भूमिका
यौधेय एक प्राचीन सैन्य गणसंघ था। इन्हें यौधेय गण, यौधेय गणराज्य और यौधेय गणसंघ कहते हैं। यौधेय गणराज्य सतलुज नदी के पूर्वी क्षेत्र में स्थित था।
स्रोत
यौधेय गणराज्य के इतिहास का ज्ञान हमें साहित्यों और पुरातत्त्व दोनों से मिलता है। इनके विवेकपूर्ण उपयोग से यौधेय इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
साहित्य
- यौधेयों का उल्लेख महाभारत, महामायूरी, बृहत्संहिता, पुराण, चंद्रव्याकरण और काशिका में भी मिलता है।
- पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’ कहा है।
- पुराणों (जैसे ब्रह्माण्ड, वायु, ब्रह्म और हरिवंश) में यौधेयों को उशीनर और नृगु के वंशज के रूप में वर्णित किया गया है।
- महाभारत में बहुधान्यक भूमि को उन देशों में से एक के रूप में वर्णित किया गया है जिन्हें चौथे पाण्डव नकुल ने विजित किया था।
- वराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में उन्हें भारत के उत्तरी विभाजन में रखा है।
अभिलेख
- रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में इनका विवरण मिलता है।
- विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख में इनका विवरण मिलता है।
- लुधियाना से प्राप्त एक मिट्टी की मुहर पर ‘यौधेयानाम् जयमन्यधराणाम्’ लेख उत्कीर्ण है।
- अगरोहा यौधेय मुद्रांक में इनका विवरण मिलता है।
- समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में यौधेय का उल्लेख मिलता है।
सिक्के
- यौधेयों ने अपने सिक्कों और मुहरों पर केवल ब्राह्मी लिपि का उपयोग किया है।
- यौधेय सिक्कों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि कार्तिकेय उनके इष्ट देव थे।
- अलेक्जेंडर कनिंघम ने यौधेयों के सिक्कों को दो श्रेणियों में विभाजित किया;
- पुराने और छोटे वर्ग A के सिक्के जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व से पहले के हैं, और
- बड़े वर्ग B के सिक्के जो तीसरी शताब्दी ईस्वी के हैं, जब शक शक्ति का पतन हो रहा था। कनिंघम का कहना है कि बाद के सिक्के स्पष्ट रूप से इंडो-सीथियन मुद्राओं की अनुकृति थे।
- जॉन एलन (John Allan ) ने यौधेयों के सिक्कों को छह वर्गों में वर्गीकृत किया।
- विन्सेंट आर्थर स्मिथ (Vincent Arthur Smith) ने यौधेयों के सिक्कों को तीन प्रकार बताये हैं।
- जॉन एलन (John Allan ) के वर्गीकरण को अधिकांश विद्वानों द्वारा अनुसरण किया जाता है।
- यौधेयों के सिक्के प्राचीन राजधानी खोक्राकोट (Khokrakot ) (आधुनिक रोहतक) और नौरंगाबाद (Naurangabad) में पाये गये हैं।
यौधेय का अर्थ
“यौधेय” शब्द “योद्धा” से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – योद्धा। यौधेय कुषाण और शक जैसे आक्रमणकारियों के प्रतिरोध के लिये जाने जाते थे।
रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख* के अनुसार “जो सभी क्षत्रियों में प्रख्यात वीर कहे गये यौधेयों का बल उत्सादन करनेवाले हैं…” अर्थात् यौधेयों की वीरता को स्वीकार किया गया है।
“सर्व्वक्षत्राविष्कृत-वीर शब्द जा – [ तो ] त्सेकाविधेयनां यौधेयानां प्रसह्योत्सादकेन…”
पंक्ति संख्या * – ११,१२ – रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख
भौगोलिक स्थिति
अनंत सदाशिव अल्तेकर मुद्राशास्त्रीय साक्ष्य के आधार पर कहते हैं कि “यौधेय गणराज्य एक काफी विस्तृत राज्य था। इसके सिक्कों के मिलने के स्थान बताते हैं कि इसका विस्तार पूर्व में सहारनपुर से लेकर पश्चिम में बहावलपुर तक, उत्तर-पश्चिम में लुधियाना से लेकर दक्षिण-पूर्व में दिल्ली तक था।”
“The Yaudheya republic was a fairly extensive state. The findspots of its coins show that it extended from Saharanpur in the east to Bahavalpur in the west, from Ludhiyana in the north¬ west to Delhi in the south-east.”
– State and Government In Ancient India, p. 79; A. S. Altekar.
हालाँकि, अनंत सदाशिव अल्तेकर आगे कहते हैं कि यौधेय केवल एक एकीकृत इकाई नहीं थे, अपितु तीन अलग-अलग गणराज्य थे। उपर्युक्त भू-क्षेत्र के अतिरिक्त एक अन्य गणराज्य उत्तरी राजस्थान में स्थित था जबकि एक और उत्तरी पांचाल में था। (State and Government In Ancient India, p. 79; A. S. Altekar)
अल्तेकर महोदय इन तीनों की पृथक्-पृथक् शक्तिकेन्द्रों का उल्लेख करते हैं और उनमें से वो दो के नाम का उल्लेख भी करते हैं। इनके नाम अधोलिखित हैं –
- इनमें से एक की राजधानी पंजाब में रोहतक थी।
- उत्तरी पांचाल में स्थित गणराज्य का शक्तिकेन्द्र बहुधान्यक (अनाज में समृद्ध) थी।
विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख राजस्थान के भरतपुर जनपद से मिला है। इसके प्राप्ति स्थल से ज्ञात होता है कि यौधेय गणराज्य का विस्तार भरतपुर तक था।
अगरोहा यौधेय मुद्रांक हरियाणा प्रान्त के हिसार जनपद से प्राप्त हुआ है, इससे ज्ञात होता है कि हरियाणा का हिसार यौधेय गणराज्य का अंग था।
अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार, यौधेयों का पश्चिमी क्षत्रपों के आक्रमण के दौरान दक्षिणी राजस्थान में महत्त्वपूर्ण उपस्थिति थी, जिससे यह संकेत मिलता है कि दोनों के बीच सम्पर्क अन्यथा संभव नहीं हो सकता था।
रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख के आधार पर पुरातत्त्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यौधेय गणराज्य का विस्तार दक्षिण राजस्थान तक था अन्यथा शक-यौधेय संघर्ष न हुआ होता।
राजनीतिक इतिहास
वैदिककाल में विशेषकर उत्तरवैदिककाल में कुरु राज्य का उल्लेख हम प्रमुखता से पाते हैं। महाजनपदकाल के १६ महाजनपदों में कुरुओं का भी विवरण मिलता है। वैदिकोत्तर काल या सूत्रकाल में या पूर्व-मौर्यकाल में कुरुओं का पतन हो गया। जिस भू-क्षेत्र पर कुरु महाजनपद था लगभग उसी भू-भाग पर यौधेय एक राजनीतिक इकाई के रूप में उभरे। यौधेयों ने अंततः कुरुओं की पूर्व राजधानी इंद्रप्रस्थ (पुराना किला, दिल्ली), हस्तिनापुर (मेरठ) और असंदीवत (करनाल) सहित कुरुओं की भूमि को अपने अधिकार पर अधिकार कर लिया।
यौधेयों का सबसे प्रथम उल्लेख पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में मिलता है। व्याकरणाचार्य पाणिनि यौधेयों का वर्णन “आयुध-जीविन-संघ” के रूप में किया है, अर्थात् यौधेय संघ के जीविका का साधन आयुध था। (Panini`s reference to Yaudheyas is the earliest known. – India as known to Panini, p. 445; V. S. Agrawal)
वी० ए० अग्रवाल का विश्लेषण (India as known to Panini, p. 445; V. S. Agrawal)
- प्रारम्भिक सन्दर्भ: पाणिनि कृत अष्टाध्यायी में यौधेयों का सन्दर्भ सबसे प्राचीन है।
- ऐतिहासिक काल: यौधेयों का लंबा इतिहास है, जो उनके सिक्कों और अभिलेखों से स्पष्ट होता है। उनका स्वतन्त्र अस्तित्व समुद्रगुप्त के समय तक बना रहा।
- सिक्कों का विस्तार: २वीं शताब्दी ई०पू० से २वीं शताब्दी ई० (लगभग ४ चार शताब्दियों) तक के सिक्कों से स्पष्ट होता है कि यौधेय गणराज्य कि इस कालखण्ड में वे एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति थे।
- भौगोलिक विस्तार: यौधेय-सिक्के पूर्वी पंजाब और सतलज और यमुना के क्षेत्रों में पाये गये हैं।
- महाभारत में उल्लेख: महाभारत में रोहितक (Rohitaka) देश की राजधानी के रूप में बहुधान्यक (Bahudhanyaka) का उल्लेख मिलता है।
- डॉ० बीरबल साहनी की खोज: डॉ बीरबल साहनी द्वारा रोहितक से बहुधान्यक के यौधेयों की टकसाल-स्थल (mint-site) खोजी गयी है।
- पाणिनि द्वारा सुनेत का सन्दर्भ: सुनेत (Sunet) अर्थात् सौनेत्र (Saunetra) यौधेयों का केंद्र था, जहाँ उनके सिक्के, सिक्के बनाने के ढाँचे (moulds) और मुहरें (seal) मिली हैं।
- सिकन्दर: सिकन्दर के साथ किसी संघर्ष का उल्लेख यूनानी लेखकों द्वारा नहीं किया गया है।
- आधुनिक वंशज: सतलुज के किनारे बहावलपुर सीमा के साथ जोहिया राजपूत (Johiya Rajputs) उनके आधुनिक वंशज हो सकते हैं।
मौर्यकाल
चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य के मार्गदर्शन में यौधेयों को मौर्य साम्राज्य में शामिल किया। चंद्रगुप्त मौर्य ने पौरवों को भी अपने अधीन कर लिया था। चंद्रगुप्त ने पंजाब में स्थानीय राज्यों और गणराज्यों को जीतने के बाद नंद साम्राज्य पर विजय प्राप्त की। चंद्रगुप्त ने अपने अभियानों में यौधेय गण पर बहुत अधिक निर्भर किया था। (From Indus Valley Civlization to Mauryas, p. 28, 194, 253, 267, 269, 271, 273, 281; Gyan Swarup Gupta)
चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में यौधेय गण और इसी तरह के अन्य गणराज्यों का उच्च प्रतिनिधित्व था। इसके अतिरिक्त, यौधेय प्रमुखों और प्रमुखों को साम्राज्यिक पदों पर नियुक्त किया गया था।
यह तथ्य इससे भी पुष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्द वंश के विनाश से पूर्व पश्चिमोत्तर भारत को विदेशी शासन से मुक्त कराया था।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने उपलब्ध संसाधनों का उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया तथा विदेशियों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्धाभियान छेड़ दिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस कार्य के लिये एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना के सैनिक अर्थशास्त्र के अनुसार अधोलिखित वर्गों से लिये गये थे –
- चोर अथवा प्रतिरोधक,
- म्लेच्छ,
- चोर गण,
- आटविक और
- शस्त्रोपजीवी श्रेणी।
इस शास्त्रोपजीवी वर्ग को हम सहजता से पाणिनि के आयुध-जीविन-संघ से पहचान सकते हैं। इस तरह यौधेय चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना के प्रमुख भाग थे।
विजयगढ़ के यौधेय शिलालेख में महासेनापति का उल्लेख भी यौधेयों के सेना और सैन्याधिकारियों के रूप नियुक्ति की पुष्टि करता है।
मौर्योत्तरकाल
इंडो-ग्रीक साम्राज्य ने विशेषकर मेनांडर (Menander) के शासनकाल में पूर्वी पंजाब में अपना प्रभाव बढ़ाया। इस अवधि में स्थानीय इकाइयों के साथ बहुत संघर्ष हुआ। इस प्रतिरोध में त्रिगर्त, अर्जुनायन और यौधेय प्रमुख थे। अर्जुनायन और यौधेय के जो सिक्के मिलते हैं उनपर अंकित लेख उनकी स्वतन्त्रता को प्रमाणित करते हैं,
- अर्जुनायन जय (Victory of the Arjunayanas)
- यौधेय जय (Victory of the Yaudheyas), ताँबे के सिक्के
“Most of the peoples east of the Ravi already noticed as within Menander’s empire — Audumbaras, Trigartas, Kunindas, Yaudheyas, Arjunayanas—began to coin in the first century B.C., which means that they had become independent kingdoms or republics; but the coins do not all tell the same story. Those of the two southernmost peoples begin somewhere about 100 B.C. and bear the legends ‘Victory of the Arjunayanas’ and (on their copper issue) ‘Victory of the Yaudheyas’, which point to their having won independence by the sword.”
– The Greeks in Bactria and India p. 324; By William Woodthorpe Tarn
शकों का प्रतिरोध
द्वितीय शताब्दी (१५० ई०) में यौधेयों का सामना शकों से हुआ जिसमें वे पराजित हुए। जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि रुद्रदामन ने कड़े संघर्ष के बाद उन्हें जीता था। लेख के अनुसार वे अत्यन्त शक्तिशाली एवं साधन सम्पन्न थे।
“सर्व्वक्षत्राविष्कृत- वीर शब्द जा – [ तो ] त्सेकाविधेयनां यौधेयानां…”
— रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख, पं० – ११,१२
अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार रुद्रदामन की यौधेयों पर विजय सम्भवतया एक लूटपाट अभियान थी, न कि राजनीतिक नियंत्रण, क्योंकि वह अपने राज्य का हिस्सा होने के रूप में उनके क्षेत्र का दावा नहीं करता है।
“On the south they came in contact with Rudra Dama, the satrap of Saurashtra, who in his Junagarh inscriptions boasts of having ‘rooted out the Yaudheyas.’ He does not however claim their country as part of his dominions, and I presume that his campaign was limited to a mere plundering expedition.”
– Report of a Tour in the Punjab in 1878-79; p. 140; By Sir Alexander Cunningham
कुषाण और यौधेय
कुषाणों के पूर्व ये लोग उत्तरी राजपूताना तथा दक्षिणी पूर्वी पंजाब में निवास करते थे। जैसा कि हमें ज्ञात है कि गंगा घाटी का बड़ा भाग कुषाण राज्य का अंग था। मथुरा कुषाण राज्य की द्वितीय राजधानी जैसी थी। इस क्षेत्र में स्वतन्त्रता-प्रिय यौधेय गणराज्य था। ऐसे में कुषाण-यौधेय संघर्ष अवश्य हुआ होगा।
कनिष्क के रबातक (Rabatak) शिलालेख उसके द्वारा “क्षत्रियों के राज्य” में सैन्याभियान का उल्लेख करता है, जिसमें सम्भवतया यौधेय गणराज्य भी सम्मिलित रहा होगा। कनिष्क ने एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना किया था। यद्यपि कनिष्क ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया परन्तु उसने अपने साम्राज्य के धर्मावलम्बियों की भावनाओं का सम्मान किया। इसीलिए उसके सिक्कों पर विभिन्न धर्मों के देवी देवताओं का अंकन मिलता है। इसी का अनुसरण कनिष्क के उत्तराधिकारियों ने भी किया।
हुविष्क के सिक्कों पर स्कंद / कुमार / कार्तिकेय का अंकन मिलता है। कार्तिकेय यौधेय गणराज्य के आराध्य देवता थे। ऐसे में यह सम्भव है कि यौधेयों की भावना को संतुष्ट करके उन्हें राज्य का सहयोगी बनाया जाये न कि विरोधी।*
“The inclusion of Skanda in Huviska’s pantheon must have been motivated by his appeasement of the militant Yaudheyas, who were politically troublesome for the Kushans and who considered Skanda as their tutelary deity. To hold Mathura the Kushans must have subdued the Yaudheyas, who were settled in parts of present-day Haryana, centering around the town of Rohtak, and adjacent areas of Rajasthan and Panjab provinces.” *
– Indian Sculpture: Circa 500 B.C.-A.D. 700; p. 78; By Los Angeles County Museum of Art, Pratapaditya Pal
कार्तिकेय (स्कंद) यौधेयों के लिए एक महत्त्वपूर्ण देवता थे, और उनका पूजा केंद्र यौधेय राजधानी रोहितक में था। यह सम्भव है कि यौधेय क्षेत्र में कुषाण राज्य-विस्तार के परिणामस्वरूप कुषाण देवकुल में कार्तिकेय (स्कंद) को सम्मिलित कर लिया गया हो।
आर० सी० मजूमदार के अनुसार, लगभग १८० ईस्वी में, यौधेयों ने सतलुज-पार क्षेत्र में स्थित अन्य जनपदों, जैसे अर्जुनायन और कुनिंदों के साथ मिलकर कुशाणों को एक महत्वपूर्ण झटका देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
विश्लेषण
- कुषाण साम्राज्य को पहला झटका देने का श्रेय वास्तव में स्वातंत्र्य-प्रिय गणराज्यों का था जिनमें यौधेय गण प्रमुख थे।
- कुषाण साम्राज्य के उदय से पहले यौधेय एक शक्तिशाली गणराज्य था। यौधेय उत्तरी राजपूताना और दक्षिण-पूर्वी पंजाब में फैले हुए व्यापक क्षेत्र पर शासन करते थे।
- कनिष्क के नेतृत्व में कुषाणों ने यौधेयों को पराजित करके कम-से-कम बनारस तक साम्राज्य का विस्तार करने में सफल रहे।
- कनिष्क और हुविष्क के शासनकाल में कुषाण साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर था। इसलिए लगभग आधी शताब्दी तक यौधेयों को कुषाणों की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी पड़ी।
- यौधेय, योद्धा और स्वतंत्रता-प्रेमी थे और विदेशी शासन को सहन नहीं कर सकते थे। लगभग १४५ ई० में उन्होंने स्वतंत्र होने का प्रयास किया।
- परन्तु महाक्षत्रप रुद्रदामन प्रथम (१५० ई०) के नेतृत्व में शकों की शक्ति उत्थान पर थी। अपने जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन यौधेयों को पराजित करने का उल्लेख करता है।
- यौधेय स्वतंत्रता के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे। द्वितीय शताब्दी ई० के अंत तक स्वतंत्रता का दूसरा प्रयास किया। इस बार वे अपने प्रयास में सफल रहे और अपने गृह क्षेत्र को स्वतंत्र करने और कुषाणों को सतलुज के पार तक बाहर निकालने में सफल रहे।
उपर्युक्त दृष्टिकोण लगभग पूरी तरह से सिक्कों के प्रमाणों पर निर्भर करता है।
- वस्तुतः यौधेयों और कुषाणों के बीच संघर्ष का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। लेकिन मुद्रा साक्ष्य के आधार पर स्पष्ट होता है कि यौधेय केवल कुषाणों को उखाड़ फेंककर ही अपनी शक्ति को पुनः स्थापित करने में सफल हो सकते थे।
- कनिष्क तृतीय (लगभग १८० – २१० ई०) के सिक्के सतलुज नदी के पश्चिम (बैक्ट्रिया, अफगानिस्तान, गन्धार, पंजाब) में तो प्राप्त होते हैं परन्तु सतलुज के पूर्व में नहीं पाये गये हैं। इससे यह स्पष्ट है कि कुषाणों के अधिकार क्षेत्र से सतलुज के पूर्व के क्षेत्र निकल गये थे।
- दूसरी ओर, तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ई० की लिपियों में यौधेयों के सिक्के सतलुज और यमुना के बीच सहारनपुर, देहरादून, दिल्ली, रोहतक, लुधियाना और कांगड़ा के जनपदों में बड़ी मात्रा में पाये गये हैं। सतलुज और यमुना के बीच का भू-भाग वस्तुतः यौधेयों का गृह क्षेत्र था।
- सतलुज नदी के किनारे का क्षेत्र बहावलपुर राज्य की सीमाओं तक अभी भी यौधेयों के नाम पर जोहियावार (Johiyawar) के रूप में जाना जाता है।
- इससे यह स्पष्ट होता है कि यौधेय इस क्षेत्र पर तृतीय शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ से एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में शासन कर रहे थे। यह स्पष्ट-रूप से कुषाणों को इस भू-क्षेत्र से बाहर निकालने के बाद ही सम्भव हुआ होगा।
अतः स्पष्ट है कि पटियाला राज्य और उत्तरी राजपूताना का अधिकांश भाग पुनः यौधेय गणराज्य के अधिकार क्षेत्र में आ गया था।
यौधेयों की कुषाणों के विरुद्ध सफलता उल्लेखनीय थी। यौधेयों ने एक ऐसी शक्ति को दीर्घकालीन संघर्ष में पराजित किया जिसका साम्राज्य बैक्ट्रिया से बिहार तक विस्तृत था। कुषाणों के संसाधन लगभग असीमित थे, जबकि यौधेयों के सीमित। यौधेयों के स्वाभिमान, स्वातंत्र्य-प्रेम और साहस के समक्ष कुषाणों की साधन-सम्पन्नता एवं सारे प्रयास व्यर्थ गये।
कुषाणों के विरुद्ध सफलता से यौधेयों की प्रतिष्ठा और सम्मान में वृद्धि हुई। वे पहले से ही वीर क्षत्रियों के रूप में सम्मानित थे; परन्तु अब यह माना जाने लगा कि उनके पास एक रहस्यमय सूत्र (मंत्र) था जो सभी परिस्थितियों में और सभी बाधाओं के विरुद्ध विजय सुनिश्चित करता था। लुधियाना के पास यौधेय सिक्कों के साथ ही उनकी एक मिट्टी की मुहर मिली है। इस मिट्टी की मुहर पर योधेयानां जयमंत्रधराणाम् का लेख अंकित है।
यौधेयों ने नई मुद्राएँ जारी की जो उनकी स्वतंत्र सत्ता की उद्घोषणा थी। यौधेयों सिक्के भार और सामान्य बनावट में कुषाण सिक्कों से मिलते-जुलते हैं। हालाँकि विदेशी ग्रीक और खरोष्ठी लिपियों को राष्ट्रीय ब्राह्मी लिपि से स्थानान्तरित करके नये गणराज्य के सिक्कों पर ‘यौधेयगणस्य जयः’ का विजय-घोष अंकित कर दिया गया। कार्तिकेय को सिक्कों पर स्थान दिया गया क्योंकि वे यौधेयों के कुलदेवता थे।
कुणिंद गण का सहयोग
- सतलुज और व्यास की ऊपरी धारा के बीच के क्षेत्र में बसे कुणिंद (Kuninda) सम्भवतया यौधेयों के साथ मिलकर कुषाणों से संघर्षशील रहे थे।
- एक कुणिद शासक छत्रेश्वर (Chhatreshvara) के सिक्के पाये गये हैं। ये सिक्के लगभग २०० ई० के लिपि में हैं और इसपर महात्मन् और भागवत की उपाधि अंकित है। ये सिक्के यौधेयों के कार्तिकेय-अंकित समकालीन सिक्कों से प्रकार, बनावट और आकार में काफी समान हैं।
- इस उल्लेखनीय समानता से यह परिकल्पना कुछ हद तक प्रमाणित होती है कि कुणिंद और यौधेय समकालीन शक्तियाँ थीं और तीसरी शताब्दी ईस्वी की शुरुआत में अपनी स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करने में एक साथ काम कर रहे थे।
- यौधेयों की तुलना में कुणिंद एक छोटा राज्य था और ऐसा लगता है कि वे अंततः उनके साथ मिल गये। क्योंकि हमें लगभग २५० ई० के बाद कुणिंद-सिक्के नहीं मिलते और न ही उनका उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में है।
अर्जुनायन गण का सहयोग
- यौधेय गणराज्य के दक्षिण-पूर्व में एक अन्य गणराज्य अर्जुनायन था। अर्जुनायन गणराज्य के आगरा-जयपुर-मथुरा क्षेत्र पर शासन था। अर्जुनायनों ने भी कुषाणों के विरुद्ध विद्रोह किया और एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में इनका उल्लेख मिलता है।
- पारम्परिक विश्वास के अनुसार यौधेय और अर्जुनायन पाण्डव भाइयों, युधिष्ठिर और अर्जुन के वंशज थे। परन्तु यह कलपनामात्र है।
क्या यौधेय, अर्जुनायन और कुणिंद गणराज्यों का संघ था?
- समय के साथ इन तीन गणराज्यों (यौधेय, अर्जुनायन व कुणिंद) के बीच एक प्रकार का ढीला-ढाला सा संघ बनता दिखता है।
- उसी समय जारी किये गये कुछ यौधेय सिक्कों पर, यौधेयगणस्य जयः के लेख के बाद रहस्यमय शब्द, ‘दुई’ (दो) और ‘त्रि’ (तीन) हैं। वर्तमान में इन शब्दों का कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं किया जा सका है।
- सम्भव है कि यौधेयों के कुछ बाद के सिक्कों पर पाये जाने वाले ‘दो’ और ‘तीन’ शब्द यौधेय संघ के दूसरे और तीसरे सदस्यों (कुणिंद और अर्जुनायन) के लिये हो।
गुप्त साम्राज्यवाद
समुद्रगुप्त ने उन्हें पराजित कर अपने अधीन कर लिया था। इसका उल्लेख हमें प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में मिलता है।
“समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागम-”
— प्रयाग प्रशस्ति, पं०- २२
प्रशासन
- यौधेय गणराज्य द्वितीय शताब्दी के चौथे भाग तक शक्तिशाली गणराज्य बना रहा।
- उसके सिक्के तृतीय और चतुर्थ शताब्दी वाले जो है वह बड़ी संख्या में उतरी राजपूताना और दक्षिणी-पूर्व पंजाब में पाये गये हैं, जिससे ज्ञात होता है कि वे इस अवधि के दौरान एक बड़ी राजनीतिक शक्ति थे।
- दुर्भाग्यवस उनके गणराज्य के प्रशासन के विवरण के बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं है। यह सम्भव है कि तीन गणराज्यों यौधेय, अर्जुनायन और कुणिंदों का संघ रहा हो।
- इनके प्रशासन के बारे में हम यह कह सकते हैं कि इन तीनों का एक संघ रहा हो, लेकिन यह आंतरिक रूप से पूर्ण स्वायत्त रहे हो।
- इन्होंने विदेश नीति और सैन्य संचालन सम्भवतया तीन गणराज्यों के अध्यक्षों की एक परिसद के निर्देशन में किया हो, जिन्हें संघीय इकाइयों द्वारा चुना गया था।
- अध्यक्षों को महाराजा और सेनापति की उपाधियों से विभूषित किया जाता था। ऐसे ही एक महासेनापति महाराजा का एक खंडित लेख जिसे यौधेय गणराज्य द्वारा जारी किया गया था भरतपुर राज्य में मिला है। यदि यह गणमान्य व्यक्ति का नाम और वंशावली संरक्षित होती तो हम यह जान सकते कि पद वंशानुगत था अथवा चुनाव पर?
निष्कर्ष
यौधेय गणराज्य का इतिहास मौर्योत्तर काल से लेकर समुद्रगुप्त परक्रमांक के दिग्विजय तक विस्तृत है। इन्होंने शकों और कुषाणों के विरुद्ध एक दीर्घकालीन संघर्ष किया। अपनी इसी संघर्षशीलता के कारण यौधेय क्षत्रियों में प्रख्यात वीर (सर्व्वक्षत्राविष्कृतवीरजा, रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख) कहे गये हैं।
FAQ
यौधेय गणराज्य का उल्लेख स्पष्ट रूप से सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
पाणिनि कृत अष्टाधायी में।
यौधेय गणराज्य के अभिलेखों के नाम लिखो।
- विजयगढ़ का यौधेय शिलालेख
- अगरोहा यौधेय मुद्रांक
यौधेयों का उल्लेख करनेवाले प्रमुख अभिलेखों का नाम बताओ।
- रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख
- समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति
यौधेय गण के कुल-देवता कौन थे?
कार्तिकेय / कुमार / स्कंद
पाणिनि ने यौधेयों के लिए किस शब्द का प्रयोग किया है?
आयुध-जीविन-संघ / आयुध-जीवी-संघ