भूमिका
कुषाण साम्राज्य में मध्य एशिया से पूर्वी भारत तक समाहित था। इस विस्तृत प्रदेश में बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रचार-प्रसार हुआ। ईसा पूर्व दूसरी शती से ईस्वी सन् दूसरी शती तक की अवधि में भारत के समस्त धार्मिक अवशेषों में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अवशेषों की संख्या सर्वाधिक है। इस समय बहुसंख्यक चैत्यों एवं विहारों का निर्माण करवाया गया। प्रथम कुषाण शासक कुजुल कडफिसेस के समय से ही कुषाणों का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर प्रारम्भ हो गया था। बौद्ध धर्म और कनिष्क का घनिष्ठ सम्बन्ध था। बौद्ध धर्म के संरक्षकों में सम्राट अशोक के उपरान्त ‘कनिष्क’ का नाम आता है।
बौद्ध धर्म और कनिष्क
कनिष्क का बौद्ध होना
“भारतीय इतिहास में कनिष्क की ख्याति उनकी विजयों के कारण नहीं, अपितु शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।”*
“Kaniska’s fame rests not so much on his conquests as on his patronage of the religion of Sakyamuni.”* — p. 475, Political History of Ancient India; H. C. Raychaudhury.
उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में कनिष्क के बौद्ध मत में दीक्षित होने की कथा सम्राट अशोक के ही समान है। इससे हमें ज्ञात होता है कि वह प्रारम्भ में अत्यन्त निर्दयी और अत्याचारी था जो बौद्ध धर्म के प्रभाव से उदार और सदाचारी बन गया। परन्तु बौद्ध लेखकों के इस प्रकार के विवरण अधिकांशतः अतिरंजित व काल्पनिक हैं तथा अपने धर्म की अतिरंजना करने के उद्देश्य से गढ़े गये प्रतीत होते हैं।
कनिष्क के सिक्कों तथा पेशावर के लेख के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में ही बौद्ध हो गया था।*
“Numismatics evidence and the testimony of the Peshawar Casket inscriptions show that he actually became a convert to Buddhism possibly at the commencement of his reign, if not earlier.”*
— p. 475, Political History of Ancient India; H. C. Raychaudhury.
कनिष्क को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय सुदर्शन नामक बौद्ध भिक्षु को दिया जाता है। पेशावर में प्रसिद्ध चैत्य का निर्माण करवाकर उसने इस धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की।
महायान सम्प्रदाय को संरक्षण
कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया तथा उसका मध्य एशिया एवं चीन में प्रचार-प्रसार करवाया।
मध्य एशिया व पश्चिमोत्तर में प्रचार-प्रसार
मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रवेश तो सम्राट अशोक के काल में ही हो चुका था। पश्चिमोत्तर सीमा में हिन्दुकुश पर्वत पारकर अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया के मार्ग से बौद्ध प्रचारक काशगर, समरकन्द, तारिम घाटी होते हुए सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैल गये थे। कुषाणकाल में बौद्ध धर्म का कार्य और आगे बढ़ा। मध्य एशिया के साथ भारत का घनिष्ठतम् सम्बन्ध कुषाणकाल में ही स्थापित हुआ। इसी समय महायान बौद्ध धर्म के प्रचारक अपना संदेश तथा धर्मग्रन्थों के साथ वहाँ पहुँचे।
कनिष्क ने मध्य एशिया में अनेक विहार, स्तूप और मूर्तियों का निर्माण करवाया। ताजिकिस्तान से मिली भगवान बुद्ध की विशालकाय मूर्तियाँ तथा अवशेष यह स्पष्ट करते हैं कि कनिष्क के समय (प्रथम शताब्दी ईस्वी) में बौद्ध धर्म उन प्रदेशों में फैल चुका था। काशगर, खोतान, कूची, यारकन्द, कड़ासहर, तुर्फानर आदि में अनेक विहार थे जिनमें हजारों बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। यही से बौद्ध प्रचारक चीन गये।
बौद्ध धर्म का चीन में प्रवेश
चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश ६५ ई० में हन सम्राट मिंग ती (५७-७५ ई०) में हुआ। हन शासक कुषाण राजाओं के समकालीन थे। चीनी इतिहासकारों के अनुसार मिंग ती ने बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होकर अपना दूत भारत भेजा था जो अपने साथ बौद्ध साहित्य, मूर्तियों के साथ-साथ काश्यप, मातंग और धर्मारण्य जैसे बौद्ध विद्वानों को लेकर चीन पहुँचे थे। उनके निवास के लिये चीनी शासकों ने प्रसिद्ध श्वेताश्व विहार (White-horse monastry) का निर्माण करवाया था। भारत से बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पाण्डुलिपियाँ, चित्र, आदि वहाँ ले जाये गये।
बौद्ध धर्म की चौथी संगीति
कनिष्क के शासन काल में कश्मीर के ‘कुण्डलवन’ नामक स्थल पर बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति का आयोजन किया गया था। एक मत के अनुसार यह संगीति ‘जालन्धर’ अथवा ‘गन्धार’ में हुई थी। इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुमित्र ने की थी तथा अश्वघोष उसके उपाध्यक्ष बनाये गये। इस संगीति में बौद्ध त्रिपिटकों के प्रामाणिक पाठ तैयार हुये तथा ‘विभाषाशास्त्र’ आदि बौद्ध ग्रन्थों का संकलन किया गया। इसमें लगभग ५०० विद्वान् भिक्षुओं ने भाग लिया था।
बौद्ध धर्म का विभाजन
कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया :—
- एक; हीनयान और
- दो; महायान।
कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को ही राज्याश्रय प्रदान किया तथा स्वदेश एवं विदेश में उसका प्रचार-प्रसार करवाया।
बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय : हीनयान तथा महायान
कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया : एक; हीनयान और द्वितीय; महायान।
इस समय तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ चुकी थी। अनेकानेक लोग इस धर्म में नवीन विचारों और भावनाओं के साथ प्रवेश हुये थे। अतः बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन लाना आवश्यक होता जा रहा था। इसलिये इसमें सुधार की माँग होने लगी। इसके विपरीत कुछ रूढ़िवादी लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को यथारूप बनाये रखना चाहते थे और वे उसके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा सुधार नहीं चाहते थे। ऐसे लोगों का सम्प्रदाय ‘हीनयान’ कहा गया।
हीनयान का शाब्दिक अर्थ है — निम्न मार्ग। यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिये ही सम्भव था।
बौद्ध धर्म का सुधारवादी सम्प्रदाय ‘महायान’ कहा गया। महायान का अर्थ है — उत्कृष्ट मार्ग। इसमें परसेवा तथा परोपकार पर विशेष बल दिया गया। भगवान बुद्ध की मूर्ति के रूप में पूजा होने लगी। यह मार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ था। इसकी व्यापकता एवं उदारता को देखते हुये इसका ‘महायान’ नाम सर्वथा उपयुक्त लगता है। इसके द्वारा अधिक लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते थे।
इन दोनों सम्प्रदायों में अधोलिखित मुख्य विभेद है —
- एक; हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता था। परन्तु महायान में उन्हें देवता माना गया तथा उनकी पूजा की जाने लगी। इसी के साथ अनेक बोधिसत्वों की भी पूजा प्रारम्भ हुई। मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिये प्रयत्नशील रहते थे, बोधिसत्व कहे गये। प्रत्येक व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है। निर्वाण में सभी मनुष्यों की सहायता करना बोधिसत्व का परम कर्त्तव्य है। उसमें करुणा तथा प्रज्ञा होती है। करुणा द्वारा वह जनसेवा करता है तथा प्रज्ञा से संसार का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है। बोधिसत्व को दस आदर्शों को प्राप्त करने का आदेश दिया गया है। इन्हें ‘पारमिता’ कहा जाता है। पारमितायें वस्तुतः चारित्रिक पूर्णतायें हैं। ये हैं — दान, शील, सहनशीलता, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्रणिधान, बल तथा ज्ञान। इन्हें ‘दशशील’ कहा जाता है।
- द्वितीय; हीनयान एक व्यक्तिवादी धर्म है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिये। इसके विपरीत महायान में परसेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया। उसका उद्देश्य समस्त मानव जीवन जाति का कल्याण है।
- तृतीय; हीनयान मूर्ति-पूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं रखता। जबकि महायान में मूर्ति-पूजा का भी विधान है। महायान आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है। साथ ही मोक्ष के लिये बुद्ध की कृपा आवश्यक मानी गयी है। इसमें तीर्थों को भी स्थान दिया गया।
- चार; हीनयान की साधना-पद्धति अत्यन्त कठोर है तथा वह भिक्षु जीवन का पक्षपाती है। परन्तु महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिये सुलभ है। यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्त्व दिया गया है।
- पाँच; हीनयान का आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है। जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं उन्हें ‘अर्हत्’ कहा गया है। परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुर्नजन्म नहीं होता। इसके विपरीत महायान का आदर्श ‘बोधिसत्व’ है। बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के उपरान्त भी दूसरे प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। महायान की महानता का रहस्य उसकी निःस्वार्थ सेवा तथा सहिष्णुता है।
इस प्रकार महायान में व्यापकता एवं उदारता है। जापानी बौद्ध विद्वान डी० टी० सुजुकी के शब्दों में ‘महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्त्व का खण्डन किये बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्र को विस्तृत कर दिया।’*
“It broadened the original scope of the Buddhism, so far as it did not contradict the inner significance of the teachings of the Buddha.”* — p. 10, Outlines of Mahayan Buddhism; D. T. Suzuki.
निष्कर्ष
यद्यपि कनिष्क ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया तथापि राजा के रूप में वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। उसके सिक्कों पर बुद्ध की आकृतियों के अतिरिक्त यूनानी, एलमी, मिथ्री, जरथ्रुस्त्री तथा हिन्दू देवी-देवताओं की आकृतियाँ भी अंकित मिलती हैं। इनमें आइशो (शिव), मिइरो (ईरानी मिश्र, सूर्य), माओ (चन्द्र), नाना (सुमेरियन मातृदेवी), हेलियोस तथा सेलेनी (यूनानी सूर्य तथा चन्द्र) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
कनिष्क के उत्तराधिकारी हुविष्क के काल में भी अन्य धर्मों के साथ-साथ बौद्ध धर्म की भी प्रगति होती रही। उसके शासन काल के ४७वें वर्ष में अंकित एक बौद्ध स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि जीवक नामक भिक्षु ने हुविष्क के बौद्ध विहार को दान दिया था। ५१वें वर्ष के वर्दक लेख में शाक्यमुक्ति की धातु मंजूषा स्थापित किये जाने का वर्णन है। वासुदेव के काल में भी इस धर्म की उन्नति हुई। मथुरा से प्राप्त ६७वें वर्ष के लेख में महासंधिक आचार्यों के लिये एक बुद्ध प्रतिमा बनवाने का प्राप्त होता है।
इस तरह यह स्पष्ट है कि यवन-शक-कुषाण राजाओं के काल में बौद्ध धर्म उत्तर-पश्चिम तथा देश के अन्य भागों में काफी लोकप्रिय हो गया।
FAQ
प्रश्न : “भारतीय इतिहास में कनिष्क की ख्याति उनकी विजयों के कारण नहीं, अपितु शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।” टिप्पणी करें।
“Kaniska’s fame rests not so much on his conquests as on his patronage of the religion of Sakyamuni.” Comment.
भूमिका
एच० सी० रायचौधरी के अनुसार “भारतीय इतिहास में कनिष्क की ख्याति उनकी विजयों के कारण नहीं, अपितु शाक्य मुनि के धर्म को संरक्षण प्रदान करने के कारण है।”
बौद्ध धर्म का प्रसार-प्रसार
- कनिष्क को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय सुदर्शन नामक बौद्ध भिक्षु को है।
- कनिष्क ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया तथा उसका मध्य एशिया एवं चीन में प्रचार-प्रसार करवाया।
- कनिष्क ने पश्चिमोत्तर और मध्य एशिया में अनेक विहार, स्तूप और मूर्तियों का निर्माण करवाया।
- मध्य एशिया से बौद्ध प्रचारक चीन गये। चीन में बौद्ध धर्म का प्रवेश ६५ ई० में हन सम्राट मिंग ती (५७-७५ ई०) में हुआ। हन शासक कुषाण राजाओं के समकालीन थे।
- कनिष्क के शासन काल में कश्मीर के ‘कुण्डलवन’ नामक स्थल पर बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति का आयोजन किया गया था। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी तथा अश्वघोष उसके उपाध्यक्ष बनाये गये। इस संगीति में बौद्ध त्रिपिटकों के प्रामाणिक पाठ तैयार हुये तथा ‘विभाषाशास्त्र’ आदि बौद्ध ग्रन्थों का संकलन किया गया।
- कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया : एक; हीनयान और दो; महायान।
प्रश्न : बौद्ध धर्म के हीनयान और महायान में विभाजन के क्या कारण थे?
What were the reasons for the division of Buddhism into Hinayana and Mahayana?
कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया : एक; हीनयान और द्वितीय; महायान।
इस विभाजन के अधोलिखित कारण थे—
- इस समय तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ चुकी थी। अनेकानेक लोग इस धर्म में नवीन विचारों और भावनाओं के साथ प्रवेश हुये थे। अतः बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन लाना आवश्यक होता जा रहा था। इसलिये इसमें सुधार की माँग होने लगी।
- इसके विपरीत कुछ रूढ़िवादी लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को यथारूप बनाये रखना चाहते थे और वे उसके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा सुधार नहीं चाहते थे। ऐसे लोगों का सम्प्रदाय ‘हीनयान’ कहा गया।
- हीनयान का शाब्दिक अर्थ है — निम्न मार्ग। यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिये ही सम्भव था।
- बौद्ध धर्म का सुधारवादी सम्प्रदाय ‘महायान’ कहा गया। महायान का अर्थ है — उत्कृष्ट मार्ग। इसमें परसेवा तथा परोपकार पर विशेष बल दिया गया। भगवान बुद्ध की मूर्ति के रूप में पूजा होने लगी। यह मार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ था। इसकी व्यापकता एवं उदारता को देखते हुये इसका ‘महायान’ नाम सर्वथा उपयुक्त लगता है। इसके द्वारा अधिक लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते थे।
प्रश्न : महायान और हीनयान में विभेद पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
Write a brief note on the difference between Mahayana and Hinayana.
इन दोनों सम्प्रदायों में अधोलिखित मुख्य विभेद है —
एक;
- हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता था।
- महायान में उन्हें देवता माना गया तथा उनकी पूजा की जाने लगी। इसी के साथ अनेक बोधिसत्वों की भी पूजा प्रारम्भ हुई। मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिये प्रयत्नशील रहते थे, बोधिसत्व कहे गये। प्रत्येक व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है। निर्वाण में सभी मनुष्यों की सहायता करना बोधिसत्व का परम कर्त्तव्य है। उसमें करुणा तथा प्रज्ञा होती है। करुणा द्वारा वह जनसेवा करता है तथा प्रज्ञा से संसार का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है। बोधिसत्व को दस आदर्शों को प्राप्त करने का आदेश दिया गया है। इन्हें ‘पारमिता’ कहा जाता है। पारमितायें वस्तुतः चारित्रिक पूर्णतायें हैं। ये हैं — दान, शील, सहनशीलता, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्रणिधान, बल तथा ज्ञान। इन्हें ‘दशशील’ कहा जाता है।
द्वितीय;
- हीनयान एक व्यक्तिवादी धर्म है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिये।
- महायान में परसेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया। उसका उद्देश्य समस्त मानव जीवन जाति का कल्याण है।
तृतीय;
- हीनयान मूर्ति-पूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं रखता।
- महायान में मूर्ति-पूजा का विधान है। महायान आत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है। साथ ही मोक्ष के लिये बुद्ध की कृपा आवश्यक मानी गयी है। इसमें तीर्थों को भी स्थान दिया गया।
चार;
- हीनयान की साधना-पद्धति अत्यन्त कठोर है तथा वह भिक्षु जीवन का पक्षपाती है।
- महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिये सुलभ है। यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्त्व दिया गया है।
पाँच;
- हीनयान का आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है। जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं उन्हें ‘अर्हत्’ कहा गया है। परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुर्नजन्म नहीं होता।
- महायान का आदर्श ‘बोधिसत्व’ है। बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के उपरान्त भी दूसरे प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं। महायान की महानता का रहस्य उसकी निःस्वार्थ सेवा तथा सहिष्णुता है।
निष्कर्ष
इस प्रकार महायान में व्यापकता एवं उदारता है। जापानी बौद्ध विद्वान डी० टी० सुजुकी के शब्दों में ‘महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्त्व का खण्डन किये बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्र को विस्तृत कर दिया।’*
“It broadened the original scope of the Buddhism, so far as it did not contradict the inner significance of the teachings of the Buddha.”* — p. 10, Outlines of Mahayan Buddhism; D. T. Suzuki.
कनिष्क विद्वानों का संरक्षक और उसके समय साहित्यिक प्रगति