मौर्योत्तर साहित्य

भूमिका

मौर्योत्तर में प्राकृत, संस्कृत और तमिल भाषाओं में रचनाएँ मिलती हैं। प्राकृत भाषा में अभिलेख लिखवाये जा रहे थे परन्तु संस्कृत भाषा अब धीरे शासनादेश की भाषा बनती जा रही थी। आगे चलकर गुप्तकाल में संस्कृत राजकीय भाषा बनने वाली थी। पूर्व में जहाँ बौद्ध की भाषा पालि थी वहीं महायान शाखा की उत्पत्ति से अब इसकी भी भाषा संस्कृत हो चली थी। इसी काल में विपुल संगम साहित्य तमिल भाषा में लिखे गये थे।

प्रमुख रचनाएँ

मौर्योत्तर काल में साहित्य के भी विभिन्न रूपों का विकास हुआ। एक सातवाहन शासक द्वारा ‘हाल’ छद्‌मनाम से लिखी गयी ‘गाथा सप्तशती’ प्राकृत भाषा की बहुत सुंदर काव्य रचना है। इसी काल में गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत भाषा में ‘बृहत्कथा’ की रचना की।

यद्यपि इस काल में साहित्य रचना में संस्कृत भाषा का प्रचलन अधिक था। ई०पू० दूसरी शती के मध्य में पतंजलि ने अपना महाभाष्य लिखा जो उनके पूर्ववर्ती वैयाकरण पाणिनि की प्रसिद्ध रचना अष्टाध्यायी की टीका है। शर्ववर्मन नामक विद्वान ने ‘कातंत्र’ नामक संस्कृत व्याकरण की रचना की।

चिकित्सा शास्त्र पर भी मौलिक ग्रंथ लिखे गये जिनमें सबसे प्रसिद्ध चरक-कृत ‘चरक संहिता’ है। चरक कुषाण शासक कनिष्क के समकालीन थे। इस क्षेत्र में एक अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति सुश्रुत है। चिकित्सा शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र में भारत ने पश्चिमी जगत् से सम्पर्क द्वारा बहुत लाभ उठाया। कुछ विद्वानों के अनुसार भरत का नाट्य शास्त्र और वात्स्यायन का कामसूत्र भी इसी काल की रचनाएँ हैं।

भारत की सर्वप्रसिद्ध स्मृति मनुस्मृति ई०पू० दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य लिखी गयी। इसी समय में ब्राह्मणों ने महाकाव्यों में भी संशोधन किये।

संस्कृत काव्य की प्रारंभिक शैली के महत्त्वपूर्ण रचनाकार हैं अश्वघोष। अश्वघोष कनिष्क के समकालीन थे। इनकी तीन सर्वप्रसिद्ध रचनायें हैं— बुद्ध चरित, सौन्दरानन्द और शारिपुत्र-प्रकरण। इसमें पहले दो महाकाव्य हैं और अंतिम नाटक। अश्वघोष के नाटकों के कुछ भाग मध्य एशिया के एक विहार में प्राप्त हुए हैं।

माध्यमिक दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य नागार्जुन ने ‘प्रज्ञापारमितासूत्र’ की रचना की। वसुमित्र ने चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की तथा त्रिपिटकों का भाष्य तैयार करने में प्रमुख रूप से योगदान दिया था। विभाषाशास्त्र की रचना का श्रेय वसुमित्र को ही दिया जाता है।

संभवतः सबसे पहले सम्पूर्ण नाटक रचने का श्रेय भास को है। इनमें से सर्वप्रसिद्ध है स्वप्नवासवदत्तम्, जोकि राजा उदयन एवं वासवदत्ता की कथा पर आधारित है।

इसी काल में तमिल भाषा में ‘संगम साहित्य’ लिखे गये; इसका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है—

  • तोल्काप्पियम; तमिल व्याकरण – तोल्काप्पियर
  • उपलब्ध संगम साहित्य को तीन भागों में विभाजित किया गया है—
    • इत्थुथोकै — आठ कविताओं का संग्रह
    • पत्थुप्पात्तु — दस पदों का संग्रह
    • पदिनेनकीलकन्क्कु — अठारह लघु कविताओं का संग्रह
  • संगम युग में पाँच महाकाव्यों की भी रचना हुई परन्तु उसमें से तीन ही उपलब्ध हैं—
    • शिल्पादिकारम् — इलांगो आदिगन; जैन धर्म से सम्बन्धित
    • मणिमेकलै —सीतलैसत्तनार; बौद्ध धर्म से सम्बन्धित
    • जीवकचिन्तामणि — तिरुत्तक्कदेवर; जैन धर्म से सम्बन्धित
    • वलयपति — अनुपलब्ध
    • कुण्डलकेशि — अनुपलब्ध

मौर्योत्तर साहित्य

निष्कर्ष

इसी काल में हमें प्राकृत से संस्कृत के राजकीय कामकाज में प्रयोग का संक्रमण दिखायी देता है। किंतु अब सामान्यतः संस्कृत भाषा की क्लिष्टता में वृद्धि हो रही थी। यह केवल ब्राह्मणों की भाषा न रहकर शासकवर्ग की भाषा बन रही थी। राजकीय अभिलेखों की भाषा भी अब आडंबरपूर्ण होती जा रही थी। मौर्यों एवं सातवाहनों द्वारा प्रयुक्त सामान्य प्राकृत भाषा का स्थान अब संस्कृत ले रही थी। रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख संस्कृत काव्य का अनूठा उदाहरण है। कुषाण साम्राज्य के सुई विहार के अभिलेख में भी संस्कृत का प्रयोग हुआ है।

मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति

मौर्योत्तर कला और स्थापत्य

मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०) / Post-Mauryan Economy (200 BC – 300 AD)

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