भूमिका
प्रारम्भ में विद्वानों का ऐसा विचार था कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठे। परन्तु बाद में कुछ ऐसे साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक प्रमाण प्रकाश में आये जिनके फलस्वरूप विद्वानों को अपनी धारणा बदलनी पड़ी तथा अब यह स्वीकार कर लिया गया कि समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच रामगुप्त नामक व्यक्ति ने अल्पकालीन शासन किया। विदिशा जैनमूर्ति लेख में इनका विरुद सहित पूरा नाम “महाराजाधिराज श्री रामगुप्त” मिलता है।
संक्षिप्त परिचय
नाम | रामगुप्त |
उपाधि | महाराजाधिराज |
पिता | समुद्रगुप्त |
माता | ? |
पत्नी | ध्रुवदेवी |
शासनकाल | अल्पकालीन (३७५ ई०) |
पूर्ववर्ती शासक | समुद्रगुप्त |
उत्तराधिकारी शासक | चंद्रगुप्त द्वितीय |
अभिलेख | दुर्जनपुर जैनमूर्ति लेख (विदिशा जैनमूर्ति लेख) |
सिक्के | एरण तथा भिलसा से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ |
साधन

साहित्य
- विशाखादत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम्।
- बाणभट्ट कृत हर्षचरित।
- राजशेखर कृत काव्यमीमांसा।
- भोज कृत शृंगारप्रकाश।
- शंकरार्य कृत हर्षचरित की टीका।
- अबुल हसन अली कृत मुजमल-उत-तवारीख।
अभिलेख
- संजन का लेख।
- काम्बे का लेख।
- संगली का लेख।
- दुर्जनपुर जैनमूर्ति लेख (विदिशा जैनमूर्ति लेख)
मुद्राएँ
- एरण तथा भिलसा से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ।
रामगुप्त की ऐतिहासिकता
सर्वप्रथम रामगुप्त के इतिहास का पुनर्निर्माण करने वाले विद्वान् राखाल दास बनर्जी थे जिन्होंने नवम्बर १९२४ ईस्वी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के ‘मनीन्द्र चन्द्र नन्दी व्याख्यानमाला’ के अन्तर्गत इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये थे। तत्पश्चात् अन्य विद्वानों ने उनका अनुसरण किया।
विभिन्न साक्ष्यों के सूक्ष्मावलोकन करने के पश्चात् हम रामगुप्त के सम्बन्ध में निम्नलिखित सूचनाएँ प्राप्त करते हैं—
समुद्रगुप्त के दो पुत्र हुए—
- एक, रामगुप्त
- द्वितीय, चन्द्रगुप्त
रामगुप्त बड़े थे, अतः पिता की मृत्यु के बाद सिंहासन पर बैठे। रामगुप्त निर्बल और भीरु शासक सिद्ध हुए। वह राजनीतिक परिस्थितियों को सम्हालने में अक्षम सिद्ध हुआ। रामगुप्त की दुर्बलता का लाभ उठाकर शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। रामगुप्त पराजित हुआ। शकों ने रामगुप्त को एक अत्यन्त अपमानजनक सन्धि के लिए बाध्य किया।
सन्धि की शर्तों के अनुसार रामगुप्त को अपनी पत्नी ध्रुवदेवी (ध्रुवस्वामिनी) को शकराज को समर्पित करना था।
पराजित रामगुप्त अपने बचाव का कोई अन्य उपाय न पाकर इस अपमानजनक सन्धि को स्वीकार कर लिया।
संकट से आच्छादित गुप्त साम्राज्य के त्राता के रूप में रामगुप्त के अनुज चन्द्रगुप्त द्वितीय का राजनीतिक मंच पर आगमन होता है। वह स्वभाव से वीर और स्वाभिमानी था। चन्द्रगुप्त द्वितीय को अपने अग्रज द्वारा शकों के साथ की गयी सन्धि अपने कुल की मर्यादा के विपरीत लगी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने प्रस्ताव किया कि वह स्वयं ध्रुवदेवी के वेष में शकपति के शिविर में जाएगा। उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। शक शिविर में पहुँचकर छद्मवेशधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अवसर पाकर शक नरेश की हत्या कर दी।
इस विकेकयुक्त साहसी कृत्य से चन्द्रगुप्त द्वितीय की लोकप्रियता बढ़ती गयी और रामगुप्त निन्दनीय होता गया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की बढ़ती लोकप्रियता से रामगुप्त का सशंकित होना स्वाभाविक है। साथ ही चन्द्रगुप्त द्वितीय को भी खतरे का आभास हुआ। इसलिए चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पागलपन का ढोंग किया।
अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए उसने अपने अग्रज रामगुप्त की हत्या करके गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन बैठा और ध्रुवदेवी से स्वयं विवाह कर लिया।
साहित्यिक साक्ष्य
इस घटना का सर्वप्रथम उल्लेख विशाखदत्त के देवीचन्द्रगुप्तम् नाटक में हुआ है। यह नाटक अपने मूल रूप में तो प्राप्त नहीं होता परन्तु इसके कुछ अंश उद्धरण के रूप में ‘नाट्य दर्पण’ में मिलते हैं जिसकी रचना रामचन्द्र एवं गुणचन्द्र ने की थी। इन उद्धरणों की ओर सर्वप्रथम सिलवैन लेवी (Sylvain Levi) और आर० सरस्वती ने इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित किया था। इन उद्धरणों से ज्ञात होता है कि रामगुप्त भीरू एवं कुल-कलंक था।१
“पत्युः क्लीवजनोचितेन चरितेनानेनपुंसः सतः।” १
शकों ने रामगुप्त को परास्त कर उसकी पत्नी ध्रुवदेवी की माँग की। हारे हुए रामगुप्त ने अपमानजनक सन्धि के रूप में ध्रुवदेवी को देने के निमित्त तैयार हो गया।
“प्रकृतिनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीं सम्प्रदानेऽयुपगते।” २
परन्तु छद्मवेषी चन्द्रगुप्त ने जाकर शकपति की हत्या कर दी। तत्पश्चात् वह उन्मत्त अवस्था में विचरण करने लगा। एक बार राजमहल में जाकर उसने रामगुप्त को भी मार डाला।
बाणभट्ट कृत हर्षचरित में इस घटना की चर्चा करते हुए बताया गया है कि “अरिपुर में दूसरे की पत्नी का इच्छुक शकपति की स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त ने हत्या की।” ३
“अरिपुरे च परकलत्रं कामुकं कामिनिवेषगुप्तः चन्द्रगुप्तः शकपतिं अशातयत्।” ३
१०वीं शताब्दी के लेखक राजशेखर कृत काव्यमीमांसा में इस घटना का उल्लेख मिलता है जहाँ रामगुप्त को शर्मगुप्त तथा शकाधिपति को खसाधिपति कहा गया है। इसके एक श्लोक के अनुसार “शर्मगुप्त नामक राजा पराजित हो जाने के कारण अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को खसाधिपति को समर्पित करने के लिये तैयार हो गया था। उसी हिमालय पर्वतमाला में कार्तिकेय ने अपने शत्रुओं का संहार किया जिससे नगरवधुयें उसके यश का गान करने लगीं।”४
“दत्वा रुद्धगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीं,
यस्मात्खण्डित साहसो निववृते श्रीशर्मगुप्तो नृपः।
तस्मिन्नेव हिमालये गिरिगुहाकोणक्वणित्किन्नर,
गीयन्ते तव कार्तिकेय नगरस्त्रीणां गणैः कीर्तयः॥” ४
यहाँ कार्तिकेय से तात्पर्य चन्द्रगुप्त से ही है।
भोज कृत शृंगारप्रकाश में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है। तदनुसार “स्त्री का कपट वेष बनाकर, शकपति की हत्या करने के लिये चन्द्रगुप्त शत्रु के शिविर अलिपुर में गया था॥”५
“स्त्रीवेषनिहृतः चन्द्रगुप्तः शत्रो स्कन्धवारं अलिपुरं शकपतिवधायागमत्।” ५
हर्षचरित के टीकाकार शंकरार्य ने बताया है कि शकपति उनका धार्मिक आचार्य था। वह चन्द्रगुप्त के भाई की भार्या के लिये इच्छुक होने के कारण स्त्रीवेषधारी चन्द्रगुप्त द्वारा मारा गया।६
“शकानामाचार्य शकाधिपतिः चन्द्रगुप्तभातृजायां प्रार्थयमानः ध्रुवदेवीवेषधारिणा चन्द्रगुप्तेन व्यापादितः।” ६
११वीं शताब्दी ईस्वी की अरबी भाषा की पुस्तक ‘मुजमल-उत-तवारीख’ में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है। इस ग्रन्थ की रचना अबुल हसन अली ने की थी तथा इसकी ओर सर्वप्रथम अल्टेकर ने विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था। यहाँ हमें रव्वाल और बर्कमारीश नामक दो भाइयों की कहानी मिलती है जो देवीचन्द्रगुप्तम् नाटक की रामगुप्त-चन्द्रगुप्त वाली कथा से साम्यता रखती है। दोनों को देखने से ऐसा लगता है कि अरबी लेखक उसी कथानक को थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ पुनः प्रस्तुत कर रहा है। यहाँ भी चन्द्रगुप्त जैसी स्थिति में बर्कमारीश अपने भाई के शत्रुओं का विनाश करता है तथा अन्ततोगत्वा भाई की हत्या और उसकी पत्नी से विवाह कर राजा बन जाता है।
उपर्युक्त सभी ग्रन्थों के विवरण को हम कोरी कल्पना की उड़ान नहीं मान सकते हैं। अनेक विद्वान् विशाखदत्त को चन्द्रगुप्त का ही समकालीन मानते हैं। वह सामन्तकुल का था। उसके पिता का नाम महाराज भाष्करदत्त तथा पितामह का नाम सामन्त वटेश्वरदत्त मिलता है। राजसभा में रहने के कारण उसे राजनीतिक घटनाओं की भी पर्याप्त जानकारी रही होगी।
हर्षचरित का साक्ष्य निश्चयतः ऐतिहासिक प्रतीत होता है। बाण ऐतिहासिक लेखक थे। उन्होंने मौर्य नरेश बृहद्रथ की उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा तथा राज्यवर्धन की गौड़ नरेश शशांक द्वारा हत्या की घटनाओं का भी उल्लेख किया है और ये विवरण पूर्णरूपेण ऐतिहासिक हैं।
अतः हमें चन्द्रगुप्त ध्रुवदेवी वाले विवरण में भी सन्देह नहीं करना चाहिये। राजशेखर भी राजकवि थे। परम्परा के अनुसार शृंगारप्रकाश का रचयिता भोज स्वयं सम्राट था। अतः उसके विवरण काव्यात्मक होते हुये भी ऐतिहासिक घटनाओं को सुरक्षित किये हुए है।
अभिलेखीय साक्ष्य
यद्यपि रामगुप्त का कोई अभिलेख नहीं मिलता तथापि राष्ट्रकूटवंश के तीन अभिलेखों—संजन, काम्बे, तथा संगली में परोक्ष रूप से देवीचन्द्रगुप्तम् नाटक में उल्लिखित घटना की ओर संकेत मिलता है।
संजन लेख राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम का है तथा उसकी तिथि ८७१ ईस्वी है। इसके अनुसार ‘कलियुग में गुप्तवंश में एक दानी राजा हुआ जिसने भाई की हत्या कर उसके राज्य तथा उसकी पत्नी दोनों का अपहरण किया। उसने एक लाख की संख्या के स्थान पर एक करोड़ की संख्या का उल्लेख करवाया था।’७
“हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरद्देवीं च दीनस्तथा।
लक्ष कोटिमलेखयन्किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः॥” ७
—संजन का लेख
काम्बे तथा संगली (९३० तथा ९३३ ईस्वी) के लेख गोविन्द चतुर्थ के समय के हैं। इनमें राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द चतुर्थ, जिसने ‘साहसांक’ की उपाधि ग्रहण की थी और उसकी तुलना ‘साहसांक’ नामक किसी अन्य राजा के साथ की गयी है। तदनुसार ‘वह केवल त्याग व अतुल साहस में ही साहसांक की समता रखता था। अन्यथा समर्थ होने पर भी उसने अग्रज के प्रति क्रूरता का व्यवहार नहीं किया था। भाई की पत्नी के साथ गमनादि कुचरितों से उसने अपकीर्ति भी नहीं प्राप्त की थी। भय के कारण शौच अशौच का ध्यान न रखते हुए उसने पिशाच व्रत का भी अनुष्ठान नहीं किया८ … आदि।
“सामर्थे सति निन्दिता प्रविहिता नैवाग्रजे क्रूरता,
बन्धुस्त्रीगमनादिभिः कुचरितैरावर्जितनायशः।
शौचाशौचपरांगमुख न च भिया पैशाच्यमंगीकृतं,
त्यागेनासमसाहसैश्च भुवने यः साहसांकोऽभवत्॥” ८
—काम्बे का लेख
यदि हम सावधानीपूर्वक इन पंक्तियों का अवलोकन करें तो स्पष्ट होगा कि यहाँ गोविन्द की तुलना जिस ‘साहसांक’ नामक राजा से की गयी है उससे तात्पर्य गुप्तवंशी सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से ही है जो देवीचन्द्रगुप्तम् के अनुसार अपने अग्रज का हत्यारा था तथा जिसने उसकी पत्नी और राज्य दोनों ही पर अधिकार कर लिया था।
इन लेखों में राजा का नाम ‘साहसांक’ मिलता है जो चन्द्रगुप्त की ‘विक्रमांक’ उपाधि से मिलता-जुलता है। विक्रमांक और साहसांक पर्यायवाची हैं। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि इस समय (९वीं-१०वीं शती) तक देश में रामगुप्त-चन्द्रगुप्त के घटना की स्मृति बनी हुई थी। यहाँ लेखक यह दिखाना चाहता है कि उसका आश्रयदाता सम्राट गोविन्द त्याग तथा साहस के अतिरिक्त अन्य बातों में ‘साहसांक’ से बढ़कर था।
यहाँ उल्लेखनीय है कि बेसनगर (विदिशा) के पास स्थित दुर्जनपुर नामक स्थान से तीन जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनकी चरण चोटियों पर गुप्तकालीन लिपि में तीन लेख उत्कीर्ण हैं। इनमें “महाराजाधिराज रामगुप्त” नामक एक राजा का उल्लेख मिलता है। इन लेखों की लिपि समुद्रगुप्त के एरण तथा चन्द्रगुप्त के उदयगिरि से प्राप्त लेखों में प्रयुक्त लिपि के ही समान है। अतः हम इस शासक की पहचान रामगुप्त से कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अपने वंश के शासकों के विपरीत रामगुप्त जैन मतावलम्बी था और यही उसके सैनिक दृष्टि से निर्बल होने का कारण रहा होगा। लगता है कि जैनमत के पोषक राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष ने अपने लेखों में इसी कारण रामगुप्त के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुये उसके छोटे भाई चन्द्रगुप्त की निन्दा की है।
- विस्तृत विवरण के लिए देखें— विदिशा जैनमूर्ति अभिलेख
मुद्रायें
अब धीरे-धीरे कुछ ऐसी मुद्रायें प्रकाश में आयी हैं जिससे रामगुप्त की ऐतिहासिकता को बल मिला है। ये मालवा क्षेत्र के दो स्थलों— भिलसा तथा एरण से प्राप्त हुई हैं तथा सभी ताँबे की हैं।
भिलसा से प्रसिद्ध मुद्राशास्त्री परमेश्वरी लाल गुप्त को छः सिक्के ऐसे मिलते हैं जिनमें से एक पर राजा का पूरा नाम ‘रामगुप्त’ तथा शेष पर उसके नाम के कुछ अक्षर जैसे ‘राम’, ‘मगु’, ‘गुत’ आदि पढ़े जा सकते हैं। इन पर सिंह की आकृति है, लिपि गुप्तकालीन है तथा भार-माप में ये सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय के ताम्र सिक्कों से मिलते-जुलते हैं। अतः इन सिक्कों को परमेश्वरी लाल गुप्त ने रामगुप्त से सम्बन्धित किया है। उल्लेखनीय है कि ध्रुवदेवी की वैशाली मुद्रा के ऊपर भी सिंह की आकृति उत्कीर्ण मिलती है तथा यही रामगुप्त के सिक्कों पर भी है। इससे भी रामगुप्त का गुप्तवंशी होना प्रमाणित होता है।
सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष कृष्णदत्त वाजपेयी ने एरण से रामगुप्त के कुछ ऐसे सिक्के प्राप्त किये हैं जिन पर सिंह तथा गरुड़ की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। राजा का नाम राम, रामगु, मगुप्त अंकित है। इन सिक्कों पर गरुड़ की आकृति का उत्कीर्ण होना रामगुप्त की ऐतिहासिकता में एक नयी जान डाल देता है। गरुड़ गुप्तवंश का राजकीय चिह्न था।
प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है कि गुप्तों की राजाज्ञायें गरुड़मुद्रा से अंकित (गरुत्मदंक) हुआ करती थीं। अतः गरुड़-प्रकार के सिक्कों से स्पष्ट है कि यह रामगुप्त कोई दूसरा नहीं, अपितु चन्द्रगुप्त द्वितीय का ही अग्रज था।
यह सही है कि ये सभी सिक्के ताँबे के हैं फिर भी हम इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते।
कुछ विद्वानों का विचार है कि इन सिक्कों का रामगुप्त मालवा का कोई स्थानीय शासक था, न कि चक्रवर्ती गुप्तवंश का। किन्तु यह मत तर्कसंगत नहीं लगता। इन सिक्कों की लिपि तीसरी-चौथी शती ईस्वी की है तथा इस समय हम मालवा में गुप्तवंश के सिवाय किसी अन्य वंश की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
शकपति की पहचान
रामगुप्त के प्रतिद्वन्द्वी शकपति की पहचान के विषय में मतभेद है।
- शकपति कुषाणवंशी शासक था।
- शकपति उज्जयिनी के क्षत्रप वंश का शासक था।
आर० एन० दाण्डेकर, आर० डी० बनर्जी आदि विद्वानों के अनुसार वह कोई कुषाणवंशी शासक रहा होगा। प्रयाग प्रशस्ति ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त का प्रतिद्वन्द्वी कुषाण शासक ‘दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि’ की उपाधि ग्रहण करता था। उसने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी। रामगुप्त को निर्बल पाकर उसी ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया होगा।
इसके विपरीत अल्तेकर महोदय शकपति को उज्जयिनी के क्षत्रप वंश का राजा मानते हैं। उनके अनुसार चतुर्थ शती के मध्य पश्चिम में शक पुनः शक्तिशाली हो गये थे।
समुद्रगुप्त ने शकों को भी नत-मस्तक किया था। अतः उनके राजा ने समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी के काल में गुप्त साम्राज्य के ऊपर आक्रमण किया। चूँकि समुद्रगुप्त ने शकों से कन्याओं का उपहार प्राप्त किया था, अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इसी अपमान का बदला लेने के लिये शकपति ने रामगुप्त से उसकी पत्नी की माँग की थी।
साहित्यिक ग्रन्थों में सर्वत्र उसे शकपति ही कहा गया है। अतः रामगुप्त के प्रतिद्वन्द्वी को पश्चिमी भारत का शक क्षत्रप मानना ही उचित प्रतीत होता है। यह इस तथ्य से भी पुष्ट हो जाता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी भारत के शकों का ही विनाश किया था।
युद्ध स्थल की पहचान
यह निश्चित रूप से बता सकना कठिन है कि रामगुप्त तथा शकों के बीच युद्ध किस स्थान पर लड़ा गया था। विभिन्न स्रोतों में स्थान का नाम भिन्न-भिन्न दिया गया है—
- हर्षचरित में अरिपुर नगर मिलता है।
- शृंगारप्रकाश में अलिपुर नगर मिलता है।
- काव्यमीमांसा में कार्तिकेय नगर मिलता है।
हर्षचरित की कुछ पाण्डुलिपियों में अरिपुर के स्थान पर अलिपुर ही मिलता है। इस स्थान की पहचान पंजाब के कांगड़ा जिले में स्थित अलिपुर पहाड़ी से की जाती है।
भण्डारकर ने युद्ध-स्थल कार्तिकेय नगर मानते हुए इसकी पहचान अल्मोड़ा जिले के बैजनाथ ग्राम से की है जो कार्तिकेयपुर भी कहा जाता है। यह हिमालय क्षेत्र में स्थित है।
‘यू० एन० राय’ का विचार है कि कार्तिकेय नगर या कार्तिकेयपुर वस्तुतः प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित कर्तृपुर नामक स्थान है जो समुद्रगुप्त का प्रत्यन्त राज्य था।
इस सम्बन्ध में विभिन्न मत-मतान्तरों से एक तथ्य तो यह स्पष्ट हो जाता है कि रामगुप्त का शकों के साथ युद्ध उसकी राजधानी से काफी दूर हुआ था। सम्भव है रामगुप्त किसी सैनिक अभियान में गया हो जहाँ उसकी सेना के साथ उसकी पत्नी ध्रुवदेवी भी रही हो। पराजित हो जाने पर उसने अपने बचाव का कोई अन्य उपाय न पाकर अपनी पत्नी को देना स्वीकार कर लिया होगा।
रामगुप्त की ऐतिहासिकता का विरोध
उपर्युक्त प्रमाणों के बावजूद भी अनेक विद्वान् रामगुप्त की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं। सर्वप्रथम सिलवैन लेवी (Sylvain Levi) ने देवीचन्द्रगुप्तम् की कथा में संदेह व्यक्त किया था। तत्पश्चात् स्मिथ, रायचौधरी तथा मजूमदार जैसे विद्वानों ने भी रामगुप्त की ऐतिहासिकता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। इन विद्वानों के मुख्य तर्क अधोलिखित हैं—
- गुप्त अभिलेखों में रामगुप्त का उल्लेख नहीं मिलता।
- रामगुप्त का कोई अभिलेख भी नहीं मिलता।
- रामगुप्त के स्वर्ण तथा रजत सिक्के नहीं मिलते जबकि अन्य राजाओं के मिलते हैं।
- चन्द्रगुप्त द्वारा अपने बड़े भाई की हत्या तथा उसकी पत्नी के साथ विवाह स्वर्ण युग की हमारी मान्य धारणाओं के विपरीत जान पड़ते हैं।
- गुप्त अभिलेखों में चन्द्रगुप्त को ‘तत्परिगृहीत’ कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वह अपने पिता द्वारा उत्तराधिकारी चुना गया था।
उपर्युक्त आपत्तियों का विश्लेषण
परन्तु ये आपत्तियाँ निरर्थक हैं। अभिलेखों में मूलवंश का ही नाम मिलता है। चूँकि रामगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र न होकर भाई हुआ, अतः अभिलेखों में उसके नामोल्लेख का प्रश्न ही नहीं उठता। जैसा कि पहले विवरण दिया जा चुका है अब रामगुप्त के लेख भी मिल चुके हैं। सम्भव है भविष्य में उसके स्वर्ण तथा रजत सिक्के प्राप्त हो जाय। भण्डारकर ने गुप्तकालीन स्मृतियों से कुछ ऐसे उदाहरण खोज निकाले हैं जिनसे चन्द्रगुप्त का रामगुप्त की हत्या तथा ध्रुवदेवी से विवाह सर्वथा शास्त्रसंगत लगता है। गुप्तकालीन रचना नारद स्मृति के एक श्लोक के अनुसार पाँच आपत्तियों में स्त्री के पुनर्विवाह का विधान है— “पति का पता न होना, मृत हो जाना, संन्यास ग्रहण करना, क्लीव हो जाना तथा समाज से बहिष्कृत किया जाना…..”९
“नष्टे मृते प्रवजिते च क्लीवे पतिते पतौ।
पञ्चस्वापत्सुनारीणां पतिरन्यो विधीयते॥” ९
—नारद स्मृति
देवीचन्द्रगुप्तम् में रामगुप्त के आचरण को ‘क्लीवजनोचित’ कहा गया है। अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय का ध्रुवदेवी के साथ विवाह शास्त्र-संगत एवं समयोचित था। पुनश्च रामगुप्त को ‘कापुरुष’ कहा गया है जो अपने कुल के लिये ‘कलंक’ के समान था। ऐसे व्यक्ति से अपने वंश को छुटकारा दिलाना सर्वथा उचित था।
अतः चन्द्रगुप्त द्वारा रामगुप्त का वध राजनीतिक दृष्टि से न्याय-संगत ही था।
लेखों में प्रयुक्त ‘तत्परिगृहीत’ एवं ‘तत्पादानुध्यात’ जैसे शब्दों में मात्र सम्राट के प्रति निष्ठा सूचित होती है। कभी-कभी सामन्त भी इन्हें ग्रहण करते थे।
इस प्रकार समस्त उपलब्ध साधनों की समीक्षा करने के उपरान्त हम कह सकते हैं कि रामगुप्त की ऐतिहासिकता में संदेह करना अब उचित नहीं है। एरण अभिलेख से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के कई पुत्र (मुदिता-बहुपुत्र-पौत्रा) थे। ऐसी स्थिति में यदि रामगुप्त उसका बड़ा पुत्र रहा हो और उसने कुछ समय तक शासन किया हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
सम्भव है भविष्य में उत्खनन के दौरान रामगुप्त विषयक और अधिक ऐतिहासिक सामग्रियाँ उपलब्ध हो जायें। किन्तु देवीचन्दगुप्तम् में उसके व्यक्तित्व एवं चरित्र का जो निरूपण मिलता है वह विश्वसनीय नहीं लगता। यह कदापि सम्भव नहीं है कि समुद्रगुप्त जैसे महान् पराक्रमी नरेश का उत्तराधिकारी इतना क्लीव तथा निर्बल रहा हो। लगता है विशाखदत्त ने चन्द्रगुप्त के प्रभाव को बढ़ाने के लिये रामगुप्त के चरित्र का ऐसा विवरण प्रस्तुत किया हो।
अधिक से अधिक हम यही कह सकते है कि रामगुप्त शान्त प्रकृति का शासक था जो चन्द्रगुप्त की कूटनीति का शिकार हुआ। यू० एन० राय का विचार है कि जिस प्रकार कलिंग युद्ध के उपरान्त अशोक ने युद्ध का परित्याग कर शान्तिवादी नीति का अनुसरण किया उसी प्रकार रामगुप्त भी अपने पिता के समय के विभिन्न युद्धों में हुये भीषण रक्तपात को देखकर शान्तिवादी प्रकृति का बन गया होगा।
किन्तु रामगुप्त तथा अशोक की यह तुलना समीचीन नहीं लगती क्योंकि हमें ज्ञात है कि अशोक ने सर्वथा भिन्न परिस्थिति में शान्ति का अवलम्बन लिया था।
गोयल का यह सुझाव सही लगता है कि रामगुप्त अपने पिता के काल में पूर्वी मालवा का राज्यपाल रहा होगा। समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद चन्द्रगुप्त ने शेष भाग पर नियन्त्रण कर लिया तथा रामगुप्त केवल पूर्वी मालवा का ही शासक बन पाया। इसी बीच शकों का आक्रमण हुआ। चन्द्रगुप्त ने अवसर का लाभ उठाते हुए पूर्वी मालवा पर आक्रमण कर दिया। इसमें रामगुप्त मार डाला गया तथा चन्द्रगुप्त सम्पूर्ण साम्राज्य का राजा हुआ।
- A History of the Imperial Guptas, p. 235, 236, 237; S. R. Goyal
FAQ
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(Write a short note on Ramgupata.)
(Write a short note on Ramgupata.)
रामगुप्त गुप्त-राजवंश के शासक थे। इनका शासन अल्पकाल (३७५ ई०) था। वह समुद्रगुप्त के पुत्र थे और प्रारंभ में गुप्त साम्राज्य के सिंहासन पर बैठे थे। रामगुप्त एक दुर्बल शासक सिद्ध हुए जो अपने साम्राज्य की रक्षा और राजवंश के गौरव की रक्षा करने में असमर्थ रहे।
साहित्यिक स्रोतों के अनुसार रामगुप्त शक शासक से पराजित हो गये और उन्हें अपमानजनक संधि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। संधि-शर्तानुसार उनकी पत्नी ध्रुवदेवी को शक राजा को सौंपना था।
रामगुप्त के छोटे भाई चंद्रगुप्त द्वितीय ने इस अपमानजनक संधि को अस्वीकार किया और स्वयं स्त्री वेश में जाकर शक राजा की हत्या कर दी।
बाद में उन्होंने रामगुप्त को भी सत्ता से हटा दिया और स्वयं गुप्त साम्राज्य के शासक बने। साथ ही चंद्रगुप्त द्वितीय ने ध्रुवदेवी से भी विवाह कर लिया।
रामगुप्त की ऐतिहासिक साधन अधोलिखित हैं—
- पुरातत्त्व— विदिशा जैनमूर्ति लेख, संजन लेख, काम्बे लेख, संगली लेख; एरण और भिलसा से प्राप्त ताम्र मुद्राएँ
- साहित्य— देवीचंद्रगुप्तम्, हर्षचरित, काव्यमीमांसा, शृंगारप्रकाश, हर्षचरित पर टीका, मुजमल-उत-तवारीख
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