सुदूर दक्षिण के इतिहास की भौगोलिक पृष्ठभूमि

भूमिका

सभ्यता और संस्कृति भूगोल से प्रभावित होती है। लम्बा समुद्र तट, पूर्वी और पश्चिमी घाट, उपजाऊ नदी घाटियाँ और खनिज संसाधनों ने सुदूर संगम इतिहास को सजाया और सँवारा। इस तरह सुदूर दक्षिण के इतिहास के अध्ययन से पूर्व यहाँ की भौगोलिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात कर लेना समीचीन होगा।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

सुदूर दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप त्रिभुज के आकार रूप में कन्याकुमारी तक विस्तृत है। समुद्र से घिरे होने के कारण भारतीय इतिहास में इसकी विशिष्ट स्थिति रही है। पूर्व में तटीय भाग को उत्तरी सरकार और कोरोमंडल तट कहते हैं। बंगाल की खाड़ी की ओर कोरोमंडल तट लगभग एक हजार मील लंबा है। पश्चिमी तट को कन्नड़, कोंकण और मालाबार तट में बाँटा गया है। पश्चिम में अरब सागर की ओर मालाबार तट का विस्तार भी लगभग इतना ही है।

सुदूर दक्षिण के जिस भूगोल की चर्चा हम कर रहे हैं उसका सम्बन्ध कृष्णा और तुंगभद्रा के दक्षिण के भू-प्रदेश से है और इसका तटीय प्रदेश पूर्व में कोरोमंडल तट और दक्षिण में मालाबार तट कहलाता है।

दर्रे

पश्चिम घाट की पर्वत शृंखला पूर्वी घाट की अपेक्षा ऊँची और सतत है। परन्तु तट और भू-पृष्ठीय प्रेदेशों से आवागमन को घाट और घाटियाँ सुलभ बनाती थीं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं—

  • थालघाट — मुम्बई को नासिक से जोड़ता है
  • त्रिम्बक घाटी — महाराष्ट्र के नासिक में स्थित
  • पिम्प्रि घाटी — महाराष्ट्र के सोपारा और कल्याण के बीच में स्थित
  • भोरघाट — महाराष्ट्र के मुम्बई को पुणे से जोड़ता है
  • नाना घाट — महाराष्ट्र के कोंकण और जुन्नौर के मध्य स्थित
  • अम्बाघाट — महाराष्ट्र के रत्नागिरी और कोल्हापुर के मध्य स्थित
  • पालघाट — नीलगिरि और अन्नामलाई के बीच में स्थित
  • शेनकोट्टाह घाट — तमिलनाडु के तेनकाशी में स्थित, यह मदुरई को केरल के कोल्लम से जोड़ता है
  • आरामबोली घाट — तमिलनाडु के कन्याकुमारी में स्थित

भौगोलिक पृष्ठभूमि

समुद्र तट से अंतर्देशीय व्यापार में भी इन दर्रों और घाटियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है।

पूर्वी घाट की ऊँचाई अपेक्षाकृत कम है। साथ ही प्रायद्वीपीय नदियों ने इसे जगह-जगह काटकर असतत बना दिया है। इन नदियों के बहाव से इस तट में बहुत से मार्ग बन गए जिनके कारण प्राचीन काल में भी आंध्र तथा ततिलनाडु प्रदेश से समुद्र तट के बीच आवागमन अपेक्षाकृत सरल था।

नदी घाटियाँ

दक्षिण भारत के इतिहास में नदियों का अनेक दृष्टियों से महत्त्व रहा है। नदियाँ न केवल राज्यों को सीमा-रेखा प्रदान करती थीं वरन् उनकी घाटियों में राज्यों के उत्थान एवं पतन हुए। कृषि में सहायक होने के कारण सभ्यता के विकास में इन नदी-घाटियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। गोदावरी, कृष्णा, तुंगभद्रा, कावेरी तो अपनी जीवनदायिनी महत्ता के कारण धार्मिक दृष्टि स भी पवित्र मानी जाने लगीं। इनके अतिरिक्त अनेक छोटी नदियों का भी दक्षिण के इतिहास में महत्त्व रहा है। दक्षिण की अधिकांश नदियाँ मानसून की वर्षा पर ही निर्भर रहती हैं।

बंदरगाह

दक्षिणी प्रायद्वीप के दोनों ओर अनेक प्राकृतिक बंदरगाह हैं। पश्चिमी तट के बंदरगाह जहाजों के लिए अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक तथा उपयोगी हैं। इनमें कोचीन, कोझीकोड (कालिकट), गोआ, मुम्बई सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। पूर्वी तट पर अरिकामेडु, महाबलिपुरम तथा कावेरिप्पत्तिनम् बंदरगाह महत्त्वपूर्ण हैं। ‘पेरिप्लस ऑफ़ दि इरिथ्रियन सी’ में प्राचीन भारत के तट पर स्थित लगभग दो दर्जन बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है।

निष्कर्ष

विदेशी व्यापार के संदर्भ में दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति का विशेष महत्त्व रहा है। पश्चिम में भूमध्यसागर तथा अफ्रीका और पूर्व में चीन के समुद्री मार्ग के मध्य होने के कारण दक्षिण भारत का पश्चिमी तथा पूर्वी देशों से घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध विकसित हुआ, जिसका दक्षिणी राज्यों की समृद्धि में विशेष योगदान रहा। समुद्री व्यापार में दक्षिण के महत्त्व पर ‘पेरिप्लस ऑफ़ दि इरिथ्रियन सी’ नामक कृति (प्रथम शती ईसवी) द्वारा पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

संगमयुग की तिथि या संगम साहित्य का रचनाकाल

प्रथम संगम या प्रथम तमिल संगम

द्वितीय संगम या द्वितीय तमिल संगम

तृतीय संगम या तृतीय तमिल संगम

शिलप्पदिकारम् (नूपुर की कहानी) / Shilappadikaram (The Ankle Bracelet)

मणिमेकलै (मणि-युक्त कंगन) / Manimekalai

जीवक चिन्तामणि (Jivaka Chintamani)

तोलकाप्पियम् (Tolkappiyam) – तोल्काप्पियर 

एत्तुथोकै या अष्टसंग्रह (Ettuthokai or The Eight Collections)

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