भूमिका
मौर्योत्तर युग नगरों के उत्थान एवं उनकी समृद्धि के लिये भी विख्यात है। नगरों के उत्थान के अनेक कारण थे; लेकिन उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारण थे। उद्योग-धंधों के विकास, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति, मुद्रा अर्थव्यवस्था की प्रधानता ने पुराने नगरों की समृद्धि एवं नये नगरों के उदय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
उत्तरी भारत और दक्कन में मौर्योत्तरकालीन अनेक नगरों का अस्तित्व पुरात्तात्विक स्रोतों से प्रकाश में आये हैं। सभी नगर मुख्यतः औद्योगिक और व्यापारिक केंद्र थे। ये सभी नगर उत्तरापथ और दक्षिणापथ से जुड़े हुए थे।
उत्तर भारत के नगर
उत्तर भारत के महत्त्वपूर्ण नगर जिनका वर्णन साहित्यों में मिलता है और इनमें से कुछ के तो वर्णन चीनी तीर्थयात्रियों ने भी किये है। साथ ही जो अब वर्तमान में उपस्थित नहीं हैं उनके ध्वंसावशेष मिले हैं। इन नगरों के उदाहरण हैं— तक्षशिला, हस्तिनापुर, मथुरा और इंद्रप्रस्थ (नई दिल्ली में पुराना किला), वैशाली, पाटलिपुत्र, वाराणसी, कौशाम्बी, श्रावस्ती, उज्जयिनी इत्यादि।
इन प्राचीन नगरों के अतिरिक्त उत्खननों से कश्मीर (कुंडलवन, कनिष्कपुर), पंजाब (पुरुषपुर/पेशावर, साकल), राजस्थान (माध्यमिका), हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार (चिरांद, कुमराहार) से अनेक कुषाणकालीन नगरों के विषय में जानकारी मिलती है।
इनमें से अधिकांश के नगर पहली और दूसरी शताब्दी के समय कुषाणकाल में अपेक्षाकृत अधिक समृद्धि की अवस्था तक पहुँच गये थे। उत्खनन से कुषाण युग के श्रेष्ठ निर्माण के प्रमाण मिलते हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के खैराडीह व मेसन (Mason) और बिहार में चिराँद, पान्र (Panr), सोनपुर और बक्सर इत्यादि ने समृद्ध कुषाण चरण के अवशेष मिलते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश में सोहगौरा, भीटा, कौशाम्बी, शृंगवेरपुर और अतरंजीखेड़ा जैसे नगर समृद्ध थे। शृंगवेरपुर और चिराँद से बहुत सारी ईंट की कुषाणकालीन संरचनाओं के अवशेष मिलते हैं। राजस्थान में रंगमहल और पश्चिमी क्षेत्रों में कई अन्य स्थल कुषाण काल में फले-फूले।
मथुरा के सोंख में उत्खनन से कुषाण काल के सात स्तर और गुप्त काल के केवल एक स्तर का पता चलता है। वर्तमान उत्खनन से पता चलता है कि लखनऊ से ५० किलोमीटर दूर सचनान कोट (Sachnan Kot) उत्तरी भारत का सबसे बड़ा कुषाण कालीन नगर था। यह ९ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और इसमें कई ईंट के घर और ताम्र सिक्के मिले हैं।
पंजाब में स्थित जालंधर, लुधियाना और रोपड़ के स्थल और हरियाणा के कई स्थल कुषाण निर्माण की गुणवत्ता के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
उत्खनन में गुप्त काल की संरचनाएँ कुषाण निर्माण से कमतर ठहरती हैं और कभी-कभी तो पूर्व में प्रयुक्त ईंटों का प्रयोग किया गया। इस तरह कुषाण चरण से प्राप्त भौतिक अवशेष नगरीकरण के चरम पर होने का संकेत देते हैं।
नगरीकरण के विकसित अवस्था के प्रमाण मालवा और पश्चिमी भारत के शक साम्राज्य के नगरों से भी मिलते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण नगर उज्जयिनी था जहाँ दो व्यापारिक मार्गों मिलते थे; एक कौशाम्बी से और दूसरा मथुरा से और वहाँ से आगे ये भरूच पत्तन तक जाता था। उज्जयिनी गोमेद (agate) और इन्द्रगोप (carnelian) पत्थरों के निर्यात के कारण भी प्रसिद्ध था। उत्खनन से ज्ञात होता है कि २०० ईसा पूर्व के बाद मोतियों के निर्माण के लिये गोमेद (agate), सूर्यकांत मणि (jasper) और इन्द्रगोप (carnelian) का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाने लगा था। यह इसलिये सम्भव हुआ क्योंकि कच्चा माल उज्जयिनी में क्षिप्रा नदी के तल में उपस्थित तलशिला के फाँसों से प्रचुर मात्रा में प्राप्त किया जा सकता था।
दक्षिण भारत के नगर
दक्षिण में सातवाहन साम्राज्य के अन्तर्गत भी नगरों का विकास हुआ। इसमें प्रमुख थे— तगर / तेर (Tagar / Ter), पैठन (Paithan), धान्यकटक (Dhanyakatak), अमरावती (Amaravati), नागार्जुनकोंडा (Nagarjunakonda), भरूच (Bharuch), सोपारा (Sopara), अरिकमेडु (Arikamedu) और कावेरीपट्टनम (Kaveripattanam) सातवाहन काल के दौरान पश्चिमी और दक्षिण भारत में समृद्ध नगर थे।
कई सातवाहन बस्तियाँ जिनमें से कुछ प्लिनी द्वारा उल्लिखित आंध्र के तीस दीवार वाले शहरों के साथ मिलती-जुलती हो सकती हैं और तेलंगाना में उत्खनन की गयी हैं। वे तटीय आंध्र के शहरों से बहुत पहले अस्तित्व में आये थे, हालाँकि पश्चिमी महाराष्ट्र के शहरों से बहुत बाद में नहीं। महाराष्ट्र, आंध्र और तमिलनाडु में शहरों का पतन आम तौर पर तीसरी शताब्दी के मध्य या उसके बाद प्रारम्भ हुआ।
नगर समृद्धि के कारण
कुषाण और सातवाहन साम्राज्यों में शहर इसलिए समृद्ध हुए क्योंकि उन्होंने रोमन साम्राज्य के साथ समृद्ध व्यापार किया। भारत ने तब रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग के साथ-साथ मध्य एशिया के साथ भी व्यापार किया। पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर इसलिए फले-फूले क्योंकि कुषाण शक्ति का केंद्र उत्तर-पश्चिमी भारत में था। भारत के अधिकतर कुषाण शहर मथुरा से तक्षशिला तक जाने वाले उत्तर-पश्चिमी या उत्तरपथ मार्ग पर स्थित थे। कुषाण साम्राज्य ने मार्गों पर सुरक्षा सुनिश्चित की और तीसरी शताब्दी में इसके पतन ने इन शहरों को बहुत बड़ा झटका दिया।
दक्कन में भी यही हुआ। सातवाहन शक्ति के अंत और तीसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य द्वारा भारत के साथ व्यापार पर लगाये गये प्रतिबंध ने नगरीय शिल्पकारों और व्यापारियों के भरण-पोषण कठिन होता गया। दक्कन में पुरातात्त्विक उत्खनन से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सातवाहन चरण के बाद नगरीय बस्तियों में गिरावट आयी।
FAQ
मौर्योत्तर काल में नगरीय विकास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Write a short note on urban growth in the post-Mauryan period.
उत्तर—
भूमिका
मौर्योत्तर काल में नगरीय विकास आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों को दर्शाता है। नये राज्यों के उत्थान, व्यापारिक मार्गों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने नगरों के विकास को प्रोत्साहित किया। इस समय पहले से उपस्थित नगर समृद्ध हुए व उनका पुनर्निर्माण हुआ और साथ ही नये नगर भी अस्तित्व में आये। मौर्योत्तर नगरीय विकास की मुख्य विशेषताएँ अधोलिखित हैं:—
- राजनीतिक पुनर्गठन और नये राज्यों का उदय
मौर्य साम्राज्य के ध्वंशावशेष पर कई राज्य अस्तित्व में आये जिसमें प्रमुख हैं— शुंग, सातवाहन, शक और कुषाण। इन राज्यों ने अपनी प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को पुनर्गठित करते हुए नगरों को व्यापार और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में विकसित किया। पाटलिपुत्र, उज्जैन, मथुरा, और तक्षशिला जैसे नगरों ने अपना महत्त्व बनाये रखा तो कुंडलवन, कनिष्कपुर जैसे नये नगर भी अस्तित्व में आये।
- व्यापारिक मार्गों का विस्तार
इस समय स्थलीय मार्गों के साथ-साथ समुद्री मार्गों का भी विस्तार हुआ। ये मार्ग भारत को पश्चिम एशिया, मध्य एशिया, रोम, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया से जोड़ते थे। इन व्यापार मार्गों के माध्यम से न केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था, बल्कि विचारों, तकनीक, और सांस्कृतिक विनिमय भी होता था। व्यापारिक गतिविधियों के कारण बंदरगाह नगरों का विकास हुआ; जैसे— भरुच, सोपारा, कल्याण, अरिकामेडु, ताम्रलिप्ति आदि।
- नगरीय योजना और संरचना
मौर्योत्तर काल के नगर अधिक संगठित और योजनाबद्ध थे। इस समय के नगरों में सड़कों, बाजार, और जल प्रबंधन की उचित व्यवस्था थी। नगरों में सार्वजनिक भवन, राजमहल, विहार और स्तूप बनाये गये। उदाहरणार्थ साँची का स्तूप और अन्य बौद्ध स्थापत्य निर्माण इस समय की स्थापत्यकला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं।
- धार्मिक और सांस्कृतिक विकास
मौर्योत्तर काल में नगर धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र बन गये थे। बौद्ध धर्म और जैन धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म का भी व्यापक प्रचार हुआ। नगरों में बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म से सम्बन्धित मूर्ति व स्थापत्य का निर्माण हुआ। धार्मिक आस्था के साथ-साथ सांस्कृतिक गतिविधियों; जैसे— कला, साहित्य और संगीत का भी व्यापक प्रसार हुआ। नगरों में मूर्तिकला और चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ विकसित हुईं; जैसे गांधार कला, मथुरा कला, सारनाथ कला, अमरावती कला इत्यादि।
- कला और शिल्पकला का विकास
इस काल में शिल्पकला और धातुकला में पर्याप्त प्रगति हुई। मौर्योत्तर काल की मूर्तिकला में गांधार शैली और मथुरा शैली का विशेष महत्त्व है। गांधार कला शैली में यूनानी-रोमन प्रभाव दिखायी देता है, जबकि मथुरा शैली भारतीयता से प्रभावित है। धातु से बनी मूर्तियाँ, आभूषण, और अन्य कलात्मक वस्तुएँ नगरों में कारीगरों द्वारा बनायी जाती थीं, जो नगरों की आर्थिक स्थिति को भी मजबूती प्रदान करती थीं।
- शिक्षा और ज्ञान का प्रसार
इस काल के नगर शिक्षा और ज्ञान के केंद्र थे। तक्षशिला, काशी, मथुरा जैसे नगर शिक्षा के केन्द्र थे। ये शिक्षा केंद्र न केवल भारतीय छात्रों के लिए बल्कि विदेशी छात्रों के लिए भी आकर्षण का केंद्र थे। धर्म, दर्शन, खगोल विज्ञान, चिकित्सा और गणित के अध्ययन के लिए ये नगर प्रसिद्ध थे।
- सामाजिक और आर्थिक संरचना
नगरों में सामाजिक और आर्थिक संरचना अधिक जटिल और विकसित होती गयी। व्यापारी, शिल्पकार, और कारीगर वर्ग नगरों के प्रमुख आर्थिक वर्ग थे। व्यापारिक गतिविधियों और उत्पादन के कारण नगरों की समृद्धि बढ़ती गयी जिससे समाज में धन और साधनों का विभाजन भी बढ़ा। इस काल में श्रेणियों, निगमों व पूगों का विकास हुआ जो विभिन्न शिल्पकारों और व्यापारियों के संगठनों के रूप में कार्य करते थे।
- निष्कर्ष
मौर्योत्तर काल का नगरीय विकास भारत के सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लेकर आया। व्यापार, कला, शिक्षा, और धार्मिक गतिविधियों के प्रसार ने नगरों को समृद्ध और प्रभावशाली बनाया। मौर्योत्तरकालीन नगर न केवल व्यापारिक केंद्र थे वरन् सांस्कृतिक और बौद्धिक गतिविधियों के भी प्रमुख केन्द्र थे। ये नगर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विकास में प्रमुख भूमिका का निर्वहन करते थे।
मौर्योत्तर समाज (२०० ई०पू० – ३०० ई०)
मौर्योत्तर राजव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०)
मौर्योत्तर मुद्रा अर्थव्यवस्था (Post-Mauryan monetary economy)