मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने वाले कारक

भूमिका

मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य (Trade & commerce) की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है। जिसके परिणाम हमें तत्कालीन कला, नगरीकरण, मुद्रा व्यवस्था इत्यादि सभी में परिलक्षित होते हैं। इसके साक्ष्य हमें पुरातात्त्विक साक्ष्यों और तत्कालीन साहित्यों से मिलते हैं।

कारण

इसके प्रमुख कारक निम्नलिखित थे—

  • शिल्प और उद्योग का विकास
  • श्रेणी व्यवस्था
  • मुद्रा व्यवस्था
  • नगरों का विकास
  • बंदरगाहों का विकास
  • मानसूनी हवाओं की जानकारी
  • कुछ पुस्तकों द्वारा द्वारा भौगोलिक चर्चा से व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा
  • शक-कुषाण-सातवाहन-संगम राज्यों द्वारा शान्ति व सुरक्षा

व्यापार के विकास के कुछ कारणों का संक्षिप्त विवरण अधोलिखित हैं —

राजनीतिक स्थिरता

अन्तर्देशीय और विदेशी व्यापार-उद्योग-धंधों के विकास ने आन्तरिक एवं विदेशी व्यापार को बढ़ावा दिया। व्यापार के विकास में कुषाणों द्वारा मध्य एशिया से गंगा घाटी तक, शकों द्वारा पश्चिमी क्षेत्र में और सातवाहनों द्वारा दक्कन में राजनीतिक स्थिरता स्थापित करने से भी सहायता मिली। इन्हीं क्षेत्रों से होकर उत्तरापथ और दक्षिणापथ गुजरते थे। उत्तरापथ आगे चलकर मध्य एशिया में ‘रेशम मार्ग’ (Silk Route) से जुड़ जाता था जो चीन से आरम्भ होकर बैक्ट्रिया होते हुए रोमन साम्राज्य तक जाता था।

व्यापारिक मार्गों का विकास

रेशम मार्ग चीन में लोयांग (Luoyang) से आरम्भ होकर सेलुसिया तक जाता था। बैक्ट्रिया से इसकी एक शाखा तक्षशिला की ओर जाती थी और उत्तरापथ से जुड़ जाती थी। प्रायद्वीपय भारत के समुद्रतट पर भरूच, सोपारा, कल्याण, नौरा, तोण्डी, मुशिरी, कावेरीपत्तनम्, ताम्रलिप्ति जैसे प्रमुख बंदरगाह थे जहाँ से समुद्री मार्ग द्वारा रोमन साम्राज्य के भूमध्यसागरीय क्षेत्र और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से व्यापारिक सम्बन्धों का विकास हुआ। उत्तरापथ और दक्षिणापथ से जुड़े हुए अनेक व्यावसायिक और व्यापारिक केंद्र थे— जैसे; तक्षशिला, पुष्कलावती, मथुरा, उज्जयिनी, पैठन इत्यादि।

मानसूनी हवाओं की जानकारी

प्रथम शताब्दी (४८ सन् ईसवी) में हिप्पोलस (Hippolus) नामक यूनानी नाविक ने अरब सागर में मानसूनी हवाओं की जानकारी दी। इस मानसूनी हवाओं के सहारे बड़े समुद्री पोत अरब सागर को सीधे पार करने लगे। इससे पश्चिमी संसार और भारतीय तटों के बीच आने-जाने में कम समय लगने लगा जिससे व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला।

बाह्य व्यापार

भारत के पश्चिम में रोम साम्राज्य और पूर्व में चीनी साम्राज्य स्थित था। कुषाणों ने रेशम मार्ग पर अधिकार करके ईरानी पार्थियनों के द्वारा अवरुद्ध व्यापार को पुनः सुगम बनाया। पश्चिमोत्तर में रोमन साम्राज्य के साथ यह व्यापार पारगमन प्रकृति (transit nature) का था।

दक्षिण भारत के साथ रोमन साम्राज्य का व्यापार सीमान्त प्रकृति (terminal nature) का था। पूर्वी और पश्चिमी समुद्री तट पर अनेक बंदरगाहों का उल्लेख तत्कालीन साहित्यों में मिलता है। जब भारतीय व्यापारी रोमन साम्राज्य की आवश्यकताओं को नहीं पूरा कर पाये तो वे दक्षिण पूर्व एशिया से पण्य वस्तुओं को लाकर रोमनों के साथ व्यापार करते थे।

आन्तरिक व्यापार

इस युग में मुख्यतः स्थलमार्ग से भारत का आंतरिक व्यापार होता था। कुषाण अभिलेखों में व्यापारियों के विभिन्न वर्गों जैसे; वणिक, सेट्ठी और सार्थवाह का उल्लेख मिलता है। आंतरिक व्यापार में दो प्रकार की वस्तुओं का व्यापार होता था। कुछ वस्तुएँ वैसी थीं जिनका सीमित बाजार था; जैसे— फल-फूल, शाक-सब्जी, दही, तेल, घी, मिठाई, मांस-मछली इत्यादि। दूसरे प्रकार की वस्तुओं का बाजार अधिक विस्तृत था; जैसे— अनाज, वस्त्र, धातु के सामान इत्यादि। क्षेत्र विशेष की वस्तुओं की माँग पूरे भारत में थी और उन्हें दूर-दूर के स्थानों में भेजा जाता था। वाराणसी के वस्त्र, मथुरा के सटक, बंगाल के मलमल की माँग सभी जगह थी। नमक, मादक द्रव्यों, इत्र, हाथी दाँत के बने सामान, हीरे, मोती इत्यादि व्यापार की प्रमुख वस्तुएँ थीं।

मुद्रा प्रचलन

बढ़ते व्यापार ने मौर्योत्तर काल में सिक्कों के प्रचलन में तेजी आयी। कुषाणों ने बड़ी संख्या में सोने और ताँबे के सिक्के चलवाये। शक-सातवाहनों द्वारा भी सिक्के चलाये गये।

व्यापार में धातु के सिक्के विनिमय का माध्यम थे। अभिलेखों और साहित्य में दीनार, पुराण तथा कार्षापण जैसे सिक्कों का उल्लेख मिलता है। कुषाणों और सातवाहनों के सिक्के तथा सिक्के ढालने के ढाँचे (coin-moulds) उत्तरी और दक्षिणी भारत से मिले हैं।

साहित्य द्वारा व्यापार के बढ़ावा

  • पेरीप्लस ऑफ द इरिथ्रियन सी (Periplus of the Erethraean Sea)— ८०-११५ ईसवी में एक अज्ञातनामा यूनानी नाविक द्वारा यूनानी भाषा में लिखित इस पुस्तक में लगभग २४ भारतीय बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है। इसमें इरिथ्रियन का अर्थ लाल सागर है।
  • प्लिनी की प्राकृतिक इतिहास (Natural History of Pliny)— प्रथम शताब्दी ईसवी (७७ ई०) में लातिन भाषा में प्लिनी ने ‘नेचुरल हिस्ट्री’ (Natural History / Naturalis Historia) नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक से हमें विभिन्न देशों के इतिहास के साथ-साथ व्यापारिक क्रियाकलापों की मिलती है। इसी पुस्तक से भारत-रोम व्यापार की विस्तृत जानकारी मिलती है। इसमें उल्लेख आता है कि भारत को इस व्यापार में लगभग ५५ करोड़ सेस्टर्स की आय प्रति वर्ष होती थी। उसने इस बात पर चिंता व्यक्त किया है कि उसके यहाँ से प्रतिवर्ष विलासिता की सामग्री (वस्त्र व मसालों) के आयात पर इतना स्वर्ण भारत चला जाता है।
  • टॉलमी कृत भूगोल— १५० ईसवी में यूनानी भाषा में लिखित इस पुस्तक में पहली बार मानचित्रों का प्रयोग किया गया। इससे व्यापारिक क्रियाकलापों में आसानी हुई।
  • इस समय के स्मृतिकारों ने भी व्यापार सम्बन्धी अनेक नियम बनाये जिनसे व्यापारिक के विकास को प्रोत्साहित किया।

निष्कर्ष

इस तरह तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियों— शक, सातवाहन और कुषाणों द्वारा प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण स्थापित करने से भारत का व्यापारिक एकीकरण हुआ। पश्चिमी भारत और दक्कन समुद्री मार्ग पर नियंत्रण करता था तथा पश्चिमोत्तर भारत सिल्क मार्ग द्वारा मध्य एशियाई व्यापार पर नियंत्रण रखता था।*

“The Control of the important commercial centres and trade routes by three important contemporary powers the Sakas, Satavahanas and Kushanas brought about the commercial unificaton of India. The Western India and the Deccan controlled the sea routes and traded profitably while the North-western India carried on trade through the ‘Silk Routes,.”* — KAMESHWAR PRASAD in Cities, Crafts and Commerce Under the Kushanas

FAQ

मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने वाले कारकों का संक्षिप्त विवरण दीजिए। 

Give a brief description of the factors that promoted post-Mauryan trade and commerce.

उत्तर—

मौर्योत्तर काल में व्यापार और वाणिज्य की दृष्टि से भारतीय इतिहास का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। लगभग ५०० वर्ष के कालखंड में व्यापार और वाणिज्य के उल्लेखनीय विकास के कई कारक थे जिनमें से कुछ प्रमुख अधोलिखित हैं—

  • शक-कुषाण-सातवाहनों द्वारा राजनीतिक स्थिरता व शान्ति स्थापित करना
  • शिल्प और उद्योग का विकास
  • श्रेणी व्यवस्था
  • मुद्रा व्यवस्था
  • मानसूनी हवाओं की जानकारी
  • पत्तनों का विकास
  • नगरों का विकास
  • कई साहित्यिक पुस्तकों द्वारा भूगोल, पत्तनों, पण्य वस्तुओं की जानकारी की चर्चा
  • विकसित आंतरिक व्यापार के साथ-साथ लाभकारी बाह्य व्यापार इत्यादि

मौर्योत्तर मुद्रा अर्थव्यवस्था (Post-Mauryan monetary economy)

मौर्योत्तर सिक्के

मौर्योत्तर राजव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

मौर्योत्तर समाज (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

विदेशी आक्रमण का प्रभाव या मध्य एशिया से सम्पर्क का प्रभाव (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

भारत और रोम सम्बन्ध

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