लिच्छवि गणराज्य

भूमिका

महाजनपदकाल में हमें १६ महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। इन षोडश महाजनपदों में से चतुर्दश की शासन व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी और दो की गणतंत्रात्मक। ये दो गणतंत्रात्क राजव्यवस्था वाले महाजनपद थे- मल्ल और वज्जि। वज्जि ८ राज्यों का संघ था। इन आठ राज्यों के नाम हैं- वज्जि, लिच्छवि, विदेह, ज्ञातृक, उग्र, भोग, इक्ष्वाकु और कौरव।

वज्जि संघ के इन आठ राज्यों में लिच्छवि सर्वप्रमुख थे। दूसरे शब्दों में लिच्छवि छठी शताब्दी ई०पू० या बौद्धकाल का सबसे बड़ा तथा शक्तिशाली गणराज्य था। लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी इसलिए इनको “वैशाली के लिच्छवि” भी कहा जाता है।

यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि वैशाली लिच्छवियों की राजधानी के साथ ही वज्जि संघ की भी राजधानी थी। वैशाली की पहचान मुजफ्फरपुर जनपद में स्थित वर्तमान ‘बसाढ़’ नामक स्थान से की जाती है।

मगध और वज्जि संघ के दीर्घकालीन संघर्ष में अजातशत्रु के नेतृत्व में अंततः मगध-साम्राज्यवाद की विजय हुई। गुप्त-पूर्वकाल में वैशाली के लिच्छवियों का पुनः उद्भव हुआ। चौथी शताब्दी ईस्वी के चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवियों के साथ वैवाहिक राजनय द्वारा द्वितीय मगध साम्राज्य की नींव रखी।

भौगोलिक स्थिति

वज्जि संघ उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में महानंदा, दक्षिण गंगा नदी और पश्चिम सदानीरा (गंडक) नदी से घिरा हुआ था। लिच्छवि, वज्जि संघ की इस सीमा में दक्षिण-पश्चिम में स्थित था अर्थात् सदानीरा नदी लिच्छवि गण की पश्चिमी सीमा थी और गंगा नदी उनकी दक्षिणी सीमा थी। इस तरह दक्षिण में इनकी सीमा मगध से, पश्चिम में मल्ल संघ से लगती थी। लिच्छवि और वज्जि संघ दोनों का मुख्यालय वैशाली में स्थिति थी।

लिच्छवि गणराज्य

जातकों में वैशाली का विस्तृत विवरण मिलता है-

  • ‘महावग्ग जातक’ में वैशाली को ‘एक धनी, समृद्धशाली तथा घनी आबादी वाला नगर’ कहा गया है। यहाँ अनेक सुन्दर भवन, चैत्य तथा विहार थे।
  • ‘एकपण्ण जातक’ से ज्ञात होता है कि वैशाली नगर चारों ओर से तीन दीवारों से घिरा हुआ था। प्रत्येक दीवार एक-दूसरी से एक योजन दूर थी और उसमें पहरे की मीनारों वाले तीन द्वार बने हुए थे।

महात्मा बुद्ध और लिच्छवि

  • वैशाली नगर का सम्बन्ध महात्मा बुद्ध से भी था। यह नगर उन्हें अत्यन्त प्रिय था और यहाँ उनके बहुत अनुयायी बन गये थे।
  • महात्मा बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया। इसके बाद उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया। इस क्रम में वे सारनाथ से वाराणसी, वाराणसी से राजगृह और राजगृह से वैशाली पहुँचे।
  • महात्मा बुद्ध ने लिच्छवियों की राजधानी वैशाली में पाँचवाँ वर्षा काल व्यतीत किया। लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निवास के लिये महावन में प्रसिद्ध ‘कुट्टागारशाला’ का निर्माण करवाया था जहाँ रहकर गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश दिये थे।
  • वैशाली की प्रसिद्ध नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बन गयी तथा उसने भिक्षु संघ के निवास के लिये अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दिया।
  • वैशाली में बुद्ध ने प्रथम बार महिलाओं को भी अपने संघ में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की तथा भिक्षुणियों का संघ स्थापित हुआ।
  • संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की विमाता प्रजापती गौतमी थी।

महावीर स्वामी और लिच्छवि

  • महावीर स्वामी के पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक गणराज्य के प्रमुख थे।
  • ज्ञातृक गण, वज्जि संघ के ८ सदस्यों में से एक था, अर्थात् ज्ञातृक और लिच्छवि दोनो वज्जि गणराज्य के सदस्य थे।
  • लिच्छवि संघ प्रमुख चेटक की बहन त्रिशला (विदेहदत्ता) महावीर स्वामी की माँ थी अर्थात् चेटक, महावीर स्वामी के मामा थे।
  • जैन धर्म के प्रचार और प्रसार में लिच्छवि गण-प्रमुख चेटक का प्रमुख योगदान रहा।

राजनीतिक इतिहास

लिच्छवि लोग अत्यन्त ‘स्वाभिमानी तथा स्वतन्त्रता प्रेमी’ हुआ करते थे। उनकी शासन व्यवस्था संगठित थी। बुद्ध काल में यह राज्य अपनी समृद्धि की पराकाष्ठा पर था।

छठी-शताब्दी ई०पू० लिच्छवि गणसंघ का प्रमुख ‘चेटक’ था।

  • महावीर की माता ‘त्रिशला’ चेटक की बहन थी।
  • जैन साहित्यों के अनुसार चेटक की पुत्रियों का विवाह सिंधु-सौवीर, अंग, वत्स, अवंति और मगध के शासकों के साथ हुआ था।
  • चेटक की कन्या ‘छलना’ का विवाह मगधनरेश बिम्बिसार के साथ हुआ था।

लिच्छवियों के राजनीतिक इतिहास को हम दो कालखंडों में बाँटकर अध्ययन कर सकते हैं-

  • एक, महाजनपदकाल से अजातशत्रु की विजय तक
  • द्वितीय, पूर्व-गुप्तकाल

महाजनपदकाल से अजातशत्रु की विजय तक

जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि अजातशत्रु के विरुद्ध चेटक ने मल्ल, काशी तथा कोशल के साथ मिलकर एक सम्मिलित मोर्चा बनाया था।

कोसल से निपटने के बाद अजातशत्रु ने वज्जि-संघ की ओर ध्यान दिया। वैशाली वज्जि संघ में प्रमुख था जहाँ के शासक लिच्छवि थे। बिम्बिसार के ही समय से वज्जि संघ तथा मगध में मनमुटाव चल रहा था जो अजातशत्रु के समय में संघर्ष में बदल गया। इस संघर्ष के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी बताये जाते हैं —

  • सुमंगलविलासिनी (बौद्ध ग्रंथ) से ज्ञात होता है कि गंगा नदी के किनारे एक रत्नों की खान थी। वज्जि तथा मगध दोनों ने इसके बराबर-बराबर भाग लेने के लिये समझौता किया था। वज्जियों ने इस समझौते का उल्लंघन करके सम्पूर्ण खान पर अधिकार कर लिया। यहीं मगध के साथ युद्ध का कारण बना।
  • जैन ग्रन्थ इसका कारण यह बताते है कि बिम्बिसार ने लिच्छवि राजकुमारी चेलना (छलना) से उत्पन्न अपने दो पुत्रों – हल्ल और बेहल्ल को अपना हाथी सेयनाग तथा १८ मणियों या रत्नों का एक हार दिया था। अजातशत्रु ने बिम्बिसार की हत्या कर सिंहासन ग्रहण कर लेने के बाद इन वस्तुओं की माँग की। इस पर हल्ल तथा वेहल्ल अपने (नाना) चेटक के पास भाग गये। अजातशत्रु ने लिच्छवि सरदार से अपने सौतेले भाइयों को वापस देने को कहा जिसे चेटक ने अस्वीकार कर दिया। इसी पर अजातशत्रु ने लिच्छवियों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

इन दोनों कारणों में से प्रथम (आर्थिक) कारण अधिक तर्कसंगत लगता है। वस्तुतः मगध तथा वज्जि संघ के बीच संघर्ष गंगा नदी के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था क्योंकि यह नदी पूर्वी भारत में व्यापार का प्रमुख माध्यम थी।

मगध और वज्जि संघ से युद्ध के पूर्व दोनों ने तैयारियाँ कीं:

डॉ० रायचौधरी का विचार है कि कोशल तथा वज्जि संघ के साथ संघर्ष पृथक्-पृथक् घटनायें नहीं थीं, अपितु वे मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता के विरुद्ध लड़े जाने वाले समान युद्ध का ही अंग थीं।*

“The Kosalan war and the Vajjiyan war were probably not isolated event but parts of a common movement directed against the establishment of the hegemony of Magadha.”*

— Political History of Ancient India, p 213 — H. C. Ray Chaudhary.

लिच्छवियों की शक्ति और प्रतिष्ठा काफी बढ़ी हुई थी तथा उन्हें परास्त कर पाना सरल नहीं था। जैन ग्रन्थ निरयावल सूत्र से ज्ञात होता है कि उस समय चेटक लिच्छवि गण के प्रधान थे। उसने ९ लिच्छवियों, ९ मल्लों तथा काशी-कोशल के १८ गणराज्यों को एकत्र कर मगध नरेश के विरुद्ध एक सम्मिलित मोर्चा तैयार किया। भगवती सूत्र में अजातशत्रु को इन सबका विजेता कहा गया है।*

“वज्जि विदेहपुत्रे जपित्था नव मल्लई नव लिच्छऐ।

काशी कोशलगा अट्ठारसविगणरायानो पराजपित्था॥”*

– भगवतीसूत्र

अजातशत्रु ने वज्जि संघ से युद्ध से पहले व्यापक सामरिक एवं सैन्य तैयारी की और कूटनीति का सफल प्रयोग किया, यथा –

  • सामरिक तैयारी
    • वज्जियों के सम्भावित आक्रमण से अपने राज्य की सुरक्षा के लिये सर्वप्रथम पाटलिग्राम में उसने एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
    • यही पाटलिग्राम ‘पाटलिपुत्र’ के नाम से आगे चलकर मगध साम्राज्य की स्थायी राजधानी बनने वाली थी।
    • इस तरह अजातशत्रु वह प्रथम शासक था जिसने पाटलिग्राम (पाटलिपुत्र) के सामरिक महत्त्व को पहचाना।
  • कूटनीति
    • अजातशत्रु ने अपने मंत्री वस्सकार को भेजकर वज्जि संघ में फूट डलवा दी।
    • ज्ञात होता है कि इस सम्बन्ध में अजातशत्रु ने महात्मा बुद्ध से परामर्श किया तथा उन्होंने ही उसे यह बताया कि वज्जि संघ का विनाश भेदनीति द्वारा ही सम्भव है।
    • वस्सकार ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इस कार्य को पूरा किया तथा वज्जियों को परस्पर लड़ा दिया।
  • सैन्य तैयारी
    • रथमूशल तथा महाशिलाकण्टक जैसे दो गुप्त हथियारों का प्रयोग।
    • रथमूशल आधुनिक टैंकों के प्रकार का कोई अस्त्र था जिससे भारी संख्या में मनुष्य मारे जा सकते थे।
    • महाशिलाकण्टक भारी पत्थरों की मार करने वाला शिला प्रक्षेपास्त्र (catapult) था।

परिणाम

  • अजातशत्रु ने एक बड़ी सेना के साथ लिच्छवियों पर आक्रमण किया।
  • वज्जि (लिच्छवि) असंगठित रूप से अजातशत्रु का सामना नहीं कर सके।
  • जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि इस युद्ध में उसने प्रथम बार रथमूशल तथा महाशिलाकण्टक जैसे दो गुप्त हथियारों का प्रयोग किया।
  • मगध और वैशाली का युद्ध लगभग १६ वर्षों तक चला। इससे ऐसा लगता है कि युद्ध बड़ा भयानक हुआ जिसमें लिच्छवि बुरी तरह पराजित हुए तथा उनका भीषण संहार किया गया। उनका भू-भाग मगध साम्राज्य में मिला लिया गया। अब मगध राज्य की उत्तरी सीमा हिमालय की तलहटी तक पहुँच गयी।
  • इस तरह मगध साम्राज्यवाद की आँधी में लिच्छवि नेपथ्य में चले गये थे।

पूर्व-गुप्तकाल, लिच्छवियों का पुनः उद्भव

  • गुप्तों के उदय के पूर्व गंगा घाटी में कई शताब्दियों बाद लिच्छवि पुनः शक्तिशाली हो गये थे।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे —
    • एक, उत्तरी बिहार जिसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली उनका प्राचीन राज्य था। कुमारदेवी के साथ विवाह कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त कर लिया।
    • द्वितीय, नेपाल जिसका उल्लेख प्रयाग प्रशास्ति में मिलता है। नेपाल में उन्होंने प्रथम अथवा द्वितीय शती के लगभग अपना दूसरा राज्य स्थापित कर लिया था। नेपाल के राज्य को उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने अपने अधिकार में कर लिया था। प्रयाग प्रशस्ति में इस राज्य का उल्लेख गुप्तों के प्रत्यन्त राज्य (Frontier state) के रूप में किया गया है।

वैवाहिक राजनय

चन्द्रगुप्त के शासन काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना गुप्तों तथा लिच्छवियों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध की स्थापना है। चन्द्रगुप्त एक दूरदर्शी सम्राट था। लिच्छवियों का सहयोग और समर्थन प्राप्त करने के लिये उसने उनकी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया। इस वैवाहिक सम्बन्ध की पुष्टि दो प्रमाणों से होती है-

  • सिक्के
  • प्रयाग प्रशस्ति

सिक्के का प्रमाण

चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल के लगभग २५ स्वर्ण सिक्के विभिन्न स्थलों से प्राप्त हुए हैं। ये स्थल हैं- गाजीपुर, टांडा (फैजाबाद), मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सीतापुर तथा बयाना (भरतपुर, राजस्थान)। इन सिक्कों को चन्द्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार, लिच्छवि प्रकार, राजा-रानी प्रकार, विवाह प्रकार आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है।

इन सिक्कों के मुखभाग पर चन्द्रगुप्त तथा कुमारदेवी की आकृतियाँ उनके नामों के साथ-साथ अंकित है और पृष्ठभाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ-साथ मुद्रालेख “लिच्छवयः” उत्कीर्ण है।

राजा-रानी प्रकार सिक्का, लिच्छवि - गुप्त सम्बन्ध

इस वैवाहिक सम्बन्ध के ऊपर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है “अपने महान् पूर्ववर्ती शासक विम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।” *

“Like his great forerunner Bimbisara, he strengthened his position at some stage of his career by a matrimonial alliance with the Lichchhavis and laid the foundations of the second Magadhan empire.” *

– Political History Of Ancient India, p. 530; H.C.Ray Chaudhari

यह सोचना सर्वथा तर्कसंगत लगता है कि इस विवाह के बाद ही चन्द्रगुप्त ने “महाराजाधिराज” की उपाधि ग्रहण की होगी। इसी विवाह की स्मृति में उसने राजा-रानी प्रकार के सिक्के चलवाये होंगे।

प्रयाग प्रशस्ति का प्रमाण

समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में उसे ‘लिच्छवि दौहित्र’ (लिच्छवि कन्या से उत्पन्न) बताया गया है।

लिच्छविदौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्री—समुद्रगुप्तस्य सर्व्व-पृथिवी-विजय-जानितोदय-व्याप्त-निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति-”

प्रयाग प्रशास्ति, पं० – २९

लिच्छवियों के महत्त्व का अनुमान हम इस तथ्य से लगा सकते हैं कि समुद्रगुप्त स्वयं को “लिच्छवि-दौहित्र” कहकर गौरवान्वित महसूस करता है।

लिच्छवियों का पहले एक सुप्रसिद्ध गणराज्य था। संभव है इस समय तक उनकी शासन-व्यवस्था राजतन्त्रात्मक हो गयी हो तथा कुमारदेवी लिच्छवि राज्य की उत्तराधिकारिणी रही हो। यही कारण था कि चन्द्रगुप्त को उसका राज्य प्राप्त हो गया।

महत्त्व

ध्यातव्य है कि लिच्छवि राज्य आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था। उसमें बहुमूल्य रत्नों की खान थी। बुद्धघोष की टीका “सुमंगलविलासिनी” से ज्ञात होता है कि पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में मगधनरेश अजातशत्रु का लिच्छवियों के साथ संघर्ष रत्नों की खान पर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था। अतः यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि इस सम्बन्ध में चन्द्रगुप्त प्रथम को प्रभूत आर्थिक लाभ भी प्राप्त हुआ होगा। इस प्रकार लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनीतिक रूप से शक्तिशाली तथा आर्थिक रूप से समृद्ध बना लिया।

राजव्यवस्था या शासन-पद्धति

  • लिच्छवियों की गणतंत्रात्मक राजव्यवस्था थी। लिच्छवि गणतंत्र की शासन पद्धति के सम्बन्ध में हमारी जानकारी अत्यल्प है।
  • महाजनपदकाल में गण की कार्यपालिका का अध्यक्ष एक निर्वाचित पदाधिकारी होता था जिसको राजा’ कहा जाता था। सामान्य प्रशासन की देखरेख के साथ-साथ गणराज्य में आन्तरिक शान्ति एवं सामन्जस्य बिठाये रखना उसका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था।
  • अन्य पदाधिकारियों में उपराजा (उपाध्यक्ष), सेनापति, भाण्डागारिक (कोषाध्यक्ष) इत्यादि मुख्य थे।
  • राज्य की वास्तविक शक्ति एक केन्द्रीय समिति’ अथवा संस्थागार’ में अन्तर्निहित होती थी। इस संस्थागार अथवा समिति के सदस्यों की संख्या काफी बड़ी होती थी। समिति (संस्थागार) के सदस्य भी ‘राजा’ कहे जाते थे। ‘एकपण्ण जातक’ के अनुसार लिच्छवि गणराज्य की केन्द्रीय समिति में ७,७०७ राजा थे और उपराजाओं, सेनापतियों एवं कोषाध्यक्षों की संख्या भी यही थी।
  • इसी तरह अन्य स्थान पर शाक्यों के संस्थागार के सदस्यों की संख्या ५०० बतायी गयी है। ये सम्भवतया राज्य के कुलीन परिवारों के प्रमुख थे, जिन्हें ‘राजा’ की पदवी धारण करने का अधिकार था। प्रत्येक राजा के अधीन उपराजा, सेनापति, भाण्डागारिक आदि पदाधिकारी होते थे।
  • इससे ऐसा प्रतीत होता है कि लिच्छवि राज्य अनेक छोटी-छोटी प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त था। प्रत्येक इकाई का अध्यक्ष एक राजा होता था जो अपने अधीन पदाधिकारियों की सहायता से उस इकाई का शासन चलाता था। प्रत्येक इकाई की अध्यक्ष केन्द्रीय समिति के सदस्य होता था।

गणराज्यों से सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों, यथा— संधि-विग्रह, कूटनीतिक व वैदेशिक सम्बन्ध, राजस्व संग्रह आदि के ऊपर केन्द्रीय समिति के सदस्य संस्थागार में पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात बहुमत से निर्णय लिया करते थे। उदाहरणार्थ :

  • जब ‘रोहिणी नदी’ के जल वितरण के सम्बन्ध में कोलियों तथा शाक्यों के कृषकों के बीच विवाद हुआ तो उन्होंने अपने-अपने अधिकारियों को सूचित किया तथा अधिकारियों ने अपने राजाओं को बताया। राजाओं ने इस विषय पर पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात् युद्ध का निर्णय लिया।
  • कोसल नरेश विड्डूभ द्वारा शाक्य गणराज्य पर आक्रमण किये जाने तथा उनकी राजधानी का घेरा डालकर उनसे आत्मसमर्पण के लिये कहे जाने पर शाक्यों ने अपने संस्थागार में आत्म समर्पण अथवा युद्ध करने के ऊपर विचार विमर्श किया। अन्त में बहुमत से आत्मसमर्पण का निर्णय लिया गया।
  • लिच्छवि गणराज्य में सेनापति के चुनाव का भी एक विवरण प्राप्त होता है। तदनुसार सेनापति ‘खण्ड’ की मृत्यु के बाद सेनापति ‘सिंह’ की नियुक्ति संस्थागार के सदस्यों द्वारा निर्वाचन के आधार पर की गयी थी।
  • कुशीनारा के मल्लों ने बुद्ध की अन्त्येष्टि तथा उनकी धातुओं के विषय में अपने संस्थागार में विचार-विमर्श किया था।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि लिच्छवि गणराज्य की शासन पद्धति जनतन्त्रात्मक थी।

यदि यह मान लिया जाय कि बौद्ध-संघ की कार्य-पद्धति गणराज्यों की कार्य-पद्धति पर आधारित थी क्योंकि स्वयं महात्मा बुद्ध भी इनकी कार्य-प्रणाली के प्रशंसक थे। तो यह सम्भव है कि महात्मा बुद्ध ने इन गणसंघों के अनुरूप ही ‘बौद्ध-संघ’ को रूप दिया हो। इस तरह हम लिच्छवि गणराज्य की कार्य-प्रणाली के सम्बन्ध में कुछ और निष्कर्ष निकाल सकते हैं। ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि –

  • संस्थागार की कार्यवाही आधुनिक प्रजातन्त्रात्मक संसद के ही समान थी अथवा रही होगी। 
  • प्रत्येक सदस्य के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था की जाती थी। इस कार्य के लिए ‘आसनपन्नापक’ नामक पदाधिकारी होता था। 
  • गणपूर्ति, प्रस्ताव रखने, मतगणना आदि के लिये सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित नियम होते थे।
  • संस्थागार या समिति में रखा जाने वाला प्रस्ताव सामान्यतः तीन बार दोहराया जाता था तथा विरोध न होने पर स्वीकार कर लिया जाता था। विरोध होने पर बहुमत लिया जाता था। 
  • गुप्तमत प्रणाली (Secret Ballot) की प्रथा थी। अनुपस्थित सदस्य के मत लेने के भी नियम बने हुए थे।
  • मतदान अधिकारी को ‘शलाका ग्राहक’ कहा जाता था। प्रत्येक सदस्य को अनेक रंगों की शलाकायें दी जाती थीं। विशेष प्रकार के मत के लिये विशेष रंग की शलाका होती थी जो शलाका ग्राहक के पास पहुँचती थीं।
  • मत के लिये छन्द शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • विवादग्रस्त विषय समितियों के पास भेजे जाते थे।
  • संस्थागार के कार्यों के संचालन के लिये अनेक पदाधिकारी होते थे।
  • गणों की कार्यपालिका का अध्यक्ष ही संभवतः संस्थागार का भी प्रधान होता था।
  • सामान्यतया गणराज्यों की सरकार पर केन्द्रिय समिति का पूर्ण नियंत्रण होता था।
  • राज्य के उच्च पदाधिकारी तथा प्रादेशिक शासकों की नियुक्ति समिति द्वारा की जाती थी।
  • गणराज्यों में एक मंत्रिपरिषद् भी होती थी जिसमें चार से लेकर बीस तक सदस्य होते थे। ये केन्द्रीय समिति द्वारा ही नियुक्त किये जाते थे।
  • गणाध्यक्ष ही मन्त्रिपरिषद् का प्रधान होता था।

न्याय व्यवस्था

  • केन्द्रीय समितियों द्वारा न्याय का भी संपादन किया जाता था।
  • वज्जिसंघ की न्याय व्यवस्था के विषय में बुद्धघोष की टीका ‘सुमंगलविलासिनी’ से कुछ सूचनायें प्राप्त होती है। इससे हमें ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ में आठ न्यायालय होते थे। कोई भी व्यक्ति तभी दंडित किया जा सकता था जब वह एक-एक करके आठ न्यायालयों द्वारा दोषी ठहरा दिया गया हो। प्रत्येक न्यायालय अपराधी को मुक्त करने के लिये स्वतन्त्र होता था। इन न्यायालयों के प्रधान अधिकारी इस प्रकार थे —
    1. विनिच्चय महामात (विनिश्चय महामात्र)
    2. वोहारिक (व्यवहारिक)
    3. सूत्ताधार (सूत्रधार)
    4. अट्ठकुलक (अष्टकुलक)
    5. भाण्डागारिक
    6. सेनापति
    7. उपराजा
    8. राजा
  • विनिश्चय महामात्र पहला, जबकि राजा का न्यायालय अन्तिम होता था।
  • दण्ड देने का अधिकार केवल राजा को ही था।
  • अन्य न्यायालय निर्दोष होने पर अपराधी को मुक्त तो कर सकते थे किन्तु दोषी होने पर उसे दण्डित नहीं कर सकते थे। वे उसे उच्चतर न्यायालय में भेज देते थे।
  • राजा दण्ड देते समय ‘पवेनिपोट्ठक’ अर्थात् पूर्व दृष्टान्तों का अनुसरण करते थे और तदनुसार दण्ड का निर्धारण करते थे।

इस विवरण से स्पष्ट होता है कि लिच्छवि गणराज्य में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को पूर्णतया सुरक्षित रखा गया। यह एक नागरिक की स्वतन्त्रता के जनतांत्रिक विचारधारा का समर्थन करता है जो विश्व इतिहास में शायद अद्वितीय है।*

It upholds a democratic view of the liberty of a citizen and has probably no parallel in the history of world.

— Age of Imperial Unity, p. 333 *

  • यह एक प्रकार से अति-लोकतांत्रिक (Uitra-democratic) व्यवस्था थी।

गणराज्यों में ग्राम पंचायतें भी होती थीं जो राजतन्त्रात्मक राज्यों की ग्राम पंचायतों के समान ही अपना कार्य करती थीं। ये कृषि, व्यापार, उद्योग इत्यादि के विकास का ध्यान रखती थीं।

गणराज्यों के विधान तथा शासन के विषय में हमें जो थोड़ी बहुत सी सूचना मिलती है उससे ऐसा स्पष्ट होता है कि ये राज्य बड़े समृद्ध तथा सुव्यवस्थित रहे होंगे। स्वयं महात्मा बुद्ध वज्जिसंघ की सुव्यवस्था से अत्यधिक प्रभावित थे। ‘महापरिनिर्वाणसूत्र’ से ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शिष्य आनन्द से वज्जियों की प्रशंसा करते हुए कहा था —

जब तक वे बार-बार अपने संस्थागार में बैठक करते रहेंगे, मिलकर सहमति से रहेंगे, निर्णय लेंगे, प्राचीन परम्पराओं का पालन करेंगे, अपने बड़े-बूढ़ों का सम्मान करेंगे तथा उनके आदेश का पालन करेंगे तब तक उनकी प्रगति होती रहेगी।”

वस्तुतः वज्जिसंघ की शक्ति उसके संगठन में ही निहित थी। जब तक यह संघ संगठित रहा अजातशत्रु जैसे शक्तिशाली राजा भी उससे भयभीत थे। किन्तु जब उसमें फूट पड़ गयी तब उसका पतन हो गया।

लिच्छवि गणराज्य के पतन का कारण

छठी शताब्दी ईसा पूर्व या बुद्धकालीन लिच्छवि गणराज्य अत्यन्त शक्तिशाली एवं सुव्यवस्थित थे। लिच्छवियों ने मगध साम्राज्यवाद का बड़ा प्रतिरोध किया था। देश-भक्ति तथा स्वाधीनता की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। परन्तु लिच्छवि गणराज्य अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं कर सका तथा अन्ततोगत्वा उसका पतन हुआ।

इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी बताये गये है-

  • काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि समुद्रगुप्त की साम्राज्यवादी नीति ने गणराज्यों की स्वाधीनता का अन्त कर दिया जिसके फलस्वरूप उनका विलोप हो गया। किन्तु यह विचार तर्कसंगत नहीं है। हमें ज्ञात है कि समुद्रगुप्त कालीन गणराज्य नाममात्र के लिये उसको प्रभुसत्ता स्वीकार करते थे तथा उन्हें पर्याप्त आन्तरिक स्वायत्तता मिली हुई थी।
  • गणराज्यों के विनाश का सबसे बड़ा कारण उसके शासन में उच्चपदों का आनुवंशिक (Hereditary) होना है। चूँकि प्राचीन ग्रन्थों में सर्वत्र राजतन्त्र की ही प्रशंसा की गयी थी तथा राजा का पद दैवी माना गया था। अतः गणराज्यों ने भी सुशासन एवं सुरक्षा की दृष्टि से राजतन्त्रात्मक प्रणाली को अपनाना लाभकर समझा। गणराज्यों के शासक राजतन्त्रों के अनुकरण पर महाराज तथा महासेनापति जैसी उपाधियाँ ग्रहण करने लगे। ये पद वंशानुगत रूप से चलने लगे।
  • कुमारदेवी के उदाहरण से स्पष्ट है कि वह लिच्छवि गणराज्य की आनुवंशिक रूप से उत्तराधिकारिणी थी।
  • क्रमशः गणराज्यों में सत्ता सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित होती चली गयी। अब राजतन्त्रों से उनका कोई विभेद नहीं रह गया। इस प्रकार उनके शासन का जनतांत्रिक स्वरूप समाप्त हो गया।
  • गणराज्यों की आपसी फूट तथा समकालीन राजतन्त्रों की विस्तारवादी नीति को भी न्यूनाधिक रूप से उनके पतन के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है।

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