मथुरा कला शैली

भूमिका

कुषाण काल में मथुरा भी कला का प्रमुख केन्द्र था जहाँ अनेक स्तूपों, विहारों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया गया। इस समय तक शिल्पकारी एवं मूर्ति निर्माण के लिये मथुरा के कलाकार दूर-दूर तक प्रख्यात हो चुके थे। दुर्भाग्यवश वर्तमान में वहाँ एक भी विहार शेष नहीं है। परन्तु यहाँ से अनेक हिन्दू, बौद्ध एवं जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। इनमें से अधिकांशतः कुषाण काल की हैं। कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के समय में मथुरा कला का सर्वोत्कृष्ट विकास हुआ।

मथुरा कला बनाम गान्धार कला

पहले यह माना जाता था कि गान्धार की बौद्ध मूर्तियों के प्रभाव और अनुकरण पर ही मथुरा की बौद्ध मूर्तियों का निर्माण हुआ था, परन्तु अब यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो चुका है कि मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ गान्धार से सर्वथा स्वतंत्र थीं तथा उनका आधार मूल रूप से भारतीय ही था।
वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार सर्वप्रथम मथुरा में ही बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया जहाँ इनके लिये पर्याप्त धार्मिक आधार था। उनकी मान्यता है कि कोई मूर्ति तब तक नहीं बनायी जा सकती जब तक उसके लिये धार्मिक माँग न हो। मूर्ति की कल्पना धार्मिक भावना की तुष्टि के लिये होती है।
इस बात के प्रमाण हैं कि मथुरा ईसा पूर्व पहली शताब्दी में ‘मथुरा भक्ति आन्दोलन’ का केन्द्र बन गया था जहाँ संकर्षण, वासुदेव तथा पंचवीरों (बलराम, कृष्ण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा साम्ब) की प्रतिमाओं के साथ ही साथ जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का भी पूर्ण विकास हो चुका था। इसका प्रभाव बौद्ध धर्म पर पड़ा। फलस्वरूप बौद्धों को भी बुद्ध मूर्ति के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई।
कनिष्क के शासनकाल में ‘महायान’ बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हो गया। इसमें बुद्ध की मूर्तिरूप में पूजा किये जाने का विधान था। बौद्धों की तृप्ति अब केवल प्रतीक पूजा से नहीं हो सकती थी। उन्हें महात्मा बुद्ध को मानव मूर्ति के रूप में देखने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इसी भावना से मथुरा के शिल्पियों द्वारा पहले बोधिसत्व तथा फिर बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया।
जहाँ तक गान्धार का प्रश्न है हमें वहाँ किसी भी प्रकार के धार्मिक आन्दोलन का प्रमाण नहीं मिलता है। यह नहीं कहा जा सकता कि मथुरा या गान्धार के किसी शिल्पी ने क्षणिक भावावेश में आकर बुद्ध मूर्ति की रचना कर ली हो। अपितु यही मानना तर्कसंगत है कि बुद्धमूर्ति रचना की पृष्ठभूमि काफी पहले से ही प्रस्तुत की गयी होगी और यह पृष्ठभूमि मथुरा के धार्मिक आन्दोलन से तैयार हुई।
मथुरा से कुछ ऐसी बोधिसत्व प्रतिमायें मिली है जिन पर कनिष्क संवत् की प्रारम्भिक तिथियों में लेख खुदे हैं। इसके विपरीत गान्धार कला की मूर्तियों में से एक पर भी कोई परिचित सम्वत् नहीं है। जो तीन-चार तिथियाँ मिलती हैं उनके आधार पर गान्धार कला का समय पहली से तीसरी शती ईस्वी के मध्य ठहरता है।
इस तरह मथुरा की बौद्ध प्रतिमायें प्राचीनतर सिद्ध होती हैं। इस प्रसंग में एक अन्य विचारणीय बात यह है कि गान्धार मूर्तियों पर जो बौद्ध प्रतिमा लक्षण के चिह्न जैसे प‌द्मासन, ध्यान, नासाग्रदृष्टि, उष्णीश आदि मिलते हैं उनका स्रोत भारतीय ही है न कि ईरानी तथा यूनानी।
स्पष्टरूप से गान्धार के शिल्पकारों ने इन प्रतिमा लक्षणों को मथुरा के शिल्पियों से ही ग्रहण किया था जो उनके पूर्व इन प्रतिमा लक्षणों से युक्त बोधिसत्व तथा बुद्ध की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण कर चुके थे। इस तरह यह स्पष्ट है कि बुद्ध मूर्तियाँ सर्वप्रथम मथुरा में ही बनायी गयीं। यदि वे गान्धार में विदेशी कलाकारों द्वारा गढ़ी गयी होतीं तो उनमें प्रतिमा-लक्षण के विविध चिह्न कदापि नहीं आये होते क्योंकि यूनानी तथा ईरानी कला में इन लक्षणों का अभाव था।
अग्रवाल महोदय (भारतीय कला) ने मथुरा की बोधिसत्व तथा बुद्ध प्रतिमाओं का स्रोत यक्ष प्रतिमाओं (विशेषकर परखम यक्ष जैसी बड़ी प्रतिमाओं) को माना है।

बौद्ध मूर्तियाँ

मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खड़ी तथा बैठी मुद्रा में बनी हुई मूर्तियाँ मिली है। उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है।

पद्मासन में महात्मा बुद्ध ‘अभय मुद्रा’ में, कटरा टीला, मथुरा

बुद्ध मूर्तियों में कटरा से प्राप्त मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसे चौकी पर उत्कीर्ण लेख में ‘बोधिसत्व’ की संज्ञा दी गयी है। इसमें महात्मा बुद्ध को भिक्षु वेष धारण किये हुए दिखाया गया है। वे बोधिवृक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान हैं तथा उनका दायाँ हाथ “अभय मुद्रा” में ऊपर उठा हुआ है। उनकी हथेली तथा तलवों पर ‘धर्मचक्र’ तथा ‘त्रिरत्न’ के चिह्न अंकित हैं। महात्मा बुद्ध के दोनों ओर चामर लिये हुए पुरुष हैं तथा ऊपर से देवताओं को उनके ऊपर पुष्प की वर्षा करते हुए दिखाया गया है।

महात्मा बुद्ध के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल प्रदर्शित किया गया है। उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व की मूर्तियों में हमें प्रभामण्डल दिखायी नहीं देता। अनेक विद्वान् इसके पीछे ईरानी प्रेरणा स्वीकार करते हैं जहाँ देव मूर्तियों के पृष्ठभाग में प्रभामण्डल बनाने की प्रथा थी। इस प्रकार समग्र रूप से यह मूर्ति कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त प्रशंसनीय है।

बौद्ध मूर्तियाँ, मथुरा कला

अन्योर से मिली महात्मा बुद्ध की प्रतिमा ‘अभय मुद्रा’ में, मथुरा

अभयमुद्रा में आसीन बुद्ध की एक मूर्ति “अन्योर” से प्राप्त हुई है जिसे ‘बोधिसत्व’ की संज्ञा दी गयी है। इस पर कनिष्क सम्वत् ५१ अर्थात् १२९ ई० की तिथि अंकित है।

अन्य बौद्ध मूर्तियाँ

महात्मा बुद्ध मूर्तियों के अतिरिक्त मैत्रेय, काश्यप, अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्व-मूर्तियाँ भी मथुरा से प्राप्त होती हैं।

मैत्रेय भविष्य में अवतार लेने वाले बुद्ध हैं। मान्यता के अनुसार शाक्य बुद्ध के परिनिर्वाण के चार हजार वर्षों पश्चात् उनका जन्म होगा। मैत्रेय मूर्तियों में उनका दायाँ हाथ ‘अभय मुद्रा’ में अथवा ‘कमल नाल’ लिये हुए तथा बायाँ हाथ ‘अमृत घट’ लिये हुए दर्शाया गया है। काश्यप को सप्तमानुषी बुद्धों में गिना जाता है। इनका चित्रण भी मिलता है।

मैत्रेय और काश्यप मूर्ति; मथुरा कला

ये मूर्तियाँ सफेद, चित्तीदार, लाल एवं रवादार पत्थर से बनी हैं।

गान्धार मूर्तियों के विपरीत ये सभी ‘आध्यात्मिकता’ एवं ‘भावना’ प्रधान हैं। अनेक मूर्तियाँ वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं। बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें भी स्तम्भों पर मिलती हैं। जन्म, अभिषेक, महाभिनिष्क्रमण, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन, महापरिनिर्वाण इत्यादि उनके जीवन की विविध घटनाओं का कुशलतापूर्वक अंकन मथुरा कला के शिल्पकारों द्वारा किया गया है।

यहाँ के कलाकारों ने ईरानी तथा यूनानी कला के कुछ प्रतीकों को भी ग्रहण कर उन पर भारतीयता का रंग चढ़ा दिया। यही कारण है कि मधुरा की कुछ बुद्ध मूर्तियों में गान्धार मूर्तिकला के लक्षण दिखायी देते हैं; यथा — कुछ मूर्तियों में मूँछ तथा पैरों में चप्पल दिखाया गया है। कुछ उपासकों की भी मूर्तियाँ हैं जो अपने हाथ जोड़े हुए तथा माला ग्रहण किये हुए प्रदर्शित किये गये हैं। कुछ दृश्य महाभारत की कथाओं का प्रतिनिधित्व करते है।

मथुरा शैली में शिल्पकारी के भी सुन्दर नमूने मिलते हैं।

गान्धार मूर्तियों के विपरीत ये सभी ‘आध्यात्मिकता’ एवं ‘भावना’ प्रधान हैं। अनेक मूर्तियाँ वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं। बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें भी स्तम्भों पर मिलती हैं। जन्म, अभिषेक, महाभिनिष्क्रमण, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन, महापरिनिर्वाण इत्यादि उनके जीवन की विविध घटनाओं का कुशलतापूर्वक अंकन मथुरा कला के शिल्पकारों द्वारा किया गया है।

यहाँ के कलाकारों ने ईरानी तथा यूनानी कला के कुछ प्रतीकों को भी ग्रहण कर उन पर भारतीयता का रंग चढ़ा दिया। यही कारण है कि मधुरा की कुछ बुद्ध मूर्तियों में गान्धार मूर्तिकला के लक्षण दिखायी देते हैं; यथा — कुछ मूर्तियों में मूँछ तथा पैरों में चप्पल दिखाया गया है। कुछ उपासकों की भी मूर्तियाँ हैं जो अपने हाथ जोड़े हुए तथा माला ग्रहण किये हुए प्रदर्शित किये गये हैं। कुछ दृश्य महाभारत की कथाओं का प्रतिनिधित्व करते है।

मथुरा शैली में शिल्पकारी के भी सुन्दर नमूने मिलते हैं।

हिन्दू मूर्तियाँ

मथुरा के शिल्पियों ने बुद्ध-बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त हिन्दू एवं जैन मूर्तियों का भी निर्माण किया था।

हिन्दू देवताओं में विष्णु, सूर्य, शिव, कुबेर, नाग, यक्ष की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई है जो अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। मथुरा तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों से अब तक चालीस से भी अधिक विष्णु मूर्तियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। अधिकांश चतुर्भुजी है। इनके तीन हाथ में शंख, चक्र, गदा दिखाया गया है और चौथा हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। इनकी बनावट बोधिसत्व मैत्रेय की मूर्तियों सदृश है। यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि भगवान विष्णु का लोकप्रिय प्रतीक पद्म मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों में नहीं मिलता। कुछ मूर्तियों में गरुड़ का भी अंकन मिलता है।

विष्णु प्रतिमा; मथुरा कला

भगवान विष्णु के अवतारों से सम्बन्धित मूर्तियाँ प्रायः यहाँ नहीं मिलती हैं। मात्र वाराह अवतार की एक प्रतिमा तथा कृष्ण लीलाओं से सम्बन्धित दो दृश्यांकन प्राप्त हुए हैं। मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित एक शिलापट्ट पर बालक कृष्ण को सिर पर लाद कर गोकुल ले जाते हुए वसुदेव तथा दूसरे पर कृष्ण द्वारा अश्व रूप धारण कर केशी असुर पर पैर से प्रहार करते हुए चित्रित किया गया है। वाराह प्रतिमा भग्न अवस्था में मिलती हैं। इसकी छाती पर ‘श्रीवत्स’ का प्रतीक अंकित है।

शिव प्रतिमायें लिंग तथा मानव दोनों ही रूपों में प्राप्त होती हैं। शिव लिंग कई प्रकार के है; यथा— एक मुखी, दो मुखी, चार मुखी, पाँच मुखी इत्यादि।

शिव के साथ उनकी अर्धांगिनी पार्वती की प्रतिमा पहली बार सम्भवतः मथुरा में ही कुषाणकालीन कलाकारों द्वारा निर्मित की गयी थीं। मथुरा में इस समय “पाशुपत सम्प्रदाय” के अनुयायी बड़ी संख्या में निवास करते थे। उनमें लिंग पूजा का व्यापक प्रचलन था। यही कारण है कि यहाँ अनेक प्रकार के लिंगों का निर्माण किया गया। इस काल की शिव मूर्तियों में जटा जूट, मस्तक पर तीसरा नेत्र, त्रिशूल तथा वाहन नन्दी को प्रदर्शित किया गया है। अर्ध-नारीश्वर रूप में (जिसमें आधा भाग शिव तथा आधा पार्वती का है) शिव की मूर्ति पहली बार इसी काल में मथुरा में निर्मित की गयी थी। शिव की विविध रूपों वाली मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से काफी सुन्दर है।

मथुरा कला में सूर्य की प्रतिमाओं का भी निर्माण किया गया। ईरानी प्रभाव के कारण इन्हें सर्वधा भिन्न प्रकार से तैयार किया गया है। मानव रूप में सूर्य को लम्बी कोट, पतलून तथा बूट पहने हुए दो या चार घोड़ों के रथारूढ़ दिखाया गया है। उनके सिर पर गोल तथा चपटी टोपी, कन्धों पर लहराते केश तथा मुँह पर नुकीली मूँछें दिखायी गयी हैं। इसी तरह की वेशभूषा कुषाण राजाओं की मूर्तियों में भी देखने को मिलती है। स्पष्टतया यह ईरानी परम्परा है। आर० जी० भण्डारकर महोदय का विचार है कि भारत में सूर्य की पूजा ईरान से यहाँ आने वाले मग नामक पुरोहितों द्वारा प्रारम्भ की गयी थी।

सूर्य; मथुरा कला

हिन्दू धर्म के इन प्रमुख देवताओं के अतिरिक्त मथुरा की कुषाणकालीन कला में कार्तिकेय, कुबेर, इन्द्र, गणेश, अग्नि आदि की मूर्तियों को भी बनाया गया। लोक देवताओं में यक्षों, किन्नरों, नागों, गन्धर्वों आदि की प्रतिमायें मिलती है। देवी मूर्तियों में दुर्गा, लक्ष्मी, हारीति, सप्तमातृका इत्यादि हैं।

लक्ष्मी को कमल पर बैठी हुई (पद्मासना) मुद्रा में दिखाया गया है। वी० एस० अग्रवाल ने लक्ष्मी की एक ऐसी अनुपम मूर्ति का उल्लेख किया है जो कमलों से भरे पूर्णघट पर खड़ी है। अपने बायें हाथ से दुग्ध धारिणी मुद्रा में दूध की धार छोड़ती हुई दिखायी गयी हैं। उसके पीछे सनाल कमलों का सुन्दर चित्रण हुआ है जिसकी उठती हुई बेल पर मोर-मोरनी का जोड़ा बना है। वह किसी प्रतिभाशाली कुषाण शिल्प की उत्तम कृति है।

देवी दुर्गा की चतुर्भुजी मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। कई मूर्तियाँ महिषमर्दिनी रूप की हैं।

महिषासुरमर्दिनी और सप्तमातृका प्रतिमा; मथुरा कला

सप्तमातृकाओं (ब्रह्माणी, वैष्णवी, माहेश्वरी, इन्द्राणी, कौमारी, वाराही तथा चामुण्डा) की मूर्तियों में उन्हें साधारण वेश में घाघरा पहने हुए दिखाया गया है।

जैन मूतियाँ तथा आयागपट्ट

मथुरा तथा उसके समीपवर्ती भाग से जैन तीर्थंकरों की प्रस्तर प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं— खड़ी मूर्तियाँ जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं तथा बैठी हुई मूर्तियाँ जो पद्‌मासन मुद्रा में है।

खड़ी मुद्रा (कायोत्सर्ग) की मूर्तियाँ पूर्णतया नग्न हैं, उनकी भुजायें घुटनों के नीचे तक फैली हुई है तथा भौहों के बीच केशपुंज बनाया गया है।

बैठी हुई (पद्मासन) मूर्तियाँ ध्यान मुद्रा में है तथा उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है। इनके आसन के सामने बीच में धर्मचक्र तथा पार्श्वभाग में सिंह बनाये गये हैं।

कुछ प्रतिमाओं के सिर के पीछे गोल अलंकृत प्रभामण्डल मिलता है। तीर्थकर प्रतिमाओं के वक्षस्थल पर ‘श्रीवत्स’ का पवित्र मांगलिक चिह्न अंकित है। इनकी चौकी पर लेख भी उत्कीर्ण हैं जिनसे उनकी पहचान की जा सकती है।

तीर्थंकर प्रतिमा; मथुरा कला

तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त ‘कंकाली टीला’ से आयागपट्ट (Tablets of Homage) अथवा पूजापट्ट मिलते हैं जिनका कला की दृष्टि से काफी महत्त्व है। पहले इन पवित्र मांगलिक चिह्न; यथा — स्वस्तिक, श्रीवत्स, चक्र, नन्दयावर्त, पूर्णघट, मंगल कलश, शंख, माला इत्यादि बनाये जाते थे। परन्तु बाद में इन पर तीर्थंकरों की आकृतियाँ भी बनायी जाने लगीं। आयागपट्टों से प्रतीक पूजा से मूर्तिपूजा का विकास क्रम सूचित होता है। ये आयागपट्ट स्वतंत्र पूजा के लिये थे। इनसे ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में जैन धर्म में प्रतीक पूजा का प्रचलन था जिससे कालान्तर में प्रतिमा पूजा का विकास हुआ।

आयागपट्ट; मथुरा कला

कुषाण शासकों की मूर्तियाँ

बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त मथुरा से कनिष्क की एक सिररहित मूर्ति प्राप्त हुई है जिस पर ‘महाराज राजाधिराजा देवपुत्रों कनिष्को’ अंकित है। यह खड़ी मुद्रा में है तथा ५ फुट ७ इंच ऊँची है। राजा घुटने तक कोट पहने हुए है, उसके पैरों में भारी जूते हैं, दायाँ हाथ गदा पर टिका है तथा वह बायें हाथ से तलवार की मुठिया पकड़े हुए है। कला की दृष्टि से प्रतिमा उच्चकोटि की है जिसमें मूर्तिकार को सम्राट की पाषाण मूर्ति बनाने में अद्भुत सफलता मिली है। इसमें मानव शरीर का यथार्थ चित्रण दर्शनीय है। यह मूर्ति भी यूनानी कला के प्रभाव से मुक्त है।

कुषाण शासकों की मूर्तियाँ; मथुरा कला

इस श्रेणी की दूसरी मूर्ति वेम तक्षम (विम कडफिसेस) की है जो सिंहासनारूढ़ है। सिंहासन के आगे दोनों ओर दो सिंहों की आकृतियाँ हैं। सम्राट नक्काशीदार कामदानी वस्त्र ओढ़े हुए हैं। इसके नीचे छोटी कोट तथा पैरों में जूते दिखाये गये हैं। शिल्प की दृष्टि से इसे सम्राट का यथार्थ रूपांकन कहा जा सकता है।

मजूमदार का विचार है कि इसका निर्माता को ईरानी शिल्पकार था।

निष्कर्ष

इस तरह मथुरा के कलाकारों का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक था और उन्होंने बौद्ध, जैन तथा हिन्दू सभी के लिये उपयोगी मूर्तियों को निर्मित किया। वी० एस० अग्रवाल के शब्दों में “अपनी मौलिकता, सुन्दरता और रचनात्मक विविधता एवं बहुसंख्यक सृजन के कारण मथुरा कला का पद भारतीय कला में बहुत ऊँचा है।” यहाँ की बनी मूर्तियाँ सारनाथ, श्रावस्ती तथा अन्य केन्द्रों में गयीं। मथुरा की कलाकृतियाँ वैदेशिक प्रभाव से मुक्त है तथा इस कला में भरहुत और साँची की प्राचीन भारतीय कला को ही आगे बढ़ाया गया है।*

“The Mathura art under the Kushans was a direct continuation of the old Indian art of Bharhut and Sanchi.” — India Under the Kushanas : B. N. Puri

गान्धार कला शैली

मथुरा कला शैली

कौशाम्बी कला शैली

कुषाणकालीन कला एवं स्थापत्य

कुषाण-सिक्के (Kushan-Coins)

कनिष्क विद्वानों का संरक्षक और उसके समय साहित्यिक प्रगति

बौद्ध धर्म और कनिष्क

कुषाणकालीन आर्थिक समृद्धि या कुषाणकाल में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति

कुषाणों का योगदान (Contribution of the Kushanas)

कुषाण-शासनतंत्र (The Kushan Polity)

कुषाण राजवंश (The Kushan Dynasty) या कुषाण साम्राज्य (The Kushan Empire)

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