भूमिका
संगमकालीन आर्थिक दशा का ज्ञान संगम साहित्य के साथ-साथ क्लासिकल लेखकों और पुरातत्त्व से होती है। संगमकालीन तमिल क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था। इसकी समृद्धि के प्रमुख आधार कृषि तथा व्यापार-वाणिज्य थे।
कृषि
संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी जिसमें अनाज की बड़ी अच्छी पैदावार होती थी। चेर (केरल) राज्य; भैस (buffalo), कटहल (jack-fruit), काली मिर्च (black-pepper) तथा हल्दी (turmeric) के लिए प्रसिद्ध था। चोल राज्य में कावेरी नदी के जल का उपयोग सिचाई के लिए होता था।
कावेरी नदी का डेल्टा वाला प्रदेश अपनी उर्वरता के लिये इतना अधिक प्रसिद्ध था कि इसके विषय में एक कहावत प्रचलित थी कि—
‘जितनी भूमि एक हाथी बैठने पर घेरता है उतने में सात व्यक्तियों के खाने के लिये अनाज उत्पन्न किया जा सकता है।’
एक वेलि (veli) भूमि पर लगभग एक हजार कलम (kalam) धान की उपज होती थी। पारी (Pari) नामक छोटे से राज्य में अनेक प्रकार के वनोत्पाद (forest produce) होते थे, जैसे – बाँस का चावल (bamboo-rice), कटहल (jack-fruit), विभिन्न प्रकार के कंद-मूल-फल, रतनजोत का जड़ (valli root), शहद (honey) इत्यादि।
संगम साहित्य में धान, रागी तथा गन्ने की पैदावार का विवरण मिलता है। गन्ने से शक्कर बनाने, फसल काटने, अनाज सुखाने आदि का जीवंत और यथार्थवादी वर्णन संगम साहित्य में मिलता है। इसके अतिरिक्त कटहल, गोलमिर्च, हल्दी सहित विविध प्रकार के फलों का भी पर्याप्त उत्पादन होता था। संगम युग में पर्याप्त मांस और तटीय क्षेत्रों से प्रचुर मात्रा में मछली भी लोगों को उपलब्ध थीं।
कृषकों को ‘वेल्लार’ (Vellalar) तथा उनके प्रमुखों को ‘वेलिर’ कहा जाता था। काले तथा लाल मिट्टी के बर्तनों एवं लोहे के आविष्कार का श्रेय वेलिर लोगों को ही दिया जाता है। वेल्लार दो वर्गों में विभजित थे। पहले वर्ग में भू-सम्पन्न किसान तथा दूसरे में निर्धन कृषि मजदूर आते थे। कृषि-भूमि पर मुख्य रूप से ‘वेल्लार’ (Vellalar) का स्वामित्व था, जो कुशल कृषक थे और उच्च सामाजिक स्थिति रखते थे।सम्पन्न ‘वेल्लार’ (Vellalar) मजदूरों की सहायता से कृषि करते थे। गरीब ‘वेल्लार’अपने छोटे-छोटे खेतों पर स्वयं कृषि करते थे।
निर्धन कृषि मजदूरों को ‘कडैसियर’ (Kadaisiyar) कहा गया है। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि समाज के निम्न वर्ग अर्थात् ‘कडैसियर’ (Kadaisiyar) वर्ग की महिलायें ही मुख्यतः कृषि कार्य किया करती थीं। इनकी स्थिति दासों के समान रही होगी। परन्तु यह बात उल्लेखनीय है कि भारतीय इतिहास का आधुनिक काल में दास प्रथा के समाप्त होने से पूर्व संगमकाल एकमात्र वह कालखंड है जिसमें दासप्रथा नहीं थी।
कृषि के लिये सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी। संगम काल के शासकों ने कुँओं, तालाबों तथा नहरों का निर्माण करवाया था। सिंचाई तथा लौह उपकरणों के प्रयोग के कारण उत्पादन के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया था। कृषि से राज्य को प्रभूत आय प्राप्त होती थी। इसी के द्वारा प्रशासनिक एवं सैनिक व्यय की पूर्ति की जाती थी। इस प्रकार कृषि संगमकालीन आर्थिक जीवन का आधार-स्तम्भ थी।
उद्योग-धन्धे
कृषि के साथ-साथ इस युग में उद्योग-धन्धों का भी विकास हुआ। वस्त्र-उद्योग इस काल का एक मुख्य उद्यम था। सूत, रेशम आदि से वस्त्रों का निर्माण होता था। सूत कातने का काम स्त्रियाँ करती थीं। संगम साहित्य से विदित होता है कि इस समय बेलबूटेदार रेशमी कपड़ों का निर्माण किया जाता था। सूती कपड़ों के विषय में कहा गया है कि वे साँप के केंचुल (snake’s slough) या भाप के बादल (cloud of steam) के समान महीन होते थे और उनकी कताई इतनी अच्छी होती थी कि आँखों से धागे दिखायी नहीं देते थे। चोल राज्य की राजधानी उरैयूर सूती वस्त्रों के लिये प्रसिद्ध थी। ‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ के अनुसार भी उरैयूर कपास व्यापार का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। वस्तुतः चोलों की समृद्धि का मुख्य कारण उनका सुविकसित वस्त्रोद्योग ही था।
व्यापार-वाणिज्य
संगमकाल व्यापार-वाणिज्य की उन्नति के लिए अत्यधिक विख्यात है। बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही व्यापार इस समय बहुत प्रगति पर थे। इस समय तमिल देश का व्यापार पश्चिम में मिस्र तथा अरब के रोमन साम्राज्य से तथा पूर्व में मलय द्वीप समूह तथा चीन के साथ होता था।
व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा देनेवाले कारक
मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य (Trade & commerce) की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है। जिसके परिणाम हमें तत्कालीन कला, नगरीकरण, मुद्रा व्यवस्था इत्यादि सभी में परिलक्षित होते हैं। इसके साक्ष्य हमें पुरातात्त्विक साक्ष्यों और तत्कालीन साहित्यों से मिलते हैं।
कारण इसके प्रमुख कारक निम्नलिखित थे—
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व्यापार को बढ़ावा देने वाले कारक के लिए देखें — मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने वाले कारक
बाह्य व्यापार
तमिल राज्य में कई प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। कालीमिर्च, हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशम आदि की तमिल प्रदेश में प्रचुरता थी और इन वस्तुओं की पश्चिमी देशों में बहुत माँग थी। प्रथम शताब्दी में मिस्र रोमन साम्राज्य का एक प्रान्त बन गया। इसी समय मिस्र के एक नाविक हिप्पोलस ने मानसूनी हवाओं के सहारे बड़े जहाजों से सीधे समुद्र पार कर सकने की विधि खोज निकाली। यह एक महत्त्वपूर्ण खोज थी जिससे दक्षिणी भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार प्रारम्भ हो गया जो ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य तक चलता रहा। फलस्वरूप भारत का व्यापार रोमन साम्राज्य के साथ अत्यधिक विकसित हो गया। विदेशी व्यापार से तमिल लोगों को भारी मात्रा में सोना प्राप्त होता था जो उनकी अप्रत्याशित समृद्धि का कारण बना।
प्रश्न यह उठता है कि तत्कालीन संगम साहित्यों और क्लासिकल लेखकों से जो विवरण मिलते हैं क्या उसकी पुष्टि पुरातात्त्विक साक्ष्य भी करते हैं?
पुहार (कावेरीपत्तनम्) इस काल का एक समृद्ध बन्दरगाह था जहाँ से बड़े-बड़े जहाज माल लाद कर विदेशों से आते-जाते थे। संगम साहित्य में माल से लदे हुए यवन जहाजों का यहाँ पहुँचने का विवरण मिलता है। पुहार बंदरगाह इतना सुविधाजनक था कि विदेशों से माल लेकर आने वाले बड़े-बड़े जहाज पाल उतारे बिना ही तट पर आ जाते थे। यहाँ व्यापारियों के गोदाम और कार्यालय थे।
व्यापार के द्वारा प्राप्त धन से पुहार (कावेरीपत्तनम्) के निवासियों का जीवन अत्यन्त विलासपूर्ण हो गया था। उनके भवन भव्य अलंकृत एवं बहुमंजिले बन गये थे। इन भवनों में ऊपर तो धनाढ्य व्यापारी सपरिवार रहते थे और नीचे की मंजिल का उपयोग व्यापार के लिए होता था। हिन्दू मन्दिरों के साथ-साथ यहाँ बौद्ध तथा जैन स्मारक भी स्थित थे।
समुद्र तट पर स्थित व्यापारी जहाजों पर ध्वज लहराते थे। इनके साथ विभिन्न रंगों के झंडे भी होते थे जोकि कि उन जहाजों पर लदे विशेष तरह के माल और फैशन-परस्तों के लिए उपयोगी सामान का एक प्रकार से विज्ञापन करते थे। जहाजों को संकेत देने के लिए तट पर प्रकाश-स्तम्भों / जल दीपों (light house) की स्थापना की जाती थी। जहाजों के मरम्मत का भी विवरण मिलता है।
उत्खनन में यहाँ (पुहार) तीसरी शताब्दी ईसापूर्व से पाँचवी शताब्दी ईस्वी तक आवासीय स्थल होने के साक्ष्य मिलते हैं।
पाण्ड्य तथा अन्य राज्यों में विदेशों से घोड़ों का आयात किया जाता था। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि पाण्ड्य राज्य में शालियूर (Saliyur) तथा चेर राज्य में बन्दर (Bandar) नामक प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। पाण्ड्य काल का एक अन्य प्रसिद्ध बन्दरगाह ‘कोर्कई’ था। कोर्कई मोती खोजने का प्रमुख पत्तन था।
बन्दरगाहों में कई देशों के व्यापारी बस गये थे। मुशीरी, पुहार तथा तोण्डी में यवन व्यापारियों की बस्तियाँ थीं। ये लोग बोतलों में शराब और विशेष प्रकार के विचित्र ढंग के दीपक लाते थे। इन वस्तुओं की माँग धनाढ्य परिवारों में अत्यधिक थी। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि यवन व्यापारी अपने जहाजों में सोना भरकर मुशिरी बन्दरगाह (चेर राज्य) पर उतरते थे तथा उसके बदले में काली मिर्च, समुद्री रत्न और पर्वतों से अलभ्य वस्तुएँ (दुर्लभ वस्तुएँ) ले जाते थे।
एक तरह से बड़े बन्दरगाह व्यापारिक गतिविधियों के केन्द्र थे। बड़े पत्तनों विभिन्न देशों के लोग एकत्र होते थे और कुछ पर तो बस गये थे। व्यापारिक गतिविधियों के दौरान स्वदेशी व विदेशी का समागम होता था। इस तरह बड़े बन्दरगाहों का जीवन वास्तव में विश्वव्यापी /सर्वदेशीय (cosmopolitan) था।
संगम साहित्य में तमिल प्रदेश की व्यापारिक समृद्धि का जो चित्रण मिलता है उसकी पुष्टि क्लासिकल विवरणों एवं उत्खनन में प्राप्त अवशेषों से भी हो जाती है।
‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ (अज्ञातनामा लेखक, प्रथम शताब्दी ईस्वी, लगभग ७५ ई०) भारत तथा रोम के मध्य घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्धों का विवरण प्रस्तुत करता है। वह नौरा, मुशिरी, तोण्डी, नेल्सिन्डा, मुजिरिस, बकरे, बलीता, कोमारी जैसे पश्चिमी तट के समृद्ध पत्तनों का उल्लेख करता है। यहाँ से कालीमिर्च, हाथीदाँत, रेशम, मोती, मलमल, कीमती रत्न, नीलम, शंख आदि जहाजों में भरकर पश्चिमी देशों को भेजे जाते थे।
पूर्वी तट के प्रमुख पत्तन कोल्ची, कमरा, पोडुका, मशलिया आदि थे। इस काल में सबसे अधिक सोने तथा चाँदी का आयात होता था।
विस्तृत विवरण के लिए देखें— भारत के प्राचीन बंदरगाह
सुदूर दक्षिण के कई स्थानों से रोमन सम्राटों (आगस्ट्स, टायबेरियस, नीरो आदि) के स्वर्ण व रजत सिक्के प्राप्त होते हैं जो ईसा पूर्व प्रथम और ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत तथा रोम के मध्य व्यापारिक सम्बन्धों की सूचना प्रदान करते हैं। व्यापार सम्भवतः ऑगस्टस (२७ ई०पू०-१४ ई०) के शासनकाल या उससे पहले शुरू हुआ था, क्योंकि उसके और टायबेरियस (१४ ई०-३७ ई०) के मुहर लगे कई सिक्के प्राप्त होते हैं।
चेरों की प्राचीन राजधानी करूर थी। करूर के अन्य नाम ‘वांजि’ और ‘वांजिपुरम्’ भी मिलता है। यहाँ हुए उत्खनन में रोमन सुराहियों के टुकड़े, स्थानीय चक्रांकित बर्तन, निचले आवासीय स्तरों से प्राप्त एक रोमन ताम्र सिक्का, ग्रैफाइटी चिह्नों वाले काले और लाल मृदभाण्ड प्राप्त हुए हैं। साथ ही करूर से कुछ दूरी पर बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं।
चोलों की प्रारम्भिक राजधानी उरैयूर में संगोरा वृत्तों के महापाषाणीय शवाधानों का संकेत साहित्यिक विवरणों से प्राप्त होता है। उत्खनन में अनेक प्रकार के पात्रों के साथ-साथ काले और लाल रंग के मुद्भाण्ड इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। यहाँ प्रथम द्वितीय शताब्दी ई०पू० के ब्राह्मी अभिलेखों से युक्त मुद्भाण्ड मिले हैं।
तिरुक्काम्पुलियर आरम्भिक साहित्य में यह लगभग अज्ञात है। फिरभी यहाँ ई०पू० तृतीय शताब्दी से तृतीय शताब्दी ई० के मध्य का आवासीय स्तर प्राप्त हुआ है जो महापाषाणीय तथा उत्तरकालीन आवास स्थल है। साथ ही यहाँ कलश शवाधान के स्थल भी प्रकाश में आये हैं। तिरुक्काम्पुलियर चोल, चेर तथा पांड्य तीनों बड़े राज्यों का संगम स्थल था।
अलगरै नामक एक अन्य नगर कावेरी के उत्तरी तट पर स्थित था जो महापाषाण काल का एक भव्य आवासीय और शवाधान केंद्र था। यहाँ के भित्ति-आरेखों और हड़प्पा तथा ताम्रपाषाणीय भित्ति-आरेखों में काफी समानता है।
कावेरीपट्टनम् (पुहार) संगमकालीन चोलों की उत्तरकालीन राजधानी थी। पुहार बंदरगाह के विवरण संगम साहित्य में भरे पड़े है। इस नगर के आस-पास अनेक स्थानों से लगभग ई०पू० तृतीय शताब्दी से पाँचवी शताब्दी ई० तक के आवासीय अवशेष प्रमाण प्राप्त होते हैं। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित देवी-देवताओं के मंदिरों के अतिरिक्त यहाँ अनेक बौद्ध तथा जैन संस्थान भी थे। पल्लवनेश्वर में प्राप्त बौद्ध विहार के अवशेष विशेष रूप से आकर्षक है। यहाँ (पल्लवनेश्वर) से अर्धवृत्ताकार चैत्य विद्यमान होने का संकेत मिलता है। ये निर्माण चौथी-पाँचवी शताब्दी ईसवी के है। ‘मणिमेकलै’ में वर्णित नगर के बाहर के शवाधानों का विवरण महापाषाणीय साक्ष्यों से बहुत मेल खाता है। पाण्ड्यों के महत्त्वपूर्ण बंदरगाह कर्कई जो पांड्यों की राजधानी भी थी। कोर्कई के निकट एक शवाधान स्थल विद्यमान है। पुरातात्त्विक अवशेष की दृष्टि से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध है।
कालान्तर में पल्लवों की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध होने वाली कांचीपुरम् के पल्लवमेड़ स्थान में आरम्भिक कलश शवाधान केंद्र प्रकाश में आया है। इसके अतिरिक्त काले और लाल मृद्भाण्ड, काले रंग के घोल से रंगे पात्र, कुछ बाद के काल के चक्रांकित मृद्भाण्ड, शुंडाकार ‘कलश’, द्वितीय शताब्दी ई० का सातवाहन सिक्का, पंचीन देवी की मृण्मूर्ति आदि पल्लव काल से पहले के अवशेष हैं। इन अवशेषों को ई०पू० तृतीय शताब्दी से ई०पू० प्रथम शताब्दी के बीच के माना जा सकता हैं।
कोरोमण्डल समुद्रतट पर पाण्डिचेरी से तीन किलोमीटर दक्षिण में स्थित अरिकामेडु भारत-रोमन व्यापार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थल है। १९४५ ई० में हुई यहाँ की खुदाई से एक ऐसी विशाल रोमन बस्ती का प्रमाण मिला है जोकि व्यापारिक केन्द्र थी और इसी के समीप एक पत्तन भी था। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ तक इसका उपयोग होता रहा। यहाँ से एक बड़ा मालगोदाम, दो छोटे-छोटे जलकुण्ड (रंगाई के हौज), रोमन दीप के टुकड़े, काँच के कटोरे, रत्न, मनके तथा बर्तन प्राप्त किये गये हैं। एक मनके के ऊपर रोमन सम्राट आगस्टस का चित्र बना हुआ है।
बसवसमुद्र (मद्रास) भी एक महत्त्वपूर्ण पत्तन था। यह पालार नदी के मुहाने पर स्थित था। यहाँ से प्रथम शताब्दी से तृतीय शताब्दी के मध्य के आवाशीय स्थल प्राप्त हुए हैं।
इन साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम दो-तीन शताब्दियों में भारत तथा रोम के मध्य प्रगाढ़ व्यापारिक सम्बन्ध था। अरिकामेडु एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था जहाँ देश के विभिन्न भागों से व्यापारिक वस्तुयें एकत्र की जातीं और इन एकत्रित वस्तुओं को यहाँ से रोम को भेजी जाती थीं।
मनकों के निर्माण का अरिकामेडु में कारखाना भी था। यहाँ मलमल तथा अन्य वस्तुओं का निर्माण संभवतः रोमन लोगों की पसन्द के अनुसार किया जाता था जो जहाजों द्वारा रोम भेजा जाता था।
इस काल के व्यापार के सम्बन्ध में हमें प्रथम शताब्दी की अज्ञातनामा लेखक की कृति ‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ से भी होती है। इसके विवरण से हमें पता चलता है कि भारत और रोमन साम्राज्य के मध्य व्यापार अत्यन्त विकसित अवस्था में था। इस कृति में लगभग २४ बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है। पश्चिमी तट पर नौरा (कन्नानौर), तोण्डी (आधुनिक पोन्नानी), मुशिरी / मुजिरिस और नेल्सिंडा (कोट्टायम के निकट) बंदरगाह बताये गये हैं। मुजिरिस में अरब और यूनानियों द्वारा माल लेकर भेजे जाने वाले जहाजों की भरमार रहती थी। नेल्सिंडा पाण्ड्य राज्य का हिस्सा था। बकरे (पुरक्काड) पश्चिमी तट पर एक अन्य बंदरगाह था। इसके अनुसार इन व्यापारिक पत्तन नगरों में बड़ी संख्या में जहाज विद्यमान रहते थे, जिनपर काली मिर्च, तेजपत्ता (malabathrum) के साथ अनेक प्रकार के मसाले आदि लादे जाते थे। मसालों के अतिरिक्त उत्तम कोटि के हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशमी वस्त्र पश्चिमी देशों को निर्यात किये जाते थे।
अज्ञातनामा लेखक की कृति ‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ द्वारा उल्लिखित दक्षिण भारत के कुछ अन्य बंदरगाह हैं — बलीता (वर्कलाई), कोमारी, कॉल्ची (कोर्कई), कामरा (पुहार), पोडुका (अरिकामेडु) और सोपाटमा (मरकाणम)। कॉल्ची (कोर्कई) पांड्य राज्य का पत्तन था। कॉल्ची (कोर्कई) पत्तन पर समुद्र से मोती निकालने और मत्स्यपालन का काम अपराधियों द्वारा किया जाता था।
‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ को नीलकंठ शास्त्री उद्धृत करते हैं—
“They send large ships to these market towns on account of the great quantity and bulk of pepper and malabathrum (to be had there). There are imported here, in the first place, a great quantity of coins; topaz, thin clothing, not much; figured linens, antimony, coral, crude glass, copper, tin, lead; wine, not much, but as much as at Barygaza; realgar and orpiment, and wheat enough for the sailors, for this is not dealt in by the merchants there. There is exported pepper, which is produced in quantity in only one region near these markets, a district called Cottonara. Besides this there are exported large quantities of fine pearls, ivory, silk cloth, spikenard from the Ganges, malabathrum from the places in the interior, transparent stones of all kinds (principally beryls of the Coimbatore district for which there was a constant demand in Rome), diamonds and sapphires, and tortoise shell; that from Chryse Island and that taken among the islands along the coast of Damirica.” — A HISTORY OF SOUTH INDIA, P. 134.
भारत के महीन सूती कपड़े विश्व में प्रसिद्ध थे। कवियों ने रेशमी कपड़ों पर जटिल बेलबूटों के बुनने की भी चर्चा की है। इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार के बहुमूल्य रत्न, हीरे, पारदर्शी पत्थर (रत्न), नीलम, कर्पर (tortoise shell) भी निर्यात किये जाते थे। रोमन साम्राज्य तथा दक्षिण भारत के बीच व्यापार का प्रमाण पुरातत्त्व-सम्बन्धित स्रोतों से भी पुष्ट होता है। ऑगस्टस तथा टिवेरियस के मुहर वाले सिक्के और नीरो (५४-६८ ई०) के स्वर्ण और रजत के सिक्के तमिल प्रदेश के अनेक स्थलों पर प्राप्त हुए हैं।
तमिल राज्यों का पश्चिम में मिस्र तथा अरब लोगों के साथ-साथ पूर्व में मलय द्वीप-समूहों और चीन से प्राचीन काल से ही व्यापारिक सम्बन्ध था।
यूनानी नाविक हिप्पॉलस ने प्रथम शती ई० में मानसून के सहारे बड़े जहाजों से सीधे समुद्र पार कर सकने की जानकारी प्राप्त की। (यह नाविक मिश्र में जाकर बस गया था इसलिए कहीं-कहीं इसके लिए मिश्री नाविक शब्द का भी प्रयोग मिलता है।) मानसून के सहारे सीधे अरब सागर को पार करने की विधि एक महत्त्वपूर्ण जानकारी थी। इससे दक्षिण भारत तथा पश्चिम जगत् के मध्य व्यापक स्तर पर व्यापार होने लगा।
पूर्वी तट पर तीन प्रकार की नावों के प्रयोग का उल्लेख मिलता है। पहले प्रकार स्थानीय जहाज (local ships) जो तट के किनारे यात्रा करते थे। दूसरे प्रकार के बड़े जहाज जिसे एक साथ लट्ठों को बाँधकर बनाया जाता था और इसे संगारा (sangara) कहा जाता था। तीसरे प्रकार का जहाज कोलंडिया (Colandia) बहुत बड़ा होता था और इसका प्रयोग क्रिसे (Chryse) और गंगा की यात्राओं के लिए किया जाता था।
‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ में उरैयूर का उल्लेख अरगारू (Argaru) के रूप में किया है। अरगारू (Argaru) में तट से एकत्र किये गये मोती निर्यात किये जाते थे। अरगारू (Argaru) के मलमल के कपड़ों को अर्गरिटिक (Argaritic) नाम से लेखक पुकारता है जिसका निर्यात किया जाता था।
पूर्वी तट के बंदरगाहों के बारे में ‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ विवरण मिलता है कि उन्हें दामिरिका (Damirica) में सभी प्रकार के सामान मिलते थे और अधिकांश वस्तुएँ मिस्र से लायी जाती थीं। उसके अनुसार मसलिया (Masalia,आंध्र) का क्षेत्र बड़ी मात्रा में मलमल के उत्पादन के लिये प्रसिद्ध था, जबकि हाथीदाँत डोसारेन /दशार्ण (Dosarene / Dasharna,उड़ीसा) के उत्तरी क्षेत्र से आता था।
रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक सम्बन्ध भारत के पक्ष में था। रोम के साथ जब तक व्यापारिक सम्बन्ध चलता रहा दक्षिण के तमिल राज्य समृद्धिशाली बने रहे, परन्तु जब व्यापार का पतन हुआ तो इन राज्यों का भी पतन प्रारम्भ हो गया। इसका कारण था समुद्री व्यापार मार्ग पर अरब तथा पूर्वी अफ्रीका के लोगों का प्रभुत्व स्थापित होना और साथ ही मध्य एशिया में हुणों का उत्थान जिन्होंने स्थल मार्ग को भी अरक्षित बना दिया था। हुणों का आक्रमण रोमन साम्राज्य पर चतुर्थ शताब्दी के अंत में होना प्रारम्भ हुआ वहीं उत्तरी भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के शासनकाल में हुणों का भारत पर पहला आक्रमण हुआ था।
आन्तरिक व्यापार
बाह्य व्यापार के साथ-साथ संगम युग में आन्तरिक व्यापार भी प्रगति पर था। दक्षिण भारत के कई स्थानों से व्यापारी उत्तर भारत के बाजारों में माल लेकर आते-जाते थे। व्यापारी कारवाँ में चलते थे। माल को एक स्थान से दूसरे स्थान और मेलों के बीच ले जाने के लिए गाड़ियों (carts) और भारवाही जानवरों (pack animals) का उपयोग किया जाता था।
संगम साहित्य में नमक के व्यापारियों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। नमक व्यापारी अपने परिवारों के साथ गाड़ियों (carts) में यात्रा करते थे और आपात स्थिति के लिये ये व्यापारी अतिरिक्त धुरी (axle) साथ लेकर चलते थे।
आन्तरिक व्यापार वस्तु विनिमय (Barter-system) द्वारा होता था, दूसरे शब्दों में सभी लेन-देन में वस्तु विनिमय की बड़ी भूमिका होती थी। विविध प्रकार की जड़ी-बूटियों, पशुओं, गन्ना, ताड़ी, मछली का तेल, मांस आदि, का उल्लेख साहित्य में प्राप्त होता है जिनकी अदला-बदली की जाती थी। उदाहरणार्थ, शहद और जड़ूी-बूटी का विनिमय मछली के तेल और ताड़ी से किया जाता था, गन्ना और अवल (चावल के गुच्छे) का विनिमय हरिण के मांस और अरक (arrack) से किया जाता था। मुशिरी में मछली का विनिमय धान के साथ किया जाता था।
सूत कातना सदैव की भाँति स्त्रियों का प्रमुख कार्य था| छोटे वर्ग की स्त्रियाँ खेतों में मजदूरी करती थीं। उनकी स्थिति लगभग दास के समकक्ष थी, परन्तु यह उल्लेखनीय है कि भारतीय इतिहास में संगमकाल ही एकमात्र कालखण्ड है जिसमें दास प्रथा नहीं थी।
चेरों के समय में रजत एवं ताम्र धातुओं के आहत सिक्के प्रचलित किये गये। इनका प्रसार दकन से सुदूर दक्षिण तक मिलता है। चेर शासक नक्कोट्टै ने लघु ताम्र सिक्के प्रचलित करवाये। इनका समय प्रथम शती ईसा पूर्व से लेकर ईस्वी प्रथम शती के बीच का है। इन सिक्कों पर रोमन प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।
देश के विभिन्न भागों में बड़े-बड़े बाजार लगते थे। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि इस समय के व्यापारी सदाचारी तथा ईमानदार हुआ करते थे। वे कभी भी अनुचित रूप से ग्राहकों का उत्पीड़न नहीं करते थे। व्यापारियों को माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए चुंगी अदा करनी होती थी। भार ढोने के लिये गाड़ियों तथा टट्टुओं का उपयोग होता था। इस प्रकार संगमकालीन तमिल देश आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध एवं सम्पन्न था।
FAQ
प्रश्न — संगमकाल में तमिल क्षेत्र की आर्थिक दशा पर टिप्पणी लिखिए।
(Write a note on the economic condition of the Tamil region during the Sangam period.)
उत्तर —
संगम साहित्य, क्लासिकल रचनाओं और पुरातत्त्विक अवशेषों से संगमकालीन आर्थिक दशा का ज्ञान मिलता है।
कृषि
राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि यहाँ की भूमि बहुत उर्वरा थी। भूमि की उर्वरा शक्ति के सम्बन्ध में कावेरी डेल्टा के बारे में कहावत प्रसिद्ध थी कि— ‘जितनी भूमि एक हाथी बैठने में घेरता है, उतने में ७ व्यक्तियों के लिए अन्न पैदा होता है।’
चेर राज्य भैंस, कटहल, काली मिर्च तथा हल्दी के लिए विख्यात था। संगम कविताओं में रागी और गन्ने के उत्पादन, गन्ने से शक्कर बनाने, फसल काटने, खाद्यान्नों के सुखाने का अत्यंत सजीव वर्णन मिलता है। कृषि कार्य मुख्य रूप से महिलाएँ करती थीं।
भूमि के पाँच मुख्य (पंचतिणै) प्रकार मिलते हैं—
- मरूदम (Marudam)— यह उपजाऊ कृषि भूमि थी— the cultivated plains— यहाँ धान, वज्जि, कज्जि, कुवलै आदि सभी प्रकार की फसलें पैदा होती थी।
- कुरिंजि (Kurinji)— पर्वतीय भूमि— the hills— यह मरुदम से कुछ कम उपजाऊ होती थी। इस तरह की भूमि मे ज्वार, धान, बाँस, चीड़ और आम उगाये जाते थे। ज्यादातर कृषक इसी प्रकार के क्षेत्र में रहते थे।
- मुल्लै (Mullai)— यह अरण्य या जंगली भूमि थी— the jungle and woodlands — यहाँ पशुपालक ज्यादा रहते थे। इसमें रागी, कोडरै आदि उपज होती थी।
- नेथल (Neydal)— यह समुद्रवर्ती क्षेत्र / तटवर्ती भूमि थी — the coast— यहाँ का मुख्य उत्पादन नमक और मछली थी। यहाँ मछुआरे और नमक बनाने वाले रहते थे।
- पालै (Palai)— यह रेगिस्तानी भूमि थी— the dry lands— इस कारण यहाँ उत्पादन नाममात्र का होता था। यहाँ के निवासी लूट-पाट एवं चोरी पर निर्भर थे।
शिल्प और उद्योग
संगम काल में विभिन्न शिल्प और उद्योग प्रचलित है। कुछ प्रमुख उद्योगों का विवरण अधोलिखित है—
- वस्त्र उद्योग सर्वाधिक प्रचलित था। सूती, रेशमी, ऊनी सभी प्रकार के वस्त्रों का निर्माण होता था। उरैयूर एवं मदुरा वस्त्र उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे। उरैयूर कपास के लिए प्रसिद्ध था। अरिकामेडु से मलमल के वस्त्रों निर्यात होता था। चीन से चीनी रेशम ‘चीनांशुक’ प्राप्त होता था।
- मसाला उद्योग— विदेशी व्यापार के लिए निर्यात की प्रमुख वस्तु थी। चेर राज्य मसाला उद्योग के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध था। यहाँ काली मिर्च और हल्दी का प्रभूत उत्पादन होता था। काली मिर्च के रोमन साम्राज्य को प्रभूत निर्यात के कारण इसका नाम ही ‘यवनप्रिय’ पड़ गया।
- धातु उद्योग— सोना तथा लोहा।
- हाथी दाँत उद्योग— वारंगल, कलिंग आदि क्षेत्र हाथी दाँत के लिए प्रसिद्ध थे।
- चर्म उद्योग— चमड़े से जूते, बाजे इत्यादि बनाये जाते थे।
- मद्य उद्योग— गन्ने, चावल और जौ से मदिरा बनायी जाती थी।
- तेल उद्योग— अदरक और तिल से तेल का निर्माण किया जाता था।
- नमक उद्योग— तटवर्ती नगरों मे प्राप्त होता था। आन्तरिक व्यापार में इसका विशेष महत्त्व था।
व्यापार
संगम युग की महत्त्वपूर्ण विशेषता इसका आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार था। इस समय रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार अत्यन्त उन्नत अवस्था में था। इस व्यापार का विस्तृत विवरण प्लिनी ने अपनी पुस्तक ‘नेचुरल हिस्टोरिका’ में किया है। रोम के शासको में सर्वाधिक व्यापार आगस्टस के समय में होने के प्रमाण हैं, क्योंकि इसी समय के सर्वाधिक स्वर्ण सिक्के भारत में पाये गये हैं। आगस्टस के बाद टाइबेरियस एवं नीरो के समय व्यापार में क्रमशः गिरावट आती गयी। आगस्टस का एक मन्दिर मुजिरिस (क्रांगानोर) में बनवाया गया था। रोमन लोगों ने यहाँ रक्षा के लिये सेना की दो टुकडियाँ भी स्थापित की थीं। कावेरी पत्तनम में एक यवन बस्ती थी।
स्वतंत्रता के बाद अरिकामेडु (पाण्डिचेरी) के उत्खनन में रोमन उत्पत्ति के पात्र, दीप के टुकड़े आदि प्राप्त हुए हैं। रोम के अतिरिक्त यूनान, मिस्र, चीन और श्रीलंका के साथ भी व्यापार उन्नत अवस्था में था।
एक अज्ञातनामा यूनानी नाविक द्वारा रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘पेरिप्लस ऑफ द इरीश्रियन सी’ में विभिन्न बन्दरगाहों (लगभग २४) की सूची मिलती है। इस ग्रन्थ में नौरा (कन्नौर), तोण्डी (आधुनिक पोन्नानी), मुशिरी और नेल्सिंडा (कोट्टयम के निकट) पश्चिमी तट के प्रमुख बन्दरगाह बताये गये है। पाण्ड्यों के बन्दरगाह शालियूर तथा कोर्कई थे। कोर्कई को पेरिप्लस में कॉल्ची भी कहा गया है। कोर्कई समुद्री मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ से अपराधियों द्वारा मोती निकाले जाने और उन्हें मदुरा के बाजार में बेचे जाने का उल्लेख पेरिप्लस एवं प्लिनी दोनों ने किया है। पाकजलडमरूमध्य से निकाली गयी मोती पुहार (कावेरीपत्तनम्) और उरैयूर के बाजारों में बिकती थी। चेरों के बन्दरगाह तोण्डी, मुशिरी या मुजिरिस, करौरा, वांजि तथा बन्दर थे। चोलों के बन्दरगाह पुहार, अरिकमेडु तथा उरैयूर थे। उरैयूर कपास के लिए विख्यात था। पेरिप्लस में अरिकमेडु का नाम पेडोक मिलता है।
निर्यातित वस्तुओं में गरम मसाले, हाथी दाँत की बनी वस्तुएँ, रेशमी वस्त्र, मोती, बहुमूल्य रत्न, नीलम, कर्पर (Tortoise Shell), वैदूर्य, तोता, मयूर, बन्दर आदि प्रमुख थे।
आयातित वस्तुओं में अश्व, मदिरा, सीसा, सोना और चाँदी प्रमुख थे।
पाण्ड्य राज्य का एक व्यापारिक मण्डल भड़ौच बन्दरगाह से लगभग २१ ई०पू० में आगस्टस की राजसभा में पहुँचा।
विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषता थी कि व्यापार बिचौलियों द्वारा किया जाता था। बिचौलियों का कार्य करने वाले मुख्य रूप से सिकन्दरिया के यहूदी एवं यवन थे।
संगम युग का वैदेशिक व्यापार भारतीय पक्ष में था। प्लिनी अपनी पुस्तक में इस बात के लिये आँसू बहाता है कि “उसके यहाँ का सारा सोना विलासिता की सामग्री खरीदने में भारत चला जाता है तथा प्रतिवर्ष ६० करोड़ सेस्टर्स की हानि उसके देश को होती है।”
संगम युग में आन्तरिक व्यापार भी उन्नत अवस्था में था। यह वस्तु-विनियम पर आधारित था। इस समय के नमक के व्यापारियों का विशेष उल्लेख है।