भूमिका
मौर्योत्तर काल में सुदूर दक्षिण में संगमकालीन तीन प्रमुख राज्यों का विवरण हमें मिलता है जिनकी सभ्यता और संस्कृति उत्तर भारत से प्रभावित होते हुए भी भिन्न थी| इस दृष्टि से संगमकालीन शासन व्यवस्था भी भिन्न नहीं थी। राज्यों का ‘कुल-संघ’ होना, उत्तराधिकार युद्ध, शासन में ब्राह्मणों की नियुक्ति, चक्रवर्ती अवधारणा आदि संगमकालीन शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ थीं।
संगमकालीन शासन व्ययस्था की प्रमुख विशेषताएँ
कुल-संघ
संगमकालीन राज्यों के उद्भव के सन्दर्भ में एक रोचक तथ्य यह है कि ये राज्य ‘कुल-संघ’ प्रतीत होते हैं। इस प्रकार के राज्य उत्तरी भारत में भी थे जिन्हें आचार्य चाणक्य ने ‘कुल संघ’ कहा है। ऐसे राज्य में कुल के विभिन्न परिवारों के वयस्क पुरुष राज्य-कार्य में भागीदारी करते हैं। संगम साहित्य में किसी महिला शासिका का उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु यहीं पर यह उल्लेख कर देना प्रासंगिक है कि मेगस्थनीज ने पाण्ड्य राज्य का विवरण देते समय वहाँ के शासन सत्ता को एक स्त्री के हाथ में बताया है।
उत्तराधिकार
संगम युग में उत्तराधिकार का नियम अस्पष्ट था। अतः इसके लिये युद्ध हुआ करते थे। कभी-कभी एक साथ कई शासक शासन करते थे। राजा के बाद युवराज का स्थान था। संगमकालीन कवियों ने लंबे गृहयुद्ध का वर्णन किया है।
चोल राज्य में उत्तराधिकार के युद्ध में ९ राजशासकों की मृत्यु हो गयी थी। इस युद्ध में शेनगुट्टवन (चेर) नामक राजा ने हस्तक्षेप किया था।
चोलों के एक अन्य गृहयुद्ध का विवरण हमें मिलता है| इसका उल्लेख कोवुर किलार (Kovur Kilar)और अन्य कवियों ने किया है। यह युद्ध नलंगिल्ली / शेत्सेन्नी (Nalangilli / Shetcenni) और नेदुंगिल्ली (Nedungilli) के मध्य हुआ था। आक्रमण के समय नेदुंगिल्ली ने स्वयं को अवूर के दुर्ग में बंद कर लिया जिसे नलंगिल्ली के छोटे भाई मावलत्तन (Mavalattan) ने घेर रखा था। एक कविता में कोवुर किलर कहते हैं कि अगर वह खुद को पुण्यवान (virtuous) कहता है, तो नेदुंगिल्ली को किले के द्वार खोल देने चाहिए या अगर वह खुद को वीर (brave) कहता है तो उसे खुले में आकर लड़ना चाहिए। उसने दोनों में से कुछ भी नहीं किया, बल्कि कायरतापूर्ण तरीके से खुद को बंद करके अपने घिरे हुए नगर के लोगों को अकल्पनीय दुख पहुँचाया। उरैयूर की घेराबंदी से सम्बन्धित एक अन्य कविता स्वयं नलंगिल्ली द्वारा लिखी गयी है, जिसमें एक बार फिर नेदुंगिल्ली को घेरा गया है। यह कविता अधिक विचारशील और निष्पक्ष है। यह दोनों राजकुमारों को संबोधित है और उन्हें विनाशकारी युद्ध रोकने के लिए प्रोत्साहित करती है, क्योंकि जो भी हारेगा वह चोल होगा, और अंत तक युद्ध का अंत अनिवार्य रूप से एक पक्ष की हार से होगा। एक तीसरी कविता कुछ हद तक एक विचित्र स्थिति (piquant situation) से सम्बन्धित है। एक लांडत्तन / लांडट्टन (Landattan) नामक कवि जो नालंगिल्ली की ओर से उरैयूर गया था, उस पर नेदुंगिल्ली ने जासूसी करने का संदेह किया। जब लांडत्तन / लांडट्टन मारा जाने वाला था, कोवुर किलर ने कवियों के हानिरहित और ईमानदार स्वभाव पर अपने गीत के साथ हस्तक्षेप किया और उसे बचा लिया। एक अन्य कविता उरैयूर के राजपरिवार में आंतरिक मतभेदों का संकेत देती है। वास्तव में इस युग में गृह युद्ध चोल साम्राज्य के लिए अभिशाप था|
संगमकालीन कवियों द्वारा अपनी रचनाओं में राजवंश के अनेक शासकों का नाम भरना भी यह प्रमाणित करता है कि राजवंश के सभी सदस्यों की शासन-सत्ता में कुछ-न-कुछ भागीदारी होती थी। इसका संकेत पदित्रप्पात्तु (Paditruppattu) में चेर शासकों के शासनकाल में भी मिलता है। उदियनजेरल (चेर) के पश्चात् कुल तीन पीढ़ियों में होने वाले पाँच शासकों के शासन करने का उल्लेख मिलता है। कुल मिलाकर इन लोगों ने २०९ वर्षों तक शासन किया था। साथ ही उसी वंश की अन्य शाखा के तीन शासकों ने ५८ वर्ष तक शासन किया। इससे ऐसा लगता है कि इन शासकों ने क्रमिक उत्तराधिकार के अनुसार शासन नहीं किया वरन् एक साथ ही सत्ता में भागीदार बने रहे।
तमिल ग्रंथो में युवराज को कोमहन तथा अन्य पुत्रों को इलैगो कहा गया है।
राजा
संगम साहित्य से इस युग के राज्य परस्पर संघर्षरत होने का विवरण प्राप्त होता है। उनकी शासन-व्यवस्था का जो कुछ भी विवरण हमें प्राप्त होता है उसके आधार पर यह पता लगता है कि इस युग में वंशानुगत राजतन्त्र (Hereditary Monarchy) का ही प्रचलन था। इसमें राजा की शक्ति सर्वोच्च होती थी। उसके अधिकार तथा शक्तियाँ असीमित थीं। इस प्रकार सिद्धान्त रूप में वह निरंकुश था।
परन्तु व्यावहारिक तौर पर उसकी निरंकुशता पर कुछ रोक लगायी गयी थी। उसे परम्परागत नियमों का पालन करना पड़ता था। उसके बुद्धिमान मन्त्री, दरबारी कविगण और मित्र उसे निरंकुश होने से बचाते थे। साथ ही बुद्धिमानों के सिद्धांत (maxims of wise) निरंकुशता को नियंत्रित करते थे। मंत्रियों को अमाइच्चान अथवा अमाइच्चार कहा जाता था।
राज्य की गतिविधियों का क्षेत्र सीमित था। ऐसे सामाज में जहाँ रीति-रिवाज के प्रति सम्मान का भाव हो और उसकी जड़े समाज में गहरी हों तो ऐसे में निरंकुश शासक को भी उसका सम्मान करना पड़ता है। वस्तुतः संगम साहित्य से जो चित्र उभरता है उसके अनुसार प्रजा संतुष्ट और राजनिष्ठ थी। प्रजा अपने राजा पर गर्व करती थी।
राजा बहुत सी उपाधियाँ धारण करते थे, जैसे— को, मन्नम, वेन्दन, कारवेन, इरैयन, अधिराज आदि। ‘को’ उपाधि देवताओं एवं राजा दोनों के लिए प्रयुक्त की जाती थी।
राजा का जन्म दिवस प्रतिवर्ष मनाया जाता था और इस दिन को पैरूनल (महान दिवस) कहा जाता था।
संगमकालीन कवियों ने राजा के सदाचरण एवं नैतिकता पर बल दिया है। उसके नैतिक चरित्र का प्रजा अनुकरण करती थी। राजा प्रजाहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देता था। राजा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अपनी प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार करे, उसके सुख-दुःख का सदा ध्यान रखे और सभी वर्गों के प्रति निष्पक्ष रहे। संगम साहित्य में उसे धर्म, साहित्य, कला आदि को संरक्षण प्रदान करने की सलाह दी गयी है।
राजा केवल राज्य प्रमुख और युद्ध का नेता ही नहीं था वरन् समाज में भी इसको उच्च स्थान (प्रथम) प्राप्त था। राजा कला व साहित्य को संरक्षण प्रदान करते थे। उसका द्वार सभी के लिए खुले रहते थे। राजा कलाकारों और कवियों को सम्मानित करते थे। उदाहरणार्थ करिकाल ने पट्टिनप्पालै के रचयिता रुदनकन्नार को १६ लाख स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया।
शासन कार्यों में राजा ब्राह्मणों की सभा से सहायता प्राप्त करता था। राजा जिनकी सहायता से शासन करता उसे ‘सुर्रम’ (Surram) कहा गया है और राजकार्य के सहयोगियों में ब्राह्मणों की अग्रणी भूमिका होती थी। चूँकि इस युग में शासक ब्राह्मण मतानुयायी थे अतः उन्होंने ब्राह्मणों को प्रशासन में सर्वोच्च अधिकार एवं सुविधायें प्रदान की थीं। इस काल के कवियों ने भी राजा को यह सलाह दी है कि वह ब्राह्मणों को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखे।
राजधानी में एक राजसभा होती थी जिसे नालवै (Nalavai) कहा जाता था। नालवै में राजा प्रजा के कष्टों को सुनता और न्याय का कार्य सम्पन्न करता था। राजकीय कार्य की कठोर प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए एक कवि राजा की तुलना एक बलिष्ठ वृषभ से करता है जो नमक से लदे छकड़े / बैलगाड़ी को समतल मैदानी भाग से उच्च भूमि की ओर खींचता है। एक अन्य कवि के अनुसार राजा का महत्त्व लोगों के जीवन में चावल और पानी से अधिक है।
राजस्व के आय का बड़ा स्रोत कृषि से आता था। जनता में यह परम्परागत धारणा थी कि योग्य राजा ऋतुओं को नियमित रखने में सक्षम होता है।
राजा में विजेता (विजिगीषु) होने की आकांक्षा होती थी और इसके लिए वे युद्ध भी करते थे। सम्पूर्ण भारत की विजय (दिग्विजय) करना भारतीय शासकों के लिए सदैव ही एक आदर्श रहा है। पुरनानुरू (Purnanuru) में सम्मिलित एक कविता में चक्रवर्ती राजा की चर्चा मिलती है। इसी कृति में सम्मिलित एक अन्य कविता में राजा की मृत्यु के बाद उसके साथी द्वारा आत्महत्या करने का उल्लेख मिलता है। कालान्तर में इस परंपरा का व्यापक प्रचलन मिलता है जिसे सम्मान का साथी (Compnion of Honour), वेल्लैकर (Velaikkarar), गरुड़ (Garudas), सहवासी (Sahvasis), आपट्टुदविगल (Apattudavigal) आदि नामों से जाना गया।
७ राजाओं के विरुद्ध विजय का अर्थ था — एक श्रेष्ठ स्थिति (Superior Status)। ७ राजाओं का विजेता पराजित राजाओं के मुकुट से माला धारण करके अपनी स्थिति को दर्शाता था और वह एक उपाधि धारण करता था। चेर शासकों में यह उपाधि थी — अधिराज।
राजा प्रतिदिन अपनी सभा (नालवै) में प्रजा के कष्टों को सुनता था और न्याय कार्य सम्पन्न करता था। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय राजा की सभा (मनरम्) ही होती थी। सभा के लिए मनरम् के साथ पोडियाल शब्द का भी उल्लेख मिलता है। मनरम् का शाब्दिक अर्थ है नगर जबकि पोडियाल का शाब्दिक अर्थ है सार्वजनिक स्थल।
उरैयूर के मनरम् में मलैयमान के लड़कों के अपराध की न्यायिक जाँच के बाद उन्हें मृत्युदंड दिया गया, परन्तु किलार के हस्तक्षेप के कारण उन्हें मुक्त कर दिया गया। सभासदों से यह अपेक्षित था कि न्याय-विषयक विवादों में वे निष्पक्ष रहें। सभा में राजा अन्य प्रशासकीय विषयों पर भी परामर्श करता होगा। संगम काल के बाद की रचना ‘कुरल’ में सभा को सभी कार्यों को संपादित करने वाली साधारण परिषद् कहा गया है। प्रशासन तथा न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत बंदीगृह भी स्थापित थे।
मंत्री या अधिकारी
राजा के कार्य में सहायता के लिए निम्न संस्थाओं का उल्लेख मिलता है—
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प्रशासनिक इकाइयाँ
सम्पूर्ण राज्य को मण्डलम् कहा जाता था, जैसे— चोल मण्डलम्, चेरमण्डलम् आदि। मण्डलम् के बाद नाडु, नाडु के बाद उर होता था। उर नगर होता था जिसमें एक बड़ा ग्राम (पेरूर), एक छोटा ग्राम (शिरूर) अथवा एक प्राचीन ग्राम (मुदूर) आदि का विभिन्न रुपों में वर्णन मिलता है। पत्तिनम् तटीय नगर का नाम था और पुहार बन्दरगाह क्षेत्र था। चेरि किसी नगर का उपनगर या गाँव का नाम होता था जबकि पड़ोसी क्षेत्र को पक्कम् कहा जाता था। सलाई मुख्य मार्ग था और तेरू किसी नगर की एक गली होती थी।
केन्द्र प्रान्तों में बँटे थे जिसे ‘मंडलम्’ कहा गया है। मंडलम् कमिश्नरियों में बँटे थे जिसे वलनाडु या कोट्टम् कहा गया है। वलनाडु आगे नाडु (जिला) में और नाडु आगे कुर्रम (तहसील) में विभाजित थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम (उर) थी।
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स्थानीय प्रशासन का विकास
संगम युग में स्थानीय शासन को भी महत्त्व दिया गया था। नगर तथा ग्राम में अलग-अलग सभायें होती थीं। नगर सभा का मुख्य कार्य शासक को न्याय के कार्य में सहायता देना तथा उसे परामर्श देना होता था।
ग्रामीण जीवन की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए मनरम् नामक सभा होती थी। प्रत्येक ग्राम में सामाजिक क्रिया-कलापों, खेल-कूद, मनोरंजन के कार्यक्रमों इत्यादि के लिए एक विशेष स्थल होता था। ऐसे स्थानों का कभी-कभी पेड़ों के नीचे होने का विवरण भी प्राप्त होता है। इस प्रकार के ग्रामीण आयोजनों में राजनीतिक-विमर्श तथा निर्णय भी होते होंगे जिनका आगे चलकर ग्रामीण स्वशासन की संस्था के रूप में विकास हुआ। राजा, पंचायतों के परामर्श से ही गाँवों के लिये कानून बनाता था। कालान्तर में हम देखते हैं कि चोल राज्य में स्थानीय शासन एक अत्यन्त विशिष्ट तत्त्व हो गया।
राजस्व प्रशासन
चूँकि संगम युग में कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य दोनों ही अत्यन्त विकसित अवस्था में थे, अतः राज्य की आय का मुख्य साधन इन्हीं पर लगाये जाने वाले कर थे।
राजस्व का सबसे प्रमुख स्रोत भूमिकर था। भूमिकर नकद तथा अनाज दोनों रूपों में अदा किया जाता था। इसे कुडमै या इरय कहा जाता था। कृषि उत्पादन में राज्य का कितना हिस्सा होता था इसका स्पष्ट कहीं उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। संभवतया यह उपज का छठाँ भाग होता था परन्तु कभी-कभी इसे बढ़ाया भी जा सकता था। भूमि-माप की इकाइयाँ ‘मा’ (Ma) तथा ‘वेलि’ (Veli) थीं।
पथकर और सीमा शुल्क को ‘उल्गू’ या ‘शुंगम’ कहा जाता था। सामान्यतया राजा को दिया जाने वाला शुल्क कुडमै या पादु या पादुबाडु के नाम से जाना जाता था। बलपूर्वक प्राप्त किए जाने वाले उपहार को ईरादू कहा जाता था।
व्यापारियों से सीमा शुल्क (Custom duty) तथा चुंगी वसूल की जाती थी और इससे भी राज्य को प्रभूत आय होती थी। इस काल की रचना पत्तिनप्पाले (Pattinappalai) में कावेरीपत्तन (पुहार) में कार्यरत सीमा शुल्क अधिकारियों (Customs officials) के कार्यों का विवरण दिया गया है। अनधिकृत व्यापार (Smuggling) की रोकथाम के लिए सड़कों द्वारा रातदिन निगरानी रखी जाती थी। एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने वाले माल पर आन्तरिक पारगमन शुल्क (Internal Transit Duty) लगता था राजस्व का एक अन्य स्रोत था। राजधानी की गलियों व सड़कों पर हाथों में मशाल लिए चौकीदार (Watchmen) रातभर पहरा देते थे और यह जेल प्रशासन प्रणाली का एक हिस्सा थी। इस युग के शासक युद्धों में लूट का धन (Booty) भी प्राप्त करते थे। यह भी राजकोष की वृद्धि का एक प्रमुख साधन बन गया था।
कर अदा करने वाला क्षेत्र बरियमवारि नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र से कर वसूलने वाला अधिकारी वरियार कहलाता था। प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री ने कुम्बकोणम (Kumbakonam) में चोलों के कोषागार का भी वर्णन किया है।
राजस्व का एक बड़ा हिस्सा सेना पर व्यय होता था। ललित कलाओं के विकास पर भी धन व्यय होता था। अनेक राजा कवियों एवं विद्वानों को पारितोषिक और पुरस्कार देते थे। कहा जाता है कि चोल राजा करिकाल ने पत्तिनप्पालै (पट्टिनप्पालै) के रचयिता रुद्रनकन्नार को १६ लाख स्वर्णमुद्राएँ प्रदान की थी|
न्याय व्यवस्था
संगम साहित्य से तत्कालीन न्याय-व्यवस्था के विषय में भी कुछ बातें ज्ञात होती हैं। राजा देश का प्रधान न्यायाधीश तथा सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई का सर्वोच्च न्यायालय होता था। राजा के न्यायालय को मंरम् या मनरम (Manram) या सभा कहा जाता था। इसमें राजा के अतिरिक्त अन्य सदस्य भी होते थे। न्यायाधीशों से निष्पक्ष होकर न्याय करने की आशा की जाती थी। इस काल का दण्ड-विधान अत्यन्त कठोर था। मृत्युदण्ड, कारावास, आर्थिक जुर्माना आदि विविध रूपों में दण्ड प्रदान किये जाते थे। अपराधी को कभी-कभी भीषण यातनायें भी दी जाती थीं। चोरी तथा व्यभिचार के अपराध में मृत्युदण्ड दिया जाता था। झूठी गवाही देने पर जीभ काट ली जाती थी।
मलैयामान (Malaiyaman) के पुत्रों पर अभियोग चलाकर सजा सुनायी गयी परन्तु कोवुर किलार की मध्यस्थता के कारण उरैयूर की मनरम ने उन्हें मुक्त कर दिया। पोट्टियार (Pottiyar) उस मनरम को देखना सहन नहीं कर सका जिसने उसके मित्र कोप्परुन्जोलन (Kopperunjolan) को मृत्युदण्ड दिया था।
हम अनुमान लगा सकते हैं कि राजा सामान्य परामर्श के लिए भी सभा का उपयोग करता होगा। कुरल (संगमकाल के बाद की रचना) सभा को सभी मामलों की सुनवायी वाली मानता है।
सैन्य व्यवस्था
संगम युग के शासक युद्ध प्रेमी थे। वे चक्रवर्ती सम्राट बनने की आकांक्षा रखते थे। युद्ध में वीरगति पाना अत्यन्त शुभ का कार्य माना जाता था। राजा की सेना में पेशेवर सैनिक ही होते थे। राजा व्यक्तिगत रूप से युद्धों में जाता तथा सेना का संचालन करता था।
सेना के कप्तान या नायक या सेनापति की उपाधि ‘एनाडि’ या ‘एनाडी’ या ‘इनाडी’ (Enadi) थी। एनाडी का सम्मान या उपाधि एक औपचारिक समारोह में राजा द्वारा चुने हुए सेनानायक को प्रदान करता था और इसके तहत उसे एक अँगूठी व उच्च सैन्य पदवी का प्रतीक चिह्न प्रदान किया जाता था। कभी-कभी स्त्रियाँ भी युद्ध में अपने पतियों के साथ जाती थीं।
सेना चतुरंगिणी होती थी जिसमें अश्व (Cavalry), गज, रथ (Chariot) तथा पैदल सिपाही सम्मिलित थे। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि रथ में घोड़े के स्थान पर वृषभ (बैल) लगाये जाते थे। साथ ही संगमकालीन शासकों के पास नौसेना का भी उल्लेख मिलता है|
अस्त्र-शस्त्र में तलवार, धनुष-वाण, बाघम्बर के कवच, बर्छे, भाले, ढालों का उल्लेख मिलता है। सैनिक चमड़े के जूते पहनते थे।
नगाड़ा (Drum) तथा शंख (Conch) बजाकर सैनिकों को बुलाया जाता था। सैनिक शिविर लगाये जाते थे। राजकुल और सरदारों के परिवारों में शांतिपूर्ण मृत्यु को हेय दृष्टि से देखा जाता था। व्यक्ति युद्ध क्षेत्र के बाहर मृत्यु प्राप्त व्यक्ति के शरीर पर तलवार से प्रहार कर उनके लिए स्वर्ग की कामना की जाती थी। यह प्रथा वीरस्वर्ग (Warrors’s Heaven) के नाम से जानी जाती थी।
युद्ध-भूमि में वीरगति पाने वाले सैनिकों के सम्मान में पत्थर की मूर्ति बनवाये जाने की और प्रस्तर स्तम्भ (स्मृति-प्रस्तर) स्थापित कराने की प्रथा थी जिसपर उनके नाम और उनकी उपलब्धियों को अंकित किया जाता था। इन स्तम्भों को वीरगल या वीरक्कल (Hero-Stone) कहा जाता था और इसकी पूजा की जाती थी। घायल सैनिकों की सावधानी से देखभाल की जाती, उनके घाव साफ किये जाते और आश्यकानुसार टाँके लगाये जाते थे।
प्रायः राजा युद्ध में सेना का नेतृत्व स्वयं करता था। वह विजय प्राप्त करने पर सैनिकों के साथ खुशी मनाता था। यदि राजा वीरगति को प्राप्त हो जाये या घायल हो जाये तो सेना संघर्ष छोड़कर हार मान लेती थी।
सेना सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ कलावली (Kalavali) नामक ग्रंथ से प्राप्त होती हैं। पदाति और अश्वारोही पैरों की सुरक्षा के लिये चमड़े की पनही (leather sandals) पहनते थे। कुलीन (nobel)और राजकुमार (prince) गजारोहण करते थे। सेनापति / सेनानायक (commander) ध्वजयुक्त रथ (pennoned chariot) पर आरूढ़ होते थे। जिन महिलाओं के पति वीरगति को प्राप्त हो जाते वे मैदान में विलाप करती थीं। इससे स्पष्ट होता है कि कुलीन महिलाएँ कभी-कभी अपने पतियों के साथ युद्ध क्षेत्र में जाती थीं।
मरवा नामक जनजाति अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण सेना में विशेष स्थान पाती थी।
राजा अपने आवास की रक्षा के लिये सशस्त्र महिलाओं को तैनात करता था। सड़कों पर सैनिकों के पहरे की व्यवस्था होती थी। समय जानने के लिये जलघड़ी का प्रयोग किया जाता था। विजेता शासक विजित प्रदेशों की प्रजा के साथ अत्यन्त क्रूरता का व्यवहार करते थे। विजित प्रदेशों को लूटने के पश्चात् वहाँ की फसलों को नष्ट कर दिया जाता था। इस प्रकार का क्रूर आचरण संभवतः भविष्य की विद्रोही प्रवृत्ति को दबाने के उद्देश्य से किया जाता होगा।
संगमकालीन राजव्यवस्था में जनजातीय तत्त्व
संगमकालीन राजतंत्र विषयक इस विवेचन में राजनीतिक जीवन पर जनजातीय तत्त्वों के प्रभाव का विश्लेषण करना समीचीन होगा। एम० जी० एस० नारायणन ने संगम साहित्यों का गहन अध्ययन करके जनजातीय रीति-रिवाजों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। संगम कवियों ने मरवा नामक जनजातियों में प्रचलित वेत्ची / वेत्थी (गोग्रहण या गोहरण) प्रथा के अंतर्गत पशुओं की चोरी या लूट का यथेष्ट विवरण दिया है। कहीं तो निंदा का स्वर मुखरित करते हुए इन पशुहरण करने वाले योद्धाओं की तुलना मांसाहारी गिद्धों से की गयी है और कहीं लूट में उनकी वीरता की उन्मुक्त प्रशंसा के विवरण प्राप्त होते हैं। पहाड़ के ढलानों पर स्थित पशुहरण में कुशल और लड़ाकू मरवा जाति तथा मैदान के शांतिप्रिय पशुपालक लोगों के बीच संघर्ष संगम काल के दैनिक जीवन का एक अभिन्न अंग प्रतीत होता है।
पुरुनानूरु (एत्तुथोकै=अष्टसंग्रह) में संकलित एक कविता में, जंगल में चरवाहे को मारने के बाद गाय के झुंड को लाकर उपहारस्वरूप बाँटने वाले नायक की वीरोचित प्रशंसा की गयी है। एक अन्य वेत्ची नायक का चोल राजा से सम्बन्ध था। कभी-कभी आमोद-प्रमोद और मांसाहार के लिए पशुओं को लूटा जाता था और कभी यह लूट युद्ध के आरम्भिक धावे के रूप में होती थी। पशुहरण में प्रवीण मरवा योद्धा राजा के साथ युद्ध में भाग लेते थे। इस तरह राजा भी वेत्ची से सम्बन्धित हो जाता था। अपने स्वामी तथा गाँववालों के लिए युद्ध करना कबीले के नेता अपना कुलधर्म मानते थे। कबीले के प्रधान की सहायता में पूरे गाँव वाले अग्रसर होते थे। युद्ध में जिस स्थल पर इनकी मृत्यु होती वहाँ उस नायक के सम्मान में स्मृति-पत्थर लगाया जाता था। ये मरवा कबीले के लोग तमिल शासकों की सेना में स्थान पाते थे। इन लोगों की पशुपालन तथा कृषि में रुचि नहीं थी। ब्राह्मण धर्म के उच्च आदर्शों के प्रति भी इनका कोई विशेष लगाव दृष्टिगोचर नहीं होता।
प्रसंगवश पूर्व-वैदिक समाज से तुलना करना समीचीन होगा| पूर्व-वैदिक समाज में भी पशु, विशेष रूप से गाय, की चोरी व लूट होती थी क्योंकि इन्हें सम्पत्ति के रूप में माना जाता था। उत्तर भारत की वैदिक परम्परा में भी सफल पशुहरण के उपलक्ष्य में आयोजित उत्सव में पुरोहित दान आदि प्राप्त करते थे। सामाजिक विकास तथा वर्गीकरण की प्रक्रिया में इस बात की पर्याप्त सम्भावना है कि उत्तर तथा दक्षिण भारत के अनेक क्षेत्रीय शासक, चाहे वे आर्य हों या अनार्य, अपनी मूल यायावरी या अर्धयायावरी सामाजिक पृष्ठभूमि से ही शक्तिशाली शासक वर्ग के रूप में प्रतिष्ठित हुए। सूर्यवंशी तथा चंद्रवंशी शासक के रूप में प्रसिद्ध होने पर भी इन लोगों में कुछ पुरानी परम्पराएँ चलती रहीं जिनमें पशुहरण भी एक थी।
संगमकालीन कवियों के वर्णन से स्पष्ट होता है कि चेर, चोल, पाण्ड्य तथा दक्षिण के अन्य छोटे राज्यों के अंतर्गत जिस सामाजिक ढाँचे में ब्राह्मण संस्कृति की नैतिकता तथा उच्च आदर्श स्थापित थे उसी में जनजातीय रीति-रिवाज तथा जीवन-मूल्य भी प्रतिष्ठित थे। इनमें प्रचलित युद्ध के तरीकों, नायकों की परिकल्पना, शूरवीरता-सम्बन्धित उनकी मर्यादा, मृत नायकों के सम्मान में पाषाण प्रतिमाओं की स्थापना, उनमें मांसाहार की परंपरा, आदि की तात्कालिक जीवन पर गहरी छाप है। मूल रूप से सैनिक महत्त्व के कारण जन-जातीय लोगों ने संगम काल के राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन को अनेक ढंगों से प्रभावित किया।
FAQ
प्रश्न — संगम साहित्य के आधार पर सुदूर दक्षिण भारत के शासन व्यवस्था का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
(On the basis of Sangam literature, give a brief introduction of the administrative system of Far South India.)
उत्तर—
संगमयुगीन राज्य ‘कुल संघ’ प्रतीत होते हैं। ऐसे राज्य में कुल के विभिन्न परिवारों के वयस्क पुरूष राज्य-कार्य में भाग लेते हैं।
इस युग में वंशानुगत राजतंत्र का प्रचलन था।
राजा बहुत सी उपाधियाँ धारण करते थे, जैसे— को, मन्नम, वेन्दन, कारवेन, इरैयन, अधिराज आदि। ‘को’ उपाधि देवताओं एवं राजा दोनों के लिए प्रयुक्त की जाती थी।
राजा का जन्म दिवस प्रतिवर्ष मनाया जाता था और इस दिन को पैरूनल (महान दिवस) कहा जाता था।
राजा के बाद युवराज का स्थान था। तमिल ग्रंथो में युवराज को कोमहन तथा अन्य पुत्रों को इलैगो कहा गया है।
पुरुनानरू नामक ग्रंथ में चक्रवर्ती राजा की चर्चा की गयी है। राजा प्रतिदिन अपनी सभा (नालवै) में प्रजा के कष्टों को सुनता था और न्याय कार्य सम्पन्न करता था। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय, राजा की सभा (मनरम्) थी। सभा के लिए मनरम् के साथ पोडियाल शब्द का भी उल्लेख मिलता है। मनरम् का शाब्दिक अर्थ है नगर जबकि पोडियाल का शाब्दिक अर्थ है सार्वजनिक स्थल।
अधिकारी या संस्था
राजा के कार्य में सहायता के लिए निम्न अधिकारियों या संस्थाओं का उल्लेख मिलता है—
- अमाइच्चार / अमैच्चार — मंत्री
- पुरोहितार — पुरोहित
- सेनापतियार — सेनापति
- दूतार — दूत / राजदूत
- ओर्रार — गुप्तचार
प्रशासनिक इकाइयाँ
केन्द्र प्रान्तों में बँटे थे जिसे ‘मंडलम्’ कहा गया है। मंडलम् कमिश्नरियों में बँटे थे जिसे पलनाडु या कोट्टम् कहा गया है। वलनाडु आगे नाडु (जिला) में और नाडु आगे कुर्रम (तहसील) में विभाजित थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम (उर) थी।
- राज्य (केन्द्र) — मंडलम् (प्रान्त) — वलनाडु / कोट्टम् (कमिश्नरी) — नाडु (जिला) — कुर्रम (तहसील) — उर (ग्राम)
नगर प्रशासन
सम्पूर्ण राज्य को मण्डलम् कहा जाता था, जैसे— चोल मण्डलम्, चेरमण्डलम् आदि। मण्डलम् के बाद नाडु, नाडु के बाद उर होता था। उर नगर होता था जिसमें एक बड़ा ग्राम (पेरूर) एक छोटा ग्राम (शिरूर) अथवा एक प्राचीन ग्राम (मुदूर) आदि का विभिन्न रुपों में वर्णन मिलता है। पत्तिनम् तटीय नगर का नाम था और पुहार बन्दरगाह क्षेत्र था। चेरि किसी नगर का उपनगर या गाँव का नाम होता था जबकि पड़ोसी क्षेत्र को पक्कम् कहा जाता था। सलाई मुख्य मार्ग था और तेरू किसी नगर की एक गली होती थी।
राजस्व प्रशासन
राजस्व का सबसे प्रमुख स्रोत भूमिकर था। इसे कुडमै या इरय कहा जाता था। कृषि उत्पादन में राज्य का कितना हिस्सा था यह अस्पष्ट है परन्तु सम्भवतया भूराजस्व की मात्रा १/६ थी। भूमि की माप की इकाइयाँ मा तथा बेलि थीं।
पथकर और सीमा शुल्क को उल्णू या शुंगम कहा जाता था। आंतरिक व्यापार की सुरक्षा के लिए और तस्करी (smuggling) रोकने के लिए सड़कों पर सेना द्वारा चौकसी रखी जाती थी।
सामान्यतया राजा को दिया जाने वाला शुल्क कुडमै या पादु या पादुबाडु के नाम से जाना जाता था। बलपूर्वक प्राप्त किए जाने वाले उपहार को ईरादू कहा जाता था।
कर अदा करने वाला क्षेत्र बरियमवारि नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र से कर वसूलने वाला अधिकारी वरियार कहलाता था। प्रो० नीलकण्ठ शास्त्री ने कुम्बकोणम में चोलों के कोषागार का भी वर्णन किया है।
इस तरह राजस्व के प्रमुख स्रोत थे—
- भूराजस्व (मुख्य स्रोत)
- चुंगी (customs)
- पारगमन शुल्क (transit duties)
- युद्ध से प्राप्त लूट के माल
न्याय प्रशासन
संगम युग में राजा ही न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। राजा के न्यायालय को मनरम् कहा जाता था। दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे। चोरों के हाथ तथा झूठी गवाही देने वालों की जिह्वा काट ली जाती थी।
सैन्य प्रशासन
संगम युग में चतुरंगिणी सेना— पैदल, हस्ति, अश्व एवं रथ का उल्लेख मिलता है। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि रथ में घोड़े के स्थान पर वृषभ (बैल) जोते जाते थे। सैन्य आवश्यकता के लिए अश्व का आयात किया जाता था। सेना में हाथियों का विशेष महत्त्व होता था। नौ-सेना का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
आभिजात्य वर्ग (nobles), राजकुमार (princes) और सेनापति (captain) हाथी की सवारी करते थे। सेनानी (commanders) रथों का प्रयोग करते थे। पदाति और अश्वारोही अपने पैरों की सुरक्षा के लिए चमड़े के जूते या पनही पहनते थे।
सेनापति की उपाधि एनाडि थी। युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त सैनिकों के सम्मान में एक स्तम्भ बनाया जाता था जिसमें उनके नाम एवं उनकी उपलब्धियाँ लिखी जाती थीं। इन स्तम्भों को वीरगल या वीरक्कल कहा जाता था। सैनिक सम्बन्धी की अनेक मह्त्त्वपूर्ण सूचनाएँ कल्लिवल्लि नामक ग्रंथ से प्राप्त होती हैं।
मरवा नामक जनजाति अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण सेना में विशेष स्थान पाती थी।