मौर्योत्तर समाज (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

भूमिका

मौर्योत्तर समाज में एक साथ कई तत्त्वों का आलोड़न-विलोड़न दिखायी देता है। एक ओर शुंग, कण्व व सातवाहन शासकों के नेतृत्व में ब्राह्मणों की सामाजिक व राजनीतिक प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित हुई वहीं दूसरी ओर पश्चिमोत्तर से आये विजेता वर्गों (युनानी, शक, पह्लव व कुषाणों) ने वर्ण व्यवस्था के सामने चुनौती प्रस्तुत कर दी। इस राजनीतिक परिवर्तन के समाधान का प्रयास मनुस्मृति में किया गया।

मौर्योत्तर समाज की प्रमुख विशेषताएँ

ब्राह्मणीय प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना

ब्राह्मणीय प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना में वैदिक या ब्राह्मण धर्म की प्रमुख भूमिका रही। यज्ञ और बलि की प्रथा पुनः आरम्भ हुई जिसने ब्राह्मणों को समाज का सर्वशक्तिशाली वर्ग बना दिया। मनुस्मृति (२०० ई०पू० – २०० ई०) की रचना इसी युग में हुई जिसने वैदिक धर्म के अनुरूप समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता एवं वर्णव्यवस्था को दृढ़तापूर्वक स्थापित कर दिया। ब्राह्मण-पुरोहितों को बड़ी मात्रा में दान-दक्षिणा मिलने लगी। सातवाहनों ने तो उन्हें भूमि अनुदान भी दिये। राजा के मंत्री और सलाहकार के रूप में भी ब्राह्मण प्रतिस्थापित हुए। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह थी कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का कार्य राज्य शासन भी अपना लिया। ब्राह्मणों ने अनेक राजवंशों की स्थापना की; जैसे— शुंग, कण्व, भारशिव नाग, वाकाटक इत्यादि। सातवाहनों का भी ब्राह्मीकरण हुआ। ब्राह्मणों द्वारा शस्त्रधारण को धर्मसम्मत माना गया। ब्राह्मण राजवंशों की स्थापना ने ब्राह्मण वर्ग और ब्राह्मण धर्म को अधिक प्रभावशाली बना दिया।

शूद्रों और वैश्यों की स्थिति में परिवर्तन

शूद्रों और वैश्यों की स्थिति में भी परिवर्तन आया। इसके कई कारण थे— एक तो मौर्यकाल में समस्त आर्थिक गतिविधियों पर राज्य का अधिकार परन्तु अब वह नियंत्रण समाप्त हो गया जिससे शिल्पकार स्वयं उन गतिविधियों में स्वतंत्रता पूर्वक भाग लेने लगे; दूसरे मौर्य काल में शूद्रों को उत्पादन के कार्यों में लगाने की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी उसके परिणामस्वरूप समाज में कारीगरों और शिल्पियों की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई और सामाजिक रूप में शूद्रों का महत्त्व बढ़ गया और तीसरे पश्चिमोत्तर से हो रहे विदेशी आक्रमण और उनके द्वारा बड़े राज्यों की स्थापना ने भी भेदभावपूर्ण ब्राह्मण व्यवस्था को चुनौती दे दी थी। इस तरह उन्हें कुछ व्यक्तिगत एवं आर्थिक सुरक्षा मिली। परिणामस्वरूप शूद्रों की आर्थिक स्थिति सुधरी तथा वे वैश्यों के समकक्ष होने लगे। इससे वैश्यों और शूद्रों के बीच का अंतर कुछ कम हुआ।

क्षत्रियों की स्थिति में परिवर्तन

इस काल में क्षत्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। ऐसा लगता है कि ब्राह्मणों द्वारा राजसत्ता ग्रहण करने से क्षत्रियों के लिए योद्धा का कार्य ही बचा रहा। इस समय जितने भी स्वदेशी राज्यों का उल्लेख मिलता है वे अधिकांश ब्राह्मणों द्वारा ही स्थापित किये गये थे।

ब्राह्मणवादी प्रतिक्रिया

इन परिवर्तनों के बावजूद मनुस्मृति में कट्टर ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था का दर्शन मिलता है। शूद्रों पर अनेक प्रतिबंध लगा दिये गये। उनका मुख्य कार्य तीन उच्च वर्णों की सेवा करना ही माना गया। इन वर्गों के हितों को क्षति पहुँचाने अथवा उनपर प्रहार करने पर शूद्रों के लिये कठोर दंड की व्यवस्था की गयी। ऐसा प्रतीत होता है कि “शूद्र वर्ग में इस कठोरता के कारण बहुत असंतोष था। इसमें आश्चर्य नहीं कि वर्णव्यवस्था को मान्यता न देनेवाले विदेशी शासकों के अधीन जो शूद्र थे वे ब्राह्मणों के विरुद्ध हो गये थे। ‘मनुस्मृति’ में शूद्रों की वैरभावपूर्ण कार्यवाहियों के विरुद्ध कई सुरक्षा उपायों का उल्लेख है। मनु की प्रतिक्रिया वास्तव में उस काल की परिस्थितियों में घोर ब्राह्मण कट्टरता की प्रतिक्रिया है।”

राजनीतिक व आर्थिक परिवर्तन का प्रभाव

वर्ण व्यवस्था के महत्त्व पर बल देते हुए भी राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप वर्ण व्यवस्था पर मँडराते संकट पर ध्यान दिया गया। विदेशी जातियों के लंबे समय तक भारत में रहने, यहाँ वैवाहिक संबंध स्थापित करने, यहाँ की धर्म एवं संस्कृति अपनाने तथा शासक वर्ग का होने के कारण उन्हें वर्णव्यवस्था के अंदर समाहित करने की समस्या उठ खड़ी हुई। अतः इन्हें द्वितीय क्षत्रिय का दर्जा प्रदान किया गया।

वर्णसंकर

अनेक वर्णसंकरों को भी वर्णव्यवस्था के अंतर्गत रखा गया। वर्णसंकर की परिकल्पना और ब्राह्मण धर्म का सहारा लेकर वर्णव्यवस्था को बनाये रखने का प्रयास किया गया।

यद्यपि मनु कट्टर ब्राह्मणवादी थे परन्तु उनकी स्मृति में जिन लगभग ६० वर्णसंकरों का उल्लेख प्राप्त होता है उससे स्पष्ट होता है कि वे पर्याप्त यथार्थवादी भी थे। विदेशी लोगों के आगमन से जो एक सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ उसका एक प्रायोगिक समाधान वर्णसंकर की परिकल्पना में ही दृष्टिगोचर होता है।

कलियुग की कल्पना

पुराणों में ‘कलियुग’ की जो कल्पना की गयी और जिसमें सामाजिक तनाव का उल्लेख किया गया वह भी मूलतः वर्णव्यवस्था से ही संबद्ध थी। अर्वाचीन अध्ययनों में इन वर्णनों को ईसा की आरम्भिक तीन-चार शताब्दियों (अर्थात् मौर्योत्तर काल) में रखा गया है। संभवतः उत्पादक वर्ग— वैश्य और शूद्र— ब्राह्मणवादी व्यवस्था जिसमें की ब्राह्मणों को श्रेष्ठ माना गया उसको अस्वीकार कर रहे थे और साथ ही इस व्यवस्था के पोषक राजसत्ता को भी अस्वीकार कर रहे थे। सम्भवतया इस स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिये ही ब्राह्मणों द्वारा शस्त्र धारण करना और राज्य करना धर्मसम्मत माना गया। मनुस्मृति ने तो यहाँ तक कहा है कि जब तक इन लोगों को डंडे के बल मे दबाया नहीं जाएगा तब तक काम नहीं चलेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि विद्रोह का एक महत्त्वपूर्ण रूप राजकरों का न देना था।

स्पष्टतः इससे समाज में एक तनाव की स्थिति हो गयी होगी। हो सकता है कि इस स्थिति से निबटने के लिए ही राजाओं ने भूमिदान की प्रथा को प्रोत्साहन दिया गया हो क्योंकि कालांतर में इसके माध्यम से कर एकत्र करने का उत्तरदायित्व स्थानीय बिचौलियों का हो गया, जिन्हें पुलिस अधिकार भी प्राप्त थे।

ब्राह्मणों व श्रमणों को भूमिदान

एक ओर जहाँ ब्राह्मणों ने मौर्योत्तर काल में कई राजवंशों की स्थापना की स्थापना करके सत्ता शक्ति द्वारा वर्ण व्यास्था में अपनी श्रेष्ठता बनाये रखने का प्रयास किया वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणों (पुरोहितों) को भूमि अनुदान भी देकर भी समाज में धाक जमाने का प्रयास किया गया। हालाँकि बौद्ध धर्म का इतना प्रभाव बढ़ गया था कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी अतः बौद्ध संघ व श्रमणों को भी भूमिदान दिये गये।

धीरे-धीरे दानग्रहीता को प्रशासनिक अधिकार भी दिये गये जिससे वह अपने क्षेत्र में करों की वसूली कर सके तथा शांति-व्यवस्था बनाये रख सके। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था की सर्वोच्चता को बनाये रखते हुए भी बदलती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर वर्ण व्यवस्था की परिकल्पना में संशोधन कर सामाजिक तनाव को कम करने का प्रयास इस समय के सामाजिक जीवन की एक प्रमुख विशेषता मानी जानी चाहिए।

महिलाओं की स्थिति में गिरावट

मौर्योत्तर काल में स्त्रियों की अवस्था में गिरावट आयी। स्त्रियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबंध लगाये गये। उन्हें घर की चहारदीवारी के अंदर और सदैव पुरुषों के संरक्षण में रहने के लिये कहा गया। बाल-विवाह, बहु-विवाह, अंतर्जातीय विवाह इस समय भी होते थे। स्त्रियों को कुछ संपति संबंधी अधिकार भी मिले। यद्यपि दक्षिण भारत और दक्कन में स्त्रियों को प्रशासनिक कार्यों में भी भाग लेते हुए देखा जा सकता है। अनेक स्त्रियों ने दान दिये तथा अभिलेख खुदवाये।

विदेशी आक्रमण का सामाजिक प्रभाव

इस काल में वर्णाधारित परम्परागत समाज-व्यवस्था को विदेशियों के आक्रमण से भी खतरा उत्पन्न हो गया था। भारत में यवन, पार्थियन, शक, कुषाण आदि विदेशी शासकों की उपस्थिति वर्णव्यवस्था के लिए संकट उत्पन्न कर रही थी। इन विजेताओं के पास राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति थी। ब्राह्मण इन विदेशी शासकों की म्लेच्छ कहकर उपेक्षा नहीं कर सकते थे। इसलिए उनके साथ समझौता करना ही था। इस कारण स्मृतिकारों ने उन्हें चतुराईपूर्वक निम्नकोटि के क्षत्रिय की उपाधि प्रदान कर दी। इस तरह प्रत्यक्षतः धर्म ने विदेशियों एवं अनार्यों के आर्यीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।

मौर्योत्तर काल में समाज पर विदेशी आक्रमण का व्यापक प्रभाव पड़ा। मौर्योत्तरकालीन समाज में बहुसंख्यक विदेशी जन एवं जातियाँ अपनी-अपनी परम्पराओं एवं प्रथाओं के साथ प्रवृष्ट हुई। धीरे-धीरे वे सभी भारतीय समाज एवं संस्कृति में समाहित हो गयी। विदेशियों का आत्मसातीकरण इस काल में सबसे अधिक हुआ। यद्यपि मेनान्डर एवं हेलियोडोरस जैसे कुछ राजाओं ने अपना विदेशी नाम बनाये रखा, परन्तु उन्होंने भारतीय रीति रिवाज एवं प्रथाओं को अपना लिया। लेखों में हम इन्द्राग्निदत्त, धर्मरक्षित, ऋषभदत्त, दक्षमित्र, रुद्रदामन् जैसे नाम मिलते हैं। नहपान की पुत्री का नाम दक्षमित्रा तथा दामाद का नाम उषावदात (ऋषभदत्त) था। ब्राह्मण, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों में विदेशी मूल के लोग शामिल होने लगे। विभिन्न विदेशी राजाओं ने इन धर्मो को प्रचुर दानादि भी दिये।

भारतीय शास्त्रकारों के समक्ष समाज में विजेता जातियों की स्थिति निर्धारित करना एक समस्या बन गयी। कट्टरपंथी ब्राह्मण व्यवस्थाकारों ने उन्हें शूद्र, ‘वृषल’ आदि नाम दिये। पतंजलि यवनों तथा शकों को अनिरवासित शूद्र कहते है। इससे ज्ञात होता है कि वे समाज से बहिष्कृत नहीं माने जाते थे। व्यवहारिक स्थिति इससे भिन्न थी तथा अधिकांश विदेशी आक्रान्ताओं ने स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर लिया तथा उनकी प्रभुसत्ता के कारण भारतीय लोगों को वस्तुस्थिति से समझौता करना पड़ा।

कुछ विदेशियों के साथ उनके पुरोहित भी आये थे जिन्हें ब्राह्मणों के साथ संयुक्त कर लिया गया। मग या शाकद्वीपी ऐसे ही ब्राह्मण थे जो शकों के साथ भारत आये थे। स्वयं स्मृतिकार मनु के वचन से निष्कर्ष निकलता है कि शक, यवन, पह्लव इत्यादि विदेशी जातियाँ संस्कार युक्त होने पर क्षत्रिय जाति में गिनी जा सकती थीं। मिलिन्दपण्हों में मेनान्डर को क्षत्रिय जाति का बताते हुए उसकी वंशावली दी गयी है। महाभारत शक, यवन आदि जातियों को छोटे-मोटे यज्ञ करने की अनुमति प्रदान करता है। लेखों से उनकी उन्नत सामाजिक स्थिति की सूचना मिलती है।

स्थानीय द्विजवर्ण में उनके विवाह भी होते थे। यद्यपि गौतमीपुत्र शातकर्णि अपने लेखों में वर्णसंकरता रोकने का दावा करता है किन्तु स्वयं उसने ही अपने पुत्र का विवाह रुद्रदामन् की पुत्री से किया। ईक्ष्वाकुवंशी शान्तमूल ने अपने पुत्र वीरपुरुषदत्त का विवाह उज्जैनी के शक महाराज की कन्या रुद्रभट्टारिका से किया था। रुद्रदामन् यह दावा करता है कि उसने कई स्वयंवरों में जाकर राजकुमारियों से विवाह किया था। इनमें अवश्य ही कुछ स्थानीय क्षत्रिय कुलों की राजकन्यायें रही होगी।

विदेशियों ने भारतीय धर्मो को भी ग्रहण किया, उन्हें दानादि दिया तथा उनमें अपने लिये प्रतिष्ठित स्थान बना लिया। उनके लेखों में प्राकृत का प्रयोग मिलता है। नहपान की पुत्री ने बौद्धों और ब्राह्मणों को दान दिया था। रुद्रदामन् वैदिक धर्म एवं संस्कृति का महान् पोषक था। यवन हेलियोडोरस ने भागवत (वैष्णव) धर्म ग्रहण किया तथा मेनान्डर ने बौद्ध धर्म में ‘अर्हत्’ पद प्राप्त किया। कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का संरक्षक था।

इस तरह जहाँ एक ओर विदेशियों ने भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया वहीं दूसरी ओर भारतीयों ने शक-कुषाणों से पगड़ी, लंबे कोट, कुरती, पतलून, शिरस्त्राण, बूट, लगाम, जीन और घुड़सवारी सीख ली।

इस तरह मौर्योत्तर काल में विदेशियों के सामाजिक आत्मसातीकरण की प्रक्रिया सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता मानी जानी चाहिए।

इस तरह जहाँ तक विदेशियों के भारतीय समाज से एकीकरण को मुख्यतः दो तरीक़ों से सफल बनाया गया; एक, वर्णसंकर की परिकल्पना और दूसरे, धर्म का आश्रय। विभिन्न धर्मों में एक प्रकार की होड़ हो गयी कि वे किस प्रकार इन विदेशी शासकों का समर्थन प्राप्त करते हैं।

FAQ

मौर्योत्तर समाजिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषतओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए।

(Provide a brief description of the main characteristics of the post-Mauryan social system.)

उत्तर—

मौर्योत्तर समाज की प्रमुख विशेषताएँ अधोलिखित हैं—

  • ब्राह्मणीय प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना:
    • शुंग, कण्व, सातवाहन शासकों के नेतृत्व में ब्राह्मणों की राजनीतिक व सामाजिक स्थिति पुनः स्थापित हुई।
    • मनुस्मृति (२०० ई०पू० – २०० ई०) के द्वारा ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और वर्णव्यवस्था को मजबूती दी गयी।
    • ब्राह्मणों को राज्य प्रशासन में विशेष स्थान मिला और उन्होंने शस्त्रधारण का अधिकार भी प्राप्त किया।
  • शूद्रों और वैश्यों की स्थिति में परिवर्तन:
    • शूद्रों की आर्थिक स्थिति सुधरी और वे कारीगर व शिल्पकार के रूप में महत्त्वपूर्ण हो गए।
    • वैश्यों और शूद्रों के बीच का सामाजिक अंतर कम हुआ।
  • क्षत्रियों की स्थिति में परिवर्तन:
    • ब्राह्मणों द्वारा राजसत्ता ग्रहण करने से क्षत्रियों का केवल योद्धा का कार्य बचा रहा।
  • महिलाओं की स्थिति में गिरावट:
    • महिलाओं पर कई सामाजिक प्रतिबंध लगाए गए, और उनकी स्वतंत्रता सीमित हो गयी।
    • यद्यपि सातवाहनों के मातृप्रधान नामों व महिलाओं के शासन में भागीदारी के भी उदाहरण हमें मिलते हैं।
  • विदेशी आक्रमण और वर्ण व्यवस्था का संकट:
    • विदेशी शासकों को क्षत्रिय दर्जा देकर वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने का प्रयास किया गया।
    • वर्णसंकरों को भी वर्णव्यवस्था में समाहित किया गया।
  • ब्राह्मणों और श्रमणों को भूमिदान:
    • ब्राह्मणों और श्रमणों को दान एवं प्रशासनिक अधिकार दिये गये।
  • विदेशियों का आत्मसातीकरण:

इस प्रकार मौर्योत्तर समाज की सर्वप्रमुख विशेषता विदेशियों का ‘आत्मसातीकरण’ था।

 

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