विदेशी आक्रमण का प्रभाव या मध्य एशिया से सम्पर्क का प्रभाव (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

भूमिका

मौर्योत्तर काल (२०० ई०पू० – ३०० ई०) की एक प्रमुख विशेषता है ‘विदेशी आक्रमण’ जनित भारतीय सभ्यता पर पड़ने वाले प्रभाव और उनका भारतीय समाज में आत्मसातीकरण। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत में विदेशी आक्रमणों का दौर प्रारम्भ हुआ। अब आने वाले आक्रमणकारी— यवन, शक, पहृव, कुषाण आदि भारत के विभिन्न भागों में स्थायी रूप से बस गये तथा उन्होंने अपने विशाल साम्राज्य स्थापित किये। लगभग पाँच शताब्दियों के उनके शासन काल में भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्ष— समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, राजनीति तथा शासन, साहित्य, कला आदि सभी न्यूनाधिक रूप से प्रभावित हुए।

मौर्योत्तर काल में पश्चिमोत्तर से आने वाले यूनानी, पार्थियन (पह्लव), शक और कुषाणों के आने से भारतीय संस्कृति में नये-नये उपादान के समामेलन से इसे अपार समृद्ध बनाया। वे सदा के लिये भारतवासी हो गये और अपने को भारतीय संस्कृति की धारा में पूर्णतः विलीन कर दिया।

सामाजिक दशा

मौर्योत्तरकालीन समाज में बहुसंख्यक विदेशी जनजातियाँ अपनी-अपनी परम्पराओं एवं प्रथाओं के साथ प्रवृष्ट हुई। धीरे-धीरे वे सभी भारतीय समाज एवं संस्कृति में समाहित हो गयी। विदेशियों का आत्मसातीकरण इस काल में सबसे अधिक हुआ। यद्यपि मेनान्डर एवं हेलियोडोरस जैसे कुछ राजाओं ने अपना विदेशी नाम बनाये रखा, परन्तु उन्होंने भारतीय रीति रिवाज एवं प्रथाओं को अपना लिया। तत्कालीन लेखों में हम इन्द्राग्निदत्त, धर्मरक्षित, ऋषभदत्त, दक्षमित्र, रुद्रदामन् जैसे नाम मिलते हैं। नहपान की पुत्री का नाम दक्षमित्रा तथा दामाद का नाम उषावदात (ऋषभदत्त) था। ब्राह्मण, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों में विदेशी मूल के लोग शामिल होने लगे। विभिन्न विदेशी राजाओं ने इन धर्मो को प्रचुर दानादि भी दिये।

भारतीय शास्त्रकारों के समक्ष समाज में उनकी स्थिति निर्धारित करना एक समस्या बन गयी। कट्टरपंथी ब्राह्मण व्यवस्थाकारों ने उन्हें शूद्र, ‘वृषल’ आदि नाम दिये। पतंजलि यवनों तथा शकों को ‘अनिरवासित शूद्र’ कहते है।

परन्तु उनमें से अधिकांश विजेता के रूप में आये इसलिये उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। ब्राह्मणीय समाज में उनके प्रवेश की व्याख्या अद्भुत ढंग से की गयी है। स्मृतिकार मनु ने कहा है कि अपने कर्त्तव्यों से च्युत हुए अधम क्षत्रिय ही शक और पह्लव हुए। क्योंकि भारतीय समाज में योद्धा वर्ग क्षत्रिय वर्ण के होते थे और ये विदेशी भी विजेता के रूप में आये थे इसलिये भारतीय समाज में योद्धा वर्ग में अर्थात् क्षत्रिय वर्ण में समाविष्ट हुए। अर्थात् उन्हें द्वितीय श्रेणी के क्षत्रिय का स्थान मिला। इस सम्बन्ध में इतिहासकार रामशरण शर्मा का कहना है कि; ‘भारतीय समाज में विदेशियों का आत्मसातीकरण जितना अधिक मौर्योत्तर काल में हुआ उतना सम्भवतया प्राचीन भारत के इतिहास और किसी काल में नहीं हुआ।’*

‘In no other period of ancient Indian history were foreigners assimilated into Indian society on such a large scale as they were in post-Maurya time.’*— India’s Ancient Past; R. S. Sharma.

कुछ विदेशियों के साथ उनके पुरोहित भी आये थे जिन्हें ब्राह्मणों के साथ संयुक्त कर लिया गया। मग या शाकद्वीपी ऐसे ही ब्राह्मण थे जो शकों के साथ भारत आये थे। स्वयं स्मृतिकार मनु के वचन से निष्कर्ष निकलता है कि शक, यवन, पह्लव इत्यादि विदेशी जातियाँ संस्कार युक्त होने पर क्षत्रिय जाति में गिनी जा सकती थीं। मिलिन्दपण्हों में मेनान्डर को क्षत्रिय जाति का बताते हुए उसकी वंशावली दी गयी है। महाभारत शक, यवन आदि जातियों को छोटे-मोटे यज्ञ करने की अनुमति प्रदान करता है। लेखों से उनकी उन्नत सामाजिक स्थिति की सूचना मिलती है।

स्थानीय द्विजवर्ण में उनके विवाह भी होते थे। यद्यपि गौतमीपुत्र शातकर्णि अपने लेखों में वर्णसंकरता रोकने का दावा करता है किन्तु स्वयं उसने ही अपने पुत्र का विवाह रुद्रदामन् की पुत्री से किया। ईक्ष्वाकुवंशी शान्तमूल ने अपने पुत्र वीरपुरुषदत्त का विवाह उज्जैनी के शक महाराज की कन्या रुद्रभट्टारिका से किया था। रुद्रदामन् यह दावा करता है कि उसने कई स्वयंवरों में जाकर राजकुमारियों से विवाह किया था। इनमें अवश्य ही कुछ स्थानीय क्षत्रिय कुलों की राजकन्यायें रही होगी।

विदेशियों ने भारतीय धर्म को भी ग्रहण किया, उन्हें दानादि दिया तथा उनमें अपने लिये प्रतिष्ठित स्थान बना लिया। उनके लेखों में प्राकृत का प्रयोग मिलता है। नहपान की पुत्री ने बौद्धों और ब्राह्मणों को दान दिया था। रुद्रदामन् वैदिक धर्म एवं संस्कृति का महान् पोषक था। यवन हेलियोडोरस ने भागवत (वैष्णव) धर्म ग्रहण किया तथा मेनान्डर ने बौद्ध धर्म में ‘अर्हत्’ पद प्राप्त किया। कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था।

इससे स्पष्ट होता है कि “पश्चिमोत्तर से आये विदेशी विजेता समाज से बहिष्कृत नहीं माने जाते थे। अधिकांश विदेशी आक्रान्ताओं ने स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर लिया तथा उनकी प्रभुसत्ता के कारण भारतीय व्यवस्थाकारों को वस्तुस्थिति से समझौता करना पड़ा।”

राजनीतिक संरचना

भारतीय यूनानियों तथा उनके विदेशी उत्तराधिकारियों द्वारा शासित क्षेत्रों में मौर्य शासन-व्यवस्था के चिह्न दिखायी नहीं देते हैं। हमें राजव्यवस्था के कई नये तत्त्व देखने को मिलते हैं; जैसे— संयुक्त शासन, द्वैध शासन, क्षत्रपीय प्रणाली, सैन्य शासन इत्यादि।

  • शक तथा पह्लव शासकों ने ‘संयुक्त शासन’ का चलन प्रारम्भ किया जिसमें युवराज सत्ता के उपभोग में राजा का बराबरी का सहभागी होता था। दूसरे शब्दों में दो आनुवंशिक राजाओं का ‘संयुक्त शासन’ जिसमें एक ही समय एक ही राज्य पर दो राजाओं का शासन हो सकता था। इस विचित्र व्यवस्था में हम पिता और पुत्र दोनों को एक ही समय संयुक्त रूप से शासन करते हुए पाते हैं।
  • कुषाणों ने प्रान्तों में ‘द्वैध शासन’ की विचित्र प्रणाली का भी प्रचलन किया।
  • शक और कुषाण लोग पार्थियनों के माध्यम से अखामनी राजवंश की ‘क्षत्रपीय प्रणाली’ भी इस देश में ले आये। साम्राज्य अनेक क्षत्रपियों (उपराज्यों) में बाँट दिया गया और हरेक क्षत्रपी एक-एक क्षत्रप के शासन में छोड़ दिया गया। उदाहरण के रूप में ‘खरपल्लान’ और ‘बनस्फर’ क्रमशः मथुरा और वाराणसी में कुषाणों के महाक्षत्रप थे।
  • यूनानियों ने ‘सैन्य-शासन’ (military governorship) की परिपाटी भी चलायी। वे इसके लिये शासक सेनानियों की नियुक्ति करते थे जो यूनानी भाषा में स्ट्रेटेगोस (strategos) कहलाते थे। सेनानी शासकों की आवश्यकता विजित प्रजा पर नये राजाओं का प्रभाव जमाने के लिये होती थी।

इन तत्त्वों के अतिरिक्त विकेन्द्रीकरण, भारी-भरकम उपाधियाँ, राजत्व में देवत्व का आरोपण, देवकुल का निर्माण जैसे तत्त्व भी देखने को मिलते हैं। भारत में इसका (उपाधियाँ, देवत्व, देवकुल) प्रयोग स्वभावतः राजसत्ता को मान्यता और वैधता पाने के लिये किया गया था। स्मृतिकार मनु ने कहा है कि राजा बच्चा ही क्यों न हो उसका आदर करना चाहिए, क्योंकि वह मानव रूप धारण करके शासन करने वाला देवता होता है। इनका विवरण अधोलिखित है—

केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण:

मौर्योत्तर काल में अधिकतर राज्य छोटे-छोटे थे। यद्यपि कुषाणों व शकों ने विस्तृत साम्राज्य स्थापित किये तथापि वे कभी भी वह केन्द्रीकृत शासन स्थापित करने में सक्षम नहीं हो पाये जो मौर्यों ने कर लिया था। इसके निवारण के लिये मौर्योत्तर राजवंशों ने छोटे-छोटे राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें अपने आधीन शासन करने की अनुमति दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘सामन्ती व्यवस्था’ का बीजारोपण पड़ गया। गुप्तोत्तर काल में जिस सामन्तवाद को हम पूर्णतया प्रतिष्ठित पाते हैं उसका बीजारोपण इसी काल में हुआ था। इसके उद्भव के पीछे भी विदेशी प्रभाव देखा जा सकता है।

भारी-भरकम उपाधियाँ धारण करना:

कुषाण शासक ‘षाहानुषाहि’ कहे जाते थे। पश्चिमी भारत के शक शासकों में महाक्षत्रप तथा क्षत्रप जैसी उपाधियाँ प्रचलित थीं। इसका प्रभाव ‘राजनीतिक सामन्तवाद’ के उदय पर पड़ा। शक-कुषाण काल में हम सामन्तवाद के न केवल राजनीतिक अपितु सामाजिक-आर्थिक कारक भी देखते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में सामन्तवाद का मूलतत्त्व शासक-अधीनस्थ सम्बन्ध होता है और यह हमें शक-कुषाण राज्यतन्त्र में ही दिखायी देता है। जैन ग्रन्थ ‘कालकाचार्य’, कथानक में कहा गया है कि शकों में जागीरदारों को ‘षाहि’ तथा उनके अधिपतियों को ‘षाहानुषाहि’ कहा जाता था। कुषाण शासक ‘रजतिराज’ की उपाधि धारण करते थे जो सामन्तवादी व्यवस्था की ओर संकेत करता है। कालान्तर में इसी का रूपान्तरण ‘महाराजाधिराज’ हो गया जो भारतीय सम्राट धारण करते थे।

कुषाण शासक उच्च सम्मानपरक उपाधियाँ; यथा — राजराज, राजाधिराज आदि धारण करते थे। इन्हीं के अनुकरण पर भारतीय शासक ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करने लगे।

राजत्व में देवत्व का आरोपण:

मौर्योत्तर काल में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिये राजव्यवस्था में कई तत्त्वों का समावेश हमें देखने को मिलता है। इन्हीं प्रवृत्तियों में से एक है— ‘राजत्व में दैवी तत्त्व का सम्बन्ध।’

पूर्ववर्ती काल में राजाओं की तुलना देवताओं से की जाती थी। परन्तु अब तो राजाओं को देवताओं का पुत्र व देवताओं का अवतार बताया जाने लगा। उदाहरणार्थ सम्राट अशोक के अभिलेखों में वे स्वयं को ‘देवानामपिय’ (dear to the gods) कहा गया पर वहीं कुषाण शासक स्वयं को ‘देवपुत्र’ (sons of god) कहते थे। देवपुत्र जैसी उपाधियाँ निश्चय ही विदेशी तत्त्व थीं जिसका प्रचलन चीनी और रोमन सम्राटों में था। इस तरह कुषाणों ने चीनी सम्राटों के अनुरूप ‘देवपुत्र’ की उपाधि धारण की।

देवकुल अर्थात् मृत राजाओं की मूर्ति स्थापित करके मंदिर बनाने की प्रथा रोमन साम्राज्य में पाया जाता था जिसे कुषाणों ने यहाँ प्रारम्भ किया परन्तु यह प्रथा यहाँ सफल नहीं हुई।

मौर्योत्तर काल में राजत्व का देवत्व से अविच्छिन्न सम्बन्ध स्थापित हो गया। इसके पीछे भी विदेशी प्रभाव एक बड़ा कारण था। कुषाण शासकों का दैवीकरण एक सुविदित तथ्य है। विम कडफिसेस के सिक्कों पर ‘महेश्वर’, ‘सर्वलोकेश्वर’ की उपाधि अंकित है। मथुरा लेख में उसे ‘देवपुत्र’ कहा गया है। वस्तुतः दैवी राजत्व सम्बन्धित विचारधारा पश्चिमी एशिया, ईरान तथा चीन में कुषाणों के उदय के पूर्व ही काफी लोकप्रिय थी। मनुस्मृति (२०० ई०पू० – २०० ई०) तक इसका स्वरूप स्थायी हो गया जो शक-कुषाण प्रभाव ही था। मनुस्मृति स्पष्टतः घोषणा करती हैं कि “बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मनुष्य रूप में स्थित महान् देवता है।”*

“बालोडिप नावमन्तव्यो मनुष्य इव भूमिपः।

महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति॥”* — मनुस्मृति

मथुरा लेख से ज्ञात होता है कि इस समय राजाओं के लिये देवकुल का निर्माण होता था। कनिष्क को ‘देवपुत्र’ तथा गोण्डोफर्नीज को ‘देवव्रत’ कहा गया है। कालान्तर में भारतीय राजाओं ने इसका अनुकरण किया।

मुद्रा प्रवर्त्तन

मुद्रा प्रवर्त्तन पर भी विदेशी प्रभाव स्पष्ट है। यद्यपि यूनानी प्रभाव से भारतीय सिक्कों की उत्पत्ति ढूढ़ने का कोई ठोस आधार नहीं है, तथापि इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि भारतीय सिक्के यूनानी तथा कुषाण सिक्कों से अवश्यमेव प्रभावित हुए थे।

यवनों से सम्पर्क के पूर्व भारत में आहत सिक्के प्रचलित थे। ये सामान्यतः चाँदी के टुकड़े होते थे जिन पर कोई मुद्रालेख नहीं होता था। यवनों द्वारा प्रचलित भारतीय सिक्कों पर एक ओर राजा की आकृति तथा दूसरी ओर किसी देवता की आकृति अथवा उसका प्रतीक चिह्न बना होता था। भारतीय राजाओं ने इसे अपनाया।

जो क्षेत्र यवन प्रभाव में थे, वहाँ सिक्का निर्माण के लिये पुरानी विधि के स्थान पर ठप्पा विधि (Die system) को अपनाया गया। इसमें धातु के गर्म टुकड़े पर ठप्पा लगाकर लेख तथा प्रतीक चिह्न उत्कीर्ण कर दिये जाते थे। भारतीय गणराज्यों के सिक्के इसी विधि से ढाले गये हैं।

कुषाणों ने भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर स्वर्ण सिक्के प्रचलित करवाये। इसका अनुकरण कालान्तर के राजवंशों ने किया। यवनों ने ही सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखवाना प्रारम्भ किया। उनके द्विभाषी सिक्कों के अनुकरण पर बाद के भारतीय शासकों ने अपने सिक्के ढलवाये। यवन प्रभाव से भारतीय सिक्के सुडौल एवं सुनिश्चित भार-माप के बनने लगे। यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्व मध्यकालीन लेखों में सिक्के के लिये ‘द्रम्म’ नाम मिलता है। यह यूनानी ‘द्रेक्कम’ का भारतीय रूपान्तर है। बाद में इसी को दाम कहा जाने लगा।

धर्म

विदेशी शासकों का अपना कोई धर्म नहीं था। अतः भारत में बस जाने के उपरान्त उनकी प्रवृत्ति वैष्णव, शैव तथा बौद्ध धर्मों में हुई जो उस समय समाज में प्रतिष्ठित हो चुके थे। भक्ति भावना का उदय हो चुका था तथा भारतीय धर्मों का द्वार विदेशियों के लिये खुल गया था। शास्त्रकारों ने उन्हें हिन्दू धर्म तथा समाज में आकर्षित करने के लिये विधान बना दिये।

  • स्मृतिकार मनु ने घोषित किया कि यवन, शक, पह्लव आदि जातियाँ वैदिक क्रियाओं के त्याग तथा ब्राह्मणों से विमुख होने के कारण ही वृषलत्व (शूद्रता) को प्राप्त हुई।
  • भागवत पुराण में व्यवस्था दी गयी कि ये विष्णु की पूजा करने से पवित्र होकर पुनः हिन्दू धर्म एवं समाज में प्रतिष्ठित हो सकती हैं।
  • फलस्वरूप वैष्णव एवं शैव धर्मों के प्रति विदेशी शासकों का आकर्षण बढ़ा और उन्होंने इन धर्मों को ग्रहण कर दिया।

वैष्णव धर्म

  • यवन राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत (वैष्णव) धर्म ग्रहण कर बेसनगर में गरुड़ध्वज स्थापित कर पूजा की।
  • महाक्षत्रप शोडासकालीन मोरा (मथुरा) पाषाण लेख में पंचवीरों (संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, साम्ब तथा अनिरुद्ध) की पाषाण प्रतिमाओं को मन्दिर निर्माण कर स्थापित किये जाने का उल्लेख मिलता है।
  • शोडासकालीन लेखों से स्पष्ट है कि वह भागवत अथवा वैष्णव धर्म का संरक्षक था।
  • भागवत धर्म गान्धार क्षेत्र में प्रचलित था जहाँ विदेशी भी इसे ग्रहण कर रहे थे।
  • कुषाण राजाओं में से अन्तिम ने वासुदेव नाम धारण किया जो इस बात का सूचक है कि वह भागवत या विष्णु का उपासक था।
  • हुविष्क की एक ऐसी स्वर्ण मुद्रा मिलती है जिस पर चित्रित एक देवता एक हाथ में चक्र तथा दूसरे में उर्ध्वलिंग लिये हुए दिखाया गया है। यह स्पष्टतः हरिहर का आदि रूप है।

शैव धर्म

  • परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वैष्णव धर्म शक-कुषाण राजाओं में लोकप्रियता नहीं प्राप्त कर सका क्योंकि उनका झुकाव शैव तथा बौद्ध धर्मों की ओर ही अधिक था।
  • शक क्षत्रपों तथा कुषाण शासकों में शैवधर्म अधिक लोकप्रिय रहा।
  • रुद्रदामन्, रुद्रसिंह, रुद्रसेन, शिवसेन क्षत्रप आदि नाम यह सूचित करते हैं कि क्षत्रप शासक शिव के भक्त थे। उनके सिक्कों पर वृषभ, नन्दिपद जैसे शैव प्रतीकों का अंकन मिलता है।
  • कुषाण शासकों के शैव होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। विमकडफिसेस के सिक्कों पर ‘महीश्वर’ (महेश्वर) की उपाधि तथा त्रिशूल और नन्दी का अंकन है। कनिष्क तथा हुविष्क के सिक्कों पर शिव तथा उनके सहायकों की आकृतियाँ है।
  • ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित एक विशिष्ट कुषाण सिक्के पर शिव को उमा के साथ चित्रित किया गया है।
  • लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित हुविष्क के कुछ सिक्कों पर उमा के साथ-साथ शिव परिवार के अन्य सदस्यों— महासेन, स्कन्द-कुमार, विशाख आदि का अंकन मिलता है।
  • वासुदेव के सिक्कों पर भी शिव तथा उनके प्रतीकों का अंकन है।
  • इन सबसे सिद्ध होता है कि प्रायः सभी कुषाण शासक शैव भक्त थे तथा शैवधर्म इस समय एक अत्यन्त लोकप्रिय धर्म बन चुका था।

बौद्ध धर्म

  • तीसरा भारतीय धर्म जिसने विदेशियों को बहुत अधिक आकर्षित किया बौद्ध धर्म है।
  • यह एक सुविदित तथ्य है कि हिन्द-यवन शासक मेनान्डर (मिलिन्द) बौद्ध धर्म तथा दर्शन से अत्यधिक प्रभावित था। वह महान् बौद्ध दार्शनिक एवं विद्वान् नागसेन द्वारा बौद्ध धर्म में दीक्षित किया गया। इस मत का समर्थन मिलिन्दपण्ह नामक पालि ग्रन्थ से होता है। इसमें मेनान्डर तथा नागसेन के बीच संवाद सुरक्षित है। मेनान्डर के बाद भी पश्चिमोत्तर प्रदेशों में बौद्ध धर्म प्रचलित रहा।
  • स्वात मंजूषा लेख (Swat Relic Vase Inscription) से पता चलता है कि थियोडोरस नामक यूनानी गवर्नर ने बुद्ध के धातु अवशेषों को प्रतिष्ठित करवाया था। वह गान्धार क्षेत्र का क्षत्रप था। मेनान्डर की भाँति उसने भी बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। लेख की तिथि दूसरी शती ईसा पूर्व है।
  • तक्षशिला ताम्रपत्र अभिलेख से पता चलता है कि मेरीदर्ख उपाधि युक्त किसी यवन ने अपनी पत्नी के साथ एक स्तूप स्थापित करवाया था। पतिककालीन तक्षशिला ताम्रपत्र से विदित होता है कि उसने तक्षशिला में भगवान बुद्ध के धातु अवशेष तथा संघाराम स्थापित करवाया। इसका उद्देश्य क्षहरातों की शक्ति में वृद्धि करना था।
  • महाक्षत्रप राजवुल की अग्रमहिषी अयसिअ कुमुस ने भी बुद्ध के धातु अवशेष, स्तूप तथा संघाराम की स्थापना करवायी थी। मथुरा सिंहशीर्ष लेख (लगभग ५-१० ई०) से इसकी सूचना मिलती है। लेख का अन्त बुद्ध, धम्म तथा संघ के अभिवादन के साथ होता है।
  • कुषाण शासक कनिष्क का बौद्ध धर्म के महायान शाखा को संरक्षण और उसके प्रचार-प्रसार के लिए किये गये प्रयास तो सर्वविदित ही हैं। कनिष्क का बौद्ध धर्म से सम्बन्ध के लिए देखें — बौद्ध धर्म और कनिष्क
  • इसी काल में बौद्ध धर्म हीनयान और महायान शाखाओं में विभाजित हो गया।

नगरीकरण

जिस नगरीकरण का प्रारम्भ छठी शताब्दी ईसा पूर्व प्रारम्भ हुआ था वह मौर्यों के पतन के बाद भी अनवरत जारी रही। मौर्योत्तर काल में भवन-निर्माण के कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति हुई। उत्खननों में संरचना के कई स्तर मिले हैं। उत्तर भारत के किसी-किसी पुरास्थलों पर तो आधे दर्जन से भी अधिक स्तर प्राप्त हुए हैं। उदाहरण के लिए सोंख (मथुरा के समीप) के उत्खनन से ज्ञात होता है कि कुषाणकालीन भवनों में ७ स्तर थे जबकि गुप्तकालीन भवनों में केवल एक या दो स्तर थे। इस आधार पर पुरातत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि कुषाणकाल में नगरीकरण चरमोत्कर्ष पर था।

भवनों का निर्माण पकी ईंटों (burned bricks) से किया जाता था और फर्श बनाने के लिए भी पकी ईंटों का प्रयोग किया जाता था। पके खपरैलों (tiles) का प्रयोग छतों में किया गया है। परन्तु यह उल्लेखनीय है कि खपरों (tiles) का प्रयोग शायद बाहर से आयातित तकनीक नहीं थी। जैसा कि हमें ज्ञात कि मौर्यकाल में ही मंडलकूपों (ring-wells) का निर्माण हमें देखने को मिलता है। मौर्योत्तर काल में हमें ईंटों के कुँओं का निर्माण भी देखने को मिलता है जोकि इस काल की एक विशेषता भी है।

सैन्य तकनीक

भारत में शकों व कुषाणों ने बड़े साम्राज्य स्थापित किये और लम्बे समय तक शासन किया। इसलिये भारतीय संस्कृति में उनका योगदान अपेक्षाकृत अधिक है। वे भारतीय समाज के अभिन्न अंग बन गये और इस समाज को उन्होंने बहुत कुछ दिया। उन्होंने बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना और अश्वारोहण का उपयोग करना प्रारम्भ किया। उन्होंने लगाम और जीन का प्रयोग प्रचलित किया, जो हमें ईसा की दूसरी और तीसरी सदियों की बौद्ध मूर्तियों में दिखायी देते हैं। शक और कुषाण उत्तम अश्वारोही थे। अफगानिस्तान के बेग्राम में जो कुषाण काल की मिट्टी की पकी घुड़सवार की मृण्यमूर्तियाँ (equestrian terracotta) मिली हैं जिससे घुडसवारी में उनकी गहरी रुचि का ज्ञान होता है। ये घुड़सवार सुदृढ़ कवच से सुसज्जित हो भाले और बर्छियों (spears & lances) से लड़ाई करते दिखाये गये हैं। वे रस्सी का बना एक प्रकार का अंगूठा रकाब (toe stirrup) भी प्रयोग करते थे जिससे उन्हें अश्वारोहण में सुविधा होती थी और उनका आवागमन सुगम हो जाता था।

शकों और कुषाणों ने पगड़ी, ट्यूनिक (कुरती), पाजामा और भारी लंबे कोट चलाये। आज भी अफगान और पंजाबी लोग पगड़ी लगाते हैं और शेरवानी लंबे कोट का ही बदला रूप है। मध्य एशिया वालों ने यहाँ टोपी, शिरस्त्राण और बूट चलाये जिनका प्रयोग योद्धा लोग करते थे। इन्हीं सैन्य श्रेष्ठताओं के कारण उन्होंने ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर विजय पायी। कालान्तर में जब यह सैन्य कौशल देश में फैल गया तब अधीनस्थ राजाओं ने अपने पिछले विजेताओं के विरुद्ध इसका अच्छा प्रयोग किया।

व्यापार और कृषि

व्यापार

मध्य एशियाई लोगों के आने से मध्य एशिया और भारत के मध्य घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हुए। कुषाणों ने तो एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की जिसमें गंगा घाटी और मध्य एशिया दोनों सम्मिलित थे। इसके परिणामस्वरूप भारत को मध्य एशिया के अल्ताई पहाड़ों से भारी मात्रा में सोना प्राप्त हुआ। भारत को रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार के माध्यम से भी सोना मिला। कुषाण साम्राज्य से होकर प्रख्यात ‘रेशम मार्ग’ गुजरता था जो चीन से प्रारम्भ होकर मध्य एशिया से होते हुए ईरान को पार करके रोमन साम्राज्य को जोड़ता था। यह रेशम मार्ग कुषाणों के आय का बड़ा स्रोत था और वे इस मार्ग पर व्यापारियों से उगाही गयी चुंगी की बदौलत ही विशाल और समृद्ध साम्राज्य स्थापित कर सके। यह उल्लेखनीय है कि भारत में बड़े पैमाने पर सोने का सिक्का चलाने वाले प्रथम शासक कुषाण ही थे।

खेती

कुषाणों ने खेती को भी बढ़ाया। कुषाण काल की विस्तृत सिंचाई के पुरातात्त्विक अवशेष पाकिस्तान, अफगानिस्तान और पश्चिमी मध्य एशिया में पाये जाते हैं।

कला

विदेशी राजा भारतीय कला और साहित्य के उत्साही संरक्षक थे। उन्होंने वही उमंग दिखायी जो नया धर्म अपनाने वालों में होती है।

कुषाण साम्राज्य ने विभिन्न शैलियों और देशों में प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों और अन्य कारीगरों को इकट्ठा किया। इससे कला की कई नयी शैलियाँ विकसित हुई; जैसे— गान्धार और मथुरा शैली। मध्य एशिया से जो मूर्तिशिल्प की कृतियाँ प्राप्त हुई हैं उनमें बौद्ध धर्म के प्रभाव की छाया में स्थानीय और भारतीय दोनों लक्षणों का मिश्रण पाया जाता है।

भारतीय शिल्पकारों का, विशेषकर भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त गान्धार में, मध्य एशियाई, यूनानी और रोमन शिल्पिकारों के साथ सम्पर्क हुआ। इससे नयी शैली की कला का उदय हुआ, जिसमें बुद्ध की प्रतिमाएँ यूनान और रोम की मिश्रित शैली में बनाई गई। बुद्ध के बाल यूनान-रोम की शैली में बनाये गये।

गान्धार कला का प्रभाव मथुरा में भी पहुँचा हालाँकि वह मूलतः देशी कला का केंद्र था। मथुरा में बुद्ध की विलक्षण प्रतिमाएँ बनीं, परंतु इस जगह की ख्याति कनिष्क की शिरोहीन खड़ी मूर्ति को लेकर भी है, जिसके निचले भाग में कनिष्क का नाम खुदा है। यहाँ वर्धमान महावीर की भी कई प्रस्तर मूर्तियाँ बनीं। इसकी गुप्त-पूर्व मूर्तियों और अभिलेखों में कृष्ण उपेक्षित हैं, जबकि मथुरा इनका जन्म-स्थान और बाल-लीला भूमि मानी जाती है। कला की मथुरा शैली ईसवी सन् की आरम्भिक सदियों में विकसित हुई, और इसकी ‘लाल बलुआ पत्थर’ की कृतियाँ मथुरा के बाहर भी पायी जाती हैं। सम्प्रति मथुरा संग्रहालय में कुषाण कालीन मूर्तियों का भारत भर में सबसे अधिक संग्रह है।

विस्तृत विवरण के लिये देखें —

मृदभाण्ड कला

कुषाणकाल का अपना खास लाल मृदभाण्ड है। यह सादा भी है और पॉलिशदार भी। ये पात्र बनावट में मध्यम से उत्तम तक तक हैं। इनमें असाधारण पात्र फुहारों और टोंटियों वाले पात्र (sprinklers & spouted channels) हैं। इन पात्रों में मध्य एशिया में इसी काल के कुषाण स्तरों में पाये गये सूक्ष्म बनावट वाले मृदभाण्डों से समानता है। इस प्रकार के लाल पॉलिशदार मृद्भाण्ड बनाने की कला मध्य एशिया में सुविदित थी और ऐसे मृद्भाण्ड फरगना जैसे क्षेत्रों में भी मिलते हैं जो क्षेत्र कुषाण सांस्कृतिक अंचल के अन्तर्गत ही आते थे।

भाषा और साहित्य

शकों और कुषाणों के पास अपनी कोई लिपि, लिखित भाषा और कोई सुव्यवस्थित धर्म नहीं था, इसलिये उन्होंने संस्कृति के इन उपादानों को भारत से लिया। पार्थियनों के सम्बन्ध में भी यह बात सही है। यद्यपि यूनानियों के पास विकसित लिपि, भाषा व दर्शन था परन्तु वे भी भारतीय धर्म व दर्शन लिपि व भाषा व लिपि से अप्राभावित नहीं रह सके।

कुषाण शासक इस तथ्य से अवगत थे कि लोग उनके शासन में विभिन्न लिपियों और भाषाओं का उपयोग करते थे इसलिये उन्होंने यूनानी, खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियों में अपने सिक्के और शिलालेख जारी किये। इसी तरह उन्होंने यूनानी, प्राकृत और संस्कृत प्रभावित प्राकृत का उपयोग किया और अपने शासन के अंत में शुद्ध संस्कृत का उपयोग किया। इस प्रकार शासकों ने आधिकारिक तौर पर तीन लिपियों (यूनानी, खरोष्ठी और ब्राह्मी) और चार भाषाओं (यूनानी, प्राकृत, संस्कृत प्रभावित प्राकृत और संस्कृत) को मान्यता दी।

कुषाण सिक्के और शिलालेख विभिन्न लिपियों और भाषाओं के मिश्रण और सह-अस्तित्व का प्रमाण हैं। लोगों के साथ संवाद करने का कुषाणों का तरीका भी उनके समय में साक्षरता का संकेत देता है। इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि हालाँकि मौर्य और सातवाहन ने प्राकृत को संरक्षण दिया, लेकिन विदेशी राजाओं ने संस्कृत-साहित्य का संरक्षण व सम्पोषण किया। काव्य-शैली का पहला नमूना रुद्रदामन् का काठियावाड़ में जुनागढ़ अभिलेख है जिसका समय लगभग १५० ई० है। इसके बाद से अभिलेख परिष्कृत संस्कृत भाषा में लिखे जाने लगे हैं। फिर भी अभिलेखों की रचना प्राकृत भाषा में करने की परिपाटी ईसा की चौथी सदी या उसके आगे तक चलती रही।

अश्वघोष जैसे कुछ महान् साहित्यकारों को कुषाणों का संरक्षण प्राप्त था। अश्वघोष ने बुद्ध की जीवनी बुद्धचरित के नाम से लिखी। उसने सौन्दरनन्द नामक काव्य भी लिखा जो संस्कृत काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।

महायान बौद्ध संप्रदाय की प्रगति के फलस्वरूप अनगिनत अवदानों की रचना हुई। कई अवदान बौद्धों की मिश्रित संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। अवदानों का अन्यतम उद्देश्य लोगों को महायान के उपदेशों से अवगत कराना है। इस कोटि की प्रमुख कृतियाँ हैं— महावस्तु और दिव्यावदान।

यूनानियों ने परदे का प्रचलन आरम्भ कर भारतीय नाट्यकला के विकास में भी योगदान दिया। चूँकि परदा यूनानियों की देन था इसलिये वह यवनिका के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यवनिका शब्द यवन शब्द से बना है और यवन शब्द आयोनियन (यूनानियों की एक शाखा जिससे प्राचीन भारत के लोग परिचित थे) का संस्कृत प्रतिरूप है। आरम्भ में यवन शब्द का प्रयोग यूनान के निवासियों के अर्थ में होता था, पर बाद में सभी प्रकार के विदेशियों के लिए इस शब्द का प्रयोग होने लगा।

धार्मेतर साहित्य का सबसे अच्छा उदाहरण है— वात्स्यायन का कामसूत्र। इसका काल ईसा की तीसरी सदी माना जाता है। यह रतिशास्त्र या कामशास्त्र की प्राचीनतम पुस्तक है जिसमें रति और प्रीति का विवेचन किया गया है। इसमें एक नागरक या नगरजीवी पुरुष का जीवन चित्रित किया गया है, जो शहरी जीवन के विकास-काल की झाँकी प्रस्तुत करता है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी

मौर्योत्तर काल में यूनानियों के सम्पर्क से खगोल और ज्योतिषशास्त्र में पर्याप्त उन्नति हुई। संस्कृत ग्रंथों में हमें ग्रह-नक्षत्रों के संचार सम्बन्धित बहुत सारे यूनानी शब्द मिलते हैं। भारतीय ज्योतिष यूनानी चिंतनों से प्रभावित हुआ। यूनानी शब्द होरोस्कोप (horoscope) संस्कृत में होराशास्त्र (horashasatra) हो गया जिसका अर्थ संस्कृत में फलित ज्योतिषशास्त्र होता है।

यूनान के सिक्के जो आकृति और छाप में उत्कृष्ट हैं, वस्तुतः आहत मुद्राओं (punched-marked coins) के ही सुधरे रूप हैं। यूनानी शब्द द्रक्म (drachma) भारत में द्रम्म हो गया। बदले में, यूनानी शासकों ने बा‌ह्मी लिपि चलायी और अपने सिक्कों पर कई भारतीय रूपांक (motifs) चलाये। कुत्ते, मवेशी, मसाले और हाथी दाँत की वस्तुएँ यूनानी लोग यहाँ से बाहर भेजते थे। उन्होंने भारत से कोई दस्तकारी सीखी या नहीं यह अस्पष्ट है।

फिर भी भारतीयों ने यूनानियों से चिकित्साशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र और रसायनशास्त्र में कोई महत्त्वपूर्ण चीज नहीं प्राप्त की। इन तीनों शास्त्रों का विवेचन चरक और सुश्रुत ने किया है। चरकसंहिता में उन अनगिनत वनस्पतियों के नाम हैं जिनसे रोग की चिकित्सा के लिये दवाएँ बनायी जाती थीं। पौधों को कूटने और मिश्रित करने की जो प्रक्रियाएँ बतायी गयी हैं उनसे हमें ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में रसायनशास्त्र का ज्ञान काफी विकसित था। रोगों के इलाज में प्राचीन भारतीय वैद्य लोग मुख्यतः पौधों पर ही निर्भर थे जिसे संस्कृत में ओषधि (oshadhi) कहते हैं और इससे बनी दवा औषधि (aushadhi) कहलाती है।

प्रौद्योगिकी अर्थात् टेकनोलॉजी के क्षेत्र में भी लगता है भारतीयों को मध्य एशियाई लोगों के सम्पर्क से लाभ हुआ है। कनिष्क को पतलून तथा चुस्त पायजामा (trousers) और लंबे जूतों (long boots) में चित्रित किया गया है। चमड़े के जूते बनाने का प्रचलन भारत में सम्भवतः इसी काल से आरम्भ हुआ। भारत में प्रचलित कुषाणकालीन ताँबे के सिक्के रोमन सिक्कों की अनुकृति थे। इसी तरह भारत में कुषाणों ने जो सोने के सिक्के ढलवाये वे रोमन स्वर्ण मुद्राओं की नकल थे।

जानकारी प्राप्त होती है कि भारतीय और रोमन राजाओं के बीच दो राजदूतों का आदान-प्रदान हुआ था। सन् २७-२८ ई० में रोमन सम्राट् ऑगस्टस और सन् ११०-१२० ई० में रोमन सम्राट् ट्राजन की राजसभा में भारत से राजदूत भेजे गये थे।

इस प्रकार भारत के साथ रोम के सम्पर्क से प्रौद्योगिकी में नये-नये तरीके विकसित हुए होंगे। इस काल में शीशे के काम पर विदेशी विचारों और तरीकों का विशेष रूप से प्रभाव पड़ा। प्राचीन भारत में किसी भी अन्य काल में शीशे के काम में ऐसी प्रगति नहीं हुई जैसी इस काल में।

निष्कर्ष

मौर्योत्तर काल (२०० ई०पू० से ३०० ई० तक) के समय में पश्चिमोत्तर कई विदेशी आक्रमणकारी आये और वे यहीं के होकर रह गये। विदेशी आक्रमण का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर लगभग प्रत्येक विभाग पर पड़ा। मध्य एशिया से घनिष्ठ सम्पर्क से शासन व्यवस्था में नये तत्त्व, अर्थव्यवस्था में तेज़ी और उससे जनित नगरीकरण व मुद्रा व्यवस्था में सुधार हुआ। इन विदेशी विजेताओं को समाज में समाहित करने के लिये धर्म के क्षेत्र में भक्ति भावना का उदय और उसकी तुष्टि के लिये मूर्ति पूजा का विकास हुआ। समाज में उनको आत्मसात् किया गया। साथ ही वे अपने साथ कई तकनीकी भी लाये जैसे— बेहतर सैन्य तकनीक। निष्कर्ष रूप से विदेशी आक्रमण का प्रभाव भारतीय संस्कृति पर सकारात्मक रहा और वह सम्पन्न ही हुई।

कुषाण-सिक्के (Kushan-Coins)

कौशाम्बी कला शैली

सारनाथ कला शैली; कुषाण काल

मथुरा कला शैली

कुषाणकालीन कला एवं स्थापत्य

गान्धार कला शैली

कनिष्क विद्वानों का संरक्षक और उसके समय साहित्यिक प्रगति

बौद्ध धर्म और कनिष्क

कुषाणकालीन आर्थिक समृद्धि या कुषाणकाल में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति

बौद्ध धर्म और कनिष्क

कुषाणकालीन आर्थिक समृद्धि या कुषाणकाल में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति

कुषाणों का योगदान (Contribution of the Kushanas)

कुषाण-शासनतंत्र (The Kushan Polity)

पह्लव या पार्थियन (The Pahalavas or the Parthians)

शक या सीथियन (The Shakas or the Scythians)

यवन प्रभाव या यवन सम्पर्क का भारत पर प्रभाव

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