भूमिका
मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था भारतीय आर्थिक इतिहास में सम्पन्नता का युग माना जा सकता है। लौह तकनीक के विकास और कृषि के विस्तार की पूर्व की प्रक्रिया इस समय भी अनवरत चलती रही। परिणामस्वरूप कृषि के अधिशेष उत्पादन ने अनेक शिल्पों व उद्योगों को विकसित स्थिति में ला दिया।
मौर्योत्तर कालीन साहित्यिक स्रोतों से शिल्पों, शिल्पकारों, शिल्पकार संगठनों के विषय में जानकारी मिलती है जिसकी पुष्टि पुरातात्त्विक अवशेषों भी होती है। मध्य एशिया से प्रगाढ़ राजनीतिक सम्बन्ध ने व्यापार और वाणिज्य को प्रश्रय दिया विशेषतया रोमन व्यापार।
विकसित होते व्यापार ने मौद्रिक अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया। व्यापार में भारत लाभ की स्थिति में था जिसके परिणामस्वरुप मौर्योत्तर काल में आर्थिक समृद्धि हमें प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित हुई। इसी आर्थिक समृद्धि के कारण पुराने नगरों की समृद्धि बढ़ी तथा अनेक नवीन नगर अस्तित्व में आये।
मौर्योत्तर कालीन अर्थव्यवस्था को हम कृषि, उद्योग, शिल्प, व्यापार, मुद्रा, श्रेणी व निगम, नगरीकरण इत्यादि उप-विभागों में बाँटकर आसानी से अध्ययन कर सकते हैं—
कृषि
कुषाणकालीन कृषि व्यवस्था के सम्बन्ध में स्पष्ट और विस्तृत जानकरी नहीं प्राप्त होती है, परन्तु अनुमान है कि उत्तरी भारत में पहले की कृषि परम्परा बनी रही। भूमि सम्बन्धित कोई भी कुषाण अभिलेख नहीं प्राप्त होता है जिसके आधार पर कहा जा सके कि कुषाणों ने भी सातवाहनों के समान भूमि दान में देने की प्रथा बनाई; परन्तु समकालीन भारतीय साहित्य में कृषि कर्म, विभिन्न फसलों की उपज से सम्बन्धित उल्लेख मिलते हैं।
दक्कन में सातवाहनों के अधीन विस्तृत कृषि के प्रमाण मिलते हैं। दक्षिण और पश्चिमी समुद्रतटीय प्रदेशों में विभिन्न मसालों की खेती बड़े पैमाने पर होती थी। अतः गर्म मसालों का भारी मात्रा में निर्यात किया जाता था। सातवाहन राज्य और सूदूर दक्षिण के राज्यों में चावल और कपास की खेती भी बड़े पैमाने पर होती थी।
शिल्प और शिल्पकार
मौर्योत्तर कालीन सिन्धु घाटी व गंगा घाटी के स्थलों के उत्खननों से बड़ी संख्या में मिट्टी के बर्तन, मूर्तियाँ, धातु के सामान, हाथी दाँत और शीशे के सामान प्राप्त हुए हैं। मौर्योत्तर काल में गंगा घाटी सहित मध्य एशिया कुषाणों के साम्राज्य के अन्तर्गत था। ये उत्खनित स्थल हैं— तक्षशिला, पुष्कलावती, मथुरा, श्रावस्ती, कौशाम्बी, चिरान्द, वैशाली इत्यादि। इनसे विभिन्न शिल्पों एवं उद्योगों की विकसित स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है।
मौर्योत्तर साहित्यिक स्रोतों मिलिन्दपण्हो, महावस्तु, दिव्यावदान, अवदानशतक, अंगविज्जा आदि में अनेक शिल्पों, व्यवसायियों एवं उनके संघों का वर्णन है। मौर्यपूर्व काल की रचना ‘दीघनिकाय’ में लगभग २४ प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख मिलता है जबकि महावस्तु में राजगृह में रहने वाले ३६ प्रकार के व्यवसायियों का विवरण मिलता है। जबकि मौर्योत्तर कालीन रचना मिलिन्दपण्हो में ७५ व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है। इन ७५ व्यवसायियों में से ६० विभिन्न प्रकार के शिल्प से सम्बद्ध हैं। जातकों में जहाँ सिर्फ १८ व्यवसायिक संघों का उल्लेख मिलता है वहीं महावस्तु में ३६ व्यवसायिक संघों का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति में भी विभिन्न वर्गों के लिये व्यवसायों एवं उद्योगों का वर्णन मिलता है।
The Garland of Madurai नामक संगमकालीन रचना में शिल्प और कारीगरों पर उपर्युक्त बौद्ध ग्रंथों द्वारा दी गयी जानकारी का पूरक है। यह रचना शिल्पकारों और दुकानदारों के मध्य अंतर नहीं करती है। इस रचना के अनुसार कई शिल्पकार अपनी दुकानों में काम करते हैं, जिनमें चित्रकार, बुनकर, कपड़ा व्यापारी, फूलवाले, सुनार और ताँबा बनाने वाले शामिल हैं। ये कारीगर-दुकानदार नगर और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में पाये जाते थे परन्तु साहित्यिक ग्रंथों में कारीगरों का सम्बन्ध अधिकतर नगरों से बताया गया है। कुछ उत्खननों से ज्ञात होता है कि वे गाँवों में भी रहते थे।
तेलंगाना के करीमनगर में एक गाँव की बस्ती में बढ़ई, लोहार, सुनार, कुम्भकार और अन्य शिल्पकार अलग-अलग टोलों (मुहल्लों) में रहते थे और साथ ही कृषक और अन्य मजदूर एक छोर पर रहते थे।
सोना, चाँदी, सीसा, टिन, ताँबा, पीतल, लोहा और रत्न के काम वाले आठ शिल्प थे। पीतल, जस्ते, सुरमा (antimony) और लाल संखिया (red arsenic) के प्रभेदों का उल्लेख मिलता है। इससे खान और धातु कौशल में भारी प्रगति और विशेषीकरण के ज्ञान का पता चलता है।
मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन अभिलेखों में गंधिक, सुवर्णकार, मणिकार, लौहकार का उल्लेख मिलता है। साहित्यिक और अभिलेखीय स्रोतों में वर्णित व्यवसायी और शिल्पी अनेक प्रकार के थे। इनमें से कुछ उत्पादन से सम्बन्धित थे; जैसे— कुम्भकार, लुहार, बढ़ई, धातुकर्मी, वस्त्र बुननेवाले, शीशा और पत्थर तथा हाथीदाँत का सामान बनानेवाले, विभिन्न प्रकार के इत्र, मादक द्रव्य और चमड़े का काम करनेवाले।
कोल्हू के प्रचलन से तेल के उत्पादन में वृदधि हुई। इस काल के अभिलेख बतलाते हैं कि बुनकरों, सुनारों, रंगरेज़ों, धातुशिल्पियों, दन्तशिल्पियों, जौहरियों, मूर्तिकारों, मछुआरों, लोहारों, गन्धियों ने बौद्ध भिक्षुओं के लिये गुहाएँ बनवाईं तथा उन्हें स्तम्भ, पट्ट, कुंड आदि का दान दिया। इन सब से प्रकट होता है कि दस्तकारों के धन्धों में पर्याप्त उन्नति हुई थी।
उद्योग
मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था का आधार उस समय के विकसित उद्योग-धंधे थे। इस काल में सातवाहनों और कुषाणों के अधीन अनेक उद्योग विकसित अवस्था में पहुँच गये और नये उद्योग भी अस्तित्व में आये।
इसी तरह सुवर्णकार और मणिकार का व्यवसाय भी उन्नत स्थिति में था। सोने एवं अन्य धातुओं के आभूषण बनते थे। वस्त्र बुनना, इत्र, माला, लकड़ी के सामान बनाने, मोती निकालने का उद्योग भी विकसित स्थिति में था।
संगम साहित्य में भी विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों का उल्लेख मिलता है। नासिक से प्राप्त अभिलेखों में भी कुछ शिल्पों का उल्लेख किया गया है।
व्यवसायियों में नौकरी पेशा करनेवाले, स्वतंत्र रूप से काम करनेवाले भी सम्मिलित थे। ऐसे लोगों में नाटक करनेवाले, विदूषक, लेखक, नाई, रंगसाज का उल्लेख किया जा सकता है। लौह तकनीकी ज्ञान में पर्याप्त प्रगति हुई।
इनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है—
वस्त्र उद्योग
वस्त्र उद्योग पूर्व की भाँति इस काल में भी भारत का सर्वप्रमुख उद्योग था। मथुरा शाटक / सटक नामक विशेष प्रकार के वस्त्र निर्माण का बड़ा केंद्र हो गयी थी। इसी तरह काशी रेशम के वस्त्र के लिये प्रसिद्ध थी।
दक्षिण भारत कई नगरों में रंगरेज़ी (dyeing) उन्नत शिल्पकारी थी। तमिलनाडु में तिरुचिरापल्ली नगर के उपवर्ती नगर उरैयूर में ईंटों का बना रंगाई का हौज़ मिला है। अरिकमेडु में भी इस तरह के हौज़ मिले हैं। ये हौज़ ईसा की पहली-तीसरी सदियों के हैं। इन क्षेत्रों में करघे पर कपड़ा बुनने का व्यवसाय बहुत प्रचलित था।
लौह और इस्पात उद्योग
मौर्योत्तर काल में लौह और इस्पात उद्योग ने पर्याप्त प्रगति की थी। अनेक उत्खनन-स्थलों पर कुषाण और सातवाहनकालीन स्तरों में लौहशिल्प की वस्तुएँ अधिकाधिक संख्या में मिली हैं। परन्तु इस विषय में तेलंगाना सबसे समृद्ध प्रतीत होता है। तेलंगाना के करीमनगर और नालगोंडा जनपद लौह और इस्पात उद्योग के लिये प्रसिद्ध थे। करीमनगर से उत्खननों के दौरान लुहार के एक दुकान का प्रमाण मिला है। करीमनगर और नालगोंडा से लोहे के औजार तराजू की डंडी, मूठ वाले फावड़े, कुल्हाड़ियाँ, हँसिया, फाल, उस्तरा, करछुल इत्यादि लोहे की वस्तुएँ मिली हैं। छुरी-काँटे (cutlery) सहित भारतीय लौह-इस्पात का निर्यात अबीसीनियाई पत्तनों को किया जाता था और पश्चिम एशिया में उनकी बहुत माँग थी।
हस्ति-दन्त शिल्प उद्योग
विलास की वस्तुओं का उत्पादन करने वाले शिल्पों में हाथीदाँत का काम (ivory work), काँच का काम और मणि-माणिक्य बनाने का काम उल्लेखनीय है। सीप या शंख शिल्प भी उन्नत स्थिति में था। कुषाण स्थलों के उत्खनन में बहुत-सी शिल्प-वस्तुएँ मिली हैं। भारतीय दन्तशिल्प (Indian ivories) की वस्तुएँ अफगानिस्तान और रोम में भी मिली हैं। इनका सम्बन्ध दकन में सातवाहन स्थलों के उत्खनन में पायी गयी दन्तशिल्प की वस्तुओं से जोड़ा जाता है।
काँच उद्योग
रोम की काँच की वस्तुएँ तक्षशिला और अफगानिस्तान में मिलती हैं, लेकिन भारत ने काँच ढालने की जानकारी ईसवी सन् के आरम्भ में आकर प्राप्त की और उसे शिखर तक पहुँचाया। इसी तरह मौर्योत्तर स्तरों में रत्नतुल्य पत्थरों के मनके या मणियाँ बड़ी संख्या में मिलती हैं। इन्हीं स्तरों में शंख के बने मनके और कंगन भी प्राप्त होते हैं।
सिक्का ढालने की कला
सिक्कों की ढलाई (Coin-minting) महत्त्वपूर्ण शिल्प थी और मौर्योत्तर काल सोने, चाँदी, ताँबे, काँसे, शीशे (लेड) और पोटीन के तरह-तरह के सिक्के बनाने के लिये प्रख्यात है। शिल्पी लोग नकली रोमन सिक्के भी बना लेते थे।
सिक्का ढालने के कई तरह के साँचे उत्तर भारत और दकन में पाये गये हैं। सातवाहन स्तर से एक ऐसा साँचा मिला है जिससे एक बार में ही छह-छह सिक्के निकल आते थे।
यूनानियों, शकों, सातवाहनों और कुषाणों इन सभी ने सिक्कों के प्रसार में योगदान दिया। हालाँकि अगर हम संग्रहालयों में सिक्कों के संग्रह के आधार पर देखें तो ऐसा लगता है कि सातवाहनों ने सबसे अधिक सिक्के जारी किये। यहाँ तक कि जिन राजवंशों ने थोड़े समय के लिए शासन किया उन्होंने भी बड़ी संख्या में सिक्के जारी किये। यही स्थिति इंडो-ससानियों (Indo-Sassanians) की है जिनके सिक्के ब्रिटिश संग्रहालय सहित आधा दर्जन संग्रहालयों में पाये जाते हैं।
टेराकोटा
पकी मिट्टी (terracotta) की सुन्दर-सुन्दर मूर्तिका भी इस काल विशाल मात्रा में पायी गयी हैं। वे लगभग सभी कुषाण और सातवाहन स्थलों में पर पायी गयी हैं। प्रसंगवश काकीनाडा जिले (आन्ध्र प्रदेश) के येल्लश्वरम् (Yeleshwaram) का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है जहाँ मूर्तिकाएँ और उनके निर्माण के साँचे सबसे अधिक संख्या में मिले हैं। मूर्तिका और उनके साँचे हैदराबाद से लगभग ६५ किलोमीटर की दूरी पर कोंडापुर (Kondapur) (रंगारेड्डी जनपद; तेलंगाना) में भी पाये गये हैं। मूर्तिकाएँ अधिकतर नगर उच्च वर्गों के निवासियों के लिये बनती थीं। ध्यातव्य है कि गुप्त काल और विशेषकर गुप्तोत्तर काल में नगरों के पतन के साथ मूर्तिकाओं की संख्या बहुत घट गयी।
व्यापारियों के प्रकार
मदुरै की माला (The Garland of Madurai) में बाज़ार में खरीदारी और बिक्री करने वाले लोगों की सड़कों को चौड़ी नदियों से तुलना की गयी है। दुकानदारों का महत्त्व साकल (Sakala) नगर के वर्णन में अपान (Apana) शब्द की पुनरावृत्ति से संकेत मिलता है। इसकी दुकानें काशी, कोटुम्बरा और अन्य स्थलों पर बने विभिन्न प्रकार के कपड़ों से भरी हुई दिखायी देती हैं। कई शिल्पकार और व्यापारियों को श्रेणी और आयतन (Shreni & Ayatana) नामक संघों में संगठित किया गया था। परन्तु ये संगठन कैसे काम करते थे, इसका संकेत न तो महावस्तु में है और न ही मिलिंदपण्हों में। व्यापारी और शिल्पकार दोनों ही उच्च, निम्न और मध्यम श्रेणी में विभाजित थे।
बौद्ध ग्रंथों में श्रेष्ठी और सार्थवाह का उल्लेख मिलता है। श्रेष्ठी निगम का मुख्य व्यापारी था। सार्थवाह कारवाँ नेता जो व्यापारियों के निगम (वणिजग्रामों) का प्रमुख था। इसमें लगभग आधा दर्जन छोटे व्यापारियों का भी उल्लेख है जिन्हें वणिज कहा जाता था। वे फल, मूल (जड़ों), पके हुए भोजन, चीनी, छाल का कपड़ा, मकई या घास के ढेर और बाँस का व्यापार करते थे।
संगम साहित्यों में हम कई दुकानदारों के बारे में भी सुनते हैं। वे मीठे केक, सुगंधित पाउडर, भ्रूण के बीज (fatal quids) और फूलों की मालाएँ बेचते थे। इस प्रकार ये व्यापारी शहरी लोगों की भोजन, कपड़े और आवास सहित विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इनमें हम गांधिक नामक इत्र बनाने वाले या सभी उद्देश्यों के लिए काम करने वाले व्यापारी भी जोड़ सकते हैं। विभिन्न प्रकार के तेल व्यापारी, जिनमें से कुछ सुगंधित तेलों का व्यापार करने वाले भी गांधिक शब्द के अंतर्गत आते हैं। यही गांधिक / गंधिक वर्तमान गाँधी जाति के पूर्ववर्ती हैं।
व्यवहारी अर्थात् वह जो व्यापार करता है का भी प्रयोग किया जाता है परन्तु व्यापारी शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है।
अग्रवणिज (Agrivanija) शब्द अस्पष्ट लगता है परन्तु अगर हम कुछ भाषाई परिवर्तन की अनुमति दें तो ये व्यापारी अग्रवालों के पूर्ववर्ती हो सकते हैं। इस शब्द का अर्थ चाहे जो भी हो, निश्चित रूप से थोक व्यापारी थे जो आंतरिक और बाहरी दोनों तरह का व्यापार करते थे।
श्रेणी और निगम
उद्योग और व्यापार के विकास ने समुचित उत्पादन और वितरण के लिये समस्या खड़ी कर दी। इस समस्या के समाधान के लिये कारीगरों, शिल्पियों और व्यापारियों ने संघ या संगठन बनाये। श्रेणियों (शिल्पियों का संगठन) और निगमों (व्यापारिक संघ) की संख्या पहले से अधिक बढ़ गयी जैसा कि जातक और महावस्तु के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। अभिलेखों में भी अनेक श्रेणियों और निगमों का उल्लेख मिलता है। पश्चिमी दक्कन में गोवर्धन में अनेक शिल्पी संघ थे। मथुरा के अभिलेखों में भी कुछ श्रेणियों का उल्लेख मिलता है।
श्रेणी और निगम शिल्पियों और व्यापारियों के हितों की सुरक्षा करते थे। वे बैंक के समान भी काम करते थे। एक सातवाहन अभिलेख में इस बात का उल्लेख है कि महाराष्ट्र में बौद्ध उपासकों ने कुम्भकारों, तेलियों और जुलाहों के श्रेणियों के पास इस उद्देश्य से धन जमा करवाया था जिससे कि वे भिक्षुओं को वस्त्र और अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध करा सकें। इसी तरह मथुरा से प्राप्त हुविष्क के एक अभिलेख* में एक व्यक्ति द्वारा आटा पीसने वालों के श्रेणी के पास इतना अधिक धन जमा कराने का उल्लेख मिलता है जिसके मासिक ब्याज से सैकड़ों ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराया जा सके।
श्रेणी और निगम स्थानीय शासन, विशेषकर नगर प्रशासन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उनमें से कुछ अपनी मुद्राएँ एवं सिक्के भी चलाते थे। श्रेणी और निगम बौद्ध संघों को उदारतापूर्वक दान भी देते थे।
विभिन्न ग्रंथों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस काल के शिल्पियों की कम से कम चौबीस-पच्चीस श्रेणियाँ प्रचलित थीं। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अधिकतर शिल्पी मथुरा क्षेत्र में तथा पश्चिमी दकन में रहते थे, जो पश्चिमी समुद्र तट की ओर जाने वाले व्यापार-मार्ग पर पड़ते थे।
व्यापारिक मार्ग और केंद्र
इस अवधि का सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक विकास भारत और पूर्वी रोमन साम्राज्य के बीच सम्पन्न व्यापार था। प्रारम्भ में इस व्यापार का एक बड़ा हिस्सा स्थलीय मार्ग से होता था परन्तु पश्चिमोत्तर भारत और मध्य एशिया में शक, पार्थियन और कुषाणों के निरंतर संघर्ष ने स्थलीय मार्ग से होने वाले व्यापार को बाधित कर दिया। यद्यपि ईरान के पार्थियन भारत से लोहा और इस्पात आयात करते थे, तथापि उन्होंने ईरान के पश्चिम में स्थित भूमि के साथ भारत के साथ व्यापार में बड़ी बाधाएँ खड़ी कीं। अतएव पहली शताब्दी ईस्वी से व्यापार मुख्य रूप से समुद्र के रास्ते होने लगा था।
पहली शताब्दी ईसवी में हिप्पॉलस ने अरब सागर में मानसूनी हवाओं के सम्बन्ध में जानकारी दी। मानसूनी हवाओं को समझने से पूर्व समुद्री जहाज बहुत कम आते-जाते थे। इन मानसूनी हवाओं के सहारे अरब सागर को पार करने में आसानी होने लगी और समुद्र के माध्यम से व्यापार में तेजी आयी। पश्चिमी देशों से जहाज अब भारत के पश्चिमी तट पर स्थित भरूच और सोपारा और पूर्वी तट पर स्थित अरिकामेडु और ताम्रलिप्ति जैसे विभिन्न बंदरगाहों पर आसानी से पहुँचने लगे।
इन सभी बंदरगाहों में से भरूच सबसे महत्त्वपूर्ण और समृद्ध प्रतीत होता है। इस पत्तन पर न केवल सातवाहन साम्राज्य में उत्पादित वस्तुएँ वरन् शक और कुषाण साम्राज्यों में उत्पादित सामान भी लाया जाता था।
उत्तर-पश्चिमी सीमा से पश्चिमी समुद्र तट तक पहुँचने के लिये शक और कुषाण दो मार्गों का उपयोग करते थे। ये दोनों मार्ग तक्षशिला में आकर मिलते थे। तक्षशिला से आगे जाकर यह मार्ग मध्य एशिया से गुजरने वाले ‘रेशम मार्ग’ से जुड़ा हुआ था। पहला मार्ग तक्षशिला निचली सिंधु घाटी से जोड़ता था जहाँ से यह भरूच तक जाता था। दूसरा मार्ग जिसे उत्तरपथ कहा जाता है और यह अधिक उपयोग में था। उत्तरापथ तक्षशिला आधुनिक पंजाब से होकर यमुना के पूर्वी तट तक जाता था। यमुना के मार्ग का अनुसरण करते हुए यह दक्षिण की ओर मथुरा तक पहुँचता था। आगे यह मार्ग मथुरा से मालवा में उज्जैन और फिर उज्जैन से पश्चिमी तट पर भरूच तक पहुँचता था। उज्जैन एक अन्य मार्ग का मिलन बिंदु था जो वर्तमान प्रयागराज के पास कौशाम्बी से शुरू हुआ था। उत्तरापथ यमुना नदी के सहारे होता हुआ कौशाम्बी तक पहुँचता था। फिर यही आगे गंगा नदी के सहारे काशी और पाटलिपुत्र से होते हुए पूर्वी तट के ताम्रलिप्ति पत्तन से जुड़ा था।
दक्षिण भारत के स्थलीय मार्ग का विकास मौर्योत्तर काल में हुआ। भरूच से आगे यह मार्ग प्रतिष्ठान और तगर तक जाता था। पश्चिमी तट पर भरूच के अतिरिक्त कल्याण और सोपारा पत्तन थे। संगमकालीन राज्यों में पूर्वी और पश्चिमी तट पर अनेक पत्तन थे जहाँ से रोमन साम्राज्य और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार फल-फूल रहा था।
व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने वाले कारक
मौर्योत्तर काल व्यापार और वाणिज्य (Trade & commerce) की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है। इसके प्रमुख कारक निम्नलिखित थे—
- शिल्प और उद्योग का विकास
- श्रेणी व्यवस्था
- मुद्रा व्यवस्था
- नगरों का विकास
- बंदरगाहों का विकास
- मानसूनी हवाओं की जानकारी
- कुछ पुस्तकों द्वारा द्वारा भौगोलिक चर्चा से व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा
- शक-कुषाण-सातवाहन-संगम राज्यों द्वारा शान्ति व सुरक्षा
विस्तृत विवरण के लिये देखें — मौर्योत्तर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने वाले कारक
विदेशी व्यापार में सामान
हालाँकि भारत और रोम के बीच व्यापार की मात्रा बहुत अधिक थी परन्तु यह आम लोगों के रोजमर्रा प्रयोग की वस्तुओं में नहीं होता था। इस व्यापार में विलासिता की वस्तुएँ (luxury goods) या आभिजात्य आवश्यकता (aristocratic necessities) की वस्तुएँ अधिक होती थीं।
रोमन साम्राज्य का भारत के संगमकालीन तमिल राज्यों से व्यापार पहले प्रारम्भ हुआ; क्योंकि रोमन सिक्के तमिल राज्यों में पाये गये हैं। रोमन साम्राज्य को मुख्य रूप से मसालों का निर्यात किया जाता था जिसके लिए दक्षिण भारत प्रसिद्ध था। रोम को मध्य और दक्षिण भारत से मलमल (muslin), मोती (pearls), गहने (jewels) और कीमती पत्थर (precious stones) भी निर्यात किया जाता था। लोहे के सामान, मुख्यतः छूरी-काँटा (cutlery), रोमन साम्राज्य को निर्यात की महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ थीं। मोती (pearls), हाथी दाँत (ivory), कीमती पत्थर (precious stones) और जानवरों को विलासिता की वस्तुएँ (luxury goods) या आभिजात्य आवश्यकता (aristocratic necessities) की वस्तुएँ माना जाता था परन्तु पौधे और पौध-उत्पाद लोगों की बुनियादी धार्मिक, अंत्येष्टि, पाककला और औषधीय आवश्यकताओं को पूरा करते थे। रोम को निर्यातित वस्तुओं में रसोई के बर्तन (Kitchenware) शामिल हो सकते हैं और उसमें से छूरी-काँटा (cutlery) उच्च वर्ग के लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है।
रोमन साम्राज्य को सीधे आपूर्ति की जाने वाली वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ वस्तुएँ चीन, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व-एशिया से भारत लायी जाती थीं और फिर रोमन साम्राज्य को भेजी जाती थीं।
रेशम को चीन से मध्य एशिया, उत्तरी अफगानिस्तान और ईरान से होते हुए जाने वाले रेशम मार्ग से रोमन साम्राज्य में भेजा जाता था। परन्तु जैसाकि हम जानते हैं कि मौर्योत्तर काल में पहले तो शक, पह्लव व कुषाणों के पारस्परिक संघर्ष के कारण मध्य एशिया बहुत अशान्त रहा और जब पार्थियनों ने ईरान पर अधिकार कर लिया तो रोमनों से संघर्ष के कारण रेशम मार्ग से व्यापार करना दुरूह हो गया। ईरानी पार्थियनों और रोमन साम्राज्य के मध्य शत्रुता कारण चीन व रोम व्यापार प्रभावित हुआ था।
कुषाणों ने एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की जिसमें मध्य एशिया से लेकर गंगा घाटी का एक बड़ा हिस्सा सम्मिलित था। रेशम मार्ग मध्य एशिया से होकर गुजरता था। इसका परिणाम यह हुआ कि रेशम व्यापार के लिये वैकल्पिक मार्ग की सुविधा प्राप्त हो गयी। अब रेशम का व्यापार भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग से होते हुए पश्चिमी भारतीय बंदरगाहों से होने लगा। साथ ही चीन से रेशम कुछ मात्रा में भारत के पूर्वी तट तक भी पहुँच जाता था और वहाँ से रोम को भेजा जाता था। इस प्रकार भारत और रोमन साम्राज्य के बीच रेशम के व्यापार की प्रकृति पारगमन व्यापार (transit trade) की थी।
रोमन साम्राज्य से भारत को आयातित की जाने वाली वस्तुओं में रोमन मदिरा, मदिरा-पात्र (wine-amphorae) और कई अन्य प्रकार के मृद्भाण्ड सम्मिलित थे। ये वस्तुएँ पश्चिम बंगाल के ताम्रलिप्ति, पांडिचेरी के पास अरिकामेडु और दक्षिण भारत के कई अन्य स्थलों के उत्खनन में पाये गये हैं। कभी-कभी रोमन वस्तुएँ गुवाहाटी तक भी जाते थे। सीसे का आयात कुंडलित पट्टिकाओं के रूप में रोमन साम्राज्य से किया जाता था और इसका प्रयोग सातवाहनों ने सिक्के बनाने में किया।
रोमन वस्तुओं के अवशेष जितने दक्षिणी भारत से मिलते हैं उतने उत्तरी भारत से नहीं मिलते हैं। परन्तु इसमें संदेह नहीं कि कुषाण साम्राज्य के उदय से उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग ने रोमन साम्राज्य के पूर्वी भाग के साथ व्यापार किया जाता था। यह व्यापार तब और सुगम हो गया जब रोमनों ने मेसोपोटामिया को ११५ ई० में विजित कर लिया। रोमन सम्राट ट्रोजन (Trojan) ने न केवल मस्कट (Muscat) पर विजय प्राप्त की वरन् फारस की खाड़ी का भी पता लगाया। इस विजय ने भारतीय उपमहाद्वीप के साथ रोम के व्यापार को सुगम बनाया। अब रोमन वस्तुएँ अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत तक पहुँचने लगे। काबुल के उत्तर में स्थित बेग्राम से इटली, मिस्र और सीरिया (रोमन साम्राज्य का अंग) में बने बड़े काँच के जार पाये गये हैं।
इसके अतिरिक्त वहाँ कटोरे, कांस्य स्टैंड, स्टील के गज और पश्चिमी मूल के बाट, छोटी ग्रीको-रोमन कांस्य मूर्तियाँ, सुराही और सेलखड़ी (alabaster) से बने अन्य पात्र भी पाये गये हैं। तक्षशिला से कांस्य में ग्रीको-रोमन मूर्तिकला के बेहतरीन उदाहरण प्राप्त होते हैं। चाँदी के आभूषण, कुछ कांस्य बर्तन, एक जार और रोमन सम्राट टिबेरियस के सिक्के भी पाये गये हैं। हालाँकि एरेटिन मिट्टी के पात्र (Arretine pottery) जो नियमित रूप से दक्षिण भारत में पाये जाते हैं वे न तो मध्य और पश्चिमी भारत में और न ही अफ़गानिस्तान में दिखायी देते हैं। स्पष्ट रूप से इन स्थानों पर वे लोकप्रिय वस्तुएँ नहीं मिलते जो कि विंध्य के दक्षिण में सातवाहन साम्राज्य में और आगे सुदूर दक्षिण में मिलते हैं। यद्यपि सातवाहन और कुषाण दोनों के राज्यों ने रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार से लाभ कमाया तथापि सर्वाधिक लाभ सातवाहनों को ही हुआ।
रोमन साम्राज्य और भारतीय उपमहाद्वीप के व्यापार में भारत लाभ की स्थिति में था। इसलिये रोम से व्यापारिक विनिमय के लिये बड़ी मात्रा में सोने और चाँदी के सिक्के आते थे, हालाँकि कुछ रोमन ताम्र सिक्कों के प्रमाण भी मिलते हैं। पूरे उप-महाद्वीप में रोमन सिक्कों की लगभग १५० भंडार प्राप्त होते हैं परन्तु उनमें से अधिकांश विंध्य के दक्षिण से हैं। भारत में पाये गये रोमन स्वर्ण और चाँदी के सिक्कों की कुल संख्या ६,००० से अधिक नहीं है परन्तु यह कहना मुश्किल है कि केवल इतनी संख्या में सिक्के रोम से आये होंगे। व्यापार की मात्रा से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह संख्या बहुत अधिक रही होगी।
यह रोमन लेखक प्लिनी (लातिन भाषा में नेचुरल हिस्ट्री, ७७ ई०) की शिकायत इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भारत के साथ व्यापार के कारण रोम का सोना समाप्त हो रहा है। प्लिनी की यह बात अतिशयोक्ति हो सकती है परन्तु २२ ईस्वी के प्रारम्भ में हमें रोम द्वारा पूर्व से काली मिर्च की के आयात पर अत्यधिक खर्च के विरुद्ध शिकायतें सुनते हैं। पश्चिमी लोग काली मिर्च को बहुत अधिक आयात करते थे इसलिये संस्कृत भाषा में इसका नाम ही ‘यवनप्रिय’ पड़ गया। भारतीय स्टील के बने छुरी-काँटे (cutlery) के प्रयोग के विरुध्द भी आवाजें उठीं क्योंकि इसके लिये आभिजात्य वर्ग बहुत अधिक धन देते थे।
व्यापार संतुलन की अवधारणा शायद तब ज्ञात नहीं थी, लेकिन प्रायद्वीप में रोमन सिक्कों और मिट्टी के बर्तनों की कई खोजों से कोई संदेह नहीं है कि भारत रोमन साम्राज्य के साथ अपने व्यापार में लाभ में था। रोमन धन की हानि इतनी गहराई से महसूस की गई कि अंततः रोम में काली मिर्च और स्टील के सामान में भारत के साथ अपने व्यापार पर प्रतिबंध लगाने के लिए कदम उठाने पड़े।
ऐसा प्रतीत होता है कि इंडो-रोमन व्यापार और शिपिंग में प्रमुख भूमिका रोमनों द्वारा निभायी गयी थी। हालाँकि रोमन व्यापारी दक्षिण भारत में रहते थे, लेकिन रोमन साम्राज्य में भारतीय निवासियों के बहुत कम प्रमाण मिलते हैं। तमिल में भित्तिचित्रों वाले कुछ बर्तनों के टुकड़ों से पता चलता है कि कुछ तमिल व्यापारी रोमन काल में मिस्र में रहते थे।
रोम से व्यापार
मौर्योत्तर भारत का व्यापारिक सम्बन्ध समुद्री मार्ग द्वारा रोमन साम्राज्य से था। रोम में भारत की वस्तुओं की माँग बहुत अधिक थी। अतः दक्षिण और पश्चिमी तट के बंदरगाहों से भारत का रोमन साम्राज्य से व्यापार विकसित हुआ।
पेरिप्लस ऑफ दी एरिथ्रीयन सी, प्लिनी की नेचुरल हिस्ट्री, टॉलमी के ज्योग्रफी तथा संगम साहित्य से भारत के विदेशी व्यापार, भारत के प्रमुख बंदरगाहों, आयात-निर्यात की वस्तुओं की जानकारी मिलती है।
रोम भारत से भारतीय दास, रसोइया, हाथी को प्रशिक्षित करनेवालों, वेश्याओं, बंदर, लंगूर, मोर, चमड़ा और ऊन के बने वस्त्र, बाघ की छाल, घी, मोती, विभिन्न प्रकार के सुगंधित पदार्थ, फल और सब्जियाँ, गर्म मसालों में दालचीनी, अदरक, मिर्च; चीनी, महीन मलमल के वस्त्र, विभिन्न रत्न; जैसे— हीरा, ताँबा, लोहा तथा इस्पात और इस्पात से बने सामान मँगवाता था।
रोम से आयातित वस्तुओं में मुख्यतः कच्चे माल थे परन्तु निर्यात वह विलासिता की वस्तुओं का करता था। भारत रोम से मुख्यतः गुलाम, नाचने-गानेवाली लड़कियाँ, लाल मूँगा, शराब, वस्त्र, शीशे के बर्तन और सोने के सिक्के आयात करता था।
रोम का व्यापार भारत के लिए अत्यन्त लाभदायक था। इस व्यापार के परिणामस्वरूप भारत में बड़ी मात्रा में सोना आने लगा। रोम में भारतीय वस्तुओं की इतनी अधिक माँग थी कि रोमन इन वस्तुओं के लिये अत्यधिक धन खर्च करने लगे। भारतीय सामानों ने रोम में विलासिता को भी बढ़ावा दिया। महीन मलमल और मोती के पीछे स्त्रियाँ पागल रहती थीं। गर्म मसाले की भी बहुत अधिक माँग थी। इस व्यापार से रोम को घाटा हो रहा था। भारत के साथ होनेवाले व्यापार से रोम को जो आर्थिक और नैतिक क्षति हो रही थी उस विषय पर रोमन सीनेट में चिंता व्यक्त की गई। प्लिनी इसका उल्लेख करता है।*
“At the lowest computation India, Seres and Arabia drained from the Empire a hundred million Sesterces every year….and that India took away from Rome not less than fifty-five million Sesterces yearly, giving in return merchandise which was sold for one hundred times its original cost…..”* — PLINY
ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय-रोमन व्यापार में रोमन व्यापारी ही मुख्य भूमिका निभाते थे। पांडिचेरी के निकट अरिकामेडु से एक यवन (रोमन) बस्ती का प्रमाण मिला है। संगम साहित्य में भी यवन व्यापारियों के दक्षिण में बसने का उल्लेख मिलता है। कुछ भारतीय व्यापारी भी रोम गये होंगे, लेकिन भारतीय व्यापारियों की भूमिका मध्यस्थ जैसी ही रही होगी।
इसी काल में भारत का मध्य एशिया, चीन और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से सम्बन्ध बढ़ा। मध्य एशिया और गान्धार प्रदेश स्थल मार्ग से जुड़े हुए थे जिनसे विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान होता था। चीन से चीनी रेशम (Chinese silk) भारत लाकर रोम को भेजा जाता था। दक्षिण-पूर्व एशिया से भारत खनिज, मसाले, सुगंधित पदार्थ इत्यादि मँगवा कर रोम को भेजता था। इस व्यापार में (मध्य एशियाई और दक्षिण-पूर्वीय) भारतीयों की सीधी भागीदारी प्रतीत होती है।
भारत के विकसित विदेशी व्यापार का प्रमाण पुरातात्त्विक साक्ष्यों से मिलता है। दक्षिण और पश्चिम भारत के अनेक उत्खनित स्थलों से भारतीय-रोमन व्यापार का प्रमाण मिलते है। अरिकामेडु (पांडिचेरी के निकट) के उत्खननों से एक रोमन बस्ती का प्रमाण मिला है। भारत के अनेक भागों; जैसे— पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, मद्रास, कोचीन, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर इत्यादि से रोमन सिक्के पाये गये हैं। इन सिक्कों की अनुकृतियाँ भी पायी गयी हैं। रोमन सिक्के अधिकतर दक्षिण-पश्चिमी भाग में पाये गये हैं। इसी तरह भूमध्यसागरीय मूल की वस्तुएँ; जैसे— ‘एरेटाइन पात्र’ और ‘एम्फोरा’ (Arretine ware and amphorae), शीशे के पात्र, मनके, इत्यादि पाये गये हैं। तक्षशिला से भी यूनानी-रोमन प्रभाववाली कुछ वस्तुएँ मिली हैं। भारत में बनी कुछ वस्तुएँ भी भूमध्यसागरीय क्षेत्र और मध्य एशिया में मिली हैं। इनमें सर्वप्रमुख मथुरा में बनी कुषाणकाल की हाथीदाँत की लक्ष्मी की मूर्ति है। यह मूर्ति इटली के पोम्पई नगर में मिली थी। बेग्राम में भी कुषाणकालीन हाथीदाँत की वस्तुएँ मिली हैं। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि मौर्योत्तर काल में अंतर्देशीय और विदेशी व्यापार का विकास हुआ।
विस्तृत विवरण के लिये देखें — भारत और रोम सम्बन्ध