भानुगुप्त (५१० ई०)

भूमिका

५१० ई० में हम मालवा पर भानुगुप्त को शासन करता हुआ पाते हैं। गुप्त राजवंश से इसका सम्बन्ध अस्पष्ट है। इसका जानकारी का स्रोत इसी का एरण स्तम्भ-लेख और बौद्ध ग्रन्थ आर्यश्रीमूलकल्प है।

संक्षिप्त परिचय

नामभानुगुप्त
पिता
माता
पत्नी
पुत्र
पूर्ववर्ती शासक
उत्तराधिकारी
शासनकाल५१० ई० से ?
उपाधिराजा
अभिलेखभानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख

स्रोत

राजनीतिक इतिहास

इसके इतिहास का प्रमुख स्रोत एरण से प्राप्त इसी का एक प्रस्तर स्तम्भ-लेख है। इस अभिलेख के जो ऐतिहासिक तथ्य हमें ज्ञात होते हैं वे अधोलिखित हैं—

  • यह ५१० ईस्वी का है।
  • इसमें उसके मित्र गोपराज की वंशावली का विवरण है।
  • गोपराज भानुगुप्त की ओर से मैत्रों (हूणों) से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • गोपराज का पत्नी ने सती हो गयी।
  • इसमें भानुगुप्त को सर्वश्रेष्ठ वीर (जगति प्रवीरो) तथा महान् राजा कहा गया है।

इसका विवरण कुछ इस प्रकार है— “जगत्-प्रवीर पार्थ (अर्जुन) के समान महान् शूर महाराज श्री भानुगुप्त हैं। उनके साथ गोपराज भी आया और मैत्रों को पराभूत किया। उस प्रसिद्ध युद्ध में लड़ते हुए वह स्वर्ग गया और सर्वोत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया भक्तिभाव से अनुरक्त उसकी प्रिया, कान्ता, भार्या, (पत्नी) ने उनका अनुगत बनकर अग्नि में प्रवेश किया।”

“श्रीभानुगुप्तो जगति प्रवीरो राजा महा(न्) पार्थ-समो(ऽ)ति-शूरः [।] तेनाथ सार्द्धन्त्विह गोपर[जो]

मैत्तानुदश्या च कितानुयातः॥ कृत्वा [च] [यु]द्धं सुमहत्प्रकाशं स्वर्ग गतो दिव्य-न[ रे ?] [न्द्र कल्पः] [I]

भक्तानुरक्ता च प्रिया च कान्ता भ[ार्याव]ल[ग्न][नुगता[ग्नि]र[ा]शिम्॥”

—पंक्ति संख्या- ५, ६, ७; भानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख

यह लेख युद्ध के परिणाम का उल्लेख नहीं करता।

रायचौधरी का अनुमान है कि बुधगुप्त के बाद पूर्वी मालवा में जो हूण-सत्ता स्थापित हुई, उसी का अन्त करने के लिये भानुगुप्त ने यह युद्ध किया और इसमें उसे सफलता प्राप्त हुई। इस युद्ध को “स्वतन्त्रता संग्राम” (War of Liberation) की संज्ञा दी गयी है।

परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। ऐसा लगता है कि इसके बाद हूणों ने मालवा को जीत लिया। यहाँ मातृविष्णु, जो बुधगुप्त का सामन्त था, का छोटा भाई धन्यविष्णु हूण नरेश तोरमाण की अधीनता में राज्य करता था जिसका उल्लेख एरण की वराह प्रतिमा वाले लेख में मिलता है।

भानुगुप्त के सम्बन्ध में हमें अधिक ज्ञात नहीं है।

सुधाकर चट्टोपाध्याय का विचार है कि भानुगुप्त स्वतन्त्र शासक न होकर गुप्तों के अधीन कोई स्थानीय शासक था क्योंकि उसे केवल “राजा” कहा गया है। सम्भव है उसने भी हूणों के साथ युद्ध में अपने प्राण खो दिये हों।

सती प्रथा

भानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण है। इसके अनुसार ५१० ई० में भानुगुप्त के मित्र गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हो गया और उसकी पत्नी सती हो गयी।

भानुगुप्त

धर्मसूत्रों और प्रारम्भिक स्मृतियों में सती-प्रथा का संकेत नहीं मिलता है।

मौर्यकाल में सती प्रथा के प्रचलन का प्रमाण नहीं मिलता है। न तो कौटिल्य ने इसका उल्लेख किया है और न ही मेगस्थनीज ने। हाँ स्ट्रैबो (६३ ई०पू० – २४ ई०) ने तक्षशिला पंजाब के कठ जनजातियों में सती प्रथा का उल्लेख किया है। परन्तु यह कोई प्रचलित प्रथा नहीं थी।

सती प्रथा का उल्लेख हमें गुप्तकाल से प्राप्त होने लगता है। गुप्तकालीन लेखकों वात्स्यायन, भास, कालिदास की कृतियों में इसका उल्लेख मिलता है।

भानुगुप्त का एरण स्तम्भ-लेख सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय प्रमाण है। इसके अनुसार ५१० ई० में भानुगुप्त के मित्र गोपराज हूणों के विरुद्ध युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हो गया और उसकी पत्नी सती हो गयी।

गुप्तोत्तर काल में हम सती प्रथा का प्रचलन बढ़ता हुआ पाता है। बाणभट्ट कृत हर्षचरित में उल्लेख मिलता है; जैसे— प्रभाकरवर्धन की पत्नी यशोमती सती हो गयी थी। राज्यश्री भी सती होने जा रही थी परन्तु हर्षवर्धन ने उसे बचा लिया।

कुछ लेखक और भाष्यकारों ने सती प्रथा की निंदा की है—

  • महाकवि बाणभट्ट इसका विरोध करते हुए इसे महान् मूर्खतापूर्ण कार्य कहते हैं जिसका कोई फल नहीं होता। बाणभट्ट सती प्रथा को ‘आत्म-हत्या’ कहते हैं जिसका अनुगमन करने वाली स्त्री नरकगामिनी होती है। इसके विपरीत विधवा स्त्रियाँ अपना तथा अपने मृतक पति दोनों का कल्याण करती हैं। सती होकर वे किसी को भी लाभ नहीं पहुँचातीं।
  • मनुस्मृति के टीकाकार मेघातिथि भी इसे आत्महत्या मानते हुए स्त्रियों के लिये निषिद्ध बताते हैं।
  • देवण्णभट्ट का विचार है कि सती होना विधवा के ब्रह्मचारी रहने की अपेक्षा अधिक जघन्य होता है।

किन्तु इस विरोधों के बावजूद सती प्रथा समाज में प्रचलित होती गयी।

सातवीं शताब्दी से सती प्रथा के समर्थन में लोग आने लगे, जैसे- आंगिरस। मध्यकाल में इसका महिमामण्डन तक मिलता है।

सती प्रथा का सीधा सम्बन्ध विदेशी आक्रमण से था। गुप्तोत्तर काल में ये आक्रमण बढ़ते गये। कोई सार्वभौम सत्ता नहीं थी जो देश का सुरक्षा करती।


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