भूमिका
मौर्य साम्राज्य के पतन (१८४ ई० पूर्व) से लेकर गुप्त साम्राज्य के उदय (३१९ ई०) का समय सामान्यतया मौर्योत्तर काल के रूप में जाना जाता है। लगभग ५०० वर्ष का यह काल राजनीतिक विशृंखलता का युग था। इन पाँच शताब्दियों में क्षेत्रीय और छोटे राज्यों का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर गंगा घाटी में शुंग, कण्व तो दक्षिण में सातवाहन राज्य का उदय हुआ। इसी काल में सुदूर दक्षिण में संगम कालीन तीन राज्यों (चोल, चेर और पाण्ड्य) का उदय हुआ।
शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के अभाव में पश्चिमोत्तर से विदेशी आक्रमणों का प्रारम्भ हुआ। इनमें से प्रमुख थे— युनानी, शक, पह्लव और कुषाण। शकों और कुषाणों ने यहाँ विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की और लम्बे समय तक शासन किया।
सामाजिक दशा
मौर्योत्तर समाज में परम्परागत चार वर्णों में बँटा हुआ था। भारतीय जाति व्यवस्था की कठोरता के कारण अधिकांश विदेशी विजेता जातियाँ बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुई।
स्मृतिकार मनु इसी काल के हैं। मनुस्मृति में वर्ण और जाति के कठोर पालन का निर्देश और वर्ण संकर का विरोध मिलता है। मनु प्रतिलोम विवाह की जितनी कठोर आलोचना करते हैं उतनी अनुलोम विवाह की नहीं करते हैं। मनुस्मृति में ६० से अधिक (≈६३) वर्ण संकर का उल्लेख मिलता है। मनु के समक्ष एक प्रमुख समस्या थी कि विदेशियों को भारतीय समाज में किस वर्ण में स्थान दिया जाए? उन्होंने उन्हें म्लेच्छ कहकर निम्न क्षत्रिय वर्ण में स्थान दिया।
मनु का महिलाओं के सम्बन्ध में भी कठोर रुख है। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह को वर्जित बताया परन्तु विधवा पुनर्विवाह समाज में होते रहे।
मौर्योत्तर काल में ही हमें सबसे पहले यवनिका शब्द का प्रयोग मिलता है। यह नाटकों में पर्दे के लिये प्रयुक्त शब्द था। परन्तु कालान्तर में महिलाओं के पर्दा प्रथा का पूर्वगामी इसे माना गया है। यद्यपि पर्दा प्रथा का प्रचलन गुप्तकाल से माना जाता है।
मौर्योत्तर काल में पहनावों में नये तत्त्वों का योग भी हमें दिखायी देता है। शकों-कुषाणों ने कुर्ता, पाजामा, कोट (ओवरकोट), कुर्ती (ट्यूनिक), टोपी (हैट), जूते (बूट) का प्रयोग किया।
भवन निर्माण में निर्माण में पक्की ईंटों का प्रयोग फर्श बनाने में और खपरैल (टाइल्स) का प्रयोग छत बनाने में किया जाने लगा। शकों-कुषाणों ने फुहारों और टोटियों युक्त पात्रों प्रयोग किया। कुषाणों ने गहरे सुर्ख लाल मृदभाण्ड (red ware) का प्रयोग किया। यह मृद्भाण्ड संगमकाल और गुप्तकाल में प्रचलित था।
शकों-कुषाणों ने घोड़ों पर जीन और लगाम का प्रयोग किया।
विस्तृत विवरण के लिये देखें — मौर्योत्तर समाज (२०० ई०पू० – ३०० ई०)
मौर्योत्तर राजव्यवस्था
प्रशासन का केन्द्र राजा होता था। मौर्योत्तर राजव्यवस्था में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
- कुषाणों ने चीनी शासकों के अनुरूप ‘देवपुत्र’, ‘षाहिषाहानुषाहि’ जैसी उपाधियाँ धारण की जो राजत्व के दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त की द्योतक है। कुषाणों ने रोमन सम्राटों के अनुरूप मृत राजाओं की मूर्तियाँ मंदिरों में स्थापित करने की शुरुआत की जिसे देवकुल कहा गया।
- शकों और कुषाणों ने पह्लवों की तरह क्षत्रपीय प्रणाली की शुरुआत की। उदाहरण के लिये कुषाणों के समय मथुरा व वाराणसी में क्रमशः खरपल्लान और बनस्फर का महाक्षत्रप के रूप में उल्लेख मिलता है।
- कुषाणों ने प्रान्तों में द्वैध शासन की व्यवस्था लागू की थी।
- शकों और पह्लवों ने संयुक्त शासन व्यवस्था अपनाया। इसमें युवराज सत्ता में राजा का सहभागी होता था।
- युनानियों ने सैन्य शासन की शुरुआत की थी।
- सातवाहनों ने ग्रामों में पकड़ मजबूत करने के लिये गौल्मिक व हालिक नामक अधिकारियों की नियुक्ति की थी।
विस्तृत विवरण के लिये देखें — मौर्योत्तर राजव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०)
अर्थव्यवस्था
मौर्योत्तर युग आर्थिक दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास का सबसे प्रमुख काल माना जाता है; क्योंकि इस काल में शिल्प-उद्योग, व्यापार-वाणिज्य, मुद्रा व्यवस्था इत्यादि में अभूतपूर्व उन्नति हुई। व्यापारिक विनिमय को सुगम बनाने के लिये मानक व लेखयुक्त सिक्कों का प्रचलन हुआ। नगरों का विकास हुआ हुआ और तटीय क्षेत्रों पत्तनों का जाल सा बिछ गया। मौर्योत्तर काल में ही भूमिदान की अक्षयनीवी प्रणाली की शुरुआत हुई जो आगे चलकर बड़ा प्रभाव डालने वाली थी।
विस्तृत विवरण के लिये देखें — मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०) / Post-Mauryan Economy (200 BC – 300 AD)
भूमिदान
भारत में भूमि अनुदान का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य सातवाहनों के पहली शताब्दी ईसा पूर्व में तब मिलता जब महाराष्ट्र में अश्वमेध यज्ञ के समय उपहारस्वरूप पुरोहितों को एक गाँव अनुदान के रूप में दिया।
मौर्योत्तर काल में ही हमें सातवाहनों और कुषाणों के अभिलेखों में हमें पहली शताब्दी से अक्षयनीवी प्रणाली की शुरुआत की। अक्षयनीवी का अर्थ है— भू-राजस्व का स्थायी दान। अक्षयनीवी दो शब्दों ‘अक्षय’ और ‘नीवी’ के योग से बना है। अक्षय का अर्थ है— जिसका क्षय न हो या क्षयरहित हो और नीवी का अर्थ है— मूलधन।
शिल्प
मौर्योत्तर युग में शिल्पकारी का खूब विकास हुआ। प्राक्-मौर्यकाल के बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय लगभग २४ प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख करता है। जबकि मौर्योत्तर कालीन बौद्ध रचना महावस्तु से ज्ञात होता है कि मगध की प्राचीन या पहली राजधानी ‘राजगृह’ में ३६ प्रकार के व्यवसायी रहते थे। परन्तु महावस्तु की सूची अपूर्ण है क्योंकि इसी काल की एक अन्य बौद्ध रचना मिलिन्दपण्हों में ७५ प्रकार के व्यवसायों का विवरण मिलता है। मिलिन्दपण्हों के ७५ व्यवसायों (occupation) में से ६० विविध शिल्प (crafts) से सम्बन्धित थे। इनमें से भी ८ शिल्प धातुओं से सम्बन्धित थे— सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, पीतल, लोहा, शीशा और आभूषण या मूल्यवान पत्थर।
शिल्पकारों के निवास के जो पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलते हैं वे यह संकेत करते हैं कि समान शिल्पकार साथ-साथ रहते थे; जिससे कि सामाजिक स्तरीकरण स्पष्ट होता है; जैसे— तेलंगाना के करीमनगर के एक गाँव में बढ़ई, लोहार, सोनार, कुम्भकार आदि अलग-अलग मुहल्लों (टोलों) में रहते थे।
श्रेणी व्यवस्था
मौर्योत्तर काल श्रेणी व्यवस्था के विकास की दृष्टि से अत्यन्त प्रगतिशील माना जाता है। इन श्रेणियों का मुख्य संक्रेंद्रण उत्तर भारत में मथुरा और दक्कन में गोवर्धन (नासिक में स्थित) था।
व्यापारिक संगठनों के सम्बन्ध में तीन प्रमुख शब्द मिलते हैं— श्रेणी, निगम और पूग।
श्रेणी शिल्पकारों के संगठन के लिये प्रयुक्त शब्द था। परन्तु कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग शिल्पकारों और व्यावसायिक संस्थाओं की सामान्य संज्ञा के रूप में किया गया है।
पूग सम्भवतया एक स्थान पर रहने वाले विभिन्न व्यापारियों, शिल्पियों और व्यवसायियों की संस्था होती थी।
निगम व्यापारियों के संगठन की संज्ञा थी। इसका सम्बन्ध नगरीय व्यापारियों से था।
श्रेणियाँ सामान्यतः एक ही एक ही प्रकार के शिल्पकारों का संगठन थीं या यूँ कहें उसमें एक ही कुल के लोग सम्मिलित होते थे। वहीं निगम श्रेणी से बड़ी संस्था होती थी और सभी श्रेणियाँ उसकी सदस्य होती थीं।
इन संगठनों के अध्यक्ष के लिये प्रमुख, जेष्ठक और श्रेष्ठि शब्द मिलता है। सम्भवतया श्रेणी के अध्यक्ष को प्रमुख, निगम के अध्यक्ष को श्रेष्ठि और पूग के अध्यक्ष को जेष्ठक कहा गया है।
व्यापारिक श्रेणियाँ अपने कारवाँ का एक नेता चुनती जिसे सार्थवाह कहा जाता था।
ये श्रेणियाँ राजनीतिक कार्य को छोड़कर लगभग सभी प्रकार के क्रियाकलाप करती थीं। अर्थात् ये सामाजिक, आर्थिक और यहाँ तक कि बैंकिंग (महाजन) क्रिया-कलाप भी करती थीं। इन श्रेणियों के अपने नियम कानून थे जिसे श्रेणी धर्म कहा गया है। प्रत्येक श्रेणी का अपना तमगा, पताका एवं मुहर होती थी।
श्रेणियाँ दान भी देती थीं। मथुरा क्षेत्र के एक अभिलेख से पता चलता है कि एक प्रमुख ने आटा पीसने वाले कारीगरों के पास धन जमा कराया था ताकि वे उसकी मासिक आय से लगभग ७०० ब्राह्मणों के निर्वाह की व्यवस्था कर सकें। इसी तरह विदिशा के हस्तिदन्त शिल्पियों की एक श्रेणी ने साँची स्तूप के चारों ओर कटघरों तथा प्रवेश द्वारों पर पाषाण शिल्प का उत्कीर्णन कराया।
मौर्योत्तर राज-व्यवस्था की एक उल्लेखनीय बात यह है कि ई० पू० दूसरी तथा पहली शताब्दी में उत्तर भारत में कम से कम एक दर्जन ऐसे नगर थे जो लगभग स्वशासी संगठनों की तरह काम करते थे। इन नगरों के व्यापारियों के संघ सिक्के जारी करते थे। तक्षशिला में उत्खनन से प्राप्त हुए पाँच सिक्कों में निगम शब्द का उल्लेख मिलता है। गन्धिकों जिसका शाब्दिक अर्थ गन्ध विक्रेता है, परन्तु वास्तविक अर्थ व्यापारी है। गांधिकों के संघ के सिक्के कौशाम्बी के आस-पास के क्षेत्र में भी पाये गये हैं। आधुनिक गाँधी जाति की उत्पत्ति इसी गांधिकों से हुई है।
इस काल की श्रेणियों की मुहरों और सिक्कों (ताम्र-मुद्राओं) पर कई नगरों का अंकन भी मिलता है; यथा— त्रिपुरी, महिष्मती, विदिशा, एरण, माध्यमिका, वाराणसी आदि।
उद्योग
मौर्योत्तर काल उद्योगों के विकास की दृष्टि से भारतीय इतिहास में प्रमुख स्थान रखता है। इस काल के कुछ प्रमुख उद्योग अधोलिखित थे—
वस्त्र उद्योग
- इस काल का सबसे प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था। पतंजलि कृत महाभाष्य में मथुरा के शाटक और चित्तौड़ के माध्यमिका वस्त्र का उल्लेख मिलता है।
- वंग का मलमल विश्वविख्यात था।
- चीन से चीनांशुक प्राप्त होता था।
- दक्षिण भारत में उरैयूर, अरिकामेडु रंगाई के हौज के साक्ष्य मिले हैं जो विकसित वस्त्र उद्योग के प्रमाण हैं।
लौह-इस्पात उद्योग
- मौर्योत्तर काल में लौह और इस्पात उद्योग ने पर्याप्त प्रगति की थी।
- तेलंगाना के करीमनगर और नालगोंडा जनपद लौह और इस्पात उद्योग के लिये प्रसिद्ध थे। यहाँ से लोहे के औजार तराजू की डंडी, मूठ वाले फावड़े, कुल्हाड़ियाँ, हँसिया, फाल, उस्तरा, करछुल इत्यादि मिले हैं।
- भारतीय लौह व इस्पात का निर्यात पार्थियाई और अबीसीनियाई बंदरगाहों को होता था।
सीसा उद्योग
- भारतीयों को सीसा ढालने की तकनीकी का ज्ञान पहली शताब्दी में प्राप्त हुआ।
- रोम की सीसे की वस्तुएँ तक्षशिला और अफगानिस्तान में भी पाये गये हैं।
मूर्तिकाएँ
- आन्ध्र प्रदेश के काकीनाड़ा जनपद के येलेश्वरम् से मूर्तिकाएँ (terracottas) और उसके निर्माण के साँचे सबसे अधिक संख्या में मिले हैं।
- मूर्तिकाएँ और उसके साँचे कोंडापुर (रंगारेड्डी, तेलंगाना) में भी पाये गये हैं।
हस्ति-दन्त शिल्प उद्योग
- इस काल में हाथी दाँत से बनी वस्तुओं का उद्योग खूब फला-फूला।
- विदिशा में हस्ति-दन्त शिल्पियों की एक श्रेणी थी, जिसने साँची स्तूप के रेलिंग की मरम्मत करवायी थी।
- भारतीय हस्ति-दन्त शिल्प की वस्तुएँ रोम और अफगानिस्तान से प्राप्त होती हैं।
- वारंगल, कलिंग और विदिशा क्षेत्र हाथी दाँत की बनी वस्तुओं के लिये प्रसिद्ध था।
स्वर्ण उद्योग
- इस काल में सर्वाधिक सोना रोमन व्यापार के माध्यम से प्राप्त होता था।
- कुषाणों ने मध्य एशिया के अल्ताई की पहाड़ी से भी सोना प्राप्त किया।
- इसके अतिरिक्त कर्नाटक के कोलार और इथियोपिया से भी स्वर्ण मिलता था।
- इसका उपयोग सिक्के ढालने व आभूषण बनाने में किया जाता था।
अन्य उद्योग
- नमक उद्योग — पंजाब की नमक की पहाड़ियों से मिलता था।
- हीरा — कश्मीर, कोसल, विदर्भ और कलिंग से मिलता था।
- ताँबा — राजस्थान से
- लोहा — मगध से, तेलंगाना से
- मसाले — दक्षिण भारत से
मुद्रा व्यवस्था
मौर्योत्तर काल में बढ़ते व्यापार ने सिक्कों के मानकीकरण और सिक्कों के निर्माण की तकनीक में प्रगति को प्रोत्साहित किया। इस काल में एक तरह से ‘मुद्रा अर्थव्यवस्था’ हमें देखने को मिलता है। यद्यपि सोने और चाँदी के सिक्के भी हमें मिलते हैं परन्तु ताँबे और सीसे के सिक्कों के प्रचलन से इतिहाकार इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सिक्के (विशेषकर ताँबे के सिक्के) अब विनिमय में सामान्य जन के अर्थिक क्रिया-कलापों का अंग बन गये थे।
इस काल में सबसे पहले यूनानियों ने स्वर्ण-सिक्के और लेखयुक्त सिक्कों को प्रचलित किया परन्तु बड़ी मात्रा में स्वर्ण सिक्कों को प्रचलन में लाने का श्रेय कुषाणों को है। इसी तरह कुषाणों के स्वर्ण सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास में सबसे शुद्ध प्राप्त होते हैं। कुषाणों को ही सर्वाधिक ताम्र सिक्के जारी करने का श्रेय प्राप्त है।
सातवाहनों के सीसे और पोटीन के सिक्के उल्लेखनीय हैं। शकों ने चाँदी के सिक्के ढलवाये।
विस्तृत विवरण के लिये देखें— मौर्योत्तर सिक्के
विस्तृत विवरण के लिये देखें— मौर्योत्तर मुद्रा अर्थव्यवस्था (Post-Mauryan monetary economy)
नगरीकरण
मौर्योत्तर काल नगरों के उत्थान एवं उनकी समृद्धि के लिये प्रख्यात है। नगरों के उत्थान और समृद्धि के अनेक कारण थे; लेकिन उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आर्थिक कारण थे। उद्योग-धंधों के विकास, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति, मुद्रा अर्थव्यवस्था की प्रधानता ने पुराने नगरों की समृद्धि एवं नये नगरों के उदय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
उत्तरी भारत और दक्कन में मौर्योत्तरकालीन अनेक नगरों का अस्तित्व पुरात्तात्विक स्रोतों से प्रकाश में आये हैं। सभी नगर मुख्यतः औद्योगिक और व्यापारिक केंद्र थे। ये सभी नगर उत्तरापथ और दक्षिणापथ से जुड़े हुए थे। इस समयावधि में पूर्व अस्तित्ववान नगरों में समृद्धि आयी और नये-नये नगर अस्तित्व में आये।
उत्तरी भारत के नगरों में कुछ प्रमुख थे — चिराँद, सोहगौरा, भीटा, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, तामलुक, चम्पा, राजगृह, गया, बनारस, सारनाथ, साकेत, श्रावस्ती, मथुरा, अतरंजीखेड़ा, शाकल, कनिष्कपुर, कुंडलवन, तक्षशिला, पुरुषपुर, माध्यमिका, बारबैरिकम, विदिशा, उज्जैयिनी, भरूच, गिरिनार इत्यादि।
दक्षिण भारत के प्रमुख नगर थे — सोपारा, कल्याण, प्रतिष्ठान, तगर, धान्यकटक, अमरावती, अरिकामेडु, करूर, उरैयूर, मदुरई, पुहार, कोर्कई, मुजिरिस इत्यादि।
विस्तृत विवरण के लिए देखें— मौर्योत्तर नगरीय विकास (Post-Mauryan Urban Growth)
धार्मिक स्थिति
मौर्योत्तर काल में धार्मिक दृष्टि से जहाँ एक ओर निरंतरता देखने को मिलती है वहीं समयानुकूल कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी हमें देखने को मिलते हैं जो आगे आने वाले समय में गहरा प्रभाव डालने वाले थे—
- ब्राह्मण धर्म या वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना हुई अथवा पुनर्जागरण हुआ।
- इस क्रम में वैदिक देवताओं के स्थान पर त्रिदेवों — ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिष्ठा हुई।
- इन त्रिदेवों में भी विष्णु और शिव अधिक लोकप्रिय हुए।
- भक्ति भावना का विकास इस युग की प्रमुख विशेषता थी, जिसने वैदिक व श्रमण दोनों परम्पराओं को गहरे से प्रभावित किया।
- भक्ति भावना की तुष्टि के लिए आराध्यों की मूर्तियाँ बनाकर मंदिरों में प्रतिष्ठित की जाने लगीं।
- बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी घटना थी उसका महायान और हीनयान में विभाजन।
- महायान में बुद्ध को देवता माना गया और बोधिसत्व की अवधारणा का विकास हुआ।
- हीनयान में बुद्ध एक पथप्रदर्शक बने रहे और अर्हत् के माध्यम से व्यक्तिगत निर्वाण की अवधारणा बनी रही।
- जैन धर्म भी भक्ति भावना से अछूता नहीं रहा और उसनें भी जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनायी गयीं।
इस तरह वर्तमान में त्रिदेवों का महत्त्व, भक्ति भावना, मूर्तिपूजा, महायान शाखा का उदय आदि तत्त्व हमें मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
विस्तृत विवरण के लिए देखें —
- मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति
- संगमकालीन धर्म, आस्था व विश्वास: संक्षिप्त विश्लेषण (Religion, faith and belief of the Sangam age: Brief analysis)
स्थापत्य और कला
मौर्योत्तर काल में हमें कला की विभिन्न शैलियों के विकास दिखायी देता है। भक्ति भावना के उदय ने विभिन्न धर्मों में प्रतीक चिह्नों के स्थान पर मूर्तिकला को प्रेरित और प्रोत्साहित ही किया। साथ ही ललित कलाओं में नृत्य, संगीत, नाटक और चित्रकला का भी इस समय विकास हुआ।
स्थापत्य के क्षेत्र में इस समय भवनों में बड़े पैमाने पर पकाई ईंटों के व्यवहार का भी उल्लेख किया जा सकता है। नगरों का निर्माण एक सुनिश्चित योजना के अनुसार हुआ। सातवाहन और कुषाणकालीन स्थलों के उत्खनन से ईंट-निर्मित अनेक भवनों के अवशेष मिले हैं।
विविध कला शैलियाँ —
- शुंग कला
- कुषाणों के शासन काल में गान्धार और मथुरा कला की अद्भुत शैलियों का विकास हुआ।
- सातवाहनों व उनके उत्तराधिकारियों के अधीन दक्षिण भारत में बहुत सारी गुफाओं और स्तूपों का निर्माण हुआ—
चित्रकला
- चित्रकला के सबसे अधिक प्राचीन उदाहरण अजन्ता की गुफा मख्या ९ व १० में मिलते हैं। गुफा संख्या ९ में सोलह उपासकों को स्तूप की ओर बहते हुए दर्शाया गया है।
विस्तृत विवरण के लिए देखें — मौर्योत्तर कला और स्थापत्य
साहित्य
मौर्योत्तर काल में प्राकृत, संस्कृत और तमिल भाषाओं में रचनाएँ मिलती हैं। प्राकृत भाषा में अभिलेख खुदवाये जा रहे थे परन्तु संस्कृत भाषा अब धीरे शासनादेश की भाषा बनती जा रही थी। आगे चलकर गुप्तकाल में संस्कृत राजकीय भाषा बनने वाली थी। पहले जहाँ बौद्ध की भाषा पालि थी वहीं महायान शाखा की उत्पत्ति से अब इसकी भी भाषा संस्कृत हो चली थी। इसी काल में विपुल संगम साहित्य तमिल भाषा में लिखे गये थे।
- महाभाष्य — पतंजलि
- मनुस्मृति — मनु
- चरक संहिता — चरक
- कातंत्र — शर्ववर्मन
- बुद्ध चरित, सौन्दरानन्द, शारिपुत्र प्रकरण — अश्वघोष
- प्रज्ञापारिमितासूत्र —नागार्जुन
- विभाषाशास्त्र — वसुमित्र
- स्वप्नवासवदत्तम् — भास
- गाथा सप्तशती — हाल
- बृहत्तकथा — गुणाढ्य
- संगम साहित्य
- तोल्काप्पियम — तोल्काप्पियर
- एत्तुथोकै — ८ कविताओं का संग्रह
- पत्थुप्पात्तु — १० कविताओं का संग्रह
- पदिनेनकीलकन्क्कु — १८ कविताओं का संग्रह
- तीन महाकाव्य
- शिल्पादिकारम् — इलांगो आदिगन
- मणिमेकलै — सीतलैसत्तनार
- जीवकचिन्तामणि — तिरुत्तक्कदेवर
- शुंग, कुषाण, शक, सातवाहन, खारवेल इत्यादि के अभिलेख।
विस्तृत विवरण के लिए देखें — मौर्योत्तर साहित्य
निष्कर्ष
मौर्य साम्राज्य के पतन और गुप्त साम्राज्य के राजनीतिक मंच पर उदय के बीच का लगभग ५०० वर्षों का समय भारतीय इतिहास में अपना अलग ही महत्त्व रखता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं — सामाजिक आत्मसातीकरण, वैदिक पुनर्जागरण, भक्ति भावना का उदय, महायान शाखा का उदय, अपूर्व आर्थिक गतिविधि, विभिन्न कला शैलियों का विकास, शासन व्यवस्था में नये तत्त्वों का प्रवेश, भूमिदान, अक्षयनीवी, मुद्रा व्यवस्था इत्यादि। ये विशेषताएँ आगे चलकर गहरे स्तर तक प्रभावित करनेवाले थे।