवन जो वस्तुऐं व्यापार के लिए भारत में लाते थे उसमें विशेष प्रकार के दीपक (intricately designed lamp) बोतलबंद मदिरा ( bottled wine) विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

ब्राह्मण

सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों का समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान था। वस्तुतः तमिल प्रदेश में ब्राह्मणों का उदय सर्वप्रथम संगम काल में ही हुआ। समाज में वैदिक यज्ञों का प्रचलन था। बड़े राजा तथा अन्य कुलीन लोग यज्ञ कराते थे। इस कारण ब्राह्मणों / पुरोहितों को अत्यधिक सम्मानित स्थान मिला। ब्राह्मणों की हत्या को सबसे बड़ा अपराध माना जाता था। इस काल में अनेक ब्राह्मण कवि भी थे जिन्होंने राजाओं की प्रशंसा में कवितायें लिखीं। इनके बदले में उन्हें राज्य की ओर से अच्छे पुरस्कार प्राप्त होते थे। परम्परा के अनुसार चोल राजा करिकाल ने एक ब्राह्मण कवि (रुद्रनकन्नार, कृति पट्टिनप्पालै) को १६ लाख स्वर्ण मुद्रायें प्रदान किया था। धन के अतिरिक्त उन्हें भूमि, अश्व, रथ, हाथी आदि भी दान में दिये जाते थे। ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना इस युग के राजा का परम कर्त्तव्य था। अध्ययन-अध्यापन तथा यज्ञ करना (यजन) ब्राह्मणों के प्रमुख कर्त्तव्य होते थे। संगम साहित्य में उनकी दिनचर्या का विवरण दिया गया है। वे मृगचर्म धारण करते थे तथा वेदाध्ययन में लगे रहते थे। उनके रहने की अलग बस्ती होती थी। परन्तु संगम युग के ब्राह्मण मांस भक्षण करते थे तथा सुरा व ताड़ी पीते थे। तत्कालीन समाज इन कार्यों को निन्दनीय नहीं समझता था।

क्षत्रिय और वैश्य

संगम साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि क्षत्रिय और वैश्य वर्ण संगम काल में स्थापित हो चुके थे। परन्तु योद्धा वर्ग (क्षत्रिय) का राजव्यवस्था और समाज का महत्त्वपूर्ण अंग थे। सेनाध्यक्षों या सेनानायकों (captains) को औपचारिक अनुष्ठान द्वारा ‘एनाडि’ (enadi) की उपाधि दी जाती थी। परन्तु वैश्य वर्ण के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट विचार प्राप्त नहीं होता है। शासक वर्ग को अरसर (Arasar) कहा जाता था।

वेल्लार

ब्राह्मणों के पश्चात् संगम युगीन समाज में वेल्लार या वेलालर या वल्लाल वर्ग (vellalas) का स्थान था। इतिहासकार राम शरण शर्मा के अनुसार वेल्लाल संगम समाज की चौथी जाति थी। संगम साहित्य के अनुसार उनका मुख्य उद्यम कृषि-कर्म था।

इस संदर्भ में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि ‘वेल्वि’ का अर्थ ‘यज्ञ’ माना गया है। आर० चम्पकलक्ष्मी का यह सुझाव सारगर्भित प्रतीत होता है कि ‘वेल्वि’ का अर्थ कोई रीति-विधान हो सकता है, जिसका समापन भूमि अधिकारों से सम्बन्धित था और इसी अर्थ का विस्तार करके यज्ञ-जैसी धार्मिक रीतियाँ भी उसमें सम्मिलित कर ली गयीं। यदि संगम कृतियों में चोल, चेर एवं पांड्य नरेशों द्वारा वैदिक यज्ञों के अनुष्ठान का वर्णन मिलता है तो वह इसी बाद वाले दृष्टिकोण से। यह उल्लेखनीय है कि किसी भी बेलिर (प्रमुख) द्वारा वैदिक यज्ञों के अनुष्ठान का उल्लेख नहीं मिलता।

—साँकलिया, शर्मा, प्रादि (सं.), ‘प्राचीन भारत’, पृ० १५

कृषि में संलग्न लोगों को संगम रचनाओं में सामान्यतः ‘वेलालर’ या ‘वेल्लार’ (Vellalar) कहा गया है और उनके प्रमुखों को ‘बेलिर’। इतिहासकारों के अनुसार ‘काले और लाल मृद्भाण्डों’ तथा ‘लोहे’ के अविर्भाव का श्रेय इन ‘वेलिर’ लोगों को दिया जा सकता है। इन लोगों ने खेती में कई तकनीकों से इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया; जैसे— सिंचाई तथा लोहे के प्रयोग। पुरातात्त्विक अवशेषों से ज्ञात होता है कि उनके व्यवस्थापन का मूलाधार कृषि रही है, जो तालाबों से सिंचाई करके बड़े स्तर पर विकसित कर ली गयी थी। ‘वेलिर’ कृषि भूमि के बड़े भाग के स्वामी थे।

‘वेलालर’ को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है; एक, धनाढ्य कृषक और दूसरे निर्धन कृषक।

  • धनी कृषक युद्ध में भाग लेते थे तथा उन्हें ही महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक (नागरिक और सैन्य) पदों पर नियुक्त किया जाता था। इनका वैवाहिक सम्बन्ध राजपरिवार में होता था। ये युद्ध तथा शिकार में भी राजा के साथ जाते थे और प्रायः राजकीय भोजों में सम्मिलित होते थे। यह शासक वर्ग के एक जाति के रूप में विद्यमान था। सेना के नायकों के रूप में उनकी उपाधि ‘एनाड़ी’ या ‘एनाडी’ या ‘इनाडी’ (Enadi) होती थी। चोल राज्य में इनकी उपाधि ‘वेल’ (Vel) व ‘अरशु’ (Arashu) और पाण्ड्य राज्य में इनकी उपाधि ‘कविदी’ (Kavidi) होती थी। ये धनी कृषक स्वयं कृषि नहीं करते थे अपितु मजदूरों से कृषि कार्य करवाते थे।
  • निर्धन किसान वे थे जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी और वे धनी किसानों के खेतों पर मजदूरी करते थे। इनके लिए कडैसियर (Kadaisiyar) शब्द का प्रयोग मिलता है। इनकी स्थित करीब-करीब दासों जैसी थी परन्तु यह उल्लेखनीय है कि संगमकाल में दास प्रथा अप्रचलित थी।

व्यापारी

संगम साहित्य में व्यापारी वर्ग का भी उल्लेख मिलता है जिसे वेनिगर कहा गया है। परन्तु इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी। उन्हें शूद्रों की कोटि में रखा गया था।

अन्य वर्ग

इसके अतिरिक्त समाज में कुछ अन्य वर्ग भी थे—

  • कुछ शिल्पकार या कारीगर का खेतिहर मजदूर से विभेदकरण नहीं हो पाया था। अर्थात् के शिल्पकार और कृषि मजदूर दोनों थे। उदाहरणार्थ पारियार (Pariyars) लोग कृषि मजदूर भी थे और साथ ही वे पशुचर्म से चटाई बनाते थे।
  • पुलैयन (Pulaiyans) नामक दस्तकारों के एक वर्ग का उल्लेख मिलता है जो रस्सी तथा पशुचर्म की सहायता से चारपाई एवं चटाई बनाने का कार्य करते थे।
  • चरवाहों तथा शिकारियों का अलग वर्ग होता था। चरवाहे सामान्य जन के उपभोग के लिये दही-मक्खन-घृत तैयार करते तथा उनकी बिक्री करते थे।
  • शिकारियों (बधिकों) की एनियर नामक एक जाति का उल्लेख मिलता है। ये लोग अपने पास धनुष, बाण, ढाल आदि हथियार रखते थे।
  • तमिल देश के उत्तर में मलवर नामक जाति निवास करती थी। इस जाति के लोग अशिक्षित थे जिनका पेशा लूट-पाट (डाका) करना था।
  • इस समय बन्दरगाहों के पास कुछ विदेशी जातियाँ हिन्द-यवन, अरब आदि भी बस गयी थीं।
  • पट्टिनाप्पलै (Pattinappalai) में पुहार के परदवार (Paradavar) जाति का विवरण मिलता है। यह मछुआरों की जाति थी।

सामाजिक असमानता

  • विभिन्न वर्गों के जीवन स्तर में भारी विषमता थी।
  • कुछ लोग अत्यन्त निर्धन थे और किसी प्रकार अपना भरण-पोषण कर पाते थे।
  • राजसभा से जनजातीय गायक मण्डली भी जुड़ी होती थी। जनजाति के गायकों की आर्थिक दशा अत्यंत दयनीय थी। वे बहुत निर्धन होते थे। उसके विपरीत राजा और उसके सेना नायक ‘एनाड़ी’ (Enadi) लोगों के पास प्रभूत धन-सम्पत्ति होती थी। अपार धन के कारण इन लोगों में मदिरापान, विषय-वासना तथा मनोरंजन के रीति-रिवाजों का बड़ा सजीव चित्रण संगमकालीन कवियों ने किया है।
  • धनी लोगों के मकान पक्की ईटों के बनते थे जबकि निर्धन लोग मिट्टी तथा घास-फूस की झोपड़ियों में रहते थे।
  • नगरों में धनी व्यापारी बहुमंजिले मकान बनवाते थे।
  • सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि संगमकालीन समाज में ब्राह्मण तथा शासक वर्ग का ही बोलबाला था।
  • इस युग की आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों को समान रूप से सुलभ नहीं हो सका था।
  • परन्तु संगम साहित्य में दास प्रथा के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता है।
  • विभिन्न सामाजिक वर्गों में समरसता मिलती है। सभी अपनी स्थिति के अनुसार कार्य करते थे तथा सामाजिक विषमता के विरुद्ध कहीं भी विरोध की भावना नहीं मिलती।
  • परन्तु यह बात अस्पष्ट है कि सामाजिक विषमता के पोषण व बनाये रखने में धर्म और अनुष्ठानों का आश्रय लिया जाता था अथवा नहीं।

घरों, महलों व झोपड़ियों का विवरण

  • धनी वर्ग ईंट और गारे के घरों में रहता था। दीवारों पर अक्सर दैवीय आकृतियों और पशु-पक्षियों के दृश्य बने होते थे।
  • राजकीय आवास (महल) के चारों ओर सुंदर ढंग से बनाये गये उद्यान / बगीचे होते थे।
  • घरों और महलों का निर्माण शास्त्रों में बताे गये नियमों के अनुसार किया जाता था। यह ध्यान रखा जाता था कि शुभ समय पर गृह-निर्माण का आरम्भ हो।
  • नक्कीरर कृत नेदुनलवदाई (Nedunalvadai) पत्तुपात्तु संग्रह का भाग है। नेदुनलवदाई (Nedunalvadai) में नेदुंजेलियन (Nedunjeliyan) के महल में महिलाओं के कक्षों, उनकी दीवारों व स्तंभों और यवनों द्वारा निर्मित कलात्मक दीपकों का विस्तृत विवरण है; इसके बाद महल के शयनकक्ष के साज-सामान, उसके हाथीदांत के पलंग और उत्कृष्ट गद्दों का विवरण है। इस तरह उन प्रारम्भिक दिनों में भी उच्च जीवन में परिष्कृत सुख-साधनों (refined luxuries) की कोई कमी नहीं थी।
  • सामान्यजन कस्बों और गाँवों के साधारण इमारतों (humbler structures) में रहते थे। बाहरी जातियाँ या जाति-च्युति (out-castes) लोग और वनवासी जनजातियाँ झोपड़ियों में रहती थीं। इसके वर्णन कविताओं में भी किया गया है।
  • पुलैयन (Pulaiyans) द्वारा रस्सी से चारपाई बनाना और जानवरों की खाल से बनी चटाई पर लेटना उल्लेखनीय है।

विवाह

  • ‘तोल्काप्पियम्’ नामक तमिल व्याकरणिक रचना से ज्ञात होता है कि संगम काल में विवाह को संस्कार के रूप में मान्यता प्रदान की गयी थी। इसमें हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों (ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच) का उल्लेख मिलता है।
  • प्रणय विवाहों को मान्यता दी गयी थी जिसे ‘पंचतिणै’ कहा गया है। इसे प्रेम विवाह या गन्धर्व विवाह कह सकते हैं।
  • एकपक्षीय प्रणय को ‘कैक्किणै’ कहा गया है। इसमें हम असुर, राक्षस और पैशाच को शामिल कर सकते हैं।
  • औचित्यहीन प्रणय को ‘पेरून्दिणै’ कहा गया है। इसमें प्रजापत्य, ब्रह्म, दैव और आर्ष विवाह को शामिल कर सकते हैं। तमिल समाज में सर्वाधिक मान्यता इसी की थी|
  • इस तरह इन तीन वर्गों — पंचतिणै, कैक्किणै और पेरुन्दिणै में आठों विवाह को समाहित कर लिया गया था।

महिलाओं की स्थिति

  • इस युग में स्त्रियों की दशा अच्छी थी।
  • तमिल साहित्य में नच्चेलियर तथा ओवेयर जैसी कवयित्रियों की चर्चा हुई जिससे स्पष्ट है कि इस काल की स्त्रियाँ सुशिक्षिता होती थीं।
  • पत्नी को बहुत सम्मान दिया जाता था और उसे परिवार का प्रकाश माना जाता था।
  • परन्तु विधवाओं की दशा अच्छी नहीं थी। उनके लिये अनेक कड़े नियमों का विधान किया गया था। उनके बाल मुड़ा दिये जाते थे तथा उनके लिये बिस्तर का प्रयोग, आभूषण पहनना, अच्छा भोजन करना आदि वर्जित था। इस कारण कई विधवाओं ने मर जाना ही अच्छा समझा और इस प्रकार समाज में सती प्रथा का प्रचलन हुआ।
  • सती प्रथा का पर्याप्त उल्लेख मिलता है परन्तु यह सार्वभौमिक (universal) प्रथा नहीं थी। यद्यपि समाज सती के साहस और समर्पण को प्रशंसनीय मानता था, तथापि इस प्रथा को न तो प्रोत्साहित किया गया और न ही लागू किया गया। आदर्श पत्नी वह मानी जाती थी जो अपने पति की चिता में उतनी ही सहजता से प्रवेश करती थी, जितनी सहजता से ठंडे पानी से स्नान किया जाता है।
  • विधवाओं का मुंडन एक पुरानी तमिल प्रथा थी। यह प्रथा आर्यों के प्रभाव से पहले प्रचलित थी और बाद में भी चलती रही। (नीलकंठ शास्त्री) ∗ 

“The shaving of widows’s heads, like the tying of the tali at weddings, was an old Tamil custom. this custom existed before Aryan influnce and continued in later times.”  — A HISTORY OF SOUTH INDIA, P. 130

  • कुछ महिलायें वेश्यावृत्ति तथा नृत्य-गान द्वारा अपना जीवन-यापन किया करती थीं। संगम साहित्य में वेश्याओं तथा नर्तकियों का उल्लेख मिलता है।
  • नर्तकियाँ नृत्य के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं कर सकती थीं।
  • समाज में व्यभिचार को अपराध माना जाता था।
  • इस काल में पुरुषों का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था और स्त्री-समाज की दशा अच्छी नहीं प्रतीत होती। विधवाओं के सादा जीवन का वर्णन प्राप्त होता है तथा सती प्रथा का प्रचलन हुआ। निश्चित ही ये विवरण स्त्रियों की दुर्बल होती स्थिति का परिचायक है। वहीं दूसरी ओर महिलाओं को अपने पतियों के साथ कभी-कभी युद्ध में जाने और संगम साहित्यों में कवयित्री के रूप में पाते हैं जो उनकी अच्छी स्थिति का परिचायक है।

भोजन

  • संगम युग के तमिल शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे।
  • चावल उनका मुख्य खाद्यान्न था।
  • चावल को दूध में मिलाकर सांभर नामक खाद्यान्न तैयार किया जाता था।
  • मांसाहार का खूब प्रचलन था। यहाँ तक कि ब्राह्मण भी मांस खाते थे। भेंड़, सुअर आदि के मांस खाये जाते थे। कहीं-कहीं मछलियाँ खाये जाने का भी उल्लेख मिलता है।
  • मदिरा तथा ताड़ी उनके प्रिय पेय थे।
  • लोग पान, सुपाड़ी के भी शौकीन थे। इस सम्बन्ध में नीलकंठ शास्त्री का कहना है कि — “चूने और सुपारी के साथ पान खाने की आदत शायद संगमकाल के बाद में प्रचलित हुई।”

“The eating of beetle-leaves with lime and areca-nut perhaps came into use only after the Sangam age.” — A HISTORY OF SOUTH INDIA, P. 130.

मनोरंजन

  • संगीत, नृत्य तथा विविध प्रकार के वाद्यों द्वारा लोग मनोरंजन किया करते थे।
  • नर्तक, नर्तकियों तथा गायकों के दल घूम-घूम कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। संगम साहित्य में इन्हें ‘पाणर’ (Panar) तथा ‘विडैलियर’ (Viraliyar) कहा गया है।
  • मनोरंजन के लिए गायकों की मंडली भी राजसभा से सम्बद्ध होती थी। इन गायक मंडलियों में से कुछ जनजाति के लोक गीतों को प्रस्तुत करने वाली थीं।
  • कवि लोग भी कविताओं के पाठ द्वारा लोगों का मन बहलाव किया करते थे। कवियों को पुरस्कार भी दिये जाते थे।
  • समय-समय पर अनेक खेल तथा समारोहों का भी आयोजन किया जाता था।
  • पासा खेलना भी मनोरंजन का एक प्रिय साधन था।
  • मुक्केबाजी, कुश्ती, कुत्तों, खरगोशों आदि के शिकार द्वारा लोग मनोरंजन करते थे।
  • लोग अतिथियों का सत्कार करते थे तथा उसके सम्मान में बड़ी-बड़ी दावतों का आयोजन किया जाता था।
  • महिलाएँ और लड़कियाँ घरों की छतों पर गेंद और कटकरंज / मोलुक्का-बीन्स (molucca-beans) से खेलती थीं।
  • सामहिक स्नान और उद्यानभोजों (picnic parties), बच्चों के साथ मंगम (mangam)और उनके खिलौने धनुष और बाण का भी कविताओं में आकस्मिक उल्लेख मिलता है। लड़के और लड़कियाँ एक साथ तालाबों और नदियों में स्नान थे।
  • पट्टिनाप्पलाई (Pattinappalai) में पुहार के परदवार (Paradavar) मछुआरों के जीवन का जीवंत विवरण दिया गया है, जिसमें उनके कुछ अवकाशकालीन मनोरंजन भी शामिल हैं।
  • राजा लोग प्रायः प्रत्येक अवसर पर बड़ी-बड़ी दावतों का आयोजन करते थे जिनमें कवियों को भी आमंत्रित किया जाता था। ऐसी दावतों में परोसे जाने वाले व्यंजनों तथा पेय पदार्थों का विवरण प्राप्त होता है।
  • ऐसे ही एक समारोह / दावत के सम्बन्ध में एक कवि अपने संरक्षक से कहता है ये यहाँ इस लिये आया था ताकि हम लोग उबाले जाने के बाद ठंडे किये गये तथा साफ की गयी रुई के समान कोमल रसीले मांस खण्डों को खा सकें और बड़े बर्तनों में साथ-साथ ताड़ी पी सके।
  • इसी प्रकार करिकाल के दरबार में एक दावत के अवसर पर परोसे गये व्यंजनों का विवरण देते हुए एक अन्य कवि हमें बताता है कि यहाँ जवाहरात से सुसज्जित मुस्कराती माहिलायें स्वर्ण पात्रों में मदिरा उड़ेलती थीं तथा समूचे पकाये गये पशुओं के मांस, विशेषतः उस सुअर का मांस जिसे अपनी मादा से कई दिनों तक अलग रखा गया था और खूब खिला-पिलाकर इस अवसर के लिये मोटा-ताजा दिया गया था, दूध में तर आप्पम (हलवा), कछुवे का मांस एवं विशेष प्रकार की मछलियाँ स्वादिष्ट व्यंजन होती थीं। पेय पदार्थों में विशेष उल्लेख हरे बोतलों में रखी गयी विदेशी मदिरा, मुन्नीर (जो कच्चे नारियल, ताड़ी के जूस तथा गन्ने के जूस को मिलाकर बनता था), तथा बाँस के पीपे में भरकर जमीन के भीतर गाड़कर पकायी गयी ताड़ी आदि का मिलता है।

संगीत, नृत्य और वाद्ययंत्र

  • संगीत और नृत्य की कलाएँ अत्यधिक विकसित और लोकप्रिय थीं।
  • वात्स्यायन कृत कामसूत्र की तरह मणिमेकलै (संगमकाल के बाद की रचना) से संकेत मिलता है कि राजकीय नर्तकियाँ व गणिकाएँ (hetaerae) कई वर्षों तक चलने वाले नियमित प्रशिक्षण पाठ्यक्रम से गुजरती थीं जिसमें दरबारी नृत्य, लोकप्रिय नृत्य, गायन, वीणा और बाँसुरी बजाना, पाककला, इत्र, चित्रकारी, पुष्प-कला और कई अन्य ललित कलाएँ शामिल थीं।
  • ललित कलाओं में प्रवीण नर्तकी प्रायः पत्नी की गंभीर प्रतिद्वंद्वी होती थी। शिलप्पदिकारम् का पूरा कथानक इसी प्रतिद्वंद्विता पर आधारित है जिसमें कोवलन (नायक), कण्णगी (नायिका) और माधवी (नर्तकी) की प्रसिद्ध कहानी है।
  • करिकाल को ‘संगीत के सात सुरों में सिद्धहस्त’ (‘the master of the seven notes of music’) बताया गया है।
  • प्रत्येक राग / धुन (Tune) के लिए उचित समय और स्थान के बारे में परम्पराएँ विकसित हो गई थीं।
  • कभी-कभी रात्रि में मशालों की रोशनी में विराली लोग (Viralis) नृत्य करते थे जिसमें वे हाथों से विशेष नृत्य-मुद्राओं को करते थे जिसका उल्लेख भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र में मिलता है।
  • मिश्रित नृत्य (Mixed dances) परम्परा भी प्रचलित थी जिसमें पुरुष और महिलाएँ भाग लेते थे।
  • इस क्षेत्र में स्वदेशी या स्थानीय नृत्य विधाओं (शैलियों) को उत्तरी भारत की नृत्य विधाओं (शैलियों) को एक साथ लाने और संश्लेषित करने का एक सचेत और व्यवस्थित प्रयास किया गया था, जिसका परिणाम शिलप्पदिकारम में पूरी तरह से परिलक्षित होता है। इस स्वदेशी या स्थानीय नृत्य विधा (शैली) को हम देशी नृत्य शैली या स्थानीय पूर्व-आर्य नृत्य शैली (indigenous pre-Aryan dance mode or style) भी कह सकते हैं ।

विभिन्न प्रकार के संगीत वाद्ययंत्रों (Musical instruments) का वर्णन मिलता है —

  • कई प्रकार के यल या याल (Yal) – वीणा (Lute) जैसा एक तार वाला वाद्य यंत्र।
  • विभिन्न प्रकार के ढोल व नगाड़े (drums)।
  • बाँसुरी (flute) को ‘लाल आग से बने काले छिद्रों वाली पाइप’ (the ‘pipe with dark holes made by red fire) के रूप में विचित्र रूप से वर्णित किया गया है।

साज-सज्जा

  • बाल काटने और ड्रेस बनाने के लिए कैंची (scissors) और सुई (needle) जैसे औजारों का प्रयोग किया जाता था।
  • केश पोमेड (तगरम /tagaram) भी प्रयोग किया जाता था।

कवि और संरक्षक

कुछ कवि राजसभा सें रहते और वे राजाओं और सामन्तों के मित्र और सलाहकार हो जाते थे। जबकि अन्य कुछ कवि संरक्षण की आशा में एक राजसभा से दूसरे राजसभा में जाते थे। आजीवन चलनेवाले ऐसे संरक्षण और स्थायी मित्रता के कुछ उदाहरण अधोलिखित हैं —

संरक्षक (Patron) कवि (Poet)
पारी (Pari) कपिलार (Kapilar)
कोप्परुनजोलन (Kopperunjolan) पिसिर अंडैयार (Pisir Andaiyar)
आदिगैमान अंजी (Adigaiman Anji) औवैयार (Auvaiyar)

उपहार देने में आनाकानी करनेवाले अनुदार व कंजूस संरक्षकों या राजकुमारों की कवि अपनी कविताओं में कभी-कभी निंदा भी करते थे। एक कवि ने एक राजकुमार द्वारा भेजे गए उपहार को इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसने सामान्य साक्षात्कार (usual interview) नहीं दिया था।

कवियों को दिए जाने वाले उपहारों में सामान्यतया स्वर्ण कमल और लिली (Golden lotuses & lilies), भूमि, रथ, घोड़े और नकदी शामिल थे। यद्यपि उपहार ग्रहीता कवियों ने इसका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है, जैसे — करिकाल के उपहार के रूप में पत्तिनप्पालै के कवि रुद्रनकन्नार को १६ लाख स्वर्ण मुद्राएँ देना निश्चय ही अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। एक अन्य उदाहरण में हाथी के उपहार का उल्लेख मिलता है।

पनार और विरलियार

दरबार संगीतकारों और नर्तक-नृत्यांगनाओं की घूमती टोलियों से जीवंत बना रहता था। इन टोलियों में अपने संगीत की धुन पर नृत्य करती नृत्यांगनाएँ भी होती थीं। इन कलाकारों को पणार (Panar) और विरलियार / विडलियर (Viraliyar) के नाम से जाना जाता था। येअपने साथ विभिन्न प्रकार के विचित्र वाद्ययंत्र (quaint instruments) लेकर समूहों में देश भर में घूमते रहते थे। ऐसा लगता है कि ये आदिम जनजातीय (primitive tribal) समूह  के प्रतिनिधि थे जिन्होंने प्राचीन या आदिम लोक-गीतों (folk-songs ) और नृत्य को संरक्षित रखा हुआ था।

आदिम जनजातीयों की संख्या और भयानक गरीबी कविताओं का आवर्ती विषय बनती है। सभी विवरणों से ज्ञात होता है कि उनकी आय से निर्वाहमात्र (hand to mouth) ही हो पाता था। अगला भोजन कहाँ होगा इसका कोई ठिकाना नहीं होता था।

एक उदार संरक्षक से मिलने के बाद उनके अनुभवों का एक विनोदी विवरण कुछ इस तरह मिलता है —

“चोल राजा ने हम पर बहुत अधिक धन (के रूप में) बढ़िया और महगे आभूषणों की वर्षा की, जो हमारी स्थिति के अनुकूल नहीं थे; यह देखकर, मेरे रिश्तेदारों के बड़े समूह में से कुछ, जो केवल घोर गरीबी में रहते थे, ने अपने कानों में उंगलियों के लिए बने आभूषण पहन लिए अन्य लोगों ने फिर अपनी कमर को गले में पहने जाने वाले आभूषणों से सजाया; इस प्रकार, लाल-मुँह वाले वानरों के विशाल समूह की तरह, जो उस दिन (सीता के) सुंदर आभूषणों में चमक रहे थे, जब शक्तिशाली तेज रथ वाले राक्षस ने राम की पत्नी सीता को हर लिया था।”

(‘The Chola king showered on us great quantities of wealth in (the form of) fine and costly jewels not suited to our condition; on seeing this, some among the large group of my kinsfolk, used (only) to abject poverty, put on their ears ornaments meant for the fingers; some wore on their fingers things meant for the ear; others put on their necks jewels meant for the waist; others again adorned their waists with ornaments properly worn on the neck; in this wise, like the great group of red-faced monkeys which shone in the fine jewels (of Sita) that they discovered on the ground, on the day when the mighty rakshasa carried off Sita, the wife of Rama of the swift chariot, we became the cause of endless laughter.’) — A HISTORY OF INDIA, P. 132.

इस आधार पर साहित्यिक परंपरा में कविता की एक श्रेणी विकसित हुई जिसे अरुप्पडै (Arruppadai) कहा गया। अरुप्पडै (Arruppadai) का अर्थ ‘मार्ग पर लाना’ (setting one on the path) है। इस साहित्यिक विधा में एक कवि पणन या विरलि (Panan or Virali) को अपने संरक्षक से प्राप्त उपहारों के विषय में बताकर अपने दोस्तों को उस संरक्षक से मिलने के लिए प्रेरित करते थे।

जादू-टोने व विश्वास

लोकप्रिय विश्वास व रीति-रिवाजों पर मूल्यवान संकेत कविताओं में बिखरे पड़े हैं।

  • भूत-प्रेत, जादू-टोने, शकुन, ज्योतिषियों की भविष्यवाणियों आदि में लोगों का विश्वास था।
  • एक गीत में ‘हाथी के रूप वाले सेय’ (Sey of the elephant look) के मृत्यु की पूर्वसूचना / पूर्वाभास (portent) का उल्लेख है।
  • बिखरे बालों वाली महिला को अपशकुन माना जाता था।
  • ज्योतिषियों तथा शकुन विचारकों का समाज में सम्मानित स्थान था तथा वे जनता से काफी धन ऐंठते थे।
  • बच्चों को अशुभ शक्तियों से बचाने के लिये ताबीजें (amulets) पहनायी जाती थीं।
  • ऐसे अनुष्ठान किये जाते थे जिनसे पे ((pey) अर्थात् राक्षसों के उत्पात को रोकने, वर्षा लाने और अन्य वांछित परिणाम प्राप्त करने की अपेक्षा की जाती थी।
  • वट वृक्ष (banyan tree) को देवताओं का निवास माना जाता था।
  • ऐसा माना जाता था कि ग्रहण (eclipses) साँपों द्वारा सूर्य और चंद्रमा को निगलने के कारण होता है।
  • गरीबों को सामूहिक भोजन (Mass feeding ) कराया जाता था।

कौवे का महत्त्व

  • इस काल के लोग कौवे को शुभ पक्षी मानते थे जो अतिथियों के आगमन की सूचना देता था। विशेषकर अनुपस्थित पति का अपनी अकेली पत्नी के पास वापस लौटने की सूचना कौवे देते थे।
  • भोजन के पूर्व कौवे के खाने के लिये कुछ सामग्री घर के बाहर रख देने की प्रथा थी।
  • कौवे नाविकों को सही दिशा का बोध भी कराते थे। इस कारण सागर के मध्य चलने वाले जहाजों के साथ उन्हें ले जाया जाता था।

मृतक संस्कार

संगम साहित्य से उस युग की मृतक संस्कार विधियों की भी कुछ जानकारी मिलती है—

  • अग्निदाह तथा समाधिकरण दोनों ही विधियों द्वारा शवों को विसर्जित किया जाता था।
    • शव अग्निदाह का प्रचलन इसी काल में प्रारम्भ हुई।
    • समाधिकरण की प्रथा महापाषाणकाल से चली आ रही थी।
  • शवदाह के बाद अस्थियों को कलश अथवा मंजूषा में रखकर समाधिस्थ भी करते थे।
  • कभी-कभी शवों को खुले रूप में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था।
  • मृतकों का धान अर्पित किया जाता था।
  • एच० डी० संकालिया का विचार है कि महापाषाणयुगीन संस्कृतियों में प्रचलित अनेक प्रथायें संगम काल में भी विद्यमान थीं।
  • उल्लेखनीय है कि दक्षिण की महापाषाणिक समाधियों की खुदाई में शवों के साथ-साथ दैनिक उपयोग की कई वस्तुयें; जैसे— बर्तन, आभूषण, औजार, हथियार आदि-गड़ी हुई मिलती हैं। यह लोकोत्तर जीवन में विश्वास का सूचक है। अतः कहा जा सकता है कि संगम काल में भी यह प्रथा प्रचलित रही होगी।
  • इस युग में समाधियों के स्थान पर पत्थर गाड़ने की प्रथा थी। इन्हें ‘वीरगल’ अथवा ‘वीरप्रस्तर’ कहा जाता था।
  • वीरगल की पूजा भी होती थी। ये प्रायः युद्ध में वीरगति प्राप्त सैनिकों के सम्मान में खड़े किये जाते थे। वीरों की पाषाण प्रतिमायें बनाने और उनके समक्ष नियमित पूजा करने की प्रथा पूरे संगम युग तथा उसके बाद भी कई सदियों तक चलती रही।
  • स्त्रियाँ दर्भा  (darbha) अर्थात् घास के बिछावन पर अपने मृत पतियों की आत्मा की शान्ति के लिये चावल का पिण्ड-दान करती थीं।  पुलैयान (pulaiyan) इस अंतिम संस्कार की रस्म में एक भूमिका निभाता था।

निष्कर्ष

संगमकालीन समाज एक तरह से “व्यावसायिक समूहों” (occupational groups) में संगठित था। एक व्यवसाय समूह के लोग साथ-साथ रहते थे जिसे हम टोला कह सकते हैं। कई टोले मिलकर एक गाँव बनाते थे। यह व्यवस्था ऐसी थी जिसमें एक ही गाँव में समान व्यवसाय करनेवाले एक टोले में दूसरे समान व्यवसायिक टोले से कुछ ही दूरी पर अधिवासित होते थे। इनका सामाजिक जीवन सामाजिक एकजुटता की व्यापक भावना से ओतप्रोत और नियंत्रित होता था। सामाजिक और आर्थिक स्थिति में असमानता होते हुए भी तत्कालीन समाज में विद्रोह या असंतोष के साक्ष्य नहीं मिलते अथवा बहुत कम मिलते हैं। अतः संगमकालीन समाज में “सामाजिक समरसता”  (social solidarity) व्याप्त थी।

FAQ

प्रश्न — संगमकालीन समाजिक व्यावस्था पर टिप्पणी लिखिये।

(Write a comment on the social system of the Sangam period.)

संगमकालीन समाज पर उत्तर भारतीय समाज का प्रभाव दिखायी पड़ता है। यद्यपि संगम समाज जाति व्यवस्था पर आधारित नहीं था। हाँ संगम समाज में हमें वर्ग व्यवस्था अवश्य दिखायी देती है। पुरुनानरू ग्रन्थ में उत्तर भारत की तरह ४ वर्ग तुड़ियन, पाड़ियन (पाड़न), पड़ैयन और कड़म्बन का उल्लेख प्राप्त होता है। समाज सामान्यतया चार वर्गों में विभाजित था—

  • शुड्डुम वर्ग : ब्राह्मण व बुद्धिजीवी वर्ग — उत्तर भारत के विपरीत दक्षिण भरतीय ब्राह्मणों के खानपान पर कोई प्रतिबंध नहीं था। वे मांसाहार, मदिरापान व ताड़ी पीते थे। उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बसनेवाले ब्राह्मणों को वेदमार कहा गया है। ये राजा के सलाहकार की भूमिका का भी निर्वहन करते थे।
  • अरसर वर्ग : शासक और योद्धा वर्ग — योद्धा वर्ग में कुछ ऐसी जनजातीयाँ भी शामिल थीं जिनका मुख्य कार्य पशुहरण, लूटपाट और डाका डालना था। ऐसी ही एक जनजाति थी मरवा जिनमें वेत्ची (गोहरण) की प्रथा प्रचलित थी। मलवर डाका डालने का कार्य करते थे।
  • बेनिगर वर्ग : व्यापारी वर्ग — यह व्यापारियों का वर्ग था। इस वर्ग में छोटे व्यवसायियों को चेति वर्ग कहा जाता था। कुछ ऐसे भी व्यवसायी इस वर्ग में शामिल थे जिनकी सामाजिक स्थिति निम्न थी; जैसे—
    • पुलैयन — रस्सी की चारपाई बनानेवाले
    • एनियर — शिकार करनेवाले
    • परदवर — मछुवारे
  • वेल्लाल वर्ग : कृषक वर्ग — इसमें प्रकार के कृषक सम्मिलित थे—
    • वेल्लालर— ये सम्पन्न कृषक थे। इनके प्रमुख को वेलिर कहा जाता था। ये लोग सरकारी पदों और सैनिकों के रूप में नियुक्त होते थे। इस वर्ग का विवाह अरसर वर्ग में होता था। चोल राज्य में वेल्लालर वर्ग की उपाधि वेल और अरशु जबकि पाण्ड्य राज्य में कविदी थी।
    • कडैसियर— कृषक मजदूर

कुछ कारीगर खेत मजदूर वर्ग के थे। परियार लोग खेतिहर मजदूर थे, लेकिन पशु की खाल या चर्म का काम करते थे और चटाई के रूप में उसका इस्तेमाल करते थे। इस युग में गुप्तचरों की ओर्रार कहा जाता था। इस युग की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता दास प्रथा का अभाव था।

विवाह

उत्तर भारत की भाँति दक्षिण भारत में भी विवाह को संस्कार की मान्यता प्राप्त थी। तोलकाप्पियम् में ८ प्रकार के विवाहों का उल्लेख प्राप्त होता है। सामान्यतः विवाह में लड़कियों की उम्र १२ वर्ष एवं लड़कों की १८ वर्ष की होती थी। इन अष्ट-विवाहों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है—

  • पंचतिणै – प्रेम विवाह (गन्धर्व विवाह) – स्त्री तथा पुरूष के सहज प्रणय तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओं को पंचतिणै कहा गया है।
  • कैक्किणै- एक पक्षीय प्रेम (असुर, राक्षस, पैशाच)
  • पेरून्दिणै- अन्य चार विवाह; प्रजापत्य, आर्ष, ब्रह्म और दैव। ये विवाह संगम युग में सर्वाधिक प्रचलित थे।

महिलाओं की स्थिति

  • समाज में विधवा विवाह एवं पुनर्विवाह का प्रचलन था।
  • सती प्रथा का प्रचलन धा।
  • बहुत सी कवयित्री स्त्रियों का भी उल्लेख मिलता है; जैसे— ओबैयर तथा नच्चेलियर।
  • समाज में विधवाओं की स्थिति हेय थी, उसे कई यातनाओं का सामना करना पड़ता था जिसमें बाल कटाना, आभूषण त्यागना, समारोहों में भाग न लेना आदि प्रमुख थे।
  • दक्षिण भारत में चेर शासक लाल शेनगुट्टवन के काल में पत्तिनी पूजा प्रारम्भ हुई।
  • गणिकाओं को परतियर कहा जाता था।
  • नर्तक-नर्तकियों तथा गायकों के दल घूम-घूम कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। इन्हें वाणर तथा विडैलियर कहा जाता था।

भोजन

संगम समाज में शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनो प्रचलित था। ताड़ी तथा मदिरा का प्रयोग लोग करते थे। प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता था। गुप्तकाल की भाँति भोजन के बाद पान-सुपारी खाने का प्रचलन था।

जादू-टोने व अंधविश्वास

समाज में कुछ अन्ध-विश्वास भी व्याप्त थे; जैसे—

  • खुले बाल वाली स्त्री को बुरा समझा जाता था।
  • कौवे के बोलने को अतिथि के आगमन की सूचना समझा जाता था।
  • ज्योतिषी लोगों का भाग्य बताता था।
  • जादू-टोना, ताबीज आदि का प्रचलन था।
  • बरगद के पेड़ को देवताओं का निवास स्थान माना जाता था।
  • सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को एक दूसरे का निगलना मानते थे।

सामाजिक विषमता

संगम युग में सुस्पष्ट समाजिक विषमताएँ व्याप्त थीं—

  • धनी लोग ईटों के मकानों में रहते थे।
  • नगरों में धनी व्यापारी लोग अपने घर के ऊपरी तल्ले में रहते थे।
  • गरीब लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे।

संगमकालीन शासन व्यवस्था (Sangam Age Governance System)

संगमकालीन आर्थिक दशा

संगमकालीन धर्म, आस्था व विश्वास: संक्षिप्त विश्लेषण (Religion, faith and belief of the Sangam age: Brief analysis)

संगमकाल (The Sangam Age)

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