भूमिका
संगम साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि सुदूर दक्षिण में स्थानीय धर्म का उत्तर भारतीय धार्मिक मान्यताओं से सुन्दर समन्वय स्थापित हुआ। संगमकालीन धर्म, आस्था व विश्वास का संक्षिप्त विश्लेषण अधोलिखित है।
उत्तर भारतीय प्रभाव और पारस्परिक समन्वय
धर्म और नैतिकता के क्षेत्र में हम उत्तर भारतीय प्रभाव स्पष्ट रूप देखते हैं; उदाहरणार्थ —
- प्रस्थान करने वाले अतिथि को कुछ दूर तक पैदल ले जाने की प्रथा का पालन करिकाल चोल ने किया। सम्मान में करिकाल अतिथि के साथ ७ कदम (सप्तपदी) पैदल चलकर जाता था और उसके बाद उसे चार श्वेत अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर आरूढ़ होने का अनुरोध करता था।
- गो-हत्या, भ्रूण-हत्या और ब्राह्मण-हत्या को जघन्य अपराध माना जाता था।
- हालाँकि स्थापित आचार संहिता के अनुसार कृतघ्नता (ingratitude) को और भी बुरा माना जाता था।
- उत्तर भारतीय धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं, देवताओं इत्यादि को कुछ फेरबदल के साथ स्वीकार कर लिया गया।
- महाभारत, रामायण व पौराणिक आख्यानों से लोग परिचित थे।
यह प्रभाव एकदिशीय नहीं था, जैसे —
- कावेरी की मान्यता ७ पवित्र नदियों में मान्यता।
- दक्षिण के अनेक धर्म-स्थलों की समान रूप से मान्यता।
- मुरुगन और स्कंद का एक हो जाना।
- ऋषि अगस्त्य का समान रूप से सम्मान।
- परशुराम की माता रेणुका (मरियम्मा) का परिया (जनजातीय स्त्री) से समन्वय।
वैदिक धर्म
ऋग्वेद में उल्लिखित आर्य-दस्यु के संघर्ष का जैसा विवरण हमें उत्तर भारत में मिलता है वैसा संघर्ष दक्षिण और उत्तर भारत के सांस्कृतिक सम्पर्क में नहीं दिखायी देता है। संगम माहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि तमिल क्षेत्र में वैदिक संस्कृति का स्वागत किया गया।
वैदिक धर्म का दक्षिण में आगमन और विकास
दक्षिण में वैदिक संस्कृति को ले जाने का श्रेय अनुश्रुतियों में अगस्त्य ऋषि को दिया गया है। आज भी सुदूर दक्षिण में अगस्त्य पूजा का व्यापक रूप से प्रचलन में है।
प्रसंगवश ऋषि अगस्त्य की चर्चा कर लेना समीचीन होगा। ये कोई साधारण ऋषि नहीं थे। इनका उल्लेख हमें वैदिक वाड़्मय के साथ-साथ संगम साहित्यों में भी प्राप्त होता है। ऋग्वेद में वे मंत्रद्रष्टा ऋषि है। उनकी पत्नी लोपामुद्रा तथा उनकी बहन का भी वर्णन उसमें प्राप्त होता है। ऋषि अगस्त्य का विवरण हमें महाभारत तथा रामायण में भी मिलता है।
भारतीय वाड़्गय में वर्णित आख्यान कि उन्होंने पृथ्वी के संतुलन के लिए दक्षिण की ओर प्रयाण किया, विन्ध्य पर्वत शृंखला की ऊँचाई को सीमाबद्ध किया, समुद्र का जलपान कर लिया था जिससे कि समुद्र में छिपे राक्षसों का विनाश देवता कर सकें, इक्वल व वातापि नामक राक्षसों का वध किया, तमिल भाषा का ज्ञान स्वयं भगवान शिव ने उन्हें दिया था, कावेरी नदी के उद्गम की कथा ऋषि अगस्त्य से जोड़ी गयी है, तीन संगमों में से प्रथम की अध्यक्षता स्वयं उन्होंने ही की थी इत्यादि। ये सभी विवरण दक्षिण में आर्य संस्कृति के प्रसार का अपरोक्ष रूप से वर्णित करते हैं। रामायण में विवरण आता है कि १४ वर्षीय वनवास के समय भागवान राम ऋषि अगस्त्य से मिले थे तब ऋषि ने उन्हें बताया कि कैसे उन्होंने दक्षिण में आर्य संस्कृति का प्रसार किया था।
इस तरह ऋषि अगस्त्य आश्रम हिमालय से दक्षिण की ओर विस्तृत हुआ। पश्चिमी घाट के दक्षिणी छोर पर अगस्त्य आश्रम स्थित है। यहाँ से हिंदचीन तक इस ऋषि के आश्रम के पहुँचने की परम्परा है। दक्षिण में आज भी ऋषि अगस्त्य की विशेष रूप से उपासना होती है। अनेक मंदिर अगस्त्येश्वर के नाम से प्रसिद्ध है जिनमें भगवान शिव की मूतियाँ स्थापित हैं। इनको अगस्त्य ऋषि द्वारा स्थापित माना जाता है।
संगमकाल में वैदिक धर्म के प्रसार में ब्राह्मणों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। ऋषि अगस्त्य के ही समान ऋषि कौण्डिन्य का भी दक्षिण भारत महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। कौण्डिन्य गोत्रीय ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म को दक्षिण में लोकप्रिय बनाया। दक्षिण भारतीय भाषाओं में उत्कीर्ण अनेक शिलालेखों और ताम्रपत्रों में कौण्डिन्य गोत्र के ब्राह्मणों को भूमिदान का विवरण प्राप्त होता है। तमिलनाडु के तंजौर जनपद में स्थित पूंजार्रूर ग्राम (Punjarrur Village) में दूसरी या तीसरी शताब्दी में रहनेवाले एक कौण्डिय गोत्रीय विन्नदायन (Vinnadayan) नामक ब्राह्मण परिवार का आवूर मूलम् किलार (Avur Mulam Kilar) के एक गीत में विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार यह परिवार नित्य धार्मिक कृत्य और यज्ञ करता था।
कौण्डिन्य गोत्रीय ब्रह्मण पुरोहित का कार्य करते थे। राजा तथा कुलीन लोग वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करते थे और इनमें ब्राह्मणों की प्रमुख भूमिका होती थी। ब्राह्मण लोग अपना समय अध्ययन-अध्यापन में व्यतीत करते थे।
संगमकाल में ब्राह्मण राजाओं के पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। एक परंपरा के अनुसार पाण्ड्य राजवंशों के पुरोहित अगस्त्य गोत्रीय ब्राह्मण होते थे। एक ऐसी ही अनुश्रुति के अनुसार तमिल भाषा तथा व्याकरण की उत्पत्ति अगस्त्य ऋषि ने की है। पुरनानुरू तथा तोल्काप्पियम् के लेखकों तथा इन संगम कृतियों के टीकाकार नच्चिरक्किनियर (१४वीं शताब्दी ईसवी) ने उत्तरी ऋषि (अगस्त्य) का सम्बन्ध द्वारका से स्थापित किया है। साथ ही ‘वेलिर’ द्वारकाधीश कृष्ण के वंशज माने गये हैं। ऋषि अगस्त्य ने द्वारका से १८ राजाओं के समूह, वेलिर के १८ कुलों एवं अरुवालरों का नेतृत्व किया। इन्होंने मार्ग में आने वाले वनों का नाश किया तथा उन्हें कृषि-योग्य बनाया। महाभारत तथा पुराणों में वर्णित आख्यानों में भी दक्षिण के भागों में वन जलाने तथा कृषि के विस्तार से ऋषि अगस्त्य का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से स्थापित है। इससे दक्षिण में अगस्त्य द्वारा कृषि विस्तार की परम्परा की पुष्टि होती है। शतपथ ब्राह्मण में विदेघ माधव और उनके पुरोहित गौतम राहूगण की आख्यायिका आर्य संस्कृति के गंगा घाटी में पूर्व की ओर प्रसार भी इसी तरह अपरोक्ष रूप से वर्णित है।
संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों का अन्य धर्मों के अनुयायियों के साथ वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) होता रहता था। ऐसे अनेक विवादों के संदर्भ हैं, जिनकी घोषणा झण्डे फहराकर तथा हस्त-संकेत करके की जाती है। हालाँकि प्रतिद्वंद्वी संप्रदायों के नाम नहीं बताये गये हैं, लेकिन ऐसे धर्मों से तात्पर्य बौद्ध तथा जैन धर्मों से है जिनका संगमकाल में सुदूर दक्षिण तक प्रचार हो चुका था और जो बाद के युग में अधिक प्रमुख होनेवाले थे। सभी दृष्टियों से इस युग में हिंदू धर्म ही प्रमुख पंथ था।*
“From all accounts Hinduism was the dominant creed in this age.”* — A HISTORY OF SOUTH INDIA, P. 138.
वैदिक देवता
ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक देवताओं जैसे— मुरुगन, विष्णु, शिव, बलराम, कृष्ण, इन्द्र,अर्धनारीश्वर, अनंतशायी आदि की उपासना दक्षिण भारत में की जाती थी।
मुरुगन
तमिल क्षेत्र के प्राचीन देवता मुरुगन थे। कालान्तर में उसका नाम सुब्रह्मण्य हो गया और स्कन्द-कार्तिकेय के साथ उसका तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। हिन्दू धर्म में स्कन्द-कार्तिकेय को शिव-पार्वती का पुत्र माना गया है तथा उसके जन्म से सम्बन्धित कई कथायें मिलती है। विभिन्न कथाओं में उसे कृत्तिका, अग्नि, गंगा अथवा शिव के पुत्र के रूप में निरूपित किया गया है। दक्षिण के लोगों ने मुरुगन के पक्ष में इन सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया गया। स्कन्द का एक नाम कुमार भी है और तमिल भाषा में मुरुगन शब्द का यही अर्थ होता है।
मुरुगन का एक अन्य नाम वेलन भी मिलता है। वेलन के सम्बन्ध ‘वेल’ से बाताया गया है और वेल का अर्थ ‘बर्छा’ होता है। मुरुगन का अस्त्र ‘वर्छा’ था। महाभारत और पुराणों में स्कंद के अस्त्र को ‘शक्ति’ कहा गया है और उनकी प्रतिमाओं में यह शस्त्र प्रदर्शित किया जाता है। इस तरह वेल और शक्ति में समानता प्रतीत होती है।
मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (कुक्कुट) माना जाता था तथा उसके विषय में यह मान्यता थी कि उसे पर्वत पर क्रीड़ा करना अत्यधिक प्रिय है। कुरवस नामक एक पर्वतीय जनजाति की स्त्री को मुरुगन की पत्नियों में माना गया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस देवता (मुरुगन) की उपासना दक्षिण में प्रागैतिहासिक काल से की जाती थी। प्रागैतिहासिक स्थल आदिच्चन्नलूर (थूथूकुडी जनपद, तमिलनाडु) से प्राप्त होने वाले शव-कलश के साथ काँसे के कुक्कुट, लोहे के वर्छे और स्वर्णपव के मुखखंड यह संकेत करते हैं कि मुरुगन की उपासना प्रागैतिहासिक काल से होती आ रही थी। किसी व्रत के पूर्ण होने पर वर्तमान में भी लोग इस तरह की उपासना करते हैं।
मुरुगन की उपासना में वेलनाडल (velanadal) नामक उल्लासमय नृत्य वह पुजारी आत्मविभोर होकर करता था, जिसके सर पर वेलन (मुरुगन) आकर बैठता था। वेलनाडल नृत्य मुरुगन के उपासना की अत्यन्त प्राचीन अंग रही है। धार्मिक अनुष्ठानों में गायन और नृत्य का प्रचलन था।
भगवान विष्णु
देवताओं की पूजा विधियाँ उत्तर भारत के ही समान थीं। पदित्रपात्तु से ज्ञात होता है कि भगवान विष्णु की पूजा-उपासना में तुलसी-पत्र चढ़ाकर घण्टी बजायी जाती थी। भगवान विष्णु का तमिल नाम “तिरुमल” है। भगवद्कृपा प्राप्ति के लिए लोगों द्वारा मंदिर में व्रत रहने की प्रथा का उल्लेख किया गया है। महिलाएँ अपने बच्चों के साथ शाम को मंदिरों में पूजा करने जाती थीं।
इन्द्र
कावेरीपत्तन (पुहार) के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की पूजा होती थी तथा इसके लिये एक विशेष प्रकार का समारोह आयोजित किया जाता था।
श्रीकृष्ण
पशुचारण जाति के लोग भगवान श्रीकृष्ण की नृत्य और गायन से उपासना करते थे।
देवियाँ
देवियों में देवी सरस्वती, परशुराम की माँ मरियम्मा / येलम्म्मा (रेणुका), कुरवस (मुरुगन की जनजातीय पत्नी) आदि प्रमुख थीं। मरियम्मा (रेणुका) चेचक की देवी थीं। कोर्रावाई / कोर्रावै (Korravai) विजय की देवी थीं।
स्थानीय देवता
ग्रामों में स्थानीय देवताओं (ग्रामदेवताओं) की पूजा का प्रचलन था। देवता को प्रसन्न करने के लिये मुर्गे, भेड़, भैंस आदि की बलि भी चढ़ायी जाती थी।
बहेलिया जाति के लोग कोर्रलै / कोर्रावाई / कोर्रावै (Korravai) की नृत्य और गायन से उपासना करते थे।
विश्लेषण
उत्तर-संगम काल की महाकाव्यात्मक कविताओं से ज्ञात होता है कि संगीत और नृत्य आदि काल से ही धार्मिक अनुष्ठानों के अंग थे। शिकारियों द्वारा कोर्रावाई / कोर्रावै (Korravai) की पूजा, चरवाहों द्वारा कृष्ण की पूजा और कुरावों (kuravas) द्वारा मुरुगन की पूजा इसके सबसे उल्लेखनीय उदाहरण हैं।
बिशप ह्वाइटहैड के मतानुसार आदिम जीववाद (Animism) के बाद पशुचारण जीवन-पद्धति की प्रधानता होने पर, टोटेम (गणचिह्न) पर विश्वास का काल आरम्भ हुआ। इसी काल में बलि-प्रथा भी प्रचलन में आयी। बलि-प्रथा के आविर्भाव के बारे में पर्याप्त मत-मतांतर हैं।
कुल मिलाकर संगमकाल में वैदिक धर्म के प्रभाव के कारण जो धार्मिक समन्वय आरम्भ हुआ उस प्रक्रिया में अनेक प्रकार की टोटेम-पूजा शनैः शनैः ब्राह्मण धर्म में समाहित होती गयी। फिरभी बलि-परम्परा बाद तक चलती रही।
तमिल प्रदेश में महाभारत तथा पौराणिक आख्यानों का भी प्रचलन था। भगवान शिव द्वारा त्रिपुर राक्षस का वध, भगवान विष्णु द्वारा राजा बलि दमन के लिए वामन अवतार धारण करने, परशुराम द्वारा माता का सिर काटने, गौतम ऋषि द्वारा इन्द्र को शाप देने जैसी पौराणिक कथाओं का दक्षिण में व्यापक रूप से प्रचलन था। श्रीकृष्ण की विविध रासलीलाओं से भी लोग परिचित थे। पदिट्रप्पत्तु से ज्ञात होती है कि भगवान विष्णु की पूजा में तुलसी तथा घंटी का उपयोग किया जाता था। ईश्वर के प्रसाद को प्राप्त करने के लिए लोग मन्दिर में पूजा करते थे। अनेक लोग संन्यासी का जीवन व्यतीत करते थे। तपस्वी / संन्यास जीवन (Asceticism) को सम्मान दिया जाता था। त्रिदण्डी (तीन डण्डे) संन्यासियों / तपस्वियों का विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। मणिमेकलै में कापालिक शैव संन्यासियों की चर्चा प्राप्त होती है। मणिमेकलै में ही देवी सरस्वती के एक मंदिर का उल्लेख किया गया है।
इन पौराणिक आख्यानों को दक्षिण भारतीय परिवेश के अनुसार प्रस्तुत किया गया है। उदाहरणार्थ परशुराम ने अपने पिता के कहने पर माता रेणुका का सर काट दिया। जब परशुराम ने अपनी माता का सिर काटा उस समय रेणुका ने एक दुःखी परिया स्त्री का आलिंगन कर लिया था अतः दोनों का सिर कट गया। दक्षिण में परशुराम की माता रेणुका का नाम मरियम्मा है। बाद में जब परशुराम के पिता ने परशुराम की माता को पुनर्जीवन देने की स्वीकृति दी तो परशुराम की भूल से सिर अदल-बदल गया। इस तरह परिया शरीर पर ब्राह्मण स्त्री का सिर जुड़ गया और मरियम्मा के शरीर पर परिया का सिर। मरियम्मा को बलिदान में भैंस की अपेक्षा बकरे तथा मुर्गे को अधिक पसंद करती थीं और येलम्मा को भैंस की बलि पसंद थी। मरियम्मा शीतला (चेचक से संबंधित देवी) थीं जबकि येलम्मा का अर्थ होता है ‘सीमा की महिला’। इस आख्यान को विद्वानों ने उत्तर और दक्षिण भारतीय संस्कृति के समामेलन का परिचायक माना है। ऐसे ही एक विद्वान हैं— ह्वाइटहैड। ह्वाइटहैड के अनुसार यह आख्यान सम्भवतया आर्यों के दक्षिण आने पर ही आर्य तथा द्रविड़ धार्मिक तत्त्वों के सम्मिश्रण का परिचायक है। आगे ह्वाइटहैड कहते हैं कि परिया शरीर पर ब्राह्मण सिर शैव उपासना का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है, जबकि परिया सिर वाला ब्राह्मण शरीर कोई प्राचीन द्रविड़ उपासना की परम्परा का संकेत करता है जिस पर ब्राह्मण धर्म के विश्वास तथा सिद्धांतों का प्रभाव भी पड़ा होगा। भैंस की बलि जो परिया को प्रिय थी प्राचीन द्रविड परंपरा की द्योतक है।
कर्म, पुर्नजन्म के सिद्धान्तों तथा भाग्यवाद में लोगों की आस्था थी। सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि संगमकालीन दक्षिण भारत में हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रायः सभी प्रमुख आचार-विचारों को मान्यता प्रदान कर दी गयी थी।
बौद्ध धर्म
संगम युग की कविताओं में जो उत्तम जीवन के प्रति आनन्दपूर्ण आस्था थी, वह धीरे-धीरे जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण में बदलती गयी, जिसका कारण बौद्ध धर्म का बढ़ता प्रभाव था। बौद्ध धर्म कहता है कि “सब्बं दुःखं” अर्थात् संसार दुःखमय है। जीवन के दुःखों से बचने का एकमात्र उपाय इच्छाओं /तृष्णा का दमन करना है। यह निराशावादी दृष्टिकोण मणिमेकलै में स्पष्ट है। मणिमेकलै उन लोगों की आलोचना करता है जो अवश्यंभावी मृत्यु पर विचार किये बिना केवल सांसारिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं।
बौद्ध धर्म के प्रसार के सम्बन्ध में अशोक के अभिलेख से हमें पर्याप्त जानकारी मिलती है। अशोक ने तमिल प्रदेश में भी धर्म प्रचारक भेजे थे। वहाँ पाण्ड्य, चोल, केरलपुत्र, सतियपुत्र, आदि* पड़ोसी राज्यों में उसने मनुष्यों तथा पशुओं के लिए चिकित्सालय बनवाने का प्रबन्ध किया था।
“चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतोआ तंबपंणी” *
दक्षिण में बौद्ध धर्म के प्रचार तथा विकास का प्रमाण हमें पश्चिमी घाट के पर्वतों पर पत्थर काटकर बनाये गये चैत्यों तथा विहारों के भव्य अवशेषों से प्राप्त होता है। ऐसे निर्माण दक्षिण से लेकर पूना के निकट तक विद्यमान हैं। आन्ध्र में कृष्णा नदी के निचले क्षेत्रों में भी समुद्र तट पर बौद्ध अवशेष मिलते हैं। दक्कन में भी ई०पू० तृतीय शती में बौद्ध धर्म का प्रसार होने लगा।
सातवाहन नरेशों के काल में भी यह पल्लवित होता रहा। ईसा की प्रथम दो शताब्दियों में दक्कन क्षेत्र में बौद्ध धर्म अत्यन्त प्रभावशाली था। अमरावती के स्तूपों को इसी काल में अलंकृत किया गया। इस काल के अभिलेखों में अनेक बौद्ध संन्यासियों के नाम उल्लिखित हैं, जो धर्म-प्रचार में लगे थे। स्तूप, बोधि-वृक्ष, बुद्ध का चरण-चिह्न, त्रिशूल (त्रिरत्न का प्रतीक), धर्मचक्र इत्यादि बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक तत्त्व इन स्थलों से प्राप्त होते हैं।
इस काल में मूर्तिकला का पर्याप्त विकास हुआ। आराध्य देवता के समक्ष स्त्री-पुरुष घुटने के बल बैठकर अथवा साष्टांग रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। इन मूर्तियों में भक्तिभाव में डूबी हुई आनंदमय मुख-मुद्रा की सफल अभिव्यक्ति प्राप्त होती है।
आंध्र प्रदेश के नागाजुर्नकोण्डा, गोली, घण्टाशाला आदि तथा तमिलनाडु के कांचीपुरम् इत्यादि स्थल बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध केंद्र बनकर उभरे। कालान्तर में इन स्थानों में महायान सम्प्रदाय का विकास हुआ।
दक्षिण में महायान बौद्ध सम्प्रदाय के अनेक सुप्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। लगभग द्वितीय शताब्दी ई० के मध्य में नागार्जुन ने माध्यमिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करके शून्यवाद दर्शन को विकसित किया। इनकी प्रमुख रचना ‘माध्यमिककारिका’ है।
नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव नालंदा में बौद्ध केंद्र के प्रधानाचार्य नियुक्त हुए। जीवन के अंतिम समय में वे कांची चले आये और दूसरी शती में उसका देहावसान हुआ। इन्होंने चतुःशतक (अर्थात् चार सौ श्लोक) की रचना की।
दक्षिण के ही बुद्धपालित नामक एक अन्य महायान आचार्य ने नागार्जुन के ‘माध्यमिककारिका’ सूत्र पर भाष्य की रचना की जिसे ‘बुद्धपालिता’ कहा जाता है। भावविवेक नामक आचार्य ने ‘तर्कज्वाला’ नामक ग्रंथ की रचना की। चंद्रकीर्ति नालंदा का मठाध्यक्ष थे और उन्होंने दक्षिण में आकर अनेक विद्वानों को धार्मिक वाद-विवाद में पराजित किया। इन्होंने दक्षिण में अनेक विहारों की स्थापना की थी।
पाँचवी शताब्दी के अंत अथवा इसके कुछ बाद के समय का सुप्रसिद्ध बौद्ध आचार्य दिङ्नाथ मूलतः कांचीपुरम के ब्राह्मण थे। इन्होंने प्रमाण समुच्चय, न्यायप्रवेश और प्रज्ञापारमितापिण्डार्थ नामक ग्रंथों की रचना की।
धर्मपाल भी कांची के ही बौद्ध आचार्य थे और वे दिङ्नाथ के शिष्य थे।
उपरिलिखित बौद्ध विद्वान संगमकाल के बाद के हैं परन्तु यहाँ इनका उल्लेख इस कारण से करना महत्त्वपूर्ण है जिससे हमें यह ज्ञात हो कि दक्षिण में बौद्ध धर्म के केंद्र पहले से ही विकासशील रहे होंगे जिसके फलस्वरूप यहाँ बौद्ध साहित्य का पल्लवन सम्भव हुआ। शिलप्पादिकारम् और मणिमेकलै महाकाव्यों के साथ-साथ कावेरीपप्पटिणं (तंजावुर) में भी बौद्ध तथा जैन संस्थानों के विवरण सुरक्षित हैं।
जैन धर्म
जैन परम्परा में स्वयं महावीर स्वामी द्वारा दक्षिण में धर्म-प्रचार का उल्लेख मिलता है परन्तु इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं प्राप्त होता है। मैसूर में श्रवणबेलगोला नामक स्थान से प्राप्त छठी शताब्दी के एक अभिलेख में भद्रबाहु का बिहार से दक्षिण जाने का उल्लेख मिलता है।
इतिहासकारों में यह मान्य है कि मौर्य काल में ही जैन सम्प्रदाय सुदूर दक्षिण पहुँचा। एक जैन परम्परा में मौर्य वंश के प्रथम सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा अपने शासन के अंतिम समय जैन धर्म ग्रहण करने का वर्णन प्राप्त होता है। चंद्रगुप्त मौर्य ने शासन त्यागकर कर्नाटक में श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर संन्यासी का जीवन व्यतीत किया तथा उपवास करके प्राण त्याग दिया। जैन धर्म में उपवास द्वारा प्राण त्यागने की पद्धति को ‘सल्लेखना’ कहा गया है|
एक अन्य परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी की मृत्यु के दो सौ वर्ष बाद मगध में भयंकर अकाल पड़ा जो बारह वर्षों तक चलता रहा। जैन सम्प्रदाय के बहुत से लोग तत्कालीन आचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिणी भारत प्रयाण कर गये। दक्षिण में इन प्रवासियों ने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। अकाल के बाद प्रवासी जैन धर्मावलंबी दक्षिण से वापस मगध लौट आये, परन्तु उत्तर और दक्षिण के जैनियों में मतभेद के कारण इनमें विभाजन हो गया। दक्षिण के जैन दिगंबर तथा उत्तर के श्वेतांबर संप्रदाय में विभक्त हो गये।
भद्रबाहु तथा चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण जाने का उल्लेख बाद में अनेक अभिलेखों के अतिरिक्त हरिषेण (८३९ ई०) के बृहद्कथाकोष में भी प्राप्त होती है। श्रवणबेलगोला में एक चंद्रगिरि पर्वत तथा भद्रबाहु गुफा है। चंद्रगुप्त बस्ती के अग्रद्वार पर भद्रबाहु तथा चंद्रगुप्त के जीवन से सम्बन्धित नब्बे चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य के बाद के समय में जैन धर्म की प्रगति के सम्बन्ध में जानकारी का कोई स्रोत नहीं प्राप्त होता है। अशोक के १३वें बहद् शिलालेख के अनुसार यवन प्रदेश को छोड़कर उनके राज्य में सभी स्थानों में ब्राह्मण तथा श्रमण विद्यमान थे।
श्रमण शब्द बौद्ध तथा जैन दोनों सम्प्रदायों के मुनियों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। इसे माना जाये तो अशोक के समय में जैन धर्म के दक्षिण में प्रचलित होने का अप्रत्यक्ष संकेत प्राप्त होता है।
अशोक का पोते (सम्प्रति) श्वेतांबर जैन संप्रदाय को मानता था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रचारकों को भेजा था। यह श्वेतांबरों का दक्षिण भारत पहुँचने का सबसे पहला उल्लेख है। सम्प्रति को श्वेतांबर मत में दीक्षा देने वाला आचार्य सुहस्तिन था। सुहस्तिन के बाद ई०पू० प्रथम शती के लगभग कालकाचार्य का दक्कन में पेन्थ नामक स्थान के राजा के यहाँ जाने का उल्लेख है। सम्भवतया यह हाल नामक सातवाहन शासक के काल की घटना है।
भद्रबाहु के बाद जैन गुरुओं की केवल सूची प्राप्त होती है। ई०पू० प्रथम शताब्दी में अथवा ईसवी सम्वत् की प्रथम शताब्दी में कुन्दकुन्द (कौंडकुंद) नामक जैन गुरु के महत्त्वपूर्ण कार्य का विवरण प्राप्त होता है। परन्तु कर्नाटक में भी जैन धर्म के प्रसार तथा प्रचार के सम्बन्ध में तृतीय शताब्दी ईसवी से पूर्व कोई पक्का प्रमाण नहीं मिला है। कालान्तर में कदंब तथा गंग राजाओं के काल में जैन धर्म को राजाओं से यथेष्ट संरक्षण तथा प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। जैन मतावलंबियों को दान में भूमि भी मिली। कर्नाटक तथा तमिल प्रदेश में परवर्ती सदियों में स्थापत्य, कला, साहित्य आदि की प्रगति में जैन मतावलंबियों का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान है।
निष्कर्ष
वैदिक धार्मिक मान्यताओं और स्थानीय आस्था का सुन्दर समन्वय हमें सुदूर दक्षिण में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ सुदूर दक्षिण में बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रचलन हुआ। तमिल प्रदेशों से इन दोनों धर्मों से सम्बन्धित कई मन्दिर तथा विहार प्राप्त होते हैं। वस्तुतः सुदूर दक्षिण में बौद्ध तथा जैन धर्मों का प्रवेश संगम युग के बहुत पहले ही हो गया था। सम्राट अशोक के लेखों से ज्ञात होता है कि उसने तमिल देश में अपने धर्म प्रचारक भेजे थे। इसी प्रकार जैन परम्परा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व चौथी शती में ही जैन धर्म का प्रवेश दक्षिण भारत में हो चुका था। जैन मुनि भद्रबाहु के साथ स्वयं राज्य का त्यागकर चन्द्रगुप्त मौर्य श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पहाड़ी पर तपश्चर्या करने का विवरण मिलता है।
FAQ
प्रश्न — संगमकालीन धार्मिक दशा और विकास पर प्रकाश डालिए।
Throw light on the religious condition and development during the Sangam period.
उत्तर —
संगमकालीन धर्म पर उत्तर भारतीय धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इसे हम निम्न शीर्षकों में देख सकते हैं—
वैदिक धर्म
वैदिक धर्म को दक्षिण में प्रचारित व प्रसारित करने का श्रेय दो प्रमुख ऋषियों को प्राप्त है;
- एक, ऋषि अगस्त्य और
- द्वितीय, ऋषि कौण्डिन्य।
लोग कर्मवाद, पुनर्जन्म, भाग्यवाद पर विश्वास करते थे। अनेक लोग संन्यासी का जीवन व्यतीत करते थे। इस काल में जीववाद, टोटमवाद, बलि प्रथा इत्यादि प्रचलित थी। शवों को जलाने और शवाधान की प्रथा प्रचलित थी।
संगमकाल के प्रमुख देवता— मुरुगन, इन्द्र, भगवान विष्णु (अनंतशायी विष्णु), श्रीकृष्ण, बलरामजी, भगवान शिव, अर्धनारीश्वर इत्यादि थे। देवियों में सरस्वतीजी, देवी मरियम्मा / येलम्म्मा (रेणुका) आदि प्रमुख थीं। मणिमेकलै में कापालिक शैव संन्यासियों की चर्चा मिलती है। इनमें से कुछ के विवरण निम्न हैं—
- मुरुगन— दक्षिण भारत के सर्वप्रमुख देवता। इनका नाम सुब्रमण्यम व वेलन भी है। वेलन का सम्बन्ध वेल से है। वेल का अर्थ वर्छा है और वर्छा मुरुगन का प्रमुख अस्त्र है। मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (कुक्कुट) है और इन्हें पर्वत शिखर पर क्रीड़ा करना बहुत प्रिय है। मुरुगन की पत्नियों में कुरवस नामक एक जनजातीय स्त्री भी है। वेलनाडन नामक नृत्य मुरुगन की उपासना में किया जाता था। उत्तर भारत के देवता शिव-पुत्र स्कंद / कार्तिकेय / कुमार से मुरुगन तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। आदिच्चन्नलूर से हमें प्राप्त प्रमाणों से प्रागैतिहासिक काल से ही मुरुगन के पूजा के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
- इन्द्र— संगमकाल में पुहार के वार्षिकोत्सव में इन्द्र के विशेष पूजा का विवरण मिलता है। इन्द्र के मन्दिर को वजक्कोट्टम कहा जाता था।
- श्रीकृष्ण— पशुचारण जाति के लोग भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करते थे।
- भगवान विष्णु— संगम साहित्य में भगवान विष्णु के नाम का तमिल रूपान्तर ‘तिरुमल’ मिलता है। पदित्रुपात्तु से ज्ञात होता है कि तिरुमल की पूजा में तुलसी और घण्टी का उपयोग किया जाता था। अभिलेखों में भगवान विष्णु के मन्दिर को विन्नगार कहा गया है।
- मरियम्मा— ये परशुराम की माँ और महत्त्वपूर्ण देवी हैं। रुष्ट होने पर ये चेचक फैला देती थीं। इन्हें बकरा व मुर्गा की बलि चढ़ाई जाती थी।
- कोर्रावाई / कोर्रावै (Korravai) — विजय की देवी थीं।
श्रवण परम्परा
- संगमकाल से पूर्व ही श्रवण परम्परा यहाँ पहुँच चुकी थी।
- जैन परम्परा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व चौथी शती में ही जैन धर्म का प्रवेश दक्षिण भारत में हो चुका था। जैन मुनि भद्रबाहु के साथ स्वयं राज्य का त्यागकर चन्द्रगुप्त मौर्य श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पहाड़ी पर तपश्चर्या करने का विवरण मिलता है।
- सम्राट अशोक के समय में अभिलेखीय प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म से तमिल लोगों का परिचय हो चुका था। कालांतर में बौद्ध धर्म को तमिल क्षेत्र ने अनेक सुप्रसिद्ध विद्वान दिये।
निष्कर्ष
उत्तर भारतीय व दक्षिण के धर्म का समन्वय हमें सर्वत्र मिलता है। वैदिक धर्म का यहाँ स्वागत हुआ। मुरुगन और मरियम्मा के उदाहरण से इस समन्वय को हम समझ सकते हैं। वैदिक और श्रमण परम्परा ने यहाँ समाज, कला व साहित्य को समृद्ध किया।