मौर्योत्तर राजव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

भूमिका

मौर्योत्तर राजव्यवस्था पूर्वगामी मौर्य राजव्यवस्था और विदेशियों द्वारा लाये गये शासन व्यवस्था का समन्वय मिलता है। विदेशी आक्रमणों का प्रभाव भारतीय राजनीति और शासन के कुछ तत्त्वों पर स्पष्टतः दिखायी देता है।

प्रमुख विशेषताएँ

साम्राज्यिक व्यवस्था

जैसा कि हमें ज्ञात है कि सिकन्दर का आक्रमण स्वयं पश्चिमोत्तर में चन्द्रगुप्त मौर्य के एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने की प्रेरणा स्रोत था। एक ओर मगध साम्राज्य का उदय हो रहा था तो दूसरी ओर पश्चिमोत्तर से हखामनी व यूनानी आक्रमण हुए। इसका प्रभाव यह हुआ कि सम्पूर्ण भारतवर्ष को एकछत्र शासक के अधीन लाने की आवश्यकता हुई जो पहली बार मौर्य साम्राज्य के रूप में चरितार्थ हुई। इस तरह यह साम्राज्यिक व्यवस्था (Imperial System) हिन्दू राज्यतंत्र का स्थायी तत्त्व बन गयी।

गणतन्त्र और राजतन्त्र

मौर्योत्तर काल में राजतंत्रात्मक एवं गणतंत्रात्मक दोनों प्रकार के राज्यों का उल्लेख हमें प्राप्त होता है।

  • गणतंत्रात्मक राज्य: पंजाब और राजस्थान में मालव, यौधेय, अर्जुनायन, कुणिंद जैसे गणराज्य थे। इनकी प्रशासनिक व्यवस्था पहले से चली आ रही गणतंत्रात्मक व्यवस्था पर ही चलती रही। कुछ गण मिल कर अपना संघ भी बना लेते थे। गणप्रमुख गणों के प्रधान होते थे। उनका पद वंशानुगत न होकर निर्वाचन पर आधारित था। केंद्रीय सभा की गणों के प्रशासन में प्रमुख भूमिका रहती थी। पहले के गणों की तुलना में इस समय के गुण अधिक शक्तिशाली थे। इन गणों ने विदेशी सत्ता— शक-कुषाण — के उन्मूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। गणों ने अपने सिक्के भी जारी किये जो उनकी शक्ति का परिचायक हैं।
  • राजतंत्रात्मक राज्य: मौर्योत्तर काल में राजतंत्रात्मक व्यवस्था अधिक व्यापक तौर पर प्रचलित थी। शुंग, कण्व, सातवाहन, हिंद-यूनानी, शक-कुषाण, सुदूर दक्षिण के राज्य— चेर, चोल, पांड्य— सभी राजतंत्रात्मक व्यवस्था के पोषक थे।

परन्तु मौर्योत्तरकालीन राजतंत्रात्मक व्यवस्था मौर्यों द्वारा स्थापित राजतंत्र से भिन्न था जिसका संक्षिप्त विश्लेषण करना समीचीन होगा—

केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण

मौर्योत्तर काल में अधिकतर राज्य छोटे-छोटे थे। यद्यपि कुषाणों, सातवाहनों व शकों ने एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित किये तथापि वे कभी भी वह केन्द्रीकृत स्थापित करने में सक्षम नहीं हो पाये जो मौर्यों ने कर लिया था। इसके निवारण के लिये मौर्योत्तर राजवंशों ने छोटे-छोटे राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें अपने आधीन शासन करने की अनुमति दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘सामन्ती व्यवस्था’ का बीजारोपण पड़ गया। गुप्तोत्तर काल में जिस सामन्तवाद को हम पूर्णतया प्रतिष्ठित पाते हैं उसका बीजारोपण इसी काल में हुआ था। इसके उद्भव के पीछे भी विदेशी प्रभाव देखा जा सकता है।

यद्यपि शासक सिद्धांततः तो पहले जैसे ही शक्तिशाली और शासन के केंद्र बने रहे, तथापि व्यवहार में उनकी स्थिति अपेक्षाकृत दुर्बल हो गयी। उन्हें राजकुल के व्यक्तियों और अपने अधीनस्थों को प्रशासन में भागीदार बनाना पड़ा।

  • शुंगों के अधीन राजा के पुत्रों को प्रशासन में महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये गये। वायुपुराण के अनुसार पुष्यमित्र ने अपना राज्य अपने आठ पुत्रों में विभक्त कर दिया, जो राजा के प्रतिनिधि के रूप में विभिन्न भागों पर शासन करते थे।
  • युवराज को प्रशासन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। शकों ने भी भारत में द्वैराज्य (सहशासन) और यौवराज्य (युवराजों का शासन) शासन प्रणाली की स्थापना की।
  • इसी तरह वाकाटक शासक भी अपने पुत्रों तथा सम्बन्धियों को शासन में महत्त्वपूर्ण स्थान देते थे।
  • दक्षिण के संगमकालीन राज्य चोल, चेर और पाण्ड्य एक प्रकार से कुल संघ ही थे।

केंद्रीकरण के तत्त्वों के क्षीण होने तथा विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति के उदय का प्रमुख कारण था राज्य के अन्तर्गत अर्ध-स्वतंत्र अथवा स्वायत्तशासित इकाइयों का उदय होना। शक, कुषाण और सातवाहनों ने जिस राज्य की स्थापना की उसमें स्थानीय तत्त्वों को महत्त्व प्रदान किया गया।

कुषाणों की षाहानुषाहि और शकों की महाक्षत्रप (जैसे महाक्षत्रप रुद्रदामन) जैसी उपाधियों से स्पष्ट होता है कि उनके अधीन अनेक छोटे-छोटे प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त शासक थे। सातवाहनों के अधीन भी अधीनस्थ शासक थे, जैसे— इक्ष्वाकु, चुटुशातकर्णि।

इन स्वायत्त या अर्द्ध-स्वतंत्र राज्यों ने इनकी कमजोरी का लाभ उठा कर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। इन स्वायत्तशासित इकाइयों के उदय ने केंद्रीय सत्ता को कमजोर कर दिया।

भारी-भरकम उपाधियाँ धारण करना

कुषाण शासक ‘षाहानुषाहि’ कहे जाते थे। पश्चिमी भारत के शक शासकों में महाक्षत्रप तथा क्षत्रप जैसी उपाधियाँ प्रचलित थीं। इसका प्रभाव ‘राजनीतिक सामन्तवाद’ के उदय पर पड़ा। शक-कुषाण काल में हम सामन्तवाद के न केवल राजनीतिक अपितु सामाजिक-आर्थिक कारक भी देखते हैं। राजनीतिक क्षेत्र में सामन्तवाद का मूलतत्त्व शासक-अधीनस्थ सम्बन्ध होता है और यह हमें शक-कुषाण राज्यतन्त्र में ही दिखायी देता है। जैन ग्रन्थ ‘कालकाचार्य’, कथानक में कहा गया है कि शकों में जागीरदारों को ‘षाहि’ तथा उनके अधिपतियों को ‘षाहानुषाहि’ कहा जाता था। कुषाण शासक ‘रजतिराज’ की उपाधि धारण करते थे जो सामन्तवादी व्यवस्था की ओर संकेत करता है। कालान्तर में इसी का रूपान्तरण ‘महाराजाधिराज’ हो गया जो भारतीय सम्राट धारण करते थे।

राजत्व में देवत्व का आरोपण

मौर्योत्तर काल में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिये राजव्यवस्था में कई तत्त्वों का समावेश हमें देखने को मिलता है। इन्हीं प्रवृत्तियों में से एक है— ‘राजत्व से दैवी तत्त्व का सम्बन्ध।’ दूसरे शब्दों में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति पर नियंत्रण के लिये राज्त्व में दैवी गुणों का समावेश किया गया।

  • पूर्ववर्ती काल में राजाओं की तुलना देवताओं से की जाती थी। परन्तु अब तो राजाओं को देवताओं का पुत्र व देवताओं का अवतार बताया जाने लगा। उदाहरणार्थ सम्राट अशोक के अभिलेखों में वे स्वयं को ‘देवानामपिय’ (dear to the gods) कहा गया पर वहीं कुषाण शासक स्वयं को ‘देवपुत्र’ (sons of god) कहते थे। देवपुत्र जैसी उपाधियाँ निश्चय ही विदेशी तत्त्व थीं जिसका प्रचलन चीनी और रोमन सम्राटों में था। इस तरह कुषाणों ने चीनी सम्राटों के अनुरूप ‘देवपुत्र’ की उपाधि धारण की।
  • एक सातवाहन अभिलेख में गौतमीपुत्र सातकर्णि की तुलना कई देवताओं व पौराणिक योद्धाओं से की गयी है।*

“राम-केसवाजुन-भीससेन-तुल-परकमस”* — वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक अभिलेख

  • देवकुल अर्थात् मृत राजाओं की मूर्ति स्थापित करके मंदिर बनाने की प्रथा रोमन साम्राज्य में पाया जाता था जिसे कुषाणों ने यहाँ प्रारम्भ किया परन्तु यह प्रथा यहाँ सफल नहीं हुई। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में चोलकाल में हम पाते हैं कि मंदिरों सम्राटों की मूर्ति स्थापित की जाती थी और मृत्यु के बाद उनकी दैव रूप में पूजा की जाती थी। उदाहरणार्थ तंजोर के मंदिर में सुन्दर चोल (परान्तक द्वितीय) और राजेन्द्र चोल की मूर्ति स्थापित की गयी थी।
  • कुषाण शासकों ने सिक्कों पर जो अपने चित्र अंकित करवाये उसके पीछे प्रभामंडल, बादलों या लपटों का जो अंकन करवाया इसका उद्देश्य भी राजा की दैवी शक्ति को प्रदर्शित करना था।

मौर्योत्तर काल में राजत्व का देवत्व से अविच्छिन्न सम्बन्ध स्थापित हो गया। इसके पीछे भी विदेशी प्रभाव एक बड़ा कारण था। कुषाण शासकों का दैवीकरण एक सुविदित तथ्य है। विम कडफिसेस के सिक्कों पर ‘महेश्वर’, ‘सर्वलोकेश्वर’ की उपाधि अंकित है। मथुरा लेख में उसे ‘देवपुत्र’ कहा गया है। वस्तुतः दैवी राजत्व सम्बन्धित विचारधारा पश्चिमी एशिया, ईरान तथा चीन में कुषाणों के उदय के पूर्व ही काफी लोकप्रिय थी। मनुस्मृति (२०० ई०पू०-२०० ई०) तक इसका स्वरूप स्थायी हो गया जो शक-कुषाण प्रभाव ही था। मनुस्मृति स्पष्टतः घोषणा करती हैं कि “बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह मनुष्य रूप में स्थित महान् देवता है।”*

“बालोडिप नावमन्तव्यो मनुष्य इव भूमिपः।

महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति॥”* — मनुस्मृति

मथुरा लेख से ज्ञात होता है कि इस समय राजाओं के लिये देवकुल का निर्माण होता था। कनिष्क को ‘देवपुत्र’ तथा गोण्डोफर्नीज को ‘देवव्रत’ कहा गया है। कालान्तर में भारतीय राजाओं ने इसका अनुकरण किया। प्रयाग लेख में समुद्रगुप्त को ‘लोकधाम्नो देवस्य’ अर्थात् पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता कहा गया है जो लौकिक क्रियाओं के कर्त्ता के रूप में ही मनुष्य था। हर्ष को बाण ने ‘सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार’ (सर्वदेवतावतारमिवैकत्र) कहा है।

कुषाण शासक उच्च सम्मानपरक उपाधियाँ; यथा — राजराज, राजाधिराज आदि धारण करते थे। इन्हीं के अनुकरण पर भारतीय शासक ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करने लगे।

निष्कर्ष यह है कि मौर्योत्तर काल के राजवंशों ने विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति पर नियंत्रण के लिये ‘राजत्व में दैवी तत्त्व का समावेश किया’, ‘देवकुल बनवाये’, ‘भारी-भरकम उपाधियाँ’ धारण की। परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि मौर्यों की तरह वे केन्द्रीकृत शासन प्रणाली स्थापित नहीं कर पाये और राजा की शक्ति अपेक्षाकृत दुर्बल थी।

करमुक्ति भूमिदान

केंद्रीय सत्ता के कमजोर पड़ने का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण था भूमि अनुदान की प्रथा।  यद्यपि पूर्ववर्ती साहित्यों में भी करमुक्त भूमि दान का उल्लेख प्राप्त होता है तथापि मौर्योत्तर काल में हमें इसका पहला अभिलेखीय प्रमाण मिलता है। उदाहरण के लिये कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी ब्राह्मणों को भूमिदान देने का उल्लेख मिलता है और ऐसे करमुक्त भूमि दान को ‘ब्रह्मदेय’ कहा गया है। भूमि-दान का पहला अभिलेखीय प्रमाण प्रथम शताब्दी ई०पू० का प्राप्त होता है जब सातवाहन शासकों ने वैदिक यज्ञों के अधिष्ठाता पुजारियों / ब्राह्मणों एवं बौद्ध श्रमणों को राजस्व एवं प्रशासनिक करों से मुक्त भूमि प्रदान करने की प्रथा प्रारम्भ की।

प्रश्न यह उठता है कि पूर्ववर्ती और मौर्योत्तर काल के भूमि अनुदान में क्या परिवर्तन आया जिससे कि केन्द्रीय सत्ता दुर्बल हुई?

पूर्ववर्ती भूमि दान केवल कर मुक्त ही होते थे परन्तु राज्य अपना प्रशासनिक नियंत्रण नहीं त्याग करता था। परन्तु मौर्योत्तर कालीन भूमि दान पर से राजाओं ने प्रशासनिक नियंत्रण हटाकर इसे दान-ग्रहीता को ही समर्पित करना प्रारम्भ कर दिया। एक तरह से दानद्रहीता व्यक्तियों को अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता दे दी गयी। दान दिये गये क्षेत्रों में राज्याधिकारियों एवं पुलिस‌कर्मियों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया। दान दी गयी भूमि पर दान ग्रहीता का वंशानुगत अधिकार भी स्थापित हो गया। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप राज्य के अधीन अनेक स्वायत्तता प्राप्त इकाइयों का उदय हुआ। इस व्यवस्था ने सामंती व्यवस्था के विकास को बढ़ावा दिया तथा केंद्रीय शक्ति क्षीण पड़ने लगी। गुप्त और गुप्तेत्तर काल में यह प्रवृत्ति और अधिक बढ़ गयी जिसने सामंतवाद के उदय और प्रसार का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

इस आशय का अभिलेख गौतमीपुत्र शातकर्णी के अभिलेखों में मिलता है।

“…एतस चस खेतस परिहार वितराम अपावेसं अनोमस अलोण-खा [ दकं ] अरठसविनयिकं सवजातपारिहारिक च [ । ] ए [ ते ] हि नं परिहारेहि परिह [ र ] हि [ । ] एते चस खेत-परिहा [ रे ]…”

अर्थात्

इस भूमि के साथ यह परिहार ( क्षेत्र सम्बन्धी राज्याधिकार-विशेष से मुक्ति ) भी प्रदान करता हूँ। [ उस भूमि में कोई राजकर्मचारी ] प्रवेश नहीं करेगा; उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेगा; [ उस क्षेत्र से प्राप्त होनेवाले ] लवण-खनिज [ पर अधिकार नहीं जतायेगा ]; उस पर किसी प्रकार के प्रशासनिक नियन्त्रण का दावा नहीं करेगा; तथा उस [ भूमि पर अन्य ] सब प्रकार के परिहार लागू होंगे। — गौतमीपुत्र सातकर्णि का नासिक गुहालेख

ऐसे भूमिदानों का परिणाम यह हुआ कि दिये गये ऐसे ग्राम एक प्रकार से राज्य के भीतर ही अर्ध-स्वतंत्र क्षेत्र बन गये। फलतः ग्रामीण क्षेत्रों से राजा का नियंत्रण शनैः-शनैः कम होता गया। जिसके परिणामस्वरूप अंततः केंद्रीय सत्ता क्षीण ही हुई।

मातृसत्तात्मक तत्त्व

सातवाहन प्रशासन में मातृसत्तात्मक तत्त्व दिखायी देते हैं। सातवाहन राजा अपने नाम के साथ अपनी माता का नाम भी रखते थे; जैसे— गौतमीपुत्र शातकर्णि, वासिष्ठीपुत्र पुलुमावि आदि। इस काल की दो रानियों नागानिका और गौतमीबलश्री का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने प्रशासन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। राज्याधिकारियों और सामंतों की पत्नियाँ भी अपने पति का प्रशासकीय पदनाम धारण करती थीं; जैसे— महासेनापत्नी। शक शासकों की रानियों ने भी अग्रमहिषी, महादेवी जैसी गौरवपूर्ण उपाधियाँ धारण कीं।

उत्तर भारत में प्रशासनिक मामलों में मातृसत्तात्मक तत्त्वों को बल नहीं मिला, लेकिन सातवाहनों के समान कुछ शासकों ने भी संभवतः अपने नाम के साथ अपनी माता का नाम रखना अरम्भ किया। कौशाम्बी के कुछ मघ शासकों के नाम सातवाहन परम्परा के अनुकूल थे; जैसे— वाशिष्ठीपुत्र भीमसेन तथा कौटसीपुत्र महाराज पोठसिरी।

इसी प्रकर वाकाटक प्रशासन में रानियाँ भी कभी-कभी प्रशासन में प्रमुख भूमिका निभाती थीं। वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी प्रभावती गुप्त ने करीब २० वर्षों तक राज्य की संरक्षिका के रूप में शासन किया। सातवाहनों और वाकाटकों की रानियों ने अपने अभिलेख भी खुदवाये।

मौर्य और विदेशी शासन-व्यवस्था

भारतीय यूनानियों तथा उनके विदेशी उत्तराधिकारियों द्वारा शासित क्षेत्रों में मौर्य शासन-व्यवस्था के चिह्न दिखायी नहीं देते हैं।

  • शकों तथा पार्थियन शासकों ने ‘संयुक्त शासन’ का चलन प्रारम्भ किया जिसमें युवराज सत्ता के उपभोग में राजा का बराबरी का सहभागी होता था।
  • कुषाणों ने प्रान्तों में ‘द्वैध शासन’ की विचित्र प्रणाली का भी प्रचलन किया।
  • शक और कुषाण लोग पार्थियनों के माध्यम से अखामनी राजवंश की ‘क्षत्रपीय प्रणाली’ भी इस देश में ले आये। उदाहरण के रूप में ‘खरपल्लान’ और ‘बनस्फर’ क्रमशः मथुरा और वाराणसी में कुषाणों के महाक्षत्रप थे।
  • इंडो-ग्रीक शासकों ने ‘सैन्य शासन’ (military governorship) की शुरुआत की। ये सेनानी शासक यूनानी भाषा में स्ट्रेटोगास (stretegos) कहलाते थे।

प्रांतीय और स्थानीय शासन का विकास

मौर्योत्तर काल में प्रांतीय और स्थानीय (ग्रामीण) शासन का विकास हुआ। सभी राज्य प्रांतों और विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त थे। दक्षिण में ग्राम प्रशासन पर विशेष बल दिया गया। नगर सभा, ग्राम सभा, निगम इत्यादि स्थानीय स्वशासन में विशेष भूमिका निभाती थीं। ग्रामीण स्तर पर पकड़ बनाने के लिये सातवाहनों ने ‘गौल्मिक’ व ‘हालिक’ नामक अधिकारियों की नियुक्ति की थी।

शक-कुषाणों ने क्षत्रपीय शासन प्रणाली चलायी। इस प्रकार मौर्योत्तर युग की प्रशासकीय व्यवस्था मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था से भिन्न थी। मौर्यकाल में जहाँ शक्ति के केंद्रीकरण पर बल दिया गया, वहीं इस काल में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति प्रशासन की मुख्य विशेषता बन गयी।

FAQ

मौर्योत्तर राजव्यवस्था और प्रशासन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

Write a short note on post-Mauryan polity and administration.

उत्तर—

मौर्योत्तर राजव्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ:

  • साम्राज्यिक व्यवस्था:
    • सिकंदर के आक्रमण ने चन्द्रगुप्त मौर्य को एकछत्र साम्राज्य की प्रेरणा दी।
    • मौर्य साम्राज्य ने भारत में पहली बार साम्राज्यिक व्यवस्था की स्थापना की, जो हिंदू राज्यतंत्र का स्थायी तत्त्व बन गयी।
  • गणतंत्र और राजतंत्र:
    • पंजाब-राजस्थान में मालव, यौधेय जैसे गणराज्य थे, जो चुनाव आधारित प्रशासन चलाते थे।
    • राजतंत्रात्मक व्यवस्था अधिक प्रचलित थी, जिसमें शुंग, सातवाहन, शक-कुषाण आदि प्रमुख थे।
  • केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण:
    • अधिकांश राज्य छोटे थे, विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी।
    • सामंतवाद का बीजारोपण हुआ, और राजा की स्थिति कमजोर होने लगी।
  • राजत्व में देवत्व का आरोपण:
    • राजाओं को देवताओं का पुत्र या अवतार कहा जाने लगा।
    • कुषाण शासक ‘देवपुत्र’ कहलाते थे।
  • करमुक्त भूमिदान:
    • भूमि अनुदान की प्रथा शुरू हुई, जिससे केंद्रीय सत्ता कमजोर पड़ी।
    • भूमि दान पर प्रशासनिक नियंत्रण कम हो गया।
  • मातृसत्तात्मक तत्त्व:
    • सातवाहन और वाकाटक प्रशासन में रानियाँ और मातृसत्तात्मक तत्त्वों की भूमिका प्रमुख रही।
  • विदेशी शासन का प्रभाव:
    • संयुक्त शासन (शक, पह्लव)
    • द्वैध शासन प्रणाली (कुषाण)
    • क्षत्रपीय प्रणाली (शक, पह्लव, कुषाण)
    • सैन्य शासन (यूनानी)
  • स्थानीय शासन:
    • ग्राम सभा, नगर सभा जैसी संस्थाओं ने स्थानीय शासन में योगदान दिया।

विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति प्रशासनिक व्यवस्था की मुख्य विशेषता रही।

मौर्योत्तर समाज (२०० ई०पू० – ३०० ई०)

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