मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति

भूमिका

धार्मिक क्षेत्र में मौर्योत्तर विशेषता थी ब्राह्मण या वैदिकधर्म की पुनर्स्थापना तथा महायान बौद्धधर्म का उदय और विकास। इस समय जैनधर्म के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन आया। इसी काल में भक्ति भावना का विकास हुआ जिसके धर्म के साथ-साथ कला, व समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ने वाले थे। मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति से सम्बन्धित कुछ विशेषताओं का विवरण अधोलिखित है—

वैदिक / ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना

शुंग राजवंश की स्थापना के साथ ही पुनः ब्राह्मणधर्म की प्रतिष्ठा स्थापित हुयी। पुष्यमित्र शुंग और उनके उत्तराधिकारियों ने वैदिकधर्म को प्रश्रय दिया। फलस्वरूप यज्ञ और बलि की प्रथा का विकास हुआ। कण्वों और सातवाहनों ने भी ब्राह्मणधर्म को बढ़ावा दिया। अश्वमेध और वाजपेय यज्ञ पुनः होने लगे। सातवाहन अभिलेखों में अनेक वैदिक देवताओं का उल्लेख मिलता है।

ब्राह्मणधर्म के अंतर्गत वैष्णव और शैव संप्रदाय प्रमुख बन गये। साथ ही त्रिदेव— ब्रह्मा, विष्णु और महेश— की धारणा भी बलवती हुई। नंदी और नाग, यक्ष, कुबेर, बलराम इत्यादि की पूजा भी होने लगी।

कर्मकांडों के साथ-साथ भक्ति की भावना का भी प्रसार हुआ। दान देना पुण्य का काम माना गया। अभिलेखों में दान देने का उल्लेख मिलता है।

ब्राह्मणधर्म से प्रभावित होकर अनेक विदेशियों ने भी इस धर्म को अपना लिया। यूनानी राजा एंटियालकीडस के राजदूत हेलियोडोरस ने विदिशा में गरुड़ध्वज की स्थापना करवायी। शक शासक उषावदत्त ने भी वैदिकधर्म को अपनाया। हुविष्क शैव मत का पोषक था। अंतिम प्रमुख कुषाण शासक वासुदेव का नाम भी इंगित करता है कि वह वैष्णव मतावलंबी रहा होगा। कुषाणकालीन सिक्कों पर शैवधर्म के चिह्न भी मिलते हैं। इससे पता चलता है कि ईसा की आरंभिक शताब्दियों में ब्राह्मणधर्म का प्रभाव व्यापक था। ब्राह्मणधर्म ने मूर्तिकला के विकास को भी प्रभावित किया।

ब्राह्मण धर्म में नवीन तत्त्वों का उदय

जैसा कि हमें विदित है कि ये श्रमण (बौद्ध एवं जैन) धर्म वैदिक धर्म की बलि प्रथा व याज्ञिक अनुष्ठानों आदि के विरुध्द थे। परन्तु ये धर्म भी भक्ति पर आधारित मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की ओर आकृष्ट होने लगे। बौद्ध धर्म तथा अन्य शास्त्र-विरोधी धार्मिक संप्रदायों के भीषण प्रहारों ने वैदिक प्रथाओं तथा ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा एवं प्रभुत्व को गहरा आघात पहुँचाया था।

ब्राह्मणों की जीविका पहले याज्ञिक अनुष्ठानों जैसे वैदिक कृत्यों पर निर्भर करती थी। परन्तु श्रमण परम्परा के लोकप्रिय होने से यज्ञों के लिये माँग में कमी हो जाने के कारण ब्राह्मणों की स्थिति गिर रही थी। अतः वे जीविका के कुछ अन्य साधनों का सहारा लेने के लिए बाध्य हुए।

साथ ही नये आर्थिक एवं राजनीतिक तत्त्वों से उत्पन्न स्थिति से निबटने के लिये तथा ब्राह्मणधर्मी सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये ब्राह्मणों ने अनेक लोकप्रिय उपासना-विधियों को अपना लिया। वैदिक देवताओं के स्थान पर नवीन देववर्ग का उदय हुआ, जिनमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की त्रिमूर्ति बहुत विख्यात है। ब्रह्मा का रूप स्रष्टा, विष्णु का भर्त्ता एवं शिव का संहार्ता का है। धीरे-धीरे विष्णु और शिव अधिक लोकप्रिय देवता हो गये एवं उनके अनुयायी वैष्णव और शैव कहे जाने लगे। इस नवोदित ब्राह्मण धर्म में वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों के स्थान पर ‘भक्ति’ को प्राधानता दी गयी।

जैनधर्म

ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म की तुलना में जैनधर्म कम प्रभावशाली प्रतीत होता है। संभवतः ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैनधर्म का दो संप्रदायों— दिगम्बर और श्वेताम्बर में विभाजन स्पष्ट हो गया। जैनधर्म में भी भक्ति और पूजा की भावना प्रचलित हुई। तीर्थंकर की मूर्तियाँ भी बनीं। उत्तरी भारत में मथुरा जैनधर्म का सबसे बड़ा केंद्र प्रतीत होता है। कलिंग में खारवेल ने इस धर्म को प्रश्रय देकर व्यापक बनाया।

बौद्ध धर्म

ईसा की आरंभिक शताब्दियों में बौद्धधर्म बहुत प्रभावशाली था। शुंगों द्वारा ब्राह्मणधर्म की पुनर्स्थापना तथा बौद्धों पर शुंगों द्वारा तथाकथित अत्याचार के बावजूद यह व्यापक और प्रभावशाली धर्म बना रहा।

हिंद-यूनानियों, शकों, सीथियनों, कुषाणों ने इस धर्म को अपनाया तथा बढ़ावा दिया। यूनानी शासक मिनांडर ने इस धर्म से प्रभावित होकर इसे स्वीकार किया।

कुषाण शासकों ने भी इसे प्रश्रय दिया। कनिष्क के सिक्कों पर बौद्धधर्म के चिह्न मिलते हैं।

शक-सातवाहनों के अधीन भी दक्कन में इस धर्म के व्यापक रूप से प्रचलित होने का प्रमाण असंख्य चैत्यों, स्तूपों और गुहाओं से मिलता है।

बौद्धधर्म में भी भक्ति की भावना और मूर्त्ति पूजा बलवती बन गयी।

समृद्ध व्यापारियों, भिक्षु-भिक्षुणियों, उपासकों ने बौद्ध विहारों को दान दिए जिससे उनकी आर्थिक समृद्धि बढ़ी।

महायान बौद्ध धर्म का उदय

वास्तव में महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही उनकी शिक्षाओं के तात्पर्य के सम्बन्ध में वाद-विवाद प्रारम्भ हो गया था और कई परिषदों द्वारा उस विवाद को सुलझाने की असफल चेष्टा की गयी थी। कनिष्क के समय तक आते-आते बौद्ध धर्म की १८ विभिन्न शाखाएँ विद्यमान थीं। परम्परा के अनुसार कनिष्क के समय में चौथी बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म औपचारिक रूप से हीनयान एवं महायान नामक दो शाखाओं में बँट गया।

इस काल की यह विशेषता थी कि ज्ञानमार्ग अथवा कर्ममार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग अधिक लोकप्रिय हो रहा था। बौद्ध धर्म में महायान सम्प्रदाय का उदय इसी प्रवृत्ति का द्योतक है।

मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति

हीनयान सम्प्रदाय में बुद्ध मानव के पथप्रदर्शक मात्र थे परन्तु महायान में अब वे देवता माने जाने लगे। महायान शाखा की प्रमुख विशेषता थी बोधिसत्व की धारणा जिसने अन्य प्राणियों के कल्याण के लिये कई बार जन्म लिया है और जो भविष्य में भी प्राणियों के त्राण के लिए आएगा। बुद्ध का यह रूप मैत्रेय बुद्ध के नाम से विख्यात हुआ। समय के साथ-साथ बोधिसत्वों की एक शृंखला विकसित हो गयी।

मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति

हीनयान में प्रत्येक व्यक्ति के सामने व्यक्तिगत निर्वाण-प्राप्ति के लिए अर्हत् पद प्राप्त करने का आदर्श था। महायान संप्रदाय ने प्रत्येक व्यक्ति के सामने बोधिसत्व का आदर्श रखा। बुद्ध को एक धार्मिक उपदेशक के रूप में न देखकर एक परित्राता भगवान के रूप में देखा जाने लगा और उनकी मूर्तियों की उपासना प्रारम्भ हो गयी बुद्ध के जीवन-चिह्नों की उपासना पूर्ववत् चलती रही किंतु अब उसका स्थान मूर्तिपूजा लेने लगी। बुद्ध को एक भगवान के रूप में देखा जाने लगा जिनसे उनके उपासक दया की आशा कर सकते थे। इस प्रकार महायान बौद्ध धर्म में भक्ति की धारणा का विकास हुआ। बुद्ध के दिव्य गुणों पर जोर देने के लिए इस काल में उनकी जीवन कथा फिर से लिखी गई। इस उद्देश्य से लिखी प्रारम्भिक पुस्तकों में महावस्तु, ललितविस्तर और अश्वघोष कृत बुद्धचरित्र उल्लेखनीय हैं।

FAQ

मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। 

Discuss briefly the post-Mauryan religious situation.

उत्तर— मौर्योत्तर काल में धार्मिक दृष्टि से कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हमें देखने को मिलते हैं जो आगे आने वाले समय में गहरा प्रभाव डालने वाले थे—

  • ब्राह्मण धर्म या वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना हुई अथवा पुनर्जागरण हुआ।
  • इस क्रम में वैदिक देवताओं के स्थान पर त्रिदेवों — ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिष्ठा हुई।
  • इन त्रिदेवों में भी विष्णु और शिव अधिक लोकप्रिय हुए।
  • भक्ति भावना का विकास इस युग की प्रमुख विशेषता थी, जिसने वैदिक व श्रमण दोनों परम्पराओं को गहरे से प्रभावित किया।
  • भक्ति भावना की तुष्टि के लिए आराध्यों की मूर्तियाँ बनाकर मंदिरों में प्रतिष्ठित की जाने लगीं।
  • बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी घटना थी उसका महायान और हीनयान में विभाजन।
  • महायान में बुद्ध को देवता माना गया और बोधिसत्व की अवधारणा का विकास हुआ।
  • हीनयान में बुद्ध एक पथप्रदर्शक बने रहे और अर्हत् के माध्यम से व्यक्तिगत निर्वाण की अवधारणा बनी रही।

इस तरह वर्तमान में त्रिदेवों का महत्त्व, भक्ति भावना, मूर्तिपूजा, महायान की विशेषताएँ इत्यादि तत्त्व हमें मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति  में कमोबेश मिलते हैं।

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