भूमिका
समुद्रगुप्त के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय शासक बने। चन्द्रगुप्त द्वितीय की माता का नाम दत्तदेवी था और वे समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी थीं। चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त राजवंश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक सिद्ध हुए। उसके शासनकाल में गुप्त-साम्राज्य अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा।
सामान्य परिचय
नाम | चन्द्रगुप्त द्वितीय | |
उपाधि | अप्रतिरथ, चक्रविक्रम, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, परमभागवत, विक्रमांक, विक्रमादित्य, शकारि | |
पिता | समुद्रगुप्त | |
माता | दत्तदेवी | |
पत्नी | ध्रुवदेवी | |
कुबेरनागा | ||
पुत्र | कुमारगुप्त प्रथम | |
गोविन्दगुप्त | ||
पुत्री | प्रभावतीगुप्ता | |
वैवाहिक राजनय | कुबेरनागा (नागवंश) से विवाह | |
प्रभावतीगुप्ता का वाकाटक वंश में विवाह | ||
कदम्ब-वंशी कन्या का अपने पुत्र से विवाह | ||
शासनकाल | ≈ ४० वर्ष (३७५ ई० – ४१५ ई०) | |
पूर्ववर्ती शासक | रामगुप्त (अल्पकालीन शासन) | |
उत्तराधिकारी | कुमारगुप्त प्रथम | |
विजय अभियान | शकों का पूर्णतया उन्मूलन | |
वंग और बाह्लीक विजय | ||
अभिलेख | मथुरा स्तम्भ लेख | |
उदयगिरि गुहालेख (प्रथम) | ||
उदयगिरि गुहालेख (द्वितीय) | ||
साँची अभिलेख | ||
मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख | ||
हुंजा-काँठे के लघु शिलालेख | ||
मथुरा खंडित लेख | ||
ध्रुवस्वामिनी का मुद्रालेख | ||
सिक्के | दीनार (स्वर्ण सिक्के) | धनुर्धारी प्रकार |
छत्रधारी प्रकार | ||
ध्वजधारी प्रकार | ||
पर्यंक प्रकार | ||
सिंह-निहंता प्रकार | ||
अश्वारोही प्रकार | ||
पर्यंक स्थित राजा-रानी प्रकार | ||
चक्रविक्रम प्रकार | ||
रुप्यक (रजत सिक्के) | — | |
माषक (ताम्र सिक्के) | — | |
नवरत्न | कालिदास | रघुवंश |
कुमारसंभव | ||
मेघदूत | ||
ऋतुसंहार | ||
मालनिकाग्निमित्र | ||
विक्रमोर्वशीय | ||
अभिज्ञान शाकुन्तलम् | ||
धन्वन्तरि | — | |
क्षपणक | — | |
अमरसिंह | अमरकोश | |
शंकु | — | |
वेतालभट्ट | नीति-प्रदीप | |
घटकर्पर | — | |
वाराहमिहिर | बृहज्जातक | |
पञ्चसिद्धान्तिका | ||
बृहत्संहिता | ||
लघुजातक | ||
वररुचि | — | |
बौद्ध यात्री | फाहियान | फो-क्वो-की |
साधन
साहित्य
कालिदास के ग्रन्थ— रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत, ऋतुसंहार, मालनिकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और अभिज्ञान शाकुन्तलम्।
विदेशी विवरण- चीनी यात्री फाहियान का यात्रा-वृत्तान्त ‘फो-क्वो-की’
पुरातत्त्व
अभिलेख— मथुरा स्तम्भ-लेख एवं शिलालेख, उदयगिरि के दो लेख, गढ़वा अभिलेख तथा साँची अभिलेख
सिक्के— स्वर्ण (दीनार), रजत (रुप्यक) एवं ताम्र (माषक) के विविध प्रकार के सिक्के।
विभिन्न नाम और उपाधियाँ
चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक अन्य नाम ‘देव’ भी मिलता है और उसे ‘देवगुप्त’, ‘देवराज’१, ‘देवश्री’ आदि कहा गया है।
“महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्य देवराज इति प्रि-य-ना [ म्नः ]”१
—पंक्ति संख्या ७, ८; चंद्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख
विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत, शकारि आदि उसकी सुप्रसिद्ध उपाधियाँ थीं। विक्रमांक, विक्रमादित्य से जहाँ एक ओर उसका अतुल पराक्रम सूचित होता है, वहीं दूसरी ओर परमभागवत विरुद से धर्मनिष्ठ वैष्णव होना भी सिद्ध होता है।
राज्यारोहण
गुप्तवंशी लेखों में उसे ‘तत्परिगृहीत’ कहा गया है। तत्परिगृहीत का अर्थ ‘उसके (समुद्रगुप्त) द्वारा चुना गया’ होता है। इस आधार पर इतिहासकारों का एक वर्ग यह प्रतिपादित करता है कि स्वयं समुद्रगुप्त ने ही चन्द्रगुप्त द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी चुना था। यह मत रामगुप्त की ऐतिहासिकता को सिरे से खारिज कर देता करता है।
परन्तु अब ऐसे पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध हो चुके हैं कि रामगुप्त के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
तब प्रश्न यह उठता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय को अभिलेखों में ‘तत्परिगृहीत’ क्यों कहा गया?
इस सम्बन्ध में हम बस इतना ही कह सकते हैं कि सम्भवतः ‘तत्परिगृहीत’ पद का प्रयोग मात्र निष्ठा प्रदर्शित करने के लिये किया गया है और यह तर्कसंगत भी लगता है।
शासनकाल (तिथि) निर्धारण
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल का निर्धारण हम अधोलिखित प्रकार से कर सकते हैं—
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के प्रथम ज्ञात अभिलेख की तिथि गुप्त संवत् ६१ अर्थात् ३८० ईस्वी है जो उसके मथुरा स्तम्भलेख से प्राप्त होती है। यह लेख उसके शासनकाल के पाँचवें वर्ष का है। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने ३७५ ईस्वी में अपना शासन प्रारम्भ किया था। विस्तृत विवरण के लिए देखें— मथुरा स्तम्भ-लेख
- उसकी अन्तिम तिथि गुप्त संवत् ९३ अर्थात् ४१२ ईस्वी लेख में उत्कीर्ण मिलती है जिससे स्पष्ट है कि वह इस समय शासन कर रहा था। विस्तृत विवरण के लिए देखें— चंद्रगुप्त द्वितीय का साँची अभिलेख
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम के राज्यकाल की पहली तिथि गुप्त-संवत् ९६ अर्थात् ४१५ ईस्वी उसके बिलसड़ लेख में अंकित है जो इस बात की सूचक है कि इस तिथि तक चन्द्रगुप्त का शासन समाप्त हो चुका था। विस्तृत विवरण के लिए देखें— बिलसड़ स्तम्भ-लेख
अतः अभिलेखीय स्रोतों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ३७५ ईस्वी से ४१५ ईस्वी के लगभग अर्थात् कुल ४० वर्षों तक शासन किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के ४० वर्षीय दीर्घकालीन शासन में गुप्तवंश ने राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से अभूतपूर्व प्रगति किया तथा उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा। वस्तुतः चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन काल गुप्त राजवंश ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारतीय इतिहास के सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है।
वैवाहिक सम्बन्ध या वैवाहिक राजनय
गुप्तों की वैदेशिक नीति में वैवाहिक सम्बन्धों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी से विवाह कर सार्वभौम पद प्राप्त किया था तथा समुद्रगुप्त ने भी शक-कुषाण कन्याओं का उपहार पाया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय भी अपने पिता और पितामह के ही समान एक कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था। अतः वैवाहिक राजनय (marital diplomacy) का पालन करते हुए सर्वप्रथम वैवाहिक सम्वन्धों द्वारा अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ किया। इस उद्देश्य से उसने अपने समय के तीन प्रमुख राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये—
- एक, नागवंश
- द्वितीय, वाकाटक वंश
- तृतीय, कदम्ब वंश

नागवंश
नाग लोग प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से थे। प्रयाग प्रशस्ति में कई नाग राजवंशों का उल्लेख मिलता है जो मथुरा, अहिच्छत्र, पद्मावती आदि में शासन करते थे। यद्यपि समुद्रगुप्त ने कई नाग राजाओं को जीता था तथापि अब भी वे शक्तिशाली थे।
उनका सहयोग प्राप्त करने के लिये चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी ‘कुबेरनागा’ के साथ अपना विवाह किया। कुबेरनागा से चन्द्रगुप्त द्वितीय को एक कन्या ‘प्रभावतीगुप्ता’ प्राप्त हुई।
पूना ताम्रपत्र में प्रभावतीगुप्ता ने अपनी माता को ‘नागकुलसंभूता’ (नागकुल में उत्पन्न) कहा है। प्रभावतीगुप्ता भारतीय इतिहास की उन प्रसिद्ध नारी शक्तियों में है जिसने गुप्त और वाकाटक राजवंश के सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हुए भारतीय इतिहास को नयी दशा और दिशा दी।
नागवंश में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त ने उसका समर्थन प्राप्त कर लिया तथा यह गुप्तों की नवस्थापित चक्रवर्ती स्थिति के दृढ़ीकरण में बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ।२
“A marriage alliance with them might have been of great use to Chandragupta in consolidating the newly established imperial position of the Guptas.” २
—The Vakataka-Gupta Age, p. 156
यू० एन० राय का अनुमान है कि यह वैवाहिक सम्बन्ध (नाग न गुप्त) वस्तुतः समुद्रगुप्त के काल में ही स्थापित हुआ होगा तथा प्रभावतीगुप्ता का जन्म भी उसी के समय हुआ होगा। चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के समय प्रभावतीगुप्ता वयस्क हो चुकी थी। तभी तो उसने वाकाटकों का सहयोग लेने के लिये अपने राज्यारोहण के उपरान्त उसका विवाह रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया था। यह मत तर्कसंगत प्रतीत होता है।
- विस्तृत विवरण के लिए देखें— नागवंश
वाकाटक वंश
वाकाटक लोग आधुनिक महाराष्ट्र प्रान्त में शासन करते थे। उनकी गणना दक्षिण की प्रतिष्ठित शक्तियों में की जाती थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय को गुजरात और काठियावाड़ के शकराज को पराभूत करना था और इस कार्य के लिये वाकाटकों का सहयोग आवश्यक था।
जैसा कि इतिहासकार वी० ए० स्मिथ३ ने संकेत किया है ‘वाकाटक महाराज एक ऐसी महत्त्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति में था कि वह उत्तर भारत से शकों के गुजरात तथा सौराष्ट्र के राज्य पर आक्रमण करने वाले किसी भी शासक को बहुत बड़ा लाभ अथवा हानि पहुँचा सकता था।
“The Vakataka King occupied such an important geographical position in which he could be of much service or disservice to the Northern invader of the dominions of the Saka Kshatrapas of Gujarat and Saurashtra.” ३
—Journal of Royal Asiatic Society, 1914, p. 324
अतः वाकाटकों का सहयोग प्राप्त करने के लिये चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया।
विवाह के कुछ ही समय बाद रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गयी तथा प्रभावतीगुप्ता वाकाटक राज्य की संरक्षिका बनी क्योंकि उसके दोनों पुत्र दिवाकरसेन तथा दामोदरसेन अवयस्क थे।
प्रभावतीगुप्ता के संरक्षणकाल में वाकाटक लोग पूरी तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय के प्रभाव में आ गये। उसी के शासन काल में चन्द्रगुप्त ने गुजरात और काठियावाड़ की विजय की तथा विधवा रानी ने अपने पिता को सभी सम्भव सहायता प्रदान किया।४
“It was during the regency of Prabhavatigupta that the Gupta conquest of Gujarat and Kathiawar was accomplished and the dowager queen afforded all possible assistance to her illustrious father.” ४
—The Vakataka-Gupta Age, p. 104
वाकाटकों तथा गुप्तों की सम्मिलित शक्ति ने शकों का उन्मूलन कर डाला।
कदम्ब राजवंश
कदम्ब राजवंश के लोग कुन्तल (कर्नाटक) में शासन शासन करते थे। ‘तालगुण्ड अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि इस वंश के शासक काकुत्सवर्मन् ने अपनी एक पुत्री का विवाह किसी गुप्त राजकुमार से किया था।५
“गुप्तादिपार्थिव-कुलाम्बुरुहस्थलानि,
स्नेहादर-प्रणय सम्भ्रम केसराणि।
श्रीमन्त्यनेक-नृपषट्पदसेवितानि,
योऽबोधयदुहितृ-दीधितिभिर्नृपार्कः॥” ५
—तालगुण्ड अभिलेख
वह (काकुत्सवर्मन्) चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन राजा था। अनुमान किया जाता है कि चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ था।
भोज कृत शृंगारप्रकाश तथा क्षेमेन्द्र कृत ‘औचित्यविचारचर्चा’ से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कालिदास को अपना दूत बनाकर कुन्तल नरेश के दरबार में भेजा था। कालिदास ने वापस आकर अपने सम्राट को सूचित किया था कि कुन्तल नरेश ने अपने शासन का भार चन्द्रगुप्त के ऊपर ही डालकर भोग-विलास में लिप्त है। इस वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त की ख्याति सुदूर दक्षिण में फैल गयी।
विजयें
वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उदयगिरि गुहाभिलेख के शब्दों में “सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना” (कृत्स्नपृथ्वीजय)६ था।
“कृत्स्न-पृथ्वी-जयार्त्येन राज्ञैवेह सहागतः [ । ] भक्त्या भवतश्शम्भोगुहामेतामकारयत् [ ॥ ]” ६
—पंक्ति संख्या, ५; उदयगिरि गुहा अभिलेख
शकों का उन्मूलन
वह अपने पिता समुद्रगुप्त के ही समान एक कुशल योद्धा था। अपनी विजय की प्रक्रिया में उसने पश्चिमी भारत के शकों की शक्ति का उन्मूलन किया। शक उन दिनों पश्चिमी मालवा और वर्तमान गुजरात का काठियावाड़ व कच्छ का रन पर शासन करते थे।
यद्यपि उन्होंने समुद्रगुप्त की प्रचंड शक्ति के समक्ष अधीनता स्वीकार कर ली थी, तथापि उनका उन्मूलन नहीं किया जा सका था और वे अब भी पर्याप्त शक्तिशाली थे। शक कभी भी संकट उत्पन्न कर सकते थे और ऐसा वे रामगुप्त के समय में कर भी चुके थे। रामगुप्त के शासनकाल में शकों ने गुप्त-साम्राज्य के लिये संकट खड़ा कर दिया था और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उनके शासक की हत्या कर अपने साम्राज्य की रक्षा की थी। राजा होने के बाद चन्द्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उन्मूलित करने के लिये एक व्यापक योजना के अन्तर्गत सैन्य अभियान किया।
- विस्तृत विवरण के लिए देखें— रामगुप्त
पूर्वी मालवा के क्षेत्र से चन्द्रगुप्त द्वितीय के तीन अभिलेख मिलते हैं—
इन तीन अभिलेखों से परोक्ष रूप से शक-विजय की सूचना मिलती है।
भिलसा के समीप उदयगिरि पहाड़ी की गुहा से चन्द्रगुप्त द्वितीय के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिन्हें सुविधा के लिए प्रथम और द्वितीय कहा गया है—
- प्रथम में चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामन्त ‘सनकानिक महाराज’ द्वारा गुहादान का विवरण मिलता है।
- दूसरे (तिथि-विहीन) में चन्द्रगुप्त द्वितीय का अपने सान्धिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव के साथ उदयगिरि में आगमन और वीरसेन द्वारा यहाँ एक शैव गुहा के निर्माण का विवरण सुरक्षित है। इससे ज्ञात होता है कि वह “सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने की इच्छा से राजा के साथ इस स्थान पर आया था।”७
“कृत्स्न-पृथ्वी-जयार्त्येन राज्ञैवेह सहागतः [ । ]” ७
- तीसरा साँची का लेख है जिसमें उसके आर्म्रकार्दव नामक सैनिक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो सैकड़ों युद्धों का विजेता था।
इन तीनों अभिलेखों के सम्मिलित साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि चन्द्रगुप्त पूर्वी मालवा में अपने सामन्तों एवं उच्च सैनिक अधिकारियों के साथ अभियान पर गया था। इस अभियान का उद्देश्य निश्चय ही पूर्वी मालवा के ठीक पश्चिम में स्थित शक-राज्य को जीतना था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का शक प्रतिद्वन्द्वी रुद्रसिंह तृतीय था। वह मार डाला गया तथा उसका गुजरात और काठियावाड़ का राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक-मुद्राओं के ही अनुकरण पर रजत-सिक्के उत्कीर्ण करवाये जिन्हें शक राज्य में प्रचलित करवाया गया। यहाँ से रुद्रसिंह तृतीय के कुछ चाँदी के सिक्के ऐसे मिलते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। इन सिक्कों के प्रमाण से भी शक राज्य पर उसका आधिपत्य प्रमाणित होता है।
चन्द्रगुप्त के “व्याघ्र शैली” या “सिंह-विक्रम” प्रकार के सिक्के भी गुजरात और काठियावाड़ की विजय के प्रमाण हैं क्योंकि भारत के इसी भाग में सिंह अधिक पाये जाते थे।
यह शक-विजय सम्भवतः पाँचवीं शती के प्रथम दशक में की गयी थी। यह निश्चित रूप से एक महान् सफलता थी। इसके साथ ही तीन शताब्दियों से भी अधिक समय के शासन के पश्चात् पश्चिमी क्षत्रपों के वंश का अन्त हुआ तथा पश्चिमी भारत से विदेशी आधिपत्य की समाप्ति हुई।
इस विजय ने चन्द्रगुप्त की ख्याति को चतुर्दिक् फैला दिया। भारतीय अनुश्रुतियाँ उसे ‘शकारि’ के रूप में स्मरण करती हैं तथा इसी विजय की चर्चा अनेक साहित्यिक ग्रन्थों में हुई है। सम्भवतः अपनी इसी उपलब्धि के बाद उसने “विक्रमादित्य” की उपाधि ग्रहण की थी।
शक राज्य के गुप्त साम्राज्य में मिल जाने से उसका विस्तार पश्चिम में अरब सागर तक हो गया।
आर्थिक दृष्टि से भी इस विजय ने गुप्त साम्राज्य की समृद्धि में योगदान दिया। इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी समुद्रतट के प्रसिद्ध बन्दरगाह भृगुकच्छ (भरूच या भड़ौंच) के ऊपर उसका नियन्त्रण हो गया। इसके माध्यम से पाश्चात्य विश्व के साथ साम्राज्य का व्यापार-वाणिज्य घनिष्ठ रूप से होने लगा जो देश की आर्थिक प्रगति में सहायक बना।
- विस्तृत विवरण के लिए देखें— प्राचीन बंदरगाह
पश्चिमोत्तर के गणराज्यों का उन्मूलन
प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में ९ गणराज्यों८ का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने समुद्रगुप्त की प्रचण्ड शक्ति के समक्ष नतमस्तक होकर गुप्त साम्राज्य की सम्प्रभुता स्वीकार करनी पड़ी थी। अर्थात् ये दस गणराज्य गुप्त शासकों के अप्रत्यक्ष शासन में थे। ये ९ गणराज्य सामान्यतया पश्चिमोत्तर (राजस्थान, हरियाणा, पंजाब इत्यादि) में स्थित थे।
“मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन-” ८
—२२वीं पंक्ति, प्रयाग प्रशस्ति
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक व्यापक सैन्य अभियान चलाकर इन गणराज्यों का जड़ से उन्मूलन करके गुप्त साम्राज्य में समाहित कर लिया।
वंग से वाह्लीक तक अभियान
मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के अनुसार— “बंगदेश में संघटित रूप से अपने विरुद्ध आये हुए शत्रुओं को अपने वक्ष द्वारा पीछे की ओर ढकेलते समय तलवार द्वारा जिसकी भुजा पर कीर्ति अंकित हुई है” और “जिसने सिन्धु के सात मुखों को पार कर (युद्ध में) वाह्लीकों को जीता।” ९
“यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रून्समेत्यागतान्वंगेष्वाव-वर्त्तिनो(ऽ) भिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिर्भुजे [ । ]
तीर्त्वा सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोर्ज्जिता वाह्लिका” ९
इस वाह्लीक की पहचान को लेकर विवाद है। इस सम्बन्ध में दो विचार हैं— एक, आधुनिक बल्ख या बैक्ट्रिया (अफगानिस्तान) और द्वितीय, वर्तमान पंजाब में स्थित (रामायण के अनुसार)।
इस अभियान में किदार-कुषाणों का उन्मूलन हो गया।
मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख
दिल्ली में मेहरौली नामक स्थान से यह लौह स्तम्भ प्राप्त हुआ है। इसी के समीप जो कुतुबमीनार स्थित है। इसमें ‘चन्द्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन तीन श्लोकों (छः पंक्ति) के अन्तर्गत किया गया है जिसका सारांश इस प्रकार है—
“बंगदेश में संघटित रूप से अपने विरुद्ध आये हुए शत्रुओं को अपने वक्ष द्वारा पीछे की ओर ढकेलते समय तलवार द्वारा जिसकी भुजा पर कीर्ति अंकित हुई है। जिसने सिन्धु के सात मुखों को पार कर [ युद्ध में ] बाह्लीकों को जीता; जिसके शौर्यानिल से दक्षिणी समुद्र अब तक सुवासित है।”१०
“यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रून्समेत्यागतान्वंगेष्वाव-वर्त्तिनो(ऽ) भिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिर्भुजे [ । ]
तीर्त्वा सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोर्ज्जिता वाह्लिका यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्व्वीर्य्यानिलैर्द्दक्षिणः [ ॥ ]” १०
—पंक्ति संख्या १, २; श्लोक संख्या १; मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख
अभिलेख के अनुसार जिस समय यह लिखा गया वह राजा मर चुका था, किन्तु उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी। उसने अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक शासन किया।११
“प्राप्तेन स्व-भुजार्ज्जितंच सुचिरंचैकाधिराज्यं क्षितो।” ११
—पंक्ति संख्या ५; श्लोक संख्या ३; मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख
शुद्ध हृदय वाले राजा ने विष्णु भगवान में श्रद्धा प्रकट कर विष्णुपद नामक पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना की।१२
“तेनायं प्रणिधाय भूमि-पतिना भावेन विर्ष्णो मतिं प्रान्शुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णोर्ध्वजः स्थापितः [ ॥ ]” १२
—पंक्ति संख्या ६; श्लोक संख्या ३; मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख
मेहरौली लौह स्तम्भ लेख के सम्बन्ध में निम्न समस्याएँ हैं—
- इसमें कोई तिथि अंकित नहीं है।
- राजा का पूरा नाम नहीं मिलता है।
- इसमें राजा की कोई वंशावली नहीं दी गयी है।
फलस्वरूप इस राजा के समीकरण के प्रश्न पर विद्वानों में गहरा मतभेद रहा है। प्राचीन भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य से लेकर चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य तक ‘चन्द्र’ नामधारी जितने भी शासक हुये हैं उन सबके साथ मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के चन्द्र का समीकरण स्थापित करने का विद्वानों ने अलग-अलग प्रयास किया है।
हरिश्चन्द्र सेठ१३ ने ‘चन्द्र’ की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य से किया है।
- Indian Antiquary, Vol. 2, p. 625-633 १३
परन्तु हरिश्चन्द्र सेठ का यह मत अस्वीकार्य है, क्योंकि—
- इस लेख का अंकन ‘चन्द्र’ की मृत्यु के बाद किया गया था जिसका काव्यात्मक विवरण अभिलेख में ही है। अभिलेखानुसार ‘चन्द्र’ वैष्णव मतानुयायी थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल के अन्त में जैन धर्म अपना लिया था। इस तरह चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्मावलम्बी थे न कि वैष्णव मतानुयायी।
- इस लेख की लिपि भी गुप्तकाल की है।
रायचौधरी ने इस राजा की पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक ‘चन्द्रांश’ से किया है किन्तु चन्द्रांश कोई इतना प्रतापी राजा नहीं था जो मेहरौली के चन्द्र की उपलब्धियों का श्रेय प्राप्त कर सके।
हर प्रसाद शास्त्री१४ ने इस राजा को सुसुनिया (प० बंगाल) के लेख का ‘चन्द्रवर्मा’ बताया है किन्तु यह समीकरण भी मान्य नहीं है क्योंकि चन्द्रवर्मा एक अत्यन्त साधारण राजा था जिसे समुद्रगुप्त ने बड़ी आसानी से उन्मूलित कर दिया था।
- Indian Antiquary, Vol. 42, p. 217-219१४
रमेशचन्द्र मजूमदार के मतानुसार मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख का ‘चन्द्र’ कुषाण नरेश ‘कनिष्क’ के साथ समीकृत किया जाना चाहिए क्योंकि उसी का बल्ख पर अधिकार था तथा ‘खोतानी पाण्डुलिपि’ में उसे ‘चन्द्र कनिष्क’ कहा गया है। परन्तु इस सम्बन्ध में दो आपत्तियाँ हैं—
- हम जानते हैं कि कनिष्क बौद्ध मतानुयायी थे।
- कनिष्क के राज्य का विस्तार दक्षिण में नहीं था।
अतः रमेशचन्द्र मजूमदार का यह मत मान्य नहीं हो सकता।
इसी प्रकार फ्लीट, आयंगर, बसाक जैसे कुछ विद्वानों ने ‘चन्द्र’ को ‘चन्द्रगुप्त प्रथम’ बताया है। किन्तु यह भी असंगत है क्योंकि चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्य विस्तार अत्यन्त संकुचित था। पुनश्च बंगाल अथवा दक्षिण की ओर उसका कोई प्रभाव नहीं था।
कुछ विद्वानों ने ‘चन्द्र’ की पहचान ‘समुद्रगुप्त’ से कर डाली है।१५ परन्तु समुद्रगुप्त के साथ पहचान के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति तो यही है कि इस लेख में अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं मिलता जबकि यह मरणोत्तर है। पुनश्च समुद्रगुप्त का एक नाम ‘चन्द्र’ रहा हो, इसका भी कोई स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।
- A History of Imperial Guptas – S. R. Goyal; p. 201-208१५
इस तरह ये सभी समीकरण एक न एक दृष्टि से असंगत एवं दोषपूर्ण प्रतीत होते हैं। इस विषय में उपलब्ध सभी प्रमाणों का अवलोकन करने के पश्चात् मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के चन्द्र का समीकरण चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के साथ करना सर्वाधिक तर्कसंगत एवं सन्तोषजनक प्रतीत होता है।
‘चन्द्र’ और चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’
मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख की पंक्तियों का ध्यानपूर्वक अनुशीलन करने के पश्चात् हमें ‘चन्द्र’ नामक शासक की निम्नलिखित उपलब्धियों का पता चलता है—
- बंगाल के युद्ध क्षेत्र में ‘चन्द्र’ ने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था।
- सिन्धु के सातों मुखों को पार करके ‘चन्द्र’ ने बाह्लीकों को जीता था।
- दक्षिण भारत में ‘चन्द्र’ की ख्याति फैली हुई थी।
- ‘चन्द्र’ भगवान विष्णु के परम भक्त (परमभागवत) थे।
अब यदि हम उपर्युक्त विशेषताओं को चन्द्रगुप्त द्वितीय के पक्ष में लागू करें तो वे सर्वथा तर्कसंगत प्रतीत होती हैं।
आइए इसका क्रमशः विश्लेषण करते हैं—
बंगाल विजय
समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसने ‘चन्द्रवर्मा’ को हराकर बंगाल का पश्चिमी भाग जीत लिया था। समुद्रगुप्त द्वारा विजित इस स्थान की पहचान मोटे तौर पर वर्तमान बांकुड़ा जनपद के आसपास के क्षेत्र से की जाती है।
कुमारगुप्त प्रथम के लेखों से ज्ञात होता है कि उत्तरी बंगाल पर भी उसका अधिकार था और यहाँ पुण्ड्रवर्धन गुप्तों का एक प्रान्त (भुक्ति) था। हमें यह भी ज्ञात है कि स्वयं कुमारगुप्त प्रथम ने कोई विजय नहीं की थी।
ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि उत्तरी बंगाल का क्षेत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही जीतकर गुप्त साम्राज्य में मिलाया था।
समुद्रगुप्त के समय गुप्तों की पूर्वी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमाओं पर पाँच राज्य थे— समतट, डवाक, कामरूप, कर्तृपुर और नेपाल।
इन्होंने उसकी अधीनता मान ली थी। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘रामगुप्त’ के निर्बल शासन में ये राज्य पुनः स्वतन्त्र हो गये और उन्होंने अपना एक संघ बना लिया। इसी संघ को बंगाल के किसी युद्ध-क्षेत्र में परास्त कर चन्द्रगुप्त ने उत्तरी बंगाल को जीत लिया और इसी घटना का उल्लेख काव्यात्मक ढंग से मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख में किया गया है।
सम्भवतः यह विजय उसके राज्य-काल के अन्त में की गयी थी और यही कारण है कि इसकी पुष्टि किसी अभिलेख अथवा सिक्के से नहीं हो पाती है।
बाह्लीक विजय
जहाँ तक ‘बाह्लीक’ की पहचान का प्रश्न है, इससे तात्पर्य निश्चय ही बल्ख (बैक्ट्रिया) से है। परन्तु यहाँ इससे तात्पर्य बैक्ट्रिया देश से कदापि नहीं है।
भण्डारकर महोदय ने रामायण और महाभारत से प्रमाण प्रस्तुत करते हुये यह सिद्ध कर दिया है कि प्राचीन काल में पंजाब को व्यास नदी के आस-पास का क्षेत्र भी ‘बाह्लीक’ नाम से प्रसिद्ध था।
- रामायण१६ के अनुसार वशिष्ठ ने भरत को बुलाने के लिये कैकय देश को जो दूत-मण्डल भेजा था वह ‘बाह्लीक’ प्रदेश के बीच से होकर गया था। वहाँ पर उसने सुदामन पर्वत, विष्णुपद, विपाशा एवं शाल्मली नदी के भी दर्शन किये थे। स्पष्ट है कि वहाँ पंजाब को व्यास नदी के समीपवर्ती क्षेत्र को ही बाह्लीक कहा गया है।
“अवेक्ष्याञ्जलिपानांश्च ब्राह्मणान्वेदपारगान्।
ययुर्मध्येन वाह्लिकान्सुदामानम् च पर्वतम्॥
विष्णोः पदं प्रेक्षमाणा विपाशां चापि शाल्मलिम्।
नदीर्वापीस्तटाकानि पल्वलानि सरांसि च॥” १६
—श्लोक- १८, १९; सर्ग- ६८; अयोध्याकाण्ड; रामायण
महाभारत में इस क्षेत्र को ‘बाह्लीक’ कहा गया है। टॉलमी ने भी इसे ‘बाहीक’ कहा है जिसका अर्थ है ‘पाँच नदियों की भूमि’।
महाभारत में इस क्षेत्र को ‘बाह्लीक’ कहा गया है। टॉलमी ने भी इसे ‘बाहीक’ कहा है जिसका अर्थ है ‘पाँच नदियों की भूमि’।
प्रश्न यह उठता है कि पंजाब की भूमि को क्यों बाह्लीक कहा गया?
इतिहासकारों के अनुसार इसका प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर कुषाणों का निवास था जो पहले बल्ख पर शासन कर चुके थे तथा फिर पंजाब में आकर बस गये थे। अतः कुषाणों को भी ‘बाह्लीक’ कहा जाने लगा। मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के ‘बाह्लीक’ का तात्पर्य ‘परवर्ती कुषाणों’ (Later Kushumnas) से है जो गुप्तों के समय में पंजाब में शासन करते थे। समुद्रगुप्त को उन्होंने अपना राजा मान लिया था।
रामगुप्त के शासनकाल में शकों के साथ-साथ उन्होंने भी अपने को स्वतन्त्र कर दिया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों का उन्मूलन करने के बाद पंजाब में जाकर कुषाणों को भी परास्त किया और इसी को ‘बाह्लीक-विजय’ की संज्ञा दी गयी है।
सिन्धु के सात मुखों से तात्पर्य उसके मुहाने से है जहाँ उसको सात पृथक-पृथक धारायें थीं सिन्धु के मुहाने से होते हुये ही उसने पंजाब में प्रवेश किया होगा तथा बाह्लीकों (कुषाणों) को परास्त किया होगा।
सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख परोक्ष रूप से चन्द्रगुप्त को शक विजय की भी सूचना देता है। शक क्षत्रप रुद्रदामन ने निचली सिन्धु घाटी (सौवीर) को कुषाणों से जीता था। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि परवर्ती कुषाणों में से किसी ने पुन: इस भाग को शकों से जीता हो। अतः यहाँ गुप्तकाल तक शक सत्ता बनी रही। चूँकि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों के राज्य को जीता, वह स्वाभाविक रूप से सिन्धु के सातों मुखों को पार कर गया। निचली सिन्धु घाटी से ही उसने पंजाब में प्रवेश किया होगा।
दक्षिण समुद्र तक ख्याति
चन्द्रगुप्त द्वितीय की ख्याति दक्षिण भारत में भी पर्याप्त रूप से फैली हुई थी। दक्षिण के वाकाटक एवं कदम्ब कुलों में अपना वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उसने उन्हें अपने प्रभाव क्षेत्र में कर लिया था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की सुपुत्री प्रभावती गुप्ता के शासन काल में तो वाकाटक लोग पूर्णतया गुप्तों के प्रभाव में आ गये थे।
भोज के ग्रन्थ ‘शृंगारप्रकाश’ से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने कालिदास को अपना राजदूत बनाकर कुन्तलनरेश काकुत्सवर्मा की राजसभा में भेजा था। कालिदास ने लौटकर यह सूचना दी कि ‘कुन्तल नरेश’ अपना राज्य-भार आपके (चन्द्रगुप्त) ऊपर सौंपकर मुक्त होकर भोग-विलास में निमग्न हैं।१७
“पिवति मधुसुगन्धीन्याननानि प्रियाणां,
त्वयि विनित भारः कुन्तलानामधीशः।” १७
क्षेमेन्द्र ने कालिदास द्वारा विरचित एक श्लोक का उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि कुन्तल प्रदेश का शासन वस्तुतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ही चलाते थे।१८
“इह निवसति मेरुः शेखरः क्ष्माधारणाम्,
इह विनिहित भारा सागराः सप्तचान्ये।
इह महिपतिभोगस्तम्भ विभ्राज्यमानं,
धरणितलमिहैवस्थानमस्मद्विधानम्।” १८
—औचित्यविचारचर्चा।
इस विवरणों से इतना तो स्पष्ट है ही कि दक्षिण के कुन्तलप्रदेश पर चन्द्रगुप्त का प्रभाव था। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं प्रभावों को ध्यान में रखकर मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के रचयिता ने काव्यात्मक ढंग से यह लिखा है कि ‘चन्द्र के प्रताप के सौरभ से दक्षिण के समुद्र तट आज भी सुवासित हो रहे हैं।’ १९
“यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्व्वीर्य्यानिलैर्द्दक्षिणः” १९
—पंक्ति संख्या २, श्लोक संख्या १; मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख
अन्य विशेषतायें
मेहरौली लौह स्तम्भ लेख की अन्य विशेषतायें भी चन्द्रगुप्त द्वितीय के पक्ष में सही लगती है।
- इसके अनुसार ‘चन्द्र’ ने अपने बाहुबल द्वारा अपना राज्य प्राप्त किया था।
- ‘चन्द्र’ ने चिरकाल तक शासन किया।
- ‘चन्द्र’ भगवान विष्णु का महान् भक्त थे।
हम जानते हैं कि रामगुप्त के समय में किस प्रकार गुप्त साम्राज्य संकटग्रस्त हो गया था। यदि चन्द्रगुप्त ने शकपति की हत्या नहीं की होती तो गुप्त राज्य शकों के अधिकार में चला जाता। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने बाहुबल से ही अपना राज्य प्राप्त किया था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने लगभग ४० वर्षों (३७५ – ४१५ ई०) तक शासन किया और इस प्रकार उनका शासन चिरकालीन रहा।
वे भगवान विष्णु का अनन्य भक्त थे। उनकी सर्वप्रिय उपाधि ‘परमभागवत’ की थी।
निष्कर्ष
इस तरह मेहरौली लौह स्तम्भ लेख के ‘चन्द्र’ की सभी विशेषतायें चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्यक्तित्व एवं चरित्र में देखी जा सकती है। लेख की लिपि भी गुप्तकालीन है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी मृत्यु के बाद कुमारगुप्त प्रथम ने पिता को स्मृति में इस लेख को उत्कीर्ण करवाया था।
लिपि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही इसमें चन्द्रगुप्त के नाम का केवल प्रथमार्ध ‘चन्द्र’ ही प्रयुक्त किया गया है। चन्द्रगुप्त द्वितीय की कुछ मुद्राओं पर भी केवल ‘चन्द्र’ नाम ही प्राप्त है।
अतः मेहरौली लेख को चन्द्रगुप्त द्वितीय का मानने में अब संदेह का कोई स्थान नहीं रह जाता।
अश्वमेध यज्ञ
वाराणसी के दक्षिण-पूर्व में स्थित नगवाँ नामक ग्राम से प्राप्त एक पाषाण निर्मित अश्व पर ‘चन्द्रंगु’ अंकित है। जे० रत्नाकर ने इसकी पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ की है तथा बताया है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था जिसके प्रतीक स्वरूप यह अश्व निर्मित किया गया। परन्तु इस मत का समर्थन किसी अन्य साक्ष्य से नहीं होता। अतः इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते।२०
- Indian Historical Quarterly, p. 719-728 २०
राज्य विस्तार

गुप्त साम्राज्य जिसकी नींव चन्द्रगुप्त प्रथम ने रखी, उसे समुद्रगुप्त ने साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। समुद्रगुप्त का शासनकाल अनवरत विजय अभियानों का काल है। समुद्रगुप्त के साम्राज्य विस्तार की विशेषता यह है कि प्रत्यक्ष शासन से अधिक अप्रत्यक्ष शासन क्षेत्र था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा। समुद्रगुप्त के प्रचंड पराक्रम से भयभीत जिन राज्यों ने अधीनता स्वीकार की थी उन उत्तर भारतीय राज्यों को अब गुप्त साम्राज्य में समाहित करके प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत लाया गया। उदाहरण के लिए शकों का उन्मूलन करके पश्चिमी मालवा, गुजरात और निचली सिन्धु घाटी को गुप्त साम्राज्य में समाहित कर लिया गया। पश्चिमोत्तर के गणतंत्रात्मक राज्यों (मद्रक, यौधेय, अर्जुनायन, मालव इत्यादि) को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया।
मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के अनुसार— वंग (बंगाल) से संघटित होकर आये शत्रु संघ को पराजित किया, बाह्लीक (बल्ख) को जीता, और उसके (चन्द्रगुप्त द्वितीय) शौर्य से दक्षिण समुद्र अब भी (मरणोपरान्त) सुवासित है।
अर्थात् पश्चिमोत्तर में कपिशा तक, पूर्व में समतट, डवाक, कामरूप, उत्तर में नेपाल, दक्षिण में विंध्य पर्वत तक प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत था। वाकाटक और कदम्ब राज्य चन्द्रगुप्त द्वितीय के प्रभाव क्षेत्र में था। जैसा कि हम जानते हैं कि समुद्रगुप्त ने काञ्ची तक सैन्य अभियान किया था और मेहरौली लेख को साथ मिलाकर पढ़ने से यह हम यह मान सकते हैं कि कलिंग, निचली गोदावरी-कृष्णा घाटी और काञ्ची तक का क्षेत्र अप्रत्यक्ष प्रभाव में था। हाँ सुदूर दक्षिण के राज्य (गंग, चोल, चेर और पाण्ड्य) गुप्त साम्राज्य से बाहर थे।
शासन
चन्द्रगुप्त द्वितीय न केवल एक महान् विजेता ही था, बल्कि वह एक योग्य एवं कुशल शासक भी था। गुप्त प्रशासन का निर्माण उसी ने किया। उसका ४० वर्षीय दीर्घकालीन शासन शान्ति, सुव्यवस्था एवं समृद्धि का काल रहा।
प्रशासनिक पद और पदाधिकारी
उसे अनेक योग्य तथा अनुभवी मन्त्रियों की सेवायें प्राप्त थीं। अभिलेखों में प्राप्त नाम अधोलिखित है—
- सनकानीक महाराज
- वीरसेन ‘शाब’
- आम्रकार्दव
- शिखरस्वामी
- गोविन्दगुप्त
सनकानीक महाराज
सनकानीक महाराज का उल्लेख उदयगिरि गुहा अभिलेख में प्राप्त होता है। इसमें यह उल्लिखित है कि वह महाराज छगलग का पौत्र और महाराज विष्णुदास का पुत्र था। सनकानीक महाराज का नाम सोढ़ल भी मिलता है। इसमें सनकानीक महाराज को चन्द्रगुप्त द्वितीय का ‘पादानुध्यात’ कहा गया है। सनकानिक का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति२१ में सीमावर्ती जन-जाति के रूप में हुआ है।
“समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल-कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपतिभिर्म्मालवार्जुनायन-यौधेय-माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक-काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्व्व-कर-दानाज्ञाकरण-प्रणामागमन-” २१
—२२वीं पंक्ति , समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति
सनकानिक महाराज का प्रशासनिक पद स्पष्ट नहीं है। सम्भवतया वह पूर्वी मालवा का प्रांतपति (राज्यपाल) रहा हो।
वीरसेन ‘शाब’
चन्द्रगुप्त द्वितीय का प्रधान सचिव वीरसेन ‘शाब’ था जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहा अभिलेख में मिलता है। इसे इस अभिलेख में सचिव कहा गया है जो “सन्धि-विग्रहिक” पद पर नियुक्त था।
आम्रकार्दव
आम्रकार्दव चन्द्रगुप्त द्वितीय का प्रधान सेनापति था। इसका उल्लेख साँची अभिलेख में मिलता है जहाँ उसे अनेक युद्धों में यश प्राप्त करने वाला कहा गया है।२२
“अनेक-समरावाप्त-विजय-यशस्पताकः” २२
—पंक्ति संख्या ४, साँची अभिलेख
शिखरस्वामी
कुमारगुप्त प्रथम के करमदण्डा अभिलेख से ज्ञात होता है कि शिखरस्वामी उसका एक मन्त्री था।
गोविन्दगुप्त
चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक पुत्र गोविन्दगुप्त ‘तीरभुक्ति’ प्रान्त का राज्यपाल था। बसाढ़ मुद्रालेख में इस प्रान्त का उल्लेख मिलता है।
इनके अतिरिक्त अन्य निपुण प्रशासनिक अधिकारी एवं कर्मचारी भी थे। लेखों तथा मुद्राओं से कुछ प्रशासनिक पदों के नाम इस प्रकार मिलते हैं—
प्रशासनिक पद | विवरण |
उपरिक | यह प्रान्त का राज्यपाल (गवर्नर) होता था। |
कुमारामात्य | यह विशिष्ट प्रकार के प्रशासनिक अधिकारियों का नाम था। इसकी समता हम आधुनिक अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों से कर सकते हैं। उसका कार्यालय (अधिकरण) ‘कुमारामात्याधिकरण’ कहा गया है। |
बलाधिकृत | यह सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी था। उसका कार्यालय ‘बलाधिकरण’ कहा गया है। |
रणभाण्डागाराधिकृत | सैनिक साज-सामानों को सुरक्षित रखने वाली प्रधान अधिकारी होता था। उसका कार्यालय ‘रणभाण्डागाराधिकरण’ (रणभाण्डाराधिकरण) कहा जाता है। |
दण्डपाशिक | यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी था। उसका कार्यालय ‘दण्डपाशाधिकरण’ कहा गया है। |
महादण्डनायक | मुख्य न्यायाधीश की संज्ञा महादण्डनायक थी। |
विनयस्थितिस्थापक | इस पदाधिकारी का कार्य कानून और व्यवस्था की स्थापना करना होता था। |
भटाश्वपति | यह अश्व सेना का नायक था। |
महाप्रतीहार | यह मुख्य दौवारिक या प्रतिहारी (Chamberlain) होता था। अर्थात् राजमहल का सुरक्षा अधिकारी। |
चतुर्दिक शान्ति और सुव्यवस्था
चीनी यात्री फाहियान चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में भारत आया था और उसके शासन की उच्च शब्दों में प्रशंसा करता है। फाहियान लिखता है कि ‘प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी तथा लोग परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते थे। उन्हें न तो अपने मकानों की रजिस्ट्री करानी पड़ती और न ही न्यायालयों में न्यायाधीशों के सामने जाना पड़ता था। वे चाहे जहाँ और जिस स्थान पर जा सकते तथा रह सकते थे। राजा बिना दण्ड के शासन करता था। दण्ड-विधान अत्यन्त मृदु थे तथापि अपराध बहुत कम होते थे। मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। बार-बार राजद्रोह के अपराध में दाहिना हाथ काट लिया जाता था। सड़कों पर आवागमन पूर्णतया सुरक्षित था। राज्य में बहुत कम कर लगते थे। जो लोग राजकीय भूमि पर खेती करते थे उन्हें अपनी उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देना पड़ता था।’
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चतुर्दिक् शान्ति और व्यवस्था व्याप्त थी। यहाँ तक कि एक विदेशी होते हुए फाहियान को भी कहीं किसी प्रकार की असुरक्षा का सामना नहीं करना पड़ा।
प्रतीत होता है कि महाकवि कालिदास ने भी इसी शांति और व्यवस्था की ओर संकेत करते हुये लिखा है— “जिस समय वह राजा शासन कर रहा था, उपवनों में मद पीकर सोती हुई सुन्दरियों के वस्त्रों को वायु तक स्पर्श नहीं कर सकता था, तो फिर उनके आभूषणों को चुराने का साहस कौन कर सकता था?”२३
“यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्ध पथे गतानाम्।
वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम्॥” २३
—रघुवंश ६/७५
धर्म
चन्द्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था जिसने ‘परमभागवत’ की उपाधि धारण की। मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख के अनुसार उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवायी थी। परन्तु वह अन्य धर्मानुयायियों के प्रति पर्याप्त सहिष्णु था।
उसने बिना किसी भेदभाव के अन्य धर्मावलम्बियों को प्रशासन के उच्च पदों पर नियुक्त किया तथा दूसरे धर्मों को दानादि दिया। उदाहरणार्थ—
- उसका सन्धि-विग्रहिक सचिव वीरसेन शाब था जिसने भगवान शिव की पूजा के लिये उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा का निर्माण करवाया था। इसका विवरण हमें उदयगिरि गुहालेख में प्राप्त होता है।२४
- उसका सेनापति आम्रकार्दव बौद्ध था। साँची अभिलेख के अनुसार उसने साँची महाविहार के आर्यसंघ को २५ दीनार और ईश्वरवासक ग्राम दान में दिया था। यह प्रतिदिन पाँच भिक्षुओं को भोजन कराने एवं रत्नगृह में दीपक जलाने के लिये दिया गया था।२५
- इसी प्रकार मथुरा स्तम्भ लेख में आर्य उदिताचार्य नामक एक शैव का उल्लेख मिलता है जिसने अपने पुण्यार्जन के लिये दो शिवलिंगों की स्थापना करवायी थी।२६
- सनकानीक महाराज द्वारा धर्म-दान का विवरण हमें उदयगिरि के गुहा अभिलेख से प्राप्त होता है।२७
“भक्त्या भवतश्शम्भोगुहामेतामकारयत्”२४
—पंक्ति संख्या ५, उदयगिरि गुहालेख
*** *** ***
“राजकुल मूल्य-क्रीतं [ देयधर्म्म ] ईश्वरवासकं पञ्च-मण्डल्यां प्रणिपत्य ददाति पञ्चविंशतिश्च दीनारान् … [ ॥ ]
[ ये ] तस्य सर्व्व-गुण-संपत्तये यावच्चन्द्रादित्यौ तावत्पञ्च भिक्षवो भुंज-
तां र [ त्न ] -गृ [ हे ] [ च ] [ दीप ] को ज्वलतु [ I ] मम चापरार्द्धत्पञ्चैव भिक्षवो भुंजता रत्न-गृहे च दीपक इ [ ति ]”२५
—पंक्ति संख्या ८, ९, १०; साँची अभिलेख
*** *** ***
“आर्य्योदि [ त्ता ]चार्य्ये [ ण ] [ स्व ] – पु [ ण्या ] प्यायन-निमितं
गुरुणां च कीर्त्य [ र्थमुपमितेश्व ] र-कपिलेश्वरौ
गुर्व्वायतने गुरु [ प्रतिमायुत्तौ ] प्रतिष्ठापितो [ । ]”२६
—पंक्ति संख्या ८, ९, १०; मथुरा स्तम्भ लेख
*** *** ***
“सनकानिकस्य महा [ राज ] [ सोढ़ ] – लस्यायं देय-धर्म्मः।”२७
—पंक्ति संख्या २ ; उदयगिरि गुहा अभिलेख
चन्द्रगुप्त द्वितीय विद्या प्रेम
चन्द्रगुप्त द्वितीय युद्ध-क्षेत्र में जितना महान् था, शान्ति काल में उससे कहीं अधिक कर्मठ था। वह स्वयं विद्वान् एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके समय में पाटलिपुत्र एवं उज्जयिनी विद्या के प्रमुख केन्द्र थी।
अनुश्रुति के अनुसार उसके दरबार में नौ विद्वानों की एक मण्डली निवास करती थी जिसे ‘नवरत्न’ कहा गया है। महाकवि कालिदास सम्भवतः इनमें अग्रगण्य थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजसभा को सुशोभित करने वाले नवरत्नों के नाम अधोलिखित हैं—
- कालिदास
- धन्वन्तरि
- क्षपणक
- अमरसिंह
- शंकु
- वेतालभट्ट
- घटकर्पर
- वाराहमिहिर
- वररुचि
इनमें अधिकांश को गुप्तकालीन ही माना जाता है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय का सन्धि-विग्रहिक वीरसेन था। “उसका कुल नाम वीरसेन है। वह पाटलिपुत्र (नगर) का निवासी, कवि, व्याकरण, दर्शन एवं राजनीति आदि विषयों का मर्मज्ञ है॥”२८
“वीरसेनः कुलाख्यया [ । ] शब्दार्त्थ-न्याय-लोकज्ञः कवि पाटलिपुत्रकः [ ॥ ]”२८
—पंक्ति संख्या ४, उदयगिरि गुहालेख
इसी प्रकार उसके अन्य दरबारी भी रहे होंगे।
राजशेखर कृत काव्यमीमांसा में इस बात का उल्लेख मिलता है कि उज्जयिनी में कवियों की परीक्षा लेने के लिये एक विद्वत्परिषद् थी। इस परिषद् ने कालिदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरु, हरिश्चन्द्र, चन्द्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा लिया था। सम्भव है यहाँ चन्द्रगुप्त से तात्पर्य चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य से ही हो।
निष्कर्ष
इस प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता, कुशल शासक, कूटनीतिज्ञ, विद्वान् एवं विद्या का उदार संरक्षक था। उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी तथा उसके काल में गुप्त साम्राज्य की चहुमुखी प्रगति हुई। जिस साम्राज्य को उसके पिता समुद्रगुप्त ने निर्मित किया, वह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पूर्णतया संगठित, सुव्यवस्थित एवं सुशासित होकर उन्नति की पराकाष्ठा पर जा पहुँचा तथा प्राचीन भारत में “स्वर्णयुग” का दावेदार बन गया।
नवरत्न की अवधारणा इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे मध्यकाल में अकबर ने अपनाया और आधुनिक काल में भारत सरकार (नव महारत्न कम्पनियाँ) ने भी अपनाया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय निश्चयतः न केवल गुप्तवंश के अपितु सम्पूर्ण भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में से है। महाकवि कालिदास कृत रघुवंश की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस गुप्त सम्राट के व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन करती हैं—
“भले ही पृथ्वी पर सहस्त्रों राजा हों लेकिन पृथ्वी इसी राजा से राजवन्ती (राजा वाली) कही गयी है, जिस प्रकार की नक्षत्र, तारा एवं ग्रहों के होने पर भी रात्रि केवल चन्द्रमा से ही चाँदनी वाली कही जाती है।”२९
“कामं नृपाः संतु सहस्त्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम्।
नक्षत्र ताराग्रहसङ्कुलापि, ज्योतिष्मती चन्द्रमसैव रात्रिः॥”२९
—रघुवंश, ६/२२
चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्के
अपने पिता के समान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने भी विशाल साम्राज्य के लिए अनेक प्रकार के सिक्कों का प्रचलन करवाया। उसकी कुछ मुद्रायें पूर्णतया मौलिक एवं नवीन थीं। (स्वर्ण) के साथ-साथ उसकी रजत एवं ताम्र मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं।
गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार’ तथा रजत सिक्कों को ‘रुप्यक’ (रूपक) और ताम्र सिक्कों के ‘माषक’ कहा जाता था।

स्वर्ण सिक्के (Gold Coins)
चन्द्रगुप्त द्वितीय के अभी तक ८ प्रकार के स्वर्ण सिक्के प्राप्त हुए हैं—
- धनुर्धारी प्रकार (Archer type)
- ध्वजधारी प्रकार (Standard type)
- छत्रधारी प्रकार (Chhatra type)
- पर्यंक प्रकार (Couch Type)
- पर्यंक स्थित राजा-रानी प्रकार (King-and-Queen-on-Couch Type)
- सिंह-निहन्ता प्रकार (Lion-slayer type)
- अश्वारोही प्रकार (Horse-rider type)
- चक्रविक्रम प्रकार (Chakravikrama type)
कुछ स्वर्ण मुद्राओं का विवरण इस प्रकार है—
धनुर्धारी प्रकार (Archer type)—
- इस प्रकार के सिक्के सबसे अधिक मिलते हैं।
- इनके मुख भाग (observe) पर धनुष-बाण लिये हुये राजा की आकृति, गरुड़ध्वज तथा मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तः’ अंकित है।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर बैठी हुई लक्ष्मी के साथ-साथ राजा की उपाधि ‘श्रीविक्रम’ उत्कीर्ण मिलती है।
छत्रधारी प्रकार (Chhatra type)—
- इसके अन्तर्गत मुख्यतः दो प्रकार के सिक्के सम्मिलित हैं।
- मुख-भाग (observe) पर आहुति डालते हुए राजा खड़ा है। वह अपना बायाँ हाथ तलवार की मुठिया पर रखे हुए है। राजा के पीछे एक बौना (dwarf) नौकर उसके ऊपर छत्र ताने हुए खड़ा है। इस ओर दो प्रकार के लेख मिलते हैं— ‘महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तः’ तथा ‘क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः’ (महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य पृथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है)।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर कमल के ऊपर लक्ष्मी खड़ी हुई है तथा मुद्रालेख ‘विक्रमादित्यः’ उत्कीर्ण है।
पर्यंक प्रकार (Couch Type)—
- इस प्रकार के सिक्के बहुत कम प्राप्त हैं।
- इनके मुख भाग (observe) पर राजा वस्त्र एवं आभूषण धारण किये हुए पर्यंक पर बैठा है। उसके दायें हाथ पर कमल है तथा बायाँ हाथ पर्यंक पर टिका हुआ है। मुद्रालेख (legends) ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य’ तथा पलंग के नीचे ‘रूपाकृति’ उत्कीर्ण है। कुछ सिक्कों के मुख भाग पर उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ भी प्राप्त है। ‘रूपाकृति’ उसके शारीरिक एवं नैतिक गुणों का सूचक है।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर सिंहासन पर बैठी हुई लक्ष्मी का चित्र तथा मुद्रालेख ‘श्रीविक्रमः’ उत्कीर्ण है।
सिंह-निहन्ता प्रकार (Lion-slayer type)—
- इस प्रकार के सिक्कों के मुख भाग (observe) पर सिंह को धनुष-बाण अथवा कृपाण से मारते हुये राजा की आकृति उत्कीर्ण है।
- पृष्ठ भाग (reverse) पर सिंह पर बैठी हुई देवी दुर्गा की आकृति विभिन्न दशाओं में उत्कीर्ण है।
- इस प्रकार के सिक्के कई वर्ग के हैं जिन पर भिन्न-भिन्न मुद्रालेख (legends) मिलते हैं। जैसे— ‘नरेन्द्रचन्द्रः प्रथितरणो रणे जयत्यजय्यो भूवि सिंह-विक्रमः (नरेन्द्र चन्द्र, पृथ्वी का अजेय राजा सिंह विक्रम स्वर्ग को जीतता है)। इसके अतिरिक्त कुछ मुद्राओं पर ‘देवश्री महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तः’ अथवा ‘महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तः’ भी अंकित है।
- इस प्रकार के सिक्कों से अन्य बातों के साथ-साथ उसकी गुजरात और काठियावाड़ के शकों की विजय भी सूचित होती है।
अश्वारोही प्रकार (Horse-rider type)—
- इसके मुख भाग (observe) पर घोड़े पर सवार राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘परमभागवत महाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तः’ अंकित है।
- पृष्ठ भाग (reverse) में बैठी हुई देवी साथ-साथ ‘अजितविक्रमः’ उत्कीर्ण है।
उपर्युक्त सभी प्रकार के सिक्के स्वर्ण के हैं। इनके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त ने चाँदी तथा ताँबे के सिक्के भी चलवाये।
रजत सिक्के (Silver Coins)
सामान्यतः अभी तक यह माना जाता रहा है कि सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही चाँदी के सिक्कों का प्रचलन करवाया था परन्तु अब चन्द्रगुप्त प्रथम का भी एक चाँदी का सिक्का प्राप्त हो चुका है।
रजत सिक्के के मुख भाग (observe) पर आवक्ष (वक्ष तक की) राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग (reverse) पर गरुड़ की आकृति मिलती है। पृष्ठ भाग पर भिन्न-भिन्न मुद्रालेख (legends) मिलते हैं— (१) ‘परमभागवतमहाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तविक्रमादित्य’ तथा (२) ‘श्रीगुप्तकुलस्य महाराजाधिराजश्रीगुप्तविक्रामांकाय’।
ताम्र सिक्के (Copper Coins)
ताँबे के सिक्के भी कई प्रकार के हैं।
इनके मुख भाग (observe) पर ‘श्रीविक्रमः’ अथवा ‘श्रीचन्द्रः’ उत्कीर्ण है।
पृष्ठ भाग (reverse) पर गरुड़ की आकृति के साथ-साथ ‘श्रीचन्द्रगुप्तः’ अथवा ‘चन्द्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है।
फाहियान तथा उसका विवरण
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की एक प्रमुख घटना चीनी यात्री फाहियान के भारत यात्रा है। ३९९ ईस्वी से ४१४ ईस्वी तक उसने भारत के विभिन्न स्थलों का भ्रमण किया। उसके द्वारा लिखा गया यात्रा-वृत्तांत मुख्य रूप से चन्द्रगुप्त द्वितीय कालीन और मोटे-तौर पर गुप्तकालीन भारत की सांस्कृतिक दशा का सुन्दर निरूपण करता है। हालाँकि उसने अपने समकालीन शासक का नामोल्लेख नहीं किया है।
फाहियान का जन्म चीन के ‘वु-यांग’ (Wu-yang) नामक स्थान में हुआ था। बचपन में ही वह भगवान बुद्ध की शिक्षाओं की ओर आकृष्ट हुआ। बड़ा होने पर वह भिक्षु जीवन व्यतीत करने लगा। उसकी आस्था दिनों-दिन भगवान बुद्ध के उपदेशों तथा शिक्षाओं में दृढ़ होती गयी।
बौद्ध ग्रन्थों के गहन अध्ययन तथा भगवान बुद्ध के चरण-चिह्नों से पवित्र हुए स्थानों को देखने की लालसा से फाहियान ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ भारतवर्ष की यात्रा प्रारम्भ की। चंगन (Chang-gan) से चलकर सर्वप्रथम वह शान-शान पहुँचा। यहाँ हीनयान मत के लगभग ४,००० भिक्षु निवास करते थे। यहाँ के साधारण लोग भारतीय धर्म को मानने वाले थे।
चंगन से फाहियान ने करशहर, खोतान तथा काशगर की यात्रा की।
खोतान के प्रसिद्ध ‘गोमती विहार’ में उसने निवास किया। यहाँ महायान सम्प्रदाय के लगभग ३,००० भिक्षु निवास करते थे।
इसके बाद सिन्धु नदी पार कर उसने उद्यान, गन्धार, तक्षशिला, पेशावर आदि स्थानों का भ्रमण किया। पेशावर (पुरुषपुर) में कनिष्क द्वारा बनवायें गये टावर (चैत्य) को उसने देखा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र स्तूपों, विहारों तथा स्मारकों से भरा हुआ था।
यहाँ (पेशावर) से चलकर वह नगरहार पहुँचा। नगरहार की राजधानी में भगवान बुद्ध का ‘दन्त पगोडा’ था।
पहाड़ियाँ पार कर वह अफगानिस्तान देश गया जहाँ उसने हीनयान तथा महायान दोनों सम्प्रदायों के लगभग ३,००० भिक्षु देखे।
यहाँ (अफगानिस्तान) से पूर्व की ओर उसने पुनः सिन्धु नदी पार किया तथा पंजाब राज्य में प्रवेश किया। पंजाब में उसने बहुसंख्यक बौद्ध-विहार देखे।
पंजाब के बाद ‘मध्य देश’ (Middle-Kingdom) की सीमा प्रारम्भ होती थी। मध्यदेश का उसने व्यापक भ्रमण किया।
फाहियान मध्यदेश का वर्णन विस्तारपूर्वक करता है। यह ब्राह्मणों का देश था जहाँ लोग सुखी एवं समृद्ध थे। लोगों को न तो अपने मकानों का पंजीकरण (Registration) कराना पड़ता था और न ही न्यायालयों में दण्डाधिकारियों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था। वे जहाँ चाहे जा सकते तथा रह सकते थे। जो लोग सरकारी भूमि पर खेती करते थे उन्हें उपज का एक भाग राजा को देना पड़ता था। दण्डविधान मृदु थे। राजा बिना मृत्यु दण्ड अथवा शारीरिक यन्त्रणाओं का भय दिलाते हुए ही शासन करता था। अपराधों में आर्थिक दण्ड लगाये जाते थे। बार-बार राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का केवल दायाँ हाथ काट लिया जाता था। इसके वावजूद भी अपराध नहीं होते थे तथा चतुर्दिक् शान्ति एवं सुव्यवस्था का साम्राज्य था। राजकर्मचारी वैतनिक होते थे। सम्पूर्ण देश में लोग न तो किसी जीवित प्राणी की हत्या करते थे और न ही मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग करते थे। केवल चाण्डाल इसके अपवाद थे जो समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे। लोग सुअर अथवा पक्षी नहीं पालते थे तथा पशुओं का व्यापार नहीं करते थे। बाजारों में बूचड़खाने तथा मदिरालय नहीं थे। क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था।३० केवल चाण्डाल ही शिकार करते तथा मछलियाँ बेचते थे। धनपति एवं कुलीन वर्ग के लोग मन्दिर एवं विहार बनवाते तथा उनके निर्वाह के लिये धन दान देते थे। धर्मपरायण परिवार भिक्षुओं को भोजन, वस्त्रादि देने के लिये चन्दे एकत्रित करते थे। मध्यदेश में ब्राह्मण धर्म का ही बोल-बाला था।
“परन्तु फाहियान का यह कथन भ्रामक है। हमें ज्ञात है कि गुप्त युग में स्वर्ण (दीनार), रजत (रूप्यक) एवं ताम्र (माषक) मुद्रायें प्रचलित थीं।”३०
फाहियान ने पवित्र बौद्ध स्थलों की भी यात्रा की। संकिसा तथा श्रावस्ती में उसने अनेक स्मारक तथा भिक्षु देखे। श्रावस्ती स्थित ‘जेतवन विहार’ की वह प्रशंसा करता है। यहाँ कई पुण्यशालायें थीं जहाँ यात्रियों एवं भिक्षुओं को मुफ्त भोजन दिया जाता था। फाहियान ने कपिलवस्तु नगर को उजड़ा हुआ पाया। उसने लुम्बिनी, रामग्राम तथा वैशाली की भी यात्रा की। गंगा नदी पार कर उसने पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटलिपुत्र में फाहियान ने अशोक का राजमहल देखा था। इसकी भव्यता से वह इतना अधिक प्रभावित हुआ कि लिखता है कि इसका निर्माण दैत्यों द्वारा किया गया था। यहाँ हीनयानियों तथा महायानियों के अलग-अलग मठ थे। मगध देश का वर्णन करते हुये फाहियान लिखता है कि मध्य भारत के सभी देशों में यहाँ सर्वाधिक नगर थे। लोग सुखी एवं समृद्ध थे तथा धर्म एवं कर्त्तव्य पालन में परस्पर स्पर्धा रखते थे। धनपतियों ने यहाँ चिकित्सालय वनवाये थे जहाँ रोगियों को मुफ्त भोजन तथा दवायें दी जाती थीं। इसके बाद फाहियान ने राजगृह तथा बोधगया की यात्रा की और अनेक पवित्र स्तूपों एवं ताम्र विहारों के दर्शन किये। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र लौटा तथा वहाँ से चलकर वाराणसी पहुँचा जहाँ उसने सारनाथ स्थित मृगवन (Deer-Forest) तथा दो विहार देखे। इनमें अनेक भिक्षु निवास करते थे। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र वापस लौट गया।
पाटलिपुत्र से फाहियान ने अपनी वापसी यात्रा प्रारम्भ किया। चम्पा होता हुआ वह तामलुक (ताम्रलिप्ति) पहुँचा जहाँ एक बन्दरगाह था। यहाँ २४ विहार थे। तामलुक में दो वर्षों तक रहकर फाहियान ने बौद्ध सूत्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार कीं तथा बौद्ध प्रतिमाओं के चित्र बनाये। तत्पश्चात् लंका तथा पूर्वी द्वीपों से होता हुआ वह स्वदेश लौट गया।
फाहियान ने भारत में रहकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। ये स्थल हैं —
- चंगन, करशहर, खोतान, काशगर (चीन)
- अफगानिस्तान के स्थल
- उद्यान, गन्धार, तक्षशिला, पेशावर (पंजाब)
- संकिसा, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, लुम्बिनी, रामग्राम, वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह, बोधगया, वाराणसी, सारनाथ, चम्पा, तामलुक (मध्य देश)
- लंका तथा पूर्वी द्वीप
वह एक बौद्ध था तथा उसने प्रत्येक वस्तु को बौद्ध की दृष्टि से ही देखा। अपनी पूरी यात्रा-विवरण मे वह कहीं भी सम्राट का नामोल्लेख नहीं करता। चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल रहा परन्तु दुर्भाग्यवश उसने इस धर्म का विस्तृत वर्णन नहीं किया है। फिर भी फाहियान के विवरण से चन्द्रगुप्तकालीन शान्ति, सुव्यवस्था, समृद्धि एवं सहिष्णुता आदि की स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो जाती है।
- विस्तृत विवरण के लिए पढ़ें— The Travels of Fa-Hien; James Legge
सारांश (Conclusion)
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’— ३७५ ई० से ४१५ ई०, लगभग ४० वर्ष शासनकाल
- अन्य नाम— देवराज, देवगुप्त, देवश्री
- उपाधि— परमभागवत, विक्रमादित्य, शकारि
- उद्देश्य— “सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना” (कृत्स्नपृथ्वीजय)
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ का शासनकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल (Golden age) या क्लासिकल काल (Classical age) या पेरीक्लीज काल (Pericles age) कहा जाता है।
- उसके समय में पाटलिपुत्र के अतिरिक्त उज्जयिनी नगर को महत्त्व प्राप्त हुआ और यह गुप्त साम्राज्य की द्वितीय राजधानी के रूप में विकसित हुई।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य का विस्तार वैवाहिक राजनय और विजयों द्वारा किया। उसने अधोलिखित राजवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये—
- नागवंश— यहाँ का राजकुमारी ‘कुबेरनागा’ से चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विवाह किया, जिससे प्रभावती गुप्ता उत्पन्न हुई।
- वाकाटक वंश— यहाँ के शासक रुद्रसेन द्वितीय से चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह किया। यह ‘अनुलोम’ विवाह की श्रेणी में आता है, क्योंकि वाकाटक ब्राह्मण थे और गुप्त क्षत्रिय (?)। इस विवाह के राजनीतिक और आर्थिक कारण थे। राजनीतिक कारण में शकों का उन्मूलन करना और आर्थिक कारणों में पश्चिमी तट के बंदरगाहों तक सीधी पहुँच प्राप्त करना।
- कदम्ब वंश— यहाँ के शासक काकुत्सवर्मन् की पुत्री का विवाह अपने पुत्र से किया। यह पुत्र सम्भवतः कुमारगुप्त प्रथम था। यह ‘प्रतिलोम’ विवाह की श्रेणी में आता है क्योंकि कदम्ब ब्राह्मण थे और गुप्त क्षत्रिय (?)।
विजय अभियान
- दिल्ली के मेहरौली गाँव से एक स्तम्भ लेख प्राप्त हुआ है। मेहरौली लौह स्तम्भ नाम से सुविख्यात है। इस अभिलेख में उल्लिखित ‘चन्द्र’ नामक राजा की पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय से की गया है। इसके अनुसार ‘चन्द्र’ ने वंग से लेकर बाह्लीक तक की विजयों का उल्लेख है। वंग की पहचान बंगाल से और बाह्लीक की पहचान वर्तमान बल्ख या बैक्ट्रिया से की गयी है। बल्ख या बैक्ट्रिया आमू दरिया (Oxus river) के दक्षिण में अफगानिस्तान में स्थित है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक शासक रुद्रसेन तृतीय को हराकर शकों का सम्पूर्ण उन्मूलन कर दिया। मालवा और सौराष्ट्र गुप्त साम्राज्य का अंग बन गया। इसके उपलक्ष्य में व्याघ्र शैली के रजत सिक्के जारी किये गये। इन रजत सिक्कों को रूप्यक (रूपक) और भार ३२.६ ग्रेन है।
नवरत्न
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के उज्जयिनी राजसभा में विभिन्न क्षेत्रों से विद्वान रहते थे, जिन्हें नवरत्न कहा गया है। इन नवरत्नों के नाम हैं— कालिदास, अमरसिंह, धन्वन्तरि, शंकु, बेतालभट्ट, घटकर्पर, वररुचि, क्षपणक और वाराहमिहिर।
सिक्के
- चन्द्रगुप्त ने स्वर्ण, रजत एवं ताम्र मुद्राएँ जारी की। इस काल में स्वर्ण सिक्कों को दीनार तथा रजत सिक्कों को रूप्यक या रूपक तथा ताम्र सिक्कों को माषक कहा जाता था।
- गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के १४४ ग्रेन के तथा चाँदी के सिक्के ३२.३६ ग्रेन के थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की अब तक ८ प्रकार की स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं—
- धनुर्धारी प्रकार (Archer Type)
- ध्वजधारी प्रकार (Standard Type)
- छत्रधारी प्रकार (Chhatra Type)
- पर्यंक प्रकार (Couch Type)
- पर्यंक स्थित राजा-रानी प्रकार (King-and-Queen-on-Couch Type)
- सिंह-निहन्ता प्रकार (Lion-slayer Type)
- अश्वारोही प्रकार (Horse-rider Type)
- चक्रविक्रम प्रकार (Chakravikram Type)
फाहियान या फाह्यान
- समय— ३९९ ई० से ४१४ ई०
- यह एक चीनी यात्री था। यह चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के शासनकाल में आया था।
- फाह्यान के बाल्यकाल का नाम ‘कुंग’ या ‘कुङ’ था।
- चीनी भाषा में ‘फा’ का अर्थ होता है धर्म और ‘हियान’ का अर्थ है आचार्य; अतः फाह्यान नाम से तात्पर्य है— “धर्माचार्य”।
- उसके द्वारा छोड़ा गया भ्रमण-वृतान्त चन्द्रगुप्त कालीन भारत की सांस्कृतिक दशा का सुन्दर निरूपण करता है।
- फाहियान कृत ‘फो-क्वो-की’ (Fo-Kwo-Ki) नाम से उपलब्ध है। इसका James Hegge द्वारा अँग्रेजी में अनुवाद ‘A travel of Buddhist Kingdoms’ नाम से किया गया है।
- यद्यपि उसने समकालीन शासक का नामोल्लेख नहीं किया है, तथापि उसका भ्रमण वृत्तांत तत्कालीन सांस्कृतिक इतिहास का प्रमुख स्रोत है।
फाहियान बौद्ध साहित्यों के संकलन और बौद्ध स्थलों के दर्शन के लिए भारतवर्ष आया था।
“वह पश्चिमी चीन से मध्य एशिया आया और वहाँ से अफगानिस्तान पहुँचा, फिर आगे उत्तरी भारत के विभिन्न स्थलों का भ्रमण करते हुए ताम्रलिप्ति पहुँचा। ताम्रलिप्ति से उसने अपनी वापसी की यात्रा प्रारम्भ की। ताम्रलिप्ति से वह श्रीलंका गया और वहाँ से दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों से होते हुए चीन वापस लौट गया।”
उसका भ्रमण कुछ इस तरह रहा कि—
- चंगन से चलकर सर्वप्रथम वह शानशान पहुँचा। यहाँ हीनयान मत के लगभग ४,००० भिक्षु निवास करते थे। तत्पश्चात् उसने करशहर, खोतान तथा काशगर की यात्रा की।
- खोतान के प्रसिद्ध गोमती बिहार में महायान सम्प्रदाय के लगभग ३,००० भिक्षु निवास करते थे। इसके बाद सिन्धु नदी पार कर उसने उद्यान, गान्धार, तक्षशिला, पेशावर आदि स्थानों का भ्रमण किया। यहाँ से चलकर वह नगरहार पहुँचा। इसके बाद वह अफगानिस्तान गया, जहाँ उसने हीनयान तथा महायान दोनों सम्प्रदायों के लगभग ३,००० भिक्षु देखे। यहाँ से पूर्व की ओर पुनः सिन्धु पार करके वह पंजाब पहुँचा।
- पंजाब के बाद मध्य देश (Middle Kingdom) का व्यापक भ्रमण किया।
इसी मध्य देश का उसने वर्णन किया है। उसके प्रमुख वर्णन निम्नलिखित हैं—
- मध्य देश ब्राह्मणों का देश था, जहाँ लोग सुखी और सम्पन्न थे।
- यहाँ मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था, केवल आर्थिक दण्ड प्रचलित थे। बार-बार राजद्रोह के अपराध में केवल दाहिना हाथ काट लिया जाता था।
- मध्य देश के लोग न तो किसी जीवित प्राणी की हत्या करते थे और न ही माँस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग करते थे। केवल चाण्डाल इसके अपवाद थे तथा समाज से बहिष्कृत थे।
- चाण्डालों का विस्तृत वर्णन करने वाला फाह्यान पहला विदेशी यात्री था।
- मध्य देश के लोग सुअर अथवा पक्षियों को नहीं पालते थे तथा पशुओं का व्यापार भी नहीं करते थे।
- बाजारों में बूचड़खाने तथा मदिरालय नहीं थे।
- मध्य देश के लोग क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग करते थे।
- मध्य देश में ब्राह्मण धर्म का ही बोलबाला था।
फाह्यान ने पवित्र बौद्ध स्थानों की भी यात्रा की—
- संकिसा तथा श्रावस्ती में उसने अनेक स्मारक तथा भिक्षु देखे।
- श्रावस्ती स्थित जेतवन विहार की वह प्रशंसा करता है। यहाँ कई पुण्यशालाएँ थीं जहाँ यात्रियों एवं भिक्षुओं को मुफ्त भोजन दिया जाता था।
- फाह्यान ने कपिलवस्तु तथा वैशाली की भी यात्रा की।
- पाटलिपुत्र में उसने अशोक का राजमहल देखा तथा इससे इतना प्रभावित हुआ कि उसे देवताओं द्वारा निर्मित बताया। यहाँ हीनयानियों तथा महायानियों के अलग-अलग मठ थे।
- पाटलिपुत्र के बाद फाह्यान ने राजगृह तथा बोधगया की यात्रा की। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र लौटा तथा वाराणसी पहुँचा जहाँ उसने सारनाथ स्थित मृगवन तथा दो विहार देखे। यहाँ से पुनः पाटलिपुत्र वापस लौट आया।
पाटलिपुत्र से उसने अपनी वापसी यात्रा प्रारम्भ की। चम्पा होता हुआ वह तामलुक (ताम्रलिप्ति) पहुँचा जहाँ एक बन्दरगाह था। यहाँ २४ विहार थे। तामलुक में दो वर्षों तक रहकर फाह्यान ने बौद्ध सूत्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार की। तत्पश्चात् लंका तथा पूर्वी द्वीपों से होता हुआ वह स्वदेश लौट गया।
FAQ
चन्द्रगुप्त द्वितीय के ‘वैवाहिक राजनय’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(Write a brief note on Chandragupta II’s ‘marital diplomacy’.)
(Write a brief note on Chandragupta II’s ‘marital diplomacy’.)
चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी राजनीतिक स्थिति को मजबूत करने के लिए वैवाहिक संबंधों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया। समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उत्पन्न राजनीतिक संकट को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने विभिन्न शक्तिशाली राजवंशों से वैवाहिक गठबंधन स्थापित किये, जिससे उनके साम्राज्य को स्थायित्व मिला।
उसने तीन राजवंशों में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये—
- नागवंश
- वाकाटक वंश
- कदंब वंश
चंद्रगुप्त द्वितीय ने स्वयं का विवाह नाग-राजकुमारी ‘कुबेरनागा’ से विवाह किया। इससे शक्तिशाली नागवंशियों का सहयोग मिला और उसे सुयोग्य पुत्री ‘प्रभावतीगुप्ता’ प्राप्त हुई।
अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया। जिससे गुप्त और वाकाटक वंश के बीच मजबूत संबंध बने। रुद्रसेन द्वितीय की आकस्मिक मृत्यु के बाद अपने पिता (चंद्रगुप्त द्वितीय) के संरक्षण में प्रभावतीगुप्ता वाकाटक राज्य की संरक्षक शासिका बनी। गुप्त-वाकाटक गँठजोड़ ने मालवा और गुजरात के शकों का समूल उन्मूलन कर डाला।
चंद्रगुप्त द्वितीय ने दक्षिण भारत के कुंतल राज्य के कदंब वंश की कन्या का विवाह अपने पुत्र (सम्भवतः कुमारगुप्त प्रथम) से किया। जिससे दक्षिण भारत में उनका प्रभाव बढ़ा।
इन वैवाहिक गठबंधनों ने ‘राजनीतिक स्थिरता’ और ‘क्षेत्रीय शक्ति संतुलन’ बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। यह स्पष्ट होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का वैवाहिक राजनय केवल पारिवारिक नहीं, बल्कि एक ‘सुनियोजित राजनीतिक रणनीति’ थी, जिसके माध्यम से उन्होंने विभिन्न राजवंशों की मित्रता और सहयोग प्राप्त किया तथा अपने साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित और सुदृढ़ किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के सैन्य अभियानों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(Write a brief note on the military campaigns of Chandragupta II.)
(Write a brief note on the military campaigns of Chandragupta II.)
जैसा कि हमें ज्ञात है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद शकों ने किस प्रकार गुप्त वंश के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया था। चंद्रगुप्त द्वितीय ने इससे निपटने के बाद एक व्यापक योजना बनाकर उसे मूर्त-रूप दिया। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने साम्राज्य-विस्तार और सुदृढ़ता के लिए एक ‘सुनियोजित रणनीति’ का पालन किया। इसके दो हिस्से थे—
- वैवाहिक राजनय और मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध
- व्यापक सैन्य अभियान
वैवाहिक राजनय और मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध
- इस नीति का पालन करते हुए उसने नाग, वाकाटक, और कदंब वंश के शासकों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।
- इससे उसे शक्तिशाली और विश्वसनीय सहयोगी मिल गये।
सैन्य अभियान
- गणराज्यों का उन्मूलन— पश्चिम में बसे हुए जिन गणराज्यों ने समुद्रगुप्त के सामने अधीनता स्वीकार की थी, उनके विरुद्ध चंद्रगुप्त द्वितीय ने पुनः अभियान चलाया। क्योंकि चंद्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् पश्चिम के इन गणराज्यों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। अतः उसने पश्चिम की इन गणतंत्रीय जातियों का उन्मूलन किया।
- शकों का उन्मूलन— गुप्त-वाकाटकों की सम्मिलित सैन्य शक्ति ने शकों का मालवा और गुजरात पर शासन करने वाले शकों का समूल विनाश कर डाला। इसी उपलब्धि के उद्घोषणा-स्वरूप चंद्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य’ और ‘शकारि’ की उपाधि धारण की।
- वंग से वाह्लीक तक विजय— मेहरौली लौह स्तंभ में ‘चंद्र’ नामक शासक की विजयों का उल्लेख है। इस ‘चंद्र’ की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से की गयी है। इस लेख में राजा ‘चंद्र’ के द्वारा सप्तसिन्धु पार कर बाह्लीकों के विरुद्ध और पूर्व में वंग शासकों के विरुद्ध विजय का वर्णन किया गया है। अतः चंद्रगुप्त द्वितीय को गुप्त साम्राज्य पूर्व में बंगाल तक और पश्चिम में बल्ख तक बढ़ाने का श्रेय है।
चंद्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटक, नाग, और कदंब वंश के शासकों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये, जिससे उनके साम्राज्य की राजनीतिक स्थिरता बनी रही। उनकी सैन्य नीति केवल आक्रामकता पर नहीं, बल्कि सामरिक गठबंधनों और सैन्य शक्ति के संतुलित उपयोग पर आधारित थी। चंद्रगुप्त द्वितीय के सैन्य अभियानों ने गुप्त साम्राज्य को भारत का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बनाने में मदद की, जिससे सांस्कृतिक और आर्थिक समृद्धि भी सुनिश्चित हुई।
चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(Write a brief note on the achievements of Chandragupta II.)
(Write a brief note on the achievements of Chandragupta II.)
चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियाँ—
- सेनानायक के रूप में— पश्चिमी गणराज्यों का उन्मूलन, शकों का समूल विनाश, वंग से बाह्लीक तक सैन्याभियान उसके कुशल सेनानायक होने का प्रमाण है।
- सफल रणनीतिज्ञ— किसी भी सैन्याभियान के पूर्व वह व्यापक योजना बनाता था। इसमें मैत्री, वैवाहिक राजनय इत्यादि जैसे दूरदर्शी व स्थायी सम्बन्ध बनाये जाना सम्मिलित थे। उदाहरणार्थ— वाकाटकों से वैवाहिक सम्बन्ध से उसे शकों के उन्मूलन में सहायता मिली।
- साम्राज्य विस्तार— उसका साम्राज्य वंग से बाह्लीक तक विस्तृत था। वाकाटक और कुंतल राज्य उसके प्रभाव क्षेत्र में था। वीर योद्धा और कुशल प्रशासक, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य को सुदृढ़ किया।
- कुशल प्रशासक— गुप्त साम्राज्य के प्रशासन का निर्माण उसी ने किया था। उसके अभिलेखों में हमें अनेक प्रशासकों और प्रशासनिक पदों के नाम मिलते हैं।
- धार्मिक सहिष्णुता— स्वयं वैष्णव होते हुए भी विभिन्न धर्मों के प्रति उदार नीति अपनायी।
- विदेशी यात्रा वर्णन— चीनी यात्री फाहियान ने उनकी धार्मिक नीति और दानशीलता की प्रशंसा की।
- मुद्रा प्रणाली में सुधार— सोने के सिक्कों के साथ-साथ चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों को भी प्रचलित किया। उसके सिक्कों में विविधता पायी जाती है। समुद्रगुप्त के हमें ६ प्रकार के स्वर्ण सिक्के मिलते हैं वहीं चन्द्रगुप्त द्वितीय के ८ प्रकार के स्वर्ण सिक्के प्राप्त होते हैं; जैसे- धर्नुधारी, पर्यंक, पर्यंक स्थित राजा-रानी, सिंह-निहंता, अश्वारोही, चक्रविक्रम, ध्वजधारी, और छत्रधारी प्रकार।
- अश्वमेध यज्ञ का संदिग्ध आयोजन— कुछ लोगों का मत है कि उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करवाया, पर प्रमाण नहीं मिले हैं।
- कला एवं साहित्य प्रेमी— विद्वानों को संरक्षण दिया, उनके राजसभा में नवरत्न, जिनमें महाकवि कालिदास भी शामिल थे।
- आर्थिक समृद्धि— उनके शासनकाल में व्यापार, उद्योग और कला का व्यापक विकास हुआ।
- स्वर्णयुग— चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारतवर्ष संस्कृति और सभ्यता अपने पराकाष्ठा पर जा पहुँची। इसीलिए गुप्तकाल और विशेषकर चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णकाल, क्लासिकल युग (Classical age) और पेरीक्लीज काल (Pericles age) कहा जाता है।
इस प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता, कुशल शासक, कूटनीतिज्ञ, विद्वान् एवं विद्या का उदार संरक्षक था। उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी तथा उसके काल में गुप्त साम्राज्य की बहुमुखी प्रगति हुई। जिस साम्राज्य को उसके पिता समुद्रगुप्त ने निर्मित किया, वह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पूर्णतया संगठित, सुव्यवस्थित एवं सुशासित होकर उन्नति की पराकाष्ठा पर जा पहुँचा तथा प्राचीन भारत में “स्वर्णयुग” का दावेदार बन गया।
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