नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य’ (४९५ ई० से लगभग ५३० ई०)

नरसिंहगुप्त (नरसिंहगुप्त) बुधगुप्त की मृत्यु के बाद शासक बना। यह पुरुगुप्त का पुत्र और बुधगुप्त का छोटा भाई था। इसकी उपाधि बालादित्य (बालादित्य) मिलती है।

संक्षिप्त परिचय

नामनरसिंहगुप्त
पितापुरुगुप्त
माताचन्द्रदेवी
पत्नीमित्रदेवी
पुत्रकुमारगुप्त तृतीय
पूर्ववर्ती शासकबुधगुप्त
उत्तराधिकारीकुमारगुप्त तृतीय
शासनकाल४९५ ई० से ५३० ई० (?)
उपाधिमहाराजाधिराज, परमभागवत, बालादित्य
अभिलेखनालन्दा मुद्रा-लेख

स्रोत

  • अभिलेख — नालन्दा मुद्रा-लेख
  • सिक्के
  • ह्वेनसांग कृत सी-यू-की (Si-Yu-Ki)
  • परमार्थ (४९९-५६९ ई०) के अनुवाद— ये भारतीय भिक्षु थे। इन्होंने कई भारतीय बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया; जैसे- वसुबन्धु की अभिधर्मकोश, असंग का महायानकोश, दिंगनाथ का आलंबनपरीक्षा व हस्तावलाप्रकरण इत्यादि। ये हमें अब पूर्ण रूप से नहीं अपितु बिखरे हुए प्राप्त होते हैं।
  • आर्यमंजुश्रीमूलकल्प (बौद्ध-ग्रंथ)

राजनीतिक इतिहास

भीतरी मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त की माता का नाम महादेवी चन्द्रदेवी मिलता है। भानुगुप्त तथा वैन्यगुप्त के साथ उसके सम्बन्ध के विषय में हमें पता नहीं है। नरसिंहगुप्त इन दोनों से अधिक शक्तिशाली था। अतः मगध साम्राज्य के केन्द्रीय भाग में उसने अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया।

शासनकाल

उसके शासनकाल को मोटे-तौर पर ४९५ से ५३० ई० के मध्य माना जाता है। इसका आधार यह है कि—

  • बुधगुप्त की अंतिम ज्ञात तिथि ४९४ ई० है।
  • मिहिरकुल का आक्रमण का समय ५१५ से ५३० ई० के मध्य रखा गया है।
  • बुधगुप्त के बाद वह शासक बना अतः प्रारम्भिक तिथि ४९५ ई० मान सकते हैं।
  • मिहिरकुल को उसने पराजित किया था अतः अंतिम तिथि ५३० ई० माना जा सकता है।

गुप्त साम्राज्य का विभाजन

बुधगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य आंतरिक संघर्षों में उलझ गया। इसके कारण साम्राज्य तीन भागों में विभाजित हो गया। इस आपसी संघर्ष और साम्राज्य विभाजन का लाभ उठाकर हूणों ने पुनः आक्रमण किया।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय गुप्त साम्राज्य तीन राज्यों में बँट गया था—

  • मगध वाले क्षेत्र में नरसिंहगुप्त राज्य करता था।
  • मालवा क्षेत्र में भानुगुप्त राज्य करता था।
  • बंगाल के भाग में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शासन स्थापित कर लिया।

हूण आक्रमण

साम्राज्य विभाजन और आंतरिक संघर्ष से प्रेरित हूणों ने पुनः आक्रमण किया। इस आक्रमण का उल्लेख ह्वेनसांग ने किया है।

हूण नरेश मिहिरकुल बड़ा क्रूर एवं आततायी था। प्रारम्भ में मिहिरकुल को सफलता मिली और नरसिंहगुप्त को अपमानजनक रूप से उसे कर भी देना पड़ा। परन्तु अन्ततः नरसिंहगुप्त विजयी हुआ।

हुएनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि उसने मगध के राजा बालादित्य पर आक्रमण किया किन्तु पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया। बालादित्य ने अपनी माता के कहने में आकर उसे मुक्त कर दिया। राजनीतिक दृष्टि से उसका यह कार्य अत्यन्त मूर्खतापूर्ण कहा जायेगा। हुएनसांग ने जिस “बालादित्य” का उल्लेख किया है उसके समीकरण के विषय से मतभेद है। संभवतः वह नरसिंहगुप्त बालादित्य ही है।

नरसिंहगुप्त की सबसे बड़ी सफलता हूणों को पराजित करना है।

सिक्के

नरसिंहगुप्त की धनुर्धारी प्रकार की मुद्रायें मिलती हैं। मुद्राओं के मुखभाग पर राजा धनुष-वाण लिये खड़े हैं, गरुड़ध्वज की आकृति है तथा “जयति नरसिंहगुप्तः” मुद्रालेख उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर कमलासन पर बैठी लक्ष्मी तथा “बालादित्य” अंकित है।

धर्म

नरसिंहगुप्त बौद्धमतानुयायी था। उसने बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु की शिष्यता ग्रहण की थी। उसने अपने राज्य को स्तूपों तथा विहारों से सुसज्जित करवाया था। हुएनसांग, परमार्थ तथा आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के लेखक ने उसके बौद्ध-प्रेम का उल्लेख किया है। उसी के काल में वसुबन्धु का निधन हुआ था।

नालन्दा मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त को “परमभागवत” कहा गया है। लगता है कि बौद्ध धर्म अंगीकार कर लेने पर भी उसने अपने पूर्वजों के समान “परमभागवत” की उपाधि ग्रहण की थी।

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