वैन्यगुप्त (५०७ ई०)

भूमिका

वैन्यगुप्त के विषय में हमारी जानकारी का मुख्य स्रोत वर्तमान बाँग्लादेश के कोमिल्ला में स्थित गुणैधर का ताम्रपत्र और नालन्दा से मिली एक मुहर है।

संक्षिप्त परिचय

नामवैन्यगुप्त
पितापूरुगुप्त
माताचन्द्रदेवी (?)
पत्नी
पुत्र
पूर्ववर्ती शासक
उत्तराधिकारी
शासनकाल५०७ ई० से ?
उपाधिभगवन्यमहादेवपादानुध्यातो, परमभागवत, महाराज, महाराजाधिराज
अभिलेखगुणैधर ताम्र-लेख
नालंदा मुद्रालेख

राजनीतिक इतिहास

वैन्यगुप्त के नालन्दा मुहर की छाप का उपलब्ध अंश बुधगुप्त के नालन्दा मुहर की छाप के अनुरूप ही है। इन दोनों की अन्तिम पंक्ति में केवल नाम का अन्तर है— एक में बुधगुप्त है और दूसरे में वैन्यगुप्त।

इस छाप के उपलब्ध होने पर यह बात प्रकाश में आयी कि पूरुगुप्त के बुधगुप्त और नरसिंहगुप्त के अतिरिक्त एक तीसरा पुत्र भी था। इसकी माता के नामवाला अंश अनुपलब्ध है। भण्डारकर के अनुसार उसका पहला अक्षर च और दूसरा संयुक्ताक्षर जान पड़ता है। इस प्रकार उसकी पूर्ति उन्होंने चन्द्रदेवी के रूप में की है। चन्द्रदेवी नाम नरसिंहगुप्त और कुमारगुप्त (तृतीय) के मुद्राभिलेखों में उनकी माता और पूरुगुप्त की पत्नी के रूप में हुआ है। यदि भण्डारकर का अनुमान सत्य है तो कहा जा सकता है कि वह नरसिंहगुप्त का सहोदर था। अर्थात् पूरुगुप्त के तीन पुत्र थे— बुधगुप्त, नरसिंहगुप्त और वैन्यगुप्त।

क्या वैन्यगुप्त स्वतंत्र शासक था?

गुणैधर ताम्र-लेख में वैन्यगुप्त को केवल “महाराज” कहा गया है। जबकि गुप्त सम्राट द्वारा  “महाराजाधिराज” की उपाधि धारण करते थे। तो क्या इस आधार पर हम कह सकते है कि वैन्यगुप्त स्वतंत्र रूप से शासक नहीं बना था?

वहीं दूसरी ओर वैन्यगुप्त के गया अभिलेख में “महाराजाधिराज” कहा गया है। तो क्या इस आधार पर वैन्यगुप्त स्वतंत्र रूप से शासक बनना माना जा सकता है?

इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते हैं।

वैन्यगुप्त शैव था या परमभागवत?

गुप्त-सम्राट सदैव अपने को परमभागवत कहते रहे हैं और उनकी मुद्राओं पर राज-लांछन के रूप में गरुड़-अंकित पाया जाता रहा है।

परन्तु स्कन्दगुप्त के बाद हम कई गुप्त सम्राटों को “परमदैवत” की उपाधि धारण करते हुए पाते हैं; जैसे— बुधगुप्त। परन्तु वे अपने राजवंश की लोकप्रिय उपाधि “परमभागवत” भी धारण करते रहे।

गुणैधर ताम्र-लेख में वैन्यगुप्त को महादेव-पादानुध्यात (शिव-भक्त) कहा गया है।

“स्वस्ति [।] महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारात्क्रीपुराद्भगवन्महादेवपादानुद्धयातो महाराज-श्रीवैन्यगुप्तः

कुशली — — — — — स्वपादोपजीविनश्च कुशलमशंस्य समाज्ञापयति [I]”

—पंक्ति संख्या- १, २; गुणैधर ताम्र-लेख

इसके साथ मिली मुद्रांक पर भी वृषभ का अंकन है। ये ऐसे तथ्य हैं जो वैन्यगुप्त को गुप्त-वंश की सम्राट्-परम्परा से अलग रख देते हैं।

परन्तु बुधगुप्त की ही तरह वैन्यगुप्त के नालंदा मुद्रालेख में उसके लिए “परमभागवत” विरुद का प्रयोग किया गया है।

“परमभागवतो महाराजाधिराज श्रीवैन्यगुप्तः [।]”

—पंक्ति संख्या- ४; नालंदा मुद्रालेख

इन दोनों विरुदों के धारणकर्ता होने की अनुमानित व्याख्या यह हो सकती है कि वैन्यगुप्त शैव था, परन्तु अपने राजवंश का विरुद धारण करता रहा।

क्या वैन्यगुप्त गुप्त राजवंश से सम्बन्धित था?

गुप्त-वंश में वैन्यगुप्त नामक शासक होने की बात भी पूर्ण निश्चय के साथ नहीं कही जा सकती। वैन्यगुप्त पूरुगुप्त का पुत्र था, यह बात नालन्दा से प्राप्त एक खण्डित मुद्रा-लेख के आधार पर ही कही जाती है। किन्तु मुद्रा-लेख के वैन्य पाठ को निसार अहमद ने सन्दिग्ध ठहराया है। उसे वे चन्द्र पढ़ते हैं।

गुप्त-वंश की कुछ सुवर्ण मुद्राओं पर वैन्य पाठ होने की बात भी कही जाती है। किन्तु इन सिक्कों पर मूलरूप से एलन में चन्द्र पढ़ा था। बाद में उसके वैन्य पाठ का अनुमान किया गया है। इस प्रकार मुद्रा एवं सिक्कों के वैन्य पाठ के प्रति सन्देहभाव बना हुआ है।

यदि मुद्रा पर वैन्यगुप्त पाठ मान्य हो भी, तब भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि मुद्रा के “परमभागवत महाराजाधिराज वैन्यगुप्त” को क्योंकर प्रस्तुत शासन का “महादेव पादानुध्यात महाराज वैन्यगुप्त” कहा गया है?

मात्र अभिलेख की तिथि और गुप्त नामान्त ही ऐसे आधार हैं जिनसे इन्हें गुप्त-अभिलेखों के क्रम में रखा जा सकता है।

गुणैधर ताम्र-लेख का महत्त्व

  • गुणैधर ताम्रपत्र पर गुप्त सम्वत् १८८ अर्थात् ५०७ ईस्वी अंकित है।
  • इसमें वैन्यगुप्त को “महाराज” और “महादेव का “पादानुध्यात” बताया गया है।
  • इसमें बौद्ध विहार के लिये कुछ भूमिदान दिये जाने का वर्णन है।
  • गुणैधर ताम्रपत्र में उसके दो प्रान्तीय शासकों विजयसेन एवं रुद्रदत्त के नाम मिलते हैं। रुद्रदत्त को भी “महाराज” कहा गया है। परन्तु विजयसेन को “महाराज श्री महासामन्त विजयसेन” कहा गया है।

यह अभिलेख भूमि-प्रशासन से सम्बन्धित गुप्तकालीन इतिहास का प्रमुख स्रोत है। इसमें कई पद पदाधिकारियों के नाम सहित, भूमि-मापन और प्रशासन सम्बन्धित शब्दावलियाँ मिलती हैं।

निष्कर्ष

स्कन्दगुप्त के बाद का गुप्त-राजवंश का इतिहास बहुत उलझा हुआ है। इस सम्बन्ध हम इतना ही कह सकते हैं कि वैन्यगुप्त ने गुप्त साम्राज्य के पूर्वी भाग पर शासन किया। वह शैव मतावलम्बी था। उसने ५०७ ई० के आसपास शासन किया। उसके कुछ स्वर्ण सिक्के भी मिलते हैं।


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